(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह
वह बहती रही, वह कहता रहा।
…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।
…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।
… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन– भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मनपसंद कुर्सी से आत्मलोचन जी के प्रबल आत्मविश्वास में और भी ज्यादा वृद्धि हुई और हुक्म चलाने की अदा में कुछ बेहतर पर कड़क निखार आ गया. ये कुर्सी उन्हें सिहांसन बत्तीसी की तरह अधिनायक वादी पर दिनरात एक कर लक्ष्य पाने का ज़ुनून दे रही थी और उनका इस विशिष्ट कुर्सी के प्रति प्रेम, चंद्रकलाओं की तरह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. जिलाधीश को अक्सर किसी न किसी मीटिंग में भाग लेकर अध्यक्षता करनी पड़ती है अथवा संभागीय स्तर के उच्चाधिकारी, प्रभारी मंत्री ,सांसद, विधायकों की अध्यक्षता में आहूत बैठक में भाग लेना पड़ता है.तो जब भी बैठक की अध्यक्षता करनी होती तो बंगले से सिंहासनबत्तीसी की जुड़वां कुर्सी मीटिंग हॉल में आ जाती अन्यथा आत्मलोचन जी को उनसे ऊपर वालों की उपस्थिति में हो रही मीटिंग्स में प्रोटोकॉल के कारण बहुत अनमनेपन से सामान्य कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता.कलेक्टर की अध्यक्षता में साप्ताहिक TL याने टाईमलिमिट मीटिंग पहले हर मंगलवार को निर्धारित थी पर जब उन्होंने पाया कि जिलास्तर के विभागीय प्रमुख अपना सप्ताहांत महानगर स्थित परिवार के साथ बिताने के बाद सोमवार को “देरआयद दुरुस्तआयद” की प्रक्रिया का पालन कर आराम से कार्यालय पहुंचते हैं तो उन्होंने TL meeting को सोमवार 11बजे से लेना प्रारंभ कर दिया. उनके बहुत सारे अधीनस्थ इससे परेशान तो हुये क्योंकि अब उन्हें हर हाल में जिला मुख्यालय में सुबह पहुंचना पड़ता था पर और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था क्योंकि वीकएंड में मुख्यालय बिना अनुमति के छोड़ने की परंपरा यहां पर भी सामान्य रूप से प्रचलन में थी. हर तिमाही रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार होने वाली बैठक उनकी अध्यक्षता में होती थी जिसके बिंदुवार अनुवर्तन के मामले में वो बहुत कुशल और कड़क थे और पिछली मीटिंग्स में दिये गये आश्वासन पूरे नहीं होने पर false promise करने वाले अधिकारियों की कड़क समझाइश भी की जाती थी भले ही वह व्यक्ति उनके अधीन हो या न हो.उनका यह सोचना था कि जिले की प्रगति के साथ अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी है और हर मीटिंग्स के लक्ष्य शत-प्रतिशत पूरा करना उपस्थित अधिकारियों का कर्तव्य.इस बारे में उनके हर कोआर्डिनेटर को स्पष्ट निर्देश थे कि मीटिंग्स अटैंड करनेवाले लोग अधिकारसंपन्न हों,कई बार प्राक्सी लोगों को आने पर मीटिंग्स से वापस भेजने की परिपाटी उनके कार्यकाल में ही रिवाज में आई.
आत्मलोचन जी अविवाहित थे और अपने माता पिता के साथ अपने बंगले में सामान्य पर गरीबी मुक्त वैभवशाली जीवन व्यतीत कर रहे थे जो उनकी प्रतिभा, निष्ठा, परिश्रम और सौभाग्य के कारण उनका हक था पर उनके शिक्षक पिता कभी कभी अपने पुत्र के व्यवहार में संवेदनहीनता, घमंड, निर्दयता की झलक पाकर चिंतित हो जाते थे. पुत्र की असीम उपलब्धियों ने , पिता से पुत्र को सलाह देने या कुछ सुधार करने की पात्रता छीन ली थी और पितृत्व की शक्ति का स्थान, इन अवगुणों को नजरअंदाज करने की निर्बलता लेती जा रही थी.
पुत्र इस बात पर आश्वस्त थे कि पिता ने उसके ऊपर जो भी इन्वेस्ट किया था उससे कई गुना सम्मानित और वैभवशाली जीवन वह अपने पिता को लौटा चुका है तो अब पिताजी को अपना शेष जीवन आराम से अपनी रुचियों (हॉबीज़) के साथ बिताना है और कम से कम पुत्र के जीवन में अब कोई दखलंदाजी करने की जगह नहीं है और आखिर हो भी क्यों और वो क्या समझें कि कलेक्टर का दायित्व कितना बड़ा होता है.
पिता और पुत्र के बीच संवाद की एक ही स्थिति थी “संवादहीनता” जो धीरे धीरे कब अपना स्थान बनाती गई, दोनों को पता नहीं चल पाया. जन्म केे रिश्तों का अपनापन, अधिकार और गरमाहट कब ठंडी पड़ गई ,एहसास बहुत धीमे धीमे हुआ पर आखिर हो ही गया और पिता और पुत्र एक ही बंगले में एक दूसरे के अस्तित्व को अनुपस्थिति के समान उपस्थिति से भरा समय समझते हुये गुजारते जा रहे थे.
एक पुरानी कहानी है। एक युवक आत्महत्या करने जा रहा था। राह में उसे एक साधु मिला। उसने आत्महत्या करने का कारण पूछा तो युवक ने बताया कि मैं बहुत दुखी व परेशान हूँ। जीवन से ऊब चुका हूँ, मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है और गरीबी से तंग आकर मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ।
इस पर वह साधु कुछ देर युवक से इधर-उधर की बातें करने लगा। फिर बोला-” मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूँ, जिसके हाथ नहीं हैं। वह तुम्हारे हाथ के बदले एक लाख रु.दे सकता है। ”
” वाह, मैं भला उसको अपने हाथ कैसे दे सकता हूँ ? ” युवक ने अपने हाथों को देखते हुए कहा।”
” मैं एक और आदमी को जानता हूँ, जिसके पाँव नहीं है। वह तुम्हारे पावों के बदले तुम्हें दो लाख दे सकता है। “
“दो लाख रु. के बदले क्या मैं अपने कीमती पाँव गिरवी रख दूँ ? ” इस बार युवक ने तैश में आकर कहा।
“मैं एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ, जो तुम्हारी आँखों के बदले तुम्हें पाँच लाख रु. दे सकता है। “
साधु के कहने पर युवक इस बार गुस्से से बोला-” मेरी आँख को हाथ लगातेवालों की मैं आँखें फोड़ दूँगा। तुम कैसे साधु हो ? मुझ गरीब को अपाहिज बनाने पर तुले हो। “
इस पर साधु ने हँसते हुए कहा-” यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, तुम्हारे हाथ-पांँव और आँखें मिलाकर ही लाखों होते हैं। फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? ” युवक को बोध हुआ। उसने साधु से क्षमा माँगी और आत्महत्या का विचार छोड़कर एक नये उत्साह से वापस मुड़ गया।
उसके बाद दूसरे दिन वह युवक कहीं बाहर जा रहा था। उसे रास्ते में बाल बिखराए और मुँह लटकाए उसका मित्र मिला। उसने मित्र से कहा- “यार, ये क्या हाल बना रखा है ?”
” क्या बताऊँ यार, बहुत दुखी और परेशान हूँ। माँ-बप बीमार चल रहे हैं। बहन ब्याह लायक हो गई । बीबी और बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इस गरीबी से अच्छा है मौत आ जाए। “
मित्र ने कहा – ‘ ऐसा नहीं कहते मित्र, मैं भी कल तुम्हारी तरह मरने की सोच रहा था। कल मुझे एक साधु मिला-” यह कहकर युवक ने उसे सारा किस्सा सुनाते हुए कहा-” ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? “
मित्र चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा, फिर बोला- “क्या वह साधु सच कह रहा था ? क्या वह ऐसे लोगों को जानता है जो हाथ-पाँव खरीदते हैं?”
