(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 ☆
लघुकथा – संविधान एक नियम
एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।
अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।
चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।
फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?
चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।
फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?
फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “असली कमाई“।)
☆ लघुकथा – असली कमाई ☆
मोहन अपने रिश्तेदारों को छोड़ने रेलवे स्टेशन पर आया हुआ था। उसका दोस्त सुमन भी उसके साथ था। गाड़ी आने में अभी कुछ समय बाकी था। तभी दो लोग रेलवे पायलट की वर्दी में वहां से गुजरे। जैसे ही उनकी नजर मोहन पर पड़ी, वह एकदम उसकी तरफ लपके और हाथ जोड़कर बड़े शिष्टाचार से बोले, “नमस्कार सर, पहचाना? मैं पायलट सचिन और यह मेरा सहायक पायलट दिलबाग। और साहब, यहां कैसे?”
मोहन ने कहा, “नमस्कार, कैसे हो बंधु? बस, यह मेरे रिश्तेदार हैं, इन्हें गाड़ी चढ़ाने आया था।“
पायलट ने कुछ इशारा किया और सहायक पायलट तुरंत चला गया। थोड़ी ही देर में वह चाय और कुछ स्नैक्स लेकर प्रकट हो गया।
“अरे यह क्या?” मोहन ने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि पायलट बोल पड़ा, “कुछ नहीं जनाब, आप बस लीजिए।“ और उन दोनों ने बिना देर किए चाय और स्नैक्स सबको पकड़ा दिए।
“सचिन भाई, यह सब…।” मोहन कुछ बोलने को हुआ, पर सचिन ने मौका ही नहीं दिया, “क्या साहब, आप हमारा इतना ख्याल रखते हैं, तो छोटे भाई होने के नाते हमारा क्या इतना भी हक नहीं बनता। प्लीज सर, बुरा मत मानना इसके लिए। अच्छा चलते हैं, नमस्कार।” कह कर दोनों चले गए। इतने में ही गाड़ी के आगमन की घोषणा हो गई और वह खा-पी कर अपना सामान संभालने लगे।
रिश्तेदारों को गाड़ी में बैठाकर जब वह बाहर निकले, तो सुमन ने पूछ ही लिया, “यह क्या था?”
मोहन, “कुछ नहीं, अपने स्टाफ के ही हैं। दरअसल मैं हेडक्वार्टर में हूं, और इनका डीलिंग क्लर्क हूं। इनकी ट्रांसफर-प्रमोशन मेरे द्वारा ही डील होती हैं। मैं अपना कर्तव्य समझकर समय से पहले ही इनका काम पूरा करने की कोशिश करता हूं, तो पूरा स्टाफ भी मेरी बहुत इज्जत करता है। अब तुम सोचो कि यदि मैं थोड़े बहुत रुपयों के लालच में, जैसा कि मेरे कई साथी करते भी हैं, इनका काम रोकूँ, इन्हें परेशान करूं, और फिर कुछ ले-देकर इनका काम करूं, तो मैं कितना धन इकट्ठा कर लूं, परंतु जो इज्जत ऐसे यह मेरी मेरे रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों में करते हैं, क्या यह इज्जत मैं कभी पा सकता हूं? मेरे लिए तो यही असली कमाई है…।”
“यह तो है।” सुमन को भी उसका दोस्त होने पर गर्व हो रहा था।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “भोग”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 ☆
☆ लघुकथा — भोग ☆
मकर संक्रांति के दिन थाली में सजे चढ़ावे को देखकर उसकी आंखों में चमक आ गई। उसने चढ़ावा उठाया। एक अखबार में रखा। फिर दौड़ पड़ा।
