(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “बांट कर खाएं”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 185 ☆
☆ बाल कहानी – बांट कर खाएं☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
संगीता कोई भी चीज किसी को नहीं देती थी. वह अकेली खाती थी. यह बात उस की दोस्त अनीता जानती थी. जब कि अनीता कोई चीज लाती वह संगीता सहित अपनी दोस्त को भी देती थी.
आज जब अनीता ने देखा कि संगीता नई तरह की चॉकलेट लाई है तो उसे का मन ललचा गया. काश! आज वह संगीता से नई तरह की चॉकलेट ले कर खा पाती. मगर क्या करें? संगीता किसी को चॉकलेट नहीं देगी. यह बात वह जानती थी.
अनीता ने अपने बस्ते से लंबी वाली चॉकलेट (पर्क) निकाली. धीरे से संस्कृति को देते हुए बोली, “यह लो बड़ी वाली चॉकलेट.”
संस्कृति को चॉकलेट खाने का शौक था. वह अपनी मनपसंद चॉकलेट देख कर बोली, “अरे वाह! मजा आ गया.”
फिर अपने बस्ते से टिफिन निकाल कर अनीता को दो गुलाब जामुन दे दिए, “तुम मीठे गुलाब जामुन खाओ.”
यह देख कर संगीता के मुंह में पानी आ गया. वह उन दोनों की ओर देखने लगी. शायद वे उसे अपनी चीज दे दे.
मगर हमेशा की तरह उन्होंने ऐसा नहीं किया. वे आपस में मिल-बाँट कर चीजें खाने लगी. तब संगीता समझ गई जब तक वह उन्हें खाने की चीजें नहीं देगी तब तक वे उसे चीजें नहीं देगी.
‘मगर क्यों?’ संगीता के मन ने कहा, ‘वे हमेशा मुझे अपनी खाने की चीजें देती है.’
इस पर उसके मन में से दूसरी आवाज आई, ‘मगर तू उसे अपनी खाने की चीजें नहीं देती है तब वे क्यों देगी?’
“अगर मैं उन्हें अपनी खाने की चीजें दे दूं तो,” अचानक वह बड़बड़ा कर बोली. तब अनीता ने कहा, “अरे संगीता! तुमने कुछ कहा है?”
“हां हां,” संगीता बोली, “मैं मीठी वाली चॉकलेट लाई हूं. एक-एक तुम दोनों भी खा कर देखो,” यह कहते हुए उसने दोनों को एक-एक चॉकलेट दे दी.
अनीता और संस्कृति वैसे भी बांटचूट कर खाती थी. उन्होंने झट से अपने-अपने टिफिन से लंबी वाली चॉकलेट और गुलाब जामुन निकाल कर उसे दे दिए.
संगीता ने जब गुलाब जामुन खाए तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगे. वैसे भी उसे गुलाब जामुन बहुत अच्छे लगते थे. इस कारण उसने कहा, “संस्कृति, गुलाब जामुन बहुत स्वादिष्ट हैं. ये कहां से लाई हो?”
इस पर संस्कृति ने जवाब दिया, “ये मेरी मम्मी ने बनाए हैं.”
“और यह लंबी वाली चॉकलेट?” संगीता ने पूछा तो अनीता ने जवाब दिया, “तेरी तरह मैं भी बाजार से खरीद कर लाई हूं.”
“अरे वाह! आज तो मजा आ गया,” संगीता ने कहा, “हम एकएक चीज घर से लाई हैं और तीन-तीन चीज खाने को मिल गई है.”
इस पर अनीता ने जवाब दिया, “यह तो बांटचूट कर खाने का मजा है।” कह कर तीनों खिलखिला कर हंस दी.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – बीज
वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।
अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।
अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
27 अगस्त से 9 दिवसीय श्रीकृष्ण साधना होगी। इस साधना में ध्यान एवं आत्म-परिष्कार भी साथ साथ चलेंगे।
इस साधना का मंत्र है ॐ कृष्णाय नमः
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “नौकरी फुटबाल नहीं है!“ )
☆ कथा-कहानी # 117 – नौकरी फुटबाल नहीं है! ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
नौकरी और इससे जुड़े परिवार की निर्भरता के प्रति हम सभी संवेदनशील होते हैं तो जब दुर्भावना रहित हुई गलतियों के प्रकरण हमारे सामने आते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच ही रखते हैं और भरसक अपनी ओर से पूरी मदद करने की कोशिश करते हैं, शायद यही इंसानियत है. ईश्वर ऐसे मौके प्रायः सभी को देता है जिसमें वे भी कुछ अंश तक मदद कर सकते हैं.
