मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – विटेवरती हरित शहारे – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ? – विटेवरती हरित शहारे  ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के 

फरशीखाली  माती दबली

माती नाही माता  गाडली

कट्ट्यावरती उघडी रहाता

त्या मातीवर विट ठेवली

थोडी तिजला मिळता जागा

बीज अंकुरून येई वरती

सजीवांच्या कल्याणास्तव

सृजनशील ही झटते धरती

इवले इवले सृजन पाहुनी

विटेवरती हरित शहारे

विट मनाशी हसून  म्हणते

या सृजनाने मीही सजले

चित्र साभार –सुश्री नीलांबरी शिर्के

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मराठी विलोमपदे – palindromes ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

मराठी विलोमपदे – palindromes ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

लहानपणी Palindrome हा प्रकार आवडायचा. 

Palindrome म्हणजे असा शब्द, वाक्प्रचार , वाक्य किंवा कोणतीही अर्थपूर्ण अक्षररचना, जी शेवटाकडून सुरुवातीकडे वाचत गेलं तरी बदलत नाही.

इंग्रजीत Palindrome ची रेलचेल शेकड्याने आहे. पण मराठीत हाताच्या बोटावर मोजण्याइतकेच…. 

लहानपणी तर दोन तीनच माहित होते…. 

१) चिमा काय कामाची 

२) ती होडी जाडी होती. 

३) रामाला भाला मारा. 

आता अजून वेगळी विलोमपदे –

१) टेप आणा आपटे. 

२) तो कवी ईशाला शाई विकतो. 

३) भाऊ तळ्यात ऊभा. 

४) शिवाजी लढेल जीवाशी. 

५) सर जाताना प्या ना ताजा रस. 

६) हाच तो चहा 

वा वा ! हे ताजे मराठी पॉलिनड्रोम्स, आय मीन, विलोमपदे.  वाचून मजा आली. आणखी काही विलोमपदे, आय मीन, पॉलिनड्रोम्स माहित आहेत का कोणाला?

 Very Interesting

तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं वन्दे यतो भव्यभवं दयाश्रीः ||१||

श्रीयादवं भव्यभतोयदेवं संहारदामुक्तिमुतासुभूतं ||२||

या श्लोकामध्ये पहिल्या चरणात श्रीरामाची स्तुती आहे आणि दुसऱ्या चरणात श्रीकृष्णाची .

या श्लोकाचे वैशिष्ट्य असे की, यातले दुसरे चरण पहिल्या चरणाच्या उलट्या क्रमात आहे . वाचून बघा …… 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहोदर…(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻

दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-

ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – सहोदर…(2) ??

न माटी मिली, न पानी,

न पोषण ही हिस्से आया,

सदा पत्थर चीरकर ही

अंकुरित हो पाया,

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म का मिथक

हमारा यथार्थ निकला,

बोधिवृक्ष और मेरा प्रारब्ध

हरदम एक-सा निकला!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ शास्त्रीजी ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ शास्त्री जी ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे  ☆

……फार आग्रह केल्यानंतर वरदक्षिणा म्हणून फक्त चरखा मागणारे शास्त्रीजी . 

….  परिवहन मंत्री असताना भारतातल्या पहिल्या महिला कंडक्टर ची नेमणूक करणारे शास्त्रीजी . 

……गृहमंत्री म्हणून काम करताना लाठीऐवजी पाणी वापरण्यास सांगणारे शास्त्रीजी . 

……वयाच्या दीड वर्षी वडील गमावल्यानंतर कित्येक मैल भर दुपारी अनवाणी चालत काॅलेजला जाणारे   शास्त्रीजी . 

……पुस्तके डोक्यावर बांधून दररोज दोन वेळा नदी पोहून शाळेत जाणारे शास्त्रीजी . 

….. एका रेल्वे अपघातात अनेक जणांना जीव गमवावा लागल्यामुळे  स्वत:ला जबाबदार ठरवत रेल्वेमंत्री पदाचा राजीनामा देणारे शास्त्रीजी .  

……गरीब लोकांची घरे पाडावी लागू नये म्हणून घरी पायी जाणारे पंतप्रधान शास्त्रीजी . 

