(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)
गीता आज सुबह-सुबह कहां जा रही हो इतनी जल्दी-जल्दी तैयार होकर मां ने कहा।
आज हमें हाई कोर्ट चलना है । देखो क्या होता है भैया ने तो धोखे से सब कुछ तुमसे लिखा ही लिया और बाद में तुम्हें सड़क पर छोड़ दिया?
काश तुमने भैया पर ज्यादा विश्वास न किया होता ?
इतना बड़े मकान में पांच किराएदार थे।
किराए से भी तुम आराम से रह सकती थी लेकिन पिताजी की मृत्यु होते ही तुमने सब कुछ भाई को दे दिया।
मां के आँसू आज रुकने का नाम नही ले रहे थे ।
लाडो गुड़िया रानी कुछ मिल जाए तो तुम पर मैं बोझना न बनूंगी । इस उम्र में बेटी के घर में रह रही हूं। जीवन भर पानी नहीं पिया । काश ! यह बात मैं पहले ही समझ जाती कि मुझे अपनी बेटी को भी उसका हक देना है।
कमल जी बेटी को देखती है और उसे ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए कहती हैं – बड़ी अदालत भगवान है। वह सब देख रहा है, अवश्य न्याय करेगा।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा -ब्रेन ड्रेन।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 44 – लघुकथा – ब्रेन ड्रेन
“क्या बात है शुक्ला जी, आजकल सैर करते हुए नज़र नहीं आते? सब ठीक तो है न?”
“जी बोस दादा, सब ठीक ही है। बेटे इंजीनियरिंग करके अब विदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं और मैं ओवरटाइम करके धन जुटाने में लगा हूँ। “
“हमारी हालत देख रहे हैं न शुक्ला जी, पच्चीस वर्ष पहले हमें भी शौक चढ़ा था विदेश में भेजकर बच्चों को बेहतर जिंदगी देने की। पर देख लीजिए, अब तो हमने भी जाना बंद कर दिया उनके पास क्योंकि इस 80 साल की उम्र में ना तो हमसे यह यात्रा सहन होती है और न आपकी भाभी जी को। नाती – पोते सब बड़े हो गए। अब बस वीडियो कॉल का सहारा है। “
बोसदादा एक साँस में बोल गए।
फिर कुछ रुककर बोले – “वैसे तो बाकी सब ठीक है पर तकलीफ़ तब होती है साहब जब इस बुढ़ापे में सहारे के नाम पर अपनी औलादें पास नहीं होतीं। वैसे सब तो ठीक चल रहा है पर जब बीमार पड़ते हैं और अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़ते हैं तब पड़ोसियों पर निर्भर करना पड़ता है। “
“फिर आजकल देश में नौकरियों की कमी कहाँ है? सुना है आजकल आई.टी कंपनियाँ लाखों की सैलरी देती हैं। ” बोस दादा एक ही साँस में बोल गए।
“बेटों से कहिए इसी शहर में रहकर अगर कहीं बेहतर काम मिलता हो तो विदेश में जाकर सेकंड सिटीजन बंनकर, कलर डिस्क्रिमिनेशन सहकर, लोकल को मिलनेवाली सैलरी से कम तनख्वाह लेकर काम क्यों करें !” ये बातें ऐसे कही गई मानो अनुभवों की सच्ची पिटारी ही खोल दी गई हो।
“समझा सकते हैं तो समझाइए, वरना आगे उनकी मर्ज़ी। यह गलती हमने तो कर दी है वह गलती अब आप लोग ना करें तो बेहतर। वरना हमारे देश में भी वृद्धा आश्रमों की संख्या बढ़ती ही जाएगी। अच्छा चलता हूँ। “
कुछ दिन बाद शुक्ला जी जॉगिंग करते दिखे।
“वाह! क्या बात है शुक्ला जी! अब सुबह -सुबह दौड़ते हुए ऩज़र आ रहे हैं ? तबीयत भी अच्छी लग रही है ! खुश भी लग रहे हैं! कोई खुश खुशखबरी है क्या ?”
जॉगिंग करते हुए शुक्ला जी रुक गए बोले-
“जी बोस दादा, आप से बात होने के बाद उस दिन घर जाने पर हमने अपने बच्चों से बातें की। कई उदाहरण दिए और सबसे बड़ा आपका उदाहरण दिया, क्योंकि बच्चे आपको बहुत समय से देख रहे हैं फिर अकेलेपन, बीमारी आदि की अवस्था में अगर बच्चे अपने पास ना हों तो फिर नि:संतान होना ही बेहतर है ना!”