एक शाखा में जहां लगभग हर दो महीने में RBI से केश रेमीटेंस ट्रेन द्वारा आता रहता था. रिजर्व बैंक एक साथ रूट की कई शाखाओं के रेमीटेंस भेजा करता था और हरेक के साथ एक रिजर्व बैंक का कर्मचारी रहता था जिसका काम उस शाखा तक रेमीटेंस के साथ जाना, अपने सामने ब्रांच में उसे रखवाना और फाइनली 8-10 दिन अपने सामने काउंटिग करवाकर शाखा प्रबंधक से प्रमाण पत्र प्राप्तकर वापस लौटना होता था. आ रहे खजाने को रिसीव करने के लिये पुलिस सुरक्षा बल के साथ रेल्वे स्टेशन पर वह ब्रांच अपने अधिकारी को भेजती थी. एक पोतदार का ससुराल बीच के किसी स्टेशन पर पड़ता था तो वे अपने साथी को जो कि उनकी यूनियन का लीडर भी था, अपनी जिम्मेदारी सौंपकर एक दिन पहले निकल लिये. दूसरे दिन उनको वही ट्रेन पकड़ लेनी थी जो रेमीटेंस लेकर जा रही थी. पर ससुराल में खातिरदारी करवाने के चक्कर में ट्रेन आगे निकल गई और उस स्टेशन में दोनों शाखाओं का रेमीटेंस, रिजर्व बैंक के उन यूनियन लीडर महाशय ने उतरवा लिया. अगली ट्रेन से दामाद जी दौड़ते भागते पहुंचे. मामला तो पक्का नौकरी लेने वाला बन गया था पर उस शाखा के स्टॉफ के हृदय में दया और मानवीयता ने वरीयता ली और उनके लिये बाकायदा ट्रक और गार्ड की व्यवस्था कर उनके साथ उनका रेमीटेंस उस शाखा में भेजा गया जहाँ के लिये आया था. इस तरह उनकी नौकरी भी बची और शायद जीवन भर के लिये सबक भी मिला कि नौकरी फुटबाल नहीं है.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)
जय और अनुराग मित्र दोनों खेलते खेलते थक गए और कुछ बातें करने लगे, बातें करते-करते वे लोग आगे निकल गये।
अनुराग हम कहाँ आ गए यह तो कुछ अलग सी जगह लग रही है?
अब घर कैसे पहुंचेंगे ?
ये सब तुम्हारे कारण हुआ, और दोनों के बीच झगड़ा हो गया । जय ने अनुराग को जोर से थप्पड़ मार दिया फिर इस बात को सड़क के किनारे फूल तोड़ कर के अनुराग ने फूलों से जय का नाम लिख दिया।
थोड़ा आगे निकलने के बाद उन दोनों को बहुत जोर से प्यास लगी, आगे चलने के बाद एक नदी दिखाई दी दोनों ने पानी पिया और अनुराग ने कहा चलो?
हम लोग स्नान करते हैं?
जय को तैरना नहीं आता था वह किनारे नहाने लगा फिसल गया और डूबने लगा अनुराग ने उसे बचा लिया । तभी वहां पर एक पुलिस वाला दिखाई दिया।
उसने कहा- “अरे लड़कों तुम लोग कहां भटक रहे हो?
