हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 257 ☆ कथा-कहानी – बाइसिकिल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘बाइसिकिल । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 257 ☆

☆ कथा कहानी ☆ बाइसिकिल 

कुसुम को लगा जैसे एक सैलाब आया और हर चीज़ को नेस्तनाबूद करता हुआ गुज़र गया। उस एक घटना ने दुनिया की हर चीज़ की शक्ल बदल दी। रोज़ के पहचाने लोगों के चेहरे भी जैसे दूसरे हो गये।

दोनों जेठानियों और देवरानी ने उसे गले से लगाकर काफी आंसू बहाये। ससुर ने कई बार उसके सिर पर हाथ फेरा,कहा, ‘बेटी, कलेजे को पत्थर करो और इन लड़कियों के मुंह की तरफ देखो। ओंकार तो चला गया। अब तुम्हीं इनकी मां भी हो और बाप भी। विपत्ति में धीरज से काम लेना चाहिए। फिर तुम्हारे दोनों जेठ हैं, देवर है, हम हैं। हमारे रहते तुम्हें क्या चिन्ता है?’
परिचितों, पड़ोसियों ने सुना तो ‘च च’ किया। कच्ची गृहस्थी है, कैसे नैया पार होगी? सब एक-एक कर कुसुम के घर आये, सिर लटकाये, अपनी सहानुभूति ज़ाहिर की और फिर उठकर अपने-अपने काम में लग गये।

पांच छ: दिन तक कुसुम को न अपना होश रहा, न लड़कियों का। उसे लगता रहा जैसे बहुत सी छायाएं उसके आसपास गुज़रती रहती हैं, बहुत से शब्द बोले जाते हैं, लेकिन उसका उनसे कोई ताल्लुक नहीं है।

तेरहीं के दिन ससुर ने तीनों लड़कों की बैठक जोड़ी, कहा, ‘भैया, जो कुछ हुआ सो तुम्हारे सामने है। मृत्यु पर किसी का वश नहीं है। अब तुम्हारा जो कर्तव्य बनता है सो करो। ओंकार का फंड का कुछ रुपया जरूर मिलेगा, लेकिन बहू उसे खा-पी डालेगी तो फिर कल के दिन लड़की की शादी कैसे होगी? इसलिए तुम लोग दो दो हजार रुपये हर महीने कुसुम को दो तो उसका काम चले।’

दोनों बड़े भाइयों शीतल प्रसाद और रामनरेश ने धीरे से ‘ठीक है’ कहा।

छोटा भाई सुनील गंभीर होकर बोला, ‘बाबूजी, सबका हिस्सा बराबर मत रखो। मैं बारह हजार रुपये तनख्वाह पाता हूं। दो हजार रुपये इधर दे दूंगा तो अपने बाल-बच्चों को क्या खिलाऊंगा?’

पिता जवाहरलाल सिर खुजाने लगे, बोले, ‘ठीक है, तो तुम एक हजार दे देना।’

जवाहरलाल बड़े लड़के के घर में रहते थे। अब अपने सामान के साथ कुसुम के घर में आ गये। कुसुम को कुछ सहारा हुआ। दिन  अब चींटी की चाल से रेंगने लगे। कुसुम  का दिन तो जैसे तैसे कट जाता, लेकिन रात पहाड़ हो जाती। एक तरफ सुख के दिनों की यादों का हुजूम, दूसरी तरफ भविष्य  की खौफनाक डायनों के नाच।

बूढ़े ससुर सो जाते तो उनके गाल गुब्बारे जैसे फूलने-पिचकने लगते और खुले मुंह से फू-फू  की आवाज़ निकलने लगती। कुसुम उनकी तरफ दया के भाव से देखती। आराम की उम्र में किस्मत ने उनके ऊपर एक नई ज़िम्मेदारी डाल दी थी। सो जाने पर वे एकदम निरीह, बेचारे हो जाते और अनेक काले साये बेखौफ सब तरफ से कुसुम को पकड़ने लगते। दरवाज़े पर हवा की दस्तक होते ही वह शंकित होकर उठकर बैठ जाती। बैठकर दोनों लड़कियों के शरीर पर अपने हाथ रख लेती। रात के सन्नाटे में घर के आसपास किसी आदमी की बातचीत सुनकर उसके रोंगटे खड़े हो जाते। वह रात रात भर कमरे में घूमती। ज़रा सी आहट होते ही बड़ी देर तक दरवाज़े पर कान लगाये सुनती रहती।

भाइयों से पांच  हज़ार रुपये महीने आने लगे थे, लेकिन मंझले रामनरेश का दिमाग रुपए देते वक्त दूसरे महीने में ही खराब होने लगा। कुसुम को जिस तरह गुस्से से मसलते हुए दो हज़ार के नोट उन्होंने दिये उससे कुसुम को उनकी मन:स्थिति कुछ कुछ ज्ञात हो गयी।

इसके बाद वे चौथे पांचवें दिन आते और कुसुम की लड़कियों पर अपना गुस्सा उतार कर चले जाते। उन्हें उनके चलने फिरने, पहनने ओढ़ने में खोट ही खोट दिखायी पड़ता। लड़कियां उन्हें देखकर इधर-उधर छिप जातीं।

बाज़ार में कहीं मंझले चाचा लड़कियों को देख लेते तो उनकी मुसीबत कर देते, ‘क्यों आयी हो? कहां जा रही हो? आवारा जैसी घूमती हो।’ लड़कियों को रोना आ जाता।

एक दिन रामनरेश पिता से बोले, ‘बाबूजी! सुमन और सुनीता को रिक्शे से स्कूल भेजना कोई जरूरी है? मुश्किल से आधा किलोमीटर की दूरी होगी। बात यह है कि जब हम अपने बच्चों का पेट काट कर पैसा देते हैं तो कुसुम को भी सोच समझ कर खर्च करना चाहिए।’

