(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘उंगली उठी तो’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 129 ☆
☆ लघुकथा – उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘चेतन! उधर देखो – ये क्या कर रहे हैं सब ? एक- सी मुद्रा में खड़े हैं, एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।‘
‘कुछ कहना चाह रहे हैं क्या ?’ -सुयश बोला
‘हाँ, कुछ तो बोल रहे हैं, चेहरे पर गुस्सा दिख रहा है। पर सब एक ही तरह से खड़े हैं ?’
‘कोई मोर्चा निकल रहा है क्या ?’ – सुयश बोला
‘पता नहीं।’
चेतन! वे सब तो हँस रहे हैं लेकिन मुद्रा वैसी ही है एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।
चेतन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, इधर दौड़ा – उधर भागा, पर सब तरफ वही दृश्य, वैसी ही मुद्राएं । स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, राजनीति का कार्यालय या —–। टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी तो नेता, मंत्री सब एक- दूसरे की ओर उंगली दिखाते हैं। उसे बचपन का खेल याद आया स्टेच्यू वाला। ये सब स्टेच्यू हो गए हैं क्या ?
पर खेल में तो जो जिस मुद्रा में रहता था उसी में स्टेच्यू हो जाता था, हाँ अच्छे से याद है उसे। बचपन में बहुत खेला है यह खेल। लेकिन यहाँ तो सब एक – सी ही मुद्रा में दिख रहे हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा –“सरकारी बल्ब”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 154 ☆
कमल को अपनी पुत्री का नाम कूपन से कटवाना था। वह नगर पालिका में बैठा था। तभी रोहित ने आकर कहा, “साहब! मेरा घर गांव से एक तरफ है। स्ट्रीट लाइट पर बल्ब लगवा दीजिए।”
यह सुनकर कमल बोला, “साहब! मेरा घर भी वहां पर है। आप बल्ब मत लगाइएगा।”
यह सुनकर सीएमओ साहब ने रोहित के साथ-साथ कहा, “क्यों भाई! क्या बात हैं?”
“साहब, वह वापस फूट जाएगा,” कमल ने कहा तो रोहित बोला, “अजीब आदमी हो। अपने घर की गली में बल्ब लगवाने का मना कर रहे हो।”
सीएमओ साहब ने कमल को देखकर आंखें ऊंचका कर इशारे में पूछा-क्या बात है भाई?
“साहब! इनका पुत्र स्ट्रीट लाइट बल्ब को पत्थर से निशाना लगाकर फोड़ देता है। फिर मेरे जैसा व्यक्ति उनके पुत्र को बल्ब फोड़ने से रोकता है तो ये साहब कहते हैं- आपके बाप का क्या जाता है? सरकारी बल्ब है। फोड़ने दीजिए।”
यह सुनकर रोहित ने गर्दन नीचे कर दी और सीएमओ साहब बारी-बारी से दोनों को देखे जा रहे थे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 236 ☆
लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर…
काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की नीली शर्ट, गले में गहरी नीली टाई, कंधे पर लैप टाप का काला बैग, और हाथ में मोबाइल… जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है. मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता, सातों दिन पूरे महीने, टारगेट के बोझ तले. एटीकेट्स के बंधनो में, लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार, बातचीत के दौरान सेलिंग स्ट्रैटजी के अंतर्गत देश दुनिया, मौसम की बाते भी करनी पड़ती, यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है, उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता. डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता. डील के बाद वही “ब्रांड एम्बेसडर” कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता. बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता, उस एक दिन के बादशाह पर. उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है, अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू टर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है. अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है, घर घर.
इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है, अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है,
आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर, झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की भूरी शर्ट, गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये… वह पहले ही जाँच परख चुका था कार, पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे, तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई.. पत्नी और बच्चे “ब्रांड एम्बेसडर” बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे.. निर्णय लिया जा चुका था, सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी. डील फाइनल हो गई. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे. बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे. आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये, वह एटीकेट्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर. . आज वह “ब्रांड एम्बेसडर” जो था.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित अप्रतिम कल्पना से परिपूर्ण एक लघुकथा “मूरत में ममता🙏”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 171 ☆
☆ लघुकथा – 🌷 मूरत में ममता 🙏.☆
भरी कालोनी में सजा हुआ दुर्गा मैया का पंडाल। अद्भुत साज सज्जा जो भी देख रहा था मन प्रसन्नता से भर उठता था। दुर्गा जी की प्रतिमा ऐसी की अभी बोल पड़े। गहनों से सजा हुआ शृंगार, नारी शक्ति की गरिमा, दुष्ट महिषासुर का वध करते दिखाई दे रही थी।
आलोक कालोनी में एक फ्लैट, जिसमे सुंदर छोटा सा परिवार। धर्म पत्नी बड़ी ही होनहार सहनशील और ममता की मूरत। दो बच्चों की किलकारी घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।
आलोक प्राइवेट कंपनी में जाब करता था। परंतु कहते हैं ना कि सब कुछ संपन्न होने के बाद कहीं ना कहीं कुछ रह ही जाता है। उसे शक या वहम की बीमारी थी। इस कारण सभी से कटा- कटा सा रहता था।
पत्नी कल्पना भी किसी से मेल मिलाप नहीं कर पाती थी, क्योंकि यदि बात भी कर ले तो… क्यों आया? कैसे आया? किस लिए आया? कहां से आया? और सवाल ऊपर सवाल करते? दो से चार हाथों की झड़ी भी लग जाती थी।
मोटी-मोटी आँसू की बूँदें लिए कभी कल्पना चुपचाप रहती, कभी सिसकी लेते हुए रोती दिखाई देती थी।
परंतु उसमें अपने पति से लड़ने या बहस कर उसे सच्चाई बताने की ताकत नहीं थी। क्योंकि वह एक गरीब परिवार से ब्याह कर आई। एक बेचारी बनकर रह गई थी।
आज कालोनी में बताया गया की दुर्गा मैया का आज विशेष शृंगार होगा। सभी महिलाएं खुश थी अपने-अपने तरीके से सभी शृंगार सामग्री ले जा रही थी। परंतु कल्पना बस कल्पना करके रह गई।
उसे न जाने का न मन था और न ही उसे कुछ खरीदने की चाहत थी। आलोक के डर के कारण वह जाना भी नहीं चाह रही थी। बच्चों की जिद्द की वजह से आलोक अपने दोनों बच्चों को लेकर माता के पंडाल पर गया।
भजन, आरती और गरबा सभी कुछ हो रहे थे। परंतु आलोक का मन शांत नहीं था। एक दोस्त ने पूछा… क्यों भाई इतनी सुंदर माता की मूरत और आयोजन हो रहा है। आप खुश क्यों नहीं हो।
आलोक ने हिम्मत करके उसे एक कोने में ले जाकर पूछा…. भाई जरा बताना क्या? तुम्हें दुर्गा माता की आँखों से गिरते आँसू दिखाई दे रहे हैं।
उसने जवाब दिया क्या बेवकूफी भरी बातें कर रहा है इतनी प्रसन्नता पूर्वक ममता में माता भला क्यों आँसू गिरायेगी। फिर वह एक दूसरे से पूछा क्या तुम्हें दुर्गा माता के आँसू दिखाई दे रहे हैं। उसने जवाब दिया मुझे तो सिर्फ ममतामयी वरदानी और अपने बच्चों के लिए हँसती हुई प्यार बांँटने वाली दिखाई दे रही है।
वह बारी-बारी से कई लोगों को पूछा सभी ने जवाब में दिया कि भला माता क्यों रोएगी। अब तो उसके सब्र का बाँध टूट गया।
बच्चों को पंडाल में सुरक्षित जगह पर बिठाकर। वह दौड़कर अपने घर की ओर भागा। जैसे ही दरवाजा खुला लाल साड़ी से सजी उसकी कल्पना आँसुओं की धार बहते दरवाजा खोलते दिखाई दे गई।
बस फिर क्या था वह कसकर उससे लिपट गया और कहने लगा मैं आज तक समझ नहीं सका तुमको मुझे माफ कर दो। चाहो तो मुझे कोई भी सजा दे सकती हो परंतु मुझे कभी छोड़कर नहीं जाना।
कल्पना इससे पहले कुछ कह पाती वह झट से अलमारी खोल लाल चुनरी निकाल लिया और कल्पना के सिर पर डाल कर उसके मुखड़े को देखने लगा।