उन्होंने कहा बताया कि हम रास्ता भूल गए हैं।
उसने उन्हें उनके घर में अपनी गाड़ी में बिठा कर छोड़ दिया।
दोनों ने कहा थैंक यू अंकल
पुलिस वालों ने कहा – ऐसे कहीं अकेले मत घूमना।
दोनों के घर आमने-सामने थे। पुलिस वाले ने उनके माता-पिता को पूरी घटना बताई।
वे दोनों अपने घर जाते एक दूसरे को ध्यान से देखते रहे, सच्ची मित्रता आंखों में दिख रही थी…।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हवेली”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 203 ☆
🌻लघु कथा🌻 हवेली 🌻
बहुत पुरानी हवेली। हवेली का नाम लेते ही मन में उठने लगता है, शानदार बड़े-बड़े झरोखे, बड़े-बड़े लकड़ी के कशीदाकारी दरवाजे, यहाँ से वहाँ तक का फैला हुआ दालान, बीचों बीच बड़ा सा आँगन, चारों तरफ किनारों में तरह-तरह के पुष्प लता के सुंदर-सुंदर पेड़ पौधे।
परंतु जिस हवेली की बात हम कह रहे हैं वह तो सिर्फ एक खंडहर दीवाल सी शेष रह गई थी। बंद दरवाजे और दरवाजे की छोटी-छोटी खिड़की नुमा झरोखे से झांकती दो आँखें। कुछ अपनों का बिछोह और कुछ प्राकृतिक कहर। जो पास है वह आना नहीं चाहते।
हवेली मानो कह रही हो काश वह पल लौट आए और यह फिर से हरा भरा हो जाए। कोई भी आना-जाना पसंद नहीं करता था। सिर्फ एक नौकर का आना-जाना था। जो बाहर से सामान आदि लाते जाते दिखता। पता नहीं रहने वाले कैसे रह लेते होंगे?
जय गणेश, जय गणेश बच्चे ठेले के साथ धक्का मुक्की करते चले जा रहे थे और ठेले में गणपति बप्पा विराजमान थे। बारिश ने कहर मचाया। छाँव की खोज करते भगवान को पन्नी तालपतरी से ढकते बच्चे बड़े सभी इस हवेली के पास पहुंचे थे।
अचानक दो हाथ झरोखे से इशारे से लगातार बुला रही थी। बच्चों ने देखा, बस उन्हें किसी से और कोई मतलब नहीं। अपने बप्पा को ठेले सहित हवेली के अंदर ले गए।
बारिश से राहत मिली लगातार हो रही बारिश से सभी परेशान थे। कांपते हाथों से बड़ी सी थाली में थोड़ा सा खाने का सामान और साथ में दो लोटे जल के साथ एक सयानी बुढ़ी दादी निकल कर आई।
आज से पहले वह इतनी खुश कभी नहीं दिखी थीं। आकर कहने लगी तुम सब यह खाओं।
बच्चों ने आँखों – आँखों में निर्णय लिया। इससे अच्छी जगह गणेश पंडाल नहीं बनेगा। बस फिर क्या था तैयारी शुरू।
शाम के आते- आते, जगमग रोशन हवेली ताम-झाम और बप्पा की जय, जय गणेश, हवेली जिंदाबाद के नारे लगने लगे।
दीपों की थाल लिए आज हवेली से सोलह श्रृंगार कर दादा- दादी उतरकर आने लगे। एक बार फिर से हवेली गुलजार हो गई।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “महाभारत –”।)
श्री रामदेव धुरंधर जी की गद्य क्षणिकाओं के संदर्भ में डॉ. रामबहादुर मिसिर जी की टिप्पणी सार्थक एवं विचारणीय है >> “आप गद्य क्षणिका के प्रवर्तक हैं। पौराणिक और मिथकीय संदर्भों के जरिए सामाजिक विसंगतियों और सुसंगतियों पर बहुत ही प्रभावशाली ढंग से “गागर में सागर” उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं। एक बात और ये क्षणिकाएं कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हैं। अनंत मंगलकामनाएं” – डॉ. रामबहादुर मिसिर
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — महाभारत —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
महाभारत के योद्धा ने हथियार छोड़ कर कहा, “मुझे अपने परिवार में लौट जाने दो। मेरा भाई उस सेना में है। मैं नहीं जानता वह जीवित है कि नहीं। मेरे बारे में भी वह अनभिज्ञ होगा। हमें घर से निकाला ही इस तरह से गया है कि हम दोनों भाई दो पक्षों से लड़ें।” पर इस योद्धा की हत्या कर दी गई। अर्जुन और दुर्योधन दोनों हत्यारे हो सकते थे। वे नहीं चाहते इसके कारण महाभारत अवरुद्ध हो।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “हौमेटो की आत्मकथा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 184 ☆
☆ बाल कहानी – हौमेटो की आत्मकथा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सब्जियों के राजा ने कहा, ‘‘चलो ! आज मैं अपनी आत्मकथा सुनाता हूं.’’ सभी सब्जियों ने हांमी भर दी, ‘‘ ठीक है. सुनाओ. आज हम आप की आत्मकथा सुनेंगे.’’ बैंगन ने कहा.
