हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 – लघुकथा – दायरा… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह  एवं नए परिवेश में  पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा  “दायरा … ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 121 ☆

☆ लघुकथा – दायरा 

मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।

बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।

तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर  के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।

पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।

वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।

सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।

जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।

पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।

बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।

आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।

सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।

गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।

पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।

सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 85 – दोषारोपण ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #85 – 🌻 दोषारोपण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था, “कितनी बेकार जगह है ये, बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।

तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!

ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो! तभी एक चमत्कार होता है, नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!

वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था. 

उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला – “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”

उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”

तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।

अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –

मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी। पानी ढोने  का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।

मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को ।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि – एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।

शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.

👉 दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए, आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 103 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 14 – बरस लगेंगी ऊतरा… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (14)  गतांक से आगे

रामायण पाण्डे कथा भी बाँच लेते और थोड़ी बहुत जानकारी ज्योतिष की भी रखते थे। गाँव के लोग अक्सर गुमे हुये गाय बैल व चोरी गई चीजों का पता लगाने पांडेजी के पास आते और कार्य सिद्ध हो जाने पर अपने खेत से उपजी भाटा-भाजी, कुम्हड़ा, लौकी, तरोई  आदि  उन्हे दक्षिणा में दे जाते। बरसात आती तो किसान मंदिर में रामायण को घेर बैठ जाते और बरखा कब होगी या नक्षत्रों की स्थिति पूंछते । रामायण अपना पंचांग निकालते और गणना कर बताते कि

“बरस लगेंगी ऊतरा, माँड पियेंगे कूतरा।“  (ऊतरा नक्षत्र लगते ही वर्षा शुरू हो गई है इसलिए  बाकी नक्षत्रों में भी पानी खूब बरसेगा)

जब चित्रा नक्षत्र लग जाता और बारिश होने लगती तो रामायण किसानों को सलाह देते

“चित्रा बरसें तीन भये, गोऊँ सक्कर माँस। चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥“

(चित्रा नक्षत्र में पानी बरसने वाला है इसलिए गेहूँ और गन्ना की फसल अच्छी होगी पर कोदों तिली व कपास मत बोना इसकी फसल खराब होगी।)

कभी कभी तो रामायण दो तीन महीने पहले ही अकाल की भविष्यवाणी कर देते। जब किसान घबरा कर कारण पूंछते तो कहते कि

“पंचमी कातिक सुकल की , जो होबैं सनिवार। तौ दुकाल भारी परें ,मचिहै हाहाकार॥ “

(इस बार कार्तिक शुक्ल पंचमी को शनिवार का दिन पड़ने वाला है इसलिए भारी अकाल पड़ेगा पहले से व्यवस्था रखो )

कभी कभी औरतें भी मंदिर आती और पंडिताइन के पास बैठ जाती गप्पें करती और अपना भविष्य जानने के लिए धीरे से उकसाती। औरतों को बस दो ही चिंता होती एक अगली संतान मौड़ा होगा  की मौड़ी और दूसरी पिछले साल जन्मा मौड़ा जिंदा रहेगा कि नहीं।

ऐसी ही सास बहू की जोड़ी को रामायण ने एक दिन मंदिर की ओर आते देखा। ‘दोनों पेट से थी’ , रामायण समझ गए कि कैसा प्रश्न सामने आने वाला है। उन्होने पंडिताइन से कहा

‘भागवान तुमाए जजमान आ रय हें, लाओ हमाइ पोथी पत्रा दे देओ’।

सास बहू ने आते ही पहले पंडिताइन को पायें लागी कहा और फिर ओट से पंडित जी को। ‘सूखी रहा का’ आशीर्वाद से दोनों को संतोष न हुआ और दोनों एक साथ अपने बढ़े हुये पेट पर हाथ का इशारा कर पूंछ बैठी ‘ का हुईहे महराज।‘ 

रामायण चुप रहे तो सास बोल पड़ी जा बहू तो चार चार मौडियन की मतारी हो गई है हमाओ कुल कैसे चलहे महराज ।‘

रामायण उस दिन कुछ ज्यादा ही मूड में थे बोल उठे

‘सास बहू की एकई सोर, लच्छों कड़ गई पांखा फोर।‘ (जहाँ सास बहू का प्रसव एक साथ होता है, वहाँ लक्ष्मी नहीं टिकती और पांखा(दीवार) फोड़कर भी  निकल जाती है, परिवार गरीब हो जाता है।)