“सच ही कहा होगा-साधु लोग झूठ नहीं बोलते, मगर क्यों?”
” कुछ नहीं, यूँ ही।” मित्र ने अपने परिवार को याद करते हुए कहा- “मुझे उस साधु का पता बताना।”
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(जहाँ ऐसी गरीबी हो, ऐसी विवशता हो, वहाँ, इसे मिटाने के अतिरिक्त कुछ और सोचना भी, राजद्रोह है, नैतिक अपराध है और जघन्य पाप भी। यह मेरा अपना निजी मत है। )
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #91 दुःख और सुख ☆ श्री आशीष कुमार☆
पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।
एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगी : “सेठ जी! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।”
सेठ जी बोलेः “अच्छा हुआ….. भला हुआ।” उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है! आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः “सेठ जी! सेठ जी! वह हार मिल गया।” सेठ जी कहते हैं- “अच्छा हुआ…. भला हुआ।”
वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः “सेठजी! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ।’ ऐसा क्यों?”
सेठ जीः “एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।”
अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।
दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।
रिश्तेदार फिर पूछता हैः “लेकिन जब हार मिल गया तब आपने ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ क्यों कहा?”
सेठ जीः “नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,….. भला है….. मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।
जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है। होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है। मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।”
हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।
मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।
संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – कथासरित्सागर
बचपन में पिता ने उसे ‘कथासरित्सागर’ की सजिल्द प्रति लाकर दी थी। छोटी उम्र, मोटी किताब। हर कहानी उत्कंठा बढ़ाती पर बालमन के किसी कोने में एक भय भी होता कि एक दिन इस किताब के सारे पृष्ठ पढ़ लिये जाएँगे, कहानियाँ भी समाप्त हो जाएँगी…, तब कैसे पढ़ेगा कोई नयी कहानी?
बीतते समय ने उसके हिस्से की कहानी भी लिखनी शुरू कर दी। भीतर जाने क्या जगा कि वह भी लिखने लगा कहानियाँ। सरित्सागर के खंड पर खंड समाप्त होते रहे पर कहानियाँ बनी रहीं।
अब तो उसकी कहानी भी पटाक्षेप तक आ पहुँची है। यहाँ तक आते-आते उसने एक बात और जानी कि मूल कहानियाँ तो गिनी-चुनी ही हैं। वे ही दोहराई जाती हैं, बस उनके पात्र बदलते रहते हैं। जादू यह कि हर पात्र को अपनी कहानी नयी लगती है।
कथासरित्सागर के पृष्ठ समाप्त होने का भय अब उसके मन से जाता रहा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 32 – आत्मलोचन– भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हर व्यक्ति को किसी न किसी वस्तु से लगाव होता है, गॉगल, रिस्टवॉच, बाइक, कार, वाद्ययंत्र आदि, पर आत्मलोचन को अपनी सिटिंग स्पेस याने चेयर या डेस्क से बेइंतहा लगाव था. सीमित आय के बावजूद मेधावी पुत्र के लिये शिक्षक पिता ने घर में पढ़ने के लिये शानदार कुर्सी और दराज़ वाली टेबल उपलब्ध करा दी थी. स्कूल और कॉलेज में फ्रंट लाईन पर बैठने की आत्मलोचन की आदत थी और जब कोई शरारती सहपाठी उसकी सीट पर बैठ जाता तो साम दाम दंड भेद किसी भी तरह अपनी सीट हासिल करना उसका लक्ष्य बन जाता. इसमें शिक्षक का रोल भी महत्वपूर्ण होता जो उसके मेधावी छात्र होने का हक बनता था.
