(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है होली पर्व पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘‘राजा कटारे ’’।)
☆ होली पर्व विशेष लघुकथा – राजा कटारे ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘क्यों राजा कटारे, कैसे खड़े हो’
राजा कटारे चौंका, उसने देखा कि होली की मूर्ति सजीव होकर उसकी ओर धीमे धीमे मुस्कुरा रही है। राजा कटारे होलिका से नजरें नहीं मिला सका, उसने नजरें झुका ली।
तभी उसे होलिका का अट्टहास सुनाई दिया ह:ह:ह:ह:–‘अरे निर्लज्ज मेरे सामने लजा रहा है, क्यों?’
‘जब अपनी औरत को आग लगाई थी, तब भी तू ऐसे ही मुस्कुरा रहा था-है न।’
‘अरे नामर्दों, क्यों ऐसे ही घटिया काम करके, खुद अपनी ही निगाहों में गिर जाते हो तुम जैसे घटिया लोग।’
‘मेरे ही समान न जाने कितनी होलिकाएं तुम्हारे घरों में जल जल कर राख हो रही है और तुम्हें पछतावा तक नहीं होता, क्यों?’
‘थू थू तुम अभी भी न जाने कब का बदला चुका रहे हो–मेरी और निहारो–मुझे मेरे भाई ने ही जलाया था—और उसके बाद तो औरतें जलाने का सिलसिला ही चालू हो गया, अभी भी वक्त है, संभल जाओ, और ध्यान रहे, नारी अब शक्तिपुंज होकर उभर रही है। अब यदि ऐसे में नारी भी बदला लेने पर उतारू हो जाए तो पूरे संसार में हाहाकार मच जाएगा।
राजा कटारे को— हाथ जोड़ती, अपने प्राणों की भीख मांगती, उसकी पत्नी दृष्टिगोचर हो रही थी। उसकी हालत पतली हो रही थी—और वह पश्चाताप की भीषण अग्नि में जला जा रहा था।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय,स्त्री विमर्श एवं होली पर्व पर आधारित एक सुखांत एवं भावप्रवण लघुकथा “होलिका दहन”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 152 ☆
🌹 लघुकथा 🌹 होली पर्व विशेष – ❤️ होलिका दहन
मेघा पढ़ाई पूरी करके एक अच्छी कंपनी में जॉब करती थी। सोशल मीडिया और मोबाइल आज की जिंदगी में सभी पर हावी है। ऐसे ही शिकार हुई अपने ऑफिस के सुधीर के साथ और लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने लगे।
समय पंख लगा कर उड़ चला पता ही नहीं चला। किसी बात को लेकर दोनों में दूरी हो गई और मामला अलग अलग होने का हो गया।
मेघा मानसिक परेशान हो अपने घर वापस आ गई। वर्क फ्रॉम होम करते हुए घर परिवार में स्थिर हो खुश रहना चाहती थी। परंतु सुधीर के साथ बिताए हुए पल और उसके साथ की सभी मोबाइल पर तस्वीरें उसे परेशान कर रही थी।
घरवालों मेघा को कुछ समझ पाते, इसके पहले ही विवाह का निर्णय लेने लगे। घर पर खुशियाँ छा गई।
मेघा की शादी होना है। एक अच्छे परिवार से लड़का शिवा से उसका विवाह निश्चित हुआ। मेघा को डर था कि वह कि वह आज का लड़का है। उसकी सारी बातें वह सब जान जायेगा।और सुधीर की बातें शिवा के सामने आ जायेगी।
शादी को कुछ वक्त था। मेघा का होने वाला पति शिवा होलिका दहन के दिन अचानक आ गया। सभी उसकी खातिरदारी में लग गए। मेघा के चेहरे का रंग उड़ा जा रहा था।
वह बड़े प्यार से मेघा के कमरे में आया। “मेघा… चलो आज हम होलिका दहन, शादी के पहले देख आएं।”
“शादी के बाद तो ससुराल की पहली होली होती है। पर मैं चाहता हूं शादी के पहले होलिका दहन में तुम्हें लेकर जाऊं।”
