(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हवा।)
☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
लड़कियाँ देहरी पर खड़ी थीं – इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की उलझन में। इधर जाऊँ तो अपमान का डर, उधर जाऊँ तो जान का डर। लड़कियाँ न इधर गईं, न उधर गईं। उन्होंने बुज़ुर्गों से सुना था कि लड़कियाँ हवा से बनी हैं, वे हवा हो गईं। इधर वालों ने उधर वालों से पूछा, उधर वालों ने इधर वालों से पूछा कि कहाँ चली गईं लड़कियाँ? दोनों ने एक-दूसरे से कहा – पता नहीं किधर गईं। इधर वालों ने लड़कियों को भुला दिया, उधर वालों ने भी भुला दिया ; पर अब अक्सर दोनों तरफ़ रात को चीत्कार जैसी सीटियों के साथ हवा की सनसनाहट सुनाई देती थी और सुबह आँगन में हरे पत्ते बिखरे पाए जाते थे।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
कभी, आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी. हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गलती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी.
आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा, बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करने वाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं.
हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक “बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 ☆
🌺लघुकथा🌗ग्रहणसेमोक्ष 🌕
नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।
12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।
पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।
आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।
अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।
बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।
बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे। मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।
पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।
नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कथा ‘मर्ज़ ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 167 ☆
☆ कथा – कहानी ☆ मर्ज़ ☆
प्रसाद साहब के घर में सुबह से ही तनाव है, उस वक्त से जब से हार के गायब होने का पता चला है। श्रीमती प्रसाद तब से ही खोज-बीन में लगी हैं। थोड़ी देर बैठती हैं, फिर दुबारा चीज़ों को उलट-पलट करने में लग जाती हैं। जहाँ-जहाँ भी संभावना थी वहाँ की खोज-बीन हो चुकी है, लेकिन हार का पता नहीं चला।
प्रसाद साहब कपार पर हाथ धरे सोफे पर बैठे हैं और, जैसा कि अमूमन होता है, वे सवेरे से कई बार पत्नी की लानत-मलामत कर चुके हैं। यह दीगर बात है कि वे खुद खासे भुलक्कड़ हैं और अक्सर छोटी-मोटी चीज़ें खोते रहते हैं। अभी श्रीमती प्रसाद सिद्धदोष हैं और इसलिए प्रसाद साहब को उन पर हावी होने का भरपूर मौका मिला है। अभी तक किश्तों में जो भाषण प्रसाद साहब दे चुके हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि श्रीमती प्रसाद आदतन लापरवाह हैं और पति के इतने साल लगातार समझाने के बावजूद उनकी लापरवाही में कोई सुधार नहीं हुआ है।
श्रीमती प्रसाद पर दुहरी मार है। एक तो डेढ़ दो तोले का ज़ेवर जाने का दुख, दूसरा पतिदेव और परिवार के दूसरे सदस्यों की बातें। वे आश्चर्यचकित भी हैं कि घर से अचानक चीज़ गायब कैसे हो गयी। वे इस्तेमाल में आने वाले ज़ेवरों को अलमारी में एक छोटे बैग में रखती थीं। उसकी चाबी अलबत्ता वे कहीं भी रख देती थीं, क्योंकि घर में कोई ऐसा नहीं था जिस पर भरोसा न हो। बेटा मनोज अठारह साल का है और उस से छोटी बेटियाँ हैं, रिंकी और पिंकी। इनके अलावा बस नौकर बिस्सू है जो अभी तेरह चौदह साल का है और पिछले सात-आठ महीने से घर में है। उसकी आदत घर की किसी चीज़ को बिना पूछे छूने की नहीं है। प्रसाद साहब उसके माँ-बाप को तरह-तरह के सब्ज़बाग दिखाकर उसे ले आये थे।
श्रीमती प्रसाद को वैसे तो चीज़ के खोने का पता ही नहीं चलता। उस दिन संयोग से वे आम का अचार डालने में लग गयीं और उन्होंने हाथ की दोनों अँगूठियों को बैग में डाल देने की सोची। तभी उनका ध्यान गया कि हार अपनी जगह पर नहीं है। जानकारी होने पर उन्होंने पहले अपने वश भर बिना किसी को बताये ढूँढ़-खोज की ताकि पतिदेव को जानकारी होने से पहले चीज़ मिल जाए, लेकिन उनका दुर्भाग्य कि सारी कोशिशों के बावजूद चीज़ मिली नहीं और बात पतिदेव के कान तक पहुँच गयी। तभी से वे पूरे घर को सिर पर उठाये हैं।
हार कर जी हल्का करने के लिए श्रीमती प्रसाद पड़ोसियों को भी इस नुकसान की बात बता चुकी हैं और घंटे भर में ही ज़ुबान पर चढ़कर बात कॉलोनी के ज़्यादातर घरों में पहुँच चुकी है। कॉलोनी के नीरस जीवन में थोड़ा रस-प्रवाहित हुआ है और लोगों को दिन भर चर्चा करने का विषय मिल गया है।
खबर पाकर शहर में प्रसाद साहब के भाई-बंधु कैफियत लेने और हमदर्दी जताने आने लगे हैं। श्रीमती प्रसाद के लिए यह सुविधाजनक है, क्योंकि संबंधियों के लिहाज में वे पतिदेव के शब्द-बाणों से बची रहती हैं।
रिश्तेदारों के बीच यह कयास लगाया जा रहा है कि यह काम कौन कर सकता है। जब अलमारी अक्सर बन्द रहती थी तो चीज़ गायब कैसे हो गयी? क्या घर के ही किसी आदमी का हाथ है? घर में कौन हो सकता है?
प्रसाद साहब का भतीजा बंटी भी आया है। खूब स्मार्ट, नये फैशन के टी-शर्ट और जींस, कलाई में एकदम मॉडर्न ब्रेसलेट, रंगे हुए बाल, नई बाइक्स को दौड़ाने का शौकीन। उसकी नज़र बार-बार सब की सेवा में लगे बिस्सू का पीछा करती है। प्रसाद साहब से कहता है, ‘चाचा, कहीं इस लौंडे ने तो हाथ नहीं मारा?’
प्रसाद साहब प्रतिवाद करते हैं, ‘अरे नहीं, लड़का सीधा-सादा है। वह ऐसा नहीं कर सकता।’
बंटी जवाब देता है, ‘आपको तो सब सीधे-सादे नज़र आते हैं। चेहरे से क्या पता चलता है। आज सवेरे से यह कहीं बाहर गया था क्या?’
प्रसाद जी जवाब देते हैं, ‘रोज़ ही जाता है। कुछ न कुछ लाना ही पड़ता है।’
बंटी बोला, ‘तब तो माल दूर निकल गया। ऐसे लड़के दूसरों से मिले होते हैं। वे माल मिलते ही लंबे निकल जाते हैं।’
थोड़ी देर में उसे कुछ सूझता है। बाइक से एक रबर का बड़ा छल्ला निकाल कर लाता है जिससे वह ‘स्ट्रैचिंग’ की कसरत करता है। फिर बिस्सू का हाथ पकड़कर उसे कमरे में ले जाकर दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लेता है। थोड़ी देर ऊँचे स्वर में बातचीत की आवाज़ सुनायी पड़ती है, फिर ‘सप’ ‘सप’ की आवाज़ और बिस्सू का आर्तनाद। घर में सब मौन साधे सुनते हैं।
कुछ देर में दरवाज़ा खोल कर बंटी बाहर निकलता है। पीछे थर-थर काँपता, हिचकी लेता बिस्सू है। बंटी के निकलते ही उसके पिता, यानी प्रसाद साहब के छोटे भाई, उस पर बरस पड़ते हैं, ‘बेवकूफ, यह कहीं एससी एसटी हुआ तो तू सीधे जेल जाएगा। ज़मानत भी नहीं होगी।’
बंटी चेहरे का पसीना पोंछकर कहता है, ‘यह तो दूसरी ही कहानी बताता है।’
सब प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखते हैं। बंटी कहता है, ‘यह बताता है कि हार मनोज ने अलमारी से निकालकर अपने दराज़ में रख लिया था। इसने देख लिया तो इसे धमकी दी कि अगर बताया तो बहुत मारेंगे।’
अब घर में फिर सन्नाटा है। लोग घूम कर देखते हैं तो पाते हैं कि मनोज अंतर्ध्यान हो गया है। प्रसाद साहब एक बार फिर पत्नी पर बरसते हैं, ‘यह सब तुम्हारे लाड़ प्यार का नतीजा है। मैंने कहा था कि लड़के पर नज़र रखो।’
पत्नी और बेटियाँ मनोज की खोज में गायब हो गयी हैं। थोड़ी देर में खबर मिलती है कि हार मिल गया है। लेकिन अब घर में शर्म और असमंजस का वातावरण है।
प्रसाद साहब फिर सिर पकड़े बैठे हैं। करुणा-विगलित स्वर में कहते हैं, ‘मेरा बेटा और चोरी करे! हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ। डूब मरने की बात है।’
सब मौन,उनके चेहरे की तरफ देखते खड़े हैं।
थोड़ी देर में उनके भाई उनके कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘भाई साहब, हम इज़्जतदार लोग हैं। हमारे बच्चे चोरी नहीं कर सकते। दरअसल यह एक दिमागी बीमारी है जिसे क्लैप्टोमैनिया कहते हैं। हम मनोज को काउंसिलिंग के लिए ले चलेंगे। ठीक हो जाएगा। परेशान मत होइए।’
उनकी बात सुन कर घर में सबका जी हल्का हो जाता है। चोरी की आदत नहीं, क्लैप्टोमैनिया है। प्रसाद साहब के मन से बोझ उतर जाता है। दोनों बेटियाँ ‘क्लैप्टोमैनिया’ ‘क्लैप्टोमैनिया’ बुदबुदाती घर में घूमती हैं। फिर उसे कॉपी में नोट कर लेती हैं। एक नया शब्द मिला है।
श्रीमती प्रसाद बेटे को समझाने चल देती हैं कि वह शर्मिन्दा न हो क्योंकि वह चोर नहीं, एक मर्ज़ का शिकार है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
श्री कमलेश भारतीय जी की यह लघुकथा आप एएनवी न्यूज चैनल पर सुश्री मिष्ठी राणा की आवाज में इस लिंक पर क्लिक कर देख-सुन सकते हैं 👉 लघुकथा – “आज के संजय…”
