☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆
“क्या आप जरा सामने जो घर है वहॉं जाकर उसमें झॉंककर देखेंगे? अपनी गृहस्थी के लिए, फिर अपने बेटे के लिए जिसने खून पसीना बहाया ऐसी एक थकी-मांदी बूढी माॅं अंदर होगी। देख लिया झॉंककर?”
” मुझे तो वहाॅं अंदर जाना है। मन कभी का जा पहूॅंचा है। लेकिन कदम लड़खड़ा रहे हैं। आगे जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा हूॅं, क्योंकि पुरानी यादें पीछा ही नहीं छोड़ रही। “
तब से मुझे याद आ रहा है, जब उसके बेटे की शादी तय हो गई थी। दो साल पहले की ही तो बात है, उस समय यह वृद्धा, थके शरीर से पर प्रसन्न मन से कमर कसकर सारा काम कर रही थी। और क्यों न करें?…. उसका अपने गृहस्थी का सपना तो अचानक टूट गया था। अब बेटे की शादी और उसके खुशहाली का सपना उसे ऊर्जा दे रहा था।
तीन बेटियों के बाद घर में आया हुआ था यह बेटा !वे तीनों तो पैदा होते ही, ऑंखें खुलने से पहले ही चल बसी थी। …. तीनों आयी और इसके कलेजे को जख्म देकर चल बसी। तब से उसके ऑंखों के आसू कभी सुखे ही नहीं। कभी उन जख्मों की याद से… कभी पति की बढ़ती बीमारी से दुखी होकर!… .पति तो चल बसे, … इस बेचारी को रोता बिलखता छोड़कर। …पर इसने हिम्मत नहीं हारी। पति के प्राइवेट नौकरी में आमदनी ही क्या थी ? कम खर्चे में गृहस्थी चलाकर जो पैसा बचाया था, वह भी पति की बीमारी में स्वाहा हो गया। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन खाना बनाने की कला बहुत जानती थी। हाथ में चकला- बेलन पकड़ा और औरों के रसोई घर बड़ी मेहनत से बहुत अच्छी तरह से संभाले। बेटे की पढ़ाई लिखाई पूरी हो गई और उसको बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई। इसके खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। यही सपना देख रही थी कि बस! अब दुख के, कष्ट के दिन खत्म हो गए। एक बार बेटे की शादी हो जाए…. फिर घर में आराम से चिंता मुक्त जिंदगी बिताऊॅंगी। … अब औरों के रसोई घर संभालने की कोई जरूरत ही नहीं है।
जब बेटे की शादी हुई संतुष्टि की एक अत्यंत अप्राप्य अनुभूति उसको स्पर्श कर गई। बहू का गृह प्रवेश हुआ। वह खुश थी, प्रसन्न थी।
बहू को प्यार भरी निगाहों से निहार रही थी, तभी उसने बहू के माथे की त्यौरियाॅं देखी और जो समझना था समझ गई। उसी पल से खुशी मानो भाग ही गई। मन से थक गई… शरीर तो पहले से जवाब देने लगा था। एक तो दोनों घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था। दोनों आंखों में मोतियाबिंदु बढ़ रहा था। फिर भी बहू का तमतमा सा चेहरा देखकर बात लड़ाई झगड़े तक ना आ जाए, इसी वजह से घर का सारा काम करती रही… थकी मांदी होने के बावजूद उसने बिस्तर नहीं पकड़ा।
“आप आ गए घर के अंदर झाॅंककर ? कैसी दिख रही है वह ?अकेली होगी पर कैसी लग रही है? “
असल में यह सवाल जब जरूरत थी तब बेटे के जेहन में उठना चाहिए था, जो उठा ही नहीं।
गृह लक्ष्मी की हॅंसी से वह खुश हो जाता था, …. वह रूठ जाए तो मुरझा जाता था। मानो, घर आई वह एक नाजुक गोरी मन मोहिनी परी थी। …
यह सिर्फ देखती ही रह गई। …
अपना बेटा और उसकी परछाई इसमें जो फर्क था, उसको वह समझ गई। शादी के साथ ही उसके पास सिर्फ बेटे की परछाई थी। … वैसे शुरू से ही बेटा मितभाषी था। हाॅं- ना, चाहिए- नहीं चाहिए… इतनी ही बातें …लेकिन अब तो माॅं के साथ उतनी बातें भी नहीं बची थी। माॅं के कष्ट, उसका कमजोर शरीर, घुटनों के दर्द की वजह से धीमे-धीमे चलना, इन सब की तरफ उसका ध्यान भी नहीं गया। …अब इसने बाहर के काम बंद किए थे लेकिन घर में एक मिनट का भी आराम नहीं था। वह सहनशीलता की एक मूर्तिमंत प्रतिमा थी। .. अपना दुख दर्द उसने किसको बताया तक नहीं।