तैयार हो घरवालों का आदेश ले शिवा के साथचल पड़ी। पास ही मैदान में होलिका को सजाया गया था। शिवा धीरे से मेघा का हाथ अपने हाथ में लेकर बोला…” मुझे सुधीर ने सब कुछ बता दिया है। वह बहुत अच्छा लड़का है।”
” मुझे तुम्हारे पुराने रिश्ते से कोई परेशानी नहीं है, परंतु मैं चाहता हूं तुम सब कुछ भूल कर इस होलिका दहन में खत्म करके नए सिरे से मेरे साथ विश्वास और पूरी जिंदगी खुशी के साथ रहना चाहोगी। वचन दो यदि तुम्हें मंजूर है तो…” मेघा इतना सुनते ही पास रखी थाली से गुलाल ले आसमान में खुशी से उछाल कर होली के गीत पर नाचने लगी।
दोनों हाथों से लाल रंग लिए शिवा उसके मुखड़े पर लगा रहा था।
होलिका की परिक्रमा लगाते मेघा के नैन अश्रुं से भीगते चले जा रहे थे।
लाल गुलाबी चुनर से मेघा का सिर ढाकते शिवा होलिका दहन पर विजयी अनुभव कर रहा था।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆लघुकथा – “बेरंग होली” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
होली का दिन । दम साधे बैठे रहे दिन भर कि कोई रंग लगाने आएगा । आमतौर पर पड़ोसी इकट्ठे होकर आ जाते और गेट पर ही गुलाल मल देते , माथे पर तिलक लगाकर छोड़ देने की गुहार बेकार जाती । फिर हमें भी अपने साथ लेकर दूसरे पड़ोसी के द्वार पर दस्तक देते । सब होली लगाने आने वालों को कुछ न कुछ मीठा खिलाते । नये नये आए थे तब पता नहीं था इधर के रीति रिवाज का । फिर पता चला तो हम भी रंग के पैकेट्स लाने के साथ साथ मिठाई भी लाने लगे ताकि सबका मुंह मीठा करवा सकें । कल शाम हम मिठाई और रंग के पैकेट्स खरीद लाये थे और नजरों व हाथ के करीब ही रखे थे ताकि दूसरों को रंगने में चूक न जायें और मुंह भी मीठा करवा सकें । होली पर पहने जाने वाले कपड़े भी छांटकर रख लिए थे ।
होली का दिन धीरे धीरे सरकने लगा और सरकता ही गया । पहले सोचा कि नाश्ता वाश्ता करके लोग निकलेंगे । बच्चों की पिचकारियाँ तो शुरू होकर कब की खत्म भी हो गयीं लेकिन बड़े नहीं निकले तो दिन भर नहीं निकले ।
न कोई कोरोना , न किसी के घर कोई शोक और न दुख । फिर क्या हुआ इस बार ? होली बेरंग क्यों रह गयी ? हमारे आस पड़ोस की सड़क रंगों से सराबोर क्यों न हो पाई ?
-ओह । आप भूल गये क्या मेरी सरकार ।
-क्या ? क्या भूल गये हुजूर ?
-वो पड़ोस वालों को अपने घर के आगे कार पार्क करने से आपने रोका जो था ?
-अच्छा ? चलो । वो तो हमने रोका पर सबके सब एक दूसरे को तो रंग लगा सकते थे ।
-कैसे ? फिर भूल गये भुलक्कड़ साहब ।
-अरे यार । एक बार में बता दो न । क्या छोटे छोटे सीन बता कर उत्सुकता बढ़ाती जा रही हो ।
-याद नहीं ? जब पड़ोस के सरदार जी रिनोवेशन करवा रहे थे , तब उनका सारा सामान कहां पड़ा रहता था ?
-वो सामने वाले खट्टर के घर के सामने ।
-याददाशत तो सही है ।
-क्यों फिर यह कैसे भूल रहे हो कि इसी बात को लेकर दोनों में इतनी लड़ाई हुई कि बात पुलिस तक शिकायत तक पहुंची ।
-हां । यार । खूब याद दिलाई । मुझे भी पुलिस चौकी बुला रहे थे पर मैं पड़ोसियों के झमेले में गया ही नहीं । हाथ जोड़कर माफी मांग ली थी ।
-आप दोनों ओर से बुरे बन गये । फिर आपके रंग लगाने कौन आता ?
-ओह । यह बेरंग होली ,,,,
क्या आगे भी बेरंग होती जायेगी ?
मेरे लाये रंग और मिठाई मेरा ही मुंह चिढ़ा रहे थे ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ‘जीणे जोगिए ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 182 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ जीणे जोगिए ☆
(लेखक के कथा-संग्रह ‘जादू-टोना’ से)
अम्माँ की आँख रात में कई बार खुलती है। रात काटना मुश्किल होता है। कई बार सवेरा हो जाने के धोखे में रात को दो तीन बजे ही स्नान-ध्यान से निवृत्त हो जाती हैं। अकेली होने के कारण कोई कुछ बताने वाला नहीं। नींद खुल जाए तो व्यस्त रहना ज़रूरी हो जाता है। बिस्तर पर लेटे लेटे कब तक ‘राम राम’ रटा जाए?
गाँव में रात वैसे भी सन्नाटे वाली होती है। कभी कोई भूली-भटकी मोटर-गाड़ी आ जाए तो आ जाए। इसी सन्नाटे को ढूँढ़ते शहर वाले बौराये से गाँव की तरफ भागते हैं और फिर दो दिन बाद सन्नाटे से घबराकर वापस शहर की तरफ भागते हैं।
कई बरस पहले पति की मृत्यु के बाद से अम्माँ गाँव में अकेली हैं। तीनों लड़के शहरों में नौकरी पर हैं। बड़ा महेश तो बड़ा इंजीनियर है। बाकी दोनों भी कमा-खा रहे हैं। तीसरे नंबर पर बेटी थी, वह भी अब बाल-बच्चे वाली है।
बेटों ने कभी माँ को स्थायी रूप से शहर ले जाने की बात नहीं की और अम्माँ ने भी भाँप लिया कि बेटों की रूचि उन्हें गाँव में ही रखने में है, इसलिए उन्होंने खामोशी से अपने को स्थितियों के अनुसार ढाल लिया है। एक खास वजह है गाँव की तीस-चालीस एकड़ ज़मीन जिसके बारे में बेटों का खयाल है कि किसी के न रहने पर अगल-बगल की ज़मीन वाले या रिश्तेदार कब्जा कर लेंगे। फिर मामला-मुकदमा करते कचहरी की चौखट पर सिर फोड़ते फिरो। कहीं गुस्से में नौबत फौजदारी तक पहुँच जाए जो ज़िन्दगी भर का झमेला।
अम्माँ अब अपने ही बूते गाँव में अच्छी तरह रस-बस गयी हैं। गाँव में अब उनकी अपनी पहचान है। उम्र और शक्ति की सीमाएँ होते हुए भी वे कारिन्दे की मदद से खेती के काम को ठीक-ठाक सँभाल लेती हैं। अकेले काम करते-करते उनमें आत्मविश्वास भी खूब आ गया है। घर में जो पंडित पूजा करने आता है उसी की बेटी रोज़ एक समय चार रोटियाँ ठोक देती है। बाकी कोई खास काम नहीं रहता।
कारिन्दे और पंडित के बच्चों और गाँव की स्त्रियों-बच्चों के बीच अम्माँ की ज़िन्दगी की गाड़ी लुढ़कती जाती है। गाँव की कम-रफ्तार ज़िन्दगी में ऐसे लोग आसानी से मिल जाते हैं जिनके साथ इत्मीनान से बैठकर सुख-दुख की बात की जा सके। वहाँ शहर जैसी आपाधापी नहीं। चौखट पर बैठ जाओ तो हर आने जाने वाले से ‘राम-राम’ होती रहती है।
गाँव में रिश्तेदारों के घर अम्माँ का आना- जाना होता रहता है और ज़रूरत पर मदद भी मिलती रहती है। बेटों की सिर्फ एक हिदायत है कि उनकी जानकारी के बिना किसी के कहने पर किसी कागज़ पर दस्तखत नहीं करना है। वजह यह कि ज़माना खराब है, किसी पर आँख मूँद कर भरोसा नहीं किया जा सकता। क्या पता कौन पीठ में छुरा भोंक दे।
ऐसा नहीं है कि अम्माँ बेटों के पास शहर जाती ही नहीं। दो बार बड़े बेटे के घर रही थीं, जब आँख का ऑपरेशन कराया। एक बार और जब आँगन में गिर गयी थीं और बाँह टूट गयी थी। इसके अलावा भी जब बेटों के घर में कोई ऐसा आयोजन हुआ जहाँ उनकी उपस्थिति ज़रूरी हो, तब भी वे पहुँचती रहीं। लेकिन रुकना ज़रूरत से ज़्यादा नहीं होता। अम्माँ की उम्र भी अब इतनी नहीं कि वे घर के कामों में कुछ उल्लेखनीय मदद कर सकें, इसलिए उन्हें रोकने का कोई मतलब नहीं।
बहुओं को अम्माँ का शहर में रहना इसलिए भी खलता है कि वे निःसंकोच पड़ोसियों के घरों में चली जाती हैं और फिर घंटों बैठक जमाये रहती हैं। उनकी आदत तफसील से परिवार और उसकी रिश्तेदारियों की जानकारी लेने की है। जब तक वे पड़ोस में रहती हैं तब तक बहुओं को तनाव रहता है कि वे जाने क्या पूछ रही होंगीं और अपने परिवार के बारे में जाने क्या-क्या बता रही होंगीं। अब सभ्य समाज में बहुत सी बातों पर चर्चा निषिद्ध होती है, जो अम्माँ को नहीं मालूम।
अम्माँ अमूमन अपनी दवा-दारू के पैसे बेटे-बहू को दे देती हैं। उन्होंने समझ लिया है कि खर्च न देने पर कई बार उनका इलाज टलता जाता है। पैसा दे देने पर इलाज तत्परता से होता है। बहुएँ थोड़ा ना-नुकुर के बाद पैसे ले लेती हैं। इससे उनकी देखभाल भी अच्छी हो जाती है।
खुशकिस्मती है कि ऐसी आकस्मिक बीमारियों या विपत्तियों को छोड़कर अम्माँ का स्वास्थ्य इस उम्र में भी ठीक-ठाक बना रहता है। गाँव की स्थिति यह है कि अचानक कोई विपत्ति आ जाए तो न तो कोई भरोसे मन्द डॉक्टर है, न कोई आवागमन का उपयोगी साधन। बेटे-बहुओं को खबर होते होते तक यमलोक का आधा सफर हो जाएगा।
हर गर्मी में बहुओं का गाँव का चक्कर ज़रूर लगता है। यह सास के प्रेम या उनकी फिक्र में नहीं होता, उसका उद्देश्य साल भर के लिए गल्ला-पानी ले जाना होता है। कुछ भी हो, चार छः दिन घर में चहल-पहल हो जाती है। घर बच्चों की आवाज़ों और उनकी क्रीड़ाओं से भर जाता है। अम्माँ व्यस्त और खुश हो जाती हैं। सब के जाने के बाद दो-तीन दिन तक उन्हें अकेलापन काटता है। फिर धीरे-धीरे खुद को सँभाल लेती हैं।
अम्माँ की उम्र अब कितनी हुई यह खुद अम्माँ को भी ठीक से नहीं मालूम। पूछने पर वे दूसरे रिश्तेदारों से अपनी उम्र की छोटाई बड़ाई बताने लगती हैं या अपने जन्म के आसपास हुई किसी महामारी या किसी अन्य घटना का बखान करने लगती हैं। फिर भी इतना तो निश्चित है कि अम्माँ की उम्र पचहत्तर के अंक को पार कर चुकी है। आगे जिसे जो जोड़ना है, जोड़ ले।
लेकिन अम्माँ की उम्र बढ़ने के साथ-साथ अब उनके बेटों को चिन्ता होने लगी है। अभी तक अम्माँ के लिहाज में चुप थे, लेकिन अब और चुप रहना मुश्किल हो रहा है। अम्माँ अब सयानी हैं, कभी भी ‘कुछ भी’ घट सकता है। अभी तक गाँव की ज़मीन का बँटवारा नहीं हुआ, न ही अम्माँ अपनी तरफ से बात करने की पहल करती हैं। वे तो ऐसे निश्चिंत हैं जैसे सब दिन इस घर में और इस धरती पर बनी रहेंगीं।
बड़ा बेटा कुछ ज़्यादा चिन्तित है क्योंकि उसे डर है कि अम्माँ के न रहने पर दोनों छोटे भाई बखेड़ा कर सकते हैं। कारण यह है कि दोनों छोटे भाइयों की तुलना में बड़े भाई की आर्थिक स्थिति ज़्यादा मजबूत है, इसलिए बाद में दोनों छोटे भाई उसके लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। एक चिन्ता यह है कि कहीं बहन भी अपना हक न जताने लगे। इसलिए अम्माँ के रहते सब निपट जाए तो ठीक रहेगा। उसे भरोसा है कि अम्माँ उसका नुकसान नहीं करेंगीं।
बेसब्री में अम्मा को संकेत देने का काम शुरू हो गया है। महेश ने गाँव में रिश्ते के एक चाचा से संपर्क साधा है कि अम्माँ को समझाया जाए कि वे अपनी स्थिति को समझें और सब बाँट-बूँट कर भगवान के भजन-कीर्तन में पूरी तरह समर्पित हो जाएँ।
एक दिन चाचा जी संकोच में खाँसते हुए आ गये। थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद मतलब की बात पर आये। बोले, ‘भाभी, अब इस बोझ को आप अपने सिर से उतारिए। लड़कों के बीच में जमीन का बँटवारा कर दीजिए। अभी तो ठीक है, लेकिन आप के न रहने पर लड़कों के बीच में विवाद होगा। इसलिए अपने सामने सब निपटा कर फुरसत हो जाइए।’
अम्माँ सहमति में सिर हिलाती हैं, लेकिन उनकी समझ में नहीं आता कि उनके न रहने की बातें क्यों हो रही हैं। उनके हाथ-पाँव ठीक काम कर रहे हैं। बेटों पर निर्भर होने के बजाय वे उनकी मदद ही कर रही हैं, फिर ऐसी बातें क्यों? वे कोई निर्णय नहीं ले पातीं।
उधर समय गुज़रने के साथ साथ बेटों की बेसब्री बढ़ रही है। उन्हें लगता है अम्माँ खामखाँ टालमटोल कर रही हैं। वे बँटवारा कर दें, फिर भले ही पूर्ववत बेटों की ज़मीन की देखभाल करती रहें। घर के बारे में तो कोई झंझट नहीं है, वहाँ तो उन्हीं का राज है।
बहुएँ भी अब आने पर यही भुनभुनाती हैं —‘जिस दिन आप नहीं रहोगी, अम्माँ, उस दिन बहुत खेंचतान होगी। अच्छा होता अगर आप अपने सामने ही फैसला कर देतीं।’
अम्माँ को कोई तकलीफ नहीं, उनका सब काम ठीक चल रहा है, लेकिन अब हर महीने- दो महीने में किसी के द्वारा प्रेरित कोई शुभचिन्तक तंबाकू ठोकता उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है— ‘आप तो हल्की हो जाओ अम्माँ। बेटों को बाँट कर मामला खतम करो। कल के दिन आपकी आँखें मुँद गयीं तो लड़के आपस में लड़ेंगे मरेंगे। काहे को देर कर रही हो?’
अम्माँ यह सब सुनकर परेशान हो जाती हैं। वे तो अपने पति की ज़मीन से अपनी गुज़र-बसर कर रही हैं, किसी से कुछ लेती देती नहीं, फिर ये सन्देश और संकेत बार-बार क्यों आते हैं? क्या वे ज़मीन सौंप कर किसी बेटे का कारिन्दा बनकर गाँव में रहें?
बेटों की बेसब्री बढ़ने के साथ उनका लिहाज छीज रहा है। अम्माँ पर दाहिने बायें से दबाव बनाया जा रहा है। हर दूसरे चौथे कोई कौवा मुंडेर पर चिल्लाने लगता है— ‘अरे सोचो, सोचो। तुम्हारे न रहने पर क्या होगा?’
एक दिन बड़ा बेटा आकर बैठ गया। बड़ा दयनीय चेहरा बनाकर बोला, ‘अम्माँ, मुझे ब्लड-प्रेशर की शिकायत है। यह ज़मीन का मामला निपट जाता तो अच्छा था। सोचने लगता हूँ तो ब्लड-प्रेशर बढ़ जाता है। आप नहीं होंगीं तो सब कैसे निपटेगा? मेरे खयाल से आप सब को बुला कर इस काम को निपटा दीजिए। ठीक समझें तो गाँव से एक दो सयानों को बैठाया जा सकता है।’
अम्माँ का जी बेज़ार रहने लगा है। कभी-कभी उन्हें लगता है वे कोई भूत-प्रेत हैं जो अकेला इस घर में वास कर रहा है। बेटे उन्हें अब जीवित नहीं मानते।
एक दिन मँझला बेटा बृजेश आ गया। वैसे ही थोड़ा मुँहफट है, फिर लगता है गाँव में कहीं थोड़ी बहुत पी कर आया था। बैठकर ताली मार कर हँसने लगा, बोला, ‘अम्माँ, तुम्हारी उम्र बढ़ने के साथ बड़े भैया की हालत खराब हो रही है। जमीन का बँटवारा कर दो, फिर जितने दिन मरजी हो जी लेना। अभी तो लोग तुम्हारी जिन्दगी का एक एक दिन गिन रहे हैं।’
अम्माँ को समझ में नहीं आया कि वे हँसें या रोयें।
अगली गर्मियों में तीनो बहुएँ आयीं तो शाम को अम्माँ को घेर कर बैठ गयीं। बड़ी बहू बड़े अपनत्व से बोली, ‘अम्माँ जी, कब तक यह बोझ ढोती रहोगी? अब आपकी उमर हुई। बेटों को अपने रहते दे-दिलाकर इस बोझ को उतार दीजिए।’
अम्माँ का मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। तीखे स्वर में बोलीं, ‘जल्दी क्या है? मेरे मरने के बाद तो सब कुछ बेटों को मिलना ही है। मैं कौन सा संपत्ति को अपने ऊपर खर्च कर रही हूँ। साँप की तरह उसकी रक्षा ही तो कर रही हूँ। जैसे इतने दिन सबर किया है, थोड़ा और करो। भगवान से मेरे साथ प्रार्थना जरूर करो कि मुझे जल्दी से जल्दी उठाये।’
सुनकर बहुओं का मुंँह फूल गया। बड़ी बहू उठते उठते बोली, ‘त्रिश्ना नहीं जाती न। बुढ़ापे के साथ-साथ त्रिश्ना और बढ़ती जाती है।’
अम्माँ बैठीं बड़ी देर तक सोचती रहीं। बहुएँ नाराज हो गयी हैं। क्या गुस्से के मारे अगली गर्मियों में नहीं आयेंगीं? फिर वे यह सोच कर निश्चिंत हो गयीं कि गल्ला लेने तो आयेंगीं ही। बिना मेहनत का माल भला कौन छोड़ सकता है?
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆लघुकथा – “नामकरण” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
कच्चे घर में जब दूसरी बार भी कन्या ने जन्म लिया तब चंदरभान घुटनों में सिर देकर दरवाजे की दहलीज पर बैठ गया । बच्ची की किलकारियां सुनकर पड़ोसी ने खिड़की में से झांक कर पूछा -ऐ चंदरभान का खबर ए ,,,?
-देवी प्रगट भई इस बार भी ।
-चलो हौंसला रखो ।
-हाँ , हौसला इ तो रखेंगे बीस बरस तक । कौन आज ही डिक्री की रकम मांगी गयी है । डिक्री ही तो आई है । कुर्की जब्ती के ऑर्डर तो नहीं ।
-नाम का रखोगे ?
-लो । गरीब की लड़की का भी नाम होवे है का ? जिसने जो पुकार लिया सोई नाम हो गया । होती किसी अमीर की लड़की तो संभाल संभाल कर रखते और पुकार लेते ब्लैक मनी ।
दोनों इस नाम पर काफी देर तक हो हो करते हंसते रहे । भूल गये कि जच्चा बच्चा की खबर सुध लेनी चाहिए ।
पड़ोसी ने खिड़की बंद करने से पहले जैसे मनुहार करते हुए कहा -ऐ चंदरभान, कुछ तो नाम रखोगे इ । बताओ का रखोगे?
-देख यार, इस देवी के भाग से हाथ में बरकत रही तो इसका नाम होगा लक्ष्मी । और अगर यह कच्चा घर भी टूटने फूटने लगा तो इसका नाम होगा कुलच्छनी ।
पड़ोसी ने ऐसे नामकरण की उम्मीद नहीं की थी । झट से खिड़की के दोनों पट आपस में टकराये और बंद हो गये ।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 112 ☆
☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
पुलिस की रेड पड़ी थी। इस बार वह पकड़ी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘ शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम। ‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर- सी हो गई है। पहली बार नहीं पड़ी थी यह लताड़, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खड़े होते हैं पर —।
महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक है ही कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड तो इंद्र को मिलना चाहिए?
उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढ़केल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब जीवन भर इस शाप को ढ़ोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती-जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पगडंडी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
एक लम्बी सड़क में से थोड़ी-थोड़ी दूरी में कई पगडंडियांँ निकलती थीं। एक दिन एक पगडंडी ने सड़क से कहा – तुम्हारे तो मज़े होंगे बहन! कहीं खेत, कहीं पहाड़, कहीं नदी, कहीं झील, कहीं बाग़। तुम तो रोज़ नए नजारे देखती हो। और फिर तुम्हारी देह पर कितनी सुन्दर-सुन्दर गाड़ियांँ दौड़ती हैं- काली, सफ़ेद, लाल, नीली, पीली और उन गाड़ियों में सुन्दर चेहरे, ख़ुशबू, संगीत हंँसी… मज़ा आ जाता होगा। नहीं? एक मैं हूंँ। कभी-कभी कोई आता है। आता भी कौन है – बैलगाड़ी, ऊंँटगाड़ी, कंधे पर हल लादे किसान – दलिद्दर जिनके चेहरों से टपकता है, सिर पर लकड़ियों या घास के गट्ठर लादे औरतें या दिशा-मैदान जाते ऊंँघते से आदमी… फ़क़त!
सड़क ने एक ठंडी सांँस ली – शुक्र कर कि तू सड़क नहीं है। हर रोज़ दुर्घटनाओं में लोगों को मरते देखती हूंँ, परिजनों की चीख़ों से दिल दहल जाता है। कभी अलग-अलग समुदायों के लोग मेरी छाती पर चढ़कर आपस में मारकाट करने लगते हैं। कभी मेरी देह पर धरना देते मजदूरों या छात्रों पर लाठियां गोलियांँ बरसने लगती हैं। मैं ख़ून से सन जाती हूंँ। अभी पिछला ख़ून सूखता नहीं कि एक और झरना फूट पड़ता है। हर समय अपनी देह को ख़ून से लिथड़े देखना कितना वीभत्स है, तुम क्या जानो। काश मैं पगडंडी होती!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – एक दिन
“एक दिन मेरे पास चार-छह एकड़ में फैला बंगला होगा।….एक दिन मेरे पास दुनिया की सबसे महंगी कार होगी।…. एक दिन मेरे पास अपना चार्टर्ड प्लेन होगा….एक दिन मेरे पास ये होगा…एक दिन मेरे पास वो होगा…।”
दिन आते रहे, दिन जाते रहे। विचार को कर्म का आधार नहीं मिला। विचार बस विचार रहा, व्यवहार में नहीं उतरा। उस एक दिन की प्रतीक्षा में दिन-रात एक तरह की नींद में बीतते रहे। नींद का एक्सटेंशन होता रहा।
एकाएक एक दिन, सचमुच वो एक दिन आ गया। उस दिन वह मर गया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ डॉ विनोद गायकवाड जी के पुरस्कृत मराठी उपन्यास ” युगांत ” का डॉ प्रतिभा मुदलियार जी द्वारा हिंदी भावानुवाद (सम्पूर्ण उपन्यास) ☆
(महाभारत के चरित्र भीष्म पितामह के जीवन पर आधारित सुप्रसिद्ध मराठी उपन्यास का हिंदी भावानुवाद)
(आप सामान्य पुस्तक की तरह ऊँगली से पृष्ठ पलट कर पुस्तक पढ़ सकते हैं अथवा पृष्ठ के दाहिने ऊपरी या निचले कोने पर क्लिक करें। आप ऊपर दाहिनी और नेविगेशन मेनू का प्रयोग भी कर सकते हैं।)
लेखक परिचय
डॉ विनोद गायकवाड
डॉ.विनोद गायकवाड़ जी मराठी के एक प्रसिद्ध उपन्यासकार हैं। आपने पचास से अधिक उपन्यासों की रचना की है। महाभारत के चरित्र भीष्म पितामह पर आधारित उपन्यास “युगांत” ने कई पुरस्कार जीते हैं।हाल ही में आपने शिरडी के साईं बाबा के जीवन पर आधारित मराठी में “साईं” उपन्यास लिखा है जिसे पाठकों का भरपूर प्रतिसाद मिला है। आपका संक्षिप्त साहित्यिक परिचय निम्नानुसार है –
उपन्यास – 54 उपन्यास सुप्रसिद्ध उपन्यास –
साई – (शिर्डी साईबाबा के जीवन पर आधारित कथा ) मराठी, अङ्ग्रेज़ी, हिन्दी, कन्नड, तमिल, गुजराती व कोंकणी भाषा में अनुवाद
युगांत – (भीष्म पितामह के जीवन पर आधारित रोमहर्षक कथा) मराठी, तमिल, हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी में अनुवादित
युगारंभ – (महात्मा फुले व सवितरिबाई फुले के जीवन पर आधारित कथा ) मराठी, कन्नड व अङ्ग्रेज़ी में अनुवादित
कथा – 200 से अधिक प्रसिद्ध कहानियाँ , चार कथा संग्रह। “साप साप” कथा कर्नाटक सरकार के पाठ्य पुस्तक का भाग नाटक – 7 नाटक प्रकाशित समीक्षाएं – 6 समीक्षाएं प्रकाशित संशोधनात्मक/ आलोचनात्मक लेख – 50 से अधिक साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अनुवाद – समकालीन कन्नड कथा शोध – आपके कृतित्व “विनोद गायकवाड के उपन्यासों का अध्ययन (मराठी)” शीर्षक पर पी एच डी पूर्ण एवं “साई” व “युगांत “पर पी एच डी पर कार्य चल रहा है।
सम्प्रति – प्राध्यापक (मराठी विभाग), रानी चन्नम्मा विद्यापीठ, बेलगांव (कर्नाटक)
डॉ प्रतिभा मुदलियार
(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 से अधिक वर्षों का अनुभव है । पूर्व में हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत। इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘‘किस्साए तोता मैना’’।)
जग जहान छोड़कर इस कमरे में पहले आया एक लड़का फिर आई एक लड़की। दोनों ‘लिव इन’ में रहने चले आए थे।
लड़की अपने पहले प्रेम के प्रतीक में खरीद कर लाई एक मैना और लड़का लेकर आया एक तोता सुंदर सलोना।
लड़का लड़की कमरे में और तोता मैना पिंजरे में, दोनों जोड़े प्रेम का ककहरा पढ़ रहे थे।
प्यार बढ़े तो बढ़ता ही जाए। अतृप्त होने का नाम तक न ले। समय की सीमाएं तोड़ता जाए और प्यार की नई परिभाषाएं गढ़ता जाए। तोता मैना अपने मालिकों को प्यार में भीगते देख अपने पंख फड़फड़ा कर खुशियां जाहिर करते।
दोनों के टिफिन होटल से आ रहे थे। बचा खुचा तोता मैना को भी मिल जाता। सलाद, चटनी, दही, हरी-हरी मिर्चियां।
कुछ ज्यादा दिन नहीं बीते थे। एक दिन तोता उदास होकर बोला- ‘सुन री मैना, औरत जब विश्वासघात पर उतारू हो जाए तो प्यार की मर्यादा टूटने में फिर ज्यादा देर नहीं लगती है।’
मैना बोली- ‘सुन तोते, अपनी आंखें खुली रख। आदमी भी कोई दूध का धुला नहीं होता। कोई दूसरी भा जाए तो पहले प्यार को एक झटके में कच्चे सूत सा तोड़कर यह जा वह जा, न जाने कब निकल जाए।
फिर दोनों ने मिलकर जो देखा तो उनकी आंखें खुली की खुली रह गई। लड़का लड़की दोनों एक दूसरे से आंखें चुरा कर बेवफाई कर रहे थे। मोबाइल पर छुप छुप कर बतिया रहे थे।
हाथ कंगन को आरसी क्या? एक दिन लड़की पिछले दरवाजे से निकल भागी। अगले दरवाजे से लड़का भी दबे पांव निकल भागा। वहां एक पक्षी जोड़ा रह गया अभागा।
दोनों ही अपने अपने मालिकों की विरह वेदना में तड़प रहे थे। बुरी तरह छटपटा रहे थे। उनके पेट में एक दाना भी नहीं गया था।
मैना आंखों में अश्रु भरकर बोली- ‘कहां तो मैं सोचती थी कि मैं भी लड़कियों की तरह दुल्हन बनती। कोई तोता मुझे ब्याहने आता। बारातियों को साह जी के बाग के मीठे मीठे अमरुद परोसे जाते। पर पकड़ लाया दुष्ट बहेलिया और सबसे बड़ी खतरनाक तो निकली यह लड़की। पिंजरे मैं मुझे कैद कर खुद फुर हो गई।’
तोता बोला _ ‘सुन मैना सुनैना, मेरे भी सपने थे। तोतियों के बीच से एक सुंदर तोती चुनता। जोड़ा बनाता। सुंदर-सुदर तोता मैना पैदा कर वंश वृद्धि में सहायक होता, पर दुर्भाग्य ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।’
मैना सिसककर बोली- ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। आ तोता, जिंदगी का आखिरी भाग प्यार की अनुभूति जगाकर मनाएं। अगले जन्म का सुखद सपना देखें और मृत्यु को गले लगाएं।’