हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #171 – बाल कथा – घमंडी सियार… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा “घमंडी सियार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 171 ☆

☆ बाल कथा -घमंडी सियार ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

उस ने अपने से तेज़ दौड़ने वाला जानवर नहीं देखा था. चूँकि वह घने वन में रहता था. जहाँ सियार से बड़ा कोई जानवर नहीं रहता था. इस वजह से सेमलू समझता था कि वह सब से तेज़ धावक है.

एक बार की बात है. गब्बरू घोड़ा रास्ता भटक कर काननवन के इस घने जंगल में आ गया. वह तालाब किनारे बैठ कर आराम कर रहा था. सेमलू की निगाहें उस पर पड़ गई. उस ने इस तरह का जानवर पहली बार जंगल में देखा था. वह उस के पास पहुंचा.

“नमस्कार भाई!”

“नमस्कार!” आराम करते हुए गब्बरू ने कहा, “आप यहीं रहते हो?”

“हाँ जी,” सेमलू ने जवाब दिया, “मैं ने आप को पहचाना नहीं?”

“जी. मुझे गब्बरू कहते हैं,” उस ने जवाब दिया, “मैं घोड़ा प्रजाति का जानवर हूँ,” गब्बरू ने सेमलू की जिज्ञासा को ताड़ लिया था. वह समझ गया था कि इस जंगल में घोड़े नहीं रहते हैं. इसलिए सेमलू उस के बारे में जानना चाहता है.

“यहाँ कैसे आए हो?”

“मैं रास्ता भटक गया हूँ,” गब्बरू बोला.

यह सुन कर सेमलू ने सोचा कि गब्बरू जैसा मोताताज़ा जानवर चलफिर पाता भी होगा या नहीं? इसलिए उस नस अपनी तेज चाल बताते हुए पूछा, “क्या तुम दौड़भाग भी लेते हो?”

“क्यों भाई , यह क्यों पूछ रहे हो?”

“ऐसे ही,” सेमलू अपनी तेज चाल के घमंड में चूर हो कर बोला, “आप का डीलडोल देख कर नहीं लगता है कि आप को दौड़ना आता भी होगा?”

यह सुन कर गब्बरू समझ गया कि सेमलू को अपनी तेज चाल पर घमंड हो गया है इसलिए उस ने जवाब दिया, “भाई!  मुझे तो एक ही चाल आती है. सरपट दौड़ना.”

यह सुन कर सेमलू हंसा, “दौड़ना! और तुम को. आता भी है या नहीं? या यूँ ही फेंक रहे हो?”

गब्बरू कुछ नहीं बोला. सेमलू को लगा कि गब्बरू को दौड़ना नहीं आता है. इसलिए वह घमंड में सर उठा कर बोला, “चलो! दौड़ हो जाए. देख ले कि तुम दौड़ सकते हो कि नहीं?”

“हाँ. मगर, मेरी एक शर्त है,” गब्बरू को जंगल से बाहर निकलना था. इसलिए उस ने शर्त रखी, “हम जंगल से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर दौड़ेंगे.”

“मुझे मंजूर है,” सेमलू ने उद्दंडता से कहा, “चलो! मेरे पीछे आ जाओ,” कहते हुए वह तेज़ी से दौड़ा.

आगेआगे सेमलू दौड़ रहा था पीछेपीछे गब्बरू.

सेमलू पहले सीधा भागा. गब्बरू उस के पीछेपीछे हो लिया. फिर वह तेजी से एक पेड़ के पीछे से घुमा. सीधा हो गया. गब्बरू भी घूम गया. सेमलू फिर सीधा हो कर तिरछा भागा. गब्बरू ने भी वैसा ही किया. अब सेमलू जोर से उछला. गब्बरू सीधा चलता रहा.

“कुछ इस तरह कुलाँचे मारो,” कहते हुए सेमलू उछला. मगर, गब्बरू को कुलाचे मारना नहीं आता था. ओग केवल सेमलू के पीछे सीधा दौड़ता रहा.

“मेरे भाई, मुझे तो एक ही दौड़ आती है. सरपट दौड़,” गब्बरू ने पीछे दौड़ते  हुए कहा तो सेमलू घमंड से इतराते हुए बोला, “यह मेरी लम्बी छलांग देखो. मैं ऐसी कई दौड़ जानता हूँ.” खाते हुए सेमलू ने तेजी से दौड़ लगाईं.

गब्बरू पीछेपीछे सीधा दौड़ता रहा. सेमलू को लगा कि गब्बरू थक गया होगा, “क्या हुआ गब्बरू भाई? थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं भाई, दौड़ते चलो.”

सेमलू फिर दम लगा कर दौड़ा. मगर, वह थक रहा था. उस ने गब्बरू से दोबारा पूछा, “गब्बरू भाई! थक गए हो तो रुक जाए.”

“नहीं. सेमलू भाई. दौड़ते चलो.” गब्बरू अपनी मस्ती में दौड़े चले आ रहा था.

सेमलू दौड़तेदौड़ते थक गया था. उसे चक्कर आने लगे थे. मगर, घमंड के कारण, वह अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहता था. इसलिए दम साधे दौड़ता रहा. मगर, वह कब तक दौड़ता. चक्कर खा कर गिर पड़ा.

“अरे भाई! यह कौनसी दौड़ हैं?” गब्बरू ने रुकते हुए पूछा.

सेमलू की जान पर बन आई थी. वह घबरा गया था. चिढ कर बोला, “यहाँ मेरी जान निकल रही है. तुम पूछ रहे हो कि यह कौनसी चाल है?” वह बड़ी मुश्किल से बोल पाया था.