जवाहरलाल धीरे से बोले, ‘देखेंगे।’

तीसरे महीने रामनरेश कुसुम को सिर्फ एक  हज़ार रुपये पकड़ा गये। बोले, ‘अभी ज़्यादा पैसे नहीं हैं। बाकी बाद में दे दूंगा।’ उस महीने फिर उन्होंने कुछ नहीं दिया।

फिर उनका यही रवैया हो गया। हर बार हज़ार रुपये पकड़ा जाते और बाकी देने का आश्वासन दे जाते।

छह सात माह गुज़र गये। एक दिन कुसुम ने ससुर से कहा, ‘सुमन सुनीता की फ्राकें  फट रही हैं। कुछ और पैसों का इन्तजाम हो जाता  तो उनके लिए कपड़े खरीद लेती।’

ससुर बोले, ‘मैं आज रामनरेश से कहूंगा।’

वे शाम को घूम घामकर लौटे तो हाथ में छोटी सी पोटली थी। बोले, ‘बेटी, उसके पास पैसे तो नहीं थे। ये प्रीति और दीपा की फ्राकें दी हैं।  थोड़ा कॉलर फट गया है, वैसे अच्छी हैं। थोड़ा सुधार कर काम आ जाएंगीं।’

उन फ्राकों को उलट पलट कर देखते कुसुम की आंखों में पानी भरने लगा।

कुछ दिनों बाद फिर समस्या पैदा हुई। सुमन की परीक्षा फीस के लिए कुसुम के पास पैसे नहीं थे। फिर ससुर से कहा। वे बोले, ‘ठीक है। इन्तजाम करता हूं ।’

घूम कर वापस लौटे तो कुछ परेशान थे। बोले, ‘बेटा, शीतल घर पर नहीं था। रामनरेश का हाथ खाली है। लेकिन फिक्र मत करना। इन्तजाम हो जाएगा।’

थोड़ी देर बाद ही रामनरेश गुस्से से फनफनाते घर में आ गये। खड़े-खड़े ही बोले, ‘देखो भाई, थोड़ा हमारे ऊपर दया करो। यहां कोई पैसे का पेड़ नहीं लगा है कि हिलाओ और बटोर लो। लड़की जात है, ज्यादा पढ़ाना जरूरी नहीं है। लेकिन यहां तो यह हाल है कि कहा था रिक्शा छुड़ा दो तो वह भी नहीं हुआ। अब हम आगे के लिए कह देते हैं कि हमें जो पूजेगा सो देंगे। आगे मांगने की जरूरत नहीं है।’

कुसुम ने ससुर की तरफ देखा और ससुर ने गंजे सिर पर हाथ फेरते हुए आंखें झुका लीं। लड़कियां किवाड़ों से चिपकी सिकुड़ी जा रही थीं।

कुसुम अपने मोहल्ले की एक महिला को बाइसिकिल पर अपने घर के सामने से रोज़ आते जाते देखती थी। वह महिला वेशभूषा से विधवा दिखती थी। लगता था वह कहीं काम करती थी। एक दिन कुसुम पता लगाकर उस महिला के घर पहुंच गयी। महिला ने उसका स्वागत किया। उनके घर में चार बच्चे थे— दो लड़के और दो लड़कियां।

वे श्रीमती जोशी थीं। कुसुम ने उनके परिवार के बारे में पूछताछ की। उन्होंने दुखी भाव से बताया कि उनके पति का तीन साल पहले एक मोटर दुर्घटना में निधन हो गया था। ससुराल और मायके वाले मदद करने की स्थिति में नहीं थे। वे बोलीं, ‘महीने दो-महीने तो मरी सी पड़ी रही, फिर सोचा बच्चों का भाग्य अब मेरे ही भरोसे है। एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। शुरू में बाहर आने जाने में बहुत घबराहट होती थी। अब नहीं होती। अब मुझे संतोष है कि मैं बच्चों की मदद करने लायक हूं। किसी तरह गाड़ी चल रही है। आप भाग्यवान हैं कि आपको रिश्तेदारों की मदद मिल रही है।’

कुसुम ने सोच कर कहा, ‘आपके स्कूल में मुझे नौकरी मिल सकती है?’

श्रीमती जोशी आश्चर्य से बोलीं, ‘आपको नौकरी की क्या ज़रूरत है?’

कुसुम बोली, ‘आप पता लगाइएगा। मैं नौकरी करना चाहती हूं।’

श्रीमती जोशी बोलीं, ‘ठीक है। मैं पता लगा कर बताऊंगी।’

चार-पांच दिन बाद कुसुम एक दिन ससुर से बोली, ‘बाबूजी, सदर बाजार के नर्सरी स्कूल में आठ हजार  रुपये की मास्टरी मिल रही है। कर लूं?’

ससुर परेशान होकर बोले, ‘अरे बेटा, तू हमारे घर की बहू होकर आठ हजार रुपल्ली की नौकरी करेगी? उतनी दूर रोज कैसे जाएगी बेटी? हमारे खानदान में औरतों ने कभी नौकरी नहीं की। ऐसा मत कर।’

कुसुम चुप हो गयी।

अगले महीने रामनरेश रुपये देने नहीं आये। पिता उनके घर गये, फिर लौटकर बहू से बोले, ‘बेटी, अभी उसके पास पैसे नहीं हैं। दो एक दिन में दे देगा।’

पीछे आंगन में ओंकार की साइकिल पड़ी थी। उस पर धूल बैठ गयी थी। दोनों टायर चिपके हुए थे। ससुर कई बार कह चुके थे कि उसे बेच दिया जाए। हजार दो-हजार रुपये  तो मिल ही जाएंगे। लेकिन कुसुम ओंकार की चीज़ों को बेचना बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।

एक दिन वह ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैं सोचती हूं कि अपनी साइकिल को कटवा कर लेडीज़ साइकिल बनवा लें।’

ससुर बोले, ‘लेडीज़ साइकिल का क्या करेगी बेटी?’

