जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता
☆ कथा – कहानी ☆ दीप पर्व विशेष – चौराहे का दीया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
दंगों से भरा अखबार मेरे हाथ में है पर नज़रें खबरों से कहीं दूर अतीत में खोई हुई हैं।
इधर मुंह से लार टपकती उधर दादी मां के आदेश जान खाए रहते। दीवाली के दिन सुबह से घर में लाए गये मिठाई के डिब्बे और फलों के टोकरे मानों हमें चिढ़ा रहे होते। शाम तक उनकी महक हमें तड़पा डालती। पर दादी मां हमारा उत्साह सोख डालतीं, यह कहते हुए कि पूजा से पहले कुछ नहीं मिलेगा। चाहे रोओ, चाहे हंसो।
हम जीभ पर ताले लगाए पूजा का इंतजार करते पर पूजा खत्म होते ही दादी मां एक थाली में मिट्टी के कई दीयों में सरसों का तेल डालकर जब हमें समझाने लगती – यह दीया मंदिर में जलाना है, यह दीया गुरुद्वारे में और एक दीया चौराहे पर,,,,,
और हम ऊब जाते। ठीक है, ठीक है कहकर जाने की जल्दबाजी मचाने लगते। हमें लौट कर आने वाले फल, मिठाइयां लुभा-ललचा रहे होते। तिस पर दादी मां की व्याख्याएं खत्म होने का नाम न लेतीं। वे किसी जिद्दी,प्रश्न सनकी अध्यापिका की तरह हमसे प्रश्न पर प्रश्न करतीं कहने लगतीं – सिर्फ दीये जलाने से क्या होगा ? समझ में भी आया कुछ ?
हम नालायक बच्चों की तरह हार मान लेते। और आग्रह करते – दादी मां। आप ही बताइए।
– ये दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे से एक सी रोशनी, एक सा ज्ञान हासिल कर सको। सभी धर्मों में विश्वास रखो।
– और चौराहे का दीया किसलिए, दादी मां ?
हम खीज कर पूछ लेते। उस दीये को जलाना हमें बेकार का सिरदर्द लगता। जरा सी हवा के झोंके से ही तो बुझ जाएगा। कोई ठोकर मार कर तोड़ डालेगा।
दादी मां जरा विचलित न होतीं। मुस्कुराती हुई समझाती
– मेरे प्यारे बच्चो। चौराहे का दीया सबसे ज्यादा जरूरी है। इससे भटकने वाले मुसाफिरों को मंजिल मिल सकती है। मंदिर गुरुद्वारे को जोड़ने वाली एक ही ज्योति की पहचान भी।
तब हमे बच्चे थे और उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ। मगर आज हमें उसी चौराहे के दीये की खोजकर रहे हैं, जो हमें इस घोर अंधकार में भी रास्ता दिखा दे।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
असहमत के पिताजी के दोस्त थे शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.
अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी. नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उन…
डॉक्टर, साहब जी की बीमारी समझ गये और अवसाद याने depression का पहले सामान्य इलाज ही किया. पर नतीजा शून्य था क्योंकि अवसाद की जड़ें गहरी थीं. थकहारकर एक्सपेरीमेंट के नाम पर सलाह दी कि “सर आप अपने घर के एक शानदार कमरे को ऑफिस बना लीजिए और वो सब रखिये जो आपके आलीशान चैंबर में रहा होगा. AC, heavy curtains, revolving chair, teakwood large table, two or three phones, intercoms, etc. etc. जब ये सब करना पड़ा तो किया गया और फिर सब कुछ उसी तरह सज गया सिर्फ कॉलबेल या इंटरकॉम को अटैंड करने वाले को छोड़कर. अंततः ऐसे मौके पर भूले हुए क्लासफेलो याद आये. सादर आमंत्रित किया गया. मालुम था कि असहमत को इस काम के लिये दोस्ती के नाम पर यूज़ किया जा सकता है. असहमत के पिता जी भी इंकार नहीं कर पाये, क्योंकि इस कहावत पर उनका विश्वास था कि कुछ भी हो, निवृत्त हाथी भी सवा लाख…
असहमत के ज्वाईन करते ही साहब का डमी ऑफिस शुरु हो गया. असहमत का रोल मल्टी टास्किंग था, पीर बावर्ची भिश्ती, खर सब कुछ वही था, सिर्फ आका का रोल साहब खुद निभा रहे थे.इस प्रयोग ने काफी प्रभावित किया, साहब को लगी अवसाद याने डिप्रेशन की बीमारी को और धीरे धीरे असहमत साहब का प्रिय विश्वासपात्र बनता गया.असहमत भी मिल रही importance और चाय, लंच, नाश्ते के कारण काफी अच्छा महसूस कर रहा था पर जो एक जगह रम जाये वो जोगी और असहमत नहीं और अभी तो बहुत कुछ घटना बाकी था जिसमें असहमत का हिसाब बराबर करना भी शामिल था. साहब भी बिना मलाई के अफसरी करते करते बोर भी हो गये थे और अतृप्त भी. चूंकि अपने मन की हर बात वो अब असहमत से शेयर करने लगे थे तो उन्होंने उससे दिल की बात कह ही डाली कि “वो अफसर ही क्या जो सिर्फ तनख्वाह पर पूरा ऑफिस चलाये ” और इसी बात पर ही असहमत के फ़ितरती दिमाग को रास्ता सूझ गया हिसाब बराबर करने का. तो अगले दिन इस डमी ऑफिस में कहानी के तीसरे पात्र का आगमन हुआ जो बिल्कुल हर कीमत पर अपना काम करवाने वाले ठेकेदारनुमा व्यक्तित्व का स्वामी था. साहब भी भूल गये कि ऑफिस डमी है और लेन देन का सौदा असहमत की मौजूदगी में होने लगा. आगंतुक ने अपने डमी रुके हुये बिल को पास करवाने की पेशगी रकम पांच सौ के नोटो की शक्ल में पेश की और साहब ने अपनी खिली हुई