“नहीं भाई, तुम कह रहे थे कि मुझे कई तरह की दौड़ आती है. इसलिए मैं समझा कि यह भी कोई दौड़ होगी,” मगर सेमलू कुछ नहीं बोला. उस की सांसे जम कर चल रही थी. होंठ सुख रहे थे. जम कर प्यास लग रही थी.

“भाई! मेरा प्यास से दम निकल रहा है,” सेमलू ने घबरा कर गब्बरू से विनती की, “मुझे पानी पिला दो. या फिर इस जंगल से बाहर के तालाब पर पहुंचा दो. यहाँ रहूँगा तो मर जाऊंगा. मैं हार गया और तुम जीत गए.”

गब्बरू को जंगल से बाहर जाना था. इसलिए उस ने सेमलू को उठा के अपनी पीठ पर बैठा लिया. फिर उस के बताए रास्ते पर सरपट दौड़ाने लगा, कुछ ही देर में वे जंगल के बाहर आ गए.

सेमलू गब्बरू की चाल देख चुका था. वह समझ गया कि गब्बरू लम्बी रेस का घोडा है. यह बहुत तेज व लम्बा दौड़ता है. इस कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि उसे अपनी चाल पर घमंड नहीं करना चाहिए. चाल तो वही काम आती है जो दूसरे के भले के लिए चली जाए. इस मायने में गब्बरू की चाल सब से बढ़िया चाल है.

यदि आज गब्बरू ने उसे पीठ पर बैठा कर तेजी से दौड़ते हुए तालाब तक नहीं पहुँचाया होता तो वह कब का प्यास से मर गया होता. इसलिए तब से सेमलू ने अपनी तेज चाल पर घमंड करना छोड़ दिया. 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 104 – बैंक: दंतकथा: 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  बैंक: दंतकथा: 1

☆ कथा-कहानी # 104 –  बैंक: दंतकथा: 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक: एक दंतकथा:1

बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और  है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.

अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.

ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.

प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.

कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 24 – लाचारी ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – लाचारी।)

☆ लघुकथा – लाचारी श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

क्या हो गया जी आप उस काले कोट वाले को देखकर क्यों घबरा रहे हो?

कुछ नहीं भाग्यवान बस तुम चुप रहना अपना मुंह मत खोलना वह टिकट देखने के लिए इस ट्रेन का टीसी बाबू है।

तभी उसने कहा अंकल जी आप अपना टिकट दिखाइए और आप यहां गेट का पास क्यों बैठे हैं?

बेटा यह टिकट है। बेटे के अपने दोस्त से कहा उसने टिकट हमें दे दिया, ट्रेन छूट रही थी सभी डिब्बों में भीड़ थी ये डिब्बा खाली देखा इसलिए हम यहां पर चढ़ गए और यहां दरवाजे के पास चादर बिछा कर बैठ गए, हमारे पैरों में बहुत दर्द रहता है।

अंकल जी यह टिकट तो स्लीपर क्लास का है यह एसी सेकंड क्लास का डिब्बा है अगले स्टेशन में आप उतरकर उस डिब्बे में बैठ जायेगा। ट्रेन रात के 2:00 बजे पहुंचेगी तब तक आप लोगों को तकलीफ होगी। अभी आप मेरी सीट पर बैठ जाइए।

धन्यवाद बेटा पर हम वहां पर कैसे बैठे जाकर हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है हम पहली बार रेल यात्रा कर रहे हैं।

कोई बात नहीं अंकल जी मैं आपको चलकर बैठा दूंगा।

दूसरा स्टेशन आते ही टीसी बसंत कुमार ने बुजुर्ग दंपति को उनकी सीट पर बैठा दिया और वह बोला – माताजी आपका स्टेशन किशनगढ़ रात में आएगा?

बगल में बैठे यात्री से कहा किशनगढ़ आने पर इन्हें बता देना।

उसने एक कागज पर अपना फोन नंबर लिख कर दिया और बोला यदि आपको अंकल कोई तकलीफ होगी तो मुझे इस नंबर पर फोन कर देना अब मैं चलता हूं।

तभी उस बुजुर्ग महिला कमला ने कहा कि बेटा तुमने हमारी इतनी मदद की है तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद मैं घर से पूरी सब्जी बनाकर लाई हूं थोड़ा सा खाना खा लो और उसे अपने साथ खाना खिलाया ।

बसंत को भी रात भर यह चिंता लगी रहती थी कि बेचारे कैसे अपने बेटे के पास पहुंचेंगे कैसे बच्चे हैं मां-बाप को अकेले आने को बोल देते हैं कैसे बच्चे हैं?

 स्टेशन पर जब गाड़ी रूकी तो वह बुजुर्ग दंपति को रात के 2:00 बजे ढूंढने लगा ।

फिर विचार करने लगा मुझे क्या करना है ?

जब उसके बेटे को चिंता नहीं है लेकिन फिर सोच इंसानियत नाम की तो कोई चीज होती है उसने देखा वह बेचारे अकेले दूर बैठे थे।

अंकल जी कैसे हैं आप उतर गए आपको कोई लेने नहीं आया।

नहीं बेटा कोई नहीं आया थोड़ा सबेरा हो तब कोई गाड़ी पकड़ कर हम जाएं।

आप पता मुझे दिखाइए और वह पता लेकर एक ऑटो वाले के पास जाता है और उन्हें कहता लिए इसमें बैठ जाइए मैं आपको छोड़ देता हूं।

बेटा तुम हमारी इतनी मदद क्यों कर रहे हो हमारे कारण तुम परेशान होंगे कोई बात नहीं अंकल मैं उसी तरफ रहता हूं मेरा घर है। रास्ते में एक जगह उतरना है और बोलना अंकल जी मेरा घर है यदि कोई दिक्कत होगी तो आप आ जाना और ऑटो वाले को कहकर आगे के चौराहे के पास छोड़ देना वही घर है।

वह घर में आराम से सो रहा था तभी अचानक दरवाजा जोर-जोर से खटखट की आवाज हुई।

क्या बात हुई? कौन खटखटा रहा है?