कुसुम बोली, ‘सुमन के काम आ जाएगी। अभी हर चीज के लिए आपको दौड़ना पड़ता है। फिर छोटे-मोटे काम वह कर लाएगी।’

ससुर बोले, ‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’

फिर एक रात मोहल्ले वालों ने एक अजब नज़ारा देखा। सड़क पर एक लेडीज़ साइकिल पर कुसुम सवार थी और उसे दोनों तरफ से संभाले हुए दोनों बेटियां। कुसुम साइकिल चलाना सीख रही थी। बिजली की रोशनी में साइकिल की सीट पर उसके कूल्हे बड़े बेहूदे ढंग से हरकत करते थे। लड़कियां उसे ढकेलतीं और साइकिल डगमग होती, सड़क के एक किनारे से दूसरे किनारे को चली जाती। कई बार साइकिल  गिरती और उसके साथ कुसुम भी ज़मीन पर फैल जाती। मोहल्ले के स्त्री पुरुषों ने यह दृश्य सहानुभूति, प्रशंसा, उपहास और मज़ाक के भाव से देखा।

साइकिल की करीब एक सप्ताह प्रैक्टिस के बाद एक दिन कुसुम ससुर से बोली, ‘बाबूजी, मैने स्कूल की नौकरी कर ली है। कल से मैं काम पर जाऊंगी।’

ससुर ने खामोशी से एक बार उसकी तरफ देखकर आंखें झुका लीं।

धीरे-धीरे बात फैली। सब भाइयों तक बात पहुंची कि कुसुम अब साइकिल पर बैठकर नौकरी करने जाती है। तीनों घरों ने एक राहत की सांस ली।

शीतल प्रसाद दुखी भाव से कुसुम के पास पहुंचे। बोले, ‘नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हमसे जो बन रहा था कर ही रहे थे।’

कुसुम ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भाई साहब, आपने बहुत किया। आखिर कब तक आपके ऊपर बोझ डालते?’

रामनरेश भी कुसुम के पास पहुंचे। उनके मुंह पर राहत का भाव था। झूठी सहानुभूति के स्वर में बोले, ‘भई, नौकरी की क्या जरूरत थी? आखिर हम आगे पीछे पैसे तो देते ही।’

कुसुम ने कहा, ‘नहीं भाई साहब, आखिर आपके भी बाल बच्चे हैं। सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारियां हैं।’

फिर तीनों परिवारों के लोग बारी-बारी से कुसुम  के घर गये। सब ने कुसुम से बड़े प्यार और बड़ी इज़्ज़त से बातें कीं। सब ने बारी-बारी से सुमन और सुनीता के सिर पर हाथ फेरा। फिर सब ने उस लेडीज़ साइकिल को गौर से देखा जो उनके लिए एक अजूबा बनी हुई थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #246 – लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा अनूठी बोहनी” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #246 ☆

☆ लघुकथा – अनूठी बोहनी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

साँझ होने को आई किन्तु आज एक पैसे की बोहनी तक नहीं हुई रामदीन की।

बाँस एवं उसकी खपच्चियों से बने फर्मे के टंग्गन में गुब्बारे, बाँसुरियाँ, और फिरकी, चश्मे आदि करीने से टाँग कर वह रोज सबेरे घर से निकल पड़ता है।

गली, बाजार, चौराहे व घरों के सामने कभी बाँसुरी बजाते, कभी फिरकी घुमाते और कभी फुग्गों को हथेली से रगड़ कर आवाज निकालते ग्राहकों/ बच्चों का ध्यान अपनी ऒर आकर्षित करता है रामदीन बच्चों के साथ छुट्टे पैसों की समस्या के हल के लिए वह अपनी  बाईं जेब में घर से निकलते समय ही कुछ चिल्लर रख लेता है। दाहिनी जेब आज की बिक्री के पैसों के लिए खाली होती।

आज कोई बिक्री न होने से खिन्न मन  रामदीन अँधेरा होने से पहले घर लौटते हुए रास्ते में एक पुलिया पर कुछ देर थकान मिटाने के लिए बैठकर बीड़ी पीने लगा। उसी समय सिर पर एक तसले में कुछ जलाऊ उपले और लकड़ी के टुकड़े रखे मजदुर सी दिखने वाली एक महिला एक हाथ से ऊँगली पकड़े एक बच्चे को लेकर उसी पुलिया पर सुस्ताने लगी।

गुब्बारों पर नज़र पड़ते ही वह बच्चा अपनी माँ से उन्हें दिलाने की जिद करने लगा। दो-चार बार समझाने के बाद भी बालक मचलने लगा, तो उसके गाल पर एक चपत लगाते हुए उसे डाँटने लगा दी कि,

“दिन भर मजूरी करने के बाद जरा सी गलती पर ठेकेदार ने आज पूरे दिन के पैसे हजम कर लिए और तुझे फुग्गों की पड़ी है।” बच्चा रोने लगता है।

पुलिया के एक कोने पर बैठे रामदीन का इन माँ-बेटे पर ध्यान जाना स्वाभाविक ही था।

वह उठा और रोते हुए बच्चे के पास गया। एक गुब्बारा, एक बाँसुरी और एक फिरकी उसके हाथों में दे कर सर पर हाथ रख उसे चुप कराया। फिर अपनी बाईं जेब में हाथ डालकर  उसमें से इन तीनों की कीमत के पैसे निकाले और अपनी दाहिनी जेब में रख लिए।

अचानक हुई इस अनूठी और सुखद बोहनी से प्रसन्न मन मुस्कुराते हुए रामदीन घर की ओर चल दिया।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – सृजन ? ?