आज मूरत में जो ममता और करुणा नजर आया था। वह कल्पना के मुखड़े पर साकार देखा और देखता ही जा रहा था। बस उसकी आँखों से पश्चाताप अंश्रु धार बहने लगी। कल्पना सब बातों से अनभिज्ञ थी। पर उसे आज अच्छा लगा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा –“विकल्प”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 153 ☆
☆ लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर मां की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूं धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहा हैं।”
” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।”
“अब सारे गेहूं गीले हो रहे हैं।”
” तो मैं क्या करूं?” बेटी खींज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”
” तुझ से बहस करना ही बेकार है,” मां जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”
” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूं गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूं धो कर मत सुखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया।
मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के परम्पराओं और आधुनिक पीढ़ी के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक लघुकथा “श्राद्ध में संशय”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 170 ☆
☆ लघुकथा – 🌷 श्राद्ध में संशय 🙏.☆
उषा और वासु दोनों भाई बहन ने जब से होश संभाले, अपनी मम्मी को प्रतिवर्ष पापा के श्राद्ध के दिन पंडित और रसोई का काम संभालते देखते चले आ रहे थे।
बिटिया उषा तो जैसे भी हो संस्कार कहें या रीति रिवाज अपनी मम्मी के साथ-साथ लगी रहती थी, परंतु बेटा वासु इन सब बातों को ढकोसला जली कटी बातें या सिद्धांत विज्ञान के उदाहरण देने लगता था।
समय बीता, बिटिया ब्याह कर दूर प्रदेश चली गई और बेटा अपने उच्च स्तरीय पैकेज की वजह से अपनों से बहुत दूर हो चला। उसकी अपनी दुनिया बसने लगी थी। मम्मी ने अपना काम वैसे ही चालू रखा जैसे वह करतीं चली आ रही थी।
परंतु समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज सुबह से मम्मी मोबाइल पर रह रहकर मैसेज देखती जा रही थी। उसे लगा शायद बच्चे पापा का श्राद्ध भूल गए हैं।
वह अनमने ढंग से उठी अलमारी से कुछ नए कपड़े निकाल पंडित जी को देने के लिए एक जगह एकत्रित कर रही थी।
तभी दरवाजे पर घंटी बजी।
लगा शायद पंडित जी आ गए हैं। वह धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर पहुंची। आँखों देखी की देखती रह गई।
दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार के साथ खड़े थे। घबराहट और खुशी कहें या दर्द दोनों एक साथ देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बात क्या है??? अंदर आते ही दोनों ने कहा… मम्मी आज और अभी पापा का यह आखिरी श्राध्द है। इसके बाद आप कभी श्रद्धा नहीं करेंगी।
क्योंकि हमारे पास समय नहीं है और इन पुराने ख्यालों पर हम कभी नहीं आने वाले। मम्मी ने कहा… ठीक है आज का काम बहुत अच्छे से निपटा दो फिर कभी श्रद्धा नहीं करेंगे।
पूजा पाठ की तैयारी पंडितों का खाना सभी तैयार था। बड़े से परात पर जल रखकर बेटे ने तिलांजलि देना शुरू किया। बहन भी पास ही खड़ी थी पंडित जी ने कहा… मम्मी के हाथ से भी तिल, जौ को जल के साथ अर्पण कर दे। पता नहीं अब फिर कब पिृत देव को जल मिलेगा।
पूर्वजों का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। आवाज लगाया गया फिर भी मम्मी कमरे से बाहर नहीं निकली।
तब कमरे में जाकर देखा गया मम्मी धरती पर औधी पड़ी है। उनके हाथ में एक कागज है। जिस पर लिखा था.. श्राद्ध पर संशय नहीं करना और कभी मेरा श्रद्धा नहीं करना। तुम दोनों जिस काम से आए हो वह सारी संपत्ति मैं वृद्ध आश्रम को दान करती हूँ।
आज के बाद हम दोनों का श्राद्ध वृद्धा आश्रम जाकर देख लेना।
वक्त गुजरा…. आज फिर उषा और वासु ने मोबाइल के स्टेटस, फेसबुक पर पोस्ट किया… मम्मी पापा का श्राद्ध एक साथ वृद्धाश्रम में मनाया गया परंतु अब श्राद्ध पर संशय नहीं सिर्फ पछतावा था।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 128 ☆
☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू – पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।
अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो?
‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।
‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं।‘
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “मोबाइल में रस्म रिवाज”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 169 ☆
☆ लघुकथा – 📱मोबाइल में रस्म रिवाज 📱 ☆
शकुंतला देवी गांव में तो बस उसका नाम ही बहुत था। सारे गांव के लिए वह देवी के समान थी क्योंकि गांव की बिटिया थी और सभी की सहायता करती थी। जाने अनजाने सब का भला करती थी। बिटिया सयानी हो चली थी। कहने को तो उसकी शादी धूमधाम से रईस खानदान में दूर दराज शहर में एक नामी परिवार में हुआ था। परंतु पति की अय्याशी और गैर जिम्मेदारी के कारण उसका विवाह ज्यादा दिन नहीं चला।
उसे अपना भाग्य समझे या दुर्भाग्य दोनों का एक बेटा था। बेटे को लेकर वह सदा – सदा के लिए फिर से अपने गांव मायके आ गई। अपनी सूझबूझ से गांव की एक पाठशाला से आज वह गवर्नमेंट स्कूल की प्रिंसिपल बन चुकी थी। अपने बच्चे के लालन- पालन में कोई कसर नहीं रखी थी, परंतु कहते हैं कि खून का असर कहीं नहीं जाता है। बेटा भी उसी रंग ढंग का निकला।
वह उसे एक बड़े शहर में हॉस्टल में भर्ती कराकर कि शायद वह सुधर जाएगा, वह आ गई और अकेली समय काट रही थी। साथ में एक आया बाई हमेशा रहती थी।
उम्र का पड़ाव अब ढलान की ओर होने लगा। चिंता की गहरी रेखाएं उसके माँथे को ततेर रही थी। कभी जब बहुत कहने पर वक्त का बहाना बना देने वाला उसका बेटा आज माँ शकुंतला देवी से वीडियो कॉल पर बात कर रहा था….माँ शादी के रीति रिवाज मैं नहीं मानता। परन्तु यह देखो हम दोनों यहां शादी कर रहे हैं। तुम कहती… हो सिंदूर की गरिमा होती है। तो मैं इसके माँग पर सिंदूर भी लगा रहा हूँ। परंतु मुझे आपके रीति रिवाज में कोई दिलचस्पी नहीं है।
हाथ से हेलो करती दूसरी तरफ से कटे बाल वाली लड़की कहने लगी… हमें आशीर्वाद तो दे दो हमारी नई जिंदगी शुरू हो रही है।
शकुंतला देवी के सैकड़ो हजारों अरमान कांच के गिरकर टूटने जैसे एक ही बार में बिखर गए। सपने संजोए वह क्या-क्या सोच रही थी। परंतु बेटे ने तो एक बार में वीडियो कॉल से ही निपटा दिया। आज वह पूरी तरह टूट चुकी थी।
तभी कमरे के दरवाजे से पंडित जी की आवाज आई… बहन जी पिंडदान की पूरी तैयारी हो चुकी है। बस आप कहे तो हम आगे का कार्यक्रम शुरू करें।
शकुंतला देवी ने कहा पंडित जी आज जोड़े से पिंडदान कीजिएगा। मैं अपना स्वयं जीते जी पिंडदान करना चाहती हूँ। कुछ देर बाद वह निर्णय ले अपनी सारी संपत्ति, सामान गाँव के अनाथ बच्चों और बुजुर्गों के लिए रजिस्टर्ड कर अपना पिंडदान कर सारी रस्म – रिवाज पूरी करने लगी।
गांव में हलचल मच गई सभी ने कहा… यह कैसा मोबाइल में रस्म रिवाज चल गया जो आदमी को जीते जी मार रहा है। क्या? मोबाइल से रस्म रिवाज निभाए जाते हैं? शादी विवाह या और कुछ रीति रिवाज निभाए जाते हैं।
गांव में जितने लोग उतनी बातें होने लगी शकुंतला देवी के पास फिर कभी वीडियो कॉल नहीं आया। आज उसके मुखड़े पर चिंता की लकीर नही खुशियों की झलक दिखाई दे रही थी।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्यात्मक लघुकथा – “टाइम पास…”।)
☆ व्यंग्यात्मक लघुकथा – ‘टाइम पास’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
पंडित जी कथा कराने टाइम से आ गये थे, देर घर वाले कर रहे थे। भीषण गर्मी थी, देर होते देख जजमान ने कहा – पंडित जी बेडरूम में एसी लगा है, जब तक थोड़ा देर आराम कर लीजिए। पंडित जी राजी हो गए और बेडरूम के सोफा में पसरकर टीवी देखने लगे।
पंडित जी के हाथ में रिमोट था,जब देखा कि कोई आसपास नहीं है तो फैशन टीवी चैनल चालू कर ‘देखने का सुख’ लेने लगे। थोड़ी देर बाद अचानक जब जजमान कथा के लिए बुलाने आए तो पंडित जी फैशन शो देखने में मग्न थे। पंडित जी अचानक जजमान को कमरे में घुसते देखकर सकपका गये और पट्ट से टीवी बंद कर बोले – ‘जजमान जी, आपको गलतफहमी न हो और श्रद्धा में कमी न हो, इसलिए बताना जरूरी है कि मैं इन्हें बहुत घृणा की दृष्टि से देख रहा था।’
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय कहानी ‘उड़ान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 213 ☆
☆ कहानी – उड़ान☆
नन्दो बुआ जब घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसे ठसक से चलती हैं जैसे विश्व -विजय पर निकली हों। वजह यह है कि नन्दो बुआ एक काम की विशेषज्ञ हैं और यह काम है शादी कराना। यह नन्दो बुआ की ‘हॉबी’ है और इसके प्रति वे पूरी तरह समर्पित हैं। अगर उन्होंने ‘मैरिज ब्यूरो’ खोला होता तो भारी कमाई कर लेतीं। उनके बगल में उनका फूला हुआ बैग दबा रहता है जिसमें लड़कों- लड़कियों के फोटो, उनकी जन्मपत्रियाँ और अते-पते भरे रहते हैं।
जहाँ ब्याह लायक लड़कियाँ हैं वहाँ नन्दो बुआ को खूब आदर-सम्मान मिलता है। जहाँ बैठ जाती हैं वहाँ से घंटों नहीं उठतीं। घर में उनकी नज़र घूमती रहती है। हर लड़की में उन्हें संभावनाशील दुलहन नज़र आती है। घरों में उनका रोब भी खूब चलता है। इच्छानुसार चाय- भोजन की फरमाइश कर देती हैं। नाराज़ होने पर किसी को भी ‘बेसहूर’ ‘बेवकूफ’ कह देती हैं।
नन्दो बुआ के हिसाब से लड़का-लड़की की शादी की उम्र इक्कीस और अठारह साल मुकर्रर करना सरकार की सरासर ज़्यादती और बेवकूफी है। शादी-ब्याह के मामले में भला कानून का क्या काम? यह तो नन्दो बुआ जैसे लोगों की पारखी नज़र ही बता सकता सकती है कि कौन लड़की शादी-योग्य है और कौन नहीं। सरकार खामखाँ हर मामले में टाँग अड़ाती है।
नन्दो बुआ का दृढ़ मत है कि लड़की की सुरक्षा और चरित्र-रक्षा के लिए अगर कोई पुख़्ता मार्ग है तो वह शादी ही है। लड़की का चरित्र काँच जैसा होता है, एक बार टूटा सो टूटा। फिर जोड़े नहीं जुड़ता। लड़की के माँ-बाप चौबीस घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए जितनी जल्दी गंगा- स्नान हो जाए उतना अच्छा।
लड़कियाँ नन्दो बुआ को वे ही पसन्द आती हैं जो नितान्त आज्ञाकारी, गऊ समान होती हैं,कि जिसके पल्ले माँ-बाप बाँध दें चुपचाप खुशी-खुशी चली जाएँ। स्कूटर पर फर-फर उड़ने वालीं, चबड़- चबड़ करने वालीं, हर बात में अपनी नाक घुसेड़ने वाली लड़कियाँ नन्दो बुआ को फूटी आँख नहीं सुहातीं। उनके हिसाब से आजकल की लड़कियों की आँख का शील मर गया है। आँख में आँख डाल कर बात करती हैं और मज़ाक उड़ाने से भी बाज़ नहीं आतीं। राह चलते अगर नन्दो बुआ को लड़कियाँ बैडमिंटन खेलतीं या हँसती-बोलती दिख जाएँ तो रुक कर हिदायत दे देती हैं—‘ए लड़कियो, कुछ लाज शरम रखो।यह क्या हुड़दंग मचा रखा है? क्या ज़माना आ गया है!’