सास को रामायण का यह व्यंग्य समझ में न आया, बहू से बोली पंडितजी को दंडवत करो और मौड़ा पैदा हो ऐसा आशीर्वाद माँगो।

अब रामायण से रहा न गया मन ही मन सोचा कि कैसी सास है बहू पेट से है और उसे दंडवत प्रणाम करने को कह रही है। खैर बिना विलंब किए उन्होने पुत्र होने की आशीष दी पर सास को इंगित कर यह कहावत भी जड़ दी

‘सावन घोरी भादों गाय, माघ मास जो भैंस ब्याय। जेठे बहू आषाढ़ें सास, तौ घर हू है बाराबाट॥‘

(जिस घर में सावन में घोड़ी, भादों में गाय व माघ मास में भैंस बियाती है और जेठ में बहू तथाआषाढ़ में सास का प्रसव होता है तो ऐसा घर बुरी तरह विनष्ट हो जाता है।) 

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 26 – स्वर्ण पदक – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 26 – स्वर्ण पदक🥇 – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

नलिन कांत बैंक की शाखा के वरिष्ठ बैंकर थे. याने सेवानिवृत्त पर आदरणीय. उन्हें मालुम था कि मान सम्मान मांगा नहीं जाता, भय से अगर मिले तो तब तक ही मिलता है जब तक पद का भय हो या फिर सम्मान देने वाले के मन में भय अभी तक विराजित हो. मेहनत और ईमानदारी से कमाया धन और व्यवहार से कमाया गया मान अक्षुण्ण रहता है, अपने साथ शुभता लेकर आता है. नलिनकांत जी ने ये सम्मान कमाया था अपने मधुर व्यवहार और मदद करने के स्वभाववश.

उनके दो पुत्र हैं स्वर्ण कांत और रजत कांत. नाम के पीछे उनका केशऑफीसर का लंबा कार्यकाल उत्तरदायी था जब इन्होने गोल्ड लोन स्वीकृति में अपनी इस धातु को परखने की दिव्यदृष्टि के कारण सफलता पाई थी और लोगों को उनकी आपदा में वक्त पर मदद की थी. उनकी दिव्यदृष्टि न केवल बहुमूल्य धातु के बल्कि लोन के हितग्राही की साख और विश्वसनीयता भी परखने में कामयाब रही थी.

बड़ा पुत्र स्वर्ण कांत मेधावी था और अपने पिता के सपनों, शिक्षकों के अनुमानों के अनुरूप ही हर परीक्षा में स्वर्ण पदक प्राप्त करता गया. पहले स्कूल, फिर महाविद्यालय और अंत में विश्वविद्यालय से वाणिज्य विषय में स्वर्ण पदक प्राप्त कर, अपनी शेष महत्वाकांक्षाओं को पिता को समर्पित कर एक राष्ट्रीयकृत बैंक में परिवीक्षाधीन अधिकारी याने प्राबेशनरी ऑफीसर के रूप में नियुक्ति प्राप्त कर सफलता पाई. बुद्धिमत्ता, शिक्षकों का शिक्षण, मार्गदर्शन और मां के आशीषों से मिली ये सफलता, अहंकार से संक्रमित होते होते सिर्फ खुद का पराक्रम बन गई.

क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “खुद को देख लो)

☆ लघुकथा – खुद को देख लो ☆

आज कई सालों के बाद मैं उस खेल के मैदान में था, जहां बचपन से लेकर जवानी तक, दोस्तों के संग खेला करता था। मैंने इधर उधर नजर दौड़ाई, कि कहीं कोई परिचित मिल सके। इसी खोज में मेरी नजर अपने ही एक दोस्त पर पड़ी, जो कुछ लोगों के बीच खड़ा बातचीत में व्यस्त था।

मैंने उसके कंधे को थपथपाया, “राहुल, मैं दीपक।” उसने एकदम चौंक पर मुझे देखा और ख़ुशी से चिल्लाया, “अरे दीपक, कैसे हो यार? आज इतने सालों बाद अचानक?”

“हां, बस याद खींच लाई तुम सब दोस्तों की। पुराने दिन ताजा करने आया हूं”, मैंने हर्षातिरेक से कहा, “और तुम सुनाओ, कैसे हो? घर परिवार में क्या चल रहा है?…” और हमारी बातें शुरू हो गईं। वह सबको छोड़ कर मेरे साथ मैदान में घूमने लगा। बातों का सिलसिला जारी था।

बैडमिंटन कोर्ट के पास पहुंचकर अचानक मुझे ख्याल आया, “यार, यहां दो मोटे-मोटे भाई आया करते थे खेलने सुबह-सुबह, याद है?”