जल शांत था। उसके बहाव में आनंदित ठहराव था। स्वच्छ, निरभ्र जल और दृश्यमान तल। यह निरभ्रता उसकी पूँजी थी, यह पारदर्शिता उसकी उपलब्धि थी।

एकाएक कुछ कंकड़ पानी में आ गिरे। अपेक्षाकृत बड़े आकार के कुछ पत्थरों ने भी उनका साथ दिया। हलचल मची। असीम पीड़ा हुई। लहरें उठीं। लहरों से मंथन हुआ। मंथन से सृजन हुआ।

कहते हैं, उसकी रचनाओं में लहरों पर खेलता प्रवाह है। पाठक उसकी रचनाओं के प्रशंसक हैं और वह कंकड़-पत्थर फेंकनेवाले हाथों के प्रति नतमस्तक है।

© संजय भारद्वाज  

1.9.2019, प्रातः 4:35 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।💥

🕉️ इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः। 🕉️

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 39 – जीवन की चक्की…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – जीवन की चक्की।)

☆ लघुकथा # 39 – जीवन की चक्की श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

विद्या बहुत ही चंचल और खुशमिजाज लड़की थी छोटी सी उम्र में ही उसकी शादी हो गई थी उसने बस 12वीं तक की ही पढ़ाई की थी सास ससुर की सेवा करना बच्चे और पति का ध्यान देना।

बस उसकी यही दुनिया थी।

कल अचानक उसके भाई भाभी का फोन आया ।

सावन में तो दीदी घर आ जाओ । (पति) अशोक ने मना कर दिया, कहाॅं जाओगी? तुम्हारा घर एक तो गली में है और कोई जाओ तो ध्यान ही नहीं देता?

विद्या ने रोते हुए कहा – मेरी माॅं भाभी तो इसी शहर में रहती है, एक घंटे को भी नहीं जा सकती?

अशोक ने कहा जाओ बच्चों को मत ले जाना शाम को जल्दी घर आ जाना देर बिलकुल मत करना।

अपने मायके में भाभी की इज्जत देखकर उसे लगा की भाभी बैंक में नौकरी करती हैं इसीलिए मां और भाई मान और इज्जत देते …।

नौकर भी है उसे एक काम नहीं करना पड़ता।

काश! मैंने पढ़ाई कर ली होती और मैं नौकरी करती तो आज मेरे घर में भी मेरी इज्जत होती। बार-बार मुझे अपमानित नहीं होना पड़ता, न ही सबके ताने सुनने पड़ते कि –  तुम रसोई के लिए बनी हो।

मन में विचार ही कर रही थी विद्या तभी भाभी आ गई।

अरे! दीदी आज आप आ रहे हो इसलिए मैंन ऑफिस से जल्दी छुट्टी लेकर आ गई।

मैं आपके और जीजा जी के लिए कपड़े भी लाई हूं अब दो-तीन दिन आप रूकना और आज शाम को जीजा जी को बुला लो। वह अभी ऑफिस में होंगे इसलिए मैंने फोन नहीं किया बच्चे भी आप यहीं पर बुला लो उनके अकाउंट में मैं पैसे डाल दूंगी कपड़े खरीदने के लिए वह अपने मन से खरीदारी कर लेंगे।

क्या आपका मन अपने लिए कुछ नहीं होता? चलो! मैं आपको तैयार करती हूं और मैं आपका कुछ नहीं सुनुंगी।

आपको खाना खाकर ही जाना पड़ेगा ऐसा नहीं चलेगा।

आप तो एकदम ईद के चांद की तरह कभी-कभी तो आती हैं? कुछ दिन आराम से रहो?

हां भाभी आना तो मैं भी चाहती हूं लेकिन काम की व्यस्तता के कारण बच्चों की पढ़ाई के कारण मेरा आना नहीं हो पता है। नहीं तो जिसकी आप जैसी भाभी हो वहां कौन नहीं आना चाहेगा?

जीवन की चक्की में पिस रही हूँ।

****

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 300 ☆ साइबर सुरक्षा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 300 ☆

? लघुकथा – साइबर सुरक्षा? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

साइबर फ्राड के समाचार आए दिन पढ़ने, सुनने को मिल रहे थे। यूं तो वह बहुत सर्तकता बरतती थी , किसी को ओटीपी बताने से पहले एस एम एस पूरा पढ़कर समझ कर ही कोई कार्यवाही करती थी। अपने मोबाईल की सायबर सुरक्षा को लेकर वह सदैव चिंतित रहती थी , कहीं किसी साइट की सर्फिंग करते हुए कोई मेलवेयर तो बखुद डाऊनलोड नहीं हो गया ? उसे लगता आजकल मोबाइल कुछ धीमा चल रहा है। पढ़े लिखे होने से जागरूक रहना वह अपना दायित्व मानती थी।

एक एस एम एस आया, “रहें साइबर सुरक्षित! अपने डिवाइस को बॉटनेट संक्रमण और मालवेयर से सुरक्षित करने के लिए, सीआरटीइन, भारत सरकार htps……..पर “फ्री बॉट रिमूवल टूल” डाउनलोड करने की सलाह देता है – दूर सचार विभाग” उसने बिना बारीकी से वेब एड्रेस की पडताल किए दूरसंचार विभाग पढ़ कर टूल डाउनलोड कर लिया। डाउनलोड हो जाने के बाद उसका ध्यान गया कि उफ यह तो एपीके फाइल थी, वह तो गनीमत थी कि अभी तक उसने टूल रन नहीं किया है, फटाफट डिलीट करने की कोशिश की, पर वह सफल नहीं हो पा रही थी, अब सचमुच उसे मोबाइल सायबर सुरक्षा के लिए मोबाइल फार्मेट करना ही पड़ेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 256 ☆ कथा-कहानी – पहचान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय कथा – ‘पहचान’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 256 ☆