सीधी-सादी, कम पढ़ी- लिखीं, आत्मविश्वास से हीन लड़कियाँ नन्दो बुआ को प्रिय हैं क्योंकि वे न कोई आपत्ति उठाती हैं, न कोई अपनी राय रखती हैं। ऐसी लड़कियों के सिर पर नन्दो बुआ का हाथ बार-बार घूमता है,कहती हैं, ‘फिकर मत करियो बिटिया। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी हमारी। ऐसे घर में भेजूँगी कि रानी बनकर राज करोगी।’
नन्दो बुआ की मानें तो दुनिया रसातल की तरफ जा रही है। पहले लड़कियाँ मर्यादा के साथ रहती थीं, अब झुंड की झुंड, बगल में किताबें दबाये घूमती हैं। जहाँ देखो लड़के-लड़कियाँ साथ खड़े हीही-ठीठी करते हैं। कपड़े देखो तो सब ऊटपटाँग। शर्म-लिहाज सब गया। पहले लड़कियाँ स्कूटर पर सिमट कर बाप या भाई के पीछे बैठती थीं, अब खुद माँ-बाप को पीछे बिठाये सर्र-सर्र दौड़ती हैं। दूसरी बात यह कि लड़कियों का मुँह खुल गया है। माँ-बाप की बात का सीधे विरोध कर देती हैं। वे उन लाजवन्तियों को हसरत से याद करती हैं जिन का मुँह तो क्या, हाथ-पाँव की उँगलियाँ देख लेना भी मुश्किल होता था। जो मुँह छिपाये ससुराल में आती थीं और मुँह छिपाये ही संसार से विदा हो जाती थीं। अब की लड़कियाँ तो आधी रात को भी घर से बेझिझक निकल पड़ती हैं।
पटेल परिवार की गीता पर बुआ की नज़र तब से थी जब वह दसवीं ग्यारहवीं में थी। लड़की सुन्दर, हाथ- पाँव से दुरुस्त थी। और क्या चाहिए? बारहवीं पास कर ले तो शादी के लिए बिल्कुल फिट हो जाएगी। गीता की माँ के पास बुआ की बैठकें जमती रहती थीं। उन्हें भी वे आश्वासन दे चुकी थीं कि गीता को रानी बना देंगीं।
गीता शोख थी। बुआ को चिढ़ाने में उसे मज़ा आता था। माँ के सामने ही बुआ से कहती, ‘बुआ, रानी कैसे बनाओगी? राजा- रजवाड़े तो सब खतम हो गये। अब तो देश में प्रजातंत्र है।’
बुआ आँखें चढ़ाकर कहतीं, ‘बिट्टी, थोड़ा पढ़-लिख गयी हो तो जुबान पर मत बैठो। रानी बनने से मेरा मतलब है कि ऐसे घर में भेजूँगी जहाँ खूब आराम मिले। दस नौकर-चाकर सेवा में रहेंगे।’
लेकिन बुआ की मुराद पूरी नहीं हुई। गीता ने बारहवीं पास करने के बाद नीट की तैयारी शुरू कर दी और उसके माता-पिता ने फिलहाल उसकी शादी का विचार त्याग दिया। बुआ ने भी बात को समझ कर दूसरी, कम महत्वाकांक्षी, लड़कियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बारहवीं में गीता के अंक अच्छे आये थे इसलिए उसे भरोसा था कि वह नीट में निकल जाएगी।
दुर्भाग्यवश गीता नीट पास नहीं कर पायी और उसकी आगे की पढ़ाई की सारी योजना गड़बड़ा गयी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। कॉलेज की पढ़ाई से ध्यान हटाकर वह फिर नीट की तैयारी में लग गयी। एक साल गुज़र जाने के बाद परिणाम आया। इस बार भी सफलता नहीं मिली। अब गीता को मायूसी हुई। आत्मविश्वास डगमगा गया। कॉलेज छोड़ देने के कारण आगे की राह अनिश्चित हुई। लेकिन उसने उम्मीद पूरी तरह छोड़ी नहीं। एक बार और नीट में बैठने का निश्चय उसने कर लिया।
गीता का सपना था कि डॉक्टर बनकर समाज की खूब सेवा करेगी। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकड़े समाज में वह असमर्थ लोगों को छोटे छोटे रोगों से मरते और पीड़ा भोगते देखती थी। उसका सोचना था कि बड़ी असमानताओं वाले इस देश में कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ तो सबको सुलभ होना चाहिए। उसे लगता था कि अपने बूते के अनुसार उसे लोगों का दुख-निवारण ज़रूर करना चाहिए। लेकिन दो बार की असफलता के बाद उसे अपना सपना टूटता दिखता था।
दूसरी बार की असफलता के बाद नन्दो बुआ की नज़र फिर गीता पर टिक गयी। अब फिर उन्हें उसकी जगह एक सजी-धजी दुलहन दिखायी देने लगी थी। उसके घर में उनकी बैठकें बढ़ने लगीं।
गीता की माँ को भी अब लगने लगा था कि वक्त बेकार ज़ाया हो रहा था। लड़की की शादी हो जाए तो अच्छा। दो बार की असफलता से बेटी के चेहरे पर आयी मायूसी उन्हें तकलीफ देती थी। वे सोचती थीं कि ब्याह हो जाए तो यह सब पीछे छूट जाएगा। लड़की की उम्र बढ़ने से भविष्य में होने वाली परेशानियों से वे वाकिफ थीं। इसलिए उनकी तरफ से नन्दो बुआ को ज़्यादा सहयोग और प्रोत्साहन मिलने लगा था।
नन्दो बुआ के बटुए में हमेशा आठ दस लड़कों-लड़कियों के फोटो और ज़रूरी जानकारी रहती थी। उनके संपर्क के लड़के अक्सर साधारण पढ़े-लिखे और छोटी-मोटी नौकरियों या धंधे वाले होते थे। आधुनिक घरों में उनकी पैठ कम थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के हाव-भाव उन्हें पसन्द नहीं आते थे। उन्हें परंपरावादी, रूढ़िवादी लोग ज़्यादा रास आते थे। ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़कों की डिग्रियाँ और योग्यताएँ उनकी समझ में नहीं आती थीं।
वे गीता की माँ को दो तीन लड़कों की जानकारी दे चुकी थीं। लड़के पढ़ने-लिखने में सामान्य थे लेकिन उनके परिवार मालदार थे, जो बुआ की नज़र में खास बात थी। बुआ गीता की माँ को आश्वासन देती रहती थीं कि उन लड़कों के परिवार इतने संपन्न थे कि लड़का ज़िन्दगी भर कुछ न करे तब भी उनकी बेटी को तकलीफ नहीं होगी। गीता को बुआ की उसमें इतनी रुचि से चिढ़ होती थी। एक दिन उसने बुआ से कहा, ‘बुआ, थोड़ा गम खाओ। मुझे आदमी बन जाने दो।’
सुनकर बुआ ठुड्डी पर तर्जनी टिका कर बोलीं, ‘एल्लो, सुन लो पोट्टी की बातें! क्या अभी तू आदमी नहीं है?’
गीता ने जवाब दिया, ‘कहने को तो आदमी तब भी आदमी था जब वह गुफाओं में रहता था और पत्थर के हथियारों का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के आदमी और आज के आदमी में बहुत फर्क है।’
नन्दो बुआ ने अप्रतिभ होकर पूछा, ‘क्या मतलब है तेरा?’
गीता बोली, ‘मतलब यह कि लड़कियों को भी इतना मौका और वक्त दो कि वे दुनिया में अपने लिए जगह बना सकें। जिस दुनिया में रहती हैं उसे थोड़ा समझ सकें। लड़कियाँ उतनी कमजोर और लाचार नहीं होतीं जितना आप समझती हैं। वे अपने भविष्य का खयाल कर सकती हैं।’
बुआ पुचकार कर बोलीं, ‘अरे बिटिया, तू अभी नादान है। लड़की का जीवन बड़ा कठिन होता है। भले भले कट जाए तो गनीमत जानो। कब जरा सी बात पर बदनामी गले आ पड़े, कोई ठिकाना नहीं। हमारी सोसाइटी लड़कियों के लिए बड़ी निर्दयी होती है।’
गीता ने पलट कर प्रश्न किया, ‘यह बताओ बुआ कि आपकी सोसाइटी लड़कों और लड़कियों के बीच इतना भेद क्यों करती है? लड़कियों पर आप लोगों को भरोसा क्यों नहीं होता? सारी नसीहतें और सारे प्रतिबंध लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़कियों के आगे पीछे ताक- झाँक और जासूसी क्यों होती है? हमें अपने निर्णय करने की छूट क्यों नहीं मिलती?’
नन्दो बुआ निरुत्तर हो गयीं। ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘क्या कहें बिटिया, यह समाज ऐसा ही है। सदियों से यही होता रहा है।’
वैसे इस तरह की बातों से नन्दो बुआ को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लड़कियों की शादी कराना उनके लिए मिशन था। इस काम से उन्हें घरों में जो मान-सम्मान मिलता था वह उनकी पूँजी थी और उसे वे किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती थीं। इसलिए उन्होंने गीता की बातों को झाड़ कर दिमाग से निकाल दिया।
गीता तीसरी बार नीट की परीक्षा में बैठ गयी थी लेकिन अब उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। आँखों के सपने बुझ गये थे। इस बार असफल होने पर शायद शादी के सिवा कोई रास्ता न बचे। वह ऊपर से खुश दिखती थी, लेकिन मन पर उदासी की घेराबन्दी निरन्तर बढ़ रही थी। उसकी हार में नन्दो बुआ की जीत छिपी थी।
उस दिन गीता की माँ के पास नन्दो बुआ की बैठक जमी थी। नन्दो बुआ बताने आयी थीं कि एक लड़के ने गीता की फोटो को पसन्द कर लिया था। लड़के ने बी. कॉम. पास किया था और अब घर के धंधे में लगा था। नन्दो बुआ का विचार था कि एक बार गीता के पापा लड़के वालों से मिल लें तो बात आगे बढ़े।
तभी भीतर फोन की घंटी बजी। गीता ने फोन उठाया। उसकी सहेली का फोन था। फोन सुनती गीता की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी पड़ी— ‘वाउ, ग्रेट न्यूज़। आई एम सो हैप्पी।’
गीता बाहर निकली तो उसकी मुट्ठियाँ फैली हुई थीं और आँखें चमक रही थीं। चिल्ला कर बोली, ‘मम्मी, मैं नीट में पास हो गयी। मैं कितनी खुश हूँ!’
नन्दो बुआ हकला कर बोलीं, ‘बड़ी खुशी की बात है। तेरी मेहनत सफल हो गयी।’
गीता बोली, ‘हाँ बुआ! मेरी जान बच गयी। अब आप पिंजरे में डालने के लिए दूसरी लड़की ढूँढ़ो। मैं तो आकाश में उड़ने चली।’
बुआ का मुँह उतर गया, बोलीं, ‘उड़ो बेटा, खूब उड़ो। हम तो लड़कियों का भला करते हैं। तुम नहीं, और सही।’