☆ कथा – कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है । महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं । रथों के घोड़े हिनहिना रहे है । कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं । संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं । महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं । गांधारी भी पास ही बैठी हैं ।
वह एक युग था । तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे । कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय । अब युग बदल गया । इन दिनों चुनाव की महाभारत है । महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है । यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती । यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं ! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं । संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था । निष्पक्ष ! निरपेक्ष ! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं । इन्हें तो रोटी रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है । मनभावन शौक पूरे करने हैं । खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है ! जो चुकाये वह पा मनचाहा पा ले ! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते !
ये कैसे संजय हैं ?
ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं ! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं ! आप इन्हें पहचानते हैं
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )
☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल ☆
अखबार में वर वधू स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।
लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।
दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए। सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।
तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।
चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।
– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न देती हो।
पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।
अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “संस्कार”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆
☆ लघुकथा – संस्कार☆
जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”
“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”
“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”
“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़ कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।
“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।
☆ अरूंद वाट प्रेमाची… भाग १(भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
शहरातील सुप्रसिद्ध मूर्तीकार मगनभाई यांचा मदतनीस म्हणून मधु काम करत होता. मूर्ती बनावण्यातून फारसं अर्थोत्पादन होत होतं, असं नाही. परंतु या कामाचं एका प्रकारचं समाधान, तृप्ती मधुला लाभत होती. त्यांनी बनवलेल्या गणपती, सरस्वती, दुर्गा इ. मूर्ती खरेदी करण्यासाठी दूरवरून लोक येत. आगाऊ रक्कमही देत. या उत्सवी मूर्ती बनवण्यातून वेळ मिळाला की मधु मातीच्या काही कलाकृती बनवत असे. शो-पीस म्हणून लोक त्याही विकत घेत. आपलं हे स्वत:चं कामही तो मगनभाईंच्याच कारखान्यात करत असे. मधुचं स्वत:चं वडिलोपार्जित घर होतं. ते जुनं होतं, पण चांगलं मोठं होतं. मधुची इच्छा असती, तर तो आपलं स्वत:चं काम आपल्या घरीही करू शकला असता. परंतु कारखान्यात असं एक आकर्षण होतं जे मधुला कारखान्याकडे खेचत होतं. त्या आकर्षणाचं नाव होतं मधुलिका.
मगनभाईंच्या कारखान्यात मूर्तींसाठी माती तयार करण्याचं काम मंसाराम करत असे. मधुलिका त्याची मुलगी. मंसाराम पन्नास-पंचावन्नाचा आसेल. त्याची इच्छाशक्ती तीव्र होती. परंतु गेली कित्येक वर्षे माती तयार करण्यात गुंतलेली त्याच्या हाता-पायाची बोटे आता माती सहन करू शकत नव्हती. एक दिवस पांढरी स्वच्छ माती तयार करता करता त्याच्या रक्ताने लालीलाल झाली. मग मगनभाईंनी कारखान्यात मंसारामच्या जागी त्यांची मुलगी मधुलिका हिला घेतले. मगनभाई मधुला म्हणाले, ‘आपले आई-वडील आणि शिकणारा भाऊ या सर्वांची जबाबदारी मधुलिकावर आहे. त्यामुळे मिळेल ते काम करण्यासाठी ती विवश आहे.
मगनभाई पूर्वी ज्याला त्याला सांगायचे, ‘मधुलिकाची आई मनसा खूप सुंदर होती. ऐन तारुण्यात ती एखाद्या परीसारखी दिसायची. पण गरिबीमुळे मंसारामसारख्या असल्या-तसल्या माणसाशी लग्न करावं लागलं. आता मगनभाई हेही सांगताना थकत नाहीत की मधुलिका आपल्या आईपेक्षा किती तरी जास्त सुंदर आहे. मंसाराम आणि मगनभाई यांच्यातील मालक आणि मजूर म्हणून असलेले संबंध कधीच मागे पडले होते. दोघांच्यामध्ये असे काही भावबंध निर्माण झाले होते की जे रक्ताच्या नात्यावरही मात करतील. दोघांच्यामध्ये खूप चेष्टा-मस्करी चालायची. कधी कधी मगनभाई म्हणायचे, ‘मंसाराम, मी खात्रीपूर्वक सांगतो की मधुलिका तुझी मुलगी नाहीच. तू जन्मभर अकलेच्या मागे लाठी घेऊन फिरत राहिलास आणि इकडे मधुलिका तुझ्या झोपडीत राहून एकामागोमाग एक परीक्षा पास होत गेली.’
‘मग सांगा ना हुजूर की ती आपलीच मुलगी आहे.’
‘अरे, काही तरी लाज बाळग. मनसाभाभीनं ऐकलं, तर तुला जोड्याने बडवेल.’
‘सरळ सरळ का नाही सांगत की मुलगी मानलं, तर लग्न करण्याची जबाबदारी पण डोक्यावर येऊन पडेल ना?’ आणि गप्पांचा आनंद घेत दोघेही खळखळून हसत.
मधुलिका अतिशय कुशाग्र बुद्धीची होती. घरात अभ्यास करून तिने पदवी मिळवली होती. आणि आता पदव्युत्तर परीक्षेची ती तयारी करत होती. घरातील इतर कामेही तिला करावी लागायची. त्यामुळे ती सकाळी लवकर कारखान्यात येऊन दुपारी बारा वाजेपर्यंत घरी परतायची. मधुचं घर कारखान्यापासून वीसेक किलोमीटर दूर होतं. खूप प्रयत्न करूनही तो सकाळी दहा- अकरापूर्वी कारखान्यात पोहोचू शकायचा नाही. मगनभाई तर त्याहूनही उशिरा यायचे. त्यामुळे एक-दोन तास असे असायचे की ज्या वेळात निर्जीव मूर्तींमध्ये मधू आणि मधुलिका नावाची दोन तरुण हृदये कारखान्यात एकदमच धडधडत रहायची. अर्थात दोघांच्या स्थितीत जमीन आस्मानाचं अंतर असायचं. कारखान्यात काम करण्यासाठी मधु अतिशय ताजा-तवाना आणि प्रसन्न असायचा, तर मधुलिका चार-पाच तासांच्या परिश्रमानंतर घामेघूम झालेली असायची. कधी कधी मधुलिकाकडे बघून मधुला हसू यायचं. मधुलिकाचे कपडे, केस आणि शरीराचा उघडा भाग मातीने माखलेला असायचा. भुवया, पापण्या आणि हनुवटीवर मातीचा जसा काही एकाधिकार असायचा. अशा प्रकारचं तिचं रूप पाहून एक दिवस मधुने मधुलिकाला म्हंटलं, ‘माझ्या या अर्धवट बनवलेल्या पुरुषभर उंचीच्या मूर्तींमध्ये तू कुठे उभी राहिलीस, तर त्या मूर्तींमधून तुला ओळखणं मोठं अवघड असेल माझ्यासाठी.’
क्षणोक्षणी वाढणार्या दोघांच्या जवळीकीमुळे मूर्तींविषयीचं मधुलिकाचं मत मधुला महत्वाचं वाटू लागलं. विशेषत: मधु बनवत असलेल्या कलात्मक मूर्तींबद्दल तिचे विचार जाणून घेणं मधुला गरजेचं वाटू लागलं. त्याच बरोबर तारुण्याने मुसमुसलेली मधुलिका मधुच्या जीवनात कस्तूरी-गंधाप्रमाणे उतरत चालली. मधुलिका मधुने बनवलेल्या मूर्तींमध्ये काही ना काही उणीव दाखवून त्याला चिडवायची. तिला वाटे की मधुने श्रेष्ठ कलाकार व्हावं. एक गोष्ट मग्नभाईंच्याही लक्षात आली होती की मधुलिकाचं कौतुक मिळवणं, मधुसाठी काही सोपी गोष्ट नव्हती. मधु ने अगदी अप्रतीम सुंदर मूर्ती घडवली, तरी मधुलिका त्यात काही ना काही कमतरता शोधून काढायचीच. अनेक दिवस कष्ट घेऊन, अतिशय मन लावून मधुने एका स्त्रीची सुंदर पूर्णाकृती मूर्ती बनवली. मगनभाईंनासुद्धा वाहवा केल्याशिवाय राहवलं नाही. पण मधुलिका अर्धा इंच हसून निघून गेली. बस्स! दुसर्या दिवशी नेहमीपेक्षा जरा लवकरच मधु कारखान्यात पोचला आणि त्याने मधुलिकाला विचारलंच, ‘काय कमतरता राहिलीय या मूर्तीत?’
मधुलिका म्हणाली, ‘आपण आपल्याकडून मूर्ती बनवण्यात काही कसर सोडली नाहीत, फक्त युवतीला योग्य पोझ देणं जमलं नाही तुम्हाला!’
थोडा वेळ थांबून मधुलिका म्हणाली, ’युवती नखशिखांत अनिंद्य सुंदरी आहे. तिच्या अंग-प्रत्यंगातून ती तत्व झरताहेत, जी चंद्राला पाण्याच्या पृष्ठभागावर उतरण्यासाठी विवश करणार्या सागर लहरींमध्ये आहेत. आपण तिला ‘मेनका’ किंवा ‘उर्वशी’ असंही नाव देऊ शकाल. पण ही युवती काही वेगळ्या पद्धतीने, वेगळ्या ढंगात उभी राहिली तर…. ‘
‘तर काय?’
‘तर चंद्र नेहमीसाठीच सागरलहरींच्या मिठीत सामावला असता आणि या धरतीवर प्रत्येक रात्र पौर्णिमेचीच रात्र असती.’ मधुलिकेच्या वाणीतून जसे काही वीणेचे स्वर झरत होते.
‘कोणत्या पोझमध्ये युवतीने उभं राह्यला हवं होतं?’ मधुचा हा प्रश्न, मधुलिकासाठी प्रश्न नसून एक प्रकारे आव्हानच होतं तिला.
मूळ हिंदी कथा – ‘गली अति सॉँकरी’ मूळ लेखक – भगवान वैद्य `प्रखर’
अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन
‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।
उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।
धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’
…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।
..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।
…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?
…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।
…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
ये बैंक में प्रमोशन और फिर ट्रांसफर का किस्सा है, हकीकत भी तो यही है. किसी शहर मे रहने के जब आप आदतन मुजरिम बन जाते हैं, आपके अपने टेस्ट के हिसाब से दोस्त बन जाते है, पत्नी की सहेलियां बन जाती हैं और किटी पार्टियां अपने शबाब पर होती हैं, बच्चे उनके स्कूल से और दोस्तों से हिलमिल जाते हैं. आप ये जान जाते हैं कि डाक्टर कौन से अच्छे हैं, रेस्टारेंट कौन सा बढ़िया है, चाट कौन अच्छी बनाता है और आप समझदार हैं कि बाकी चीज़ें कंहा कहां अच्छी मिलती हैं, डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है, तब बैंक प्रमोशन टेस्ट की घोषणा कर देता है. मंद मंद गति से बहती, हवा और चलती ट्रेन रुक जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियायें होना शुरु हो जाता है.