मानो शुक्ला जी अब बोस दादा की सच्चाई से अवगत हो बोल रहे थे।
“इतना ही नहीं हमने दोनों लड़कों को काउंसलेर से भी मिलवाया और उन्होंने कई बातें बच्चों के सामने रखीं। “
“आज देश उन्नति के शिखर पर है। देश को अच्छे उच्च शिक्षित और कर्मठ लोगों की आवश्यकता है। इस ब्रेन ड्रेन से देश का बड़ा नुकसान होता है। बोसदादा ने अपने मत प्रकट किए।
सच कहा आपने दादा और फिर पता नहीं क्या सोच कर दोनों बच्चों ने जी आर ई की पढ़ाई छोड़ दी। आपको तो पता है जुड़वा बच्चे हमेशा एक जैसा ही निर्णय लेते हैं। हमारे बच्चों ने भी यही निर्णय लिया। “
“दोनों को कॉलेज में रहते हुए ही कंपनी सिलेक्शन से जो नौकरी मिली थी उसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हाँ इस वक्त सैलरी कम है क्योंकि पहले उन्होंने मना कर दिया था। पर साल 2 साल में सब कुछ ठीक हो जाने का आसरा भी उन्होंने दिया है। “
“बच्चे पास में होंगे तो कम ज्यादा में गुज़ारा भी हो जाएगा। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया बोस दादा, उस दिन आपका मार्गदर्शन ना होता तो रिटायरमेंट के बाद भी मैं बच्चों को बाहर पढ़ाने के चक्कर में कहीं ना कहीं फिर नौकरी करता रहता। “
“अब मुझे उसकी चिंता नहीं। बच्चे समझ गए। पहले थोड़े से उदास हुए और उसके बाद प्रैक्टिकली सोचकर उन्होंने यही निर्णय लिया। आएँगे बच्चे आपसे मिलने। आपके मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। “
बोस दादा ने लाठी समेत अपना दाहिना हाथ ऊपर कर दिया फिर बायाँ हाथ ऊपर किया दोनों हाथ जोड़े ऊपर आकाश की ओर देखे और बोले – “लाख-लाख शुक्र है भगवान तेरा एक घर टूटने से तो बच गया। “
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “मन चंगा तो कठौती में गंगा…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 333 ☆
लघुकथा – मन चंगा तो कठौती में गंगा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
उसका पुश्तैनी मकान प्रयाग में है संगम के बिल्कुल पास ही। पिछले साल दो साल से जब से कुंभ के आयोजन की तैयारियां शुरू हुई , उसकी सामान्य दिनचर्या बदलने पर वह मजबूर है। मेले की शुरुआत में परिचितों, दूर पास के रिश्तेदारों, मेहमानों के कुंभ स्नान के लिए आगमन से पहले तो बच्चे, पत्नी बहुत खुश हुए पर धीरे धीरे जब शहर में आए दिन वी आई पी मूवमेंट से जाम लगने लगा, कभी भगदड़ तो कभी किसी दुर्घटना से उसकी सरल सीधी जिंदगी असामान्य होने लगी । दूधवाला, काम वाली का आना बाधित होने लगा तो सब परेशान हो गए । इतना कि, आखिर उसने स्वयं ऑफिस से छुट्टी ली और घर बंद कर कुंभ मेले के पूरा होने तक के लिए सपरिवार पर्यटन पर निकलने को मजबूर होना पड़ा ।
प्रयाग की ओर उमड़ती किलोमीटरों लंबी गाड़ियों के भारी काफिले देख कर उसे कहावतें याद आ रही थी, देखा देखी की भेड़ चाल, मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम हृदयस्पर्शी कथा – ‘वजूद‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 276 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ वजूद ☆
नाम आर. एस. वर्मा, उम्र अड़सठ साल, डायबिटीज़ और उसके बाद दिल के रोगी। हैसियत —एक मध्यवर्गीय, पेंशनयाफ्ता, सामान्य आदमी। बच्चों में तीन लड़के और दो लड़कियां हैं, लेकिन वह फिलहाल पत्नी के साथ एक पुराने बेमरम्मत मकान में रहते हैं। अकेले क्यों रहते हैं और उनका इतिहास और संबंध-वृत कितना बड़ा है इस सब में जाने से कोई फायदा नहीं है। अब तो बस इतना महत्वपूर्ण है कि वह साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के चलते-फिरते इंसान हैं।
