हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #161 ☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य सावित्री-सत्यवान कथा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 161 ☆

☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा

अंततः सत्यवान सिंह का अंत आ गया। नगर के प्रसिद्ध ज्योतिषी भविष्याचार्य ने उसकी कुंडली देखकर चार छः महीने पहले ही बता दिया था कि उसके लिए इक्कीस का साल घातक है। इसमें भविष्याचार्य जी का कोई ज़्यादा श्रेय नहीं था। मँहगाई की मार से नित-नित सूखती सत्यवान सिंह की काया को देखकर कोई भी कह सकता था कि उसके लिए इक्कीस का साल पार करना मुश्किल होगा।

भविष्याचार्य ने सत्यवान सिंह से कहा था कि वह वृहस्पतिवार को उनके पास आये तो वे उसे उचित दक्षिणा लेकर अनिष्ट से बचने का कोई उपाय बताएँगे। लेकिन वृहस्पतिवार आने से पहले ही भविष्याचार्य जी हृदयाघात से पीड़ित होकर स्वर्गलोक को चले गये और सत्यवान सिंह को अनिष्ट-मुक्त करने का नुस्खा भी साथ ले गये।

एक शाम सत्यवान सिंह ड्यूटी से लौटकर घर आया और दरवाज़े पर चक्कर खाकर गिर गया। उसकी पत्नी सावित्री दौड़कर दरवाज़े पर आयी तो उसने देखा एक विकराल मुखाकृति और बड़ी-बड़ी मूँछों वाला मुकुटधारी वृद्ध पुरुष सत्यवान के जीव को एक रस्सी से बाँध रहा था। वृद्धावस्था के कारण उसके हाथ काँप रहे थे और जीव बार-बार रस्सी में से सटक जाता था।

सावित्री ने वृद्ध का परिचय पूछा तो वे बोले, ‘पुत्री, मैं यमराज हूँ। तेरे पति की आयु पूरी हुई। मैं उसका जीव लेने आया हूँ।’

सावित्री ने यमराज से पति के जीवन के लिए बहुत अनुनय-विनय की, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। बोले, ‘बाई, मैं बिना किसी ठोस कारण के किसी को ‘एक्सटेंशन’ नहीं दे सकता। मुझे भगवान को जवाब देना पड़ता है। इसलिए तू माया-मोह छोड़ और मुझे अपना कर्तव्य करने दे।’

अनुनय-विनय से काम न निकलते देख सावित्री ने एक दूसरे अस्त्र, खुशामद का प्रयोग किया। बोली, ‘प्रभु, आपके पास तो अनेक दूत हैं, फिर आप यह काम स्वयं क्यों करते हैं?’

यमराज उसकी बात सुनकर प्रसन्न हुए, फिर दुःखी भाव से बोले, ‘मैं जानता हूँ, पुत्री, कि ‘सीनियर’ को अपने हाथ से कोई काम नहीं करना चाहिए, लेकिन कारण बताते हुए मुझे शर्म आती है। पहले मैं अपने दूतों को इस काम के लिए भेजता था, लेकिन इसमें घपला होने लगा था। दूत अमीर लोगों से रिश्वत खा लेते थे और उनकी जगह गरीबों का जीव निकाल ले जाते थे। कई दूतों की विभागीय जाँच चल रही है। मेरे ऊपर भी आक्षेप आ रहा है। इसीलिए अब यह काम मैं अपने हाथ से करता हूँ।’

जब यमराज सत्यवान के जीव को लेकर चलने लगे तो सावित्री उनके पीछे लग गयी। कुछ दूर जाकर यमराज बोले, ‘देख पुत्री, मैं सत्यवान का जीव छोड़ने वाला नहीं। हाँ, उसके बदले तू कुछ और माँगे तो दे सकता हूँ।’

सावित्री की स्त्री-सुलभ व्यवहारिक बुद्धि जागी। उसने देख लिया कि वृद्धावस्था के कारण यमराज बात के मर्म को जल्दी नहीं पकड़ पाएँगे। अतः उसने आज जोड़कर कहा, ‘प्रभु, वर दीजिए कि मुझे अपने पति से सौ पुत्र प्राप्त हों।’

यमराज जल्दी में ‘एवमस्तु’ कह कर चल दिये तो सावित्री ने हँसकर कहा, ‘तो फिर प्रभु, मेरे पति को कहाँ लिये जाते हो?’