बांछो के साथ फौरन वो रकम लपक ली, थोड़ा गिना, थोड़ा अंदाज लगाया और जेब में रखकर हुक्म दिया “जाओ असहमत जरा इनकी फाईल निकाल कर ले आओ. फाईल अगर होती तो आती पर फाईल की जगह आई “एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम”. साहब हतप्रभ पर टीम चुस्त, पूरी प्रक्रिया हुई, हाथ धुलवाते ही पानी रंगीन और साहब का चेहरा रंगहीन. ये शॉक साहब को वास्तविकता के धरातल पर पटक गया और उन्होंने आयुक्त को समझाया कि सर ये सब नकली है और हमारे ऑफिस ऑफिस खेल का हिस्सा है. पर आयुक्त मानने को तैयार नहीं, कहा “पर नोट तो असली हैं, शिकायत भी असली है और शिकायतकर्ता भी असली है. आपका पुराना कस्टमर है और शायद पुराना हिसाब बराबर करने आया है. फिर उन्होंने रिश्वतखोर अफसर को अरेस्ट करने का आदेश दिया.
अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है. अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस
इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।
भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।
….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?
…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।
पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।
अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “धनलक्ष्मी ”। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 102 ☆
? लघुकथा – धनलक्ष्मी ?
लगातार व्यापार में मंदी और घर के तनाव से आकाश बहुत परेशान हो उठा था। घर का माहौल भी बिगड़ा हुआ था। कोई भी सही और सीधे मुंह बात नहीं कर रहा था। सभी को लग रहा था कि आकाश अपनी तरफ से बिजनेस पर ध्यान नहीं दे रहा है और घर का खर्च दिनों दिन बढ़ता चला जा रहा है।
आज सुबह उठा चाय और पेपर लेकर बैठा ही था कि अचानक आकाश के पिताजी की तबीयत खराब होने लगी घर में कोहराम मच गया। एक तो त्यौहार, उस पर कड़की और फिर ये हालात। किसी तरह हॉस्पिटल में भर्ती कराया। घर आकर पैसों को लेकर वह बहुत परेशान था कि पत्नी उमा आकर बोली… चिंता मत कीजिए सब ठीक हो जाएगा। मैं और तीनों बेटियों ने कुछ ना कुछ काम करके कुछ रुपये जमा कर रखा है, जो अब आपके काम आ सकता है। बेटियों ने ट्यूशन और सिलाई का काम किया है।
पिताजी का इलाज आराम से हो सकता है। आकाश अपनी तीनों बेटियों और पत्नी से नफरत करने लगा था। क्योंकि उसे तीन बेटियां हो गई थी। रुपयों से भरा बैग देकर उमा ने कहा… आपका ही है, आप पिताजी को स्वस्थ कर घर ले कर आइए।
आकाश अपनी पत्नी और बेटियों का मुंह देखता ही रह गया। सदा एक दूसरे को कोसा करते थे परिवार में सभी लोग। परंतु आज वह रुपए लेकर अस्पताल गया, मां समझ ना सकी कि इतने रुपए कहां से लाया।
मां ने समझाया… आज धनतेरस है शाम को मैं तेरे बाबूजी के साथ रह लूंगी। घर जा कर पूजा कर लेना।
पूजा का सामान लेकर वह घर पहुंचा। पत्नी ने सारी तैयारी कर रखी थी और तीनों बेटियों को लेकर एक जगह बैठ गई थी। आकाश ने पूजा शुरू की और आज सबसे पहले अपनी धनलक्ष्मी और धनबेटियों को पुष्प हार पहना, तिलक लगाकर वह बहुत प्रसन्न था।
मन ही मन सोच रहा था सही मायने में आज तक मैं लक्ष्मी का अपमान करता रहा आज सही धनतेरस की पूजा हुई है। उमा और तीनों बेटियां बस अपने पिताजी को देखे जा रही थी। घर दीपों से जगमगा रहा था। बेटियों ने बरसों बाद अपने पिताजी को गले लगाया और माँ के नेत्र तो आंसुओं से भीगते चले जा रहे थे।
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय कहानी रद्दीवाला। )
☆ कथा – कहानी ☆ !! ” रद्दीवाला ” !! ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी ” ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी..” की आवाज लगाता घूमता रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।
उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-” मै बाहर जा,रही हूँ , इससे तीस रूपये ले लेना । ” कह वह चली गई।
मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-” कोई जल्दी नहीं, आराम से देना, थोड़ा सुस्ता लो। ” वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। ” पानी पीओगे ? ” मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।
मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- ” शुक्रिया “
“अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ? “
“पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । “
मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा लगा। पुराने ही सही, बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।
“इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। “दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों में एक चमक भरते बोला-” फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।”
“दो माले जैसे….? ” मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि….,
रद्दीवाला जब ” रद्दी…रद्दी…” की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। ” ये सब उठा लो ” सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की…, ” तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। ‘ सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि….” रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। “
बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में…, आश्चर्य और प्रसन्नता है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- ” मैंने कौन-सा स्साला पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।” रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।
अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी “रद्दी- रद्दी” की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।
आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,” -ऐ… जाता कहाँ..?… पैसे…?”
वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का-सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि ” साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए….- । ” उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया। फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ ” ऐ…, जाता कहाँ…?… पैसे…?” अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।
इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #64 – मैं तुम्हारे साथ हूँ … ☆ श्री आशीष कुमार☆
प्रतिवर्ष माता पिता अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में उसके दादा दादी के घर ले जाते। 10-20 दिन सब वहीं रहते और फिर लौट आते। ऐसा प्रतिवर्ष चलता रहा। बालक थोड़ा बड़ा हो गया।
एक दिन उसने अपने माता पिता से कहा कि अब मैं अकेला भी दादी के घर जा सकता हूं ।तो आप मुझे अकेले को दादी के घर जाने दो। माता पिता पहले तो राजी नहीं हुए। परंतु बालक ने जब जोर दिया तो उसको सारी सावधानी समझाते हुए अनुमति दे दी।
जाने का दिन आया। बालक को छोड़ने स्टेशन पर गए।
ट्रेन में उसको उसकी सीट पर बिठाया। फिर बाहर आकर खिड़की में से उससे बात की ।उसको सारी सावधानियां फिर से समझाई।
बालक ने कहा कि मुझे सब याद है। आप चिंता मत करो। ट्रेन को सिग्नल मिला। व्हीसिल लगी। तब पिता ने एक लिफाफा पुत्र को दिया कि बेटा अगर रास्ते में तुझे डर लगे तो यह लिफाफा खोल कर इसमें जो लिखा उसको पढ़ना बालक ने पत्र जेब में रख लिया।
माता पिता ने हाथ हिलाकर विदा किया। ट्रैन चलती रही। हर स्टेशन पर लोग आते रहे पुराने उतरते रहे। सबके साथ कोई न कोई था। अब बालक को अकेलापन लगा। ट्रेन में अगले स्टेशन पर ऐसी शख्सियत आई जिसका चेहरा भयानक था।
पहली बार बिना माता-पिता के, बिना किसी सहयोगी के, यात्रा कर रहा था। उसने अपनी आंखें बंद कर सोने का प्रयास किया परंतु बार-बार वह चेहरा उसकी आंखों के सामने घूमने लगा। बालक भयभीत हो गया। रुंआसा हो गया। तब उसको पिता की चिट्ठी। याद आई।
उसने जेब में हाथ डाला। हाथ कांपरहा था। पत्र निकाला। लिफाफा खोला। पढा पिता ने लिखा था तू डर मत मैं पास वाले कंपार्टमेंट में ही इसी गाड़ी में बैठा हूं। बालक का चेहरा खिल उठा। सब डर दूर हो गया।
मित्रों,
जीवन भी ऐसा ही है।
जब भगवान ने हमको इस दुनिया में भेजा उस समय उन्होंने हमको भी एक पत्र दिया है, जिसमें लिखा है, “उदास मत होना, मैं हर पल, हर क्षण, हर जगह तुम्हारे साथ हूं। पूरी यात्रा तुम्हारे साथ करता हूँ। वह हमेशा हमारे साथ हैं।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दुख में सुख । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 75 ☆
☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆
माँ की पीठ अब पहले से भी अधिक झुक गयी थी। डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है और याददाश्त कमजोर हो जाती है।
गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो आम बात हो गयी थी। कई बार वह खुद ही झुंझलाकर कह उठती– पता नहीं क्या हो गया है ? कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ? झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही झुकी पीठ में टीस उठती।
बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। सब कुछ भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता रहती कि मायके से अच्छी यादें लेकर ही जाएं बेटियां। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए वह हँसती-गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ खेलती, खिलखिलाती…….. ?
गर्मी की रात, थकी-हारी माँ नाती पोतों से घिरी छत पर लेटी थी। इलाहाबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं। वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है- चिडिया, कौआ, तोता सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो, बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे, उनके लिए अच्छा खेल था।
माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी – बेटी, बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरूरी है यह। जब से थोडा भूलने लगी हूँ , मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी बात थोड़ी देर असर करती है फिर किसने क्या कहा, क्या ताना मारा……. कुछ याद नहीं। ठंडी हवा चलने लगी थी । माँ कब सो गयी पता ही नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “चोर !”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 ☆
☆ लघुकथा — चोर ! ☆
नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”
“आप उसे उतारते नहीं है?”
“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।
“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।
“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”
यह सुन कर एकटक देखता रहा।
“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”
“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।
“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”
यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सिर्फ हंसने के लिये है.
बहुत दिनों के बाद असहमत की मुलाकात बाज़ार में चौबे जी से हुई, चौबे जी के चेहरे की चमक कह रही थी कि यजमानों के निमंत्रणों की बहार है और चौबे जी को रोजाना चांदी की चम्मच से रबड़ी चटाई जा रही है. वैसे अनुप्रास अलंकार तो चटनी की अनुशंसा करता है पर चौबे जी से सिर्फ अलंकार ज्वेलर्स ही कुछ अनुशंसा कर सकता है. असहमत के मन में भी श्रद्धा, ?कपूर की भांति जाग गई. मौका और दस्तूर दोनों को बड़कुल होटल की तरफ ले गये और बैठकर असहमत ने ही ओपनिंग शाट से शुरुआत कर दी.
चौबे जी इस बार तो बढिया चल रहा है,कोरोना का डर यजमानों के दिलों से निकल चुका है तो अब आप उनको अच्छे से डरा सकते हो,कोई कांपटीशन नहीं है.
चौबे जी का मलाई से गुलाबी मुखारविंद हल्के गुस्से से लाल हो गया. धर्म की ध्वजा के वाहक व्यवहारकुशल थे तो बॉल वहीँ तक फेंक सकते थे जंहां से उठा सकें. तो असहमत को डपटते हुये बोले: अरे मूर्ख पापी, पहले ब्राह्मण को अपमानित करने के पाप का प्रायश्चित कर और दो प्लेट रबड़ी और दो प्लेट खोबे की जलेबी का आर्डर कर.
असहमत: मेरा रबडी और जलेबी खाने का मूड नहीं है चौबे जी, मै तो फलाहारी चाट का आनंद लेने आया था.
चौबे जी: नासमझ प्राणी, रबड़ी और जलेबी मेरे लिये है, पिछले साल का भी तो पेंडिंग पड़ा है जो तुझसे वसूल करना है.
असहमत: चौबे जी तुम हर साल का ये संपत्ति कर मुझसे क्यों वसूलते हो, मेरे पास तो संपत्ति भी नहीं है.
चौबे जी: ये संपत्ति टेक्स नहीं, पूर्वज टेक्स है क्योंकि पुरखे तो सबके होते हैं और जब तक ये होते रहेंगे, खानपान का पक्ष हमारे पक्ष के हिसाब से ही चलेगा.
असहमत: पर मेरे तो पिताजी, दादाजी सब अभी इसी लोक में हैं और मैं तो घर से उनके झन्नाटेदार झापड़ खाकर ही आ रहा हूं, मेरे गाल देखिये, आपसे कम लाल नहीं है वजह भले ही अलग अलग है.
चौबेजी: नादान बालक, पुरखों की चेन बड़ी लंबी होती है जो हमारे चैन का स्त्रोत बनी है. परदादा परदादी, परम परदादा आदि आदि लगाते जाओ और समय की सुइयों को पीछे ले जाते जाओ. धन की चिंता मत कर असहमत, धन तो यहीं रह जायेगा पर ब्राह्मण का मिष्ठान्न भक्षण के बाद निकला आशीर्वाद तुझे पापों से मुक्त करेगा. ये आशीर्वाद तेरे पूर्वज तुझे दक्षिणा से संतुष्ट दक्षिणमुखी ब्राह्मण के माध्यम से ही दे पायेंगे.
असहमत बहुत सोच में पड़ गया कि पिताजी और दादाजी को तो उसकी पिटाई करने या पीठ ठोंकने में किसी ब्राह्मण रूपी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती.
उसने आखिर चौबे जी से पूछ ही लिया: चौबे जी, हम तो पुनर्जन्म को मानते हैं, शरीर तो पंचतत्व में मिल गया और आत्मा को अगर मोक्ष नहीं मिला तो फिर से नये शरीर को प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करने लगती है तो फिर आपके माध्यम से जो आवक जावक होती है वो किस cloud में स्टोर होती है. सिस्टम संस्पेंस का बेलेंस तो बढता ही जा रहा होगा और चित्रगुप्तजी परेशान होंगे आउटस्टैंडिंग एंट्रीज़ से.
चौबे जी का पाला सामान्यतः नॉन आई.टी. यजमानों से पड़ता था तो असहमत की आधी बात तो सर के ऊपर से चली गई पर यजमानों के लक्षण से दक्षिणा का अनुमान लगाने की उनकी प्रतिभा ने अनुमान लगा लिया कि असहमत के तिलों में तेल नहीं बल्कि तर्कशक्ति रुपी चुडैल ने कब्जा जमा लिया है.तो उन्होंने रबड़ी ओर जलेबी खाने के बाद भी अपने उसी मुखारविंद से असहमत को श्राप भी दिया कि ऐ नास्तिक मनुष्य तू तो नरक ही जायेगा.
असहमत: तथास्तु चौबे जी, अगर वहां भी मेरे जैसे लोग हुये तो परमानंद तो वहीं मिलेगा और कम से कम चौबेजी जैसे चंदू के चाचा को नरक के चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से रबड़ी तो नहीं चटानी पड़ेगी.
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है दो भागों में आपकी एक संवेदनशील कथा ‘जलपत्नी‘ जो महाराष्ट्र के उन हजारों गांवों से सम्बंधित है, जहाँ पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है ।)
☆ कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 2 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी☆
फिर थोड़ी देर चुप्पी के बाद,‘संजीबा के घर का तोता ‘राम राम’ तो कहता है, मगर कितनी गाली बकता है! बापरे बाप! सब संजीबा की दादी से सीखा है। वह जो दिन भर संजीबा की आई को गाली बकती रहती है।’
कहने के लिए तो देनगानमल की सपत्नियां सगी बहनों की तरह रहती हैं। मगर हर एक का कमरा और चौका बर्तन अलग ही होता है। ऐसा नहीं कि संयुक्त परिवार की तरह सब एक ही जगह खाना खाते हैं। तो सखाराम के आँगन में भी और एक कमरा बन गया। सखाराम दो एक रात वहीं खाना खाता, वहीं सोता। इससे तो रामारती के मन में और भी घृताहुति होने लगी। जिस तरह छुरी चाकू पर सान देने के लिए कुरंड पत्थर पर उन्हें रगड़ने से उनकी कुंद धार तेज हो जाती है, उसी तरह अपनी किस्मत से रगड़ खा खाकर रामारती के मुँह के शब्द भी तीर बनते चले गये।
शादी के दूसरे दिन ही सुबह सखाराम भागी को जगाने लगा,‘ऐ उठ। चल, तुझे आज कुआँ दिखा लाते हैं।’
एक तो नई जगह, ऊपर से दो दिन का कर्मकांड, फिर बीती रात का अहसास – भागी तो मुश्किल से आँख खोल पा रही थी। फिर वह उठ गयी और मुँह हाथ धो कर तैयार होने लगी। ऐसे तो देनगानमल में औरतें ऊपर लंबा ब्लाउज और नीचे छोटा घागड़ा जैसा कपड़ा पहन कर बाहर निकलती हैं, मगर आज वह साड़ी में ही लिपटी हुई थी। बस सिर के ऊपर उसने मजबूती से एक पगड़ी बाँध रक्खी थी। और उस पर दो बड़े और एक छोटे घड़े रख लिये। फिर कमर पर एक।
सखाराम नई दुलहन को लेकर निकल ही पड़ा था कि सचिनि भी आँख मलते हुए रामारती के कमरे से बाहर आँगन में आ गया,‘ए आई, मैं भी नई आई के साथ कुएँ पर चलूँगा ….।’
‘तू जाकर क्या करेगा? चुप मारकर लेटा रह।’ रामारती झुँझला उठी – देवा हो देवा! इस डायन ने जाने कौन सा मंतर फूँक दिया है मेरे लाल पर!
‘नहीं, मैं भी चलूँगा।’ वह अपना पैर पटकने लगा,‘अण्णा -’
‘चलने दो न दीदी। मेरा भी मन बहल जायेगा।’ भागी ने कहा तो रामारती झट से मुड़ कर अंदर चली गई।
सखाराम ने बेटे का हाथ थाम लिया। रास्ते भर सचिनि कभी बापू के पास रहता, तो कभी भाग कर भागी के पास चला जाता,‘नई आई, कबूतर तो सफेद और भूरे दोनों होते हैं, मगर कौवा सिर्फ काला ही क्यों होता है?’
गीता के प्रश्नों का उत्तर शायद विद्वानों के पास हों, मगर इस बालगोपाल के सवालों का जवाब भागी बेचारी कहाँ तक देती? भले ही घड़े खाली हों, मगर सर पर बोझ तो था ही। उन्हें सँभालना भी था। साथ ही लौटते समय सर पर के वजन की कल्पना से भी तो रूह काँप रही थी। हे सांईनाथ, घर का एक कोना पाने के लिए सारी जिन्दगी यह कीमत चुकानी पड़ेगी?’
छोटे छोटे पत्थर और कंकड़ों से भरे करीब ढाई तीन किमी. रास्ता चलकर वे तीनों गांव के कुँए तक पहुँचे। इधर उधर दो एक बबूल और जंगली नींबू के पेड़ वहाँ चुपचाप खड़े थे। कुएँ के पास। दोनों पेड़ उदास – किस दिन मिटेगी बोलो इंसानों की प्यास?
कुएँ की दीवार पर टूटी फूटी नंगी ईंटें झाँक रही थीं। सखाराम कुएँ की रस्सी से लगी बाल्टी को नीचे उतारने लगा। भागी ने ऊपर से कुएँ के अंदर झाँक कर देखा – वहाँ नीचे पानी के ऊपर जलकुंभी के पौधे तैर रहे थे। दो एक बार बाल्टी को पानी के अंदर बाहर करके उनको थोड़ा हटाना पड़ा। फिर भर लो पानी …….
एक एक करके चारों घड़े भर लिए गये। सखाराम ने एकबार पूछा,‘एक मैं ले लूँ?’
भागी ने सर हिलाया,‘रहने दो।’
हाँ, अपने स्वार्थ के लिए इन्सानों ने धरती को भी तो नारी मान लिया है। तो बोझ तो भागी और धरित्री दोनों को ही ढोना है।
बस यही सिलसिला शुरू हुआ। तीन तीन चार चार घड़े में पानी भर कर इतना दूर लाना। दिन में दो बार, तो कभी कभी तीन बार।
सखाराम के घर के हरे रंग के दरवाजे के दोनों ओर रंगोली की तरह कुछ उकेरी हुई थीं, और एक तरफ दीवार पर बनी थी मछली। रामारती के कमरे की दीवार पर बीचोबीच पति पत्नी की फोटो टँगी हुई है। शादी के बाद संत तुकाराम जयन्ती की यात्रा के मेले में दोनों ने खिंचवायी थी। फोटो के दायें ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजमान हैं और उनके नीचे संत तुकाराम। बायें नीले रंग का फाग उड़ाते हुए डा. अंबेडकर।
दो घड़े पानी उस कमरे में रखकर भागी ने अपने हिस्से का एक घड़ा पानी अपने कमरे में एक बर्तन में उॅड़ेल दिया।
वैसे तो सिवाय सामाजिक सुरक्षा के जलपत्नियों को विवाह का और कोई सुख मिलता नहीं। फिर भी साल डेढ़ साल बाद भागी को एक लड़की हुई। स्वाभाविक है, रामारती को सिर पीट लेने का एक मौका मिल गया,‘अरे अब इसे कौन पार लगायेगा ? इसका मामा ?’