मसूरी में प्रारंभिक प्रशिक्षण के दौरान एकेडमी की एक प्रथा का पालन हर प्रशिक्षार्थी को करना पड़ता था जिसमें हर दिन बैठने का सीक्वेंस, सीट और पड़ोसी का बदलना अनिवार्य था. आत्मलोचन को इस परंपरा से बहुत दिक्कत होती थी पर वो कुछ कर नहीं सकता था. इस का लॉजिक यही था कि अलग अलग स्थानों और अलग अलग व्यक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कला का विकास हो जो भावी पोस्टिंग में काम आ सके. प्रशिक्षण और फिर प्रेक्टिकल एक्सपोज़र के विभिन्न दौर से गुजरने के बाद अंततः आत्मलोचन जी IAS, चिरप्रतीक्षित कलेक्टर के पद पर नक्सली समस्याग्रस्त जिले में पदस्थ हुये. जिला छोटा पर नक्सली समस्याओं से ग्रस्त था. आवास तुलनात्मक रूप से थोड़ा छोटा पर सर्वसुविधायुक्त था और ऑफिस नया चमचमाता हुआ अपने राजा का इंतज़ार कर रहा था जो इस जिले के पहले direct IAS थे. वे सारे अधीनस्थ अधिकारी /कर्मचारी जो अब तक किसी अधेड़ उम्र के राजा के सिपाहसलार थे अब राजा के रूप में राजकुमार सदृश्य व्यक्ति को पाकर अचंभित थे और शायद हर्षित भी. उन्हें लगा कि कल के इस छोकरे को तो वो आसानी से बहला फुसला लेंगे पर ऐसा न होना था और न ही हुआ. जब भी कोई युवा कलेक्टर के पद पर इस उम्र में पदस्थ होता है तो अपने सपनों, हौसलों और आदर्शों को मूर्त रूप देने की कशिश ही उसका दृढ़ संकल्प होता है और इसे सफल बनाने में उसकी प्रतिभा, प्रशिक्षण और प्रेक्टिकल एक्सपोज़र बहुत काम आते हैं.
आत्मलोचन जी के इरादे टीएमटी सरिया के समान बचपन से ही मजबूत थे और बहुत जल्द सबको समझ आ गया कि साहब कड़क हैं और वही होता है जो साहब ठान लेते हैं. पर कलेक्टर का पद सुशोभित करने के बावजूद कलेक्टर कक्ष की कुर्सी साहब को रास नहीं आ रही थी तो उनकी पसंद के अनुसार दो नई कुर्सियां आर्डर की गई एक जिस पर आत्मलोचन जी ऑफिस में सुशोभित हुये और दूसरी उनके बंगले पर उनके (work from home too) के लिये भेजी गई.
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी – “स्कूल की बड़ी बहनजी”।)
☆ संस्मरण # 109 – स्कूल की बड़ी बहनजी – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
वर्ष 1995 की गर्मियों में जब चौंतीस वर्षीया अर्थ शास्त्र में स्नातकोत्तर और बीएड की उपाधिधारी युवा रेवा रानी घोष ने अखबार में एक विज्ञापन देखा तो अपनी जन्म स्थली रांची को छोड़कर सुदूर आदिवासी अञ्चल में आदिवासियों की सेवा करने चली आई । यह संकल्प जब उन्होंने अपने पिता जोगेश्वर घोष और माता भवानी घोष को बताया तो घर में तूफान उठना स्वाभाविक था । ऐसे में वह विज्ञापन जब बड़ी बहन छविरानी घोष ने देखा तो वह आनंद से उछल पड़ी। विज्ञापन देने वाले डाक्टर प्रवीर सरकार, रामकृष्ण मिशन रांची के स्वामी गंभीरानन्द जी के द्वारा दीक्षित थे और इस प्रकार उनके गुरु भाई थे। बहन ने माता-पिता को समझाया कि ‘रेवा समाज सेवा की इच्छुक है, यदि उसका विवाह कर भी दिया तो भी वह अपने संकल्प के प्रति समर्पित रहेगी और ग्रहस्थ जीवन के प्रति न्याय नहीं कर सकेगी उसे जाने दें ।‘ और इस प्रकार 02.02.1962 को रांची वर्तमान झारखंड में जन्मी एक युवती अपने नाम के अनूरुप रेवा अञ्चल की आदिवासी बालिकाओं की बड़ी बहनजी बनकर अमरकंटक आ गई ।
मैंने जब उनसे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ के आरंभ की कहानी जाननी चाही तो वे भूतकाल में खो गई । वर्ष 1996 में जब यह विद्यालय शुरू हुआ तो पहला ठिकाना लालपुर गाँव का एक कच्चा मकान बना । लाल सिंह धुर्वे की इस झोपड़ी में कोई दरवाजा न था । आसपास के गांवों से पंद्रह बच्चियाँ लाई गई, जिनमे से अधिकांश अत्यंत पिछड़ी आदिवासी आदिमजनजाति बैगा समुदाय की थी । कच्ची झोपड़ी में डाक्टर सरकार और रेवारानी घोष इन्ही बच्चियों के साथ रहते और रात में बारी-बारी से चौकीदारी करते ताकि छात्राएं भाग न जाए। बाद में जब टीन का दरवाजा लग गया तो रतजगा कम हुआ पर दिन तो और भी मुश्किल भरे थे । पहली दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली बालिकाओं को माता-पिता की याद आती और वे दरवाजा खोलकर भाग देती, तब डाक्टर सरकार के साथ बहनजी भी कक्षा में पढ़ाना छोड़ उस बालिका के पीछे दौड़ लगाते और उसे पकड़ कर वापस पाठशाला में ले आते । अबोध बालिकाएं कभी रोती, कभी मचलती और हाथ पैर फटकारती । उन्हें प्यार से समझा बुझाकर स्कूल में रोके रखना दुष्कर कार्य था । शुरुआत के दिन मुश्किल भरे थे, फिर एक और शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी आ गए, तब बच्चों को दिन में सम्हालना सरल हो गया ।
छोटी-छोटी बालिकाओं का पेट भरना भी एक बड़ी समस्या थी । डाक्टर सरकार सदैव इसी जुगाड़ में लगे रहते कि किसी तरह कहीं से धन मिले तो अनाज खरीदें। अक्सर उतनी धान नहीं मिल पाती की बच्चों को भरपेट भोजन कराया जा सके । और ऐसे में कभी भात तो कभी पेज से काम चलता । पेज बैगा आदिवासियों का प्रिय पेय है, इसे पकाने मक्का, कोदो,कुटकी, चावल को कूट-पीसकर हँडिया में डाल चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है और एक या दो घंटे बाद जब यह भलीभाँति सिक जाता है तब उसमें पर्याप्त ठंडा पानी डाल कर उसे पिया जाता है । अकेला चावल गले न उतरता, दालें खरीदना तो आर्थिक स्थिति में संभव नहीं था । ऐसे में चावल को खाने के लिए पकरी की भाजी का प्रयोग होता । पकरी, पीपल जैसा ही वृक्ष है और पतझड़ के बाद जब नई कपोलें इसमें आती तो उन्हें उबालकर सब्जी के रूप में खाया जाता । कसैले स्वाद वाली पकरी की भाजी खाने में बैगा कन्याएं तो सिद्धहस्त थी पर रेवा इसे बमुश्किल गुटक पाती।
अक्सर यह होता कि चावल इतना पर्याप्त न होता कि सबका पेट भरा जा सके। ऐसे में बालिकाएं भोजन पकाने के बर्तन की तांक-झांक करती और जब हँडिया को खाली देखती तो अपनी थाली में से एक एक मुट्ठी अन्न निकाल देती । यही पंद्रह मुट्ठी अन्न डाक्टर सरकार और बड़ी बहनजी का उदर पोषण करता ।
विद्यालय के दिन फिरे, भारत सरकार के आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के संज्ञान में डाक्टर सरकार का यह प्रकल्प आया । केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों की संयुक्त टीम ने लालपुर की झोपड़ी में संचालित विद्यालय का निरीक्षण किया और फिर भवन निर्माण हेतु अनुदान स्वीकृत किया । लेकिन एक बार फिर प्रारब्ध के आगे पुरुषार्थ हार गया । समीपस्थ ग्राम भमरिया में भवन निर्माण का काम शुरू हुआ। नीव बनते ही कुछ स्वार्थी तत्वों ने भोले भाले आदिवासियों को भड़काने में सफलता पाई और डाक्टर सरकार को ग्रामीणों के तीव्र, कुछ हद तक हिंसक विरोध का सामना करना पड़ा। इन विकट परिस्थितियों में पोड़की के गुलाब सिंह गौड़ ने अपनी जमीन भवन निर्माण हेतु दी और जब 2001 में विद्यालय भवन बन गया तो थोड़ी राहत मिली । सभी बच्चे और कर्मचारी उस भवन में रात्रि विश्राम करते और सुबह उसी जगह बच्चे पढ़ते । बाद में जनसहयोग से कर्मचारी आवास, छात्रावास, अतिथिगृह आदि निर्मित हुए।
मैंने पूछा भवन आदि बनने के बाद तो समस्या खत्म हो गई होगी । रेवारानी घोष कहती हैं कि कठिनाइयाँ बहुत आई पर बाबूजी (डाक्टर सरकार) अनोखी मिट्टी के बने थे । एक बार तो लगातार तीन साल तक केंद्र सरकार से अनुदान नहीं मिला । बच्चों को भोजन की व्यवस्था किसी तरह उधार और दान की रकम से चलती रही पर कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया जा सका। सभी लोग बाबूजी के साथ खड़े रहे और जब अनुदान की रकम आई तो बाबूजी ने पुराना हिसाब चुकाया, उन लोगों को भी बुला-बुलाकर बकाया वेतन दिया गया जो स्कूल छोड़ कर अन्यत्र चले गए थे ।
मैंने कहा आप स्थानीय लोगों से जनसहयोग क्यों नहीं लेती। वे कहती हैं कि यहाँ के मूल निवासी अत्यंत गरीब हैं, उनके खुद के खाने का ठिकाना नहीं रहता, ऐसे में उनसे आर्थिक सहयोग की अपेक्षा करना अमानवीय होगा । हाँ अक्सर विद्यालय में सार्वजनिक कार्यक्रम होते रहते हैं तब यहाँ के आदिवासी सेवा कार्य में पीछे नहीं रहते।
मैंने कहा कि जब आप युवा थी और उच्च शिक्षित थी तो सरकारी नौकरी कर घर बसाने की इच्छा नहीं हुई । वे कहती हैं कि रामकृष्ण मिशन से मानव सेवा की जो शिक्षा मिली थी उसको निभाना ही लक्ष्य था। कभी भी अपने इस निर्णय पर पछतावा नहीं हुआ। ऐसा कहते हुए उनकी आँखों में चमक आ गई ।
उनसे पढ़कर अनेक आदिवासी बैगा बालिकाएं शासकीय सेवा में हैं और कुछ अल्प शिक्षित इसी विद्यालय में कार्य करती हैं । वे सब अक्सर अपनी मातृ स्वरूपा बहनजी से मिलने सेवाश्रम आती हैं और बहनजी भी कितनी व्यस्त क्यों न हों अपनी इन मुँह बोली बेटियों को गले लगाती है ।
बच्चों के बीच बड़ी बहनजी के नाम से लोकप्रिय रेवा रानी घोष आज भी कर्मचारी आवास के छोटे से कमरे में रहती हैं । और राम कृष्ण मिशन से मानव सेवा ही माधव सेवा है के जो संस्कार उन्हे मिले थे उसका पालन पूरी निष्ठा, लगन और समर्पण भाव से कर रही हैं । आप उन्हें कभी रसोई घर में भोजन पकाते तो कभी बच्चों को पढ़ाते तो यदाकदा प्राचार्य कक्ष में देख सकते हैं ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – प्रार्थना।)
☆ लघुकथा – प्रार्थना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
“तुम रोज़ सुबह क्या प्रार्थनाएँ बुदबुदाती हो।”
“मैं अपने देवताओं से प्रार्थना करती हूँ।”
“क्या माँगती हो इनसे?”
“कुछ नहीं।”
“ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो माँगती ही होगी। मुझे लगता है अपने और अपने देश के लिए बेहतर भविष्य माँगती हो।”
“भविष्य तो वे लोग तय करते हैं जिनके हाथ में वर्तमान का नियंत्रण होता है। उन्हीं के आज के कार्यकलाप में भविष्य देखा जा सकता है।”
“तो फिर भविष्य में क्या देख रही हो तुम?”
“गुंडों की दनदनाती टोलियाँ! सब के एक जैसे कपड़े, एक जैसे नारे, एक जैसी गालियाँ। सबके हाथ में चाक़ू, तलवार, फरसे, पिस्टल। सबके चेहरों पर नृशंसता… सब तरफ़नफ़रत की आग जिसमें प्यार लकड़ी की तरह जल रहा है… सब तरफ़ धर्म का शोर है पर धर्म कहीं नहीं… मौत का जश्न मनाते वीभत्स चेहरे… और… और…”
“इतना भयानक भविष्य अगर तुम देख रही हो तो फिर यह प्रार्थना किसके लिए?”
“इस नृशंसता के बावजूद मुझे यक़ीन है कि कुछ लोग इन्सानियत को बचाने में जुटे रहेंगे। मैं चाहती हूँ कि सूर्य, पृथ्वी, जल और वायु देवता कभी कुपित न हों। ये हमेशा ऐसेलोगों के साथ बने रहें। बस यही प्रार्थना मैं रोज़ इन देवताओं से करती हूं।”
“मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं में इन देवताओं की सलामती की दुआ शामिल करता हूँ। वर्तमान जिनके नियंत्रण में है, वे इन्सान और इन्सानियत के ही नहीं, देवताओं के भी शत्रु हैं।”
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कठपुतली… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
मैं जड़ की जड़। वहीं की वहीं खड़ी रह गयी थी। लगा जैसे कोई प्रतिमा बनने का शाप दे दिया हो मुझे। क्या जो सुना वह वही था? जो सुना वह किसी नाटक का संवाद तो नहीं था। वह तो जिंदगी के किसी खास पल की गूंज थी।
-यहां मैं डायरेक्टर हूं और मैं ही हीरो। यह नाटक मेरे दम पर है। इस खेल तमाशे का दारोमदार मुझ पर है, तुम पर नहीं। समझीं।
पहली बार जैसे होश में आई और फिर जड़ की जड़ रह गयी। पहली बार सुनीं नेपथ्य में अपनी छोटी सी बच्ची के रोने की आवाज़। पहली बार सुनी अपने पति की बात-इन नाटकों में कुछ नहीं रखा। जिंदगी देखो अपनी। नाटकों की झूठी शोहरत से बच्चे नहीं पल सकते। गृहस्थी नहीं चल सकती। लौट आओ। लौट आओ।
सच। क्या मेरा पति ही सच कह रहा था? मैं उसे लगातार अनसुना करती थी और उसकी सज़ा आज पाई? क्या मैं नाटक में कुछ भी नहीं थी? क्या नाटक मेरे दम पर नहीं था? क्या नाटक में मेरा कोई मतलब नहीं था? मैं थी भी और नहीं भी? यानी मैं होकर भी नहीं थी? मेरी कोई जरूरत नहीं थी? मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था? मेरे होने या न होने का कोई फर्क नहीं था। पर मुझे तो था। फिर मैं क्यों इनके साथ चलती रहूं?
वह सभागार जिसमें उस शाम हमारा शो होने वाला था पता नहीं कैसे मैंने वह पूरा किया। बाकी कांट्रैक्ट भी पूरे किए। फिर लौट आई अपने घर। कुछ दिन जैसे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ यह हुआ क्या? जिसके साथ मैंने शहर दर शहर की खाक छान कर नाटक मंडली को खड़ा किया, जमाया, वही कह गया बड़ी आसानी से -तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। यह नाटक मंडली चलती रहेगी क्योंकि मैं ही हूं इसका निर्देशक और नायक। जैसे कह रहे हों मैं ही हूं खलनायक भी।
-मैं कुछ भी नहीं?
-भ्रम में जीना हो तो जी लो। तुम कुछ नहीं।
यह क्या सुना था मैंने? क्या यही सुना था मैंने?
-ठीक है। मैं कुछ नहीं तो अब से और आज से नहीं रहूंगी आपके साथ।
-मत रहो। चला लूंगा तुम्हारे बगैर। नाटक बंद नहीं हो जायेगा। जाओ।
-चली जाऊंगी। मैं पैसे के लिए नहीं आई थी आपके साथ। रंगकर्म के लिए आई थी। वह आपके बगैर भी हो सकता है। यह मैं भी साबित कर दूंगी। चैलेंज एक्सेप्टिड।
एक नारी जागी थी जैसे मूर्छा से। कितनी लम्बी मूर्छा रही। कितने बरस की मूर्छा रही।
खुद ही ऑफर दिया था। आप हमारे साथ आओ न। मैंने हिम्मत जुटाई। परिवार से लड़ी। सब कुछ सुना जो एक ब्याहता नहीं सुन सकती। सब सहा। पर नाटक मेरा जुनून बन गया। यहां से वहां। वहां से यहां। शहर दर शहर। देस ही नहीं परदेस। नाम। शोहरत। पर पैसा नहीं लिया एक भी। सिर्फ समर्पण। दिया ही दिया। कास्ट्यूम भी अपने खर्च पर। पर मिला क्या?
-जाओ। वहम में न जीओ। यह,,,बस यही सुनना था।
-तो सुनो। मैं भी आपके दम पर नहीं। अपने दम पर आई थी मंच पर। अपने दम पर लौट कर दिखा दूंगी। यह चैलेंज स्वीकार।
वह लौट आई। वही सारे कास्ट्यूम लेने घर भेज दिए जूनियर आर्टिस्ट जो मेरे ही पैसों से बने थे। मैंने चुपचाप सब सौंप दिए। ले जाओ। खुद बनवा लूंगी। अरे। आप साथ नहीं होंगे तो क्या मंच पर नहीं जाऊंगी? देखना एक दिन। इस तरह हमारे रास्ते अलग अलग हो गये थे। एक एक शहर में, एक ही संस्थान में हम अजनबी बन कर रह गये थे।
अंदर एक ज्वालामुखी धधकता रहता। कुछ कर दिखाना है। कुछ कर गुजरना है। इस कर गुजरने की गूंज मन में गूंजती रहती। सवाल यह भी कि नारी की कोई भूमिका नहीं? क्या कला की दुनिया में नारी सिर्फ शोभा की वस्तु है? नारी को इतना ही सम्मान है कि हमारी मर्जी से चलो। फिर वह चाहे कला हो या परिवार या समाज? सब एक ही डंडे से हांकते हैं नारी को या नारी के लिए एक ही डंडा है या पैमाना है? कहीं कोई बदलाव नहीं? यह कैसा सशक्तिकरण? कैसा स्त्री विमर्श? नारी तो वहीं की वहीं। जस की तस।
फिर एक आइडिया आया। जैसे मैं कठपुतली बनी रही, क्या मैं कठपुतलियों के साथ नाटक नहीं कर सकती? पर कठपुतली तो कभी नचाई ही नहीं। खुद कठपुतली बन कर नाचती रही। फिर क्यों न पुरूष पात्रों का काम कठपुतलियों से लिया जाये? सही भी है। पुरूष को बता सकूं कि मैं नहीं। तुम कठपुतली हो। बस। सीखना शुरू किया। कठपुतली को नचाना। अपनी उंगलियों पर। मेरी बच्ची खुश थी । उसके चेहरे की मुस्कान मेरी जीत थी। मैं घर तो नहीं लौटी पर घर और नाटक के बीच संतुलन बनाना सीख गयी। आज मेरा कठपुतली शो था और मेरा पति सबसे आगे बैठा तालियां बजा रहा था। यह मेरी मंजिल थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.
पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”
साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं? दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”
“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “