मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ “ स्थितप्रज्ञ“ ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – स्थितप्रज्ञ – ? ☆ श्री सुहास सोहोनी

वर्षे सरली, युगे उलटली,

काळ किती लोटला

स्थितप्रज्ञ मी अविचल अविरत

शिलाखंड एकला

 

सजीव प्राणी पक्षी त्यांसी

स्वर्ग, नरक अन् मोक्ष

निर्जीवांसी गति न कोणती

केवळ अस्तित्व

 

घडले नाही कधीच काही

उबूनि गेला जीव

अंतर्यामी आंस उठे परि

जिवास भेटो शिव

 

शिल्पकार कुणि दैवी यावा

व्हावी इच्छापूर्ती

अंगांगातुन अन् प्रकटावी

सुबक सांवळी मूर्ती

 

मोक्ष हाच अन् हीच सद्गती

निर्जीवाचे स्वत्व

छिन्नीचे घन घाव सोसुनी

लाभतसे देवत्व…

©  श्री सुहास सोहोनी 

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “आली गाडी.. गेली गाडी..…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “आली गाडी.. गेली गाडी…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

“सांगितलं कि गं तुला कितीतरी बाऱ्या!… माझ्या गावा कडं येताना तू मोकळीच येऊ नगंस म्हनून!… तिकडनं मंमईहून येताना माझ्या सासुरवाशीण लेकीला संगट घेऊन येशील, चार दिवस आपल्या म्हातारीला भेटायला… पन तू काय मनावर घायचं नावं घेत न्हाईस!… अन फुकाच्या मातूर दिसरातीच्या सतरा बाऱ्या येरझारा घालतीस… तसं तुला काय गं कुणाच्या सुखदुखाचं काय पडलेललं नसतयं म्हना!… तू जोडून घेतलेला हाय नव्हं त्यो चौवीस डब्यांचा बारदाना… आमच्यावानी संसाराचा ओढत जातीस तुझा गाडा…बाया बापड्या, बापयं गडी मानूस, लेकरं बाळं, ट्रंका, बोचकी, पिशव्या नि हबशींनी ओतू जातोय डब्बा डब्बा… जसा जीवनाच्या प्रवासाला निघतातं तसं…कुणी हसतया,कुणी रडतया तर कुणी इवळतया तर कुनाची कुजबूज, शबुद नसलेली धुसफूस तर कुनाची कावाकाव…तुला यातलं काही कळंत नसतया तुझी असती रूळावरून वाघ पाठीमागं लागल्यासारखी धावाधाव…जाशील तिकडं मुलूख तुला थोडा जसा दक्षिणेतलं रामेश्वर अन उत्तरेतलं काशी…सगळीच अनोळखी कुणं कुणाची कशाला करतीय चवकशी… जो तो इथं वागतोय तालेवार असल्यावानी…सगळ्यांना घेतीस सामावून तू आपल्याच पोटात.. अन जो तो असतो आपल्याच नादात.. कुणाचं दुखलं खुफलं… मन फुलून आलं आनंदान.. तुला गं पडाया कशाची फिकीर.. शिटीवर शिटी फुंकत जातीस वरडत नि एकेक स्टेशान मागं सोडंत.. जत्रा भरेली फलाटावरची चढ उतार होतेय तू आल्यावर… वाईच पोट होतयं तुझं  ढवळल्यागत… पर तुला काहीच फरक पडतो काय… फलाटाला सोडून गेल्यावर त्या फलाटाचा उसासा तुला कधी कळतो काय?… साधू संतावानी तू अशी कशी गं निर्लेपवानी… अन तुला कसं कळावं एका आईचं आतडं कसं तिळ तिळ तुटतयं  लेकीच्या भेटीसाठी.. चार वर्षांमागं लेकीला गं सासरला धाडलं…काळजाचा तुकडाच दूर दूर गेला नि भेटीगाठीला गं आचवला… सांगावा तो तिचा यायचा सठीसाही माहीला सुखी आहे पोरं कानात सांगुन जायचा.. परी पोरीच्या भेटीसाठी जीव तो आसुसलेला असायचा… लिहा वाचायची वानवा हाय माझ्याजवळ..पतुर पाठवाया  उभा राहायतयं धरम संकट.. फोनची श्रीमंती आमच्या खेड्यातपतूर पोहचलीच नाही… बोलाचाली चा मायेचा शबुद सांग मंग कानावर कसा पडावा बाई..इकडच्या धबडगा घराचा उंबरठा नि शेताचा बांध कधी मला गावाची वेस वलांडून देईनात खुळे… अन तिकडं पोरीला सासरच्या जोखडात अडकवून टाकतात कारणांचे खिळे… मग तुझा घ्यायचा आधार असं मला लै मनात आलं.. म्हटलं तू सारखी ये जा करतीस लाखावरी माणसांची ने आण करतीस मगं तुला माझ्या पोरीला एकडाव तरी संगट घेऊन यायला जड कशाला जाईल.. अगं चार दिसं नसंना पण उभ्या उभ्या येऊन पोरं जरी येऊन भेटून, नदंरला पडून गेली तरी बी लै जीवाला बरं वाटंल बघ.. सकाळी सकाळी तू तिला इथं सोडायचं अन रातच्याला माघारी घेऊन जायचं… तू म्हनशील मगं तूच तसं का करीनास… न्हाई गं बाई… पोरीची अजून कूस उजवली नाही तवर तिच्याकडं जाता येत न्हाई हि परंपरा हायं आमची… तवा तुझ्याकडं पदर पसरून मागणं केलं… काही बी करं कसं बी जमवं पण एक डाव, या वेड्या आईला तिच्या पोरीची भेट एवढी घडवं… आणि पोरीला आणशील तवा हसऱ्या चेहऱ्याने  निळ्या धुराचा पटका हवेत उडवत, आनंदाचा हिरवा बावटा फडकत फलाटावर येशील… गळाभर लेकिला तिचं मी भेटल्यावर मायेच्या पायघड्या घालून तिला माहेराच्या घराकडं नेईन…औटघटकेचं का असंना पण माहेरपण करीन…आणि…रातच्याला पाठवणी करायला येईन तवा तू वेळ झाली निघायची म्हणून शिटीवर शिटी फुंकत…अंधारातल्या आकाशात ताटातुटीचे उमाळाचे काळे सावळे धुराचे सर रेंगाळत सोडशील…अन फलाट सोडून निघशील तेव्हा जड अंतकरणानं पाय टाकत पुढे पुढे जाताना… क्षणभरासाठी का होईना लालबावट्याला बघून थांबशील… वेड्या आईकडं  पोरीनं  पुन्हा एकदा मान वेळावून खिडकीतून बघितलं का याचा अंदाज घेशील… दोन निरोपाचे आसू गालावर टपकलेले निपटलेले  दिसल्यावर तू तिथून हलशील… इतकचं इतकचं माझ्यासाठी करशील… करशील नव्हं… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – अविस्मरणीय संस्मरण ☆ साभार – स्मृतिशेष जयप्रकाश जी के स्वजन-मित्रगण ☆

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – अविस्मरणीय संस्मरण ☆ साभार – स्मृतिशेष जयप्रकाश जी के स्वजन-मित्रगण ☆

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☆  एक अच्छे व्यंग्यकार ही नहीं थे वरन बेहतर मनुष्य  भी थे ☆ श्री गिरीश पंकज ☆