……पंतप्रधान असताना मुलाच्या काॅलेज अर्जावर आपला हुद्दा ‘ सरकारी कर्मचारी ‘ असे लिहिणारे शास्त्रीजी . 

……पाकिस्तानला सर्वात प्रथम पाणी पाजणारे, ‘ जय जवान जय किसान ‘ जयघोष करत सैनिकांसाठी  पूर्ण देशासोबत दर सोमवारी उपवास करणारे शास्त्रीजी . 

……पंतप्रधान असताना खासगी कामासाठी सरकारी गाडी वापरल्यावर लगेच त्याचे पैसे सरकारी तिजोरीत  जमा करणारे शास्त्रीजी . 

— मृत्यूनंतर त्यांच्या नावावर घर जमीन मालमत्ता काहीच नव्हते. होते फक्त फियाट घेण्यासाठी घेतलेले कर्ज. आणि बँकेने ते कर्ज शास्त्रीजींच्या पश्चात त्यांच्या पत्नीकडून वसूल केले.

म. गांधीजींच्या जयंतीच्या गदारोळात त्यांचा हा कर्मयोगी शिष्य नेहमी झाकोळला जातो. 

असे साध्या पण निग्रही, मृदु स्वभावाचे पण कर्तव्यकठोर वृत्तीचे, सगळ्यात कमी कालावधीत मोठा प्रभाव टाकणारे आपले दुसरे पंतप्रधान लाल बहादूर शास्त्रीजी ….. 

…. त्यांना अनंत दंडवत….

संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #154 ☆ भावना के दोहे… श्री राम ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे…श्री राम।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 154 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… श्री राम  ☆

सदियों से  सब कर रहे, बने राम दरबार।

पावन भूमि अयोध्या, जय जय सीता राम।।

देख लिया हर रूप में, तुम हो मेरे राम।

वचन निभाया आपने, मर्यादा के नाम।।

वंदन है प्रभु आपको, विनती है प्रभु राम।

अपनी शरण में रख लो, हो जब तक ना शाम।।

बस केवल जपते रहो ,राम राम श्री राम.

काम सारे  हो रहे, लेते ही प्रभु नाम।।

महिमा केवल आपकी, राम राम प्रभु राम।

पूरे अब होने लगे, बनते बिगड़े काम।।

वातायन में गूंजती , प्यारी सी आवाज।

सुमिरन है श्री राम का, बजते सारे साज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#153 ☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है  “तन्मय के दोहे…”)

☆  तन्मय साहित्य # 153 ☆

☆ तन्मय के दोहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कुछ दोहे….

फूलों जैसा दिल कहाँ, पैसा हुआ दिमाग।

दिल दिमाग गाने लगे, मिल दरबारी राग।।

 

भीतर की बेचैनियाँ, भाव-हीन संवाद।

फीकी मुस्कानें लगें, चेहरे पर बेस्वाद।।

 

संबंधों  के  बीच में,  मजहब की  दीवार।

देवभूमि, इस देश में, यह कैसा व्यवहार।।

 

निश्छल सेवाभाव से,  मिले परम् संतोष।

मिटे ताप मन के सभी, संचित सारे दोष।।

 

शुभ संकल्पों की सुखद, गागर भर ले मीत।

जितना बाँटें  सहज हो,  बढ़े  सभी से प्रीत।।

 

कर्म अशुभ करते रहे, दुआ न आये काम।

मन की निर्मलता बिना, नहीं मिलेंगे राम।।

 

चार बरस की जिंदगी, पल-पल क्षरण विधान।

साँस-साँस नित मर रहे, मूल्य समय का जान।

 

जब-जब सोचा स्वार्थहित, तब-तब हुए उदास।

जब भूले हित स्वयं के,  हुआ सुखद अहसास।।

 

सत्य मार्ग पर जब चले, कठिनाइयाँ अनेक।

अंत मिले संतोष धन, दृढ़ता विनय, विवेक।।

 

यह जीवन फिर हो न हो, आगे सब अज्ञात।

भेदभाव की  बेड़ियाँ, छोड़ें  जात – कुजात।।

 