घर में सिर्फ तीन जने, बेटा बहू और वह !बहुत अमीर नहीं थे लेकिन पैसे टके की कमी भी नहीं थी। नई-नई शादी, नई नवेली दुल्हन के साथ गृहस्थी की नयी नयी चीजों की शॉपिंग, पिक्चर, बड़े होटलों के खर्चे …सब कुछ अच्छे से चल रहा था। ड्रिंक, स्मोकिंग, क्लब, पार्टीयाॅं ….सब उनके जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन गई थी। इसको उनके लाइफस्टाइल के बारे में कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ीयाॅं पहनी हुई माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। ….तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आ गई।
**क्रमशः*
मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये
हिन्दी भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे
माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सलमा बनाम सोन चिरैया‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 137 ☆
☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर।तीन मंजिला विशाल कोठी, फाईव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी –‘ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए आठ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।’
फिर खिल-खिल हँसी — ‘इसे तो पहचान गई होगी तुम —सादिक का गिटार, बचपन में तुम्हें कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह, वह बेंगलुरु में है- कई महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए। मैं ही गई थी उसके पास।’ वह आगे बढ़ी – ‘यह गेस्ट रूम है और यह हमारा बेडरूम —-। ‘पति ?’ – — अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह नौ बजे निकलकर रात में दस बजे ही वह घर लौटते हैं’ – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गईं।
‘और यह कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का’– सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे | सोन चिरैया इधर-उधर उड़ती, झूलती, दाने चुगती और पिंजरे में जा बैठती।
सलमा बोली – ‘दो थीं एक मर गई। कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह उड़कर बाहर नहीं जाती।यह अकेली कब तक जिएगी पता नहीं ?’
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 3“।)
अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया.
मैसेज :Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch?
Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.
अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी. घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.
जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.
तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय. महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था.
कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था
दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं
दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है
सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है
उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं
ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.
तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है. हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)
बहू शारदा ने अमित से कहा – “तुम्हारी मां के पास तो काम धाम रहता नहीं है रात में भी चिल्लाती रहती हैं और सुबह सुबह 5:00 बजे से घंटी बजा के हम सब को उठा देती हैं।
9:00 यदि बैंक में ना पहुंचे तो मैनेजर से डांट खानी पड़ती है।
बहू शारदा ऑफिस जाते जाते चिल्लाकर कहती है-
कान खोल कर सुन लीजिए?
जैसे ही एग्जाम खत्म हो जाएगा मैं विक्की को हॉस्टल में डाल दूंगी इनको वृंदावन के आश्रम में भेज देना या कहीं और इनकी व्यवस्था के विषय में सोचो?
तभी कमला जी कहती है नाश्ता तो कर लो चाय बन गई है।
वह गुस्से से अपने पति की ओर देखती है और कहती हैं आप ही मां बेटे नाश्ता करो!
उसके जाने के बाद कमला जी अपने बेटे से कहती है कि आखिर प्यार में कहां कमी रह गई?
घर की इज्जत का सवाल है उसे तो शर्म लिहाज नहीं है ?