दूर सामने एक झोपड़ी थी। उसमें गया। बिस्तर पर बीमार बचा लेटा हुआ था, “ले दोस्त! यह प्रसाद है। खा लेना। तेरे शरीर में कुछ ताकत आ जाएगी,” कहते हुए वापस झोपड़ी से बाहर निकल गया।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा मोक्ष
उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।
मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।
देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।
अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।
संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी।
……..धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 15 – परम संतोषी भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
परम संतोषी के नाम से जानते थे बैंक में उन्हें, वैसे नाम था पी.एल.संतोषी. नाम के अनुरूप ही संतोषी जीव थे उप प्रबंधक महोदय. वेतनमान में सारे स्टेगनेशन इंक्रीमेंट पा चुके थे, डी.ए.जब सबका बढ़ता तो सबके साथ उनका भी बढ़ जाता. वेज़ रिवीज़न के लिये हाय तौबा करते नहीं थे, क्योंकि वो जानते थे कि जिस मंथर गति से वो बैंक में काम करते थे, वेज़ रिवीज़न उससे भी कई गुना धीमी गति से आता था. “कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचनम” का बोध वाक्य उनकी डेस्क पर हमेशा शोभायमान रहता था. बैंक में काम करने के प्रति विरक्त थे पर साहित्यिक ग्रंथो का पठन पाठन उनकी वाक्पटुता हमेशा उच्च कोटि की रखता था. हिंदी साहित्यजगत के मूर्धन्य व्यक्तियों के जीवन के दृष्टांत दे देकर सामने अल्पज्ञानी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने की कला में माहिर थे संतोषी साहब और कस्टमर उनके प्रवचन के चक्कर में अक्सर भूल जाते थे कि वो बैंक किस काम से आये थे. जब तक होश आता, दुनिया लुट चुकी होती थी याने बैंक बंद होने का समय आ चुका होता. तो “आशा पर आकाश टंगा है” की आस लेकर कस्टमर इस कसम के साथ विदा लेते कि कल से इन संतोषी साहब के चक्कर में फंसना नहीं है. बैंक आयेंगे, अपना काम निपटायेंगे और इन साहब से सोशल डिस्टेंसिंग बनाकर रखेंगे. हालांकि उस जमाने में ये शब्द डिक्शनरी में ही कैद था,आज के समान बच्चे बच्चे की जुबान पर वायरस के जैसे चढ़ नहीं पाया था.
निस्पृहता जैसा कठिन शब्द संतोषी साहब को देखकर आसानी से समझ में आ जाता था. प्रमोशन और पुत्ररत्न पाना उनके भाग्य में नहीं था पर इसके लिये न उनको विधाता से शिकायत थी न ही बैंक से. पोस्टिंग और सुदूर स्थानांतरण से भय उनको लगता नहीं था. जहाँ के ऑर्डर आते अपनी भार्या और तीन कन्या रत्नों के साथ पहुंच जाते. बैंक तो बैंक, अर्धांगिनी भी उनको अपने रंग में ढाल नहीं पाती थी. उच्च प्रबंधन हो या संघ के पदाधिकारी, सब उनकी वरिष्ठता और काम नहीं करने की कला से वाकिफ थे और ये भी जान चुके थे कि इस बंदे को तो हमसे कुछ चाहिए ही नहीं तो इनका क्या करें. उनके साथ कभी काम कर चुके लोग क्षेत्रीय प्रबंधक का पद सुशोभित कर रहे थे पर संतोषी साहब का परम संतोषी स्वाभाव ऐसी सांसारिक माया से मुक्त था. जीवन और नौकरी अपने हिसाब से जीने या करने की उनकी अदा से उनके शाखा के मुख्य प्रबंधक हमेशा