हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दोरंगी लेन ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ कथा कहानी ☆ दोरंगी लेन ☆ डॉ. हंसा दीप 

फोन पर उसकी आवाज से लगा था कि वह एक उम्रदराज महिला होगी। अपना सामान लेकर कार से जब मैं वहाँ पहुँची तो मेरा अनुमान सही निकला। मुझे देखते ही बोली– ओरा?

मैंने “हाँ” कहते हुए सिर झुकाया। मेरा प्रतिप्रश्न था- एंजिला?

उसने हामी भरी। ध्यान से देखने पर लगा कि उसकी उम्र साठ से पैंसठ के बीच होगी। वह एक श्वेत महिला थी। बाल करीने से सेट किए हुए थे। सारे बाल सफेद होते हुए भी मुँह पर तेज था। कपड़े महंगे व अच्छे थे। चेहरा तटस्थ था। न जाने क्यों उसकी मुस्कान मुझे सहज नहीं लगी। एक थोपी हुई मुस्कान से स्वागत किया उसने। ऐसे, जैसे कि उसे आते-जाते किराएदारों से बात करने की आदत हो। पहले भी कई छात्र यहाँ रह कर गए होंगे। वेस्टर्न यूनिवर्सिटी पास होने से इस छोटे-से कस्बे ‘फरगस’ में मेडिसिन के छात्रों का आना-जाना लगा रहता होगा।

अंदर आकर एक नजर डाली। घर पुराना था। फर्नीचर, तस्वीरें, सजावट के तौर-तरीके, हर एक चीज से, उनके आकार-प्रकार से एंटिक सामान की अनुभूति हो रही थी। सुसज्जित कमरे ऐसे थे मानो किसी भी एक चीज को हटा दें तो खालीपन उभर कर सामने आ जाएगा। शायद एंजिला के तटस्थ चेहरे की तरह इनका भी अपना एक अतीत होगा, जो गाहे-बगाहे अपनी आपबीती सुनाकर एक दूसरे का मन बहला देता होगा। वह मुझे अपना कमरा दिखाने नीचे ले गयी।

हाथ में चाबी पकड़ाते बोली- “कुछ भी चाहिए तो मुझसे कहना।”

वह चली गयी। चाबी लेते हुए मैंने करीब से देखा उसे। गिनी-चुनी झुर्रियों को छोड़ दें तो चेहरा सौम्य लेकिन भाव रहित था। मैंने अपने कमरे में नज़र दौड़ायी। वहाँ एक साफ चादर-तकिए के साथ पलंग था, टेबल थी, छोटा-सा फ्रिज़, स्टोव व किचन काउंटर था। साथ ही लगा हुआ स्नानघर और शौचालय भी था। यानी एक छात्र के रहने लायक समुचित सुविधाएँ थीं। मैं अपने आप में सहमी हुई थी। घर की हर चीज मानों मुझे मेरे रंग का अहसास करा रही थी। फिर चाहे वे पलंग पर बिछे सफेद चादर-तकिए हों या फिर बाथरूम में टंगे सफेद टॉवेल हों। किचन के सफेद केबिनेट हों या सफेद छत हो। अश्वेत को घर में जगह देना श्वेत लोगों के लिए आसान नहीं होता होगा।

खैर, पहला दिन था। एंजिला से पहली मुलाकात थी। जगह अच्छी लग रही थी। अपनी इंटर्नशिप के लिए मुझे कुछ महीने इस गाँव में रुकना था। मेरा अपने काम पर आना-जाना शुरू हुआ तो उससे आमना-सामना होने लगा। गुड मॉर्निंग, गुड नाइट के अलावा पिछले तीन दिनों में कोई बात नहीं हुई, न ही उसके चेहरे में कोई अंतर नजर आया। एक खामोशी ओढ़े आवाज निकलती और हवा में खो जाती। चाहे शुभप्रभात का ताजा अभिवादन हो या शुभरात्रि का अलसाया हुआ, एंजिला के चेहरे को पढ़ना बहुत मुश्किल था। धीरे-धीरे यह भी मेरे व्यस्त समय का एक हिस्सा बन गया। यंत्रवत लौटकर कमरे में चली जाती और अगले दिन सुबह तैयार होकर अपने काम पर।

एक महीना हो चला था। अब कुछ मित्र थे जिनके साथ समय कटता। एक दिन काम के बाद हमने फिल्म देखने जाने की योजना बना ली। स्वाभाविक ही एंजिला को सूचित करने की कोई जरूरत नहीं समझी। रोज के नियमित समय से तकरीबन ढाई घंटे लेट घर पहुँची तो अंधेरा गहरा गया था। उसे बाहर बेचैनी से घूमते पाया। मुखमुद्रा बदली हुई थी। चिंता की रेखाएँ कुछ झुर्रियों को पारदर्शी कर रही थीं।

मैंने पूछा- “कहीं आप मेरा इंतजार तो नहीं कर रही थीं?”

“नहीं।” कहकर वह तेज कदमों से भीतर चली गयी।

मुझे अच्छा नहीं लगा। शायद वह मेरे आने का इंतजार ही कर रही थी। यूँ बगैर कुछ कहे उसका जाना चुभ गया। उसकी चुप्पी मुझे खलने लगी थी। यह मौन टकराहट कचोटती थी। अपने अंदर छुपी वह धारणा दिन-ब-दिन बलवती हो रही थी कि मेरा अश्वेत होना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसके न बोलने की यही वजह है। न बोले, लेकिन एक मुस्कान तो दे ही सकती है। गुड मॉर्निंग बोलती भी है, तो चेहरा ऐसा सपाट रहता है मानो कोई रिकॉर्डिंग बजा दी हो। मैं कुछ भी बोलूँ, चाहे कोई सवाल हो या जवाब। मेरे चेहरे का भाव और हाथ पैर, सब मेरे साथ बोलने लगते हैं, पल दर पल बदलते हैं। उसके मुँह से आवाज भर निकलती, शेष अंग उस आवाज का साथ नहीं देते। ऐसा लगता मानों सारे अंगों का एक दूसरे से संपर्क टूट गया हो। एक बार में एक अंग ही काम करता हो। अतीत जब पीछा नहीं छोड़ता तो अंतर्मन के भावों पर ताले लग जाते होंगे; ऐसा ही कुछ एंजिला की खामोशी के पीछे होगा।

खैर, उसका अतीत जो भी हो। मुझे अपने काम से काम रखना है। वैसे भी हम दोनों के बीच के अंतर को कभी पाटा नहीं जा सकता। बहुत होशियार छात्र होने के बावजूद एक बात मुझे हमेशा सालती रही है। अपने व्यक्तित्व को लेकर तमाम ऐसी हीन भावनाएँ थीं जो कभी-कभी मेरी प्रतिभा को भी दबाने का प्रयास करतीं। तब मैं इस माहौल में खुद को मिस-फिट समझती। हालाँकि किताबें मेरे दिमाग में फिट होती रहतीं। मेडिसिन की पढ़ाई करके मैं बहुत आगे जाना चाहती थी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों की मदद कर सकूँ। मेरे ममा-पापा ने भी अपने जीवन भर यही किया था। मेरे लिए सपने भी देखे मगर बाहर भेजने से डरते थे। मेरी स्कालरशिप और अदम्य इच्छा ने उन्हें बाध्य कर दिया था कि मुझे न रोकें, जाने दें, अपने रास्ते खुद बनाने दें। मैं भी एक नयी दुनिया देखना चाहती थी। बहुत सोच-समझकर यही तय हुआ था कि मैं टोरंटो जाने का सुनहरा अवसर न खोऊँ।

टोरंटो आने के बाद किसी से भी मिलते हुए इस बात पर ध्यान जाता कि सामने वाला कौन है- श्वेत, अश्वेत, या फिर एशियन। मैं युगांडा से आयी थी, एक अश्वेत। वहाँ कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ क्योंकि वहाँ हम सब एक जैसे थे। बाहरी काले रंग से भीतर की रंग-बिरंगी दुनिया का कोई वास्ता नहीं होता। बेखबर होकर सपनों की दौड़ लगाते। मैंने दाखिला तो बी.एससी. में लिया मगर बहुत तेजी से अपने कदम बढ़ाते हुए तीसरे वर्ष के अंत में ही वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में मेडिसिन में चयन हो गया। कैनेडा में आने के तीन सालों के अंदर ही मैंने ऐसी छलांग लगायी कि अपने इलाके के लोगों में मेरा नाम हो गया। अत्याधुनिक व्यवस्था में, विकसित देश में पढ़ाई करके डॉक्टर बनने का हौसला अंदर ही अंदर कुलाँचे मारता रहा।

आ तो गयी थी इस दुनिया में, लेकिन कई श्वेत छात्रों के बीच रहते हीनता से ग्रस्त होना स्वाभाविक था। न जाने भगवान ने हम अश्वेत लोगों को इतना काला क्यों बनाया। हमें गढ़ते हुए रंगों की इतनी कमी हो गयी कि काले रंग के अलावा कोई रंग बचा ही नहीं। जन्म के साथ ही अन्याय शुरू हो गया। और यह बात माँ ने मुझे बहुत अच्छी तरह समझायी थी- “तुम्हारे साथ कदम-कदम पर पक्षपात होगा। अपने लोगों के साथ उठना-बैठना। तुम कभी अकेले महसूस मत करना। अपना एक ग्रुप बनाना।” ऐसी कई चेतावनियाँ दी थीं। माँ का कहा एक वाक्य मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था- “हमारा रंग हमें अपंग बना देता है। यह जन्मजात अभिशाप है।” बहस करना चाहती, पर न कर पाती। ये माँ के अपने अनुभव थे। वे यूरोप गयी थीं पढ़ने के लिए लेकिन छह महीने में लौट आयी थीं। अपना तिरस्कार सह नहीं पायी थीं। यहाँ आकर मैं स्वयं उन लोगों से दूर रहती जो मुझे अपने रंग के दिखाई न देते। शायद यही वजह थी कि अभी तक ऐसा कोई कड़वा अनुभव नहीं हुआ था। मेरी कक्षाओं के कई साथी मेरे करीब आने का, दोस्ती करने का प्रयास करते लेकिन उनके एकतरफा प्रयास कारगर न होते। मैं अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती थी। किसी पक्षपात का शिकार होकर वापस लौटना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं था। हालाँकि, इस बात से भी इनकार नहीं करती कि आज तक किसी ने भी टोरंटो में रंग को लेकर मुझ पर कोई फिकरा कसा हो, या फिर मुझे परेशान किया हो।   

एंजिला को देखते ही स्वत: दूरियाँ बन गयी थीं। पैसे देकर सिर्फ एक किराएदार का संबंध रखना चाहती थी मैं। मेरा आत्मविश्वास मेरी पढ़ाई थी, न कि मेरे आसपास के लोग। वैसे भी मैं बेहद सफाई पसंद लड़की हूँ, मुझसे किसी को कोई तकलीफ हो ही नहीं सकती। उसकी बेरूखी को मैं तवज्जो नहीं देती।  

एक दिन बहुत बर्फ गिर रही थी। पूरा लॉन बर्फ की सफेदी से घिरा था। एंजिला ने ड्राइव-वे साफ करवाने के लिए लोगों को रखा हुआ था। लेकिन बर्फ इतनी गिर रही थी कि अच्छा-खासा पहाड़ खड़ा हो गया था। मुझे बाहर जाना था। मैं चाबी लेकर अपनी कार की ओर बढ़ने लगी तो उसने मुझे कार चलाने से रोका। चेतावनी भी दी कि यहाँ की बर्फबारी टोरंटो से अधिक खतरनाक होती है। बर्फ जम कर आइस बन जाती है और गाड़ी के टायर स्लिप होने के कारण कोई भी दुर्घटना हो सकती है।

मैंने कहा- “मेरा जाना बहुत जरूरी है। मैं जल्दी ही लौट आऊँगी।” वह आश्वस्त नहीं थी। आज उसके चेहरे पर मैं गुस्सा देख रही थी जो उसकी आँखों में उतर आया था। उसके गुस्से में मेरी चिंता की झलक नहीं थी बल्कि उसकी बात मनवाने का रौब था। ये भी एक वजह थी कि मैं उसके खिलाफ जाना चाहती थी। इतने दिनों में एक बार भी सीधे मुँह बात तक नहीं की थी उसने मुझसे। आज चाहती है कि मैं उसकी बात मानूँ। मैं जहाँ जाना चाहूँ, जाऊँ, उसे रोकने का कोई हक नहीं। उसका निराकार चेहरा अब आकार ले रहा था, क्रोध से घिरा। उस भाव को वहाँ गहराते देख मेरा जाने का मन और अधिक प्रबल हो रहा था।

बगैर उसकी इच्छा की परवाह किए मैं तेजी से बाहर निकल गयी। गाड़ी स्टार्ट करके चल दी। उस समय मेरे शरीर का हर अंग ताकत से भरपूर था। न जाने बगावत की बू थी, या सफेदी को हराने की साजिश। एंजिला को, या फिर बर्फ को, क्योंकि दोनों ही सफेदी से भरपूर थे। जाने कैसा तैश था जो अंदर से मुझे शीतल कर रहा था।

यह शीतलता बहुत महंगी पड़ी मुझे। अंतत: मेरे साथ वही हुआ जिसकी आशंका एंजिला को थी। मेरी गाड़ी फिसल गयी। मैं बाल-बाल बची लेकिन गाड़ी को बहुत नुकसान हुआ। मैं जैसे-तैसे गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके घर लौटी। थकान के मारे, ठंड के मारे मेरा बुरा हाल था। बहुत देर तक बाहर खड़ा रहना पड़ा था। घर लौटी तो देखा वह और ज्यादा गुस्से में है। जितना शांत चेहरा हुआ करता था उससे कई गुना ज्यादा त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। आँखें आग उगल रही थीं। कई दिनों से दबी चिंगारी को जैसे किसी ने फूँक मार-मारकर आग में तबदील कर दिया था, अंदर के भावों को झिंझोड़ कर बाहर निकाल दिया था!    

उसने मुझसे बात नहीं की। लेकिन उसके अनकहे शब्द बहुत कुछ कह रहे थे। शायद यही– “तुम लोग सुनते नहीं हो।”

चेहरे पर जमा क्रोध की परतें मैं महसूस कर रही थी। मुझे उसके गुस्से पर गुस्सा आ रहा था। गाड़ी के लिए इंश्योरेंस कंपनी को रिपोर्ट करनी थी। ममा-पापा को नहीं बताया वरना उन्हें भी जवाब देना मुश्किल हो जाता। मैं न तो कुछ खा पायी, न उससे बात ही कर पायी। मुझे इस समय सहानुभूति की जरूरत थी, किसी के गुस्से की नहीं। आज मैं बहुत कठिन परिस्थितियों में बाल-बाल बची थी। वह कँपकँपी थी, खौफ था। मौत का सामना करते वे क्षण थे, जो लौट-लौटकर डरा रहे थे। गाड़ी का फिसलना, भड़ाम की आवाज के साथ पलट जाना और मेरा किसी तरह दरवाजा खोलना और बाहर निकलकर इमरजेंसी नंबर पर कॉल करना। पूरी फिल्म स्लो मोशन में कई बार चलती रही। हर दृश्य के साथ शरीर में झुरझुरी अभी भी थी। बहुत हिम्मत दिखाकर गाड़ी को टो-ट्रक के हवाले करके आयी थी। ऐसे में एंजिला के इस बर्ताव में मुझे नफरत की आग धधकती नजर आयी। अब मैंने भी ठान लिया कि मुझे उससे बात करने का कोई शौक नहीं। किराएदार और मकान मालिक का संबंध पैसों तक ही रहे। मुझ पर हुक्म चलाने का उसे कोई हक नहीं।   

अब माहौल बदल चुका था। ममा-पापा की आशंकाएँ सच हो चली थीं। मेरे और उसके बीच की खाई और गहरी होती जा रही थी। आपसी पूर्वाग्रहों के बीच एक घर में रहते दो इंसान झुलस रहे थे। मैं पढ़ाई में सब कुछ भूल जाती थी लेकिन उसके पास तो समय ही समय था। वह शायद एक ही बात में उलझी रहती थी इसीलिए कई दिनों तक उसका चेहरा वैसा ही बना रहा। मुझे लगा कि वह अपने आप में इतनी खोयी रहती है कि एक बार किसी बात पर अड़ जाती है तो शायद महीनों तक उसके शरीर के हर हाव-भाव में वही बात रहती है। फिर चाहे उदासी हो, चुप्पी हो या फिर गुस्सा हो।   

मैं गुस्से में थी, एंजिला भी। अब तो हमारे बीच गुड मॉर्निंग, गुड नाइट की औपचारिकता भी शेष नहीं रही थी। एक बार फिर से मेरे भीतर बँधी गाँठ में कसाव आया। मेरा आईना मुझे विद्रोही बनाता। भले ही मैं एक बड़ी डॉक्टर क्यों न बन जाऊँ मगर मेरा रंग मुझे सालता रहेगा। मैं और एंजिला, हम दोनों एक दूसरे से बेहद नाराज थे। उसकी नाराजगी का लेवल मुझसे कहीं अधिक था। आशंकाओं के चलते शीत युद्ध बढ़ता चला जा रहा था। बीतते दिनों के साथ मैं सहज होने लगी थी लेकिन वह नहीं। कई दिनों से उससे बात नहीं हुई थी। मैं कभी अपने प्रेजेंटेशन में, तो कभी अपने केस की स्टडी में व्यस्त रहती।

एक दिन रात में मैं गहरी नींद में थी कि एंबुलेंस के कानफोड़ू हार्न से मेरी नींद खुल गयी। धड़-धड़ करते बूटों की आवाज आयी और दरवाजा भी खुला। मैं तुरंत उठ कर ऊपर गयी। एंजिला को अस्पताल ले जाया जा रहा था। उसे सीने में दर्द हो रहा था। मैंने उसके साथ जाना उचित समझा। उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। शायद बायपास सर्जरी करनी पड़े। मैं रोज उसे देखने जाती पर कभी बात नहीं होती। या तो वह सो रही होती या फिर नर्स होती उसके आसपास।

कुछ समय बाद उसकी सर्जरी हुई और रिकवरी के बाद घर भेज दिया गया। उसकी मदद के लिए अस्पताल से एक नर्स लगा दी गयी थी जो उसकी सारी जरूरतों का ध्यान रखती। शनिवार की एक दोपहर मैं उसे रोज की तरह सोया हुआ देखकर अपने कमरे में लौट रही थी कि उसने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठने को कहा। मैं उसके सामने बैठ गयी। हम दोनों के चेहरे सपाट थे, निर्विकार।

कुछ क्षणों के बाद उसने तकिए के नीचे से एक फोटो निकालकर मुझे बताया। उसमें मेरी उम्र की दो अश्वेत लड़कियाँ और अधेड़ उम्र का एक अश्वेत व्यक्ति एंजिला का हाथ थामे हुए था। फोटो देखने के बाद उसके चेहरे पर मेरी प्रश्नवाचक निगाहें टिक गयीं।

“ये मेरी बेटियाँ हैं।”

मैं अवाक उसका मुँह देख रही थी। वह शांत भाव से कहने लगी– “मैं अपने इस परिवार को खो चुकी हूँ।”

मैंने कहा- “ये?” जैसे एक बच्चा उलझी पहेली को सुलझाने की कोशिश करता है कुछ वैसी ही उलझन मेरे हर अंग से टपकते हुए उसके चेहरे पर जाकर टिक गयी थी।   

“ये हैं मेरे पति, बच्चियों के पापा।”

“क्या?”

“ऐसे ही बर्फबारी में तीनों गए थे, वापस नहीं लौटे। उस दिन उन्होंने मेरी बात नहीं मानी थी,  सालों बाद फिर से तुमने भी मेरी बात नहीं मानी।”

मैं जड़वत थी।

“तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाती। तुम्हारे यहाँ रहते मुझे घर में जैसे अपनी बेटियाँ दिखती रहीं। इसलिए अधिकार से तुम्हें बर्फ में जाने से मना करती रही।”

मैं अब उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़ रही थी। मेरे लिए संदेश भी था कि मुझे कुछ हो जाता तो वह किस भयानक सदमे से गुजरती। मैं क्या कहती! नि:शब्द थी। आज मेरा चेहरा उसके चेहरे की तरह भाव विहीन था। चार लोगों के उसके परिवार में अब वह अकेली है, वे तीनों नहीं हैं। जाने-अनजाने मैंने उसका दर्द भरा इतिहास दोहरा दिया था। वह दृश्य मेरे सामने था- किस तरह घर के तीन सदस्य बर्फबारी में निकल गए होंगे। वह चिंता कर रही होगी, और जब उसे खबर मिली होगी कि उनका एक्सीडेंट हो गया तो भरे-पूरे परिवार को खोकर उस पर क्या गुजरी होगी!

मैं कल्पना में बहुत दूर तक गयी और उन दृश्यों को जाकर वर्तमान में लौट आयी। यह सोचकर ही काँपती रही कि एंजिला ने स्वयं को कैसे संभाला होगा। मैं उसके प्रति सहानुभूति जताने लायक भी नहीं रही थी। किस मुँह से कुछ कहती! उस अतीत को जिसे वह भूलना चाहती है, मैं फिर एक बार उसके सामने लेकर आयी। उसके घायल मन को मैंने फिर लहूलुहान किया था। मेरा मन पश्चाताप में झुलस उठा।  

मेरे रंग-रूप में उसे अपनी बेटियों का अक्स नजर आता होगा। उसने मुझे लेकर कई कल्पनाएँ बुन ली होंगी और मैं रंगों के चक्कर में अपने मन को बेरंग करती रही। पता नहीं उसका हाथ मेरे हाथ में था, या मेरा उसके हाथ में। अपनी आँखों की गीली पोरों में अब मैं सिर्फ स्पर्श को महसूस कर रही थी। भीतर बँधी कई गाँठें चटक-चटक कर टूट रही थीं। एक डॉक्टर बनना था मुझे जो लोगों की ग्रंथियाँ खोलता है, बाँधता नहीं।

मेरे सामीप्य से उसके चेहरे पर जो मुस्कान थी, वह बरसों तक बनी रहे, यह जिम्मेदारी मुझ पर थी। मेरे कंधों ने खुशी-खुशी यह जिम्मेदारी ओढ़ ली। हिमपात कहर ढा कर गुजर गया था, घर के बाहर भी और भीतर भी। घर की आबोहवा में ताजी धूप ने दस्तक दे दी थी। हर तरफ़ फैले दूधिया बर्फ के कण और एंजिला का चेहरा दोनों ही मुझे मुझसे मिला रहे थे।

दोरंगी लेन एकमेक हो गयी थी।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता)

☆ दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

पहाड़ पिता – 1 

वे लोग छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने में जुटे थे। कुछ लोग उन्हें मूर्ख कहकर उन पर हँसते तो कुछ दयार्द्र हो जाते। यदा-कदा कोई पत्रकार भी मौक़े पर पहुँच जाता। एक दिन एक पत्रकार ने उनसे कहा, “किसलिये इतनी मेहनत कर रहे हो? ज़िला मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन करो। सरकार डायनामाइट से पहाड़ को उड़ाकर तुरत-फुरत रास्ता बना देगी। उन लोगों का मुखिया एकदम जैसे फुफकार उठा, “पहाड़ हमारा पिता है। कौन बेटा अपने पिता के चिथड़े उड़ते देख सकता है?”

“हुँह, पिता! सरकार हर रोज़ तुम्हारे पिता के चिथड़े उड़ाकर सड़कें बना रही है। क्या बिगाड़ लिया उसका तुमने और तुम्हारे पिता ने?”

“हम कुछ बिगाड़ पायें या नहीं, लेकिन पहाड़ पिता का कोप बहुत ख़तरनाक होता है। तुम देख रहे हो न, शहर धँस रहे हैं, बारिश या तो होती नहीं या कहर ढा देती है, ग़ुस्से में पहाड़ पिता ख़ुद को छलनी कर सड़कों और झीलों पर आ गिरते हैं। हम एक हथौड़ा मारते हैं और पहाड़ की देह सहला कर उससे प्रार्थना करते हैं कि ओ पहाड़ पिता सरकार को सद्बुद्धि दे, अपने बच्चों पर दया कर।”

पहाड़ पिता – 2

छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ काटकर काफ़ी समय से बनाया जा रहा रास्ता आज बनकर तैयार हो गया था। वे बीस लोग जो इस काम में जी-जान से लगे थे, अब पहाड़ के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। उनमें से एक आदमी जिसने सबसे पहले इस काम की शुरुआत की थी, पहाड़ से बात कर रहा था, “ओ पहाड़ पिता, तुम्हारे सीने पर ही यह रास्ता बन सकता था। हमने लगातार तुम्हें चोट पहुँचाई, इसके लिए क्षमा करना ओ पिता!” वह आदमी पहाड़ पर सिर रखे रो रहा था। उसके साथ उसके सब साथी भी रो रहे थे। कोई नहीं देख पाया कि पहाड़ ने उनके ये आँसू बादलों को सौंप दिए। अचानक बारिश शुरू हो गई। इसे शुभ शगुन माना गया। पहाड़ पिता अपने बच्चों पर मुग्ध था और उसके बच्चे उसे छू-छूकर नाच रहे थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ लघुकथा – “ऑनलाइन…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ लघुकथा – “ऑनलाइन…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

“मित्र सुदेश! यह लॉकडाउन तो गज़ब का रहा? क्या अब फिर से लॉकडाउन नहीं लगेगा।” सरकारी स्कूल के टीचर आनंद ने अपने मित्र से कहा।

“क्या मतलब? “सुदेश ने उत्सुकता दिखाई। 

“वह यह सुदेश ! कि पहले तो कई दिन स्कूल बंद रहे तो पढ़ाने से मुक्ति रही,और फिर बाद में मोबाइल से  ऑनलाइन पढ़ाने का आदेश मिला,तो बस खानापूर्ति ही कर देता रहा।न सब बच्चों के घर मोबाइल है,न ही डाटा रहता था, तो कभी मैं इंटरनेट चालू न होने का बहाना कर देता रहा। बहुत मज़े रहे भाई ! “आनंद ने बड़ी बेशर्मी से कहा। 

“पर इससे तो बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुक़सान हुआ। ” सुदेश ने कमेंट किया। 

“अरे छोड़ो यार! फालतू बात। फिर से लॉकडाउन लग जाए तो मज़ा आ जाए।” आनंद ने निर्लज्जता दोहराई।          

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ “लाईफ सर्टिफिकेट…” ☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

सुश्री प्रणिता खंडकर

 ☆ कथा कहानी  – “लाईफ सर्टिफिकेट…☆ सुश्री प्रणिता खंडकर ☆

आज बहुत दिनों के बाद मनोज को फुरसत मिली थी |इसलिए आॅफिस छुटतेही उसके पैर मरिन ड्राईव्ह के समुंदर किनारे की तरफ बढे |वहाँ के कटहरे पर बैठ कर  समुंदर की लहरें तथा आसपास के नजारों को निहारना उसे बेहद पसंद था | मानसी, मयूरी को लेकर आज मैके गई थी, घाटकोपर में | वे दोनों रात में वहीं ठहरनेवाली थी| आज बाहर खाना खाकर ही घर जाने का मनोज का विचार था |

वह चने और मूँगफली की पुडियाँ हाथों में थामकर कटहरे पर जा बैठा | कुछ समय बाद  एक वयस्क दंपति आकर उससे थोडी सी दूरी पर, बैठ गए | उसने सहजता से उनकी तरफ देखा तो उसके ध्यान में आया की, ये दोनों तो दोपहर में उसके दफ्तर में आये थे | NEFT और लाईफ सर्टिफिकेट जमा करवाने! उसने उन्हें बताया था कि उनको इतनी दूर, नरिमन पॉइंट के आफिस तक आने की जरूरत नहीं थी | घर से नजदीक की एल. आय. सी. की किसी भी शाखा में यह काम हो सकता है |

कर्जत से, बहुत दूर से वे दोनों आए थे | उनका ध्यान मनोज की तरफ नहीं गया, लेकिन उनकी बातें, उसे आराम से सुनाई दे रही थी |

‘क्यूँ, खुश हो ना आज श्रीमतीजी? कितने महिनों के बाद हमें ये फुरसत की घडियाँ रास आयी है!’

‘ ये भी कोई पूछने की बात है! आपने तो ऐसी तरकीब निकाली कि किसी को जरा भी संदेह नहीं हुआ!’

अब मनोज की जिज्ञासा जाग गई और वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा | तब…

यह श्रीमानजी करीबन्  पैसठ साल के थे और श्रीमतीजी लगभग साठ साल की | उम्र के हिसाब से तो दोनों जवान और फुर्तीले लग रहे थे | श्रीमान गोदरेज कंपनी से सेवानिवृत्त हुए थे और श्रीमतीजी गृहिणी थी | इनके दो बच्चे थे, एक लडका, एक लडकी | दोनों पढे-लिखे, नौकरी करते थे और शादीशुदा थे | इस दंपति का कर्जत में छोटा-सा बंगला था, चार कमरेवाला |

मुंबई तक नौकरी के लिए आने-जाने में सुविधा हो, इसलिए  उनका बेटा श्रीकांत और बहु-श्रेया डोंबिवली में फ्लैट लेकर रहते थे |श्रीकांत की बेटी – सई, इनकी पोती इस साल दसवी कक्षा में पढ रही थी | उसका ये महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण वर्ष था और जुलाई में ही बहुरानी का पदोन्नती के कारण अंधेरी में तबादला हुआ | उस का तो पूरा दिन बाहर ही जाता और लौटने में रात! इसलिए पोती की देखभाल करने के लिए ये दादा-दादी डोंबिवली में, बेटे के घर आकर रहने लगे | सास-बहु का अच्छा मेलजोल था, कोई दिक्कत नहीं थी | सब अच्छे से चल रहा था |

लगभग एक महिना ऐसे बीत गया और इनके दामाद को कंपनी ने जापान भेजने का फैसला किया, एक साल के लिए! बेटी श्रुती एक प्रायवेट कंपनी में उच्चपदस्थ थी | वह रहती मुलुंड में थी और उसका आफिस वरली में था |

उसका बेटा सातवी कक्षा में था और स्कालरशिप की परीक्षा देने वाला था | उसके सास-ससुर उसके जेठ के साथ रहते थे | श्रुती की लव – मैरेज थी, तो सास-ससुर जरा
दूर रहना ही पसंद करते थे | इसलिए श्रुती ने अपने पापा को ही मनाया, अपने घर आकर रहने के लिए | बेटे का स्कूल, ट्यूशन, पढाई ये सब सँभालने में उसकी थोडी सहायता करने के लिए!

मना कैसे करते! इस तरह नानाजी मुलुंड में रहने आये | पती – पत्नी एक दूसरे से बिछड गये | सच कहे तो, एक-दूसरे से अलग रहना इनके लिए बहुत कठिन हो रहा था |इतने साल साथ-साथ रहने की आदत पड गयी थी और वैसे भी ढलती उम्र में एक-दूजे का साथ जरूरी लगता है ना!

एक हफ्ता पहले श्रीमानजी ने कर्जत का चक्कर लगाया, तो घर में एल.आय.सी. का पत्र मिला | दोनों की पेंशन पालिसी का NEFT और लाईफ सर्टफिकट जमा करवाना था | रिटायर होते समय जो पूंजी मिली थी, उन्होंने ‘जीवन अक्षय’ पेंशन प्लान में निवेशित की थी |

पती और पत्नी के नाम, दो अलग पॉलिसियाँ ली थी | इस कारण हर माह एक ठोस रकम हाथ में आने की गारंटी थी |दोनों की उम्रभर की सुविधा और नामिनी के रूप में एक में बेटी का और दूसरी पालिसी में बेटे का नाम पंजीकृत किया था | माँ-बाप की मृत्यु के पश्चात दोनों बच्चों को, बडी रकम मिलने वाली थी, जो उन्होंने मूलतः निवेशित की थी |

उस समय  कम पैसों में सब संभाल के भी हमने ये निवेश किया, इसका उन्हें मन ही मन आनंद हुआ और आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे | अपने आँसू पोंछते-पोंछते उनके मन में एक बढिया सी कल्पना आयी…

उस पत्र पर नरिमन पॉइंट के हेड-आफिस का पता था | बच्चे तो अपने-अपने काम में व्यग्र थे | उनको ये काम सौंपने का कोई फायदा नहीं होनेवाला था | हम दोनों खुद जा कर ही ये जमा करके आते है, ताकि हस्ताक्षर में कुछ बदलाव हो गया हो तो दिक्कत नहीं आएगी | उन्होंने अपने बच्चों को ये समझाया |

एक दिन के लिए अपनी पोती की व्यवस्था उसकी सहेली के यहाँ और पोते की व्यवस्था पडोस वाली चाचीजी के घर कर दी |

आज उनकी शादी की सालगिरह थी | इस प्रकार मिल के उन्होंने मनायी थी! भीड भाड का समय छोडकर, साढे बारह के आसपास वे व्ही. टी. स्टेशन पहुँचे | फिर ‘स्टेटस’ में मनपसंद खाना और  चर्चगेट में ‘रूस्तम’ की आइस्क्रीम!

उसके बाद ‘योगक्षेम’ में फार्मस जमा करके, मरिन ड्राईव्ह के समुंदर किनारे बैठ कर जी भर के बातें कर ली |

सात बज रहे थे, तो श्रीमानजी ने कहा, ‘ चलो श्रीमतीजी,  चलते है | टैक्सी से व्ही. टी. जाकर, रात के खाने के समय तक घर पहुँचेंगे तो बच्चों को भी , हमारी चिंता नहीं करनी पडेगी |’

‘हाँ, चलिए | मगर मेरा पेट तो आज खुशी से इतना भर गया है, कि अब घर जाकर मुझे कुछ नहीं खाना |’ श्रीमतीजी शरमाते हुए बोली |

‘लाईफ सर्टिफिकेट का इस तरह इस्तेमाल करके, अपना लाईफ एंजॉय करने वाली इस दंपति को, मन- ही- मन सलाम करके, मनोज भी वहाँ से निकल पडा, अपनी पेट पूजा के लिए!

© सुश्री प्रणिता खंडकर

ईमेल – [email protected] वाॅटसप संपर्क – 98334 79845.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ दरियादिली ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “दरियादिली “.)

☆ लघुकथा – दरियादिली ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक महिला प्रतिदिन बिना नागा पार्क में प्रवेश करती। वहां मुंदी अधमुंदी आंखों से लेटे हुए कुत्तों में जाग पड़ जाती।

उस महिला के पीछे कम से कम एक दर्जन कुत्तों की फौज होती। वह रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े फेंकती जाती और कुत्ता समूह उनको चट करता जाता।

एक छोटा सा पिल्ला तो उस महिला की टांगों के बीच फंसा फंसा चलता। बड़े कुत्तों के कारण उसे रोटी मिल ही नहीं पाती थी। जब कभी महिला का ध्यान उस तरफ जाता तो वह झुक कर उसके मुंह में एक दो टुकड़े डाल देती।

कुत्ता समूह खुश था। बैठे ठाले रोज उनकी दीवाली थी। दर्शक महिला की दरियादिली की डटकर प्रशंसा करते।

एक दिन उस महिला की पड़ोसन यह दृश्य देखकर बोली -‘देखो तो इस धन्ना सेठी को, खुद के सास ससुर तो वृद्ध आश्रम में पल रहे हैं और यह कुत्तों को रोटी खिलाकर पुण्य लूट रही है।’

वह महिला इन सब बातों से बेपरवाह थी। उल्टे उसने कुत्तों की रोटी की व्यवस्था के लिए एक रोटी बनाने वाली बाई  भी  रख ली थी।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ??

वह बहती रही, वह कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

वह बहती रही।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 165 – सुलगती कहानी – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय  “सुलगती कहानी”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 165 ☆

☆ लघुकथा – 📒सुलगती कहानी 📒

दरवाजे की घंटी बजी। महिमा ने दरवाजा खोलो। देखा वयोवृद्ध लगभग अस्सी वर्ष के एक वरिष्ठ सज्जन सामने खड़े दिखाई दिए। उसने कहा… “आप कौन?” तत्काल कंपन लिए परंतु जोरदार आवाज में बोले “क्या कहा? … आने के लिए नहीं कहोगी।” महिमा ने दरवाजे से एक ओर हट कर कहा… “आइए बैठिए, मैंने आपको पहचाना नहीं।” “तुम पहचान भी नहीं सकती परंतु मैं तुम्हें पहचान रहा हूँ। अभी तुम्हारी कलम लिखाई कर रही है। यह देखो मेरे लिखे गीत, कहानियाँ।” करीब 10-12 किताबें उन्होंने टेबिल पर लगा दी। एक फटी पुरानी फाइल से निकालते उन्होंने ने  दिखाया -“मेरी कहानियां कभी बोलती थी। सभी जगह से मैं सम्मानित होता था। आज मौन हो एक बस्ते में पड़ी हैं। क्या करूं?? समय ने ऐसा दिन दिखाया कि मुझे अब कहानियों से लगाव तो है परंतु यह पेट नहीं भर पा रहा है। मेरे पाँच बेटे हैं परंतु किसी काम के नहीं।

आज सोशल मीडिया पर मेरे स्वयं के बच्चे दिन भर छोटी छोटी बातें कहानियां दूसरों की सीख देखते हैं और मेरी किताब को रद्दी के भाव में बेंच रहे।”

आँखों से टपकते आँसुओं ने उसकी कमीज की बाजू भिगो दिया। “क्या कहूं तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा।” महिमा आवाक देखती रही।

टेबल पर एक कृति अचानक गिरी “सुलगती कहानी”। महिमा ने तत्काल उसे उठाया और उन वरिष्ठ का सम्मान अपने तरीके से कर हाथ जोड़ खड़ी रही।

उन्होंने झोला निकाला सभी किताबों को डाल दुआओं में बस इतने बोल कह गये…” कभी लिखना मेरी कहानियाँ… मेरे जीवन को अपनी कलम में स्थान देना। लिखना मेरी सुलगती कहानी।” महिमा उसकी किताब को लिए उसे दूर जाते देखती रही।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 198 ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फैसला)

☆ लघुकथा ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

नम आंखों से कामेश और शिखा ने अपने बेटे और बहू को जब एक साल पहले विदा किया था तो समर ने वायदा किया था कि हर दिन वह फोन पर बात करेगा। पर साल भर बाद पंखुड़ी ने बताया कि समर इतने अधिक बिजी हो गए हैं कि थोड़ी सी बात करने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। हताश कामेश और शिखा हर दिन समर को याद करते रहते और उसके फोन का रास्ता देखते रहते। कामेश लगातार बीमारी से टूट से गए थे, ज्यादा गंभीर होने से एक दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। समर का फोन तो आया नहीं, हारकर शिखा ने समर को फोन लगाया।

– हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ? वे तुम्हें एक नजर देखना चाहते हैं। 

— मां बहुत बिजी हूं। वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, इण्डिया में अपने घर में एसी- वेसी भी नहीं है। समीरा से बात करता हूं कि अभी पापा को अटेंड कर ले  फिर माँ के समय मैं आ जाऊँगा। तुम तो समझती हो मां… मुझे तुम से ज्यादा प्यार है। 

— पर बेटा वे तो मरने के पहले सारी प्रापर्टी तुम्हारे नाम करना चाहते हैं।

— मम्मी, फिर मैं कोशिश करता हूं। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-३ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(श्रमिकों की खस्ता हालत और श्रमिक नेताओं द्वारा किया जाने वाला उनका शोषण.. इसी विषय पर जयंत बाते करता था। सभा, संमेलन, चर्चाऍं, मोर्चा, इसमें वह रात -दिन की, गर्मी की, भूख- प्यास की परवाह न करते हुए जाता रहा )…. अब आगे

 एक दिन शाम के वक्त घर के सामने टॅक्सी रुकी। चार-पाच लोग जयंत को उठा के घर ले आए। उसका चेहरा सफेद, तेज विहीन दिख रहा था किसी ने बताया वह चक्कर खाके गिर गया था।

 फिर हॉस्पिटल… यूरिन, ब्लड, स्टूलटेस्ट, सलाइन, एक्सरे, कार्डियोग्राम सिलसिला शुरू हो गया।

 बेड रेस्ट लेने की डॉक्टर की सलाह के बावजूद उसको घर से निकलने से नहीं रोकना यह मेरा डॉक्टर के हिसाब से अपराध था। डॉक्टर ने सारा गुस्सा मुझ पर उतारा। जयंत डॉक्टर से बहसबाजी करता रहा। उसका आत्मविश्वास, जीने की इच्छा बहुत अपार थी। पर उसकी हेल्थ कंडीशन बद से बदतर होती जा रही थी। उसके हित चिंतक, मिलने आते थे। स्नेही-साथी रात दिन उसकी सेवा कर रहे थे। सांसद, विधायककों के संदेश आते थे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है? उसे हेपेटायटिस बी ने पकड़ लिया था, यह रिपोर्ट बता रहे थे। स्पेशलिस्ट का कहना यही था कि पहले बीमारी में उसको खून चढ़ाया गया था तब कुछ ॳॅफेक्टेड खून उसके शरीर में चला गया था। वह दिन प्रतिदिन ज्यादा ज्यादा कमजोर होने लगा। ज्यादा बोलने से भी वह थक जाता था। आखिर आखिर में वह मेरी तरफ सिर्फ देखता रहता था। हाथ हाथ में लेकर कहता, ” मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है। .. मेरे जाने के बाद तुम फिर शादी कर लेना। मैं कहती, “ऐसी बातें मन में भी मत लाना, मैं तुमको दोष नहीं दे रही हूॅं। मेरा उसको प्यार से समझाना कि तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे… यह तसल्ली झूठी है, यह बात मैं भी जानती थी.. और वह भी ! ‌बीमारी बढ़ गई और मेरा अभागन का साथ छोड़कर वह भगवान को प्यारा हो गया। आखिर सब खत्म हो गया उसका और मेरा रिश्ता, ऋणानुबंध …सब कुछ !

अब इसका भवितव्य क्या? मेरे मायके वाले… ससुराल वाले …स्नेही संबंधी… सबके मन में एक ही सवाल था। जयंत के दफ्तर में ही मुझे नौकरी मिल गई। एक महत्वपूर्ण समस्या का अस्थाई रूप से हल निकला। जाने वाला तो चला गया, पीछे रह गये लोगों की जिंदगी थोड़े ही रुक जाती है। काल प्रवाह के साथ उनको आगे बढ़ना ही होता है, ….जैसा भी बन पड़ेगा…। मम्मी दुखी थी, परेशान थी। एक बात उसके दिमाग से उतर ही नहीं रही थी। कहती थी, “उसने हमें धोखा दिया, जरूर उसको कोई बड़ी बीमारी थी। तभी तो दहेज भी नहीं लिया उसने!….वही पुरानी टेप !लेकिन मुझे तभी भी वैसा नहीं लगा था और अभी भी नहीं लगता है। वह सीधे सरल मन का था। कोई दांवपेच, छक्के-

पंजे, छल कपट उसके पास थे ही नहीं। …..यह तो मेरी ही बदकिस्मती और क्या? इतना सुंदर, आकर्षक पति मिला, और पूरी पहचान होने से पहले ही वह दूर चला गया। फिर कभी वापस न लौटने के लिए। सह- जीवन के कितने सुंदर सपने मैंने देखे थे। जीवन भर के लिए नहीं कम से कम थोड़े पल के लिए ही सही… पर उतना भी उसका साथ नहीं मिला।

फिर तीन साल बाद मेरी प्रभाकर जी से शादी हुई। प्रभाकर बहुत नामांकित रिसर्च सेंटर में रिसर्च ऑफिसर थे। जयंत से भी सुंदर, अच्छी खासी तनख्वाह पाने वाले, खुद की बड़ी कोठी…. आगे पीछे बाग बगीचा ! मेरे भाई के दोस्त उनको जानते थे। उन्होंने ही पहल करके शादी की बात छेडी और मेरी शादी हो गई। मेरी यह दूसरी शादी, लेकिन उनकी पहली ही थी। आजकल के हिसाब से मेरेसे उनकी उम्र थोड़ी ज्यादा थी। उनके रुप में मुझे एक दोस्त नहीं एक धीर गंभीर प्रवृत्ति का पति मिला। शादी न करने का उनका इरादा था। लेकिन ऊपर वाले ने स्वर्ग में ही हमारा जोड़ा बनाया था ना तो वैसे ही हुआ। मेरे पहले ससुराल वालों ने भी समझदारी दिखाई, ” इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बेचारी अकेली कब तक रहेगी? वैसे भी जयंत की आखिरी इच्छा यही थी। उसकी आत्मा को शांति मिलेगी!” उन्होंने कहा। आत्मा का शरीर में अस्तित्व होना… उसका शरीर से निकल जाना…. यह बातें सच्ची होती है क्या? अगर होती है, तो मुझे यकीन है कि मेरी आज की हालत देख कर उसकीआत्मा जरूर दुखी हुई होगी।

मेरी शादी के साथ ही मेरे ससुराल वाले, पीहर वाले, सब ने राहत महसूस की। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे तो मेरे अपने, अंतरंग के लोग, लेकिन जिंदगी भर का साथ कौन किसको देता है? ससुराल में जेठ, जेठानी ननद इनसे मेरा ज्यादा परिचय भी नहीं हुआ था। बाकी बचे रिश्तेदारों ने शायद मेरे भाग्य पर अचरज किया होगा। किसी -किसी को जलन भी हुई होगी। ” देखो पहले से भी अच्छा घर बार, ज्यादा सुंदर दुल्हा, कहीं पर भी समझौता नहीं करना पड़ा। लोगों की नजर में तो सब कुछ बहुत ही सुंदर, मनलुभावन था।

प्रभाकर नाक की सीध में चलने वाले आदमी। आराम से जो मिल रहा है वह लेने वाले या कभी-कभी ना लेने वाले! मितभाषी, घून्ने, खुद में ही मस्त, थोड़े से रिजर्व नेचर के। बेशक ये सब मुझे शादी के बाद धीरे-धीरे ज्ञात हुआ। शुरू शुरू में यह सब अच्छा भी लगा।

मानो हम दोनों सागर में पास पास रहने वाले दो अलग-अलग द्वीपखंड है। एक द्विप के आसमान में पूरा वनस्पति शास्त्र भरा पड़ा हैं। दूसरे द्विप के आसमान में बस, जयंत की यादें ही यादें हैं। कभी कभार दो द्वीप- खंड अनजाने में ही, पानी के बहुत तेज प्रवाह से पास आते हैं। एक दूसरे को टकराते हैं। ओवरलैप भी करते हैं, फिर पानी का प्रवाह के संथ होते ही अपनी जगह पर स्थिर हो जाते हैं।

शुरू में सब बहुत ही अजीब लगा। …बाद में ठीक लगने लगा। क्योंकि जयंत की यादों में बने रहने की आजादी मुझे मिल रही थी। लगता था प्रभाकर के इस घर में भी जयंत ही मुझे साथ दे रहा है। कभी-कभी नहीं, बहुत बार मन दुखी भी हो जाता हैं। लगता हैं यह प्रभाकर को धोखा देने वाली बात है। शादी तो उनसे की, पर पूरे मन से मैं पत्नी धर्म का पालन नहीं कर रही हूॅं। यह बहुत बड़ी प्रतारणा है। पाप है। लेकिन मैं बेबस हूॅं। प्रभाकर अच्छे वैज्ञानिक, अच्छे संशोधक जरूर है, पर अच्छे पति, अच्छे जीवन साथी बिल्कुल नहीं बन पाए।

फिर दो साल बाद गौरी का जन्म हुआ। यह भी लगता है शायद सागर में दो द्वीप आपस में टकराने से यह दुर्घटना घटी होगी। लेकिन बेटी को पाके इधर-उधर भटकने वाले मेरे मन को बहुत शांति मिली। मानो गौरी हमारे दोनों द्वीप को जोड़ने वाला पुल थी। गौरी की देखभाल, परवरिश करते हुए मैं उसमें इस कदर व्यस्त हो गई कि धीरे-धीरे मन में बसी जयंत की छवि भी धुंधली हो गयी।

तभी अचानक भैया जी और भाभी वापस आ गए। हमारे शादी के वक्त वे लोग कनाडा में अपने बेटे के पास गए थे। फिर लंदन वाली बेटी के घर। इधर-उधर करते करते अब तीन साल बाद फिर भारत वापस आए थे। मुझे मिलने के लिए वे मेरे दफ्तर आ पहुॅंचे। वैसे भैया जी के बेटे का एड्रेस मेरे पास था, लेकिन भैया जी को शादी की खबर देनी चाहिए यह बात मुझे उस वक्त सुझी ही नहीं… पता नहीं क्यों?

…जब भैया जी, भाभी जी हमारे घर पर आए, मन ही मन मैं बहुत सकुचाई थी। लेकिन दोनों ने बताया, पहले से हम तुम्हें बहू मानते आए हैं, और अब भी तुम हमारी बहू ही हो, और प्रभाकर हमारा बेटा है। हम लोगों का एक दूसरे के घर आना जाना पहले जैसा ही रहना चाहिए। “ऑफ कोर्स आप लोगों की इच्छा नहीं हो तो फिर”….भैया जी बहुत भावुक हो गए थे। उनकी ममता उनके स्वर में छलक रही थी।

वे दोनों, …कभी-कभी अकेले भैया जी…आते जाते रहे। बीच-बीच में कभी-कभार हम भी उनके घर जाते। भैया जी के लिए प्रभाकर सर, प्रभाकर जी, सिर्फ प्रभाकर कब बने पता ही नहीं चला। हमेशा से मितभाषी, आत्ममग्न रहने वाला यह इंसान उनके साथ खुलकर बातें कैसे करता है? …यह अद्भुत पहेली मेरे समझ से परे है। अब सब कुछ अच्छा ही चल रहा है। घर का बदला हुआ माहौल भी प्यारा है। फिर भी मैं बेचैन हो जाती हूॅं। भैया जी के आते ही जयंत बहुत याद आता है। मन के किसी सिकूडे कोने में दुबक कर यादों में पड़ा जयंत दुबारा से स्पष्ट हो जाता है। नायक की भूमिका में मेरे सामने खड़ा हो जाता है। धीरे-धीरे मेरे मन पर छा जाता है। मेरा मन अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। उसका घना साया मन को बेचैन करता रहता है। ….और यह बेचैनी मैं किसी के सामने व्यक्त भी नहीं कर सकती।

 – समाप्त – 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #202 ☆ कथा-कहानी – ‘दरवाज़ा’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा ‘दरवाज़ा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 202 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ ‘दरवाज़ा’

देवेन्द्र जी पत्नी के साथ ससुराल के गाँव के मोड़ पर बस से उतर गये। यात्रा से शरीर हिल गया था। सामने कच्ची सड़क पेड़ों और खेतों के बीच लहराती हुई दूर तक चली गई थी। अब सूटकेस उठाये एक किलोमीटर कौन जाए? पत्नी के लिए वैसे भी घुटनों के दर्द के कारण चलना मुहाल था।

सन्देश दो दिन पहले आया था। एक रिश्तेदार ने सूचना दी थी कि देवेन्द्र जी के एकमात्र साले और तीन बहनों के एकमात्र बड़े भाई सुखपाल दादा अचानक चल बसे थे। देवेन्द्र जी की पत्नी गीता को खासा आघात लगा क्योंकि बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उसका मायके से लगाव ज़्यादा था और उसमें ज़िम्मेदारी-बोध भी कुछ ज़्यादा था।

दूसरी बात यह कि सुखपाल दादा को कोई तकलीफ नहीं थी। अभी डेढ़ माह पहले वे गीता के घर आये थे। तब उनके पैर में पट्टी ज़रूर बँधी थी। बताया कि घाव हो गया है जो दो-तीन महीने गुज़र जाने के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। देवेन्द्र जी ने सलाह दी थी कि मामले को गंभीरता से लिया जाए और ब्लड-शुगर की जाँच करा ली जाए, लेकिन आम देहातियों की तरह सुखपाल दादा ने बात को हँसी में उड़ा दिया था। देवेन्द्र जी ने भी फिर जाँच के लिए ज़ोर नहीं दिया। अब ज़रूर उन्हें थोड़ा अपराध-बोध हुआ कि जाँच करा देते तो शायद कुछ पता लग जाता, लेकिन इस विचार को उन्होंने ज़्यादा टिकने नहीं दिया।

मृत्यु का संदेश मिलने के बाद ससुराल पहुँचने में देवेन्द्र जी को दो दिन लग गये थे क्योंकि शहर में घर छोड़कर अचानक चल पड़ना नहीं हो सकता। घर की सुरक्षा का इंतज़ाम करना पड़ता है। एक बेटा बाहर है। दूसरा बेटा और बेटी कॉलेज में पढ़ते हैं। पड़ोसियों पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहा जा सकता। अंततः सारी मुसीबत खुद ही झेलनी पड़ती है। देवेन्द्र जी को झुँझलाहट भी लगी कि अचानक यह झंझट कहाँ से आ गयी।

सुखपाल दादा की स्थिति कभी अच्छी हुआ करती थी। पिता की छोड़ी काफी ज़मीन थी और गाँव में खासा रौब और रसूख था। लेकिन आय का दूसरा साधन न होने के कारण बहनों की शादी में काफी ज़मीन निकल गयी और सुखपाल दादा के पास इतनी ही बची कि साल भर छाती मारने के बाद किसी तरह गुज़र-बसर हो सके। इकलौते पुत्र होने और शिक्षा की कमी के कारण वे कहीं बाहर भी नहीं निकल सके। कुछ दिन बाद वे समझ गये कि वे ऐसे दुष्चक्र में फँस गये हैं जिस से बाहर निकलना मुश्किल था। गाँव का वातावरण, अशिक्षा और फिर खेती में चौबीस घंटे की ड्यूटी— विपत्ति का सारा इंतज़ाम था। इतनी आमदनी नहीं थी कि बच्चों को बाहर भेजकर शहर वालों जैसा सक्षम बनाया जा सके।

सुखपाल दादा की चार संतानें थीं— दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे और बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी। बड़ा बेटा खेती में ही रेत में से तेल निकालने में लगा था। छोटा किसी प्रकार परीक्षाओं में प्राइवेट बैठकर पढ़ाई की खानापूरी कर रहा था। उसे बार-बार पूरक परीक्षाओं में बैठना पड़ता था। छोटी बेटी बारहवीं तक पढ़ कर घर में बैठ गयी थी।

बड़ी बेटी की शादी सुखपाल दादा ने किसी प्रकार गिरते-मरते निपटायी। हालत यह हुई कि पलंग तो आया लेकिन गद्दा गायब। बैंड पास के गाँव का। बजाने वालों की ड्रेस और हाथ-पाँव गन्दे, केश और दाढ़ी बढ़ी। बाकी इंतज़ाम भी बेतरतीब। वर पक्ष के लोग भले थे, सो लड़की को लेकर बिना हल्ला-गुल्ला किये चले गये। लेकिन सुखपाल दादा के दोनों छोटे बहनोइयों का मुँह बहुत दिन तक फूला रहा। उन्हें लगा कि इस ‘लो स्टैंडर्ड’ शादी से उनकी शान में बट्टा लग गया। उनकी देखा-देखी उनकी पत्नियाँ भी बहुत दिन तक भाई से भकुरी रहीं।

ऐसा नहीं था कि सुखपाल दादा ने अपने दुष्चक्र से निकलने के लिए हाथ-पाँव न मारे हों। उन्होंने बहनों से अनुरोध किया था कि उनके बच्चों को अपने पास रख लें ताकि वे भी शहरी भाषा में ‘आदमी’ बन जाएँ। उन्होंने आश्वासन दिया था कि उन पर होने वाले खर्चे की भरपाई वे करेंगे, लेकिन तीनों बहनोइयों ने उनके अनुरोध को सिरे से खारिज कर दिया। बड़ी बहन गीता के मन में भाई के बच्चों के लिए करुणा थी, लेकिन देवेन्द्र जी ने घुटना अड़ा दिया। तर्जनी उठाकर कहा, ‘बिलकुल नहीं। दूसरे के बच्चों को रखने से अपने बच्चों पर होने वाले खर्चों में हमें क्या कटौती करनी पड़ेगी, यह हम अभी नहीं समझ पाएँगे। यह सेंटीमेंट की बात नहीं है। दूसरे बच्चे हमारे फैमिली सेट-अप पर क्या असर डालेंगे आपको अभी से क्या पता। बाद में आप दूसरे के बच्चे को भगा तो नहीं सकते।’

मँझली बहन कविता के साथ दूसरी समस्या थी। उसकी ससुराल वाले अपेक्षाकृत संपन्न थे, इसलिए वह सारे समय अपने मायके की दरिद्रता छिपाने और अपनी इज़्ज़त बचाने में लगी रहती थी। मायके से किसी के आने की खबर मिलते ही वह हिदायतों की फेहरिस्त भेज देती थी। उसके घर पहुँचने पर मायके के सदस्य और उसके सामान का बाकायदा मुआयना होता था और जो भी कोर-कसर हो उसे तत्काल दुरुस्त करने का निर्देश दिया जाता था। इसीलिए मायके के लोग उसके घर तभी जाते थे जब निकल भागने के सभी रास्ते बन्द हो जाएँ।

तीसरी बहन रेखा के साथ मनोवैज्ञानिक समस्या थी। सामान्य घर से शहर की चकाचौंध में आने के बाद उसे चीज़ों को इकट्ठा करने का ज़बरदस्त शौक लग गया था। उसके पतिदेव भी वैसी ही तबियत के थे। ग़ैरज़रूरी चीज़ें इकट्ठी करते-करते उनका घर कबाड़खाना बन गया था। वहाँ आदमी के अँटने की गुंजाइश कम रह गयी थी। किसी चीज़ के ज़रा भी इधर-उधर होने पर पति-पत्नी का पारा चढ़ जाता था। बच्चों को चीज़ें शत्रु लगने लगी थीं। ऐसे घर में और बच्चों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।