☆ कथा कहानी ☆ पहचान

मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी या तेज प्रकाश त्रिवेदी अब एक रिटायर्ड अफसर हैं। रिटायरमेंट के साथ ही ‘मिस्टर टी.पी. त्रिवेदी’ की खनक खत्म हो गयी और अब वे ‘त्रिवेदी साहब’ रह गये। रिटायरमेंट के बाद पुराने रोब-दाब की यादें थप्पड़ जैसी लगती हैं।

रिटायरमेंट के बाद लोगों के चेहरे कैसे बदल जाते हैं। आसपास मंडराते हुजूम एकदम छंट जाते हैं, जैसे कोई प्रवंचना थी जो मंत्र पढ़ते ही समाप्त हो गयी। दिन भर घर पर मत्था टेकने वाले, भेंटें लेकर आने वाले लोग जैसे किसी जादू से एकाएक ग़ायब हो जाते हैं। सड़क पर मिलते भी हैं तो उनकी नज़र रिटायर्ड आदमी के शरीर से बाहर निकल जाती है, देखकर भी देखना ज़रूरी नहीं समझते। सारे संबंध अपने असली, निर्मम रूप में आ जाते हैं, तटस्थ और व्यवहारिक। रह जाता है अकेलापन और किसी फिल्म की तरह सामने से तेज़ी से गुज़रती, बदलती हुई दुनिया।

रिटायरमेंट के बाद दिन बहुत लम्बे हो जाते हैं। बुढ़ापे में वैसे ही जल्दी आंख खुल जाने और देर से नींद आने के कारण दिन लम्बा हो जाता है, फिर काम से अवकाश दिन को और लम्बा कर देता है। त्रिवेदी जी सवेरे घूमने निकल जाते हैं, आधे घंटे पूजा कर लेते हैं। शाम को भी टहल लेते हैं। फिर भी वक्त भारी लगता है। शाम के घूमने के लिए वे निर्जन सड़कों को ही चुनते हैं क्योंकि व्यस्त सड़कों पर अब नमस्कार करने वाले कम मिलते हैं, उपेक्षा करने वाले ज़्यादा।

शास्त्री रोड पर जो मन्दिर है वहां शाम को अक्सर त्रिवेदी जी जाते हैं। आधा घंटा वहां गुज़ार लेने से उन्हें अच्छा लगता है। आसपास विश्वास और उम्मीद लिए बैठे या ध्यान में डूबे लोग, अगरबत्तियों की गंध, घंटी की टिनटिन— दृश्य सुखकर होता है। आस्था की बड़ी मज़बूत डोर से बंधीं, उसी के सहारे बड़ी-बड़ी मुश्किलों को झेलती स्त्रियां। त्रिवेदी जी को वह दूसरी ही दुनिया लगती है,खलबलाती हुई ज़िन्दगी से अलग।

लेकिन एक चीज़ त्रिवेदी जी को मन्दिर में चैन से नहीं बैठने देती। वह है जूतों की चिन्ता। जूते बाहर छोड़कर भीतर इत्मीनान से बैठना मुश्किल होता है। जूता-चोरी की घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। लोग बताते हैं कि वहां आसपास कुछ फटेहाल लोग रहते हैं। उनके बच्चे भक्तों के जूते उड़ाने के चक्कर में घूमते रहते हैं, इसलिए लोगों को जूतों के मामले में सतर्क रहना पड़ता है। त्रिवेदी जी भी भरसक उपाय करते हैं। आजकल उन्होंने नया तरीका खोज लिया है। एक जूते को ढेर के एक कोने में और दूसरे को दूसरे कोने में रख देते हैं। इस तरह चोर को जल्दी जोड़ी चुराने में मुश्किल होती है। शायद इन्हीं तरकीबों की वजह से उनके जूते सुरक्षित रहे।

लेकिन एक दिन जिस चीज़ का डर था वह हो ही गयी। त्रिवेदी जी जूतों को उसी रणनीति से रखकर गये थे, लेकिन जब वे आधे घंटे बाद बाहर निकले तो जूते ग़ायब थे। इस छोर वाला भी और उस छोर वाला भी। लगता है चोर ने उन्हें जूते रखते वक्त देखा होगा, और उनकी चतुराई पर वह शायद बाद में हंसा भी हो। जो भी हो, त्रिवेदी जी के आठ सौ रुपये में खरीदे हुए, आठ महीने पुराने जूते ग़ायब थे, और त्रिवेदी जी बार-बार ढेर पर निगाह फेर रहे थे, जैसे उन्हें जूतों के खोने का भरोसा न हो रहा हो।

अन्ततः उन्होंने हार मान ली। कुछ हो भी नहीं सकता था। जूते की चोरी की रिपोर्ट पुलिस में करना हास्यास्पद लगता था। आये दिन की बात थी। पुलिस किस-किस के जूते ढूंढ़ती फिरे?

हताशा में एक क्षण के लिए एक गन्दा विचार भी आया कि क्यों न ढेर में से जूते का कोई दूसरा जोड़ा पांव में डाल लिया जाए। लेकिन त्रिवेदी जी ने शीघ्र ही अपने को इस घटिया खयाल से मुक्त कर लिया। बात नैतिक अनैतिक की नहीं थी। समस्या मध्यवर्गीय प्रतिष्ठा की थी। यदि किसी ने उन्हें जूता चुराते पकड़ लिया तो उम्र भर की कमाई इज्ज़त एक क्षण में सटक जाएगी। शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा। उससे बड़ी बात यह है कि उनके साथ-साथ पूरे खानदान की नककटाई होगी।

वे हार कर मन्दिर से निकल कर सड़क पर आ गये। नंगे पांव सड़क पर आते ही उनकी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ गयी।वे घर के भीतर भी पांव में चप्पल डाले रहते थे। कभी नंगे पांव चलना पड़ा तो पांव के नीचे की रेत मन में जाने कैसी गिजगिजाहट पैदा करती थी। शरीर के रोम खड़े हो जाते थे। अब नंगे पांव लम्बा रास्ता तय करना था।

पांव रखते ही रेत और छोटे-छोटे कंकड़ महसूस हुए। मुलायम तलवों में कंकड़ों की चुभन असहनीय लगी। वे पैरों को कुछ तिरछा रखते हुए बढ़े। आसपास बहुत से कांच के टुकड़े और कांटे दिखायी पड़ते थे। उन्हें लगता था कि ये सब उन्हीं के लिए हैं और उनके पांव में ज़रूर चुभेंगे। वे अक्सर इस रास्ते पर आते थे, लेकिन उन्हें इतने सारे कांच और कांटे कभी नहीं दिखे। उनकी नज़र बराबर ज़मीन पर ही गड़ी हुई थी।

उनका मन हुआ कि रिक्शा ले लें, लेकिन उधर रिक्शे बहुत कम थे। मन्दिर के सामने दो रिक्शे ज़रूर खड़े थे, लेकिन लौटने वाले थे। आगे दूर तक कोई रिक्शा दिखायी नहीं पड़ता था।

आगे बढ़ने पर आबादी शुरू हो गयी। उन्हें दो रिक्शे और मिले, लेकिन एक तो उनके रोकने से रुका ही नहीं और दूसरे ने इतने ज़्यादा पैसे मांगे कि वे चुप हो गये। आबादी शुरू होने के साथ वे जूतों के बिना बेहद असमंजस महसूस कर रहे थे। उन्हें लगता था जैसे उनका कद चार छः इंच छांट दिया गया हो। मुंह उठाकर रिक्शों को देखने के बजाय उन्हें सिर झुका कर चलना ज़्यादा सुरक्षित लग रहा था। सिर उठाने पर परिचित चेहरे नज़र आते थे। इस वक्त उन्हें लग रहा था जैसे सब उनके परिचित हैं और सब उन्हें कौतूहल से देख रहे हैं।

थोड़ा आगे बढ़ने पर बायीं तरफ खत्री की किताब की दूकान पड़ी। यहां से उनके घर के बच्चे पढ़ने के लिए किराये पर पत्रिकाएं ले जाते थे। वह उन्हें जानता था। उन्होंने बिना आंखें उठाये कनखियों से देख लिया कि खत्री दूकान पर था। वे सिर झुकाए, अपनी गति तेज़ करके आगे बढ़ गये। चलते-चलते उन्हें दूकान से किसी का स्वर सुनायी पड़ा— ‘रिटायर होने के बाद लोगों की क्या हालत होती है, उधर देखो।’

उन्हें लग रहा था कि सड़क बहुत लम्बी हो गयी है। वे अपनी समझ से घंटों चल चुके थे, लेकिन जब उन्होंने नज़र उठा कर देखा तो सामने ‘प्रदीप मिष्ठान्न भंडार’ था, यानी वे मुश्किल से एक किलोमीटर चले थे।

थोड़ा और बढ़ने पर उन्हें किसी ने आवाज़ दी। देखा, सक्सेना साहब थे। उनके पांव की तरफ इशारा करके बोले, ‘यह क्या है? नंगे पांव कैसे?’

त्रिवेदी जी ने फीकी हंसी हंसकर जवाब दिया, ‘जूते मन्दिर में चोरी हो गये।’

सक्सेना साहब ज़ोर से हंसे— ‘वही तो। मुझे तो देख कर चिन्ता हो गयी कि आप कहीं सनक तो नहीं गये।आजकल बहुत खराब ज़माना है। मेरे दोस्त प्रेमशंकर का जवान लड़का दस बारह दिन पहले एकाएक सनक गया। घर में रहता ही नहीं। इधर-उधर घूमता रहता है। न कपड़ों की चिन्ता, न खाने पीने की। इसीलिए आपको देखकर मैं घबरा गया। सोचा, कहीं ऐसा ही कुछ न हो।’

इसी समय एक रिक्शा बाज़ू से गुज़रा और त्रिवेदी जी ने उसे रोक लिया। घर अब मुश्किल से आधा किलोमीटर दूर था, लेकिन वे बीस रुपये देने को राज़ी हो गये। रिक्शे पर बैठते हुए उन्होंने वैसी ही राहत महसूस की जैसी रास्ते में एकाएक बीमार हो जाने वाले को घर लौटने के लिए कोई वाहन मिल जाने पर होती है। वे बहुत थकान महसूस कर रहे थे। यह थकान शारीरिक कम और मानसिक ज़्यादा थी। उन्हें लगा जैसे सारे रास्ते उन पर एक बहुत बड़ा बोझ लदा रहा हो।

घर में घुसते ही पूछताछ शुरू हुई। सब ने अफसोस ज़ाहिर किया, लेकिन सबको चर्चा के लिए एक विषय भी मिल गया। घर के लोग अपने दोस्तों के बीच बताते हैं, ‘यार, कल मन्दिर में किसी ने पिताजी के जूते पार कर दिये। क्या ज़माना है!’ सुनने वाला भी कोई किस्सा निकालता है। फिर किस्से में किस्सा जुड़ता जाता है। वक्त कट जाता है।

त्रिवेदी जी ने घर में घुसकर जैसे बड़ी मुसीबत से मुक्ति पायी। सड़क पर उन्हें लग रहा था जैसे जूते खोने के साथ समाज में उनकी पहचान गड़बड़ा गयी हो। समाज के साथ उनका समीकरण उलट-पलट हो गया हो। अब घर लौटने के बाद वे फिर आश्वस्ति महसूस कर रहे थे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – नाम – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “–नाम –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — नाम — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

राजा अपनी मनःस्थिति अपनी प्रजा से मिला कर सोचता था कल वह न रहे तो यह प्रजा उसका नाम नहीं लेगी। उसे अपना नाम रह जाने की उत्कंठा पागलपन की हद तक बनी रहती थी। उसने अपने देश के सर्वोच्च शिला खंड पर अपना नाम लिखवा कर कहा, “मेरा नाम रह जाएगा।” शिला खंड को उसके लिए बड़ी व्यथा हुई। प्रकृति ने तो उसे इस सूचना से शिला खंड बनाया था वह कभी भी पिघल सकता है।

***
© श्री रामदेव धुरंधर

31 – 08 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा ☆ स्व. डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

स्व.डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी, विगत 50 वर्षों से अधिक समय से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लेखन। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका प्रकाशित और संपादित । लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में सम्मिलित। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।आज प्रस्तुत हैआपकी दो विचारणीय लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा )

☆ लघुकथाएँ – (1) पत्नी के गुजर जाने के बाद (2) पानी कठौता भर लेई आवा ☆ स्व.डॉ कुंवर प्रेमिल 

(डॉ कुँवर प्रेमिल जी द्वारा उनकी स्वर्गीय धर्मपत्नी जी को समर्पित लघुकथाएं। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि🙏) 

☆ पत्नी के गुजर जाने के बाद

उसकी पत्नी क्या गुजर गयी, उसका सब कुछ छीन ले गयी। उसकी कलम की स्याही सूख गयी। उसके विचार भोंथरे हो गये।

उसके सगे संबंधी मुंह चुराने लगे। वह भूखा-प्यासा पड़ा रहता। नहाना धोना सब भूल गया वह।

जिनकी पत्नियां जीवित थीं, वे सोच रहे थे, क्या पत्नी इतनी जरूरी होती है? उसके वगैर क्या दुनिया रुक जाती है? वह घर की हीरोइन है क्या?

यह क्या, क्या है,जो पत्नियों के वश में रहता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है।

* * * *

पानी कठौता भर लेई आवा ☆

एक थे राम।

एक था केवट।

रामजी को अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ सरिता पार करनी थी। वह केवट को बुला रहे थे परंतु केवट संज्ञान नहीं ले रहा था।

उसे भय था कहीं लकड़ी की नाव पत्थर की शिला बन गई तो!

‘तो उसकी रोजी रोटी पर संकट गहरा जाएगा’ – वह मन ही मन गुन्तारा बैठा रहा था।

उधर रामजी को नदी पार करने की जल्दी थी। कुछ वजह उन्हें समझ में नहीं आ रही थी।

एकाएक केवट में स्फूर्ति जागी। वह जैसे नींद से जागा – यह तो अच्छा ही होगा कि श्री राम उसकी नौका को सुंदर स्त्री बना देंगे। सुंदर स्त्री समाज परिवार में सम्मान पाती है। साथ ही साथ उसका पति भी सम्मान पाता है।

घर परिवार के लोग भी सम्मान पाते हैं। ऐसा मौका उसे कतई नहीं छोड़ना चाहिए।

नौका तो वह फिर भी बना लेगा। वह इस मधुर कल्पना लेकर कठौता में पानी भरकर ले आया।

♥ ♥ 

अद्भुत दृश्य था। वह श्रीराम जी के श्री चरणों को धोता हुआ मंद मंद मुस्कुरा रहा था। राम जी भी मुस्कुरा रहे थे। सीता मैया मुस्कुरा रही थी। लक्ष्मण भैया मुस्कुरा रहे थे।

कठौता में प्रभु राम की मुस्कुराती छवि केवट को आश्वस्त कर रही थी।

* * * *

स्व. डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #230 ☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक कथा – आदर्श शिक्षक  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 230 ☆

☆ शिक्षक दिवस विशेष – आदर्श शिक्षक ☆ श्री संतोष नेमा ☆

“नमस्कार सर! मुझे पहचाना?”

“कौन?”

“सर, मैं आपका विद्यार्थी । 40 साल पहले का आपका विद्यार्थी।”

“ओह! अच्छा। आजकल ठीक से दिखता नही बेटा और याददाश्त भी कमज़ोर हो गयी है। इसलिए नही पहचान पाया। खैर। आओ, बैठो। क्या करते हो आजकल?” उन्होंने उसे प्यार से बैठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा।

“सर, मैं भी आपकी ही तरह शिक्षक बन गया हूँ।”

“वाह! यह तो अच्छी बात है लेकिन शिक्षक की पगार तो बहुत कम होती है फिर तुम कैसे…?”

“सर। जब मैं कक्षा सातवीं में था तब हमारी कक्षा में एक घटना घटी थी। उसमें से आपने मुझे बचाया था। मैंने तभी शिक्षक बनने का निर्णय ले लिया था। वो घटना मैं आपको याद दिलाता हूँ। आपको मैं भी याद आ जाऊँगा।”

“अच्छा! क्या हुआ था तब बेटा, मुझे ठीक से कुछ याद नहीं…?”