हौमोटो ने अपनी कथा सुनाना शुरू की.
‘‘बहुत पुरानी बात हैं. उस वक्त मैं रोआनौक द्वीप पर रहता था. वहीं उगता था. वैसे मेरा वैज्ञानिक नाम बहुत कठिन है लाइको पोर्सिकोन एस्कुलेंटक. यह याद रखना बहुत कठिन है. मेरी समझ में नहीं आता है वैज्ञानिकों ने मेरा पहला नाम इतना कठिन क्यों रखा था.
इस नाम को बाद में सोलेनम लाइको पोर्सिकोन कर दिया गया. यह नाम मेरे पहले वाले नाम से बहुत ज्यादा कठिन नहीं है. मगर, मुझे क्या ? मुझे अपने काम से काम रखना है.
कहते हैं कि मेरी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका के एंडीज नाम की जगह पर हुई थी. वहां मैं बहुतायात में पाया जाता था. मेरा हरालाल आकारप्रकार बहुत सुदंर था. इस कारण मुझे बहुत ज्यादा पसंद किया जाता था.
मैंक्सिको के मय जाति के लोग मुझे फिन्टो मेंटल कहते थे. वे मेरी इसी विशेषता के कारण मेरी खेती किया करते थे. वे मुझे मेरे कठिन नाम से नहीं पुकारते थे. ये तो वैज्ञानिक लोगों के लिए था. आम लोग तो कुछ समय बाद मुझे मेटल या हौमेटो कहते थे. बाद में यह नाम और सरल होता गया. लोग मुझे धीरेधीरे हौमेटो कहने लगे. यह हौमेटो कब टौमेटो में बदल गया पता ही नहीं चला.’’
‘‘ओह ! तो तुम हौमेटो से टौमेटो बने हो ?’’ आलू ने पूछा.
‘‘हां भाई. यह अटठारहवी शताब्दी की बात है. उस वक्त लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. मैं कमरे या दालान में सजाने के काम आता था. जैसे आज के लोग क्यारियों में फूल लगा कर अपना आंगन सजा कर रखते हैं. उसी तरह पुराने लोग मुझे क्यारियों में सजावटी पौधे के रूप में मुझे लगाते थे.
जब मैं मेरा फल यानी हौमेटो कच्चा रहता है तब वह हरा रहता था. जब यह हौमेटो पक जाता है तब लाल हो जाता है. इसलिए सजावटी क्यारियों में कहीं लाल टौमेटो होते थे कहीं हरे. इस से क्यारियां बहुत खूबसुरत लगती थी. जैसे फूलों की तरह यह नया फूल लगा हो.
इन्हें तोड़ कर कुछ व्यक्ति अपनी बैठक में मुझे सजा लिया करते थे. जैसे फूलों को गमलों में सजाया जाता है. वैसे मुझे प्लेट में सजा कर रख दिया जाता था. कालांतर में मैं इधरउधर घुमता रहा. लोग मुझे सजावटी चीज समझते थे. उस समय तक मैं अखाद्य यानी नहीं खाने वाली चीज था.
मेरा उपयोग खाने में इसलिए नहीं होता था, क्यों कि लोग मुझे जहरीली चीज समझते थे. उन का मत था कि इसे कोई खा लेगा तो उस की मृत्यु हो जाएगी. मगर, यह धारणा भी जल्दी टूट गई. इस धारण के पीछे एक व्यक्ति की जिद थी. वह व्यक्ति एक रंगसाज था.
हुआ यू कि अमेरिकी जहाज पर एक व्यक्ति काम करता था. वह जहाज को रंगरोगन व सजाने का काम करता था. यह सन 1812 के लगभग की बात है. वह मेरी खूबसूरती पर मोहित हो गया. यह चीज इतनी खूबसुरत है तो खाने में कैसी होगी ? इसलिए वह मेरा स्वाद जानना चाहता था. वह मुझे तोड़ कर खाने लगा.
उस के दोस्त भी जानते थे कि मैं एक जहरीली चीज हूं. जिसे कोई भी खाएगा वह मर जाएगा. इसलिए उस के दोस्तों ने उसे ऐसा करने से मना किया. उसे बहुत समझाया कि इसे खाने से तू मर जाएगा. मगर, वह माना नहीं. उस ने मुझे खा लिया. उसे मेरा स्वाद बहुत बढ़िया लगा.
जब उस के दोस्तों ने देखा कि मुझे खाने से वह व्यक्ति मरा नहीं. तब उन्हें यकीन हो गया कि मैं जहरीला नहीं हूं. तब उन्हों ने भी मुझे नमकमिर्ची लगा कर खाया. उन्हें मेरा स्वाद बहुत अच्छा लगा.
यह बात उस समय अचंभित करने वाली और अनोखी थी. कोई व्यक्ति जहरीला पदार्थ खा ले और मरे नहीं. यह सभी के लिए चंकित कर देने वाली होती है. फिर वही व्यक्ति कहे कि यह तो बड़ी स्वादिष्ठ चीज है. बस इसी कारण यह अनोखी घटना उस वक्त वहां के अखबार में प्रकाशित हुई थी. बात इतनी फैली कि लोगों ने मुझे खाना शुरू कर दिया . यह सब से पहली शुरूआत थी जब मैं सजावटी वस्तु से खाने वाली वस्तु में तब्दील हो गया.
कुछ एशियाई लोग मुझे हौमेटो नहीं बोल पाते थे. उन्हों ने टोमेटो कहना शुरू किया. फिर धीरेधीरे मुझे टमाटो बोलना शुरू कर दिया. कालांतर में मेरा हिन्दी नाम टमाटर पड़ गया. जो आज भी प्रचलित है.
यह बात कितना प्रमाणित है कि हिन्दी नाम टोमेटो से टमाटर कैसे पड़ा, यह मुझे पता नहीं. मगर, एशियाई देशों में मुझे टमाटर नाम से ही जाना जाता है. अंग्रेजी में मुझे आज भी टौमेटो ही कहते हैं.’’
‘‘और मैं बटाटो,’’ आलू ने कहा.
‘‘सही कहते हो भाई,’’ टमाटर ने कहना जारी रखा, ‘‘एक ओर मजेदार बात है. यह बात उस समय की है जब सन् 1812 में जेम्स नामक व्यक्ति ने सास बनाने की विधि खोज निकाली थी. वह विभिन्न चीजों को मिला कर चटनी बनाया करता था. उस समय मशरूम आदि चीजों से स्वादिष्ट चटनी बनाई जाती थी. मछली और विभिन्न चीजों की मांसाहारी चटनी उस वक्त ज्यादा प्रचलित थी.
इस व्यक्ति ने मशरूम से बनने वाली चटनी में मेरा प्रयोग करना शुरू किया. मेरे प्रयोग से चटनी का स्वाद ओर अच्छा हो गया. तब से मैं चटनी के लिए उपयोग में आने लगा.
सन् 1930 तक मेरा प्रयोग मशरूम के साथ होता रहा. जब पहली बार मेरा प्रयोग मशरूम की जगह किया गया. इस से चटनी का स्वाद ओर बढ़ गया. तब यह पहला अवसर था जब मैं चटनी के रूप में स्वतंत्र रूप से उपयेाग में आने लगा. उस वक्त मुझे स्वतंत्र खाद्यसामग्री घोषित कर दिया गया.