“हां बिल्कुल, वही जो इतने भारी थे कि उनसे हिला भी नहीं जाता था, और हम सभी मिलकर उनका खूब मजाक उड़ाते थे।” राहुल ने कहा।

“पर कमाल के थे वो यार, उन पर कभी कोई असर नहीं होता था। मैं और राकेश तो कई बार सीधा-सीधा मुंह पर ही बोल देते थे। पर वाकई, लाजवाब था भई उनका संयम और हौंसला। न तो उन्होंने आना छोड़ा, और न हमारा ताना सुन कर कभी कुछ कहा”, मैंने मजाक भरे लहजे में कहा, “वैसे हैं कहां वह दोनों आजकल? कुछ अता-पता भी है उनका या नहीं? मिल जाते तो देखता, कितने ग्राम वजन कम हुआ है उनका।”

“हां, हैं ना”, राहुल भी हंस पड़ा, “वह देखो, वह जो दो सफेद टी-शर्ट में खड़े हैं।”

“वे पतले-पतले से”, मैंने कहा, “क्यों मजाक कर रहे हो यार, हाथी जैसे वह दोनों घोड़े जैसे कैसे हो गए? यह दोनों तो बड़े चुस्त और फुर्तीले लग रहे हैं।” मेरे लिए यह अविश्वसनीय था।

“वही हैं। दोनों ने मिलकर एक फिटनेस सेंटर खोला हुआ है, जो शहर में सबसे बढ़िया है”, राहुल बता रहा था, “अपनी मेहनत, लगन, सहनशीलता और आत्मविश्वास से उन्होंने यह मुकाम हासिल किया है। वह आज यहाँ के युवाओं के आदर्श हैं।”

 मैं सुन रहा था, और मेरा बाहर निकलता जा रहा पेट मेरा मजाक उड़ा रहा था, जैसे कह रहा हो, ‘लो, अब खुद को देख लो…।‘

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 90 ☆ निष्कासन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘निष्कासन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 90 ☆

☆ लघुकथा – निष्कासन ☆ 

वह सिर झुकाए बैठी थी। चेहरा दुपट्टे से ढ़ंका हुआ था। एक महिला पुलिस तेज आवाज में पूछ रही थी – कैसे आ गई इस धंधे में ? यहाँ कौन लाया तुझे ? बोल जल्दी – उसने सख्ती से कहा। उसने सूनी आँखों से चारों तरफ देखा, उत्तर देने में जख्म हरे हो जाते हैं, पर क्या करे ? ना जाने कितनी बार बता चुकी है यह सब —

सौतेली माँ ने बहुत कम उम्र में मेरी शादी कर दी। मेरा आदमी मुंबई में मजदूरी करता था। सास खाने में रोटी और मिर्च की चटनी  देती थी। आग लग जाती थी मुँह में। पानी पी- पीकर किसी तरह पेट भरती थी अपना। बोलते – बोलते उसकी जबान लड़खड़ाने लगी मानों मिर्च का तीखापन फिर लार में घुल गया हो।

नाटक मत कर,  कहानी सुनने को नहीं बैठे हैं हम, आगे बोल –

पति आया तो उसको सारी बात बताई। वह मुझे अपने साथ मुंबई ले गया। इंसान को मालूम नहीं होता कि किस्मत में क्या लिखा है वरना मिर्च की चटनी खाकर चुपचाप जीवन काट लेती।  अपने आदमी के साथ चली तो गई पर  वहाँ जाकर समझ में आया  कि यहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं। मुझे देखकर गंदे इशारे करते थे। एक रात पति काम के लिए बाहर गया था। रात में कुछ लोग मुझे जबर्दस्ती उठाकर ले गए। बहुत रोई, गिड़गिड़ाई पर —। आधी रात को पत्थरों पर फेंककर चले गए। तन ‌- मन से बुरी तरह टूट गई थी मैं। पति पहले तो बोला कि तेरी कोई गल्ती नहीं है इसमें लेकिन बाद में अपनी माँ की ही बात सुनने लगा। सास उससे बोली कि इसके साथ ऐसा काम हुआ है इसको क्यों रखा है अब घर में, निकाल बाहर कर। उसके बाद से वह मुझे बहुत मारने लगा। हाथ में जो आता, उससे मारता। एक दिन परेशान होकर मैं घर से निकल गई। मायके का रास्ता मेरे लिए पहले ही बंद था। छोटी – सी बच्ची थी मेरी, गोद में उसे लेकर इधर – उधर भटकती रही। कहने को माँ – बाप, भाई, पति सब थे, पर कोई  सहारा नहीं। कुछ दिन भीख मांगकर किसी तरह अपना और बच्ची का पेट भरती रही। तब भी लोगों की गंदी बातें सुननी पड़ती थीं। कब तक झेलती यह सब? एक दिन  ऑटो रिक्शे में बैठकर निकल पड़ी। रिक्शेवाले ने पूछा – कहाँ जाना है? मैंने कहा – पता नहीं, जहाँ ले जाना हो, ले चल। उसने इस गली में लाकर छोड़ दिया। बस तब से यहीं —

और कुछ पूछना है मैडम? उसने धीमी आवाज में पूछा। 

नाम क्या है तुम्हारा ? – थोड़ी नरमी से उसने पूछा।

सीता।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- डर के आगे जीत है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- डर के आगे जीत है  ??

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, “अरेे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा ख़त्म! अब तो डर।” इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा, “अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जायेगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।”

साहस और मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा, ‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 102 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 13 – पंडित केरी पोंथियाँ… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अथ श्री पाण्डे कथा (3)

पंडित केरी पोंथियाँ, ज्यों तीतुर कौ ज्ञान।

औरण सगुण बतात हैं, अपनौ फंद न जान॥

शाब्दिक अर्थ:-  पंडित जी अपनी पोथियों के साथ प्राय: तोता या तीतर पक्षी को साथ लेकर सड़क के किनारे बैठे बैठे लोगों का भविष्य फल बताते हैं। उनकी पोंथियाँ में ज्ञान तीतर के ज्ञान जैसा ही होता है जो दूसरों का सगुन तो बता देता हैं पर पंडित जी अपना स्वयं का  भविष्य नहीं जान पाते और ज़िंदगी सड़क के किनारे बैठे बैठे काट देते हैं।

रामायण पाण्डे के दिन बहुरे। हिरदेपुर गाँव दमोह से कोई 3-4 मील दूर था और बाँसा, जो कोपरा नदी के तट पर बसा है,  से भी नजदीक ही था। काली मिट्टी के खेत में उपज अच्छी हो जाती थी। मंदिर से लगी खेती को रामायण पाण्डे अधिया बटाई पर किसी भी काश्तकार को दे देते और गेंहू, ज्वार, मूंग और तिलहन की इतनी उपज तो हो ही जाती कि भगवान का दोनों समय का भोग लग जाता और उसी भोग से पंडित जी के परिवार का भरण पोषण हो जाता। रामायण ज्यादा लालची न थे अत: खेती की उपज बढ़ाने के कोई अन्य उपाय उन्होने कभी सोचे ही नहीं। बटाईदार जितना दे जाते खुशी खुशी भगवान का प्रसाद समझ मंदिर से लगी कोठरी में रखवा लेते। जब कभी किसान दूध और दही भी भगवान को चढ़ा जाते वह भी रामायण पाण्डे और उनके परिवार के काम आ जाता। पर पंडिताइन को इतने से संतोष न था और उनकी ताने बाजी चलती रहती। पंडिताइन हमेशा रामायण से कहती

‘दूसरन खों तो पुथन्ना पढ़ पढ़ खूब ज्ञान देत हो अपने बारे में भी कच्छु सोचो।‘

रामायण ऐसे अवसर पर चुप रह जाना ही पसंद करते और सिर्फ इतना कहते ‘अरी भागवान संतोष रख, भोले की कृपा से अच्छे दिन आए हैं।‘ पर पंडिताइन भी कहाँ मानती दो चार बातें और सुना देती और जब रामायण के तर्कों के आगे उनकी न चलती तो बिसुरते हुये कह उठती

‘सजीवन के भविष की तो सोचो तुमाए तरीका से तो  चल गई गिरस्ती और हो गओ मोड़ा को बियाव।‘

हार थक रामायण यह कहावत कह चुप हो जाते

“माखी गुड माँ गड़ी रहे पंख रहे लिपटाय हाथ मले अरु सिर धुने कहे लालच बुरी बलाय।‘

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #84 – स्वयं को पहचाने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला “स्वामी जी! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।”

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा-सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा ‘‘तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।’’

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहूँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हांफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा कि  “यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो|”

तो व्यक्ति ने कहा “मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन यह कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।”

स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा  “यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वह ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।”

यही बात लगभग हम सब पर लागू होती है। प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाड़ने में ही रह जाते हैं।

अंततः इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है।

दूसरों से होड़ मत कीजिये, और अपनी मंजिल खुद बनाइये।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #110 – बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “लू की आत्मकथा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 110 ☆

☆ बाल कथा – लू की आत्मकथा ☆ 

मैं लू हूं. लू यानी गरम हवा. गरमी में जब गरम हवा चलती है तब इसे ही लू चलना कहते हैं. क्या आप मुझे जानते हो ? नहीं ना ? तो चलो, मैं आज अपने बारे में बता कर आप को अपनी आत्मकथा सुनाती हूं.