जयप्रकाश पांडेय जी के रूप में एक बेहतर मनुष्य हमारे बीच से चले गए. ये सिर्फ एक एक अच्छे व्यंग्यकार ही नहीं थे वरन बेहतर मनुष्य  भी थे.  पिछले साल जब मैं  पाँच हजार रुपये राशि वाले एक सम्मान के लिए जबलपुर गया था, तो कार्यक्रम के समय से लगातार मेरे साथ रहे. रात को एक जगह ले जाकर मुझे डिनर भी कराया.  एक घटना बताने में  मुझे कोई संकोच नहीं कि जिस सम्मान के लिए मैं गया, उसके पहले एक  ने मुझसे दो-तीन पुस्तकें बुलवाई कि पढ़ना चाहता हूँ. मैंने भेज दी. फिर किसी का फोन आया कि आपको हम एक सम्मान देंगे. लेकिन आपको ₹200 शुल्क देना होगा. मैंने साफ -साफ इनकार कर दिया कि मैं कोई शुल्क नहीं दूंगा. तो पांडेय जी का फोन आया. उन्होंने कहा कि आपको कोई शुल्क नहीं देना है. आयोजकों ने ऐसा नियम ही बना रखा है कि क्या करें. लेकिन आपको आना है. आपका शुल्क मैंने पटा दिया है. आप आ जाएं  इसी बहाने आपके साथ कुछ घंटे बिताने का अवसर मिलेगा. उनके स्नेहभरे आग्रह के कारण मैं जबलपुर गया और लंबे समय तक पांडेय जी के साथ समय बिताया.  जब वे अट्टहास पत्रिका का  अतिथि संपादन कर रहे थे, तब भी उनसे दो बार बात हुई. और उनके सम्पादन में अट्टहास का सबसे खूबसूरत विशेषांक निकला.  उसका कलेवर अभूतपूर्व था. उनका जाना व्यंग्य साहित्य की बड़ी क्षति है. उनको शत-शत नमन!

श्री गिरीश पंकज

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☆  जयप्रकाश पांडेय जी हमेशा जेहन में बने रहेंगे ☆ श्री सुदर्शन कुमार सोनी 

जयप्रकाश जी का अचानक चले जाना अंत्यंद दुखद है। उनके साथ का एक प्रसंग याद आ रहा है। वो व मैं मध्यप्रदेश के उमरिया जिले में पदस्थ थे। बात होगी 2011-12 की मुझे तब पता नही था कि वो व्यंग्य भी लिखते हैं। मैं वहां मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत के तौर पर पदस्थ था और वे बैंक में। सेन्टल बैंक आफ इंडिया उमरिया का लीड बैंक था अतः वे आरसेटी रूरल सेल्फ एम्पलायमेंट टेनिंग इस्टटीटयूट का भी कुछ कार्य देखा करते थे। जंहा मैंने कई बैचेस में युवक युवतियों की रोजगारमूलक प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाए थे। वहां पर मेरे बंगले में एक नाई गंगू मालिश के लिए आया करता था। वह बहुत बातूनी था लेकिन बडी़ अच्छी अच्छी बातें किया करता था। मैंने उस पर गंगू के नाम से एक कहानी भी लिखी थी। उसका किरदार मुझे बडा़ रोचक लगा तो मैंने अपने व्यंग्य का उसे किरदार बना लिया पुराने कई दर्जन व्यंग्यों में उसका नाम आता है। गंगू जयप्रकाश जी के भी सम्पर्क में था यह मुझे ज्ञात नही था। वहां से आने के बाद संभवतया मुझे पता चला कि उन्होने भी गंगू को अपनी रचनाओं में एक किरदार के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया है। मैं यह जान बडे़ पशोपेश में पड़ गया। मैं उनसे कैसे कह सकता था कि आप यह प्रयोग करना बंद कर दो या वो मुझसे कहते कि आप यह प्रयोग बंद कर दो। काफी बाद में मेरे एक मित्र ने मेरे कुछ व्यंग्य पढ़ते हुए कहा कि आप यह किरदार बदल कर अच्छा सा नाम रखों। मुझे उसकी बात जांच गई और अब गंगू मेरी रचनाओं में गंगाधर है। एक बार मैं उनकी वैगन आर में जबलपुर से उमरिया व्हाया सड़क मार्ग आया भी था। जयप्रकाश जी को बहुत बहुत श्रद्वासुमन वे हमेशा जेहन में बने रहेंगे। जंहा तक मुझे याद है वे हमारी संस्था भोजपाल साहित्य संस्थान के आजीवन सदस्य भी हैं।

श्री सुदर्शन कुमार सोनी

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☆  मन बहुत व्यथित हुआ ☆ श्री सुनील जैन राही

यात्रा के 

अधबीच में जब यह समाचार मिला कि आज जय प्रकाश जी का देवलोक गमन हो गया, मैं मौन रह गया। आत्मीयता से सराबोर व्यक्ति/घनघनाती आवाज/फोन उठाते ही ऐसा प्रतीत होता दिन सफल हो गया। कई बार उनकी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृया देने हेतु मैंने कई बार उन्हें फोन किया। कभी निराशा मुझे हाथ नहीं लगी। जब उनकी रचना “अस्थि विसर्जन का लफड़ा” पढ़ी तो मुझे याद है लगभग सवा घंटे बात हुई। ठहाकों से शुरू और ठाकों पर समाप्त ऐसी बातचीत किसी साहित्यिक मित्र से शायद ही कभी किसी से हुई हो। आलोचना और प्रशंसा के मामले में कबीर थे। 40, 000/- का चेक/डांस इंडिया डांस ने आँखें सजल की थीं और अस्थि विसर्जन पर खाकी पर परिश्रमिक शब्द गूंज उठे।

मन बहुत व्यथित हुआ।

व्यंग्य का उद्दंड विद्यार्थी

श्री सुनील जैन राही

नई दिल्ली / 28/12/2024

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☆  व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया  ☆ श्री राजशेखर चौबे ☆

पूरे देश में शायद एक भी ऐसा व्यंग्यकार नहीं होगा जिससे जयप्रकाश पांडे जी की बात नहीं हुई हो। वे लगभग सभी से बात करते थे। आपके अच्छे व्यंग्य पर वे जरूर दाद देते थे, मैसेज करते थे जब उन्हें लगता तो फोन भी जरूर करते थे। मुझे भी उनका सानिध्य मिला। मेरी उनसे पहली मुलाकात 2016 में जबलपुर में अट्टहास के कार्यक्रम में हुई थी। इसके बाद उनसे तीन-चार बार मुलाकात हुई और सभी मुलाकातें यादगार बन गई। व्यंग्य के एक कार्यक्रम में वे रायपुर भी आए थे। जून 2024 में जबलपुर जाना हुआ पर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी थी। फोन पर जरूर बात हुई थी। तभी उन्होंने अपनी तबियत के बारे में बताया था। उस समय भी वे काफी पॉजिटिव थे और ऐसा नहीं लग रहा था कि वे इतनी जल्दी हम सब को छोड़कर चले जाएंगे। वे जबलइपुर के थे और उनकी आवाज में जबलपुरिया टोन था। उनकी आवाज में एक अलग तरह की मिठास थी। लगभग डेढ़ महीने पहले फोन आया कि उनके मित्र मेरे छत्तीसगढ़ी व्यंग्य को अपनी पुस्तक में लेना चाह रहे हैं। उस समय भी लंबी बात हुई थी। उन्होंने व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनके कई व्यंग्य और व्यंग्य संग्रह डांस इंडिया डांस को हमेशा याद किया जाएगा। उनके व्यंग्य “अस्थि विसर्जन का लफड़ा ” काफी चर्चित हुआ था जिसे व्यंग्य यात्रा पत्रिका ने पुरस्कृत किया था। जयप्रकाश जी हम सब को छोड़कर चले गए हैं परंतु वे हमेशा याद किए जाएंगे। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे और परिवार वालों, मित्रों व शुभचिंतकों को यह दुख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।