जिस दिन की बात कर रहा हूं उस दिन वर्मा जी बैंक के लिए निकले थे। बैंक बहुत दूर नहीं था, लेकिन शहर में दूरियां बड़ी होती हैं और कमज़ोर, बीमार आदमी के लिए वे और भी बड़ी हो जाती हैं। आदमी की पैदल चलने की आदत भी अब पहले जैसी नहीं रही। इसलिए वर्मा जी रिक्शे में गये और बैंक का काम निपटाया।
लौटते में रिक्शे वालों से पूछा तो लगा किराया ज़्यादा मांग रहे हैं। बैंक से थोड़ा आगे पुल था। सोचा पुल उतर लें तो किराया कम लगेगा। पैदल चल दिये। अब तक दोपहर हो गयी थी और सूरज ऐन उनके सिर पर चमकने लगा था। पुल चढ़ते-चढ़ते ही सामने के दृश्य अस्पष्ट और अजीब होने लगे। चलने में संतुलन गड़बड़ाने लगा तो उन्होंने पुल की दीवार का सहारा लिया। फुटपाथ को थोड़ा उठा दिया गया था, इसलिए वाहनों से कुचले जाने का भय नहीं था। लेकिन वह ज़्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके। उनके पांव धीरे-धीरे खिसकने लगे और जल्दी ही वह दीवार से टिके, बैठने की मुद्रा में आ गये। उनका सिर उनकी छाती पर झुका हुआ था और आंखें बन्द थीं।
आर. एस. वर्मा का इस तरह बीमार होकर बैठ जाना गंभीर और महत्वपूर्ण घटना थी। वह कभी एक सरकारी मुलाज़िम रहे थे और बत्तीस साल तक अपनी कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अनेक मामले निपटाये थे। दफ्तर में अनेक लोगों से उनके नज़दीकी रिश्ते रहे थे। वह किसी के पिता, किसी के पति, किसी के भाई, किसी के दादा, किसी के नाना, बहुतों के रिश्तेदार और परिचित थे। लेकिन फिलहाल इन सब बातों का कोई महत्व नहीं था क्योंकि वह भीड़भाड़ वाले उस पुल की दीवार से टिके साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच के बेनाम शख्स थे।
पुल पर लोगों का सैलाब गुज़र रहा था। साइकिल वाले, स्कूटर वाले, मोटर वाले, रिक्शे वाले और पैदल लोग। ज़्यादातर लोगों की नज़रें चाहे अनचाहे इस बैठे हुए लाचार इंसान पर पड़ती थीं, लेकिन सभी उस तरफ से नज़रें फेर कर फिर सामने की तरफ देखने लगते थे। एक तो इस तरह के दृश्य इतने आम हो गये हैं कि आदमी उन्हें देखकर ज़्यादा विचलित नहीं होता, दूसरे सभी को कोई न कोई काम था और उनके पास एक अजनबी बीमार की परिचर्या का समय नहीं था। तीसरे यह कि एक मरणासन्न दिख रहे आदमी के पास जाकर पुलिस के पचड़े में कौन पड़े।
लाचार आर.एस. वर्मा वैसे ही पड़े रहे और वक्त गुज़रता गया। लेकिन यह सीमित दायरे में पड़ा शरीर वस्तुतः उतना सीमित नहीं था जितना आप समझ रहे हैं। उनके शरीर से स्मृति- तरंगें निकलकर सैकड़ो मीलों के दायरे में एक विशाल ताना-बाना बुन रही थीं।
पहले दिमाग़ में एक दृश्य आया जब वे और बड़े भैया आठ दस साल की उम्र के थे और अपने नाना के गांव गये थे। नाना ज़मींदार थे और हर साल रामलीला कराते थे। उन्हीं के भंडार- गृह से धनुष-बाण निकालकर दोनों भाई खेलने लगे। बड़े भैया ने उनकी तरफ तीर साधा और अचानक वह उनकी पकड़ से छूटकर वर्मा जी की आंख में आ लगा। नाना, नानी, मां सब भागे आये और बड़े भैया की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। सौभाग्य से पुतली बच गयी थी, इसलिए इलाज से आंख बच गयी। वे दृश्य आज उनकी आंखों के सामने साफ-साफ घूम रहे थे।
जीजी के ब्याह का दृश्य सामने आ गया। मां और बाबूजी विदा के वक्त कितने दुखी थे। वर्मा जी के लिए विछोह का यह पहला अनुभव था। पहली बार यह महसूस करना कि अब जीजी पहले की तरह इस घर में कभी नहीं रह पाएंगीं। जीजाजी तब कैसे तगड़े, समर्थ दिखते थे।
स्मृति कॉलेज और हॉस्टल के दिनों की तरफ घूम गयी। एकाएक दोस्त सआदत का चेहरा उभर आया। कैसा अजीब इंसान था। उसने भांप लिया था कि वर्मा जी की माली हालत ठीक नहीं है, इसलिए जब अपने लिए कपड़े सिलवाता तो दो जोड़ी सिलवाता और उन्हें ज़बरदस्ती पहनाता। दोनों का नाप एक ही था।
वह दृश्य जब वे अपने जूतों में पॉलिश करने के लिए बैठते थे और उनके कमरे के और बगल के कमरे के सब साथी अपने-अपने जूते उनके सामने पटक जाते। मेस में थालियों के सामने बैठकर कोलाहल करते साथी और उनके बीच पसीना बहाते घूमते ठेकेदार पंडित जी। एक पूरी रील उनकी आंखों के सामने चल रही थी। जैसे कोई उपग्रह था जिसकी तरंगें कई स्थानों को एक साथ छू रही थीं।
फिर मंडप में अपनी शादी का दृश्य सामने आ गया। पहली बार पत्नी का हाथ हाथ में आया तो उनके शरीर में बिजली सी दौड़ गयी थी। किसी लड़की को ‘उस तरह’ से छूने का उनका वह पहला अनुभव था।
फिर पैतृक मकान के बंटवारे पर तमतमाया बड़े भैया का चेहरा उभरा। पास ही बांहों में सिर देकर रोती मां।
फिर बड़े बेटे वीरेन्द्र का चालाक चेहरा सामने आ गया। उनकी ग्रेच्युटी मिलने के बाद उसने दस बहाने लेकर उनके चक्कर काटने शुरू कर दिये थे। उसे अपने लिए अलग मकान बनाना था। उसकी देखादेखी अपनी अपनी मांग रखते महेन्द्र और देवेन्द्र कि यदि बड़े भाई को पैसे दिए जाएं तो उन्हें भी क्यों नहीं? फिर पैसे न मिलने पर क्रोध से विकृत वीरेन्द्र का चेहरा। फिर बेटों के अलग हो जाने से व्यथित पत्नी का उदास चेहरा।
तीन घंटे बाद उधर से गुज़रने वालों ने देखा कि पुल से टिका यह आदमी बायीं तरफ को झुक कर अधलेटा हो गया था। यह कोई भी समझ सकता था कि तीन घंटे तेज़ धूप के नीचे लावारिस हालत में पड़े रहने से इस आदमी की हालत और बिगड़ी थी। शायद अब भी वर्मा जी को बचाया जा सकता था, लेकिन अभी तक उनके पास कोई रुका नहीं था।
वर्मा जी के दिमाग़ के दृश्य अब अस्पष्ट और तेज़ हो गये थे। दृश्यों की रील अनियंत्रित, अव्यवस्थित दौड़ी जा रही थी। मां, बाबूजी, पत्नी, पुत्रों, पुत्रियों, दोस्तों के चेहरे गड्डमड्ड हो रहे थे। अब उन चेहरों से अपना संबंध जोड़ना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। चेहरे उभरते थे और हंसते, मुस्कुराते या रोते, उदास विलीन हो जाते थे। कहीं से आवाज़ें उठ रही थीं, कभी मां की, कभी बाबूजी की, कभी पत्नी की। फिर सब कुछ धुंधला होने लगा और आवाज़ें दूर और दूर जाते जाते हल्की होने लगीं।
वर्मा जी का सिर अब ज़मीन पर टिका था और शरीर में जीवन का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। स्मृति-तरंगों का विशाल जाल सिमट कर उनके शरीर में लुप्त हो गया था। उपग्रह से तरंगों का प्रवाह रुक गया था। अब सचमुच वर्मा जी का वजूद सिर्फ साढ़े पांच फुट जरबे दो फुट जरबे आठ इंच क्षेत्र तक सीमित हो गया था।
दूसरे दिन वर्मा जी का शरीर वहां नहीं था। शायद उनकी पत्नी को खबर मिली हो और वह उन्हें उठवा ले गयी हों, या कोई पड़ोसी उन्हें पहचान कर उन्हें ले गया हो, या फिर कोई भला आदमी उन्हें उस हालत में देखकर किसी डॉक्टर के पास ले गया हो। अन्तिम संभावना यह हो सकती है कि पुलिस उस लावारिस लाश को ले गयी हो और कल के अखबारों में उसके बारे में संबंधियों को सूचित करने के लिए फोटो सहित खबर छपे। जो भी हो, वर्मा जी का वजूद अब उतना ही था जितने वह दिखायी देते थे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – भाषा
– सुना है कि दुनिया की हर भाषा पढ़ लेते हो तुम।
– जी !
– अच्छा तो इस काग़ज़ पर लिखी ये चार भाषाएँ पढ़कर सुनाओ।
….मैं चुप रहा।
– जब कुछ जानते ही नहीं तो तुम्हारे बारे में यह झूठा प्रचार क्यों?