अकसर गरमी के दिनों में गरम हवा चलती है. इसे ही लू चलना कहते हैं. इस वक्त वातावरण का तापमान 40 डिग्री से अधिक हो जाता है. यह तापमान आप के शरीर के तापमान 37 डिग्री से ​अधिक होता है.

इस ताप पर शरीर की स्वनियंत्रित तापमान प्रणाली शरीर का काम ठीकठाक ढंग से  करती है. इस का काम शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखना होता है. यदि वातावरण का तापमान इस ताप से ज्यादा हो जात है और आप लोग गरमी में बाहर निकल कर खेलते हैं तो तब तुम्हारे शरीर की यह प्रणाली सक्रिय हो जाती है. इस वकत् यह शरीर से पसीना बाहर निकालती रहती है  तुम्हारे शरीर का तापमान 37 डिग्री बनाए रखा जा सकें.

पसीना आने से शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है. पसीना हवा से सूख जाता है. इस से शरीर में पानी की कमी होने लगती है. इस वकत आप को प्यास लगने लगती है.यदि आप समयसमय पर पानी पीते हो तो शरीर में पानी की पूर्ति हो जाती है.

कभीकभी इस का उल्टा हो जाता हैत. आप समयसमय पर पानी नहीं पीते हो तो शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस दौरान धूप में खेलने या गरम हवा के संपर्क में आने से शरीर में पानी की कमी होने से वह अपने सामान्य तापमान को बनाए रखने के लिए अधिक पसीना निकाल नहीं पाता है. इस के कारण शरीर का तापमान बढ़ जाता है. शरीर के इस तरह तापमान बढ़ने को लू लगना कहते हैं.

लू लगने का आशय आप के शरीर का तापमान अधिक बढ़ जाना होता है. इस दौरान शरीर अपने तापमान को बनाए रखने में असमर्थ हो जाता है. इस से शरीर को बहुत नुकसान होता हैं. शरीर में पानी की कमी हो जाती है. इस से आप का खून गाढ़ा हो जाता है. जिस से रक्त संचरण में रूकावट आती है. इस रूकावट की वजह से चक्कर आना, उल्टी होना, बेहोशी होना, आंखे जलना जैसी शिकायत होने लगती है. यह सब लू लगने के लक्षण होते हैं.

यदि लू लगने के बाद भी धूप में रहा जाए तो कभीकभी इनसान की मृत्यु हो जाती है. इस कारण गरमी में लू की वजह से कई जनहानि होती रहती है. मगर, आप सोच रहे होंगे कि मैं यानी लू बहुत खतरनाक होती हूं. नहीं भाई, आप का यह सोचना गलत है. मेरे चलने से ही समुद्र के पानी का वाष्पन होता है. इसी की वजह से बरसात आने की संभावना पैदा होती हैं. यदि मैं न होऊं तो आप बहुत सारे काम रूक जाए.

वैसे आप कुछ सावधानियां रख कर मुझे से बच सकते हो. आप चाहते हो कि मैं आप को नुकसान नहीं पहुंचाऊं तो आप को कुछ बातों का ध्यान रखना होगा. गरमी के दिनों में खूब पानी पी कर बाहर खेलना चाहिए. जब भी बाहर जाओ तब सिर पर सफेद कपड़ा या टोपी लगा कर बाहर जाओं. दिन के समय सीधी धूप में न रहो. खूब पानी या तरल पदार्थ पी कर तुम मुझ से और मेरे प्रभाव से बच सकते हो.

बस ! यही मेरी छोटीसी आत्मकथा हैं. यह तुम्हें अच्छी लगी होगी. मैं समझती हूं कि अब आप मुझे अच्छी तरह से समझ गए होंगे. मैं ठीक कह रही हूं ना ?

हां. अब ज्यादा गरदन मत हिलाओं. मैं समझ गई हूं कि तुम समझ गए हो. इसलिए अब मैं चलती हूं. मुझे अपने जिम्मे के कई काम करना हैं. कहते हुए लू तेजी से चली गई.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13/05/2019

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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