(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – कथासरित्सागर
बचपन में पिता ने उसे ‘कथासरित्सागर’ की सजिल्द प्रति लाकर दी थी। छोटी उम्र, मोटी किताब। हर कहानी उत्कंठा बढ़ाती पर बालमन के किसी कोने में एक भय भी होता कि एक दिन इस किताब के सारे पृष्ठ पढ़ लिये जाएँगे, कहानियाँ भी समाप्त हो जाएँगी…, तब कैसे पढ़ेगा कोई नयी कहानी?
बीतते समय ने उसके हिस्से की कहानी भी लिखनी शुरू कर दी। भीतर जाने क्या जगा कि वह भी लिखने लगा कहानियाँ। सरित्सागर के खंड पर खंड समाप्त होते रहे पर कहानियाँ बनी रहीं।
अब तो उसकी कहानी भी पटाक्षेप तक आ पहुँची है। यहाँ तक आते-आते उसने एक बात और जानी कि मूल कहानियाँ तो गिनी-चुनी ही हैं। वे ही दोहराई जाती हैं, बस उनके पात्र बदलते रहते हैं। जादू यह कि हर पात्र को अपनी कहानी नयी लगती है।
कथासरित्सागर के पृष्ठ समाप्त होने का भय अब उसके मन से जाता रहा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 32 – आत्मलोचन– भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हर व्यक्ति को किसी न किसी वस्तु से लगाव होता है, गॉगल, रिस्टवॉच, बाइक, कार, वाद्ययंत्र आदि, पर आत्मलोचन को अपनी सिटिंग स्पेस याने चेयर या डेस्क से बेइंतहा लगाव था. सीमित आय के बावजूद मेधावी पुत्र के लिये शिक्षक पिता ने घर में पढ़ने के लिये शानदार कुर्सी और दराज़ वाली टेबल उपलब्ध करा दी थी. स्कूल और कॉलेज में फ्रंट लाईन पर बैठने की आत्मलोचन की आदत थी और जब कोई शरारती सहपाठी उसकी सीट पर बैठ जाता तो साम दाम दंड भेद किसी भी तरह अपनी सीट हासिल करना उसका लक्ष्य बन जाता. इसमें शिक्षक का रोल भी महत्वपूर्ण होता जो उसके मेधावी छात्र होने का हक बनता था.
मसूरी में प्रारंभिक प्रशिक्षण के दौरान एकेडमी की एक प्रथा का पालन हर प्रशिक्षार्थी को करना पड़ता था जिसमें हर दिन बैठने का सीक्वेंस, सीट और पड़ोसी का बदलना अनिवार्य था. आत्मलोचन को इस परंपरा से बहुत दिक्कत होती थी पर वो कुछ कर नहीं सकता था. इस का लॉजिक यही था कि अलग अलग स्थानों और अलग अलग व्यक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कला का विकास हो जो भावी पोस्टिंग में काम आ सके. प्रशिक्षण और फिर प्रेक्टिकल एक्सपोज़र के विभिन्न दौर से गुजरने के बाद अंततः आत्मलोचन जी IAS, चिरप्रतीक्षित कलेक्टर के पद पर नक्सली समस्याग्रस्त जिले में पदस्थ हुये. जिला छोटा पर नक्सली समस्याओं से ग्रस्त था. आवास तुलनात्मक रूप से थोड़ा छोटा पर सर्वसुविधायुक्त था और ऑफिस नया चमचमाता हुआ अपने राजा का इंतज़ार कर रहा था जो इस जिले के पहले direct IAS थे. वे सारे अधीनस्थ अधिकारी /कर्मचारी जो अब तक किसी अधेड़ उम्र के राजा के सिपाहसलार थे अब राजा के रूप में राजकुमार सदृश्य व्यक्ति को पाकर अचंभित थे और शायद हर्षित भी. उन्हें लगा कि कल के इस छोकरे को तो वो आसानी से बहला फुसला लेंगे पर ऐसा न होना था और न ही हुआ. जब भी कोई युवा कलेक्टर के पद पर इस उम्र में पदस्थ होता है तो अपने सपनों, हौसलों और आदर्शों को मूर्त रूप देने की कशिश ही उसका दृढ़ संकल्प होता है और इसे सफल बनाने में उसकी प्रतिभा, प्रशिक्षण और प्रेक्टिकल एक्सपोज़र बहुत काम आते हैं.
आत्मलोचन जी के इरादे टीएमटी सरिया के समान बचपन से ही मजबूत थे और बहुत जल्द सबको समझ आ गया कि साहब कड़क हैं और वही होता है जो साहब ठान लेते हैं. पर कलेक्टर का पद सुशोभित करने के बावजूद कलेक्टर कक्ष की कुर्सी साहब को रास नहीं आ रही थी तो उनकी पसंद के अनुसार दो नई कुर्सियां आर्डर की गई एक जिस पर आत्मलोचन जी ऑफिस में सुशोभित हुये और दूसरी उनके बंगले पर उनके (work from home too) के लिये भेजी गई.
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “स्कूल की बड़ी बहनजी”।)
☆ संस्मरण # 109 – स्कूल की बड़ी बहनजी – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
वर्ष 1995 की गर्मियों में जब चौंतीस वर्षीया अर्थ शास्त्र में स्नातकोत्तर और बीएड की उपाधिधारी युवा रेवा रानी घोष ने अखबार में एक विज्ञापन देखा तो अपनी जन्म स्थली रांची को छोड़कर सुदूर आदिवासी अञ्चल में आदिवासियों की सेवा करने चली आई । यह संकल्प जब उन्होंने अपने पिता जोगेश्वर घोष और माता भवानी घोष को बताया तो घर में तूफान उठना स्वाभाविक था । ऐसे में वह विज्ञापन जब बड़ी बहन छविरानी घोष ने देखा तो वह आनंद से उछल पड़ी। विज्ञापन देने वाले डाक्टर प्रवीर सरकार, रामकृष्ण मिशन रांची के स्वामी गंभीरानन्द जी के द्वारा दीक्षित थे और इस प्रकार उनके गुरु भाई थे। बहन ने माता-पिता को समझाया कि ‘रेवा समाज सेवा की इच्छुक है, यदि उसका विवाह कर भी दिया तो भी वह अपने संकल्प के प्रति समर्पित रहेगी और ग्रहस्थ जीवन के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी उसे जाने दें ।‘ और इस प्रकार 02.02.1962 को रांची वर्तमान झारखंड में जन्मी एक युवती अपने नाम के अनूरुप रेवा अञ्चल की आदिवासी बालिकाओं की बड़ी बहनजी बनकर अमरकंटक आ गई ।
मैंने जब उनसे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ के आरंभ की कहानी जाननी चाही तो वे भूतकाल में खो गई । वर्ष 1996 में जब यह विद्यालय शुरू हुआ तो पहला ठिकाना लालपुर गाँव का एक कच्चा मकान बना । लाल सिंह धुर्वे की इस झोपड़ी में कोई दरवाजा न था । आसपास के गांवों से पंद्रह बच्चियाँ लाई गई, जिनमे से अधिकांश अत्यंत पिछड़ी आदिवासी आदिमजनजाति बैगा समुदाय की थी । कच्ची झोपड़ी में डाक्टर सरकार और रेवारानी घोष इन्ही बच्चियों के साथ रहते और रात में बारी-बारी से चौकीदारी करते ताकि छात्राएं भाग न जाए। बाद में जब टीन का दरवाजा लग गया तो रतजगा कम हुआ पर दिन तो और भी मुश्किल भरे थे । पहली दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली बालिकाओं को माता-पिता की याद आती और वे दरवाजा खोलकर भाग देती, तब डाक्टर सरकार के साथ बहनजी भी कक्षा में पढ़ाना छोड़ उस बालिका के पीछे दौड़ लगाते और उसे पकड़ कर वापस पाठशाला में ले आते । अबोध बालिकाएं कभी रोती, कभी मचलती और हाथ पैर फटकारती । उन्हें प्यार से समझा बुझाकर स्कूल में रोके रखना दुष्कर कार्य था । शुरुआत के दिन मुश्किल भरे थे, फिर एक और शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी आ गए, तब बच्चों को दिन में सम्हालना सरल हो गया ।
छोटी-छोटी बालिकाओं का पेट भरना भी एक बड़ी समस्या थी । डाक्टर सरकार सदैव इसी जुगाड़ में लगे रहते कि किसी तरह कहीं से धन मिले तो अनाज खरीदें। अक्सर उतनी धान नहीं मिल पाती की बच्चों को भरपेट भोजन कराया जा सके । और ऐसे में कभी भात तो कभी पेज से काम चलता । पेज बैगा आदिवासियों का प्रिय पेय है, इसे पकाने मक्का, कोदो,कुटकी, चावल को कूट-पीसकर हँडिया में डाल चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है और एक या दो घंटे बाद जब यह भलीभाँति सिक जाता है तब उसमें पर्याप्त ठंडा पानी डाल कर उसे पिया जाता है । अकेला चावल गले न उतरता, दालें खरीदना तो आर्थिक स्थिति में संभव नहीं था । ऐसे में चावल को खाने के लिए पकरी की भाजी का प्रयोग होता । पकरी, पीपल जैसा ही वृक्ष है और पतझड़ के बाद जब नई कपोलें इसमें आती तो उन्हें उबालकर सब्जी के रूप में खाया जाता । कसैले स्वाद वाली पकरी की भाजी खाने में बैगा कन्याएं तो सिद्धहस्त थी पर रेवा इसे बमुश्किल गुटक पाती।
अक्सर यह होता कि चावल इतना पर्याप्त न होता कि सबका पेट भरा जा सके। ऐसे में बालिकाएं भोजन पकाने के बर्तन की तांक-झांक करती और जब हँडिया को खाली देखती तो अपनी थाली में से एक एक मुट्ठी अन्न निकाल देती । यही पंद्रह मुट्ठी अन्न डाक्टर सरकार और बड़ी बहनजी का उदर पोषण करता ।
विद्यालय के दिन फिरे, भारत सरकार के आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के संज्ञान में डाक्टर सरकार का यह प्रकल्प आया । केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की संयुक्त टीम ने लालपुर की झोपड़ी में संचालित विद्यालय का निरीक्षण किया और फिर भवन निर्माण हेतु अनुदान स्वीकृत किया । लेकिन एक बार फिर प्रारब्ध के आगे पुरुषार्थ हार गया । समीपस्थ ग्राम भमरिया में भवन निर्माण का काम शुरू हुआ। नीव बनते ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने भोले भाले आदिवासियों को भड़काने में सफलता पाई और डाक्टर सरकार को ग्रामीणों के तीव्र, कुछ हद तक हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा। इन विकट परिस्थितियों में पोड़की के गुलाब सिंह गौड़ ने अपनी जमीन भवन निर्माण हेतु दी और जब 2001 में विद्यालय भवन बन गया तो थोड़ी राहत मिली । सभी बच्चे और कर्मचारी उस भवन में रात्रि विश्राम करते और सुबह उसी जगह बच्चे पढ़ते । बाद में जनसहयोग से कर्मचारी आवास, छात्रावास, अतिथिगृह आदि निर्मित हुए।
मैंने पूछा भवन आदि बनने के बाद तो समस्या खत्म हो गई होगी । रेवारानी घोष कहती हैं कि कठिनाइयाँ बहुत आई पर बाबूजी (डाक्टर सरकार) अनोखी मिट्टी के बने थे । एक बार तो लगातार तीन साल तक केंद्र सरकार से अनुदान नहीं मिला । बच्चों को भोजन की व्यवस्था किसी तरह उधार और दान की रकम से चलती रही पर कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया जा सका। सभी लोग बाबूजी के साथ खड़े रहे और जब अनुदान की रकम आई तो बाबूजी ने पुराना हिसाब चुकाया, उन लोगों को भी बुला-बुलाकर बकाया वेतन दिया गया जो स्कूल छोड़ कर अन्यत्र चले गए थे ।
मैंने कहा आप स्थानीय लोगों से जनसहयोग क्यों नहीं लेती। वे कहती हैं कि यहाँ के मूल निवासी अत्यंत गरीब हैं, उनके खुद के खाने का ठिकाना नहीं रहता, ऐसे में उनसे आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करना अमानवीय होगा । हाँ अक्सर विद्यालय में सार्वजनिक कार्यक्रम होते रहते हैं तब यहाँ के आदिवासी सेवा कार्य में पीछे नहीं रहते।
मैंने कहा कि जब आप युवा थी और उच्च शिक्षित थी तो सरकारी नौकरी कर घर बसाने की इच्छा नहीं हुई । वे कहती हैं कि रामकृष्ण मिशन से मानव सेवा की जो शिक्षा मिली थी उसको निभाना ही लक्ष्य था। कभी भी अपने इस निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ। ऐसा कहते हुए उनकी आँखों में चमक आ गई ।
उनसे पढ़कर अनेक आदिवासी बैगा बालिकाएं शासकीय सेवा में हैं और कुछ अल्प शिक्षित इसी विद्यालय में कार्य करती हैं । वे सब अक्सर अपनी मातृ स्वरूपा बहनजी से मिलने सेवाश्रम आती हैं और बहनजी भी कितनी व्यस्त क्यों न हों अपनी इन मुँह बोली बेटियों को गले लगाती है ।
बच्चों के बीच बड़ी बहनजी के नाम से लोकप्रिय रेवा रानी घोष आज भी कर्मचारी आवास के छोटे से कमरे में रहती हैं । और राम कृष्ण मिशन से मानव सेवा ही माधव सेवा है के जो संस्कार उन्हे मिले थे उसका पालन पूरी निष्ठा, लगन और समर्पण भाव से कर रही हैं । आप उन्हें कभी रसोई घर में भोजन पकाते तो कभी बच्चों को पढ़ाते तो यदाकदा प्राचार्य कक्ष में देख सकते हैं ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – प्रार्थना।)
☆ लघुकथा – प्रार्थना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
“तुम रोज़ सुबह क्या प्रार्थनाएँ बुदबुदाती हो।”
“मैं अपने देवताओं से प्रार्थना करती हूँ।”
“क्या माँगती हो इनसे?”
“कुछ नहीं।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो माँगती ही होगी। मुझे लगता है अपने और अपने देश के लिए बेहतर भविष्य माँगती हो।”
“भविष्य तो वे लोग तय करते हैं जिनके हाथ में वर्तमान का नियंत्रण होता है। उन्हीं के आज के कार्यकलाप में भविष्य देखा जा सकता है।”
“तो फिर भविष्य में क्या देख रही हो तुम?”
“गुंडों की दनदनाती टोलियाँ! सब के एक जैसे कपड़े, एक जैसे नारे, एक जैसी गालियाँ। सबके हाथ में चाक़ू, तलवार, फरसे, पिस्टल। सबके चेहरों पर नृशंसता… सब तरफ़नफ़रत की आग जिसमें प्यार लकड़ी की तरह जल रहा है… सब तरफ़ धर्म का शोर है पर धर्म कहीं नहीं… मौत का जश्न मनाते वीभत्स चेहरे… और… और…”
“इतना भयानक भविष्य अगर तुम देख रही हो तो फिर यह प्रार्थना किसके लिए?”
“इस नृशंसता के बावजूद मुझे यक़ीन है कि कुछ लोग इन्सानियत को बचाने में जुटे रहेंगे। मैं चाहती हूँ कि सूर्य, पृथ्वी, जल और वायु देवता कभी कुपित न हों। ये हमेशा ऐसेलोगों के साथ बने रहें। बस यही प्रार्थना मैं रोज़ इन देवताओं से करती हूं।”
“मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं में इन देवताओं की सलामती की दुआ शामिल करता हूँ। वर्तमान जिनके नियंत्रण में है, वे इन्सान और इन्सानियत के ही नहीं, देवताओं के भी शत्रु हैं।”
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
मैं जड़ की जड़। वहीं की वहीं खड़ी रह गयी थी। लगा जैसे कोई प्रतिमा बनने का शाप दे दिया हो मुझे। क्या जो सुना वह वही था? जो सुना वह किसी नाटक का संवाद तो नहीं था। वह तो जिंदगी के किसी खास पल की गूंज थी।
-यहां मैं डायरेक्टर हूं और मैं ही हीरो। यह नाटक मेरे दम पर है। इस खेल तमाशे का दारोमदार मुझ पर है, तुम पर नहीं। समझीं।
पहली बार जैसे होश में आई और फिर जड़ की जड़ रह गयी। पहली बार सुनीं नेपथ्य में अपनी छोटी सी बच्ची के रोने की आवाज़। पहली बार सुनी अपने पति की बात-इन नाटकों में कुछ नहीं रखा। जिंदगी देखो अपनी। नाटकों की झूठी शोहरत से बच्चे नहीं पल सकते। गृहस्थी नहीं चल सकती। लौट आओ। लौट आओ।
सच। क्या मेरा पति ही सच कह रहा था? मैं उसे लगातार अनसुना करती थी और उसकी सज़ा आज पाई? क्या मैं नाटक में कुछ भी नहीं थी? क्या नाटक मेरे दम पर नहीं था? क्या नाटक में मेरा कोई मतलब नहीं था? मैं थी भी और नहीं भी? यानी मैं होकर भी नहीं थी? मेरी कोई जरूरत नहीं थी? मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था? मेरे होने या न होने का कोई फर्क नहीं था। पर मुझे तो था। फिर मैं क्यों इनके साथ चलती रहूं?
वह सभागार जिसमें उस शाम हमारा शो होने वाला था पता नहीं कैसे मैंने वह पूरा किया। बाकी कांट्रैक्ट भी पूरे किए। फिर लौट आई अपने घर। कुछ दिन जैसे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ यह हुआ क्या? जिसके साथ मैंने शहर दर शहर की खाक छान कर नाटक मंडली को खड़ा किया, जमाया, वही कह गया बड़ी आसानी से -तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। यह नाटक मंडली चलती रहेगी क्योंकि मैं ही हूं इसका निर्देशक और नायक। जैसे कह रहे हों मैं ही हूं खलनायक भी।
-मैं कुछ भी नहीं?
-भ्रम में जीना हो तो जी लो। तुम कुछ नहीं।
यह क्या सुना था मैंने? क्या यही सुना था मैंने?
-ठीक है। मैं कुछ नहीं तो अब से और आज से नहीं रहूंगी आपके साथ।
-मत रहो। चला लूंगा तुम्हारे बगैर। नाटक बंद नहीं हो जायेगा। जाओ।
-चली जाऊंगी। मैं पैसे के लिए नहीं आई थी आपके साथ। रंगकर्म के लिए आई थी। वह आपके बगैर भी हो सकता है। यह मैं भी साबित कर दूंगी। चैलेंज एक्सेप्टिड।
एक नारी जागी थी जैसे मूर्छा से। कितनी लम्बी मूर्छा रही। कितने बरस की मूर्छा रही।
खुद ही ऑफर दिया था। आप हमारे साथ आओ न। मैंने हिम्मत जुटाई। परिवार से लड़ी। सब कुछ सुना जो एक ब्याहता नहीं सुन सकती। सब सहा। पर नाटक मेरा जुनून बन गया। यहां से वहां। वहां से यहां। शहर दर शहर। देस ही नहीं परदेस। नाम। शोहरत। पर पैसा नहीं लिया एक भी। सिर्फ समर्पण। दिया ही दिया। कास्ट्यूम भी अपने खर्च पर। पर मिला क्या?
-जाओ। वहम में न जीओ। यह,,,बस यही सुनना था।
-तो सुनो। मैं भी आपके दम पर नहीं। अपने दम पर आई थी मंच पर। अपने दम पर लौट कर दिखा दूंगी। यह चैलेंज स्वीकार।
वह लौट आई। वही सारे कास्ट्यूम लेने घर भेज दिए जूनियर आर्टिस्ट जो मेरे ही पैसों से बने थे। मैंने चुपचाप सब सौंप दिए। ले जाओ। खुद बनवा लूंगी। अरे। आप साथ नहीं होंगे तो क्या मंच पर नहीं जाऊंगी? देखना एक दिन। इस तरह हमारे रास्ते अलग अलग हो गये थे। एक एक शहर में, एक ही संस्थान में हम अजनबी बन कर रह गये थे।
अंदर एक ज्वालामुखी धधकता रहता। कुछ कर दिखाना है। कुछ कर गुजरना है। इस कर गुजरने की गूंज मन में गूंजती रहती। सवाल यह भी कि नारी की कोई भूमिका नहीं? क्या कला की दुनिया में नारी सिर्फ शोभा की वस्तु है? नारी को इतना ही सम्मान है कि हमारी मर्जी से चलो। फिर वह चाहे कला हो या परिवार या समाज? सब एक ही डंडे से हांकते हैं नारी को या नारी के लिए एक ही डंडा है या पैमाना है? कहीं कोई बदलाव नहीं? यह कैसा सशक्तिकरण? कैसा स्त्री विमर्श? नारी तो वहीं की वहीं। जस की तस।
फिर एक आइडिया आया। जैसे मैं कठपुतली बनी रही, क्या मैं कठपुतलियों के साथ नाटक नहीं कर सकती? पर कठपुतली तो कभी नचाई ही नहीं। खुद कठपुतली बन कर नाचती रही। फिर क्यों न पुरूष पात्रों का काम कठपुतलियों से लिया जाये? सही भी है। पुरूष को बता सकूं कि मैं नहीं। तुम कठपुतली हो। बस। सीखना शुरू किया। कठपुतली को नचाना। अपनी उंगलियों पर। मेरी बच्ची खुश थी । उसके चेहरे की मुस्कान मेरी जीत थी। मैं घर तो नहीं लौटी पर घर और नाटक के बीच संतुलन बनाना सीख गयी। आज मेरा कठपुतली शो था और मेरा पति सबसे आगे बैठा तालियां बजा रहा था। यह मेरी मंजिल थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.
पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”
साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं? दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”
“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 92 ☆
☆ लघुकथा – अनहोनी ☆
कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ? आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।
वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है। किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – लाँग वॉक
तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको..!.. इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है…हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।
बरसों बाद एक मोड़ पर मिले।…क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ, कई- कई घंटे… साथ वॉक करें कल? …नहीं मेरा वॉक बहुत कम हो गया है। मैं इतना नहीं चल सकता…दम लगने लगता है… हम कभी साथ नहीं चल सकते…, उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 31 – आत्मलोचन– भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
आत्मलोचन ने अंबानी – अदानी परिवार में मुँह में सोने का चम्मच दबाये हुये जन्म नहीं लिया था, बल्कि एक अत्यंत साधारण परिवार में जन्मजात कवच कुंडल जड़ित गरीबी के साथ धरती पर अवतरित हुये थे. बड़ी मुश्किल से मां बाप ने संतान का मुख देखा था तो इस दुर्लभ संतान का उपहार पाकर ईश्वर का वो सिर्फ आभार ही प्रगट कर सकते थे.