– मैं मन की भाषा की पढ़ लेता हूँ। उसके बाद दूसरी कोई भाषा जानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “चौथी सीट… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆
लघुकथा – संभावना… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
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जब राज बहादुर बुढापे की ओर बढने लगे तो उनके बेटे ने घर की जिम्मेदारी में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो उसकी ओर से निश्चिंत हो गए। चाहते थे कि हाथ पाँव चलते बेटे का भी विवाह हो, परंतु बेटा जगदीश यह कह कर टाल देता कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट हो जाए और स्वतंत्र रूप से गृहस्थी चलाने योग्य हो जाए तब विवाह की सोचेगा। उसने अपने पिता से कहा कि घर बनाते समय जो कर्ज चुक भी नहीं पाया और बहन के विवाह में कर्ज और चढ गया तो ऐसी हालत में और खर्च बढाना उचित नहीं है। राज बहादुर अंदर ही अंदर यह सुनकर प्रसन्न होते लेकिन बिना दर्शाए कहते, “कहते तो ठीक हो पर सही उम्र में काम होना उचित रहता है। समाज भी देखना पड़ता है।” वे केवल कहने के लिए कहते, पालन करने के लिए नहीं।
ऐसे ही समय ठीक ठाक कट रहा था। बेटी एक बच्चे की माँ बन गई थी। जगदीश का भी विवाह हो गया। काम भी ठीक चल ही रहा था। राज बहादुर कढाई का काम करते थे पर नज़र कमजोर होने की वजह से काम बंद कर दिया था। फिर भी जो काम मिलता कर लिया करते। उनकी आमदनी में घर चल जाता था पर वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके जिससे बुढापे में पैंशन मिल सके। न सरकारी नौकरी थी न किसी बड़ी कंपनी की नोकरी, जिससे रिटायर होने पर पैंशन मिलती है।वरिष्ठ नागरिक की उम्र पार करने पर उन्होंने वृद्धावस्था पेंशन के लिए कोशिश की। केंद्र व राज्य सरकार की पेंशन योजना में पैंशन के लिए आवेदन करने गए तो बताया गया कि केवल निराधार वृद्धों को पैंशन दी जाती है। निराधार का मतलब जिनके बेटा न हो। अगर बेटा हो भी तो परिवार की आय एक निश्चित रकम से कम होनी चाहिए। उनके बेटे जगदीश की आय आयकर के दायरे में तो नहीं आती परंतु उस सीमा से अधिक थी जिस सीमा तक सरकार की पैंशन मिलती है। राज बहादुर यह तो कह ही नहीं सकते कि उनका बेटा नहीं है। जगदीश एक कंपनी में काम करता था। उसके वेतन से घर चल जाता था। फिर भी कुछ ऐसे काम थे कि उसका वेतन कम पड़ जाता। घर का टैक्स यानी प्रापर्टी टैक्स तीन गुना बढ़ गया था और जगदीश टैक्स जमा नहीं कर पा रहा था। टैक्स जमा न करने के नोटिस आते तो जगदीश अपने पिता तक नहीं पहुंचने देता।
तीन साल का प्रापर्टी टैक्स देना बाकी था, इसका नोटिस देखा तो राज बहादुर सोच में पड़ गए। सोच रहे थे कि जगदीश ने टैक्स जमा क्यों नहीं किया? जगदीश से पूछने में भी उन्हें संकोच हो रहा था। क्योंकि, जगदीश ने उनसे कभी कुछ छुपाया ही नहीं। वे सोच रहे थे कि जरूर कोई गंभीर बात है। खाना खाने के बाद सब सोने चले गए पर राज बहादुर को नींद नहीं आ रही। वे वॉशरूम के लिए उठे तो देखा जगदीश के कमरे की लाइट जल रही है। पता नहीं उन्हें कमरे में झाँकने की इच्छा ने मजबूर कर दिया। वे किसी के कमरे में झाँकने को बहुत बुरा मानते थे। परंतु इस बार वे अपने आपको रोक नहीं सके। देखा जगदीश लेपटॉप खोल कर बड़ी गंभीरता से कुछ देख रहा है और कागज पर कुछ नोट करता जा रहा है। आखिर कमरे में घुसते हुए पूछ बैठे,
“जगदीश बेटा अभी तक सोए नहीं? क्या काम बहुत ज्यादा है। ” जगदीश चौंक गया। कुर्सी से उठा और सोचा कि पिताजी से छुपना ठीक नहीं तो बोला, “पापा जॉब ढूंढ़ रहा हूँ। कंपनी में छँटनी हो रही है। एकाध हफ्ते में मेरा नंबर भी आ सकता है।” “छँटनी?” “हाँ पापा छँटनी, तीन साल से यह तलवार लटकी हुई है पर अब सिर पर गिरने ही वाली है। मैंने प्रॉपर्टी टैक्स जमा नहीं किया बल्कि छोटी सी बचत कर रहा था ताकि अचानक ऐसा वक्त आए तो कम से कम रसोई चल सके। नया जॉब मिलने पर टैक्स जमा कर दूंगा। सॉरी पापा!” राज बहादुर सोचते रहे कि दिन पर दिन बढती महँगाई, तीन गुना घर का टैक्स और बेरोज़गारी की लटकती तलवार, जीना कैसे संभव होगा। ऊपर अँधेरे में आसमान की ओर हाथ उठाते हुए बड़बड़ाए “जीने की संभावना मर नहीं सकती।” तभी जगदीश कमरे से बाहर निकल आया और बोला, “पापा मुझे नया जॉब मिल जाएगा। कल इंटरव्यू है।” राज बहादुर के चेहरे पर कैसे भाव आए, उन्हें जगदीश नहीं देख सका।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बंधन से आजाद ।)
क्या बात है दादाजी मम्मी पापा घूमने जाते हैं और हमें छोड़ जाते हैं? हम सब साथ जाते तो कितना मजा आता।
कोई बात नहीं बेटा रिंकू हम दोनों घर में खूब मजे करेंगे और कल मैं तुम्हें सुबह पार्क भी ले जाऊंगा। चलो तुम्हें क्या खाना है मैं वही बनाता हूं। वह लोग तो बाहर खाने में पता नहीं क्या कचरा सड़ा गला कितने दिनों का बासी खाएँगे। मैं तुम्हें ताजा फ्रेश खिलाता हूं। आलू और मटर की सब्जी बढ़िया रोटी में तुमको रोल करके देता हूं। तुम्हारी दादी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थी। मैं उन्हें देखते-देखते ही सीख गया। आज काम आ रहा है।
दादाजी, मैं भी जब बड़ा हो जाऊंगा तो उन्हें लेकर कहीं नहीं जाऊंगा हम और आप चलेंगे?
ठीक है अच्छे से पढ़ाई कर लो रिंकू।
तभी अचानक बहू बेटे आ जाते हैं और बहू रिंकू की बात सुन लेती है। बाबूजी आप छोटे से बच्चे के कान में हमारे खिलाफ क्या-क्या भरते रहते हैं? कल हम इसे हॉस्टल भेज देंगे आपकी संगत में यह बिगड़ जाएगा।
हां बात तो सही है तुम्हारी। रेनू जब मैं छोटा था तो बाबूजी मुझे यही बात कहते रहते थे। हां किशोर मैं तुम्हें यही बात तो कहता रहता था लेकिन तुमने मेरी बात सुनी कहा विदेश पढ़ने के लिए भेजा था अपने लिए कुछ ना रखते हुए तुम्हें पढ़ाया लिखाया। और मुझे क्या पता था कि तुम मेरा ही जीवन नर्क बनाओगे। नहीं तो तुम कभी रेनू से शादी करते?
मैं इतना ख्याल रखती हूं बाबूजी आपका। तब भी आप मेरे लिए ऐसे ही सोचते हैं अब तो लग रहा है कि आपको वृद्ध आश्रम के रास्ते दिखाने पड़ेंगे।
मैं जानता था कि एक दिन ऐसा आएगा। पंडित जी के आश्रम में अभी जा रहा हूं। यह तो मैं पोते के मोह में यहां पर था। रिंकू में जा रहा हूं पास में आश्रम और मंदिर है तुम बेटा आते रहना। मुझे तुम पर गर्व है तुम मेरी तरह बनना। अपने माता-पिता की तरह नहीं। आज तुम्हारा धन्यवाद अदा करता हूं कि तुम लोगों ने मुझे इस बंधन से आजाद कर दिया। मैं थोड़ा लोभी हो गया था।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 43 – लघुकथा – अनुभवी काल का अंत
घटना तब की है जब पिथौरागढ़ एक छोटी – सी जगह थी। कुमाऊँ- गढ़वाल इलाके का एक साधारण गाँव। यह गाँव पहाड़ों के ऊपरी इलाके में स्थित था। अल्पसंख्यक जनसंख्या थी।
रतनामाई छोटी – सी उम्र में ब्याह कर यहीं आई थी। फिर यही गाँव और अपना छोटा – सा घर उसकी दुनिया बन गई थी। वह निरक्षर थी पर अपने सिद्धांतों की बहुत पक्की थी। आत्मनिर्भरता का गुण उसमें कूट-कूटकर भरा था।
प्रातः उठना घर की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना और फिर पास के मैदानों से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, उन्हें घर के पास पत्थरों से बने एक कमरे में जमा करना उसकी आदत थी। बूढ़ी हो गई थी पर यह आदत न छुटी।