उस के बाद मेरे दिन चल निकले. मैं हर सब्जी में स्वाद बढ़ाने के लिए डाला जाने लगा. यह देख कर हैज कंपनी ने 1872 में पहली बार मेरा कैचअप के रूप में प्रायोगिक इस्तेमाल किया. मेरा स्वाद लोगों को इतना भाया कि मैं ने अपना स्वतंत्र रूप ले लिया. आजकल मैं विभिन्न स्वादों और रूपों में मिलने लगा हूं. पहले मेरे अंदर रस ज्यादा रहता था. आजकल मैं बिना रस का भी रहता हूं.’’
‘‘ यह मेरी छोटीसी आत्मकथा थी. सुन कर तुम्हें अच्छी लगी होगी.’’ टमाटर के यह कहते ही सभी सब्जियों ने ताली बजा दी.
‘‘ वाकई तुम्हारी आत्मकथा अच्छी थी.’’ बहुत देर से चुप बैठी आलू ने कहा, ‘‘ अगली बार हम किसी ओर की आत्मकथा सुनना चाहेंगे.’’ कहते हुए आलू चुप हो गया.
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “दहीहांडी“ की अगली कड़ी।)
सावन तो जा चुका है और रक्षाबंधन भी. इसके फिर कृष्णजन्माष्टमी और गणेशोत्सव के पर्व आने वाले हैं. सावन के आने का इंतजार बेटियां करती हैं, बहनें करती हैं, सावन में पत्नियां और मातायें भी अपने रोल को विस्मृत कर बहनों और बेटियों में सुकून और बचपन ढूंढती हैं. सावन के जाने की प्रतीक्षा करने वाले भी महापुरुष होते हैं जो धार्मिकता और रसरंग में संतुलन बनाने की कोशिश करते हुये अपने सुराप्रेम और सामिष भोज्यप्रेम की चाहत को दबाकर रखते हैं.
आज हम इन महापुरुषों को उनके हाल पर छोड़ते हुये याद करते हैं दहीहांडी के खेल रूपी उत्सव को जो मुख्यतः महाराष्ट्र के सांस्कृतिक उत्सवों की प्राणवायु है. हम मध्यप्रदेश वासी भी अपने बचपन से इस क्रीड़ा के उत्साही दर्शक और कभी कभी इस टोली के कुशल खिलाड़ी रह चुके होंगे.
अब तो मामला पेट से लेकर दिल तक पहुंच चुका है पर फिर भी हमें दिल को चुराने वाले इस खेल के हसरती दर्शक बनने से नहीं रोक पाया है. इस खेल में भाग लेने वालों के समूह की संख्या निर्धारित करने वाला कोई नियम बना नहीं है. इस खेल में टीम नहीं बल्कि टोलियाँ भाग लेती हैं और लक्ष्य बहुत ऊपर लटकी हुई मिट्टी की हांडी होती है जिसके अंदर दही के अलावा कुछ इनामी राशि भी होती है. प्रयास करने के मौके तब तक मिलते रहते हैं जब तक की दहीहांडी सहीसलामत लटकी रहती है.
ये हमारी सांस्कृतिक आदतों से मेल करता है कि ऊपर पहुंचे हुये और अधर में लटके हुओं को फोड़कर नीचे गिराना जो हम बखूबी करते रहते हैं. पिट्टू जमाना, फिर बॉल से फोड़ना और फिर जमाने की कोशिश करते हुये खिलाड़ियों को टंगड़ी मारना नामक क्रिया, क्रीडागत कुशलता की मान्यता कई सालों से लिये हुये है. जो चुस्त और चपल होते हैं वो इन बाधाओं को पारकर विजेता बनते हैं. यही खेल हम सारी जिंदगी खेलते रहते रहते हैं, खेलते रहते हैं. हमारी जीवनयात्रा इन खेलों के बीच से गुज़रते हुये और क्रमशः तीर्थयात्रा को संपन्न करते हुये अंतिमयात्रा की ओर समाप्त होती है जो जय पराजय, यशअपयश, लाभ हानि सब विधि के हाथों में फिर से सौंपकर, इस अंतिम यात्रा के नायक के मुख पर निश्चिंतता की छवि को उकेर देती है. इस तरह के नायकों को भी हम पंचतत्वों के हवाले कर फिर से दहीहांडी के उत्सव में जीवन पाने का प्रयास करते हैं.