आत्मलोचन शिक्षा के प्रारंभिक काल से ही मेधावी छात्र निकले और उनके मुँह में सोने का चम्मच तो नहीं था पर इरादों में TMT के सरिया जैसी मजबूती जरूर थी. पता नहीं कब, पर बहुत जल्द उनको ये समझ आ गया था कि इस गरीबी को इस तरह से उतार फेंकना है कि उनके जीवन भर फिर कभी गरीबी से सामना करने की नौबत न आये. और इसका सिर्फ एक ही रास्ता था कि पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करके सबसे बेहतर परिणाम हासिल किये जायें.
ऐसा हुआ भी, धीरे धीरे उनकी निष्ठा, श्रम और इंटेलीजेंस से वो सारे इम्तिहान नंबर वन की पोजीशन से पास करते गये पर ये सफलता सिर्फ एकेडमिक थी. उनका स्वभाव दिन-ब-दिन कठोर और निर्मोही होता गया और निरंतर बढ़ते मेडल और पुरस्कार उनके मित्रों की संख्या भी कम करते गये. शायद उन्हें इनकी जरूरत भी महसूस नहीं हुई क्योंकि ये सब भी परिवार की आनुवांशिक गरीबी के शिकार थे और आत्मलोचन अपने जीवन से न केवल गरीबी हटाना चाहते थे, बल्कि वो सारे लोग वो सारी यादें भी, जो उन्हें गरीबी की याद दिलाती हों, हमेशा के लिये त्यागना चाहते थे. इतना ही नहीं बल्कि गरीबरथ पर यात्रा करने या गरीबी रेखा से संबंधित चैप्टर उनकी किताबों से और जेहन से गायब थे.
फिल्म एक फूल दो माली के “गीत गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा” पर उनका बिल्कुल भी विश्वास नहीं था और वो उसे अनसुना करने का पूरा प्रयास करते थे. गरीबी को मात देने की ये लड़ाई उन्होंने अपने TMT सरिया जैसे मज़बूत इरादों से आखिर जीत ही ली जब उन्होंने देश की सबसे कठिन, सबसे ज्यादा स्पर्धा वाली UPSC की परीक्षा भी प्राइम प्लेसमेंट के साथ क्लियर की और प्रशिक्षण के लिये लालबहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन मसूरी प्रस्थान किया.
गरीबी की आखिरी निशानी उनके शिक्षक मां-बाप थे जो उनके सपनों की उड़ान के सहभागी थे और फ्लाइट के टेकऑफ करने का इंतज़ार कर रहे थे. सामान्यतः IAS होने से बेहतर और प्रतिष्ठित सफलता का मापदंड भारतीय समाज़ में आज भी दूसरा नहीं है. तो अतीत की गरीबी के जन्मजात कवच कुंडल को अपनी काया और अपने मन मस्तिष्क से पूरी तरह त्यागकर “आत्मलोचन” ने अपने सुनहरे भविष्य की ओर अपने मज़बूत इरादों के साथ उड़ान भरी.
पड़ोस के घर में दूर-दूर से जो परिचित आए उनमें से एक से घनिष्ठता बढ़ गई। बड़े इतने प्यार से दीदी दीदी करते रहे। मैंने सोचा कि अच्छे लोगों से हमेशा परिचय और जान पहचान होनी चाहिए। फोन पर बातचीत के द्वारा पूरे घर परिवार से एक आत्मीयता बंध गई। शादी का कार्ड मिला फोन पर मुझसे कहा गया, नहीं तुम्हें तो बड़ी बहन का दर्जा निभाना है।
मैं भी स्नेह की डोर से बँधी कड़ी गर्मी में राजस्थान जैसी जगह पर सभी के लिए बेशकीमती तोहफ़े और सामानों से लदी फदी पहुंची। आने जाने की टिकट, शादी की तैयारी का खर्च तो अलग था ही। वापस आते समय ₹1 भी मेरे हाथ पर नहीं रखा गया। कहा अरे आप तो बड़ी हैं, हम आपको क्या दें, यकायक मुझे महसूस हुआ कि वहां मेरे जैसी ही और भी बड़ी बहने मौजूद थी।