पति के गुज़रने के बाद उसने अपने घर के बाहरी आँगन में पत्थरों को मिट्टी से लीपकर टेबल जैसा बना लिया था और छोटी – सी आँगड़ी पर चाय बनाकर बेचा करती थी। घर की छोटी-मोटी ज़रूरतें उससे पूरी हो जाती थीं। दोनों बेटिओं ने भी अपनी माँ का साथ दिया तो कभी पकोड़े तो कभी मैगी भी अब दुकान में बिकने लगीं थीं।
अब तो माई की उम्र सत्तर के करीब थी। दोनों बेटियाँ ब्याही गई थीं, दो बेटे जवान हो चुके थे, बहुएँ और पोते – पोतियाँ थीं पर अभी भी प्रातः उठकर चूल्हा जलाना, गरम पानी रखना, चाय बनाना, आटा गूँदना और फिर थोड़ी धूप निकलते ही लकड़ियाँ चुनने खुले मैदान की ओर निकल जाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।
बेटों ने कई बार अपनी माँ से कहा कि अब तो सरकार ने गैस सिलिंडर भी दे रखे हैं क्या ज़रूरत है लकड़ियाँ एकत्रित करने की भला ? उत्तर में रतनामाई कहतीं -कल किसने देखा बेटा, क्या पता कब ये लकड़ियाँ काम आ जाएँ!
उसकी बात सच निकली। मानो उसे दूरदृष्टि थी। एक साल इतनी अधिक बर्फ पड़ी कि पंद्रह दिनों के लिए रास्ते बंद पड़ गए और गैस सिलिंडर दूर -दराज़ गाँवों तक समय पर न पहुँचाए गए। ऐसे समय माई की जमा की गई लकड़ियाँ ही ईंधन के काम आईं, बल्कि पड़ोसियों को भी माई की इस मेहनत का प्रसाद मिला।
अनुभवी और दूरदृष्टि रखनेवाली माँ से अब उनके बेटे विवाद न करते। समय बीतता रहा।
कुछ समय पहले इतनी भारी बर्फ पड़ी कि सारी भूमि श्वेतिमा से भर उठी। दूर – दूर तक बर्फ़ ही बर्फ़ दिखाई देती। जनवरी का महीना था अभी ही तो सबने नए साल का जश्न मनाया था पर उस दिन सुबह रतनामाई नींद से न जागी। रात के किसी समय नींद में ही वह परलोक सिधर गई।
बाहर बर्फ की मोटी परतें चढ़ी थीं, सूर्यदेव भी छुट्टी पर थे। मोहल्लेवालों ने आपस में तय किया कि इतनी भारी बर्फ में माई को श्मशान तक ले जाना कठिन होगा। इसलिए पास के खुले मैदान पर जहाँ बर्फ तो थी पर घर के पास की ही समतल भूमि पर चिता सजाई गई। माई के अंतिम संस्कार में माई द्वारा संचित लकड़ियाँ उस दिन काम आईं।
चिता जल उठी, माई का स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और दूरदृष्टि धू- धूकर जलती हुई लपटों में लिपट कर आकाश की ओर मानो प्रभु से मिलने को निकल पड़ी। एक अनुभवी काल का अंत हुआ।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “– गणित से परे –” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — गणित से परे —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
एशना ने अपने माँ – बाप को लड़ते तो कभी नहीं देखा। दोनो घर में हों और बेटी से बातें कर रहे हों तो लगता था उनके बीच तो अनंत प्रेम पलता है। हो सकता था उनके प्रेम की परिभाषा यही हो, लेकिन इस तरह अपनेपन से भरे घर में जब तलाक की बात उठी तो एशना समझ न पायी किसे अधिक देखे माँ को या पिता को? या दोनों को बराबर देखे या उन्हें बिल्कुल न देखे? अदालत में तलाक के साथ न्याय यह सामने आया कि एशना अपनी माँ के साथ रहेगी। माँ ने इस खुशी में बेटी को गले लगाया तो पिता ने बेटी को प्यार से शाबाशी देते हुए कहा यही होना चाहिए था। इस वात्सल्य के बाद पिता धीरे से हट गया। एशना अपने पिता का यह उदार वात्सल्य अपने साथ ले कर माँ के साथ गई। वह अपनी माँ के मना करने पर भी पिता से अलगाव करती नहीं। पर उसने तो देखा माँ स्वयं चाहती थी पिता के प्रति उसका प्रेम बना रहे। पिता जब फोन से कहता था ठीक से पढ़ना और माँ यह सुन लेती थी तो कहती थी अपने पिता का कहा मानना। बेटी परीक्षा में जब भी पास हुई माँ ने उसे यह सूचना अपने पिता को देने के लिए कहा। पिता ने सूचना पाते ही उसे शाबाशी दी और कहा तुम्हारी माँ को यह श्रेय जाता है। एशना अपनी माँ से यह कहती थी। माँ को सुनने पर बहुत अच्छा लगता था। पर यह एक छत वाले समझोते का विकल्प बनता नहीं था।