राजशेखर चौबे

रायपुर

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☆  प्रिय जय प्रकाश तुम बहुत याद आओगे ☆ श्री जयंत भारद्वाज ☆

साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति तो है ही साथ ही हमारा एक जिंदादिल,हंसमुख,मिलनसार दोस्त चिरनिंद्रा में चला गया।

भाई जयप्रकाश के साथ जबलपुर में तुलाराम चौक शाखा में पदस्थी के दौरान अविस्मरणीय यादें हैं।

प्रसिद्ध व्यंग्यकार स्वर्गीय हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य साहित्य पर आधारित  मेरे द्वारा बनाए गए व्यंग्य चित्रों की  तीन दिवसीय प्रथम प्रदर्शनी दुर्गावती संग्रहालय  में उनके ही संयोजन में  लगाई गई ।

प्रिय जय प्रकाश तुम बहुत याद आओगे हम तुम्हे कभी भूल नहीं पाएंगे।

विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏽

श्री जयंत भारद्वाज

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☆  व्यंग्य लेखन में परसाई की परंपरा को आगे बढ़ाया  ☆ डॉ ए के तिवारी ☆

चाहे  कहीं रहे जय प्रकाश पांडे मगर मुझसे फोन /मोबाइल  पर बात कर लेते थे. अब कौन मुझे मोबाइल फ़ोन पर कॉल करेगा–?? व्यक्तिगत विषय हों या पारिवारिक साहित्य हों या बैंक का, श्री सुरेश तिवारी जी हों या डॉ अशोक कुमार  शुक्ल सब पर खूब चर्चा करता था J P .अब याद कर रहे बस. मेरे से कई बार कहा कि अपना व्यंग्य संकलन प्रकाशित कराओ . लघुकथा संग्रह भी कब छपेगा.अपनी स्वास्थ्य पर भी अनेक बार बताया तो मैंने कहा था पुणे और मुम्बई जाओ फॅमिली मेंबर्स के साथ. लेकिन विधाता क्या करेगा मालूम ना था l ओम शान्ति शान्ति I 🙏

डॉ ए के तिवारी

पोद्दार कॉलोनी सागर

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☆ जयप्रकाश जो कभी हारा ही नहीं ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

जिस व्यक्ति से कभी आमने सामने मिला नहीं,लेकिन मिलने की आस अंतिम समय तक कायम रही, आत्मीय इतने कि आज से सात वर्ष पूर्व, जब मैं उपचार हेतु अस्पताल में भर्ती था, तो फेसबुक के साधारण परिचय के बावजूद, इनके एकमात्र फोन ने मुझे चौंका दिया । बस तब से परिचय की यह कड़ी एक मजबूत गांठ बन चुकी थी, लेकिन किसे पता था, प्रदीप और जयप्रकाश के नसीब में एक होना लिखा ही नहीं था । जयप्रकाश जो कभी हारा ही नहीं, आज भी उसकी याद का दीपक हमारे दिलों में प्रदीप्त है,और सदा रहेगा । सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में सदा व्यस्त रहने के कारण कुछ समय से स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे, एक दो बार बात हुई, लेकिन हंसकर टाल गए और फिर हंसते हंसते ही अचानक हम सबको छोड़कर चले भी गए । जबलपुर से मेरा परिचय अब सिर्फ परसाई और जयप्रकाश तक का ही रह गया है, अफ़सोस दोनों मुझसे दूर चले गए ।। ॐ शान्ति..!!

श्री प्रदीप शर्मा 

इंदौर 

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☆  अंत समय तक रचनाधर्मिता में लगे रहे ☆ श्री मुकेश गर्ग असीमित ☆

अत्यंत दुखद समाचार। भगवान उनकी आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान दें ।  🙏अंत समय तक रचनाधर्मिता में लगे रहे हैं ।अट्टहास पत्रिका के दिसंबर अंक के लिए उनके द्वारा आतिथ्य संपादन करना था। मुझ से भी एक रचना माँगी गई तो जो मैंने उन्हें सहर्ष आभार के साथ प्रदान की थी ,कभी मिला तो नहीं उनसे लेकिन चंद महीनों में ही एक मौन सा संवाद और उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रहता था। 

श्री मुकेश गर्ग असीमित

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☆  समर्पित व्यंग्यकार पाण्डेय जी ☆ श्री  सुरेश मिश्रा “विचित्र” व्यंग्यकार 

जयप्रकाश पांडे जी भले ही हमारे बीच में नहीं है, लेकिन उन्होंने शहर के व्यंग्यकारो को एकत्र करते हुए व्यंगम संस्था का अच्छा खासा संचालन किया। और प्रत्येक माह होने वाली व्यंग्य गोष्ठी को अपने ही निवास पर आयोजित करते रहे, यह एक बड़ी उपलब्धि रही है।जिसने व्यंग्य लेखन में शहर को आगे रखा है। आपका व्यंग्य लेखन और व्यंग्य की बारीकियों को, विसंगतियों को,उजागर कर अपने लेखन मे पैनापन बनायें रखा। व्यंग्य लेखन के लिए उनके द्वारा किया गया यह समर्पित भाव एवं कार्य हमेशा याद रखा जाएगा।

सादर श्रृद्धासुमन अर्पित है 🙏🌹🙏

श्री  सुरेश मिश्रा “विचित्र” व्यंग्यकार

जबलपुर ( मध्य प्रदेश)

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☆  विनम्र श्रद्धांजलि ☆ श्री ओ.पी.सैनी ☆

मेरी पहली मुलाकात श्री पांडेय जी से 6 वर्ष पूर्व व्यंगम की गोष्ठी के अवसर पर हुई थी । पहली ही मुलाकात मैं वे सबसे अलग अनुभूत हुए । नया सदस्य होने के बाद भी उन्होंने मुझे  आत्मीय सम्मान दिया । जब-तक उनसे मुलाकात होती रही वे बहुत ही मिलनसार और सहयोग देने मैं तद्पर रहे । किसी कारण वश 2 माह से मेरी पेंशन रुकी हुई थी जब उनको इस बारे मैं पता चला तो उन्होंने भोपाल स्थित पेंशन विभाग मैं बात की जिससे 1-2 दिन मैं ही मेरी पेंशन मुझे मिल गयी । इतने सहयोगी थे पांडेय जी । उनकी आत्मा के श्री चरणों में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।

श्री ओ.पी.सैनी

जबलपुर (म.प्र )

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☆ संस्मरण (35-40 वर्ष) पूर्व का…  ☆ श्री के. पी. पाण्डेय ‘वृहद‘ ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे निवास  एम -193 शिव नगर के सामने हाउसिंग बोर्ड का एम आई जी 20 ख़रीदा ओर उसे किराए  से देना चाहा था दो किरायेदार रखने थे पाण्डेयजी ने किसी बैंक कर्मचारी को बेच दिया था।  उन दिनों में लिखता तो था किन्तु अधिकतर कविताएं लिखता था पर मुझे तब नहीं मालूम था कि  ये व्यंग विधा के अच्छे लेखक है। व्यक्तिगत मुलाक़ात के अतिरिक्त मैं पाण्डेयजी को इस से पूर्व इसलिए भी जानता था कि  मेरे मित्र प्रकाश चंद दुबे जो मेरे सहकर्मी ओर परसाई जी के भांजे है और अक्सर उनके निवास पर मेरा व जय प्रकाशजी का आना होता था। 

कालांतर में पाण्डेयजी बैंक की नौकरी में इधर उधर रहे वा मैं भी ट्रांसफर होता रहा। सेवा निवृत्ती के काफ़ी दिनों बाद जय प्रकाश जी से मुलाक़ात एक साहित्यिक  समारोह में हुई तब मैं उनके व्यंग्य विधा को गहराई से जान सका था इधर करीब 5-6 वर्षों  से व्यंग पढता तो उन्हें बधाई अवश्य देता। 

आत्मीयता का दायरा उस समय से ओर अधिक बढ़ा जब से मुझे उनके निवास पर व्यंगम की  मासिक गोष्ठी में शरीक होने का मौका मिला श्री पाण्डेयजी के माध्यम से ई -अभिव्यक्ति पत्रिका एवम अट्टहास मे मेरी व्यंग रचना (यदि  परसाईजी ना होते तो क्या होता?) प्रकाशित हुई।  पाण्डेयजी के इस आत्मीय सहयोग एवम परमार्थ का में ऋणी हूँ उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि साथ ही ईश्वर से प्रार्थना  है कि परिवारजनों को असमय आए इस असीम कष्ट को सहने की शक्ति प्रदान करें पुनः विनम्र श्रद्धांजलि

श्री के. पी. पाण्डेय ‘वृहद‘

मो. 9424746534

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 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “आकाशातला ‘नीत’ळ स्वर…” ☆ सुश्री वैशाली पंडित ☆

☆ “आकाशातला ‘नीत’ळ स्वर…” ☆ सुश्री वैशाली पंडित ☆

कधीकधी आपल्याला लाभलेलं मैत्र फारच अकल्पित असतं. माझ्या मैत्रीच्या वर्तुळात अशीच एक सहेली माझ्या हातात हात गुंफून गेली चाळीस वर्षे उभी आहे.

तिची माझी ओळख रत्नागिरी आकाशवाणीच्या केंद्रात झाली. तेव्हा मी खारेपाटणला वास्तव्याला होते. माझे पती श्रीनिवास तिथल्या शेठ म. ग. हायस्कूलमध्ये माध्यमिक शिक्षक होते. त्या शाळेचे मुख्याध्यापक श्री. शरद काळे हे सत्यकथा या गाजलेल्या मासिकाचे लेखक होते. त्यांचे अनेक कार्यक्रम रत्नागिरी आकाशवाणीवर होते. त्यांनी माझ्यातला होतकरू लेखक ओळखला होता. अशाच एका आकाशवाणी फेरीत त्यांनी माझं नाव तिथे सुचवलं.

“पंडितबाई, तुम्हाला आकाशवाणीवरून कार्यक्रमासाठी आमंत्रण येईल हं. कवितेचे विषय तेच देतील. “असा निरोप त्यांनी आणला आणि मी उत्कंठतेने त्या निमंत्रणाची वाट पाहू लागले.

खरंच एक दिवस तो लिफाफा आला. माझा आनंद गगनात मावेनासा झाला. कवितेचा विषय होता, ‘कुटुंबनियोजन’. तेव्हा तर मी नवखीच होते. दे दणादण सुचवल्या घरी सुखी राहण्यासाठी कविता ‘बनवल्या’. काव्यवाचनाची जोरदार प्रॕक्टीस वगैरे करत नवऱ्याला जेरीस आणलं. आणि अखेर तो दिवस आला.

रत्नागिरी आकाशवाणीच्या त्या इमारतीत पाऊल टाकलं. पहिल्यांदाच आकाशवाणीची इमारत बघत होते. गेटवर व्हिजिटर्स रजिस्टर भरणं वगेरे नवीनच होतं. आत गेले. कार्यक्रम विभागात माझं पत्र दाखवलं.

“वैशाली पंडित ना ? ये ये. मीच रेकाॕर्डिंग करणार आहे. घरकुल कार्यक्रम मीच घेते. “असं म्हणत एक प्रसन्न व्यक्तिमत्वाच्या स्त्रीने माझं स्वागत केलं.

‘…याच त्या ‘नीता गद्रे. ‘

प्रथमदर्शनीच मला त्या खूप आवडल्या. त्यांचा आवाज किंचित बसका तरीही आत्मविश्वास दाखवणारा होता. व्यक्तिमत्वात ठामपणा आणि आपलेपणा यांचं मजेदार रसायन होतं. कुरळ्या केसांची महिरप गोऱ्यापान चेह-यावर खुलत होती. वेषभूषेतली रंगसंगती त्यांची अभिरूची दाखवत होती.

माझ्या हातातलं स्क्रीप्ट घेऊन त्यांनी वाचलं.

“छान समजून घेतलायस विषय. मस्त झाल्यात कविता. सरकारी विषय तू सोपेपणाने कवितेत मांडलायस. “अशी दाद त्यांनी दिल्यावर मला जो काय आनंद झालाय तो झालाय.

त्या सफाईनं रेकाॕर्डींग रूमकडे निघाल्या. त्या चालण्यात डौल होता. त्यांच्या हालचाली फार सहज पण पाॕलिश्ड होत्या. मला रेकाॕर्डींग रूम, तिथलं टेबल, तिथला माईक सगळं नवीन होतं. आधी स्वतः त्या माझ्याबरोबर आत आल्या. कागद कसे धरायचे, कागदांचा उलटताना आवाज कसा होऊ द्यायचा नाही याचं मला ट्रेनिंग दिलं.

“आता वाचायचं बरं का बिनधास्त. काळजी करू नकोस. छानच होईल रेकाॕर्डींग. “असा धीर त्यांनी दिला.

जाड काचेच्या पलिकडून उभ्या राहून नीता गद्रेंनी मला सुरू कर अशी खूण केली.

एक दोन रिटेक झाले तरी न चिडता मला प्रोत्साहन देत त्यांनी रेकाॕर्डींग संपवलं.

… ती नीता गद्रेंशी माझी पहिली भेट.

नंतर मी आकाशवाणीच्या निमंत्रणाची वाट बघायला लागले ती फक्त नीता गद्रेंशी भेट व्हावी म्हणून.

नंतरच्या सगळ्या भेटीत नीताताईंमधलं साहित्यरसिकत्व मला खूप समजत गेलं. या बाई केवळ आकाशवाणीच्या औपचारिक अधिकारी नाहीत. स्वतःला साहित्याची उत्तम जाण आहे. श्रोत्यांना सकस कार्यक्रम ऐकवण्याचं भान आहे. ती आपली जबाबदारी आहे, तीही सरकारी चौकटीत राहून पूर्ण करायचं आव्हान आहे हे त्या जाणून होत्या. करियरवर मनापासून प्रेम करणा-या नीताताईंनी माझ्या मनात खास जागा निर्माण केली.

त्यांचा ‘तांनापिहि’ हा कथासंग्रह माझ्या वाचनात आला आणि मी त्यांची फॕनच झाले. विशेषतः त्यातली ‘ओझं’ही कथा तर मला बेहद्द आवडली होती. गृहिणीला मध्यवर्ती व्यक्तिरेखा करून लिहिलेली ही कथा मला स्पर्श करून गेली. मी लगेचच त्या पुस्तकावर अभिप्राय लिहिणारं पत्र त्यांना पाठवलं.

लगोलग त्याचं उत्तरही नीताताईंकडून आलं. त्यात त्यांनी, ‘तुला मी माझ्या आणखीही काही पुस्तकांची नावं देते तीही वाच. (भोग आपल्या कर्माची फळं )’ असं मिश्किलपणे लिहिलं होतं. ते मला जामच आवडलं होतं. नंतर खरोखरच ती फळं मी चाखली.

त्यांचं ‘एका श्वासाचं अंतर’ हे पुस्तक तर एका जीवघेण्या आजारावर मात केलेल्या जिद्दीची कहाणी आहे. ते पुस्तक मी माझ्या परिचयातील काही डाॕक्टर्सनाही वाचायला दिलं होतं. एका प्रसिद्ध रूग्णालयात पेशंटला किती हिडीसफिडीस केलं जातं, अक्षम्य अशी बेफिकीरी दाखवली जाते याचा पर्दाफाश त्यांनी निर्भीडपणे केला होता. नंतर त्या रूग्णालयाच्या व्यवस्थापनाने झाल्या प्रकाराबद्दल दिलगिरीही व्यक्त केली होती, आणि यापुढे असे प्रकार घडणार नाहीत याची जाहीर हमी दिली होती असं ही समजलं.

नीताताई रत्नागिरी केंद्रावर तेरा वर्षे होत्या. नंतर सांगली, कोल्हापूर आणि मुंबई अशा सेवा करत त्या निवृत्त झाल्या. मध्यंतरी आमची गाठभेट बरीच वर्ष नव्हती. पुन्हा एकदा मुंबई आकाशवाणीवर त्या असताना त्यांनी मला माझ्या एका कवितेसाठी खास संधी दिली. परत आम्ही जुन्या उमाळ्याने भेटलो.

आता त्या निवृत्त जीवनात स्वतःचे दिवस अनुभवत आहेत. नभोनाट्य, ब्लाॕग्ज, लेखन, वाचन, प्रवास यांत सुरूवातीची वर्षे आनंदात गेली. आता शारीरिक थकव्याने मर्यादा आल्यात. आमचा फोनसंपर्क वाढला आहे. निवृत्तपणाच्या इयत्तेत मी त्यांच्याहून आठदहा वर्ष मागेच असले तरी आम्ही अगं तुगं करू लागलो आहोत. एकमेकींची हालहवाल जाणून घेत आहोत. चॕनेलवरच्या मालिकांवर यथेच्छ टीका टीप्पणी करून खिदळतो आहोत, राजकारणातल्या सद्य स्थितीवर फुकटच्या चिंता वहातो आहोत, जीव कासावीस करून घेत आहोत. मतदान केल्याच्या काळ्या शाईच्या मोबदल्यात इतकं तरी करतोच आहोत.

… एक मैत्रकमळ असं पाकळी पाकळीने फुलत गेल्याचा आनंद दोघीही अनुभवतो आहोत ! 

© सुश्री वैशाली पंडित

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सलीब ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सलीब ? ?

तुम्हारी कोख में

अब शायद कीलें

ठोंकी जाएँगी,

ख़त्म हो चुकी हैं

सलीबें उनकी

नए ईसाओं को

लटकाने के लिए!

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्थाएं ☆ “लिटरेरी वॉरियर्स: साहित्य का वैश्विक मंच”/”सृजन का कारवां: लिटरेरी वॉरियर्स” ☆ साभार – सुश्री नीलम सक्सेना ☆

☆ संस्थाएं ☆ “लिटरेरी वॉरियर्स: साहित्य का वैश्विक मंच”/”सृजन का कारवां: लिटरेरी वॉरियर्स” ☆ साभार – सुश्री नीलम सक्सेना ☆

विश्व विख्यात लेखिका कवियित्री और लिम्का बुक्स ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर नीलम सक्सेना जी द्वारा नवंबर, 2011 में POETS AND WRITERS DEN नामक समूह की स्थापना की गई। उस समय फेसबुक भी धीरे-धीरे प्रचलित हो रहा था इस समूह को स्थापित करने का उस समय एकमात्र उद्देश्य था साहित्य में रुचि लेने वाले उनके सहपाठी और मित्रों को एक मंच प्रदान करना। प्रारंभिक दिनों में इस समूह में केवल उनके महाविद्यालय के सहपाठी ही थे । समूह को प्रारंभ करते हुए कविता लेखन और कुछ साहित्यिक प्रतियोगिताएं और गतिविधियां आयोजित की गई। धीरे-धीरे यह कारवां बढ़ता गया ……जैसा कि मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने कहा है कि

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर,

लोग साथ आते गए कारवां बढ़ता गया

इसी तरह यह कारवां बढ़ते बढ़ते हजारों तक पहुंच गया समूह के ईमानदार प्रयासों से इसकी लोकप्रियता भी बढ़ती गई और समान रुचि वाले साहित्य प्रेमी जुड़ते चले गए।

फिर आया 2020 जब संपूर्ण विश्व को आपदा का सामना करना पड़ा। कोरोनाकाल में जब सभी इस महामारी से जूझ रहे थे, तब जन्म हुआ साहित्यिक सिपाहियों की ऑनलाइन गतिविधियों का। इस तरह POETS AND WRTERS DEN तब्दील हो गया लिटरेरी वॉरियर्स ग्रुप में। उस समय जब सभी लोग महामारी से जूझ रहे थे तो कठिन मानसिक दौर से जूझने के लिए रचनात्मकता सबसे बेहतरीन माध्यम थी। यह आवश्यक था कि जीवन को सकारात्मक बनाए रखने के लिए रचनात्मकता से जुड़ा जाए। इसी उद्देश्य के साथ फेसबुक पेज पर ऑनलाइन कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तब लगता है कि कुछ सहपाठियों द्वारा शुरू किया गया यह छोटा सा समूह आज विश्व विख्यात है। इसमें लगभग 300000 फॉलोअर्स है और पेज की व्यूअरशिप भी लगभग लाखों तक पहुंच गई है। इस समूह से न केवल भारत के साहित्य प्रेमी बल्कि विदेश में बसे भारतीय साहित्य प्रेमी भी जुड़ते जा रहे हैं।

आज तक लिटरेरी वॉरियर्स ग्रुप के तहत बहुत सारे कार्यक्रम साहित्यिक समारोह आयोजित किए हैं जिसमें प्रमुख हैं साहित्य अकादमी दिल्ली में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल जो कि नवंबर 2023 में आयोजित किया गया था। इसी प्रकार प्रतिष्ठित NCPA सभागृह में लिटरेरी वॉरियर्स ग्रुप के सफल कार्यक्रम आयोजित किया जा चुके हैं। इसके अलावा विश्व पुस्तक मेला लखनऊ में 11 पुस्तकों का विमोचन भी हमारे समूह द्वारा किया गया जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। हाल ही में पुणे के प्रतिष्ठित CME सभागार, पुणे में लिटरेरी वॉरियर्स ग्रुप के दूसरे लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन किया गया। दो दिन के इस समारोह में संपूर्ण भारत से आए साहित्य प्रेमियों ने उत्साह पूर्वक हिस्सा लिया और इस कार्यक्रम को सफल बनाया। कार्यक्रम के दौरान पुस्तक विमोचन, चित्रकला प्रदर्शनी, कविता पाठ और विभिन्न प्रतियोगिताओं के साथ-साथ सांस्कृतिक गतिविधियों का भी आयोजन किया गया।

हम सब ने मिलकर अपने आप को साहित्य के योद्धा घोषित कर दिया है। देखा जाए तो हम सब सिपाही ही थे जो कोरोनाकाल के उस गंभीर दौर में नकारात्मकता से लड़ रहे थे। कलम और भावनाओं का सुहाना सफर यूं ही जारी रहे यही उम्मीद है।

और अंत में…

Here is the story of LWG from our very own Anup Jalan Ji who made this video despite his ill health.

Literary Warriors Group or LWG is a brainchild of well-known author and poetess, Neelam Saxena Chandra, who wanted to bring Indian authors together under the same roof and create a platform for budding writers and poets to express themselves, learn and grow.
Author and translator Anup Jalan Ji was one of the first six members of the group and has seen it grow from six to an amazing 1,300 members.

LITERARY WARRIORS GROUP की कहानी श्री अनूप जालान जी की जुबानी

Instagram Link 👉 https://www.instagram.com/reel/DC_BflhtMqY/?utm_source=ig_web_copy_link&igsh=MzRlODBiNWFlZA==

साभार – सुश्री नीलम सक्सेना 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भातुकलीचा खेळ… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

☆ भातुकलीचा खेळ… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

दिवाळी झाली, आता गावातली गर्दी थोडी कमी झाली असेल म्हणून दिवाळीनंतर तुळशी बागेची फेरी मारायचे ठरवले. निमित्त होते नातीला भातुकलीचा खेळ आणून द्यायचे! तुळशीबागेसारखी पितळेची छोटी छोटी खेळण्यातली भांडी जगात कुठेच मिळत नसतील बहुतेक!

अगदी घंगाळ, हंडा, ताटाळे, कळशी, साधा कुकर आणि काय काय! तो खेळ बघितला की आपल्याला सुद्धा मनाने मोहरून जायला होते. मन आपल्या बालपणात शिरते!

तीस-पस्तीस वर्षांपूर्वी असा पितळेचा खेळ तुळशी बागेत पाहिला, तेव्हा आवडला.. पण तो महाग होता. तेवढे पैसे नव्हते खिशात! त्यापेक्षा घरासाठी खरी खरी भांडी खरेदी करण्यात इंटरेस्ट होता. त्यामुळे माझ्या मुलीला तो खेळ मी घेऊ शकले नाही हे खंत होतीच मनात! पुढे सावंतवाडीची लाकडी रंगीत खेळणी तिला खेळायला आणली आणि त्यात ती खुश होऊन गेली. अधून मधून प्लास्टिकचा खेळही आणला जात असे, पण त्यात काही फारशी मजा नव्हती. फक्त लाल, हिरवे, पिवळे रंग बघायला मिळत! आधुनिक जगाची सुरुवात जेव्हा प्लास्टिकने झाली, तेव्हा खरंतर संसाराचा सगळा घरंदाज पणा जायला लागला होता! काळाचा महिमा म्हणून आपण काळाबरोबर तडजोड करत गेलो!

मुलगी म्हटली की लहानपणापासूनच बाहुली आणि चुलबोळक्याची संगत असतेच तिला! आई जे काही आपल्याबरोबर वागते, करते, ते ते सगळं त्या खेळातल्या भावली बरोबर ती करत असते, नव्हे, अनुभवत असते आणि तो भातुकलीचा संसार सांभाळत असते.

तिच्या मैत्रिणी या तिच्या आईच्या मैत्रिणींसारख्या असत. त्यावरून आठवले, माझी मुलगी आणि तिच्या दोन मैत्रिणी त्यांची नावे आपापल्या आईची घेत असत आणि भातुकलीच्या खेळात त्याप्रमाणेच त्या बोलत, वागत!तो चूल बोळक्याचा संसार त्या आनंदाने सांभाळत. त्यात चुरमुऱ्याचा भात, शेंगदाणे आणि गुळाचे लाडू असतच! असा हा संसार मांडता मांडता मुलगी मोठी होते आणि खरंच संसारात पडते!

जीवनाच्या चक्राप्रमाणेच आधी मुलगी, मग गृहिणी, आई, आजी अशा भूमिका निभावत स्त्रीचे जीवन चक्र चालू असते!

तरी स्त्रीतील बदल जसे होतात तसेच निसर्गाचे बदल ही आपण समजून घेतले पाहिजेत. धरित्री किंवा सृष्टी ही आपली सृजनशील माता आहे. तिच्या पोटी येणारे जीवनाचे अंकुरांचे, हवा आणि पाणी यांनी पोषण केले जाते. रोप वाढते, झाड बनते आणि पुन्हा त्याला फुले, फळे येऊन त्यांच्या बिजातून नवीन रोप जन्माला येते. निसर्गाचे हे चक्र अव्याहत चालू असते.

‘आधी बीज एकले, एका बिजा पोटी, फळे कोटी कोटी, पोटी जन्म घेती, सुमने, फळे!’ या गीताप्रमाणे निसर्ग वाढ करीत असतो!

सृष्टीने मांडलेल्या या जीवन संसारात पंचमहाभूतांची गरज ही अगदी नि:संशय आहे. माणसाने निसर्गाचे खच्चीकरण करायला सुरुवात केली, त्यामुळे त्याचे परिणाम आता दृष्टीस दिसू लागले!

परमेश्वराने मांडलेला हा सृष्टीचा खेळ एखाद्या सुंदर, नेटक्या भातुकली सारखाच आहे. प्रकृती आणि पुरुष यांच्यासह निसर्ग, प्राणी त्याची लेकरे आहेत. माणसाने निसर्गापेक्षा वरचढपणा दाखवायचा प्रयत्न केला की निसर्ग आपली वडीलकीची अस्त्रे हातात घेतो हे आपल्याला कोरोनामुळे बघायला मिळाले..

अशावेळी निसर्ग दाखवून देतो की माणसाचा हा भौतिक हव्यास सुखदायी वाटत असला तरी तो अंतिमतः दुःखाकडे नेणारा आहे, ही जाणीव मनुष्य विसरला आहे. ती करून देण्याकरता कोणत्या ना कोणत्या स्वरूपात निसर्ग प्रकट होत असतो… जसे मोठी वादळे, भूकंप, किंवा कोरोना…

कोरोनाच्या काळात काही गोष्टी मात्र चांगल्या घडल्या. त्या म्हणजे माणसाच्या खऱ्या गरजा खूप कमी असतात याची जाणीव झाली. दुसरे म्हणजे नातेसंबंध, परिचित आणि सभोवतालचे लोक या सर्वांना सामावून घेण्याची वृत्ती वाढली. कुटुंबामध्ये एकत्र राहिल्यामुळे प्रेमाचा जबाबदारीचा बाॅंड अधिकच वाढला. सामाजिक जाणीव झाल्यामुळे वेगवेगळ्या संस्थांद्वारे सर्वांना मदत पोहोचवण्याकडे माणसाचा कल वाढला. स्वार्थीपणाने फक्त स्वतःचा संसार करण्यापेक्षा या भातुकलीचा विस्तार अधिक वाढला. माणसाला या गोष्टीची जाणीव आपोआपच झाली की सभोवतालचे जग हा आपलाच एक भाग आहे. कधीतरी हे नश्वर जग सोडून आपल्यालाही जायचे आहे. अचानकपणे संसारातून काहींची ‘एक्झिट’ होऊ शकते. भातुकली सारखा हा संसार करता करता तो कधी बोलावेल याची शाश्वती नाही, तेव्हा मात्र हा खेळ तसाच टाकून पटकन जाता आले पाहिजे, अशी मनाची तयारी करायची. मग मागे राहिलेली ही चूल बोळकी कोण वापरेल की टाकेल याची चिंता नाही करायची!

घरी येऊन नातीला भातुकलीचा खेळ मांडून देताना माझे मन पूर्णपणे संसाराची भातुकली फिरून आले. आणि सगळ्या जाणिवांसह मी पुन्हा उत्साहाने तिची भातुकली मांडून दिली…!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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सूचनाएँ/Information ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव द्वारा प्रो हेमंत सामंत के मूल लेखों से अनुवादित दो हिंदी पुस्तकें ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी. जी. परिख के हाथों लोकार्पित☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

डॉ. मीना श्रीवास्तव

☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव द्वारा प्रो हेमंत सामंत के मूल लेखों से अनुवादित दो हिंदी पुस्तकें ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी. जी. परिख के हाथों लोकार्पित ☆

१७ नवंबर २०२४ को महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय के स्मृति दिवस के दिन प्रो. हेमंत सामंत द्वारा अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों और उनके कार्यक्षेत्र से संबंधित मराठी लेखों पर आधारित डॉ मीना श्रीवास्तव द्वारा अनूदित “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनदेखे समरांगण” और “भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की अनकही कहानियां” इन दो हिंदी अनुवादित पुस्तकों का विमोचन  हुआ।  प्रत्येक पुस्तकों में ३८ अध्याय हैं, जो न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों द्वारा किये हुए स्वतंत्रता संघर्ष को दर्शाते हैं।

लेखक और अनुवादक के लिए यह बड़े ही गर्व की बात थी कि उम्र का शतक पार कर चुके बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी. पारिख ने मुंबई के ग्रांट रोड स्थित अपने आवास पर इन दोनों पुस्तकों का विमोचन किया। उनके प्राकृतिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, केवल कुछ व्यक्ति ही इस कार्यक्रम में शामिल हो पाए। हिंदी में  अनुवादित पुस्तकों की लेखिका डॉ. मीना श्रीवास्तव, मूल लेखक प्रो. हेमंत सामंत एवं लुपिन कंपनी के मॅन्युफॅक्चरिंग ऑपरेशन्स के अध्यक्ष श्री राजेंद्र चुनोडकर विमोचन के कार्यक्रम में उपस्थित थे। साथ ही लेखक द्वय के परिवारजन भी इस अवसर पर उपस्थित थे| उल्लेखनीय बात यह है कि इन दोनों पुस्तकों की प्रस्तावना ई-अभिव्यक्ति – www.e-abhivyakti.com के संपादक श्री हेमन्त बावनकर ने लिखी है|

इस अवसर पर संक्षिप्त मार्गदर्शन व्यक्त करते हुए श्री पारिख ने बिगड़ते पर्यावरण और जल के अपव्यय पर खेद व्यक्त किया। उन्होंने अहम संदेश देते हुए कहा कि “समाज की सेवा के लिए सत्ता की जरूरत नहीं है, बल्कि देशभक्ति की भावना को प्रदीप्त करने की जरूरत है।” कुल मिलाकर, पुस्तक विमोचन का यह कार्यक्रम अनूठा रहा।

💐 ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ. मीना श्रीवास्तव जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई 💐

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 314 ☆ आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆

?  आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,

दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।

तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,

एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।

दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,

देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला  

 – डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन

विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।

भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।

एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।  

प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन,  रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने,  फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।  

इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।

मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।

 उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.

एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे,  भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन,  कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।

 पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।

कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पुण्य म्हणजे नक्की काय असतं..?… लेखिका : सुश्री संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆

श्री मेघ:श्याम सोनावणे

💥 मनमंजुषेतून 💥

☆ पुण्य म्हणजे नक्की काय असतं..?… लेखिका : सुश्री संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆

लहानपणी अनेकदा ‘असं का करायचं? ‘ या प्रश्नाला उत्तर असायचं “पुण्य मिळतं म्हणून! ” आणि ‘असं का नाही करायचं’ याचं “पाप लागतं म्हणून” असं उत्तर हमखास मिळायचं. पण पाप आणि पुण्य कसं ओळखायचं याचं उत्तर मनाशी निगडित आहे, नव्हे, पाप आणि पुण्याच्या तारा दुसऱ्याच मनाशी जोडलेल्या आहेत हे सत्य समजायला वयाची कित्येक वर्षे जावी लागली. या अशाच दिवसांची ही गोष्ट!

गणपतीचे दिवस आले की मला ती जेमतेम पाच- पावणेपाच फुटाची बटुमूर्ती आठवते. अवघ्या दु:खाचा प्रदेश जिथवर पसरला असावा आणि समस्त सोशीकपणाची सीमा जिथून सुरू होत असावी असा तो समईतल्या सरत्या ज्योतीसारखा चेहरा आठवतो. सुकत चाललेल्या रोपट्यासारखी, विटकरी लुगड्यातली ती कृश देहयष्टी डोळ्यांसमोर येते. दात नसलेल्या तोंडावरचं ते गोड हसू आठवतं. समोरच्या रस्त्यावरून येणारी-जाणारी माणसे बघत, दाराशी एकटीच बसलेली ती दीनवाणी मूर्ती दिसते. पागोळ्यांमुळे छपराखाली खळगाही व्हावा आणि भरूनही निघावा तसं काहीसं होतं.

तर अशा त्या माझ्या आजेसासूबाई, मनूताई! लहानपणी पायाला गळू झालं. त्या काळाच्या उपायांप्रमाणे त्यावर जळू लावली गेली. का तर जखमेतला अशुद्ध द्रव शोषून घेते म्हणून. थोड्या वेळाने ती ओढून काढायची होती पण कामाच्या नादात घरातली मंडळी विसरली, अशुद्ध रक्तानंतर त्या जळवेने पायातले शुद्ध रक्तही ओढून घेतले आणि मनूताईचा उजवा पाय कायमचा अधू झाला. तरीही लग्न झालं, संसार झाला, मुलंबाळं झाली. पण वयाच्या तिसाव्या वर्षीच वैधव्य पदरी पडलं. मुलं शिकली सवरली पण वृक्ष वाढत रहावा आणि त्याच्या बुंध्याशी असलेल्या पाराला चिरा पडत रहाव्यात तसं होत राहिलं. वृक्षाचा पाचोळा, पारावरचं अश्राप देऊळ निमूट झेलत राहिलं.

माझ्या मुलीचं, सोनलचं बारसं झाल्यावर मी आजींना माझ्याबरोबर पुण्याला घेऊन आले. वैधव्य आल्यानंतर त्या काळी ज्या जनरीती पाळल्या जात असत त्या बिनबोभाट पाळणारा, द्रव्यहीन, कुचंबलेला, कित्येक वर्षे घराबाहेर न पडलेला हा एकाकी, लहानखोरा जीव आनंदाने माझ्याबरोबर यायला तयार झाला यामागचे कारण मला सहजी कळण्यासारखेच होते.

जेवायच्या वेळी त्या खाली बसत आणि आम्ही दोघे डायनिंग टेबलवर. असे दोन- तीन दिवस गेल्यावर मला राहवेना. “आजी तुमचा काही असा नियम आहे का की खाली बसूनच जेवायचं? ” जुन्या धारणांना आपला धक्का बसू नये अशा मर्यादेने मी विचारले.

निर्मळ हसून त्या म्हणाल्या, ” नाही ग, तसं काही नाही, पण सवय नाही आणि मला टेबल उंच पडतं ना! “

त्यांच्या उंचीची अडचण लक्षात आल्यावर मी त्यांच्या खुर्चीसाठी एक चौकोनी, जाड उशी करून घेतली आणि माझे मिस्टर त्यांना उचलून खुर्चीत बसवू लागले.

माहेरून मी सी. के. पी. असल्याने मांसाहारी आहे हे त्यांना माहीत होतं. त्यांना वाटलं होतं की माझ्याकडे रोजच तसा स्वयंपाक असणार. दोन तीन दिवस माझ्या ताटात शाकाहारी जेवण बघून, माझ्याकडे पाहात त्यांच्या सायीसारख्या आवाजात त्या मला हळूच म्हणाल्या, ” संजीवनी, तुझ्या पानात ते ‘तुमचं’ काही दिसत नाही? माझ्यासाठी तुझा पोटमारा करू नकोस हो, तुला हवं ते तू आपली खुशाल करून खात जा. “

मी थक्क झाले. ट्रिपला गेल्यावर माझ्या पानातलं नॉनव्हेज पाहून नाकतोंड वाकडं करणाऱ्या, पलीकडच्या टेबलावर जाऊन जेवणाऱ्या काही मैत्रिणी मला आठवल्या. सासऱ्यांना आवडतो म्हणून (वेगळ्या भांड्यांत, आपल्या परवानगीनेच) करावासा वाटणारा सामिष सैपाक सुरू केल्यापासून पार मागची आवराआवर होईपर्यंत जवळच्या देवळात जाऊन बसलेल्या सासूबाई आठवल्या. ही तर माझ्या दोन पिढ्या आधीच्या, शुद्ध ब्राह्मणी संस्कारात वाढलेली बाई! तिचं मऊ मन माझ्या मनाला एखाद्या शीतल झुळुकीसारखं स्पर्शून गेलं आणि डोळ्यात पाणी भरून आलं.

गणपतीचे दिवस जवळ आले होते. आमच्या घराच्या पाठीमागच्या मंडपात सजावटीची तयारी जोरात चालू होती. खिडकीजवळ एक उंच स्टूल ठेवून त्यावर मी त्यांना बसवत असे. तिथून ते सगळे छान दिसत असे. ती सजावट बघताना त्या म्हणाल्या, ” किती वर्षे ऐकत आले पुण्यातल्या गणपतींबद्दल! फार बघण्यासारखे असतात ना? बरं झालं, बसल्या जागेवरूनच या गणपतीचं तरी दर्शन होईल आता मला. ” ऊन-पावसासारखा त्यांच्या चेहऱ्यावर खंत आणि आनंदाचा लपंडाव पाहिला मी. आपल्या पांगळेपणाची इतकी खंत त्यांना आजवर कदाचित कधीही वाटली नसावी.

आमच्या प्रेमनगर कॉलनीतल्या एकांची रिक्षा होती हे मला ऐकून माहीत होतं. मी संध्याकाळी त्यांच्याकडे गेले. नवा नवाच संसार होता आमचा. सांपत्तिक स्थिती बेताचीच होती. पण त्यांना म्हटले, “काका, गणपतीच्या पाचव्या दिवशी मला रिक्षेतून माझ्या आजेसासूबाईंना गणपती दाखवायला न्यायचे आहे, दुपारी चार ते साधारण सात वाजेपर्यंत. जमेल का तुम्हाला? त्यांना अधू पायामुळे जास्त चालता येत नाही. ” काकांचा होकार आला. ह्यांनी सोनलला सांभाळायची जबाबदारी घेतली आणि बेत पक्का झाला.

दुसऱ्या दिवशी सकाळी मी आजींना म्हटले, “आजी, दुपारी चार वाजता आपल्याला बाहेर जायचं आहे. सोनलच्या बारशाला घेतलेलं निळं इंदुरी लुगडं नेसून तयार व्हा बरं का. “

आजींचा चेहरा कावराबावरा! बिचाऱ्या कोमट आवाजात म्हणाल्या, ” मला फार चालवत नाही ग संजीवनी. कुठं जायचंय? “

“जायचंय जवळच. ” मी म्हटलं.

बरोबर चार वाजता रिक्षा दारात येऊन थांबली. काकांनी आधार देत आजींना रिक्षेत बसवलं. त्यांच्या अंगाभोवती शाल गुंडाळत मी काकांना म्हटलं, “काका ही तुमची आजी आहे असं समजा. जरा हळूच चालवा आणि कमी गर्दीच्या ठिकाणी अशी रिक्षा थांबवा की आजींना रिक्षेतूनच त्या – त्या गणपतीबाप्पांचं दर्शन होईल. जितकं शक्य आहे तेवढं फिरवाल आम्हाला. “

चांगली माणसं अवतीभवती असण्याचा जमाना होता तो! काकांनी रुकार भरत मान हलवली, रिक्षेला किक मारली आणि आमची बाप्पादर्शन टूर निघाली. बरोबर तिघांना पुरेल असा खाऊ डब्यात भरून घेतला होता. पाणी घेतलं होतं आणि फार पाणी प्यायला लागू नये म्हणून लिंबाच्या गोळ्या जवळ ठेवल्या होत्या.

सातारा रोडवरून निघालेली रिक्षा मजल दरमजल करत सिटी पोस्टाजवळच्या दगडूशेठ हलवाई गणपतीजवळ येऊन थांबली. जवळपास अठ्ठेचाळीस वर्षांपूर्वीची ही गोष्ट! आताइतकी अलोट गर्दी होण्याचा काळ नव्हता तो आणि वेळही साडेपाच-सहाची. रिक्षा चौकातल्या उंच स्टेजच्या पायऱ्यांपाशी येऊन थांबली. तो शालीन थाट पाहून डोळे तृप्त झाले. आजच्यासारखी भव्यदिव्य सजावट तेव्हा नव्हती. डोळे दिपवणारा श्रीमंती, भव्य दिव्य देखावाही नव्हता नि दिखावाही नव्हता. त्या मूर्तीचे महात्म्यच कदाचित तेव्हा भाविकांना जास्त मोलाचे वाटत असावे.

स्टेजवर पाच सहा तरुण गप्पागोष्टी करत बसले होते. त्यांनी, रिक्षेतूनच धडपडत दर्शन घेण्याचा प्रयत्न करणाऱ्या, भक्तिभावाने हात जोडणाऱ्या नाजुकशा आजींना बघितले. दोघेतिघे पटापट खाली आले आणि त्यातल्या एकाने लहान बाळाला उचलून घ्यावे तसा, तो चिमणासा देह हातांवर उचलून, पायऱ्या चढून चक्क बाप्पांच्या अगदी चरणांपाशी उभा केला. आम्हालाही वर बोलावले. आजवर जिचे त्यांनी फक्त वर्णन ऐकले होते अशी ती सुविख्यात, भव्य मूर्ती, इतक्या जवळून, याचि देहि याचि डोळा बघताना, तिच्या पायांजवळ डोके टेकवताना आजींच्या सुरकुतल्या गालांवरून घळाघळा आसवांच्या धारा ओघळत होत्या आणि मी बाप्पांच्या ऐवजी आजींचा अश्रूंतून वाहणारा आनंद आनंदाने बघत होते. किती रूपात दिसतो नाही देव आपल्याला?

रिक्षेत बसल्यावरही किती तरी वेळ वाहात होते ते थकलेले वयस्क डोळे! माझा घट्ट धरून ठेवलेला हातच काय ते बोलत होता. मागे वळून काकांनी म्हटले, ” काय आजी, खूश ना? अहो दगडूशेठ गणपतीच्या पायांना हात लावायला मिळाला तुम्हाला! असं पुण्य कुणाला मिळतं का? ” 

आजी डोळे पुसत म्हणाल्या, “अहो, माझ्यासारख्या लंगड्या बाईला कधी पुण्यातले गणपती बघता येतील असं जल्मात वाटलं नवतं. देव तुम्हा दोघांचं खूप कल्याण करेल हो! मला देव दाखवलात तुम्ही! “

तोवर न उमजलेली, ‘ एकाच्या आनंदाच्या कारणाच्या तारा दुसऱ्या मनाच्या मुळाशी जुळल्या की तिथे जे झंकारतं ते पुण्य असतं ‘ ही व्याख्या तेव्हा आकळली मला आणि त्यासाठी फार काही तप करावं लागत नाही ही गोष्टही कळलीच! !

लेखिका : सुश्री संजीवनी बोकील

प्रस्तुती : मेघ:श्याम सोनावणे . 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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