दहीहांडी एक टीम या समूह का खेल है. सबसे पहले या सबसे नीचे कुछ बलिष्ठ खिलाड़ी एक दूसरे को मजबूती से पकड़कर ऊपर लक्ष्य की ओर जाने का आधार बनाते हैं. यह आधार कितना मजबूत रहेगा यह इन खिलाड़ियों के तालमेल, मजबूती और आघातों को सहकर भी स्थिर रहने की क्षमता पर निर्भर होता है. ये पहला वृत्त या सर्किल होता है जो जमीन से जुड़ा और जमीन पर खड़ा होता है. बाद में इसकी स्थिरता stability के बल पर ऊपर क्रमशः छोटे सर्किल बनाये जाते हैं. ये जमीन पर तो नहीं खड़े होते पर अपनी संतुलन कला के बल पर ऊंचाई की ओर जाने में महत्त्वपूर्ण सहायक का रोल निभाते हैं. ऊपर की ओर बना हर सर्किल अपनी स्थिरता को उसी अनुपात में खोकर संतुलन कला के दम पर मंजिल पाने का मार्ग प्रशस्त करता है. अंत में वह खिलाड़ी जो सामान्यतः बालअवस्था में होता है, अर्थात “भार कम और चपलता अधिक” के अनुपात से संपन्न होता है, इन्हीं सर्किलों के सहारे ऊपर चढ़ते हुये अंतिम लक्ष्य याने दहीहांडी को फोड़कर विजय प्राप्त करता है. विजय पाने के बाद, यह टोली अपने सारा स्थायित्व, संतुलन और टीमवर्क को दरकिनार कर जीतने के जश्न में डूब कर नाचने लगती है.
सारे खिलाड़ी जीतने की खुशी में नीचे आने की प्रक्रिया भूल जाते हैं. जो गिरता है वह भी कभी कभी इन्हीं हमजोलियों के हाथों संभाल लिया जाता है और यह टोली फिर अगले चौक पर लटकी दहीहांडी को पाने के लिये आगे बढ़ जाती है. यह जीत गिरने से आई चोटों पर पेनकिलर का काम करती है.
इस विजय में, जिसे उसकी भारहीनता और चपलता, मटकी फोड़ने का अवसर देती है, वह बालक ही दर्शकों की निगाहों में नायक बन जाता है पर उसकी यह विजय सिर्फ उसकी भारहीनता याने मानवीय दुर्बलताओं की हीनता और चपलता के कारण ही नहीं बल्कि जमीन से जुड़े और संतुलन कला में निपुण साथी खिलाड़ियों के कारण भी मिलती है.
यही हमारी जीवनयात्रा में मिली सफलताओं का भी सारांश है जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षकगण, गुरुजन, कोच, संगी-साथी, मित्रगण, पत्नी, संताने, ऑफिस के सीनियर और जूनियर भी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इन्हें कभी भी भी कमतर समझना या गैर जिम्मेदार समझना, कामचोर समझना, बहुत बड़ी भूल ही कही जायेगी क्योंकि दहीहांडी फोड़ने के बाद नीचे गिरने पर, संभालने वाले हाथों की जरूरत हर विजेता को पड़ती है.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – ग्लानि।)
अवंतिका आंटी मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपत्ति रहा करते हैं, वह लोग सारा दिन पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, पहली रोटी गाय को कुत्ते की रोटी आदि बातों का बहुत ध्यान रखते हैं। मोहल्ले के सारे बच्चे उन्हें दादा-दादी कहते हैं, एक दिन अचानक अवंतिका आंटी के रोने की आवाज आ रही थी। मुझे लगा क्या हो गया है मेरे पतिदेव अभिनव ऑफिस चले गए घर पर बच्चे और मैं अकेली थे। बाहर महामारी चल रही है मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं बाहर निकलना ठीक है या नहीं परंतु मुझसे रहा नहीं गया। अपने गेट से बाहर निकली और मुंह पर दुपट्टा बांधकर। दिखी तो क्या गाय के मुंह पर कांच लगा था। मुंह से खून निकल रहा है, और आंटी रो रही थी। थोड़ी थोड़ी दूर पर सभी पड़ोसी लोग भी खड़े थे। मेरे पड़ोसी राम भैया गाय के मुंह से कांच निकाले और उसके मुंह पर भाभी हल्दी लगा रही थी। सभी पूछ रहे थे। यह कैसे हो गया।
