(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं “दरार” और “वर्चस्व”.)
☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
ये दो लघुकथाएं ‘दरार’ और ‘वर्चस्व’ बंगला भाषा में अनुवाद कर संपादक बेबी कारफोरमा ने अपनी संपादित कृति ‘निर्वाचित हिंदी अनुगल्प’ में प्रकाशित किया है। मूल लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए उपहार स्वरूप सादर प्रस्तुत हैं
– कुंवर प्रेमिल।
☆ लघुकथा एक – दरार ☆
एक मां ने अपनी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर
हरे भरे दरख़्त, एक हरी भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से उगता सूरज और एक प्यारी सी झोपड़ी। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियां बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई।
‘ममा देखिए न मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’
चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।
थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई-
‘ममा गजब हो गया, दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’
ममा की आवाज आई-
‘आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो, दादा दादी वहीं रह लेंगे’।
मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। झोपड़ी के बीचों बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।
☆ लघुकथा दो – “वर्चस्व” ☆
न जाने कितने कितने वर्षों से एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है।
अब तक मात्र छै महिलाएं ही तो बनी हैं।
इनकी गिनती सातवीं है।
हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते।
महिला मंडल में एक विचार विमर्श जोर पकड़ता जा रहा था। तब एक समझौतावादी महिला चुप न रह सकी।
‘बहनों जरा विराम लो, जो कुछ है, पुरुषों के बल पर ही तो हैं।
वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाइयां प्रदान करते हैं। इसे नकारना मिथ्यावादी है। भाई, पिता, पति के बिना क्या हम एक कदम भी बढ़ने में समर्थ हो सकेंगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – बुनियाद
…मेरी राय में यह ब्याह नहीं करना चाहिए.., दादा ने अपनी पोती के बाप से कहा।
…बाऊ जी, पार्टी बहुत ऊँची है। इसलिए ऊँचा खर्चा कह रहे हैं। बड़े लोग हैं। बहुत पैसा है। उनका भी स्टेटस है। दो-चार चीज़ें मांग ली तो क्या हुआ?
…इसीलिए तो कह रहा हूँ कि यहाँ सम्बंध मत कर। लालच की बुनियाद पर खड़ा रिश्ता कभी नहीं टिकता।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा “फ्रेम”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 167 ☆
☆ लघुकथा – 🔲 फ्रेम 🔲 ☆
फ्रेम कहते ही लगता है, किसी चीज को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया घेरा या सुरक्षा कवच, जिसमें उसे चोट ना पहुंचे। बस ऐसे ही प्रेम थे डॉक्टर रघुवीर सिंह, उस अभागी सोनाली के लिए जो सुख या खुशी किसको कहते हैं, जानती ही नहीं थी।
जीवन का मतलब भूल गई थी। माता-पिता की इकलौती संतान। बहुत कष्टों से जीवन यापन हो रहा था। माँ घर-घर का झाड़ू पोछा करती और पिताजी किसी किराने की दुकान पर नौकरी करते थे।
समय से पहले बुढ़ापा आ गया था। चिंता फिक्र और पैसे की तंगी से बेहाल। दोनों ने एक दिन घर छोड़ने का फैसला किया, परंतु सोनाली का क्या करें??? यह सोच चुपचाप रह गए।
पास में एक डाॅ. रघुवीर सिंह थे जो वर्षों से वहां पर रहते थे। उनकी अपनी संतान बाहर विदेश में थी। कभी-कभी सोनाली के पिता उनके पास जाकर बैठते और मालिश कर दिया करते। बातों ही बातों में उन्होंने कहा… “हम तीर्थ करना चाहते हैं और सोनाली को लेकर जा नहीं सकते। आप ही उपाय बताइए।” डाॅ. साहब ने कहा… “यहाँ मेरे पास छोड़ दो घर का काम करती रहेगी हमारी धर्मपत्नी के साथ उसका मन भी लगा रहेगा कुछ सीख लेगी।
और समय भी कट जाएगा। तुम्हारा तीर्थ भी हो जाएगा।” भले इंसान थे, डाॅ. साहब। उन्होंने पैसे वैसे का इंतजाम कर दिया। सोनाली को उनके यहाँ आउट हाउस में रख दोनों दृढ़ निश्चय कर चले गए कि अब लौटकर आना ही नहीं है। सोनाली को इस बात का पता नहीं था। समय गुजरता गया। एक दिन डॉक्टर साहब को पत्र मिला फोटो सहित लिखा हुआ सोनाली के माता-पिता का देहांत हो चुका था। सन्न रह गए चिंता से व्याकुल हो वह सोचने लगे कि सोनाली का क्या होगा?? कैसे उसे संभाले। उन्होंने बहुत ही समझ कर दो बड़े-बड़े फ्रेम बनवाएं।
एक में उनके माता-पिता की फोटो जिसमें माला पहनकर उसे ढक कर रखा गया और दूसरा फोटो सोनाली को दुल्हन के रूप में खड़ी साथ में डाॅ. रघुवीर और उनकी पत्नी दोनों का हाथ आशीर्वाद देते। उसे भी ढक कर रखा गया।
आज सब काम निपटाकर वह बैठी माता जी के पास बातों में लगी थी। बड़े प्रेम से माताजी में सिर पर हाथ फेरी और बोली “बहुत दिन हो गया सोनाली तुम कुछ कहती नहीं हो। आज हम तुम्हें एक सरप्राइज दे रहे हैं। इन दोनों फ्रेम में से तुम्हें एक फ्रेम तय करना है जो तुम्हारे भविष्य का रास्ता तय करेगी और एक सुखद सवेरा तुम्हारा इंतजार करती नजर आएगी। परंतु तुम्हें इन दोनों फ्रेम में से एक फ्रेम पर अपने आप को मजबूत कर प्रसन्न और खुश रहना होगा।
अपने भावों को समेटना होगा। ” सोनाली समझी नही। इस फ्रेम पर क्या हो सकता है?? सभी खड़े थे और पास में नौकर जाकर खड़े थे। सोनाली ने पहले फ्रेम उठाया देखा.. उसकी नजर जैसे ही माला पहने तस्वीर पर पड़ी सांसे रुक गई।
इसके पहले वह रोती डाॅ. साहब बोल पड़े..” दूसरी भी उठा लो हो सकता है तुम्हें कुछ अच्छा लगे।” आँखों में आंसू भर दूसरी फ्रेम उठाई.. रोती रोती जाकर डाॅ. साहब के बाहों में समा गई। माताजी ने प्यार से कहा… “चल अब जल्दी तैयार हो जा। लड़के वाले आते ही होंगे। सारी तैयारियाँ हो चुकी है।” सोनाली को बाहों में समेटे डाॅ. साहब ने धीरे से कहा..” बेटा ईश्वर को यही मंजूर था।” डाॅ. साहब के मजबूत बाहों का फ्रेम आज सोनाली अपने आप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी। कुछ शब्द नही थे उसके पास। बस फ्रेम में सिमटी थी।
सिब्बू पगलैट कई दिनों तक बुंदेलखण्ड के इस कस्बानुमा शहर में, बस स्टैंड के आस-पास की व्यस्त सड़कों पर लंगड़ाता हुआ बदहवास फर्राटा दौड़ लगाता नज़र आता। जैसे उत्तेजना और हिंसा से भरा किसी का पीछा कर रहा हो। वो किसी को चोट पहुंचाना चाहता था। पर किसे ? ये कोई जानता ना था। कम चर्बी की काली अधेड़ उम्र वाली काया में हड्डियॉं और नसें झांकती रहतीं। उसके बाल छोटे होते…ना जाने कौन और कैसे इन्हें कटवा देता था ? तेल और मैल से चिक्कट उसके कपड़े होते। मुंह से छूटता झाग और थूक वह खाखारता थूकता चलता, जो उसकी बेतरतीब दाढ़ी मूंछों पर भी लगता जाता। दोनों हाथों में पत्थर या ईंट के कुछ टुकड़े होते जिन्हें वह बिना लक्ष्य के सड़क पर अंधाघुंध सन्नाता चलता। इससे बेपरवाह, की उसके फेंके पत्थर राहगीरों में किसे लगते हैं -किसे नहीं। हैरान कर देने वाली फुर्ती और ऊष्मा से लबरेज सिब्बू का तमतमाया चेहरा लगातार परिश्रम और तैलीय पसीने से चमक रहा होता। उसकी आँखें दहक रही होतीं। वह क्या कुछ बुदबुदाता बड़बड़ता ? शायद ना समझ में आने वाली गालियॉं होतीं। बस बार-बार आने वाले जो कुछ शब्द समझ में आते। –
‘हाट हट हाट हट हट्ट। भाग भग भग्ग। हम मार दे हैं। ’
वो किसी अदृश्य को फुंफकारता ललकार रहा होता। उसकी ये सक्रियता किशोर छात्रों के स्कूलों से पैदल आते-जाते समय अधिक होती। स्कूली बच्चे उसे देख मारे डर के किनारा कर लेते, किसी आड़ में दुबक जाते। कभी सुना नहीं कि उसके किसी वार से कोई घायल हुआ हो। खूंखार नजरें टिकाये सिब्बू किसी राहगीर की ओर शिकारी की तरह सरपट लपकता। भयभीत राहगीर के प्राण डर के मारे सूख जाते, पलक झपकते सिब्बू उसकी साइड से होकर बिना किसी हरकत के दूर निकल जाता।
किशोरों के कुछ समूह सिब्बू पगलैट की नब्ज़ पहचानते। दूर से चिल्लाते :
– ‘ जय हो डमरू राजा ’
उत्तेजित सिब्बू पगलैट शायद इस वाक्य के शब्दों को ही पहचानता। इस वाक्य का जादू सा असर होता सिब्बू पर। वो तुरंत रुकता। क्रॉस किये हुए डेढ़ पैर पर दोनों हाथ ऊपर किये स्टेचयू की तरह स्थिर हो जाता। उसके शरीर की मुद्रा तांडव कर रहे शंकर जी से मिलती हुई हो जाती। वह एकदम अविचल और शांत होता। उसके सजल नेत्र कभी आसमान की ओर तो कभी आनंद के भाव से बंद होते।
सिब्बू की जीवनसंगिनी भग्गो, उम्र में सिब्बू से खासी बड़ी थी। अशक्त, बीमार और लगभग बूढ़ी हो गई भग्गो और सिब्बू का ये जोड़ा कब और कैसे बना ? कोई नहीं जानता था।
कई साल पहले भग्गो का इकलौता जवान पर कृशकाय बेटा भी था। भग्गो की ये औलाद सिब्बू से थी या किसी पूर्व संबंध से ? कहा नहीं जा सकता था। बीमार ही बना रहता। भग्गो के बगल से उकडूं, घुटनों पर सिर टिकाए बैठा रहता। भग्गो तब तक थोड़ा बहुत चल-फिर लेती थी।
ज्यादा बीमार हुआ, कुछ दिन जिले के सरकारी अस्पताल में भरती बना रहा और एक शाम चल बसा। सिब्बू ने हाथ ठेले पर बेटे की लाश रखी और अंतिम संस्कार की चिंता लिए अस्पताल से निकला। विलाप करती हुई भग्गो अकेली हाथ ठेले के पीछे थी। भग्गो स्यापा में करुण रूदन के साथ कहती चली –
– ‘ ए मोरी माता, ए मोरे राम ए ठठरी के बंधे खों अबईं मरने हतो। ’
भग्गो के पास पुत्र शोक व्यक्त करने को ये ही तो शब्द थे।
वो दिन था कि भग्गो की आवाज़ जैसे चली गई। साथ में आखों की रोशनी भी जाती रही। दिन-रात एक जगह कांखती- कूलती पड़ी रहती। सालों उसके तन पर एक ही मैली सिन्थेटिक साड़ी होती। उसके आस-पास साफ-सफाई ना होने के कारण मक्खियॉं भिनभिनातीं, दुर्गंध बनी रहती। बदसूरत भग्गो के मुंह में एक दो बाकी पीले-मैले हिलते हुए दांत। बेतरतीब बंधे हुए खिचड़ी बाल, काले चेहरे की झुर्रियॉं, धंसी हुई आखें उसे डरावना बनातीं। तब तक सिब्बू पागल नहीं हुआ था। सिब्बू उसके अपने हाथ ठेला की मजदूरी करता- पूरी मशक्कत से। मोहल्ले में हाथ ठेला ढुलाई का जो काम मिलता- कर लेता। घर-द्वार जैसा कुछ था नहीं। हाथ ठेले के नीचे की छड़ों से बिस्तर के दरी -चादर और पानी का कुप्पा बंधा होता। गृहस्थी के नाम पर दो-चार एल्यूमीनियम के बरतन होते। दिन भर आस-पास रहकर काम करता। जहॉं जो जगह मिलती भग्गो के साथ दरी चादर बिछा कर सो रहता। हिन्दू मुसलमानों के मिले-जुले मुहल्ले में जहॉं जो मजदूरी के पैसे मिलते नुक्कड़ की छोटी होटल से चाय, समोसा, आलू बंडा, डबल रोटी जैसी चीजें खरीद लाता। आप खाता, भग्गो को खिलाता। फिर ठिकाना मिल गया था सिब्बू को। ढालू फर्श पर सार्वजानिक कचरा घर के सामने मुहल्ले के एक पक्के मकान की बालकनी। नीचे सड़क से लगी सीढ़ियों के साथ बना हुआ एक सीमेंटेड चबूतरा। मकान अक्सर खाली बना रहता, कोई रोक-टोक करने वाला था नहीं। धूप और बारिश से बचने सिब्बू ने भग्गो के साथ इसे ही अपना आशियाना बना लिया।
समय के साथ लगभग अंधी हो चुकी भग्गो चिड़चिड़ी, मतिभ्रम की शिकार और अशक्त होती चली गई। चबूतरे के एक कोने में पड़ी रहती, अपनी जगह से सरक भी नहीं पाती। सोने-खाने का कोई निश्चित समय नहीं। कई-कई दिन के अंतराल के बाद कपड़ों में ही निवृत्त हो लेती। बदबू इतनी होती कि राहगीर अपनी नाक ढंक कर निकलते। सिब्बू काम से लौटता, पास के हैण्ड पंप से कुप्पे में भर कर पानी भर लाता। जैसा भी बनता भग्गो और चबूतरे की साफ सफाई करता। मल और गंदगी ठिकाने के सामने बने कचरे घर के हवाले करता। कुछ फर्श पर लगातार बहती नाली के भी। कभी-कभार भग्गो को हैण्ड पंप के पानी से नहला देता, भूरे सफेद बदरंग बालों में कुछ तेल लगा कर गूंथ देता।
सिब्बू की ज़िंदगी बस भग्गो ही थी। भावनात्मक तौर पर उसके जीने का सहारा थी पर उसकी जिंदगी को कठिन बनाने का सबब भी। अकारण कर्कश स्वर में चीखती और रोती और बहुत कम और पोपले मुंह के अस्पष्ट आवाज़ में बड़बड़ाती …
– ‘ ऐ सिब्बू कहॉ मर गओ रे। पियत कौ पानी दै दे …। ’
भग्गो रात-बिरात जागती रहती अकारण बड़बड़ाती, रोती। थका हारा सिब्बू जेब में कुछ रकम होने पर कभी-कभार शाम को शराब पी लिया करता। सिब्बू खीझ जाता, झुंझला जाता, मां बहिन की गालियॉं देते हुए, भग्गो को लतिया देता –
– ‘ चंडोलन पिरान लै ले मोरे। नैं सोय नें सोन देय। कहॉं से मोरे गले बंध गई। जल्दी टर जा। मरत भी तौ नईयॉं। ’
– ‘अब सो जा अबेर भई। ’
यूं तो सिब्बू, भग्गो को बेइंतहॉं चाहता था पर जताने के लिए उसके पास ये ही शब्द थे।
देर रातों में भग्गो बेवजह खराश वाले भर्राए गले से दहाड़ मार कर रोती। आवाज से पास -पड़ोस के घरों की लाइट जल जातीं। कुछ लोग खिड़कियों और दरवाजों की दरारों से झांकने उठ बैठते। जो जानते थे कि भग्गो की आवाज़ है जाग कर भी बिस्तरों पर बने रहते। कुछ बाहर निकल के आवाज़ लगाते-
-‘ काए रे सिब्बू ? काए रुआ रओ भग्गो खों ? मुहल्ला सोन दे है के नईं ? ’
कुछ रहमदिल तीज त्यौहार और दूसरे मौकों पर भग्गो के चबूतरे पर कुछ खाने-पीने का सामान आवाज लगा कर रख जाते। पर भग्गो थी कि सिब्बू के हाथ के अलावा कुछ भी मिले खाती ही नहीं थी।
उज्जड्ड मनचले छोरे, फर्श गली से गुजरते कुछ देर बब्बू-भग्गो के इस ठिकाने पर रुक के मनोरंजन तलाशते। भग्गो को छेड़ते –