भागी चुप रही। उसने खुद को जिन्दगी की लहरों के हाथों सौंप दिया था। चाहे डूब जाये, चाहे उबर जाये।
मगर सचिनि को तो जैसे एक खिलौना मिल गया। वैसे भी उसे नईकी आई से शुरु से ही लगाव था। अब तो वह दिनभर उसीके यहाँ उठता बैठता और सोता। यद्यपि रामारती जल भुन कर रह जाती,‘अरे इस चुड़ैल ने तो जैसे मेरे बेटे पर जादू टोना कर दिया है रे!’ मगर मन ही मन खुश भी होती रही। रात में भागी के पास सचिनि के सोने से सखाराम को तो उसी के कमरे में लेटना है। तो उसके हिस्से के अमृत में जरा भी टोटा नहीं होता।
सचिनि और टुकी – दोनों भाई बहन सावन भादो के धान की तरह बड़े होते गये। सचिनि स्कूल भी जाने लगा था। मगर मा’ट्सा’ब के हाथों उसे नम्बर से ज्यादा बेंत मिला करती थीं। फिर भी इन हो हल्ले और ऊधम के बीच उसे कहीं अगर कच्चा आम या एक पका हुआ अमरूद दिख जाये, तो वह ढेला उठाकर निशाना लगाता और उसे उठाकर मुँह लगाये बिना तुरंत घर की ओर दौड़ता,‘टुकी – ई! नई अम्मां, टुकी कहाँ है? यह ले, थाम -!’
उसी साल भादों शुक्ला चतुर्थी के गणेश जन्मोत्सव के ठीक एकदिन पहले खबर आयी कि सखाराम का वो जीजा यानी ममेरी दीदी का पति बहुत बीमार है। वो अपनी बहन को एक बार देखना चाहता है। अब इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो स्वयम् विघ्नेश गणेश ही जाने, पर सखाराम की दीदी ने कुछ ऐसा ही कहकर उसे बुला भेजा। सखाराम भारी असमंजस में पड़ गया। खाना तो रामारती पका लेगी। मगर पानी ? खैर, माँ बेटे मिलकर कुछ सँभाल लेंगे। यही सोचकर उसने भागी को भाई के पास भेज दिया।
भागी शादी के बाद पहली बार मायके पहुँची …..
‘अरे अब क्या देखने आयी है?’ सखाराम की दीदी राम के बिछोह में तड़पते भरत की तरह ननद से लिपट कर रोने लगी। मानो भागी को देखे बिना उसके गले से पानी अब तक नीचे उतर नहीं रहा था,‘देख, खटिया पर लेटे लेटे कैसी दुर्दशा हो गयी है!’
भागी यहाँ भी बीमार की तीमारदारी और घर का सारा कामकाज सँभालने लगी। सखाराम की बहन बीच बीच में बेबस भगवान को कोसती, रोती और सोती रहती। उसकी गृहस्थी चलती रही।
उधर सखाराम की गृहस्थी में फिर वही रोज की किचकिच, रोज का तूफान। अब तो सखाराम की आई रही नहीं, तो उसी को निर्णय लेना था। फिर से बाटली की ठेके पर नीलू फूले ने उसके पैसे से दारू पिया और नेक सलाह दे डाली,‘कैकेयी के बाद सुमित्रा का आना तो शास्तर में ही लिखा है।’
भागी घर पर थी नहीं। रामारती देखती रही। सुबह से गाली देती रही। शामतक सखाराम तीसरी बार दूल्हा बनकर निकल पड़ा। सचिनि और टुकी दोनों बारात में शामिल हो गये। अण्णा की शादी की मिठाई भी तो खानी है। अगले दिन सौन्ती ने इस आँगन में कदम धरा।
रामारती ने और चार औरतों के साथ मिलकर उसकी आरती उतारी। फिलहाल वह भागी के कमरे में ही रहने लगी। दूसरे दिन तड़के उसे सचिनि के साथ पानी भर लाने के लिए भेज दिया गया।
इधर बीच भागी का भाई भी जिन्दगी से लड़ते लड़ते चल बसा। भागी को लौटना पड़ा। उसकी भाभी उससे लिपट कर रोई और उससे कहा,‘जा भागी, अब यहाँ रह कर क्या करेगी? आखिर एकदिन अपने घर तो तुझे लौट जाना ही था।’
अजीब खेल है जग का, लगा है आना जाना, कौन किसका घर है यहाँ पर, कहाँ है ठिकाना ?
सौन्ती के बारे में भागी को तो पहले से सब कुछ पता चल ही गया था। वह आयी। सौन्ती की ठुड्डी पकड़ कर मुस्कुरायी और अगले दिन से फिर घड़े सिर पर लेकर कुएँ तक जाने लगी।
जब सौन्ती माँ बनी तो भागी पानी लाने के साथ साथ उसकी देखभाल भी करती। सौन्ती मन ही मन उसके प्रति अहसानमंद थी। अपनी सगी दीदी की तरह उसे प्यार करने लगी। वह अपने ढंग से भली भाँति समझती थी कि भागी के भाग में उस कुएँ की तरह सबकी प्यास बुझाते ही जाना है। भले ही उस कुएँ की तरह वह भी अंदर से जर्जर होती जा रही थी।
देनगानमल में कभी सूखा पड़ा, तो कभी बारिश हुई – साल बीत रहे थे। सचिनि को भी एक प्राइवेट बस में नौकरी मिल गई। गाँव में पानी की किल्लत होने के कारण कुछ मुश्किल से, पर उसकी शादी तय हो गई। वह भागी से कहने लगा,‘बस नई आई, अब देख लेना तुझे कुएँ से पानी लाना नहीं पड़ेगा। तेरी बहू आयेगी तो उसीसे सारा काम करवाना।’
भागी मुसकुराकर रह गयी। मगर उस कुएँ की दीवार की ईंटों की तरह उसकी पसलियाँ भी दिखने लगी थीं। शादी के पहले दिन कई दफे पानी लाने, फिर सबके लिए खाना बनाने में उसे खुद की सुध ही न थी। सौन्ती उसके हाथ बँटाती रही। मगर रात में जब सभी ने भोजन कर लिया तो सौन्ती ने उससे कहा,‘चलो दीदी, तुम भी खा लो न …..’
भागी ने सर हिलाया,‘नहीं रे। मेरी तबिअत ठीक नहीं लग रही है। बुखार भी है और मचली भी आ रही है। बस एक गिलास पानी पिला दे।’
सौन्ती खुद खाकर सो गई। रामारती की तेज आवाज से सुबह उसकी नींद खुल गई,‘अरे बात क्या है ?आज घर में ब्याह है और महारानी अभी तक सो रही है? पानी कौन लायेगा ?’
सौन्ती दौड़ कर भागी के कमरे में गई तो देखा वह बेसुध पड़ी हुई है। खाली पेट ऐंठन होने के कारण उसे शायद उल्टी भी हुई थी। पड़े पड़े वह कराह रही है,‘पानी……पानी…..’
सौन्ती भाग कर उसके घड़े के पास गई। मगर यह क्या? न किसी घड़े में, न किसी बाल्टी में – कहीं एक बूँद पानी नहीं है।
उधर सखाराम के मामा, मामी, भाऊ और जो रिश्तेदार आये हुए थे, सभी चिल्ला रहे हैं,‘अरे भागी, तू ने पानी भर कर नहीं रक्खा?’
सचिनि बाहर निकल आया,‘मैं पानी ले आता हूँ।’
रामारती चिल्ला उठी,‘आज तेरी लगन है, और तू चला पानी लेने इतनी दूर? कहीं चोट वोट लग जाए तो ? उससे अशुभ होता है।’
टुली उतावली हो रही थी,‘आई, मैं जाऊँ ?’
सौन्ती ने उसे रोका,‘तू अपनी बड़की आई के पास रह। पहले मैं कुएँ से पानी भर कर लाती हूँ। फिर तू चलना।’
जबतक सौन्ती पानी लेकर वापस आने लगी सूरज भी मानो उसका इम्तहान लेने लगा था। टप टप ….उसकी पेशानी से पसीना चू रहा था।
घर पहुँचते ही घड़े को रखकर, उससे एक लोटे में पानी उँड़ेल कर वह भागी के पास जा पहुँची।
कमरे के अंधकार से बाहर निकलकर भागी की आँखें मानो किसी उजाले की तलाश कर रही थीं। उसके मुँह से निरंतर एक ही शब्द निकल रहा था -‘ पानी….पानी….पानी…..’
‘लो दीदी, पी लो पानी।’ सौन्ती ने एक हाथ में पानी लेकर उसके मुँह को पोंछा फिर उसका सर उठाकर पानी पिलाने लगी। मगर भागी के होठों के कोने से वह पानी सिर्फ बाहर जमीन पर चूने लगा ………