आंटी रो रही थी। अंकल बोले कचरे वाली गाड़ी की आवाज सुनकर ये भागी भागी कचरा और गाय की रोटी भी ली थी । गाय को रोटी दी, गाय ने कचरे की थैली पर सींग मारी तुम्हारी आंटी कचरा छोड़कर भागी।
आज सुबह-सुबह बर्तन धोते समय कांच का गिलास टूट गया था, कचरे में डाल दिया और गाय सब्जियों के छिलकों के साथ और उसके मुंह पर चुभ गया, और घायल हो गई। अंकल ने कहा राम बेटा तुम भगवान बन के आए।
गाय के मुंह से खून निकल रहा था। और अंकल कहे जा रहे थे, परोपकार करो, गाय के अलावा भी सब जानवरों को खाना दिया करो। आंटी की आंख के आंसू थम ही नहीं रहे थे।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 500 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी दो विचारणीय लघुकथाएँ – (1) पानी कठौता भर लेई आवा (2) पत्नी के गुजर जाने के बाद .)
☆ लघुकथाएँ – (1) पानी कठौता भर लेई आवा(2) पत्नी के गुजर जाने के बाद☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
(डॉ कुँवर प्रेमिल जी द्वारा उनकी स्वर्गीय धर्मपत्नी जी को समर्पित लघुकथाएं। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि🙏)
☆ पानी कठौता भर लेई आवा ☆
एक थे राम।
एक था केवट।
रामजी को अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ सरिता पार करनी थी। वह केवट को बुला रहे थे परंतु केवट संज्ञान नहीं ले रहा था।
उसे भय था कहीं लकड़ी की नाव पत्थर की शिला बन गई तो!
‘तो उसकी रोजी रोटी पर संकट गहरा जाएगा’ – वह मन ही मन गुन्तारा बैठा रहा था।
उधर रामजी को नदी पार करने की जल्दी थी। कुछ वजह उन्हें समझ में नहीं आ रही थी।
एकाएक केवट में स्फूर्ति जागी। वह जैसे नींद से जागा – यह तो अच्छा ही होगा कि श्री राम उसकी नौका को सुंदर स्त्री बना देंगे। सुंदर स्त्री समाज परिवार में सम्मान पाती है। साथ ही साथ उसका पति भी सम्मान पाता है।
घर परिवार के लोग भी सम्मान पाते हैं। ऐसा मौका उसे कतई नहीं छोड़ना चाहिए।
नौका तो वह फिर भी बना लेगा। वह इस मधुर कल्पना लेकर कठौता में पानी भरकर ले आया।
♥ ♥
अद्भुत दृश्य था। वह श्रीराम जी के श्री चरणों को धोता हुआ मंद मंद मुस्कुरा रहा था। राम जी भी मुस्कुरा रहे थे। सीता मैया मुस्कुरा रही थी। लक्ष्मण भैया मुस्कुरा रहे थे।
कठौता में प्रभु राम की मुस्कुराती छवि केवट को आश्वस्त कर रही थी।
* * * *
☆ पत्नी के गुजर जाने के बाद☆
उसकी पत्नी क्या गुजर गयी, उसका सब कुछ छीन ले गयी। उसकी कलम की स्याही सूख गयी। उसके विचार भोंथरे हो गये।
उसके सगे संबंधी मुंह चुराने लगे। वह भूखा-प्यासा पड़ा रहता। नहाना धोना सब भूल गया वह।
जिनकी पत्नियां जीवित थीं, वे सोच रहे थे, क्या पत्नी इतनी जरूरी होती है? उसके वगैर क्या दुनिया रुक जाती है? वह घर की हीरोइन है क्या?
यह क्या, क्या है,जो पत्नियों के वश में रहता है और उनकी हर आज्ञा का पालन करता है।