भग्गो तो जैसे बोलना, जवाब देना या बातों को समझना भूलती जा रही थी।
वे भग्गो को चिढ़ाते… भग्गो चिल्लाती-चीखती तो उनका मज़ा और भी बढ़ जाता। भग्गो पर पानी, कंकर, बीड़ी के अधजले टुकड़े फेंकते। सिब्बू के साथ रहते भी मनचले कई बार भग्गो को कंकर कचरा मारते। सिब्बू उन्हें रोकने गिड़गिड़ता, मिन्नतें करता।
उस शाम जब सिब्बू अपने काम से वापिस लौटा अपना हाथ ठेला सार्वजनिक कचरा घर के पास किनारे खड़ा कर के टिकाया। देखा भग्गो बेसुध सी घायल पड़ी थी, कई जगहों से खून बहकर सूख गया था। उसके आस पास कुछ गिट्टी के टुकड़े थे। ना जाने कौन भग्गो को चोटें पहुंचा गया था ? शायद आवरा कुत्तों का हमला रहा हो। सिब्बू उदास था पर करता क्या ? पास के बनिए की दूकान से दो रुपये का सरसों का तेल ले आया। भग्गो के घावों पर लगाया। भग्गो अब भी तड़फ-कलप रही थी … पर ये कोई बहुत अलग नै बात ना होकर उसकी रोज़ की हरकतों से थी। हॉं, भग्गो की सांसों की घरघराहट कुछ ज्यादा जरूर थी। उसी रात तेज बारिश के बीच भग्गो की सांस चलना बंद हुई, देह ठंडी हुई। सिब्बू को समझ में आ गया कि भग्गो चली गई। शून्य में ताकता रात भर भग्गो के शव के पास बैठा रहा। ढालू फर्श पर बरसाती पानी किसी बहते हुए नाले की आवाज़ कर रहा था। भग्गो की लाश को मुहल्ले के लोगों ने नगर पालिका की मदद से ठिकाने लगवाया। इसके बाद शहर ने सिब्बू को अदृश्य से जूझते आतंकी सिब्बू पगलैट की तरह देखा और जाना …।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “कुंठा”.)
☆ लघुकथा – कुंठा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे कहानी लिखना ही नहीं आता. जब भी कभी अपने मित्रों को कहानी सुनाता तो वे किसिम- किसिम की गल्तियां निकालते मुंह बनाते फिरते.
‘पर उसकी कहानियां पत्रिकाओं में छपती कैसे हैं फिर?’वह मन ही मन में गुन्तारा लगाता.
एक दिन उसने अपनी कहानी किसी नामवर कहानीकार से जोड़कर सुनाई तो सभी वाह-वाह कर उठे. एक मित्र अति उत्साह में बोला-‘ऐसी होती है कहानी, कितने गटस है कहानी में, कितने उतार-चढ़ाव, लोकेशन, उपजीव्य, भाई वाह मजा आ गया.’
दूसरों ने भी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे.
‘पर यह कहानी तो मेरी है’ – मैंने जोखिम उठाई.
‘क्या बात करते हो, यह मुंह और मसूर की दाल. साहित्य के मामले में ऐसी मजाक शोभा नहीं देती. कहानी जिसकी है, उसी की रहने दो, उसमें अपनी टांग मत घुसेड़ो.’
एक मित्र बोला तो मैं कृत्रिम हंसी हंसकर बोला – ‘सही कहते हो, आपको कहानी की कितनी परख है, मैं क्या जानता नहीं, कहानी की यह उत्तम कला क्या मेरे जैसे के वश की बात है. मैंने तो एक मजाक कर दिया था बस और क्या?’
मित्र नरम होकर बोला – ‘चलो, यदा-कदा ऐसी मजाक चल सकती है पर ऐसी मजाक लेखन के मामले में कभी स्वीकार्य नहीं होगी–ठीक है न.’
‘बिल्कुल दुरुस्त फरमाया जी’ – मैं अपने कान पकड़ कर सच्चाई को स्वीकार करता हूं.’
मित्रों के चेहरे पढ़कर मैं पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता था.
☆ लघुकथा – “सिपाही…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆
☆
“अनिल भाई, आजकल दिखते नहीं हो ।कहां, बिजी रहते हो ?”