तभी अमित के मोबाइल में फोन की घंटी बजती है अमित बाजार से कुछ मिठाइयां समोसे ले आओ शाम को मेरे ऑफिस के सहकर्मी घर में आ रहे हैं मां से कहना की कुछ अच्छा सा खाना बना लें।
अमित घर पर ही ऑनलाइन काम करता है वह अपनी मां से कहते हैं मां तुम चिंता मत करो मैं बाहर से कुछ लेकर आता हूं, तभी कमला अपने पति की तस्वीर देखकर कहती हैं, मुझे अपने ही घर में साथ घर में नहीं रख सकती?
चलो भाई ठीक ही है वहां चैन से भगवान का भजन करूंगी।
मेरे भजन पूजन में खर्चा होता है और बहू को यही कष्ट है कि मैं दान करती हूं।
अब इनका मतलब निकल गया है, बच्चा बड़ा हो गया है।
आखिर भाई वह नौकरी जो करती है, वह घमंड में चूर है लेकिन भाई अवस्था तो सबकी आनी है।
पुश्तो में भी ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आजकल के बच्चे सारे नए काम ही कर रहे हैं घोर कलयुग है मिलावटी सामान खाते-खाते रिश्ते भी जाने कब मिलावटी हो गए।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “कोरी साड़ी ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆
☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹
शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।
हो भी क्यों न महिला नारी – –
म – से ममता
ह – से हृदय
ल – से लगती
ना – से नारी
री- से रिश्ते
ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।
ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है। जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।
परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।
बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।
वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।
अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।
माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।
यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।
माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।
क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।
पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।
हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।
मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – फ्लाइंग किस)
☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
कवि खंडहर देखते-देखते थक गया तो एक पत्थर पर जा बैठा। पत्थर पर बैठते ही उसे एक कराह जैसी चीख़ सुनाई दी। उसने उठकर इधर-उधर देखा। कोई आसपास नहीं था। वह दूसरे एक पत्थर पर जा बैठा। ओह, फिर वैसी ही कराह! वह चौंक गया और उठकर एक तीसरे पत्थर पर आ गया। वहाँ बैठते ही फिर एक बार वही कराह! कवि डर गया और काँपती आवाज़ में चिल्ला उठा, “कौन है यहाँ?”
“डरो मत। तुम अवश्य ही कोई कलाकार हो। अब से पहले भी सैंकड़ों लोग इन पत्थरों पर बैठ चुके हैं, पर किसी को हमारी कराह नहीं सुनी। तुम कलाकार ही हो न!”
“मैं कवि हूँ। तुम कौन हो और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो?”
“हम दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ सुनाई देते हैं। हम गीत हैं- स्वतंत्रता, समता और सद्भाव के गीत। हम कलाकारों के होठों पर रहा करते थे। एक ज़ालिम बादशाह ने कलाकारों को मार डाला। उनके होठों से बहते रक्त के साथ हम भी बहकर रेत में मिलकर लगभग निष्प्राण हो गये। हम साँस ले रहे हैं पर हममें प्राण नहीं हैं। हममें प्राण प्रतिष्ठा तब होगी जब कोई कलाकार हमें अपने होठों पर जगह देगा। क्या तुम हमें अपने होठों पर रहने दोगे कवि?”
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘थाप। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 136 ☆
☆ लघुकथा – थाप☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के काम निपटाती जा रही थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी -मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं हो रही थी, शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।‘कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे?’ मैंने उसकी अविवाहित बड़ी बहन से पूछा।‘अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है‘ कहकर उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि शादी लायक दो बड़ी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कहीं कुमुद की उदासी का यही तो कारण नहीं? लड़कियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? खैर छोड़ो,दूसरे के फटे में पैर क्यों अड़ाना।
शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा था। महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – ‘जवान बहनें बिनब्याही घर में बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ–बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, पर कुमुद के लिए तो देखना चाहिए।‘ ढ़ोलक की थाप के साथ नाच –गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। ‘अरे कुमुद! अबकी तू उठ,बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोड़ी प्रैक्टिस कर ले’ –बुआ ने हँसते हुए कहा। ‘भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते,फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढ़ोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो। वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।
कुमुद की माँ अपनी ननदरानी से उलझ रही थीं– ‘बहन जी! आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने यह सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो-दो लड़कियों के हाथ पीले करने को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है यह बात,पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी’ —
ढ़ोलक की थाप और तालियों के बीच इन सब बातों से अनजान कुमुद मगन मन नाच रही थी।
समकालीन हिंदी बाल साहित्य में जो नाम अत्यंत प्रभावी स्तर पर दस्तक दे रहे है, उनमें इंजी. ललित शौर्य अत्यंत उल्लेखनीय है। मुवानी, पिथौरागढ़, उत्तराखंड में 16 जून 1990 को जन्में इंजी. ललित शौर्य की अभिरुचि अध्ययन काल से ही साहित्य में रही है। ललित ने बरेली से बीटेक किया है। श्री जगत सिंह राठौर एवं श्रीमती द्रोपदी राठौर के सुपुत्र इंजी. ललित शौर्य ने कालान्तर में बाल-साहित्य को अपनी रचनाशीलता का केंद्र बनाया और पिछले पांच वर्षों से लगातार लेखन के साथ इस क्षेत्र की श्रीवृद्धि करते आ रहे हैं। उनकी अनेक कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं और लोकप्रियता हासिल करती रही हैं। इसमें बाल भारती, चम्पक, नंदन, देवपुत्र, साहित्य अमृत, बाल किलकारी, बालभूमि, बाल भास्कर, बच्चों का देश, बाल प्रहरी, बच्चों की प्यारी बगिया, उजाला, हंसती दुनिया, वात्सल्य, बाल प्रभात, उदय सर्वोदय, आजकल , हरदौल वाणी, पर्वत पीयूष, प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त प्रमुख समाचार पत्रों दैनिक जागरण, नई दुनिया, अमर उजाला, सहारा समय, हिंदुस्तान दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर आदि में भी नियमित रूप से उनके लेख, लघु कथाएं, व्यंग्य, बाल कहानियां प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी बाल कहानी संग्रह ‘दादाजी की चौपाल’ एवं कोरोनाकाल में लिखा गया देश का पहला बाल कहानी संग्रह ‘कोरोना वॉरियर्स’ पर्याप्त चर्चित रहा। इसके अतिरिक्त उनके द मैजिकल ग्लब्ज, फॉरेस्ट वॉरियर्स, स्वच्छता ही सेवा, जल की पुकार, स्वच्छता के सिपाही, जादुई दस्ताने, गंगा के प्रहरी, गुलदार दगड़िया, परियों का संदेश, बाल तरंग बाल कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। इंजी ललित शौर्य पूर्ण रूप से बाल साहित्य को समर्पित हैं। उन्होंने “ बच्चों को मोबाईल नहीं, पुस्तक दो” अभियान चलाया है। जिसके माध्यम से अब तक शौर्य विभिन्न माध्यमों से तीस हजार बच्चों तक बाल साहित्य वितरित कर चुके हैं।
बाल साहित्य के प्रति उनकी रचना सक्रियता को समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक संगठनों ने सम्मानित किया है। इनमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, भाऊ राव देवरस न्यास द्वारा प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान, माध्यम साहित्यिक संस्थान लखनऊ द्वारा ‘सारस्वत सम्मान’, बाल वाटिका पत्रिका का वैभव कालरा राष्ट्रीय बाल साहित्य सम्मान, राष्ट्रीय हिंदी परिषद मेरठ द्वारा ‘हिंदी भूषण सम्मान’, माँ सेवा संस्थान लखनऊ द्वारा ‘ ध्रूव सम्मान’, स्वदेशी जागरण मंच उत्तराखंड द्वारा ‘हिंदी सेवा रत्न सम्मान’, बाल प्रहरी द्वारा ‘साहित्य सृजन सम्मान’, राजा राममोहन सेवा आश्रम एवं पर्यावरण सोसायटी द्वारा ‘पर्यावरण मार्तण्ड’ प्रमुख हैं।
इंजी. ललित शौर्य अब तक उन्नीस किताबें लिख चुके हैं। जिनमें 12 बाल कहानी संग्रह, छ: साझा संकलनों का सम्पादन, एक व्यक्तिगत काव्य संग्रह ‘सृजन सुगन्धि’ सम्मिलित है।
1- अपने रचनाकर्म को क्यों अपनाया है?
उत्तर:लेखन में रुझान बचपन से ही रहा है। कहानियां, कविताएं पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता था, पढ़ने की आदत आज भी बनी हुई है। साथ ही लेखन कार्य भी सतत जारी है। मैं बाल कहानी लेखन में अधिक समय दे रहा हूँ। रचना कर्म अपनाने का मंतव्य यही है कि अधिक से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुंचा सकूं। आधुनिक मोबाइल वाली पीढ़ी के हाथों में बाल साहित्य की किताबें भी हूँ इसी उद्देश्य से कलम उठाई है। उसी ओर अग्रसर हूँ। अब तक मैंने मोबाइल नहीं, पुस्तक दो अभियान के तहत विभिन्न माध्यमों से 30 हजार से अधिक बच्चों तक बाल साहित्य पहुँचाने का प्रयास किया है।
2- आप भविष्य में इस क्षेत्र में क्या करना चाहते हैं और प्रबुद्ध पाठकों को क्या संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर:बाल साहित्य में अभी करने को बहुत कुछ है। व्यक्तिगत रूप से मुझे अभी बहुत कुछ सीखना। मैं अभी बाल कहानियां, बाल एकांकी , बाल कविताएं लिख रहा हूँ। भविष्य में बाल उपन्यास लिखने का भी मन है।
बाल साहित्यकारों के पाठक प्रायः बच्चे होते हैं।(वैसे तो बड़े भी बाल साहित्य बड़े चाव से पढ़ते हैं।) बच्चों के लिए यही संदेश है कि अधिक से अधिक बाल साहित्य पढ़ें। इससे उनके भीतर पढ़ने और सीखने की आदत विकसित होगी। जो उनके स्वर्णिम भविष्य के लिए मददगार साबित होगी।
☆ बाल कथा- रहस्यमयी संदूक ☆ इंजी. ललित शौर्य ☆
चंपकवन में रहस्यमयी संदूक की बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। सभी जानवर उस संदूक को देखने के लिए उत्सुक थे। नदी किनारे पड़ा वह संदूक आठवां अजूबा बन चुका था।
“मुझे तो वह संदूक जादुई जान पड़ता है। ना बा ना मैं तो उसके पास बिल्कुल भी नहीं जाऊंगा। उसे पैर से छुउंगा भी नहीं। ना ही अपनी प्यारी पूंछ के बाल उस पर लगने दूँगा। क्या पता उसे छूते ही मैं खरगोश बन जाऊं। फिर चीकू की तरह कान खड़े कर ईधर उधर भागना पड़े।” संदूक के पास खड़े जिफर घोड़े ने कहा।
“छूना तो मुझे भी नहीं है। क्या पता उसमें से कोई जादुई राक्षस निकले और उसके गुस्से से मैं घोड़ा बन जाऊं। फिर जिंदगी भर जिफर की तरह मुझे भी दुलत्ती चलानी पड़ेगी।” चीकू ने भी चुटकी ली।
“अरे तुम दोनों बहस करना छोड़ो। ये सोचो कि उस संदूक में आखिर क्या हो सकता है। कहीं उसमें खाने पीने की चींजें तो नहीं हैं। या फिर वह हीरे मोतियों से तो नहीं भरा हुआ है।” सिप्पी सियार बोला।
“ये भी हो सकता है। लेकिन हमें इन सबके सामने उस संदूक को नहीं खोलना है। जब सब यहां से चले जाएंगे तभी हम उसे हाथ लगाएंगे।” बैडी लोमड़ सिप्पी के कान में फुसफुसाया।
यह सुनकर सिप्पी की आंखों में चमक आ गई। उसने जोर से चिल्लाना शुरू किया, ” कोई भी इस संदूक को हाथ नहीं लगाएगा। इसमें कोई भूतिया चीज लगती है। या फिर गोला बारूद भी हो सकता है। सब इससे दूर रहेंगे। हम महाराज शेरसिंह को इस बारे में जानकारी देकर आते हैं। वही इस बात का निर्णय लेंगे की संदूक का क्या करना है।”
सभी जानवर यह बात सुनकर वहां से चले गए। सिप्पी और बैडी वहीं बने रहे। जब चारों ओर कोई नहीं बचा तो सिप्पी ने मौका देख बैडी से कहा, “खोलो संदूक।”
“मैं…मैं… कैसे खोलूं, तुम खोलो।” बैडी ने डरते हुए कहा।
“तुम ही तो बोल रहे थे इसमें हीरे मोती हो सकते हैं।” सिप्पी ने कहा।
“अगर राक्षस या फिर बारूद हुआ तो। मेरी हड्डियों का क्या होगा। मेरी तो यहीं समाधि लग जायेगी।” बैडी ने कहा।
“डरो नहीं। चलो मिलकर खोलते हैं। अगर कीमती सामान निकला तो अपना। नहीं तो संदूक यहीं छोड़कर भाग निकलेंगे।” सिप्पी ने संदूक की ओर बड़ते हुए कहा।
“रुको। किसी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलते हैं। हाथ लगाने का जोखिम उठाना ठीक नहीं है।” बैडी ने अक्लमंदी दिखाई।
बैडी और सिप्पी लकड़ी की सहायता से संदूक का दरवाजा खोलने लगे। बहुत प्रयासों के बाद दरवाजा खुला। दरवाजा खुलते ही उनकी आंखें फटी की फटी रह गई। उसमें लंबी-लंबी जटाएं थी। कुछ कटे हुए सिर थे। संदूक खुलते ही बंद हो गया। एक जटा बक्से से बाहर निकल गई। बैडी यह सब देखकर थरथर कांपने लगा। सिप्पी की सिट्टी पिट्टी भी गुल हो गई। दोनों वहां से दुम दबाकर भागे। उन्होंने सारा हाल राजा शेर सिंह को बता दिया। शेर सिंह भी यह सुनकर चौंक पड़े। उन्होंने तुरंत सेनापति हेवी हाथी को बुलाया। उसे साथ लेकर संदूक को देखने चल पड़े। जब यह बात जंगल के अन्य जानवरों को पता चली तो वे भी साथ हो लिए। थोड़ी ही देर में शेर सिंह, हेवी जिफर, सिप्पी, चीकू, बैडी सभी जानवर उस संदूक के पास पहुंच गए। उन सबने भी संदूक पर लटकती जटा को देखा।
“ये जरूर किसी राक्षस की जटा है। संदूक खुलते ही वह नींद से जाग जाएगा। हमे इस सन्दूक को फौरन जंगल से बाहर कर देना चाहिए।” जिफर हिनहिनाते हुए बोला।
“पहली बार जिफर ने सही बात की है। कहीं इस सर कटे राक्षस ने हमारे सरों का भी फुटबॉल बना दिया तो बड़ी आफत आ जायेगी।” चीकू ने कहा।
सभी जानवर अपनी- अपनी राय रख रहे थे। राजा शेर सिंह और हेवी सभी को बड़ी ध्यान से सुन रहे थे।
अचानक शेर ने दहाड़ मारी। चारों ओर सन्नाटा छा गया। शेरसिंह ने कहा, “हेवी तुम कुछ सुझाव दो।इस संदूक का क्या करना है।”
हेवी ने मुस्कुराते हुए सूंड उठाते हुए कहा, “महाराज अभी इस संदूक का दरवाजा खोल देता हूँ दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।”
“ठीक है। जल्दी करो।” शेरसिंह ने कहा।
हेवी ने जैसे ही संदूक का दरवाजा खोला तो सभी वहां से भागने लगे। लेकिन हेवी जोरजोर से हंसने लगा। उसने सूंड से एकएक कर संदूक में रखी चींजें बाहर निकाली। उसमें राक्षसों के मुखौटे, जटाएं, दाड़ी-बाल रखे हुए थे।
“महाराज लगता है। यह संदूक इंसानी बस्ती से यहां आया है। इसमें उनके द्वारा नाटक में प्रयोग किये जाने वाले मुखौटे हैं। कोई भूत या राक्षस नहीं है।”हेवी ने एक मुखौटा अपने माथे पर रखते हुए कहा।
यह देखकर शेर सिंह भी हंसने लगा। सभी जानवर वापस आ गए। सभी उन मुखौटों और जटाओं को अपने चेहरे पर लगाकर नाचने लगे। राजा शेरसिंह ने ऐलान किया इस बार जंगल उत्सव में इन्हीं मुखौटों का प्रयोग कर के नाटक किया जाएगा। हेवी की सूझबूझ से संदूक का रहस्य खुल चुका था।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय लघुकथा –“एक दूसरे गधे की आत्मकथा“.)
☆ लघुकथा – एक दूसरे गधे की आत्मकथा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
सुप्रसिद्ध कहानीकार कृष्णचंदर जी ने लिखी थी एक गधे की आत्मकथा। गधा हीरो बन गया था। कहानीकार ने गधे के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को आदमी से जोड़कर गधा विशेष बना दिया था।
गधे अमूमन गुरुजी की क्लास में पाए जाते हैं। बाप अपनी संतानों को गधे से संबोधित करते हैं। गधे आगे की सीढ़ी नहीं चढ़ पाए।
‘तुम तो गधे हो’ का तकिया कलाम सुनकर गधा मुस्कुरा कर आगे बढ़े जाता है।
एक दिन सुबह सुबह सब्जी भाजी लेने गया तो वहां गधे जी का जलवा देखने मिला। एक बड़ी सी भीड़ गधे साहब को घेरकर खड़ी थी। गधे साहब शान से भीड़ में गोल गोल घूम रहे थे।
गधे वाले ने गधे से पूछा सबसे बड़ा गधा कौन?
गधे ने दो तीन चक्कर लगाये और अपने मालिक के सामने खड़ा हो गया।
भीड़ तालियां बजा कर हंसने लगी। गधा भी मुस्कुरा रहा था।
गधे वाले ने पूछा-मोटा आदमी कौन?
गधे ने चक्कर लगाए और एक आदमी के सामने आकर खडा हो गया। आदमी जरूर सबसे मोटा था।
भीड ने तालियां बजा दी।
गधे वाले ने सबसे दुबला पतला कौन, सबसे कंजूस कौन पूछा जो गधे ने उन्हें भी ढूंढ निकाला।
जमकर तालियां बजती रहीं।
अब गधे वाले ने पूछा – अपनी बीबी से पिटता कौन?
अजीब दृश्य था। भीड़ तितर बितर हो गई। लोग भाग खड़े हुए। पता नहीं किसके सामने आकर गधा खड़ा हो जाए और बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से निकले हम वाली स्थिति बन जाए। मैं भी पतली गली से निकल गया।
कृष्णचंद्रर जी को क्या पता था कि इतने वर्षो बाद गधे के वंश में कोई ऐसा गधा पैदा होगा जो आदमी के कान काट लेगा।
मैंने बकाया गधे साहब के हाथ जोड़े और सब्जी भाजी लेने चला गया।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 2“।)
अविनाश और कार्तिकेय की ज्वाइंट मैस अपनी उसी रफ्तार से चल रही थी जिस रफ्तार से ये लोग बैंकिंग में प्रवीण हो रहे थे. दालफ्राई जहाँ अविनाश को संतुष्ट करती थी, वहीं चांवल से कार्तिकेय का लंच और डिनर पूरा होता था पर फिर भी पासबुक की प्रविष्टियां अधूरी रहती थी.
यह क्षेत्र उत्कृष्ट कोटि की मटर और विशालकाय साईज़ की खूबसूरत फूलगोभी के लिये विख्यात था जो अपने सीज़न आने पर पूरे शबाब पर होती थी. सीज़न आने पर इसने पाककला के प्राबेशनर द्वय को मजबूर कर दिया कि वो किसी भी तरह से इसे भी अपने भोजन में सुशोभित करें. यूट्यूब की जगह उस वक्त पड़ोस की गृहणियां हुआ करती थीं जिनसे सामना होने पर, “नमस्कार भाभीजी” करके आवश्यकता पड़ने पर पाककला को मजबूत बनाने में सहयोग की क्रेडिट लिमिट सेंक्शन कराई जा सकती थी. धीरे धीरे इसी लिमिट के सहारे आत्मनिर्भरता पाने पर लंच और डिनर की प्लेट्स दोनों को संतुष्टि और गर्व दोनों प्रदान करने लगी. उसी तरह की ललक और निष्ठा बैंकिंग में दक्ष बनाने की ओर अग्रसर होती चली गई और शाखा प्रबंधक सहित शेषस्टाफ को इन दोनों में बैंक का और शाखा का उज्जवल भविष्य नजर आने लगा.
शाखा के ही कुछ वरिष्ठ सहयोगियों ने जो खुद CAIIB Exam नामक वायरस से अछूते और विरक्त थे, इन्हें बिन मांगी और बिना गुरुदक्षिणा के यह सलाह दे डाली कि यह एक्जाम पास करना बैंक में अपना कैरियर बनाने की रामबाण दवा है. जबरदस्ती शिष्य का चोला पहनाये गये इन रंगरूटों द्वारा जब यह पूछा गया कि आपने क्यों नहीं किया तो पहले तो सीनियर्स की तरेरी आंखों ने आंखों आंखों में उन्हें धृष्टता का एहसास कराया गया और फिर उदारता पूर्वक इसे इस तरह से अभिव्यक्ति दी कि “हम तो अपने कैरियर से ज्यादा बैंक और इस शाखा के लिये समर्पित हैं और इस विषय में तुम दोनों की प्रतिभा परखकर और उपयुक्त पात्र की पहचान कर तुम लोगों को समझा रहे हैं.” इस सलाह को दोनों ने ही पूरी तत्परता से अपने मष्तिकीय लॉकर में जमा किया और इस परीक्षा को पास करने का तीसरा टॉरगेट बना डाला क्योंकि पहले नंबर पर समय पर भोजन करना और दूसरे नंबर पर व्यवहारिक बैंकिंग को अधिक से अधिक सीखना थे.
गाड़ी अपने ट्रेक पर जा रही थी पर नियति और नियंता ने दोनों के रास्ते अलग करने का निश्चय कर रखा था. रास्ते अलग होने पर भी ये लगभग तय था कि दोस्ती पर तो आंच आयेगी नहीं पर जिसे आना था वो तो आई अर्थात अवंतिका जोशी एक सुंदर कन्या जिसके इस शाखा में बैंक की नौकरी ज्वाइन करते ही, रातों रात अविनाश और कार्तिकेय सीनियर बन गये थे. नियति के इस वायरस ने ही इन नवोन्नत सीनियर्स पर अलग अलग प्रभाव डाले. बेकसूर अविनाश अपने पेरेंटल डीएनए के शिकार बने तो कार्तिकेय अपनी सांस्कृतिक विरासत का लिहाज कर ऐसे विश्वामित्र बने जो मेनका और उर्वशी के प्रभाव को बेअसर करते कवच से लैस थे.
जहाँ अविनाश अपनी पेरेंटल विरासत को प्रमोट करते हुये शाखा में नजर आने लगे वहीं कार्तिकेय ने लगातार बेस्ट इंप्लाई ऑफ द मंथ की रेस जीतने का सिलसिला जारी रखा. शायद यही तथ्य भाग्य नामक मान्यता को प्रतिपादित करते हैं कि शाखा में एक ही दिन आने वाले, एक घर में रहने वाले, एक किचन में सामूहिक श्रम से भोजन बनाने और खाने वालों के रास्ते भी अलग अलग हो सकते हैं.