वह उसे बुजुर्ग दंपति को सामान के साथ देखकर दंग रह जाता है क्या वह अंकल जी बेटे का घर नहीं मिला क्या?

लेकिन उसकी शादी हो रही है इसीलिए उसने बुलाया था ?

बहुत सारे अच्छे लोग सूट बूट पहने थे हमें इस हालत में देखकर उसने पहचानने से इंकार किया और चौकीदार से कहकर हमें घर से बाहर निकाल दिया।

बिचारी बुजुर्ग महिला बहुत रोने लगी और वह बोली बेटा हमारे पास तो पैसे भी नहीं है अब हम अपने गांव कैसे पहुंचे अपने बेटा के लिए यह घी और थोड़ा सा चावल लेकर आए थे अब तुम यह ले लो बस हमारी टिकट कर दो जिससे हम गांव तक पहुंच सके। तुम्हें रात से  तकलीफ दे रहे हैं पर क्या करें कुछ दिमाग हमारा काम ही नहीं कर रहा है दोनों कांप रहे थे और रोए जा रहे थे। तभी उसकी पत्नी ने आवाज दिया क्या हो गया कुछ नहीं गांव से चाचा जी आए काम से आए, बस रात में सोएंगे सुबह चले जाएंगे।

उसने उन्हें एक कमरे में ले जाकर कहा आप यहां आराम से रहिए सुबह हम चलेंगे। और उन्हें चाय बना कर दिया साथ में ब्रेड भी दिया अब उनकी आंखों में एक उत्साह दिख रहा था। बुजुर्ग महिला कामना ने कहा बेटा तुम तो देवदूत हो इस जन्म में नहीं लेकिन अगले जन्म में भगवान तुम जैसा ही बेटा हमें दे लोग तो दूसरों से धोखा खाकर सावधान रहते हैं जब अपने ही धोखा दे तो कैसा लगता है आज तो हमारे शरीर में काटो तो खून नहीं। तुमने कृष्ण भगवान की तरह हमें इस संकट से उबारा है।

कोई बात नहीं माताजी आप परेशान न होइए मेरे मां-बाप भी बुजुर्ग हैं और गांव में ही रहते हैं मैं समझ सकता हूं आपकी मनोस्थिति…।

मुझे पता है मैंने बहुत अभाव में पढ़ाई की है और आज इस पद पर पहुंचा हूं। परीक्षा के लिए मैं भी इधर-उधर भटकता था लाचारी क्या चीज है मुझे पता है…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 193 – मृग मरीचिका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है जीवन के कटु सत्य को उकेरती एक संवेदनात्मक एवं विचारणीय लघुकथा मृग मरीचिका”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 193 ☆

🌻मृग मरीचिका🌻

भीषण गर्मी में तपती दोपहरी को लंबी दूरी तय करते समय दूर देखने पर ऐसा लगता है मानो पानी भरा हुआ है।

इसे मृग मरीचिका कहते हैं या यूँ कह लीजिए आँखों का धोखा।

गर्मी में जहाँ चारों तरफ सिर्फ गर्म हवा लू चल रही हो वहाँ पर अचानक जल प्रवाह दिखना आँखों का धोखा होता है। क्षणिक मात्र के लिए ही सही परंतु यह बड़ा सुखद होता है।

अखबार को सीने से लगाए बैठा दीनदयाल मन ही मन आनंदित हो रहा था। जिसमें पूरे परिवार की तस्वीर छपी है।

बुजुर्ग घर परिवार की धरोहर होते हैं। बदलती परिभाषा को अपने लिए बनते मृग मरीचिका को, परंतु उसे आज अच्छा लग रहा था। आँखों का धोखा ही सही। आत्मा को बहुत सुकून पहुंचा रही थी।

दीनदयाल वृद्धावस्था के चलते सभी बातों से लाचार हो चुके थे। धर्मपत्नी भी समय होते-होते साथ छोड़ चली गई थी। आज वह चुपचाप देख रहा था कि उसे बेटे-बहु ने बहुत ही सुंदर-सुंदर बातें करके कुछ अच्छा सा कपड़ा पहनाया। साथ ही बोल रहे थे… कुछ पेपर वाले आएंगे हमारे घर परिवार का फोटो छपेगा।

जैसा बोल रहे हैं ठीक वैसा ही आपको कहना है। कुछ भी ज्यादा नहीं कहना है। अन्यथा वृद्धा आश्रम में पहुंचा दिए जाओगे। बेटे के कहे शब्द कानों में चुभ रहे थे।

बस उसी समय बेटे ने लगभग पेपर खींचते हुए बोला… अच्छा हुआ पिताजी आपने सब बहुत सुंदर बोला और जैसा ही कहा था, वैसा ही किया।

देखिए पेपर में बहुत सुंदर छपा है। सारे दोस्त और परिचित बधाई दे रहे हैं। दीनदयाल ने धीरे से कहा.. भीषण गर्मी में बेटा मृग मरीचिका आँखों को बहुत राहत देती है।

पीछे से बहू ने आवाज लगाई… अब बोलने दीजिए जो बोलना है कौन सुनता है। बस सोसाइटी में अपना नाम हो गया। दीनदयाल चुपचाप अपनी कमीज की बाजू से आँसू पोंछते पानी पीने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – स्त्री – विमर्श – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – स्त्री – विमर्श –।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ — स्त्री – विमर्श — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

संभावी की शादी के दो महीने हुए। ससुराल के वातावरण की उसे आदत पड़ने लगी थी। उसके घर से थोड़ी दूर मनवा नदी बहती थी। वह कपड़े धोने नदी चली जाती थी। एक – दो स्त्रियाँ कपड़े धोते उसे मिल जाती थीं। यह ठौर कोई खास भयावह नहीं था। वह अकेली भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

वह कपड़े लिये नदी पहुँची तो बहुत से लड़के झरने के पास तैर रहे थे। महिलाएँ कपड़े धो रही थीं। संभावी महिलाओं के पास पत्थर पर धोने के लिए कपड़े फैला रही थी कि देखा तैरने वाले लड़कों में से एक लड़का बहता चला आ रहा है। उसके मित्रों को यह पता नहीं था। पता होता तो वे उसे बचाते। लड़का शायद बहुत थक गया था। तैराक के रूप में हाथ – पाँव चला कर अपना बचाव करना उसके लिए शायद असंभव हो गया हो। वह बीच धारा में था। यह मनवा नदी थी जो गहरी थी। बहाव तेज़ था।

दूसरी महिलाओं ने भी लड़के को देखा। वे चीखने लगीं। बस संभावी चुप थी। उसे तैरना आता था। यही उसमें एक मंथन को जन्म दे रहा था। उसने अंदाजा लगा लिया था वह लड़के को बचा सकती है। पर वह औरत थी। लड़का उसकी पकड़ में होता। दोनों शरीर एक दूसरे के स्पर्श में होते। और फिर, वह साड़ी में थी। उसने साड़ी पहने नदी में कभी तैराकी नहीं की।

संभावी जिस गाँव की हुई उसके घर की कुछ ही दूरी में ‘हरैया’ नाम की एक विशाल नदी बहती थी। वह अपनी सहेलियों के साथ उस नदी में तैरती थी। ससुराल में मनवा नदी इतने पास हो कर भी उसने अब तक धारा से अपने हाथ – पाँव नहीं भिड़ाये। स्त्री की मर्यादा उसे बांधती थी। कपड़े उतारने पड़ते। मर्दों का संकोच उस पर हावी रहता।

पर अभी के लिए बात दूसरी हुई। एक लड़के की जान संकट में थी। संभावी ने साड़ी झट से उतारी और धारा में कूद गयी। उसने तैराकी की अपनी कुशलता से लड़के को बचा लिया। अब तक लड़के के मित्र दौड़े आ गए थे। संभावी के लिए मानो अग्नि परीक्षा की घड़ी आई। ऐसा नहीं कि वह नंगी थी। उसने लड़के को उसके मित्रों के हवाले किया और यथाशीघ्र पास में पड़ी हुई अपनी साड़ी में अपने को कैद करने लगी।

लड़के को होश में लाया गया। संभावी का जयकार होने लगा। कितना भाव प्रवण जयकार था। लड़के को जीवन दान देने का श्रेय बटोरते संभावी थक जाती तो भी उसे श्रेय देने वालों का भंडार खाली नहीं होता। पूरे गाँव में इस बात की धूम मच गयी एक औरत ने आज कितना बड़ा काम किया है। मनवा नदी की धारा और उसकी गहराई जानने वालों के लिए संभावी एक विशिष्ट औरत हो गयी।

उसका पति बसीस रास्ते की ओर गया तो लोगों ने उसे कंधों पर उठा लिया। लड़कों ने उसका जयकार किया। पुराना युग होता तो देवता आकाश से फूलों की वर्षा कर रहे होते। यह तो बाहरी माहात्म्य हुआ। रही बात घर की, यहाँ बसीस के लिए जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। उसकी माँ अपनी बहू की वाह वाही कर रही थी और वह था कि एक क्रोध सा अपने मन में थोपे ऐसा जता रहा था इस तरह के सिनेमा के लिए उसके घर में स्थान हो नहीं सकता। उसने न कभी सुना न देखा घर की औरत कपड़ा खोल कर नदी में हड़ाक से कूदती है और मरने वाले को अपनी बाहों में फँसाये तट से आ लगती है।

संभावी के नाम गाँव में उत्सव रखे जाने की बात हो रही थी। डूबते हुए लड़के के माँ – बाप संभावी के पास पूजा भाव से आने वाले थे। लोगों के कंधों पर जयकारा का आनन्द लूटने वाला पति बसीस सोच रहा था जिसके नाम से इतना सम्मान पा रहा हूँ क्या अपनी ओर से उसे इतना सम्मान देने के लिए मेरे भीतर आत्मीय स्फुरण पैदा होना नहीं चाहिए था?

***

© श्री रामदेव धुरंधर

18 – 05 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – प्रेम ? ?

– कितने साल बाद मिले उससे?

– यही कोई 35-36 साल बाद।

– क्या बात हुई?

– कुछ ख़ास नहीं।

– कुछ तो कहा होगा उसने।

– वही उलाहने, वही शिकायतें। मुझसे शिकवा, गिला। जिस वज़ह से हमारी राहें ज़ुदा हुई थीं, वे सारी वज़हें अब भी ज्यों की त्यों हैं। रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया उसकी सोच में।

– वह उलाहने देती है, शिकायतें करती है,…मतलब अब भी तुमसे आस है उसे। अब भी वह प्रेम करती है तुम्हें, मरती है तुम पर।…और हाँ, मेरी बात याद रखना, मरते दम तक वह मरती रहेगी तुम पर.!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 23 – दिखावे की दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दिखावे की दुनिया।)

☆ लघुकथा – दिखावे की दुनिया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

बहुत दिन हो गया बंधु तुम्हारी मीठी आवाज नहीं सुनी।

जल्दी बताओ! यार फोन क्यों किया? तुम्हें पता है कि अभी कोचिंग क्लास में जाना है। तुम्हें तो पढ़ाई की चिंता नहीं है?

भाई मेरा जन्मदिन है। मॉल में आज शाम को पार्टी रखी है, सभी दोस्त आ रहे हैं। तुम भी जरूर आना एक दिन नहीं पढ़ोगे मेरे बुद्धि देव तो कुछ नहीं हो जाएगा।

ठीक है भाई आ जाऊंगा पर  पार्टी के खर्च के लिए पैसे कहां से आए? क्योंकि हमारे और तुम्हारे घर की स्थिति तो ऐसी है कि हमारे मां-बाप किसी तरह हमको यहां पढ़ने भेजे हैं  तुमने कैसे मैनेज किया ?

बंधु सुनो चुपचाप शाम को चले आना इसीलिए तुम्हें फोन नहीं करता और जोर से फोन पटक देता है।

राकेश सोचने लगता है कि इसे जरा भी चिंता नहीं है और मैं इसके घर में फोन करके यह बात कह भी नहीं सकता जाने दो मैं शाम को देखता हूं।

अरे !यार यह यहां पर तो  बड़े लोग भी खाना खाने से डरते हैं तुमने यहां कैसे पार्टी अरेंज की?

दोस्त इसके लिए बहुत जुगाड़ करना पड़ता है।

हम गरीब घर के है तो मेरी इज्जत यहां कोई नहीं करेगा धनवान का ही समान सदा होता है।  ये सब मैं मैनेज कर लिया अच्छा अब तुम अपना फोन मुझे दे दो बाकी के दोस्त कहां रह गए पूछना है?

क्यों तेरा फोन कहां गया?

और तेरी घड़ी भी तो नहीं दिख रही है मुझे?

ओ मेरे बुद्धि देव तू सवाल बहुत पूछता है?

कुछ दिनों के लिए और मैं इसे गिरवी रख दिया है अब यह बात किसी को नहीं बताना पार्टी इंजॉय करों। आम खा भाई गुठली गिन कर क्या करेगा?

राजेश गहरी सोच में डूब गया ऐसे दिखावे से क्या मतलब है और उसके मस्तिष्क पर गहरी रेखा आ गई और उसे बहुत घबराहट होने लगी। वहां पर लड़के लड़कियां बड़े आराम से सिगरेट पी रही थी और नशे का आनंद लेकर नाच रहे थे।

केक और लगे बढ़िया काउंटर पिज़्ज़ा, बर्गर और तरह-तरह के फास्ट फूड से भरे थे। वह चकित सब देखता रहा।

उसकी आंखों में आंसू आ गए। कुछ नहीं खाया गया वह चुपचाप वहां से अपने हॉस्टल रूम में आ गया।

वह अपनी पढ़ाई में लग गया लेकिन बार-बार उसके ध्यान में एक सवाल आ रहा था कि जब मैं आशुतोष के घर जाता था तो उसकी दादी हम दोनों को समझती थी कि जितनी चादर है उतना ही पैर पसारना चाहिए। यहां आकर अपने सारे संस्कार कैसे भूल गया?

दिखावे की दुनिया है क्या?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 – मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 3

☆ कथा-कहानी # 103 –  मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

भीषण गर्मी में तपते हुये जब “असहमत” मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन दयाराम के घर पहुंचा तो दयाराम के (घर का)दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर जुगाड़ से बने जर्जर खड़खड़ाते कूलर की ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते हुये इलेक्ट्रीशियन घोर निद्रा में लिप्त था।दयाराम का शौक तो पहलवानी और गुंडागर्दी था पर इससे तो घर गृहस्थी चलती नहीं तो किस्मत ने उसके हाथ में रामपुरी चाकू की जगह बिजली का टेस्टर थमा दिया था।रात देर तक, बारातघर में झालर ठीक करते करते भोर में घर लौटा था और सपने में खुद अपना भी “शाल श्रीफल” से होता सम्मान देख रहा था,तभी जर्जर और बड़ी मुश्किल से ईंटों के दम पर टिके कूलर के गिरने की आवाज ने उसे सपनीले शॉल- श्रीफल से ज़ुदा कर दिया।बाहर असहमत की कर्कश आवाज और दरवाजे पर जोरदार धक्कों ने न केवल उसकी नींद तोड़ दी बल्कि उसका कूलर भी धराशायी कर दिया।प्याज,टमाटर और इलेक्ट्रीशियन के भाव सीजन में उछाल मारते हैं और नखरेबाजी में ये दूल्हे के दोस्तों को भी मात देते हैं।

इस सुनामी से दयाराम पूरी तरह से निर्दयता से भर उठा और कमरे के अंदर के 30 डिग्री से बाहर खुले वातावरण में आने पर 45 डिग्री ने, उसका सामना असहमत से करा दिया जो बाहर तप तप के वैसे ही और गुस्से से भी लाल था।फिर हुई ज़ुबानी जंग इस तरह रही।

दयाराम : अबे दरवाजा क्यों तोड़ रहा था,घंटी नहीं दिखी तुझे।

असहमत :अबे,काम करने के सीजन में गधे बेचकर सोया पड़ा है और ऊपर से मुझे ताव दिखा रहा है।

दयाराम : काम अपनी मरजी से और अपने समय से करता हूँ चिलगोजे।खुद तो कुछ काम धंधा है नहीं, साला मुझे ज्ञान बांट रहा है।चल निकल यहाँ से।

दोनों ही एक दूसरे की तबियत से ‘बेइज्जती’ खराब किये जा रहे थे और तपता मौसम,जले में नमक के छींटे मार रहा था।वाकयुद्ध जारी था और असहमत ने दयाराम पर पहले दिव्यास्त्र का प्रयोग किया।

असहमत : साले ,रुक अभी ,मैं “भाई” को लेकर आता हूँ।

दयाराम : अबे भाई की धमकी किसे देता है,लेकर आ,दोनों की एक साथ ठुकाई करता हूँ।

असहमत : ठीक है, तो भागना नहीं, अभी भाई को लेकर आता हूँ।घर के बाहर ही रहना नहीं तो घर में घुसकर मारूंगा।

दयाराम : अबे बेवकूफ समझा है क्या, इतनी गर्मी में, मैं बाहर खड़ा रहूं और तेरा इंतजार करता रहूँ।तू लेकर आ अपने भाई को और  दरवाजा तोड़ने के बजाय बाहर लगी घंटी बजाना। फिर दोनों का सरकिट फ्यूज़ करता हूँ।

इस वाकयुद्ध को 1-1 पर ड्रा छोड़कर जब असहमत आगे बढ़ा तो उसकी रास्ते में ही अपने तथाकथित “भाई” से मुलाकात हो गई और पूरा किस्सा सुनकर “भाई” भूल गया कि वो किसी प्राइवेट बैंक का करारनामे पर नियुक्त वसूली (भाई) अधिकारी है।ये रेप्यूटेशन का सवाल था तो दोनों दयाराम के घर पर पहुंचे और जैसे ही असहमत ने घंटी बजाई,बिजली के झटके ने उसे पीछे हटा दिया।वसूली भाई की तरफ देखकर,असहमत ने कहा :इसकी घंटी में करेंट है.पहले कटआउट निकालता हूँ, फिर बजाता हूँ।

भाई: अबे, जब लाईट ही नहीं रहेगी तो घंटी कहाँ से बजेगी,दयाराम ने बदमाशी कर दी है।चल दूसरे इलेक्ट्रीशियन के पास चलते हैं।

भीतर दयाराम को सुनाते हुये ,असहमत ने कहा ;अपने आप को साला,थामस अल्वा एडीसन समझता है,तीन टुकड़ों में बांट के अलग अलग फेंक दूंगा।एक तरफ थामस जायेगा तो दूसरी तरफ अल्वा और तीसरी दिशा में एडीसन।

और अपने जुगाड़ से बने कूलर को ठीक करते हुए इलेक्ट्रीशियन दयाराम ये नहीं समझ पा रहा था कि जाते जाते आखिर क्यों, असहमत उसे ये “थामस अल्वा एडीसन” नाम की अनजान डिग्री से सम्मानित कर गया।

— समाप्त —

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 – सुलोचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “सुलोचना ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 ☆

🌻 लघुकथा – सुलोचना 🌻

यही नाम था उस मासूम सी बिटिया का। माता-पिता की इकलौती संतान और सभी की दुलारी। मोहल्ले पड़ोस में सभी की आँखों का तारा। सुंदर नाक नक्श, रंग साँवला, पर नयन बला की सुन्दरता लिए पानीदार जैसे अभी बोल पड़े।

सुलोचना से सल्लों बनते देर नहीं लगी। समय और आज की दौर में छोटे-छोटे नामों का चलन।

बस सल्लों अपने आप में मस्त। सल्लों की बातें और समझदारी सभी को अच्छी लगती और सब उसे चाहते इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुलोचना को चने की दाल बीनते – बीनते नैनों से अश्रुं धार बहने लगी ।

तभी सासु माँ ने जोर से आवाज लगाई। “अरी ओ! काली चना कुछ समझ में आया कि नहीं आज ही काम खत्म करना है। परंतु तुम्हारे भेजे में कुछ समाता ही नहीं है। काली चना जो ठहरी।”

इससे पहले की दर्द की दरिया बहे। ससुर जी पेपर के पन्ने पलटते कहने लगे… “अरे वो भाग्यवान! आओ तुम्हें बताता हूँ। काली चने के फायदे।”

” आज पेपर पर वही छपा है। तुम अनपढ़ को आज तक समझ नहीं आया कि गँवार फली को चाहे कितना भी विद्ववता से कोई बुलाए परंतु उसे गँवार फली ही कहा जाता है।

ज्ञानकली नहीं!!”

अपनी बाजी पलटते देखा सासु माँ ने समझ लिया कि अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है।

क्योंकि नाम उसका ज्ञान कली।

और वह अंगूठा छाप। सिर्फ मुँह चलाना जानती थी।

सुलोचना के आँसु कब कृतज्ञता के भाव में पिताजी के चरणों पर झुके और सुलोचना ने देखा कि दोनों हाथ पिताजी ने उसके सिर पर रखे हुए हैं। एक मजबूत सहारे की तरह। मैं हूँ न।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 241 ☆ कहानी – ‘जोकर’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – जोकर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 241 ☆

☆ कहानी – जोकर

धनीराम डा. सेन के अस्पताल की नौकरी पर कब लगे यह शायद ही किसी को याद हो। दस पन्द्रह साल तो हो गये होंगे। तब धनीराम खूब चुस्त-दुरुस्त थे। लंबा कद और मज़बूत देह। सब्ज़ रंग की यूनिफॉर्म और बैरेट कैप पहने सारे अस्पताल में उड़ते रहते थे। धीरे-धीरे वे धनीराम से ‘धनीराम दादा’ और फिर सिर्फ ‘दद्दू’ हो गये।

दद्दू के अपने परिवार का अता-पता नहीं था। पूछने पर ज़्यादा बोलते भी नहीं थे। लोग बताते थे कि उनके दो बेटे शहर में ही हैं और उनकी पत्नी बड़े बेटे के पास रहती है। लेकिन दद्दू अस्पताल से ज़्यादा देर के लिए कहीं नहीं जाते। जाते हैं तो घंटे दो-घंटे में ही फिर प्रकट हो जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद फिर ‘बैतलवा डार पर’। उनसे  मिलने कुछ बच्चे ज़रूर कभी-कभी अस्पताल में आ जाते थे जो लोगों के अनुसार उनके नाती- पोते थे, लेकिन वे उन्हें ज़्यादा देर टिकने नहीं देते थे। सामने टपरे से उनके लिए बिस्कुट टॉफी खरीद देते और जल्दी चलता कर देते।

दद्दू अस्पताल के गेट के पास बने अस्थायी, शेडनुमा कमरे में रहते थे। खाना खुद ही बनाते थे, लेकिन सिर्फ दोपहर को। रात को ड्यूटी के बाद इतना थक जाते कि खाना बनाना मुसीबत बन जाता। अस्पताल के लोग कहते हैं कि यह कभी पता नहीं चलता कि दद्दू कब सोते हैं और कब उठते हैं। ज़्यादातर वक्त वे चलते-फिरते ही दिखते हैं। बड़े सबेरे नहा-धो कर वे अपनी वर्दी कस लेते हैं और फिर रात तक वह वर्दी चढ़ी ही रहती है। अस्पताल के कर्मचारी उनसे खौफ खाते हैं क्योंकि वे घोर ईमानदार और अनुशासनप्रिय हैं, और अस्पताल की व्यवस्था में कोताही पर किसी को नहीं बख्शते। डा. सेन को उनकी वफादारी और उपयोगिता का भान है, इसलिए उनकी कभी-कभी की ज़्यादतियों को अनदेखा कर देते हैं।

दद्दू बड़े ख़ुद्दार आदमी हैं। न किसी की खुशामद करते हैं, न किसी की सेवा लेते हैं। अस्पताल के कर्मचारी उन्हें खुश करने के लिए चाय का आमंत्रण देते रहते हैं, लेकिन दद्दू हाथ हिला कर आगे बढ़ जाते हैं। दूसरों पर खर्च करने के मामले में भी वे भारी कृपण हैं। कहते हैं, ‘हम गरीब आदमी हैं। किसी की सेवा करने की हमारी हैसियत नहीं है। अपना खर्च पूरा होता रहे वही बहुत है।’

उम्र गुज़रने के साथ साथ दद्दू की चुस्ती और फुर्ती में भी फर्क पड़ने लगा था। उनके बाल खिचड़ी हो गये थे और आँखों के नीचे और बगल में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। चलने में घुटने झुकने लगे थे। वर्दी में भी पहले जैसी कड़क नहीं रह गयी थी। अब वे चलते कम और बैठते ज़्यादा थे। फिर भी वे शारीरिक अशक्तता को आत्मा के बल से धकेलते रहते थे।

लेकिन दद्दू की इस ठीक-ठाक चलती  ज़िन्दगी में ऊपर वाले ने अचानक फच्चर फँसा दिया। उस दिन दद्दू रोज़ की तरह आने जाने वालों को नियंत्रित करने की गरज़ से अस्पताल के प्रवेश-द्वार पर जमे थे कि अचानक उनका सिर पीछे को ढुलक गया और शरीर एक तरफ झूल गया। आंँखों की पुतलियाँ ऊपर को चढ़ गयीं और मुँह की लार बह कर पहले ठुड्डी और फिर गले तक पहुँची। लोगों ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और उठाकर भीतर ले गये। सौभाग्य से वे अस्पताल में थे इसलिए तुरन्त उपचार हुआ। थोड़ी देर में वे होश में आ गये, लेकिन कमज़ोरी काफी मालूम हो रही थी। डाक्टरों ने जाँच-पड़ताल करके दिल में गड़बड़ी बतायी। बताया कि रक्त-संचालन ठीक से नहीं होता। दद्दू के लिए कुछ गोलियाँ मुकर्रर कर दीं जिन्हें नियमित लेना ज़रूरी होगा। साफ हिदायत मिली कि दवा लेने में कोताही की तो किसी दिन फिर उलट जाओगे।

दद्दू एक दिन के आराम के बाद ड्यूटी पर लौट आये, लेकिन चेहरा विवर्ण था और आत्मविश्वास हिल गया था। बैठे-बैठे ही कमज़ोर आवाज़ में निर्देश देते रहे। दो-तीन दिन में फिर सभी ज़िम्मेदारियाँ सँभालने लगे, लेकिन चेहरे से लगता था कुछ चिन्ता में रहते हैं। बेटों को पता चला तो आये और हाल-चाल पूछ कर चले गये। जब अस्पताल में ही हैं तो घरवालों को चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? मुफ्त में सारी मदद उपलब्ध है। ऐसा भाग्य वालों को ही नसीब होता है।

इस झटके के बाद दद्दू कुछ ढीले-ढाले हो गये हैं। पहले वाली कड़क और चुस्ती नहीं रही। अब लोगों पर चिल्लाते-चीखते भी नहीं थे। लेकिन ड्यूटी में कोताही नहीं करते थे। शायद कहीं डर भी था कि ड्यूटी में कोई छूट माँगने पर अनुपयोगी या अनफिट न मान लिये जाएँ।

लेकिन दद्दू दवा खाने के मामले में चूक करते थे। कई बार ड्यूटी में इतने मसरूफ़ रहते कि दवा का ध्यान ही न रहता। कोई याद दिलाने वाला भी नहीं था। रात को थके हुए लौटते और खाना खा कर सो जाते। बाद में याद आता कि दवा नहीं खायी। दद्दू इतने पढ़े-लिखे भी नहीं थे कि दवा न लेने से होने वाले परिणामों को ठीक से समझ सकें।