“राकेश जी, नौकरी की ड्युटी में लगा रहता हूं ।”
“अरे, तो इसका मतलब, क्या हम नौकरी नहीं कर रहे ?”
“ऐसी बात नहीं, आप भी कर रहे हैं, पर ऑफिस की बाबूगिरी और पुलिस के सिपाही की नौकरी में बहुत अंतर है ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि इस समय हम इमर्जेंसी सेवा में लगे हुए हैं, हमारी ज़रा सी लापरवाही देश और लोगों के लिए मंहगी पड़ जाएगी ।”
“अरे अनिल, बहाना बनाकर छुट्टी लो, और ऐश करो ।”
“नहीं जी, यह मुसीबत का काल है, तो क्या हमें पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपनी ड्युटी से न्याय नहीं करना चाहिए ।”
“अरे,छोड़ो तुम भी । अब तुम मुझे ही ज्ञान बांटने लगे ।”
” नहीं भाई, इसमें ज्ञान की क्या बात है, मैं तो अपने दिल की बात कह रहा हूं ।”
दो दोस्त मोबाइल पर ये बातें कर ही रहे थे कि तभी सड़क पर दो मोटरसाइकिलें ज़बरदस्त ढ़ंग से एक-दूसरे से भिड़ गईं ।दोनों गाड़ियों के सवार छिटककर दूर जा गिरे । एक तो, जो अधिक घायल नहीं हुआ था, तत्काल खड़ा हो गया, पर दूसरा जो बहुत घायल हुआ था, वह अचेत हो चुका था। तत्काल ही एम्बुलेंस को बुलाकर ड्युटी पर तैनात सिपाही अनिल उसे अस्पताल लेकर पहुंचा । उसकी जांच करते ही डॉक्टर ने कहा कि घायल को लाने में अगर थोड़ी देर और हो गई होती,तो उसे बचाना मुश्किल होता।
घायल विवेक के पर्स में रखे आधार कार्ड से उसके पेरेंट्स का कॉन्टेक्ट नंबर लेकर जब पेरेंट्स को बुलाया गया, और उसके पिता आये, तो अनिल ने पाया कि विवेक तो उसके उसी दोस्त राकेश का ही बेटा है, जो कुछ देर पहले ही उसे मोबाइल से अपनी ड्युटी से बचने के उपाय बता रहा था।
सच्चाई जानकर राकेश अनिल से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था, वह बगलें झांकने लगा था ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – आत्मकथा
बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।
उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’
कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
पुनर्पाठ-
संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक 🇮🇳
घटना 15 अगस्त 2016 की है। मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।
15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।
किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई। रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू-पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।
पता चला कि कॉम्प्लेक्स में सफाई का काम करनेवाली सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने ही समझा।
आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!
सभी मित्रों को, भारत के हम सब नागरिकों को देश के स्वाधीनता दिवस की वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ। 🙏🏻🇮🇳🙏🏻🇮🇳🙏🏻
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘सबक’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 205 ☆
☆ कहानी – सबक ☆
चमनलाल को इस शहर में रहते बारह साल हो गये। बारह साल पहले इस शहर में ट्रांसफर पर आये थे। दो साल किराये के मकान में रहने के बाद इस कॉलोनी में फ्लैट खरीद लिया। देर करने पर मुश्किल हो सकती थी। दस साल यहाँ रहते रहते कॉलोनी में रस-बस गये थे। कॉलोनी के लोगों से परिचय हो गया था और आते-जाते नमस्कार होने लगा था। अवसर-काज पर वह आमंत्रित भी होने लगे थे। उनकी पत्नी कॉलोनी की महिलाओं की गोष्ठियों में शामिल होने लगीं थीं।