बेटी की शादी की जब बात चली तो माँ – बाप के तलाक के तेरह साल हो रहे थे। न माँ ने दूसरी शादी की और न ही पिता ने। माँ के साथ रहने वाली एशना की शादी माँ के घर से ही हुई। पिता ने आ कर शादी में खूब हाथ बटाया। दोनों ने मिल कर कन्यादान किया। परिवार के लोग दोनों की दूरी को इस तरह असंभव समीपता में देख कर जैसी भी बातें कर रहे हों दोनों इससे बेखबर थे।
बेटी के विदा होने से पहले पिता माँ के घर से चला गया। बेटी सदा के लिए एक टीस ले कर ससुराल गई। एशना अपने माँ – बाप के शरीर को कहाँ जाने, वह जाने तो अपने माँ – बाप की आंतरिकता को। उसके बीच में होने से उसके माँ – बाप एक मन और एक भाषा के हो जाते थे। बेटी की शादी होते ही उनका यह रिश्ता बहुत गहरे टूट गया !
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘डबल पैसा ? ‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 147 ☆
☆ लघुकथा – डबल पैसा ?☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“रिक्शावाले भइया! चौक चलोगे?”
“हां बिटिया! काहे न चलब”
“पैसा कितना लेबो?”
रिक्शावाले ने एक नजर हम दोनों पर डाली और बोला – “दुई सवारी है पैसा डबल लगी। रस्ता बहुत खराब है और चढ़ाई भी पड़त है। ”
“पैसा डबल काहे भइया! रास्ते में जहां चढ़ाई होगी हम दोनों रिक्शे से उतर जाएंगे”
“दो लोगन का खींचै में हमार मेहनत भी डबल लगी ना बिटिया!”
अदिति ने उसको मनाते हुए कहा- “अरे! चलो भइया हो जाएगा, थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना और दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठ गईं। ”
रिक्शावाला सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने लगा। चढ़ाई होती तो वह सीट से नीचे उतरकर एक हाथ से हैंडिल और एक से सीट को पकड़कर रिक्शा आगे खींचता। चढ़ाई आने पर हम रिक्शे से उतर भी गए फिर भी रिक्शावाला पसीने से तर-बतर हो बार- बार अँगोछे से पसीना पोंछ रहा था। पैडल पर रखे उसके पैर जीवन जीने के लिए भीड़, उबड़-खाबड- रास्तों और विरुद्ध हवा से जूझ रहे थे।
रिक्शावाले की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी ‘डबल सवारी है तो पैसा डबल लगेगा’। बचपन से मैंने माँ को घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी करते हुए चकरघिन्नी सा घूमते ही तो देखा है। दोनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए वह जीवन भर दो नावों में पैर रखकर चलती रही। घर का काम निपटाकर ऑफिस जाती और वापस आने पर रात का खाना वगैरह न जाने कितने छोटे-मोटे काम—
निरंतर घूम रहे पैडल के साथ- साथ बचपन की यादों के न जाने कितनी पन्ने खुलने लगे। सुबह होते ही स्कूल के लिए भाग-दौड़ और शाम को हम दोनों का होमवर्क, स्कूल की यूनीफॉर्म, बैग तैयार करके रखना सब माँ के जिम्मे, साथ में पारिवारिक जीवन के उतार, चढ़ाव, तनाव—-। थोड़ी देर में ही मन अतीत की गलियों में गहरे विचर आया। स्त्रियों को उनकी इस डबल ड्यूटी के बदले क्या मिलता है ?
“बिटिया! आय गवा चौक बाजार, उतरें।”
“दीदी! उतरो नीचे किस सोच में डूब गई” – आस्था ने कहा
उसकी आवाज से मानों तंद्रा टूटी। मैंने रिक्शावाले के हाथ में बिना कुछ कहे दुगने पैसे रख दिए।