बहनोइयों के इस रुख़ के कारण सुखपाल दादा के अपने बच्चों की तरक्की के मंसूबे भ्रूणावस्था में ही दम तोड़ गये और उनके बेटे धरतीपुत्र ही बने रह गये। एक बार अपनी मजबूरी उघाड़ने के बाद सुखपाल दादा ने स्थितियों से समझौता कर लिया और बहनों के सामने दुखड़ा रोना बन्द कर दिया।

अब गाँव की ओर बढ़ते हुए वे सब बातें  याद कर के गीता को दुख हो रहा था। शायद बच्चों के जीवन का संतोषप्रद न होना ही दादा की अचानक मृत्यु का कारण बना हो। गाँव की वही सड़क जो कभी उस के मन को हुलास से भर देती थी अब उसे व्यथित कर रही थी। सूटकेस उन्होंने मोड़ की चाय की दूकान में छोड़ दिया। बता दिया कि बड़ा भतीजा हरपाल या छोटा श्रीपाल आकर ले जाएगा।

धीरे धीरे चलते हुए वे आधे घंटे में सुखपाल दादा के घर पहुँच गये। खपरैल के छप्पर वाला लंबा सा घर था। सामने कच्चे चबूतरे के बीच में बड़ा सा नीम का पेड़। एक तरफ चरई पर पाँच छः मवेशी खड़े थे। हरपाल बाहर ही मिल गया। पच्चीस छब्बीस साल का होगा। लंबा और स्वस्थ। घुटा हुआ सिर और छोटी सी चोटी। गीता उससे लिपट कर रोने लगी। हरपाल आँखें पोंछता चुप खड़ा रहा।

भीतर घुसते ही भाभी, छोटे भतीजे और दोनों भतीजियों से भेंट हुई। थोड़ी देर को कोहराम मचा, फिर सब संयत हुए। पता चला सुखपाल दादा घर के बाहर काम करते अचानक ही मूर्छित हो गये थे। ट्रैक्टर पर दूसरे गाँव ले जाकर डॉक्टर को दिखाया तो मालूम हुआ कुछ शेष नहीं है। बीमारी का पता नहीं चला। जहाँ जाँच-पड़ताल और इलाज की सुविधाएँ न हों वहाँ बीमारी का कारण जानना संभव भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में दुर्घटना को होनी मानकर स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं होता।

मृत्यु का आक्रमण घर पर असर डालता है। हँसी-खुशी से भरा घर कुछ वक्त के लिए मनहूस बन जाता है। शाम होने पर यह मनहूसियत और गाढ़ी हो गयी। घर में बिजली थी, लेकिन उसके आने जाने का कोई ठिकाना नहीं था। चौबीस घंटे में छः सात घंटे ही बिजली मेहरबान रहती।

दूसरे दिन दोनों शेष बहनें अपने पतियों के साथ आ गयीं तो देवेन्द्र जी को कुछ राहत मिली। सुखपाल दादा के जाने के बाद घर में कोई ऐसा बचा नहीं था जिससे इत्मीनान से कुछ बात की जा सके। साढ़ुओं के आने से बातचीत का ज़रिया बन गया और मनहूसी कुछ कम हुई।

घर में अतिथियों के सत्कार में कोई कसर नहीं थी। गरम पानी, दो तीन बार चाय और सुविधानुसार भोजन। भतीजे, भतीजियाँ सेवा में हाज़िर थे। देवेन्द्र जी ने सुखपाल दादा के पीछे पड़कर कुछ समय पहले एक फ्लश वाला टायलेट बनवा लिया था, लेकिन उसके ऊपर छप्पर इतना नीचा था कि खड़े होते वक्त सिर पर ठोका खाने की पूरी संभावना बनी रहती थी।

सारी सुविधाओं के बावजूद बिजली की अनुपस्थिति से खासी परेशानी थी। ए.सी. और कूलर के आदी शहरवासियों के लिए यह बड़ा संत्रास था। बहनोइयों का सारा वक्त करवटें बदलते और बाँस का पंखा झलते गुज़रता था। रात को ज़रूर बाहर चबूतरे पर नीम के नीचे सुकून मिलता था।

दोनों छोटी बहनों के पति एक दिन रुक कर उन्हें छोड़ कर चले गये थे। तेरहीं पर आकर ले जाएँगे। देवेन्द्र जी रुके रहे क्योंकि वे नौकरी से रिटायर हो चुके थे। दूसरे, पत्नी को ले जाने के लिए दुबारा कष्टप्रद यात्रा करने की ज़हमत वे उठाना नहीं चाहते थे।

दस ग्यारह दिन देवेन्द्र जी और तीनों बहनें वहाँ बनी रहीं। तीनों बहनें अपनी भाभी के पास बैठकर उनके मन को कुरेदने की कोशिश करतीं, उनकी परेशानियों, समस्याओं को जानने की कोशिश करतीं। खास तौर से गीता उनके मन तक पहुँचने की कोशिश करती। लेकिन घर के सदस्य उनके सामने कोई लाचारी प्रकट नहीं करना चाहते थे। बात चलते चलते जहाँ आर्थिक परेशानी पर पहुँचती, भाभी और उनके बच्चे बात को दूसरी तरफ मोड़ देते। लगता था जैसे कोई कपाट है जो तीनों बहनों के सामने आ जाता है। उसके पार उनका प्रवेश निषिध्द है। गीता दुखी हो जाती कि भाभी अपने दुख में उसे सहभागी नहीं बनाती। ज़्यादा दबाव पड़ने पर भाभी बात को ख़त्म करने के लिए कह देती, ‘हरपाल सयाने हो गये हैं। सब सँभाल लेंगे। चिन्ता करने से क्या होगा?’

भाभी से अनुकूल उत्तर न मिलने पर गीता हरपाल से टोह लेने की कोशिश करती। कुछ पता चले कि पैसे-टके का क्या इंतज़ाम है। ज़्यादा परेशानी तो नहीं है। लेकिन वहाँ से भी वही उत्तर मिलता— ‘सब ठीक है बुआजी। कोई परेशानी नहीं है।’

रोज़ के खर्च की बात माँ-बेटे के बीच ही दबे स्वर में हो जाती। किसी दूसरे को भनक न लगती कि स्थिति क्या है।

लाचार गीता ने दस हज़ार रुपये ज़बरदस्ती भाभी के पास रख दिये। कहा, ‘रखे रहो। न लगे तो वापस कर देना। ज़रूरत पड़े तो खर्च कर लेना।’

तेरहीं ठीक-ठाक हो गयी। सब धार्मिक कृत्य ठीक से निपट गये। फिर भोज में सब रिश्तेदार-व्यवहारी जुट आये। दोनों बहनोई तेरहीं पर फिर हाज़िर हो गये थे। खूब चहल-पहल हो गयी। दोपहर से शुरू हुआ भोजन का सिलसिला रात तक चलता रहा।

अब रुकने का कोई काम नहीं था। दूसरे दिन बहनोइयों ने रवानगी की तैयारी की। एक बार फिर बहनें दिवंगत भाई को याद करके रोयीं। भाई के जाने से मायके की सूरत बदल गयी थी। अब मायके से संबंध क्षीण ही होने हैं।

दोनों भाई हरपाल और श्रीपाल उन्हें छोड़ने रोड तक आये। बस के इंतज़ार के बीच में हरपाल ने एक पैकेट बड़ी बुआ को पकड़ा दिया, कहा, ‘अम्माँ ने आपके पैसे भेजे हैं। कहा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी।’

गीता को दुख हुआ, कहा, ‘इतना तो खर्च हुआ। रखे रहतीं तो क्या बिगड़ जाता? कहीं तो काम आते।’

हरपाल ने जवाब दिया, ‘बिना जरूरत रख कर क्या करते? इंतजाम हो गया था। आप लोग आ गये यही बहुत है।’

इतने में बस आ गयी और मेहमान उसमें सवार हो गये। बस के रवाना होते  ही मायके के दृश्य और भतीजों के चेहरे दूर होने लगे और कुछ क्षणों में सब धुँधला कर आँख से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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