रंग-रूप छोटे-बड़े, अलग/अलग सब लोग।

भिन्न-भिन्न मत-धर्म हैं,  यही सुखद संयोग।।

 

सत्कर्मों के पेड़ पर, यश-सुकीर्ति फलफूल।

ध्यान  रहे  यह  सर्वदा, रहें  सींचते  मूल।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #161 ☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य सावित्री-सत्यवान कथा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 161 ☆

☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा

अंततः सत्यवान सिंह का अंत आ गया। नगर के प्रसिद्ध ज्योतिषी भविष्याचार्य ने उसकी कुंडली देखकर चार छः महीने पहले ही बता दिया था कि उसके लिए इक्कीस का साल घातक है। इसमें भविष्याचार्य जी का कोई ज़्यादा श्रेय नहीं था। मँहगाई की मार से नित-नित सूखती सत्यवान सिंह की काया को देखकर कोई भी कह सकता था कि उसके लिए इक्कीस का साल पार करना मुश्किल होगा।

भविष्याचार्य ने सत्यवान सिंह से कहा था कि वह वृहस्पतिवार को उनके पास आये तो वे उसे उचित दक्षिणा लेकर अनिष्ट से बचने का कोई उपाय बताएँगे। लेकिन वृहस्पतिवार आने से पहले ही भविष्याचार्य जी हृदयाघात से पीड़ित होकर स्वर्गलोक को चले गये और सत्यवान सिंह को अनिष्ट-मुक्त करने का नुस्खा भी साथ ले गये।

एक शाम सत्यवान सिंह ड्यूटी से लौटकर घर आया और दरवाज़े पर चक्कर खाकर गिर गया। उसकी पत्नी सावित्री दौड़कर दरवाज़े पर आयी तो उसने देखा एक विकराल मुखाकृति और बड़ी-बड़ी मूँछों वाला मुकुटधारी वृद्ध पुरुष सत्यवान के जीव को एक रस्सी से बाँध रहा था। वृद्धावस्था के कारण उसके हाथ काँप रहे थे और जीव बार-बार रस्सी में से सटक जाता था।

सावित्री ने वृद्ध का परिचय पूछा तो वे बोले, ‘पुत्री, मैं यमराज हूँ। तेरे पति की आयु पूरी हुई। मैं उसका जीव लेने आया हूँ।’

सावित्री ने यमराज से पति के जीवन के लिए बहुत अनुनय-विनय की, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। बोले, ‘बाई, मैं बिना किसी ठोस कारण के किसी को ‘एक्सटेंशन’ नहीं दे सकता। मुझे भगवान को जवाब देना पड़ता है। इसलिए तू माया-मोह छोड़ और मुझे अपना कर्तव्य करने दे।’

अनुनय-विनय से काम न निकलते देख सावित्री ने एक दूसरे अस्त्र, खुशामद का प्रयोग किया। बोली, ‘प्रभु, आपके पास तो अनेक दूत हैं, फिर आप यह काम स्वयं क्यों करते हैं?’

यमराज उसकी बात सुनकर प्रसन्न हुए, फिर दुःखी भाव से बोले, ‘मैं जानता हूँ, पुत्री, कि ‘सीनियर’ को अपने हाथ से कोई काम नहीं करना चाहिए, लेकिन कारण बताते हुए मुझे शर्म आती है। पहले मैं अपने दूतों को इस काम के लिए भेजता था, लेकिन इसमें घपला होने लगा था। दूत अमीर लोगों से रिश्वत खा लेते थे और उनकी जगह गरीबों का जीव निकाल ले जाते थे। कई दूतों की विभागीय जाँच चल रही है। मेरे ऊपर भी आक्षेप आ रहा है। इसीलिए अब यह काम मैं अपने हाथ से करता हूँ।’

जब यमराज सत्यवान के जीव को लेकर चलने लगे तो सावित्री उनके पीछे लग गयी। कुछ दूर जाकर यमराज बोले, ‘देख पुत्री, मैं सत्यवान का जीव छोड़ने वाला नहीं। हाँ, उसके बदले तू कुछ और माँगे तो दे सकता हूँ।’

सावित्री की स्त्री-सुलभ व्यवहारिक बुद्धि जागी। उसने देख लिया कि वृद्धावस्था के कारण यमराज बात के मर्म को जल्दी नहीं पकड़ पाएँगे। अतः उसने आज जोड़कर कहा, ‘प्रभु, वर दीजिए कि मुझे अपने पति से सौ पुत्र प्राप्त हों।’

यमराज जल्दी में ‘एवमस्तु’ कह कर चल दिये तो सावित्री ने हँसकर कहा, ‘तो फिर प्रभु, मेरे पति को कहाँ लिये जाते हो?’

यमराज ने अपनी गलती समझ कर माथा ठोका, बोले, ‘निश्चय ही मैं सठिया गया हूँ, तभी तू इतनी आसानी से मुझे मूर्ख बना सकी। खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं तेरे पति के जीव को छोड़ता हूँ। मुझे भगवान को स्पष्टीकरण देना  पड़ेगा, लेकिन कोई उपाय नहीं है।’

उन्होंने एक लंबी साँस लेकर सत्यवान के जीव को मुक्त कर दिया और अपनी रस्सी समेटने लगे।

सावित्री प्रसन्न भाव से उस स्थान पर आयी जहाँ सत्यवान लेटा था। सत्यवान अब बैठा हुआ, स्थिति को समझने की कोशिश में आँखें झपका रहा था।

सावित्री ने हुलास से उसे संपूर्ण घटना सुनायी। लेकिन जैसे ही सावित्री ने उसे सौ पुत्रों के वर की बात बतायी, वह पुनः भूमि पर गिर पड़ा और उसका जीव उसके शरीर से निकलकर यमराज के पास पहुँच गया। यमराज जीव को पकड़कर शरीर तक लाये और उसे बलात शरीर में प्रविष्ट करा दिया। सत्यवान पुनः जीवित हो गया।

जीवित होने पर सत्यवान सावित्री से बोला, ‘भद्रे, तूने सौ पुत्र माँग कर मेरा सर्वनाश कर दिया। इस मँहगाई में मैं भला कैसे उनका लालन-पालन करूँगा?’

सावित्री दुखी भाव से बोली, ‘आर्यपुत्र, मैंने तो सौ पुत्रों की माँग इसलिए की थी इस प्रकार आपका सौ वर्ष का बीमा हो जाएगा।’

तब सत्यवान यमराज के चरण पकड़ कर बोला, ‘प्रभु, आपने मेरा जीवन तो लौटा दिया, लेकिन यह वरदान देकर मुझे जीते जी मौत के मुँह में ढकेल दिया। मैं सौ पुत्रों के

नाम तो दूर, उनकी शकलें भी याद नहीं रख पाऊँगा। अतः इस वरदान को वापस लेने की कृपा करें।’

यमराज बोले, ‘पुत्र, मैं पुरानी परंपरा का पालक हूँ। मेरा वचन धनुष से निकले बाण की तरह होता है। अब इस प्रकरण में कुछ नहीं हो सकता।’

सत्यवान बोला, ‘प्रभु, अब धनुष- बाण का जमाना लद गया। यह मिसाइल का युग है। आजकल वचन पूरा करने वाला मूर्ख कहलाता है।’

यमराज बोले, ‘पुत्र, तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन अब इस उम्र में हम अपने संस्कारों से मुक्त होने से रहे। अतः अब तुम सौ पुत्र उत्पन्न करो और दीर्घायु का भोग करो।’

यमराज का यह फैसला सुनकर सत्यवान और सावित्री आपस में झगड़ने लगे, और यमराज उन्हें झगड़ते हुए छोड़कर अन्य जीवो को समेटने के लिए चल दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #138 ☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – शिक्षा। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 140 ☆

☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पढ़ें-लिखें आगे बढ़ें, जिससे बनें नवाब

कहते लोग पुरातनी, बढ़ता तभी रुआब

 

ज्ञान न बढ़ता पढ़े बिन, गुण का रहे अभाव

शिक्षा जब ऊँची मिले, बढ़ता तभी प्रभाव

 

बढ़े प्रतिष्ठा सभी की, मिले मान सम्मान

काम-काज अरु नौकरी, करती यह आसान

 

रोशन होती ज़िंदगी, पाता ज्ञान प्रकाश

खुद निर्भर हो मनुज तो, यश छूता आकाश

 

शिक्षा देती आत्मबल, जग में बढ़ता मान

शिक्षित होना चाहिये, कहते चतुर सुजान

 

महिलाओं को दीजिए, शिक्षा उच्च जरूर

दो कुल को रोशन करें, बढ़ता गौरव नूर

 

शिक्षा में शामिल करें, नैतिकता का पाठ

बनें सुसंस्कृत नागरिक, खुले बुद्धि की गांठ

 

शिक्षा ऐसा धन सखे, जिसमें टूट न फूट

चोर चुरा सकता नहीं, होती कभी न लूट

 

शिक्षा से हमको मिले, सदा शांति संतोष

खुशियाँ जीवन में बढ़ें, और बढ़े धन-कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘सूर्य ढळलेला माणूस…’ – भाग – 5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘सूर्य ढळलेला माणूस…’ – भाग – 5 ☆  श्री आनंदहरी  ☆ 

” मी इथे बसलो तर चालेल ना ? “

आवाजाने मी ‘ नक्षत्रांच्या देण्यातून ‘, विचारातून भानावर आलो. आवाजाच्या रोखाने पाहिले. माझ्यापेक्षा अंदाजे पाच-सहा वर्षांनी लहान वाटणारी व्यक्ती मलाच विचारत होती, ‘मी इथे बसलो तर चालेल ना ?’

मला कितीतरी वर्षांपूर्वीचा प्रसंग आठवला. मी ही कबीरबाबांना असाच प्रश्न विचारला होता.

” बसा हो.”

” धन्यवाद ! आपण ? “

” मी ? मी, सूर्य ढळलेला माणूस ! “

पूर्वीचा प्रसंग ऐकून नकळत माझ्या तोंडून मला त्यावेळी बाबांनी दिलेले उत्तरच बाहेर पडले.

माझ्या उत्तराने ती व्यक्ती चमकली आणि माझ्या शेजारी येऊन बसत म्हणाली,

” तुम्ही बाबांना भेटला होतात ?  ओळखत होतात त्यांना ? “

” एकदा भेट झाली होती.. पण अजूनही लक्षात आहे. त्यालाही झाली असतील पंचवीसेक वर्षे.”

” पंचवीस वर्षे ? कसे शक्य आहे ? त्यांना जाऊन तर सत्तावीस वर्षे झाली. “

” वर्षांचा हिशेब आठवणीत कुठे राहतो ? आठवणीत फक्त क्षणांची गर्दी असते. काही मोजक्याच क्षणांचीच गर्दी. बाबांची भेटही तशीच. काही क्षण घडलेली. त्यांचे नावही मला ठाऊक नव्हते. मी त्यांना मनोमन कबीरबाबा असे नावही दिले होते. मी त्यांना नाव विचारले होते, नाही असे नाही  तेंव्हा त्यांनी हेच उत्तर दिले होते, ‘ सूर्य ढळलेला माणूस ! ‘

” हो. ते शब्द नेहमी त्यांच्या तोंडात असायचे. “

ते म्हणायचे नाव काहीही असले तरी आपली खरी ओळख हीच असते. उगवत्या सूर्याचे कौतुक असते. कोवळी कोवळी किरणे मनाला उल्हासित करतात, एखाद्या बालकासारखी. मध्यानीचा सूर्य आपल्या मस्तीतच तळपत असतो. आपण साऱ्या जगाला प्रकाश देतो याची त्याला जाणीव झालेली असते. कुटुंबातील कर्ता-सवरता माणूस असाच असतो… आणि सूर्य मावळतीला गेला की आपला अस्त जवळ आला असल्याची जाणीव त्याला होत असावी. त्याने आपल्याला प्रकाश दिला आहे याची कृतज्ञतापूर्वक जाणीव इतरांना असत नाही. ते फक्त मावळत्या सूर्याची शोभा पहात असतात.  त्यांना तो सूर्य क्षितीजपार झालेला, मावळलेला पहायचा असतो. त्यांच्या दृष्टीने त्याची उपयुक्तता संपलेली असते. उगवत्या सूर्याची प्रतीक्षा त्यांच्या मनात असते.