“सर, सातवीं में हमारी कक्षा में एक बहुत अमीर लड़का पढ़ता था। जबकि हम बाकी सब बहुत गरीब थे। एक दिन वह बहुत महंगी घड़ी पहनकर आया था और उसकी घड़ी चोरी हो गयी थी। कुछ याद आया सर?”

“सातवीं कक्षा?”

“हाँ सर। उस दिन मेरा मन उस घड़ी पर आ गया था और खेल के पीरियड में जब उसने वह घड़ी अपने पेंसिल बॉक्स में रखी तो मैंने मौका देखकर वह घड़ी चुरा ली थी।

उसके ठीक बाद आपका पीरियड था। उस लड़के ने आपके पास घड़ी चोरी होने की शिकायत की औऱ बहुत जोर जोर से रोने लगा। आपने कहा कि जिसने भी वह घड़ी चुराई है ,उसे वापस कर दो। मैं उसे सजा नही दूँगा। लेकिन डर के मारे मेरी हिम्मत ही न हुई घड़ी वापस करने की।”

“उसके बाद फिर आपने कमरे का दरवाजा बंद किया और हम सबको एक लाइन से आँखें बंद कर खड़े होने को कहा और यह भी कहा कि आप सबकी जेब औऱ झोला देखेंगे लेकिन जब तक घड़ी मिल नही जाती तब तक कोई भी अपनी आँखें नही खोलेगा वरना उसे स्कूल से निकाल दिया जाएगा औऱ ऊपर से जबरदस्त मार पड़ेगी वो अलग..।”

“हम सब आँखें बन्द कर खड़े हो गए। आप एक-एक कर सबकी जेब देख रहे थे। जब आप मेरे पास आये तो मेरी धड़कन तेज होने लगी। मेरी चोरी पकड़ी जानी थी। अब जिंदगी भर के लिए मेरे ऊपर चोर का ठप्पा लगने वाला था। मैं ग्लानि से भर उठा था। उसी समय जान देने का निश्चय कर लिया था लेकिन… लेकिन मेरी जेब में घड़ी मिलने के बाद भी आप लाइन के अंत तक सबकी जेबें देखते रहे और घड़ी उस लड़के को वापस देते हुए कहा, “अब ऐसी घड़ी पहनकर स्कूल नही आना और जिसने भी यह चोरी की थी वह दोबारा ऐसा काम न करे। इतना कहकर आप फिर हमेशा की तरह पढाने लगे थे ” ये कहते कहते उसकी आँख भर आई।

वह रुंधे गले से बोला, “आपने उस समय मुझे सबके सामने शर्मिंदा होने से बचा लिया था सर। आगे भी कभी किसी पर भी आपने मेरा चोर होना जाहिर न होने दिया। आपने कभी मेरे साथ भेदभाव नही किया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मैं आपके जैसा एक आदर्श शिक्षक ही बनूँगा।”

“हाँ हाँ…मुझे याद आया।” उनकी आँखों मे चमक आ गयी। फिर चकित हो बोले, “लेकिन बेटा… मैं आज तक नही जानता था कि वह चोरी किसने की थी क्योंकि…जब मैं तुम सबकी जेब देख कर रहा था तब मैंने भी अपनी आँखें बंद कर ली थीं।”

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः  !

गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:!!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 144 ☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा माँ दूसरी तो बाप तीसरा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 144 ☆

☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘करती क्या हो तुम दिन भर घर में? सोती रहती हो क्या ?‘ पति की इस बात ने मानों आग में घी का काम किया। सविता दिन भर की थकी थी, गुस्से में कह गई – ‘हाँ ठीक कह रहे हो तुम, मैं कुछ नहीं करती घर में। बिना मेरे किए ही होते हैं तुम्हारे और बच्चों के सब काम इस परिवार में। मैं तो सोती रहती हूँ ऐसे ही बच्चे पल रहे हैं, बड़े हो जाते हैं और रिश्तेदार भी —–?’

‘बस भी करो, अब अपना वही रोना धोना मत शुरू करो’- पति ने झिड़कते हुए कहा।

बचपन से यह वाक्य दिल में फाँस- सा गढ़ा था, जब दिन भर घर के कामों में खटती माँ और दादी को घर के पुरुषों से कहते सुनती – ‘दिन भर घर में रहती हो, कौन सा पहाड़ उठा रही हो? करती क्या हो घर में सारा दिन ?’ वे नहीं दे पातीं थीं हिसाब घर के उन छोटे – मोटे हजार कामों का जिनमें सारा दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता| इन कामों का कोई मोल नहीं, कहीं गिनती नहीं। हाँ, उनका शरीर जरूर लेखा-जोखा रखता उनके दिन भर के कामों का। पिंडलियों में दर्द बना ही रहता और कमर दोहरी हो जाती काम करते -करते।

पति तो अपनी बात कह कर चला गया लेकिन सोचते – सोचते अजीब – सी कड़वाहट घुल गई उसके मन में, आँखें पनीली हो आई| उभरी कई तस्वीरें, गड्ड–मड्ड होते थके, कुम्हलाए चेहरे- माँ, दादी और———-| ‘उनके मन में भी न जाने कितनी बातें खौलती रहती होंगी भीतर ही भीतर पर–?’

ऐसा नहीं कि इससे पहले उसने यह वाक्य न सुना हो पर आज पति के ‘इस’ वाक्य ने दिल-दिमाग में विचारों का उबाल – सा ला दिया, लावा बह निकला था – ‘पूछते हैं कि सारा दिन क्या करती हो घर में, पर पत्नी की असमय मृत्यु हो जाने पर जल्दी ही लाई जाती है एक नई नवेली दुल्हन, घर में कुछ ना करने के लिए ???’ पति द्वारा बच्चों की देखभाल के नाम पर की गई दूसरी शादी के बारे में कहा जाता है ‘माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है?’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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