फिर भी इन संबंधों की एक सीमा हमेशा महसूस होती थी। लगता था कोई कच्ची दीवार है जो ज़्यादा दबाव पड़ते ही दरक जाएगी या भरभरा जाएगी। आधी रात को कोई मुसीबत खड़ी हो जाए तो पड़ोसी को आवाज़ देने में संकोच लगता था। सौभाग्य से बेटी शहर में ही थी, इसलिए जी अकुलाने पर चमनलाल उसे बुला लेते थे।
चमनलाल को बार-बार याद आता है कि बचपन में उनके गाँव में ऐसी स्थिति नहीं थी। मुसीबत पड़ने पर अजनबी को भी पुकारा जा सकता था। ज्यादा मेहमान घर में आ जाएँ तो अड़ोस पड़ोस से खटिया मंगायी जा सकती थी और रोटी ठोकने के लिए दूसरे घरों से बहुएँ- बेटियाँ भी आ जाती थीं। अब गाँव में भी टेंट हाउस खुल गये हैं और समाज से संबंध बनाये रखने की ज़रूरत ख़त्म हो गयी है।
तब गाँव में मट्ठा बेचा नहीं जाता था। घर में दही बिलोने की आवाज़ गूँजते ही हाथों में चपियाँ लिए लड़के लड़कियों की कतार दरवाजे के सामने लग जाती थी। उन्हें लौटाने की बात कोई सोचता भी नहीं था।
शहरों में टेलीफोन के बढ़ते चलन ने मिलने-जुलने की ज़रूरत को कम कर दिया है। पड़ोसी से भी टेलीफोन पर ही बात होती है। जिन लोगों की सूरत अच्छी न लगती हो उनसे टेलीफोन की मदद से बचा जा सकता है। अब अगली गली में रहने वालों से सालों मुलाकात नहीं होती। बिना काम के कोई किसी से क्यों मिले और किसलिए मिले?
इसीलिए चमनलाल का भी कहीं आना-जाना कम ही होता है। शाम को कॉलोनी के आसपास की सड़कों पर टहल लेते हैं। लेकिन उस दिन उन्हें एक कार्यक्रम के लिए तैयार होना पड़ा। उनके दफ्तर का साथी दिवाकर पीछे पड़ गया था। मानस भवन में राजस्थान के कलाकारों का संगीत कार्यक्रम था। उसी के लिए खींच रहा था। बोला, ‘तुम बिलकुल घरघुस्सू हो गये हो। राजस्थानी कलाकारों का कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है। मज़ा आ जाएगा। साढ़े छः बजे तक मेरे घर आ जाओ। पौने सात तक हॉल में पहुँच जाएँगे।’ चमनलाल भी राजस्थानी संगीत के कायल थे, इसलिए राज़ी हो गए।
करीब सवा छः बजे चमनलाल तैयार हो गये। बाहर निकलने को ही थे कि दरवाजे़ की घंटी बजी। देखा तो सामने कॉलोनी के वर्मा जी थे। उनके साथ कोई अपरिचित सज्जन। वर्मा जी से आते जाते नमस्कार होती थी, लेकिन घर आना जाना कम ही होता था। चमनलाल उनके इस वक्त आने से असमंजस में पड़े। झूठा उत्साह दिखा कर बोले, ‘आइए, आइए।’
दोनों लोग ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गये। चमनलाल वर्मा जी के चेहरे को पढ़कर समझने की कोशिश कर रहे थे कि यह भेंट किस लिए और कितनी देर की है।
वर्मा जी जल्दी में नहीं दिखते थे। उन्होंने कॉलोनी में से बेलगाम दौड़ते वाहनों का किस्सा छेड़ दिया। फिर वे कॉलोनी में दिन दहाड़े होती चोरियों पर आ गये। इस बीच चमनलाल उनके आने के उद्देश्य को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः के करीब पहुंच गयी।
बात करते-करते वर्मा जी ने सोफे पर आगे की तरफ फैल कर टाँग पर टाँग रख ली और सिर पीछे टिका लिया। इससे ज़ाहिर हुआ कि वे कतई जल्दी में नहीं थे। उनका साथी उँगलियाँ मरोड़ता चुप बैठा था।
चमनलाल का धैर्य चुकने लगा। वर्मा जी मतलब की बात पर नहीं आ रहे थे। घड़ी की सुई साढ़े छः से आगे खिसक गयी थी। वे अचानक खड़े होकर वर्मा जी से बोले, ‘माफ कीजिए, मैं एक फोन करके आता हूँ। दरअसल मेरे एक साथी इन्तज़ार कर रहे हैं। उनके साथ कहीं जाना था। बता दूँ कि थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा।’