” आयुष्यभर खस्ता काढून थकली-भागलेली माणसे अशीच…. “

” हो. फक्त अडचण ठरणारी. कुणीही उठ म्हणले की उठावे लागणारी..”

माझ्या मनात घरातील प्रसंग तरळून जाऊ लागले.

” तुम्हांला सांगतो, खूप वाईट वाटते हो , बाबांची आठवण आली की.. या वयात अपेक्षा असतात त्या काय आणि किती ? पण आम्ही त्याही पूर्ण करू शकलो नाही. प्रेमाने दोन शब्द बोलायला, विचारपूस करीत दोन क्षण जवळ बसायलाही आम्हांला वेळ मिळाला नाही.. वेळ मिळाला नाही म्हणणेही चुकीचेच आहे. आम्हांला जाणीवच झाली नाही कधी त्याची. “

” त्यावेळी तुम्ही मध्यान्ही तळपत होता ना ! हे असेच असते हो … फार वाईट वाटून घेऊ नका. ही जगराहाटीच आहे. एक विचारू ? “

” विचारा. “

” ही चुकल्याची जाणीव तुम्हांला कधी झाली ? सूर्य ढळल्यावरच ना ? “

क्षणभर विचारात पडून तो म्हणाला,

” खरं सांगायचं तर हो. “

मी हसलो. मी पहिल्यांदा इथं आलो तेंव्हा माझी आणि बाबांची भेट झाली. त्यानंतर बाबा पुन्हा इथं आलेच नाहीत. अनंताच्या प्रवासाला निघून गेले.. इथल्या प्रवासाच्या अंतिम स्टेशनवर पोहोचले.. त्यांचा इथला प्रवास संपला. सूर्य क्षितीजपार गेला.  आज तो इथं आला म्हणजे… म्हणजे माझाही हा प्रवास संपत आलाय. आता उद्यापासून इथं यायचं कारण नाही, कुणाला अडचण वाटायचे कारण नाही.. कुणाच्या टी-पार्ट्या, कुणाचं रॅप-पॉप.. कुठंच अडचण नाही.

मनाला खूप बरं वाटू लागले… मोकळं मोकळं. जणू कसले तरी ओझे उतरून बाजूला ठेवून दिल्यासारखे, डोक्यावरून  उतरल्यासारखे.  

अंतिम स्टेशन जवळ आल्याचे जाणवले तसा प्रवासाचा सारा शीण उतरून गेल्यासारखे वाटू लागले.. एकदम ताजे-तवाने. माझा सूर्य आता क्षितिजापार चाललाय.

उद्या तो माझी वाट पाहिल, परवा वाट पाहिल, काही दिवस वाट पाहिल अन  वाट पाहण्याचं पुन्हा विसरूनही जाईल.. पण तो मात्र इथं येतंच राहील.. पुन्हा कुणीतरी नवागत इथं येईल. त्याला विचारेल,

‘ इथं बसले तर चालेल का ? ‘

तो विचारणाऱ्याकडे नजर टाकून म्हणेल,

‘ बसा. कुणीही तुम्हांला, ‘ इथून उठा, ‘ म्हणणार नाही. ‘

थोड्या वेळाने तो नवागत त्याला विचारेल,

‘ आपण ? ‘

तो म्हणेल,

‘ सूर्य ढळलेला माणूस. ‘

अन् दिशांदिशांमधून प्रतिध्वनी उमटत राहतील,

‘ सूर्य ढळलेला माणूस !’

‘ सूर्य ढळलेला माणूस !! ‘

‘सूर्य ढळलेला माणूस !!! ‘

◆ समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली

८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ७ सप्टेंबर – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ ७ सप्टेंबर – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

भगवान रघुनाथ कुलकर्णी अर्थात बी.रघुनाथ 

कथा, कादंबरी व काव्य लेखन करणारे बी. रघुनाथ हे मराठवाड्यातील परभणीचे. त्यांनी हैद्राबाद येथे मॅट्रीक पर्यंत शिक्षण घेतले.कौटुंबिक परिस्थितीमुळे शिकणे शक्य नसल्यामुळे त्यांनी निजामाच्या सार्वजनिक बांधकाम खात्यात नोकरी स्विकारली.