इसी चक्कर में दद्दू कुछ दिन बाद फिर पहले जैसा झटका खा गये। इस बार तीन-चार दिन बिस्तर पर ही रहे। ठीक होने में भी हफ्ता भर लग गया, फिर भी कमज़ोरी कई दिन तक बनी रही। इस बार दद्दू की जि़न्दगी की रफ्तार धीमी पड़ गयी। ज़्यादा चलना-फिरना या ज़्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल हो गया। बीच-बीच में मतिभ्रम हो जाता। याददाश्त भी धोखा देने लगी। मुख़्तसर यह कि अनेक प्रेतों ने दद्दू को घेरना शुरू कर दिया। अब उन्हें हर काम में सहायक की ज़रूरत पड़ने लगी।

ऊपर के स्तर पर यह महसूस किया जाने लगा कि दद्दू अब ज़्यादा काम के नहीं रहे। किसी दिन अस्पताल में ही कुछ हो गया तो क्या होगा? उनके बेटों का क्या ठिकाना, अपनी ज़िम्मेदारी निभायें, न निभायें। तय हुआ कि उनसे कह दिया जाए कि अपने बेटों के पास चले जाएँ और वहीं आराम करें। समझें कि अब उनकी हालत काम करने की नहीं रही।

दद्दू तक बात पहुँची उनका चेहरा दयनीय हो गया। बोले, ‘बेटों के पास कहाँ जाएँगे? बेटों के पास रह सकते तो नौकरी में क्यों चिपके रहते?’

लेकिन ऊपर से पक्का आदेश प्रसारित हो चुका था। उनका हिसाब-किताब करके अनुकम्पा-स्वरूप एक माह की पगार अतिरिक्त दे दी गयी। अब दद्दू अस्पताल में फालतू हो चुके थे। अब कोई उनमें पहले जैसी दिलचस्पी नहीं लेता था।

बार-बार मिलते इशारों को समझ कर एक दिन दद्दू ने अपना सामान समेट कर अस्पताल छोड़ दिया। लेकिन तीन दिन बाद ही वे अस्पताल के गेट के पास बैठे दिखे। वे हर परिचित को अपनी कैफियत दे रहे थे— ‘बेटों के साथ गुज़र कैसे हो भाई? दोनों बेटे समझते हैं कि मेरे पास बहुत पैसा है। किसी न किसी बहाने दिन भर फरमाइश होती रहती है। बच्चों को सनका देते हैं कि मुझ से पैसा माँगें। आराम से बैठना मुश्किल हो जाता है। छोटा बेटा रोज़ रात को दारू पी कर आता है। खूब हंगामा मचाता है। मैं समझाता हूँ तो मुझे भी उल्टी-सीधी सुनाता है। ऐसे लोगों के साथ रहकर मैं क्या करूँगा? मैं हमेशा भले आदमियों के साथ रहा हूँ।’

दिन भर दद्दू  अस्पताल में इधर-उधर घूमते और पुराने साथियों से गप लगाते रहे। रात को ग़ायब हो गये। दूसरे दिन सुबह फिर हाज़िर हो गये। अस्त-व्यस्त कपड़े, बढ़ी दाढ़ी और उलझे बाल। दद्दू अब अस्पताल के हर काम के लिए प्रस्तुत दिखते हैं। कोई मदद के लिए किसी को आवाज़ लगाता और पुकारे गये व्यक्ति से पहले दद्दू लपक कर पहुँच जाते। गाड़ियाँ अस्पताल का सामान लेकर आतीं तो टेलबोर्ड खुलते ही सामान उतारने के लिए दद्दू पहुँच जाते। भारी सामान को लेकर अकेले ही लड़खड़ाते हुए चल देते। दरअसल वे साबित करना चाहते थे कि वे अब भी उपयोगी और फिट हैं।

अस्पताल में अब दद्दू नये लड़कों के सामने पंजा बढ़ा देते, कहते, ‘आजा, पंजा लड़ा ले।’ सामने वाला उनके काँपते हुए पंजे में अपना पंजा फँसाता, फिर थोड़ी देर ज़ोर लगाने के बाद खुद ही अपना पंजा झुका देता, कहता, ‘दद्दू, आप में अभी बहुत दम है। आप से कौन जीतेगा?’ दद्दू खुश हो जाते। वे खुद को और दूसरों को आश्वस्त करना चाहते थे कि उन में अब भी कोई कमी नहीं है।

दद्दू सबेरे अस्पताल आते तो वहाँ लोगों को दिखा कर चारदीवारी के किनारे किनारे दौड़ कर दो-तीन चक्कर लगाते, फिर स्कूली बच्चों की तरह उछल उछल कर पी.टी. करने में लग जाते। लोग उनके कौतुक देख सहानुभूति और दया से हँसते और उनकी हालत देखकर उन्हें दस बीस रुपये पकड़ा देते। कभी बड़े खुद्दार रहे दद्दू अब पैसे ले लेते थे।

एक दिन बड़े डाक्टर साहब की गाड़ी गेट के पास रुकी तो दद्दू ने दौड़कर उनके सामने सलाम ठोका। कई दिन की बढ़ी दाढ़ी और माथे पर रखे खिचड़ी बालों की वजह से वे खासे जोकर दिखते थे। तन कर खड़े होकर बोले, ‘सर, मैं अब भी बिल्कुल फिट हूँ। मुझे ड्यूटी पर बहाल किया जाए।’

डाक्टर साहब ने उनकी तरफ देख कर कहा, ‘अब आप ड्यूटी की चिन्ता छोड़ कर आराम कीजिए। आपको आराम की ज़रूरत है।’ फिर उन्होंने जेब से दो सौ रुपये निकाल कर दद्दू की तरफ बढ़ा दिये। कहा, ‘ये रख लीजिए और घर जाइए।’

उसी रात आदेश प्रसारित हो गया कि दद्दू को गेट के भीतर प्रवेश न करने दिया जाए। उस दिन के बाद दद्दू दो-तीन दिन गेट के बाहर मंडराते दिखे, फिर हमेशा के लिए ग़ायब हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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