वर्मा जी का चेहरा कुछ बिगड़ गया। खड़े होकर बोले, ‘नहीं, नहीं, आप जाइए। कोई खास काम नहीं है। दरअसल ये मेरे दोस्त हैं। इन्होंने चौराहे पर दवा की दूकान खोली है। चाहते हैं कि कॉलोनी के लोग इन्हें सेवा का मौका दें। जिन लोगों को रेगुलरली दवाएँ लगती हैं उन्हें लिस्ट देने पर घर पर दवाएँ पहुँचा सकते हैं। दस परसेंट की छूट देंगे।’
उनके दोस्त ने दाँत दिखा कर हाथ जोड़े। ज़ाहिर था कि वे कंपीटीशन के मारे हुए थे। चमनलाल बोले, ‘बड़ी अच्छी बात है। मैं दूकान पर आकर आपसे मिलूँगा।’
वर्मा जी दोस्त के साथ चले गये, लेकिन उनके माथे पर आये बल से साफ लग रहा था कि चमनलाल का इस तरह उन्हें विदा कर देना उन्हें अच्छा नहीं लगा था, खासकर उनके दोस्त की उपस्थिति में।
दूसरे दिन चमनलाल को भी महसूस हुआ कि वर्मा जी को अचानक विदा कर देना ठीक नहीं हुआ। शहर के रिश्ते बड़े नाज़ुक होते हैं, ज़रा सी चूक होते ही मुरझा जाते हैं। चमनलाल की शंका को बल भी मिला। दो एक बार वर्मा जी के मकान के सामने से गुज़रते उन्हें लगा कि वे उन्हें देखकर पीठ दे जाते हैं, या अन्दर चले जाते हैं। उन्होंने समझ लिया कि इस दरार को भरना ज़रूरी है, अन्यथा यह और भी चौड़ी हो जाएगी।
दो दिन बाद वे शाम करीब छः बजे वर्मा जी के दरवाजे़ पहुँच गये। घंटी बजायी तो वर्मा जी ने ही दरवाज़ा खोला। उस वक्त वे घर की पोशाक यानी कुर्ते पायजामे में थे। चमनलाल को देखकर पहले उनके माथे पर बल पड़े, फिर झूठी मुस्कान ओढ़ कर बोले, ‘आइए, आइए।’
चमनलाल सोफे पर बैठ गये, बोले, ‘उस दिन आप आये लेकिन ठीक से बात नहीं हो सकी। मुझे सात बजे से पहले एक कार्यक्रम में पहुँचना था। मैंने सोचा अब आपसे बैठकर बात कर ली जाए।’
वर्मा जी कुछ उखड़े उखड़े थे। उनकी बात का जवाब देने के बजाय वे इधर-उधर देखकर ‘हूँ’, ‘हाँ’ कर रहे थे। दो मिनट बाद वे उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘एक मिनट में आया।’
चमनलाल उनका इन्तज़ार करते बैठे रहे। पाँच मिनट बाद वे शर्ट पैंट पहन कर और बाल सँवार कर आ गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘अभी मुझे थोड़ा एक जगह पहुँचना है। माफ करेंगे। बाद में कभी आयें तो बात हो जाएगी।’
चमनलाल के सामने उठने के सिवा कोई चारा नहीं था। घर लौटने के बाद थोड़ी देर में वे टहलने के लिए निकले। टहलते हुए वर्मा जी के घर के सामने से निकले तो देखा वे कुर्ते पायजामे में अपने कुत्ते को सड़क पर टहला रहे थे। चमनलाल को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुत का दर्द )
☆ लघुकथा – बुत का दर्द ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
बुत बना। बुत का कोई अंग टूटा। हिंसा हुई। ख़ूब ख़ून बहा। ख़ून देख बुत बहुत रोया, पर उसका रोना किसी ने नहीं देखा। उसका टूटा अंग जोड़ा गया। कुछ लोग आए। बुत के सामने हाथ जोड़े, बुत के चरणों में सिर झुकाया और मुस्कुराए। उनकी मक्कार मुस्कान देख बुत का ख़ून खौल उठा। उसने चाहा इन सबका सिर तोड़ दे, पर वह इन्सान नहीं बुत था; मर्यादा नहीं लाँघ सकता था।
अब वह पुलिस के जवानों की क़ैद में था।
वह चिल्लाता, “मुझे इस क़ैद से रिहा करो। मुझे यहाँ से हटाओ।” पर उसका चिल्लाना किसी ने नहीं सुना। लोग अब एक नए बुत की तैयारी में लगे थे।