तरूण वयातच त्यानी लेखनाला सुरुवात केली. वयाच्या सतराव्या वर्षी त्यांची पहिली कविता हैद्राबाद येथील ‘राजहंस’ या मासिकात प्रसिद्ध झाली. तेथून त्यांचा साहित्यिक प्रवास सुरू झाला. कवितेशिवाय कथा, कादंबरी व निबंध लेखन हे त्यांचे लेखनाचे मुख्य प्रकार होते. कथा लेखन हीच आपली खरी ओळख आहे असे ते स्वतः मानत. सामाजिक, राजकीय, कौटुंबिक परिस्थिती अनुकूल नसतानाही त्यांनी केलेले कथा व कादंबरी लेखन मराठी साहित्यात महत्वाचे ठरते. आत्ममग्नतेला शब्दरूप देणारा लेखक असे त्यांच्या लेखनाचे वर्णन केले जाते.तसेच त्यांना प्रादेशिक कथा कादंबरीचे जनक मानले जाते. यावरून त्यांच्या लेखनाचे महत्व लक्षात येईल.

निजामशाहीत असल्यामुळे त्यांच्या भाषेवर उर्दू भाषेचा प्रभाव जाणवतो. त्यांची कविता ही नवता व नाविन्याची आस लागलेली कविता आहे असे जाणकारांनी म्हटले आहे. त्यांच्या कवितांचे विषय विविध असले तरी त्यात प्रणयाराधन व स्त्रीदेहाचे वर्णन अधिक आहे. सामाजिक आणि राजकीय जाणीव व्यक्त करणा-या कविताही त्यांनी लिहील्या आहेत. अवघ्या चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात आणि प्रतिकुल परिस्थितीत त्यांनी निर्मिलेली साहित्य संपदा याप्रमाणे:

काव्यसंग्रह: आलाप आणि विलाप, पुन्हा नभाच्या लाल कडा

कथासंग्रह: साकी, फकीराची कांबळी, छागल, आकाश, काळी राधा.

कादंबरी: हिरवे गुलाब, उत्पात, म्हणे लढाई संपली, जगाला कळले पाहिजे, आडगावचे चौधरी, ओ, बांबू दडके.

स्फूटलेखन: अलकेचे प्रवासी.

काही गाजलेल्या कविता: उन्हात बसली न्हात, घन गरजे, तुजवर लिहीतो कविता साजणी, दुपार, सांज, लहर, या जगताची तृषा भयंकर, ते न तिने कधी ओळखीले.

सात सप्टेंबर एकोणीसशे त्रेपन्नला कार्यालयीन कामकाज चालू असतानाच त्याना हृदय विकाराचा झटका येऊन त्यांचे दुःखद निधन झाले.

त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन.🙏

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रामचंद्र भिकाजी जोशी

रामचंद्र भिकाजी जोशी हे संस्कृत आणि मराठी भाषा व व्याकरणाचे गाढे अभ्यासक म्हणून प्रसिद्ध आहेत.त्यांनी व्याकरण,भाषेतील अलंकार व  काही धार्मिक विषयांवरील पुस्तके लिहिली आहेत.

ग्रंथसंपदा: शिशुबोध व्याकरण, बालबोध व्याकरण, प्रौढबोध व्याकरण, मराठी पद्य वाचन, मराठी शब्द सिद्धी, मराठी भाषेची घटना, अलंकार विवेक, लग्नविधी आणि , सोहळे, धर्म आणि नीतिपर व्याख्याने, यापैकी मराठी भाषेची घटना हा एक महत्त्वाचा संदर्भ ग्रंथ मानला जातो.

रा.भि.जोशी यांचे 1927 मध्ये निधन झाले.

बी.रघुनाथ आणि रा.भि.जोशी यांच्या स्मृतीस अभिवादन. 🙏

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श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भः आधुनिक मराठी काव्य संपदा – संपादक-मधु मंगेश कर्णिक, लोकसत्ता.काॅम, विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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