शायद यह शाश्वत सत्य है कि प्रमोशन का अविष्कार पत्नियों ने किया है. ईमानदारी की बात तो ये भी है कि कोई भी समझदार पर विवाहित पुरुष प्रमोशन चाहता नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली खौफनाक पोस्टिंग से उसको भी डर लगता है पर पत्नी जी का क्या? और अगर आप किसी बैंक कालोनी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि कैसे कैसे ताने, उलाहने, चुनोतियों का सामना करना पड़ता है. “देखिये जी ! इस बार अच्छे से तैयारी करना, फेल मत हो जाना हर बार की तरह, वरना आपका क्या आप तो हो ही बेशरम, मुझे तो कालोनी में सबको फेस करना पड़ता है, या तो अच्छे से पढ़कर पास होना वरना फिर मकान बदल लेना. आप करते क्या हो बैंक में. सबसे पहले बैंक जाते हो, सबसे बाद में आते हो फिर आपका क्यों नहीं होता प्रमोशन. वो देखिये, शर्मा जी अभी दो साल पहले तो आये थे और फिर प्रमोट होकर जा रहे हैं. आप भी कुछ सीखो, भोले भंडारी बने बैठे हो. काम करने से कुछ नहीं होता, बॉस को भी खुश रखना पड़ता है. याने बैंक में काम करने वाले पतियों से बेहतर उनकी पत्नियों को मालुम रहता है कि बैंक में प्रमोशन कैसे लिया जाता है. “
प्रमोशन प्रक्रिया में पहले लिखित परीक्षा होती है. पहले तो स्केल 5 तक के लिये written test होते थे. हमारे बैंक में लोग परीक्षा के लिये पढ़ाई करते थे तो दूसरे बैंक इस cooling period में नये बिजनेस एकाउंट कैप्चर कर लेते थे. समझ से बाहर था कि बीस साल की नौकरी के बाद भी साबित करो कि आप बैंकिंग जानते हो. खैर बाद में ये सुधार हुआ और बैंक ने बिज़नेस को priority दी. प्रमोशन होने के बाद और पोस्टिंग के पहले के दिन उसी तरह तनाव मुक्त होते हैं जैसे शादी के बाद और गौने के पहले वाले दिन. ब्रांच में आपको भी काबिल मान लिया जाता है हालांकि पीठ पीछे की कहानी अलग होती है. ” कैसे हो गया यार, आजकल कोई भी हो जाता है, मुकद्दर की बात है वरना अच्छे अच्छे लोग रह गये और इनकी लाटरी निकल गई, कोई बात नहीं, हम तो कहते हैं अच्छा ही हुआ, कम से कम ब्रांच से तो जायेगा. इस सबसे बेखबर खुशी में मिठाई बांटी जाती हैं, दो तीन तरह की पार्टियां दी जाती हैं. फिर आता है पोस्टिंग का टाईम और फिर शुरु होता है जुगाड़ या फरियाद का दौर. यूनियन, ऐसोसियेशन, मैनेजमेंट हर तरफ कोशिश की जाने लगती है. ऐसे नाज़ुक वक्त पर सबसे ज्यादा मजे लेते हैं HR वाले केकयी बनकर. उनके डायलाग, “देखो इंटर माड्यूल की तो पालिसी है, प्रमोटी तो रायपुर ही जाते हैं और फिर वहां से बस्तर रीज़न”, आप निराश होकर और बस्तर को अपना राज्याभिषेक के बाद अपना वनवास मानकर फिर फरियाद जब करते हैं कि आप की तो वहां पहचान है कुछ ठीक ठाक पोस्टिंग करवा दीजिये तो मंथरा की मुस्कान के साथ आश्वस्त करते हैं कि यार 300 किलोमीटर के बाद तो सर्किल ही बदल जाता है, उससे आगे तो चाहेंगे तो भी नहीं कर पायेंगे. फिर तो लगने लगता है कि बैंक में हैं या Border Security Force में. जबलपुर के सदर के इंडियन काफी हाउस में वेज़ कटलेट और फिल्टर काफी का सेवन करने वाला बंदा सुकमा या बीजापुर पोस्टिंग के शुरुआती दौर में वहां भी इंडियन काफी हाउस ढूंढता है, फिर कुछ वहां के स्टाफ के समझाने से ये समझ पाकर कि इंडियन तो हर जगह हैं, काफी बाजार से खरीद कर अपने जनता आवास में खुद बनाकर पीता है और किशोर कुमार का ये गाना बार बार सुनता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”.