परेशान भी रहते थे पर उनका इस ब्रांच में होने को अपना नसीब मान चुके थे. जब ईश्वर ने उनकी पोस्टिंग इस ब्रांच में सुनिश्चित की थी तो बात ज़ोनल प्लेसमेंट कमेटी की बैठक से प्रारंभ हुइ जब चार कर्मवीरों के साथ पांचवे सांत्वना पुरस्कार के रूप में इनके नाम का भी चयन किया गया. जिस रीज़न को ये मिलने वाले थे, स्वाभाविक था कि वो इन्हें अनचाही संतान समझकर विरोध कर बैठे. तब उप महाप्रबंधक महोदय ने अपनी धीर गंभीर उच्च प्रबंधन की शैली में समझाया कि जीवन से 100% अच्छा पाने की उम्मीद करना अव्यवहारिकता है. तुम्हें तो सिर्फ एक रीज़न चलाना है पर मुझे तो पूरे माड्यूल को मैनेज करना पड़ता है. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय, उप महाप्रबंधक महोदय के इन उद्गगारों को अपने प्रबंधकों पर आजमाने के लिये अपनी मेमोरी में सेव कर चुके थे इसलिए obediently yours की प्रथा का पालन करते हुये इन्हें हर्षरहित होकर और ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकार किया और जैसा कि विधाता ने सुनिश्चित किया था. संतोषी साहब मुख्य प्रबंधक शासित एक शाखा में उप प्रबंधक की हैसियत से पदस्थ कर दिये गये. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय ने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को सूचित न करने की व्यवहारिकता के साथ पोस्टिंग आदेश के साथ संतोषी साहब को उनकी ब्रांच रवाना कर दिया. और इस तरह संतोषी साहब अपनी सदा सर्वदा संतुष्ट मुद्रा के साथ अपना स्थानांतरण आदेश लेकर मुख्य प्रबंधक महोदय के चैंबर में पहुंच ही गये. “होइये वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढावै साखा” पर शाखा के मुख्य प्रबंधक इस कहावत को भूल गये जब वो ये जान गये कि ये सज्जन कोइ कस्टमर नहीं बल्कि अपने हिसाब से नौकरी करने वाले परम संतोषी साहब हैं जो उनके नसीब में किसी दुर्घटना के समान घटित हो चुके थे. कभी कभी या अक्सर काम नहीं करने वाले ज्यादा प्रसिद्धि पा जाते है तो संतोषी साहब को काफी लोग जानते थे और इस सूची में शाखा के मुख्य प्रबंधक भी थे. उन्होंने फौरन क्षेत्रीय प्रबंधक जी को फोन लगाया, साहब के करीबी थे क्योंकि बिजनेस करके देते थे तो बात इस तरह शुरू हुई “सर, हमारी ब्रांच तो पार्किंग लॉट बन गई है, इनको भी हम ही झेलें क्या?”
“अरे यार,स्टाफ तो तुम्हीं मांगते हो और जब देते हैं तो फिर नखरे बाजी करते हो.”
“सर, काम करने वाला मांगा था और आपने इन्हें भेज दिया, किसी ब्रांच का मैनेजर बना दीजिए.”
“अरे, कैसी बात करते हो यार, ब्रांच बैठ जायेगी. बड़ी ब्रांच में तो वैसे ही एडजस्ट हो जायेंगे जैसे दूध में पानी. तुम्हारे आसपास तो बहुत सी ब्रांच हैं, रिलीफ अरेंजमेंट के लिये यूज़ कर लेना.”
ऐसा भी होता है जब अपनी शर्तों पर नौकरी करने वाले संतोषी साहब जैसे लोग डेपुटेशन के नाम पर अतिरिक्त राशि पा जाते हैं.
तो अंतत: मुख्य प्रबंधक महोदय ने न चाहने के बावजूद संतोषी साहब को उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे माता अपनी पसंद और सहमति के बिना आई बहू को स्वीकार कर लेती है.
इस तरह संतोषी साहब की गाड़ी चलने लगी.
ये कहानी का पहला भाग है तो आगे भी जारी रहेगा. व्यंग्य है, जो पुराने दृष्टान्तों और व्यक्तियों के अवलोकन और कुछ कल्पनाओं पर आधारित हैं पर उद्देश्य सिर्फ भूतकाल के अनुभवों के माध्यम से मनोरंजन प्रदान करना ही है. हास्यरस का आनंद लीजिए, प्रोत्साहित करेंगे तो अगली कड़ी के लिये ऊर्जा मिलेगी. धन्यवाद।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #92 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 3- कार्यालयीन दौरा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
बड़े साहब के कक्ष से पांडे जी, सहायक महाप्रबंधक के साथ बाहर निकले तो मन में लडुआ फूट रहे थे। नीचे अग्रणी बैंक विभाग के कक्ष में पहुंचते ही सहायक महाप्रबंधक ने पांडेजी को गले से लगा लिया । बोले गजब पांडे तुम तो आज शेर की माँद से जीवित निकाल आए। पांडे जी भी झट बोल उठे “सरिता, कूप, तड़ाग नृप, जे घट कबहुँ न देत, करम कुम्म जाकौं जितै सो उतनों भर लेत।“ (नदी कुआँ तालाब और राजा सबको मनचाहा देते हैं, जिसका जितना कर्म और पुरुषार्थ होता है वह उतना ही प्राप्त कर लेता है।) ऐसे तो अवस्थी जी और पांडे जी में सदैव खटा-पटी होती रहती, लोग इन दोनों के आरोप प्रत्यारोपों का मजा लेते हुए यही कहते “कुत्ता, बामन, नाऊ जात देख गुर्राऊ।“ पांडे जी का उपरोक्त कहावत कहना अवस्थी जी को खल तो गया पर आज का दिन पांडे जी का था और उन्हे नाराज करना यानि ‘बर्रन के छिदनों में हांत डारबों’ जानबूझकर आपत्ति मोल लेना होता। इसीलिए वे चुप रह गए।
खैर पांडे जी ने अवस्थी जी के साथ मिलकर प्रस्ताव तैयार करवाया और लगे हाथ बड़े साहबों की स्वीकृति ले ली। जब यह प्रक्रिया चल रही थी तब पांडे जी को रह रहकर पंडिताइन की याद आ रही थी । पिछले एक महीने से वे हटा जाकर भी पंडिताइन से ठीक से मिल भी न सके थे और पंडिताइन भी उलाहना देती रहती थी, तो पांडे जी ने उचित अवसर जान कर अवस्थी जी से अपना यात्रा कार्यक्रम हटा जाने का स्वीकृत करा लिया, बहाना यह बनाया कि कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार से बिजूका कार्यशाला की बात पक्की करनी है। अवस्थीजी भी पांडे जी के मन में उठ रहे प्रेमालाप की बात समझ गए और मुस्कराते हुए उन्हें हटा दो दिन रुकने की अनुमति दे बैठे।
रात के दो बजे जब पांडेजी दमोह स्टेशन पर उतरे तो टेक्सी उनका इंतजार कर रही थी। हमेशा दमोह से हटा बस के धक्के खाते हुए जाने वाले पांडेजी का भाग्य आज पांचों उँगरिया घी में और सर कड़ाही में की कहावत को चरितार्थ कर रहा था। ब्रह्ममुहूर्त में पांडेजी को घर आया देख पंडिताइन खुश तो हो गई पर तनक बिदक भी गई कारण पिछली बार पांडेजी से हुई तकरार का रोष अभी भी सर चढ़कर बोल रहा था।
सुबह उठते ही पांडे जी ने अपने अधोवस्त्र, धोती और गमछा खोजा और सरकारी गाड़ी में बैठकर सुनार नदी की ओर चल दिए। पांडेजी जब कभी कोई बड़ा तीर मारकर हटा आते तो सुनार नदी में डुबकी लगाने जरूर जाते। बुंदेलखंड की जीवन रेखा सुनार नदी, पांडे जी के लिए काशी की गंगा, वृंदावन की यमुना और नाशिक की गोदावरी से कम पवित्र न थी । नहा धोकर पवित्र पांडे जी ने सुरई घाट पर अवस्थित पंचमुखी शिव मंदिर की ओर रुख किया और रुद्राभिषेक के लिए पूजन सामग्री के साथ साथ गाय का एक किलो शुद्ध दूध भी क्रय कर लिया । मंदिर के पुजारी को पांडेजी का यह स्वरूप आश्चर्यचकित कर गया । उसने तो पांडे जी को सदैव एक पाव दूध में भरपूर पानी मिलाकर, मंदिर की पूजन सामग्री से ही पूजा करते और दक्षिणा देने में आनाकानी करते देखा था । पण्डितजी ने भी पूजा शुरू करने के पहले उलाहना दे ही दिया कि आज सूरज नारायण पश्चिम दिशा से कैसे कढ़ आए । पांडेजी आज परमसुख का अनुभव कर रहे थे उन्होंने पण्डितजी के कटाक्ष का कोई उत्तर तो नहीं दिया पर भोपाल में फहराई गई विजय पताका का वर्णन ‘धजी कौ साँप’ या तिल का ताड़ राई का पहाड़’ बनाकर अवश्य करते हुए बोला कि आज तो भगवान की पूजा पूरे विधि विधान से करा दो। पंडित जी भी समझ गए कि आज लोहा गरम है, पहले दक्षिणा की बात तय की फिर दाहिने हाथ में अक्षत, जल व मुद्राएं रखवाकर संकल्प का मंत्र पढ़ दिया और साथ ही मंत्र के अंत में पांडे जी से दक्षिणा की रकम भी बोलवा दी । पंडित का पूर्व अनुभव इस मामले में अच्छा न था और अक्सर उन्हे पांडेजी अपर्याप्त दक्षिणा देते थे।
मंदिर में पूजा पाठ कर आगे बढ़े ही थे कि पांडेजी को दूर से नाऊंन आती दिखी । इस नाऊंन की गोदी में पांडेजी ने बचपन बिताया था और उसके प्रति उनके मन में सदैव सम्मान रहा है। पांडेजी ने नाऊंन को प्रणाम काकी कहा बदले में नाऊंन के मुख से ‘सुखी रहो बिटवा’ और ‘आज देख के तुम्हें हमाओ जी जुड़ा गओ’। पांडेजी को गदगद देखकर नाऊंन ने भी यही कहा आज तो बिटवा बड़े खुश दिख रहे हो। पांडेजी ने नाऊंन को भी भोपाल का सारा किस्सा बड़े चाव से सुनाया और गमछे में बंधा प्रसाद उसे दिया । नाऊंन भी पांडेजी को यह कहते हुए कि बेटा तुमाओ डंका बजतई रहे और जल्दी से पटवारी बन जाओ आगे बढ़ गई।
घर पहुंचकर पांडेजी ने पंडिताइन को धीरे से इशारा कर कमरे में बुलाया और गलबैयाँ डाल दी। पंडिताइन ने तनिक क्रोध दिखाते हुए कहा कि आज तो बड़ा प्रेम उमड़ रहा है पिछली बार तो नकुअन पै रुई डाले घूमत रहे थे, खूब गुस्सा हो रहे थे । पांडे जी ने पंडिताइन की बात का बुरा न माना । उलटे उसके मुँह में भोपाल से लाई मिठाई का टुकड़ा डालते हुए भोपाल में अपने अगवान होबे का पूरा किस्सा एक सांस में सुना डाला। पति की इस सफल दास्तान को बड़े ध्यान से सुनने के बाद पंडिताइन के मुख से यही निकला कि पिटिया सुद्ध होकें तुम जोन काम में जुट जात हो तो तुम्हें सफलता मिलती ही है। ऐसी बात तो हमाए दद्दा हमेशा से कहते रहे है।
पंडिताइन के हाथ की बनी रसोई से निवृत होकर सरकारी गाड़ी में पांडेजी झामर की ओर कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार से मिलने चल पड़े।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हिस्सेदारी”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 110 ☆
? लघुकथा – हिस्सेदारी ?
ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी। रिटायर्ड अध्यापक और उनकी पत्नी अपनी अपनी सीट पर आराम कर रहे थे। तभी टी टी ने आवाज़… लगाई टिकट प्लीज रानू ने तुरंत मोबाइल आन कर टिकट दिखाई और कहीं जरा धीरे मम्मी पापा को अभी अभी नींद लगी है तबीयत खराब है मैं उनकी बेटी यह रहा टिकट।
टिकट चेकिंग कर वह सिर हिलाया अपना काम किया चलता बना।
अध्यापक की आंखों से आंसू की धार बहने लगी। बरसों पहले इसी ट्रेन पर एक गरीब सी झाड़ू लगाने वाली बच्ची को दया दिखाते हुए उन्होंने उस के पढ़ने लिखने और उसकी सारी जिम्मेदारी ली थी विधिवत कानूनी तौर से।
पत्नी ने तक गुस्से से कहा था… देखना ये तुम जो कर रहे हो हमारे बेटे के लिए हिस्सेदारी बनेगी। आजकल का जमाना अच्छा नहीं है।
मैं कहे देती हूं इसे घर में रखने की या घर में लाने की जरूरत नहीं है।
अध्यापक महोदय उसको हॉस्टल में रखकर पूरी निगरानी किया करते। तीज त्यौहारों पर घर का खाना भी देकर आया करते थे।
समय पंख लगा कर निकला।बेटे हर्ष ने बड़े होने पर अपनी मनपसंद की लडकी से शादी कर लिया। बहू के आने के बाद घर का माहौल बदलने लगा बहू ने दोनों को घर का कुछ कचरा समझना शुरु कर दिया। दोनों अच्छी कंपनी में जॉब करते थे।
रोज रोज की किट किट से तंग होकर बहु कहने लगी घर पर या ये दोनों रहेंगे या फिर मैं।
रिटायर्ड आदमी अपनी पत्नी को लेकर निकल जाना ही उचित समझ लिया। और आज घर से बाहर निकले ही रहे थे कि सामने से बिटिया आती नजर आई।
चरणों पर शीश नवा कर कहा…मुझे माफ कर दीजिएगा पिताजी आने में जरा देर हो गई। चलिए अब हम सब एक साथ रहेंगे। माँ का पल्लू संभालते हुए बिटिया ने कहा… बरसो हो गए मुझे माँ के हाथ का खाना नहीं मिला है। अब रोज मिलेगा। मुझे एक अच्छी सी जाब मिल गई हैं।
माँ अपनी कहीं बात से शर्मिंदा थी। यह बात अध्यापक महोदय समझ रहे थे। हंस कर बस इतना ही कहें.. अब समझ में आया भाग्यवान हिस्सेदारी में किसको क्या मिला।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…!’ )
☆ लघुकथा # 121 ☆ भूख…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
सास बहू की जमकर लड़ाई हुई।
सास ने बहू के मायके वालों को गरियाया, बहू ने सास के बेटे और आदमी को कुछ कुछ कहा। (समझदार को इशारा काफी)
दोनों थक गई थी, मुंह फुलाए बैठीं थी।दोपहर को दोनों को खूब भूख लगी।
सास ने गरमागरम दाल बनाईं। बहू ने स्वादिष्ट सब्जी बनाईं।
दोनों खाने बैठीं, तो सास ने सब्जी की तारीफ कर दी, तुरंत बहू ने मुस्कुराते हुए खूब सारी गरमागरम दाल सास के कटोरे में भर दी। जब सास की जीभ जल गई तो बहू ने दाल की तारीफ कर दई।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #75 – अपनी पड़ताल स्वयं करे☆ श्री आशीष कुमार☆
“दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।”
एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।
जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,”महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,”हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,”महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।
अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। “राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, “राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।
आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है वृद्धावस्था पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘धूल छंट गई’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 82 ☆
☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆
दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है, दे दो ना !
दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली ।
हाँ यही है मेरी पतंग, दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला। लड़के की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का।
वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो । अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है, फिर वही झगड़ा। यही काम बचा है क्या मेरे पास ? पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें? नहीं दूंगा पतंग, जाओ यहाँ से। बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन। सब मिलकर पतंग उड़ाते थे, खूब मस्ती होती थी। बच्चे विदेश चले गए और —
दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा। कुछ उत्तर ना पाकर वह बड़बड़ाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का, कभी किसी की पतंग नहीं देते, आज क्यों देंगे —
तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना, इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं, तुझे चाहिए?
हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला।
तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उड़ानी पड़ेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा ।
लड़के की आँखें चमक उठीं, जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ, बस्स – यूँ गया, यूँ आया। वह दौड़ पड़ा।
दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे।