(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– होड़ – ”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ – होड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
सूर्य से उसकी बहुत बड़ी होड़ थी। वह सुबह पहले जागता था इसके बाद सूर्योदय होता था। अपनी इस होड़ में वह तिल भर विचलित होता नहीं था। उसकी वृद्धावस्था में बात दूसरी हुई। सूर्य से होड़ का उसका ताप मद्धम हुआ। उसके लिए अब जैसे लिखा हो गया, “सूर्य का वह मुझ पर तरस ही था वह मुझे अवसर देता था तुम पहले जाग कर आगे चलो, मैं बाद में जाग कर पीछे – पीछे आता हूँ।”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक “हाइबन – कोबरा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 164 ☆
☆ हाइबन – कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
हाइबन- कोबरा
रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था। वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”
सावित्री डरी। पलटी । तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा ।उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।
रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।
” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “इंटरव्यू : 2“।)
डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc.जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर.
अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो जो असहमत के पिताजी थे, याद आये. अतः उनको सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख का होता है तो इनकी सेवा करके शायद असहमत को कुछ मेवा मिल जाए. और आखिर घर में बैठकर भी वो समाजसुधार के अलावा तो कुछ कर नहीं रहा है. जब असहमत को पिता जी ने अपने पितृत्व की धौंस और उसकी बेरोजगारी की मज़बूरी को तौलकर रिटायर्ड साहब के पास जाने का आदेश दिया तो वो मना नहीं कर पाया.
आपदा को अवसर में बदलने की असहमत की सोच ने उसे अपने साथ हुये सारे दुर्व्यवहारों की ,जिनमें साहब के कुत्ते घुमाने का आदेश भी था, का हिसाब चुकता करने का सही अवसर प्राप्त होना मान लिया.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नशा।)
☆ लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
श्याम मोहन हड़बड़ी में ऑफिस जा रहा था उसे देर हो रही थी तभी रास्ते में उसे एक बुजुर्ग महिला टकरा गई और वह गिर पड़े उसकी सारी सब्जियां भी बिखर गई।
अरे अम्मा इस बुढ़ापे में सुबह सुबह मुझसे ही टकराना था क्या आपको?
नहीं बेटा क्या करूं इस बुढ़ापे में मंडी से सब्जियां लेकर जाती हूँ और खाना बनाती हूँ पास में जो बिजली विभाग का ऑफिस है उसमें 10 साहब लोगों को दोपहर में टिफिन भेजती हूँ बेचारे लोग बहुत अच्छे हैं ऑफिस के एक चपरासी को भेज देते हैं उन बच्चों के कारण मेरे घर का खर्च चलता है।
चलिए! माता जी आप मेरी गाड़ी में बैठ जाइए मैं आपको आपके घर छोड़ देता हूँ।
शारदा उसकी गाड़ी में बैठ जाती है और अपने घर का पता बताती है उसका पोता घर के बाहर बैठकर उसे गाली दे रहा था अरे शारदा सुबह-सुबह कहां चली गई थी?
गले की चेन छीन कर भाग गया।
यह सब देख कर श्याम मोहन की आंखें भर आई।
अम्मा मेरा दोस्त डॉक्टर है आप किसी तरह उसे अपने पोते को दिखा दे।
इसके मां-बाप के चले जाने के बाद में इसे प्यार से पाल रही थी उसी का यह नतीजा है जो मैं अब भोग रही हूं यह लड़का घर से बाहर निकल कर गाली गलौज करता है और अपनी इज्जत के कारण मैं चुप रह जाती हूं।
नहीं अम्मा अब चुप मत रहो चलो?
अपने आंसुओं को आंचल से पूछती है और उसके अंदर जाने कहां से एक आत्मविश्वास आता है,
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “तपिश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 ☆
☆ लघुकथा 🌻 तपिश 🌻
एक सुंदर सी कालोनी। आज होली का दिन बहुत ही सुंदर सा वातावरण चारों तरफ होली के गाने और बच्चों की टोली।
साफ-सुथरे धूलें प्रेस के चमकते कपड़े पहन अनिल नहा धोकर तैयार हुआ। स्वभाव से गंभीर ओहदे के ताने- बाने में जकड़ा अपने आप को हमेशा अकेला महसूस करता था।
अनिल इस संसार को सिर्फ माया बाजार समझता था। यूँ तो कहने को भरा पूरा परिवार, सदस्यों की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी उसका परिवार अकेला। अंर्तमुखी व्यवहार जो सदा, उसे सबसे अलग किये देता था। दुख- सुख हो वह सिर्फ एक फॉर्मेलिटी पूरी करता दिखता।
अनजाने ही वह कब सभी चीजों से विरक्त हो गया, पता ही नहीं चला। नीरस सी जिंदगी हो चली थी। घर में दोनों बिटिया और धर्मपत्नी हमेशा से ही पापा को अकेले या कोई आ गया तो एक अजनबी की तरह व्यवहार करते देखा करते थे। बिटिया भी उसी माहौल को स्वीकार कर चुकी थी। क्योंकि मम्मी ने साफ-साफ कह दिया था… “जब ससुराल चली जाओगी तब सब शौक पूरा कर लेना। अभी आपके पापा के पास उनकी मर्जी के साथ रहना सीखो।”
” मैंने सारी जिंदगी निकाली है। मैं नहीं चाहती घर में किसी प्रकार का क्लेश बढ़े।” बच्चों में खुशी का तो कोई ठौर नहीं था परंतु मायूसी ने घर कर लिया था।
पढ़ने में दोनों तेज और समझदार थी। भाग्य से समझौता कर चुकी थी।
” क्या? हम इस वर्ष भी होली में बाहर नहीं निकालेंगे दीदी? “….. छोटी वाली ने सवाल किया।
कमरे में बुदबुदाहट की आवाज सुनकर अनिल खिड़की के पास खड़े हो गए। बड़ी बहन समझा रही थी…… “देख छोटी चल आईने के सामने हम दोनों एक दूसरे को गुलाल लगा लेते है दिखेंगे चार और फोटो गैलरी से फोटो बनाकर हैप्पी होली शेयर कर लेंगे।”
“मुझे नहीं करना…. हमेशा ऐसा ही होता है।” यह कहकर वह पलंग पर सिर ढांप कर सोने का नाटक करने लगी।
पापा ने दरवाजा खटखटाया।
दोनों बाहर आए। मम्मी दौड़कर सहमी सी खड़ी ताक रही थी। पापा एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले…..” छोटी तेरे पास जो गुलाल है। जरा मेरे बालों में, गालों में, माथे में, कपड़ों पर फैला दे, मैं बाहर होली खेलने जा रहा हूँ । कोई यह ना कहे कि मेरे में रंग नहीं लगा है।”
“क्योंकि हमेशा बाहर निकलता था तो मेरे व्यक्तिगत व्यवहार के कारण कोई भी मुझे गुलाल या रंग नहीं लगाते।”
” मैं रंग गुलाल से लिपा – पूता रहूंगा। तो सभी पड़ोसी भी पास आकर रंग लगाएंगे और बोलेंगे वाह कमाल हो गया।”
दोनों आँखे निकाल पापा को देख रही थी। मम्मी की आँखे तो गंगा जमुना बहा रही थी।
दीदी ने भरी गुलाल की पुड़िया तुरंत निकाल पापा को सर से पांव तक लगा दिया। पापा भी अपने पॉकेट से रंगीन गुलाल उड़ाते हुए बच्चों को गले लगा लिए।
बाहर दलान में निकलते पड़ोसी देखते ही रह गए। सभी पास आ गए। आज जी भरकर अनिल ने रंग गुलाल खेला। मस्ती में झूमने लगे।
उनकी गुलाबी संतुष्टी यह बता रही थी कि बरसों की तपिश, आज होली के रंग में धुलती नजर आ रही थीं। और गुलाबी रंग चढ़ता ही जा रहा था।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय, संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा –“भूख के आगोश में “.)
💐 जीवेत शरद: शतम् 💐
💐आज 31 मार्च को डॉ कुँवर प्रेमिल जी का 77वां जन्मदिवस है 💐
आप सौ साल जिएं। आपका प्रत्येक दिन मंगलमय हो। सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो। आपके जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन हो। आप यशस्वी बनें। आप समृद्ध बने। आप सदैव स्वस्थ रहें। ई – अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपको आपके जन्मदिन पर शुद्ध अंतकरण से शुभकामनाएं।🙏
☆ लघुकथा – भूख के आगोश में☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
(विश्व हिंदी साहित्य मॉरीशस की विश्व साहित्य पत्रिका 2023 में प्रकाशित इस लघुकथाके प्रकाशन के साथ ही आपकी 500 लघुकथाएं पूर्ण हुईं। अभिनंदन)
भूखी बेटी को स्तनपान कराती माँ स्वयं भूखी थी। बच्ची बुरी तरह रो रही थी और माँ के स्तन में दूध की अंतिम बूंद खोज रही थी।
माँ अपनी बेटी के भूख से आकुल-व्याकुल चेहरे पर तृप्ति देखने के लिए अपने दूध की अंतिम बूंदें भी कुर्बान कर देना चाहती थी।
‘गा–गूं-गा’ बच्ची, माँ से दूध की कुछेक बूंदों की मनुहार कर रही थी। उसके चेहरे का वात्सल्य क्रमशः गायब होता जा रहा था।
‘खजाना खाली है पुत्तर’ कहकर न जाने कब की भूखी माँ बेहोश हो गई। भूख के आगोश में माँ-बेटी दोनों ही बेहोश पाई गईं।
बेटी के मुंह में अपनी जीवनदायिनी का स्तन लगा हुआ था और माँ की आँखों से विवशता के आँसू बाहर निकल पड़ने को आतुर दिखाई दे रहे थे।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘सेंध दिल में‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 138 ☆
☆ लघुकथा – सेंध दिल में☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।
मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।
‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘
‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘
‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।
उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।
‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।
‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘
‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘
वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बदलते रिश्ते।)
अरुणा जी को किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। उनकी बहू जूही ने उन्हें कहा कि आप किताबें मत पढ़ो मैं आपको मोबाइल पर आज कहानी दिखाती हूँ। आप किसकी सुनेंगी। बहू तुम अपनी पसंद की कहानी सुना दो। मां मैं आपको मालगुडी डेज की कहानियां दिखाती हूं।
सास बहू दोनों कहानी देखते-देखते उसमें खो गई, तभी अचानक उसका मोबाइल का नेट चला गया।
बहू की कहानी बहुत अच्छी लगी। उसने कहा – मां जी आप किताब उठाइए, अब मुझे आगे की यह कहानी पढ़नी है। अरुणा जी मुस्कुराने लग गई और उन्होंने कहां कि कहां गई तुम्हारी टेक्नोलॉजी। कोई बात नहीं, वक्त के साथ सब कुछ बदलता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा– लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 269 ☆
लघुकथा – लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री
सार्वजनिक मुद्दो को जनहित याचिकाओ के माध्यम से उठाने के लिए वकील साहब की बड़ी पहचान थी। बच्चों के एजुकेशन को लेकर चलाई गई उनकी पिटिशन को विश्व स्तर पर यूनेस्को ने भी रिकगनाईज किया था।
उस दिन एक मंहगे रेस्त्रां में काफी पीते हुए उन्होंने देखा कि रेस्त्रां ने अपना मीनू कागज की जगह मोबाइल से स्कैन के जरिए प्रस्तुत कर सेव पेपर की मुहिम प्रमोट की थी। इससे वकील साहब बहुत प्रभावित हुए। उन का ध्यान गया कि ई पेपर के इस नए जमाने में भी ढेर सारे अखबार प्रिंट हो रहे हैं, स्कूलों में बच्चों को कापी पर ढेर सा होम वर्क करना होता है, चुनावों में बेहिसाब पोस्टर छापे जाते हैं, पेपर प्लेट्स में खाद्य पदार्थ दिए जाने भी कागज वेस्ट होता है, प्रचार में हैंड बिल्स में कागज की बेहिसाब बरबादी उन्हें दिखी। वकील साहब को समझ आया कि थोड़े से कागज की बचत का मतलब एक वृक्ष की जिंदगी बचाना है।
वकील साहब ने सेव पेपर की पी आई एल लगाने का मन बना लिया। उसी रात उन्होंने गहन अध्ययन कर एक तार्किक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसमें उन्होंने मांग रखी कि यह अनिवार्य किया जाए कि न्यूज पेपर्स प्रकाशक महीने के अंत में अपने ग्राहकों से पुराने रद्दी अखबार वापिस खरीदें और रिसाइकिल हेतु भेजें। अखबार छापने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत रिसाइकिल पेपर ही प्रयुक्त किया जावे।
सुबह सेव पेपर सेव ट्री की अपनी यह जन हित याचिका लेकर वे कोर्ट पहुंचे। उनके बड़े कांटेक्ट सर्किल में उनकी इस नई पी आई एल को हाथों हाथ लिया गया। और उसी शाम क्लब में उनकी एक प्रेस वार्ता रखी गई। पत्रकारों को पी आई एल की जानकारी देने के लिए वकील साहब के स्टाफ ने एक बड़ी विज्ञप्ति प्रिंट की। एन समय पर वकील साहब की दृष्टि पड़ी की विज्ञप्ति में उन्हें प्राप्त सम्मानों में हाल ही मिले कुछ अवार्ड छूट गए हैं। उन्होंने स्टाफ को कड़ी फटकार लगाई, आनन फानन में विज्ञप्ति के नए सविस्तृत प्रिंट फिर से निकाले गए, प्रेस वार्ता बहुत सक्सेसफुल रही, क्योंकि दूसरे दिन हर अखबार के सिटी पेज पर उनकी फोटो सहित चर्चा थी। उनके पर्सनल स्टाफ ने अखबार की कटिंग की फाइल बनाते हुए देखा कि कल शाम की रिजेक्टेड विज्ञप्ति के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और उनसे रद्दी की टोकरी भरी हुई थी, जिसे जलाने के लिए आफिस बाय बाहर ले जा रहा था।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “मुलताई होली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆
☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻
रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।
और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।
अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।
जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।
अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।
गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।
पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।
हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।
हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।
जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।
बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।
जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।
सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।
किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।
खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।
मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