यमराज ने अपनी गलती समझ कर माथा ठोका, बोले, ‘निश्चय ही मैं सठिया गया हूँ, तभी तू इतनी आसानी से मुझे मूर्ख बना सकी। खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं तेरे पति के जीव को छोड़ता हूँ। मुझे भगवान को स्पष्टीकरण देना  पड़ेगा, लेकिन कोई उपाय नहीं है।’

उन्होंने एक लंबी साँस लेकर सत्यवान के जीव को मुक्त कर दिया और अपनी रस्सी समेटने लगे।

सावित्री प्रसन्न भाव से उस स्थान पर आयी जहाँ सत्यवान लेटा था। सत्यवान अब बैठा हुआ, स्थिति को समझने की कोशिश में आँखें झपका रहा था।

सावित्री ने हुलास से उसे संपूर्ण घटना सुनायी। लेकिन जैसे ही सावित्री ने उसे सौ पुत्रों के वर की बात बतायी, वह पुनः भूमि पर गिर पड़ा और उसका जीव उसके शरीर से निकलकर यमराज के पास पहुँच गया। यमराज जीव को पकड़कर शरीर तक लाये और उसे बलात शरीर में प्रविष्ट करा दिया। सत्यवान पुनः जीवित हो गया।

जीवित होने पर सत्यवान सावित्री से बोला, ‘भद्रे, तूने सौ पुत्र माँग कर मेरा सर्वनाश कर दिया। इस मँहगाई में मैं भला कैसे उनका लालन-पालन करूँगा?’

सावित्री दुखी भाव से बोली, ‘आर्यपुत्र, मैंने तो सौ पुत्रों की माँग इसलिए की थी इस प्रकार आपका सौ वर्ष का बीमा हो जाएगा।’

तब सत्यवान यमराज के चरण पकड़ कर बोला, ‘प्रभु, आपने मेरा जीवन तो लौटा दिया, लेकिन यह वरदान देकर मुझे जीते जी मौत के मुँह में ढकेल दिया। मैं सौ पुत्रों के

नाम तो दूर, उनकी शकलें भी याद नहीं रख पाऊँगा। अतः इस वरदान को वापस लेने की कृपा करें।’

यमराज बोले, ‘पुत्र, मैं पुरानी परंपरा का पालक हूँ। मेरा वचन धनुष से निकले बाण की तरह होता है। अब इस प्रकरण में कुछ नहीं हो सकता।’

सत्यवान बोला, ‘प्रभु, अब धनुष- बाण का जमाना लद गया। यह मिसाइल का युग है। आजकल वचन पूरा करने वाला मूर्ख कहलाता है।’

यमराज बोले, ‘पुत्र, तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन अब इस उम्र में हम अपने संस्कारों से मुक्त होने से रहे। अतः अब तुम सौ पुत्र उत्पन्न करो और दीर्घायु का भोग करो।’

यमराज का यह फैसला सुनकर सत्यवान और सावित्री आपस में झगड़ने लगे, और यमराज उन्हें झगड़ते हुए छोड़कर अन्य जीवो को समेटने के लिए चल दिये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #138 ☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे – शिक्षा। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 140 ☆

☆ संतोष के दोहे – शिक्षा ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पढ़ें-लिखें आगे बढ़ें, जिससे बनें नवाब

कहते लोग पुरातनी, बढ़ता तभी रुआब

 

ज्ञान न बढ़ता पढ़े बिन, गुण का रहे अभाव

शिक्षा जब ऊँची मिले, बढ़ता तभी प्रभाव

 

बढ़े प्रतिष्ठा सभी की, मिले मान सम्मान

काम-काज अरु नौकरी, करती यह आसान

 

रोशन होती ज़िंदगी, पाता ज्ञान प्रकाश

खुद निर्भर हो मनुज तो, यश छूता आकाश

 

शिक्षा देती आत्मबल, जग में बढ़ता मान

शिक्षित होना चाहिये, कहते चतुर सुजान

 

महिलाओं को दीजिए, शिक्षा उच्च जरूर

दो कुल को रोशन करें, बढ़ता गौरव नूर

 

शिक्षा में शामिल करें, नैतिकता का पाठ

बनें सुसंस्कृत नागरिक, खुले बुद्धि की गांठ

 

शिक्षा ऐसा धन सखे, जिसमें टूट न फूट

चोर चुरा सकता नहीं, होती कभी न लूट

 

शिक्षा से हमको मिले, सदा शांति संतोष

खुशियाँ जीवन में बढ़ें, और बढ़े धन-कोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘सूर्य ढळलेला माणूस…’ – भाग – 5 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘सूर्य ढळलेला माणूस…’ – भाग – 5 ☆  श्री आनंदहरी  ☆ 

” मी इथे बसलो तर चालेल ना ? “

आवाजाने मी ‘ नक्षत्रांच्या देण्यातून ‘, विचारातून भानावर आलो. आवाजाच्या रोखाने पाहिले. माझ्यापेक्षा अंदाजे पाच-सहा वर्षांनी लहान वाटणारी व्यक्ती मलाच विचारत होती, ‘मी इथे बसलो तर चालेल ना ?’

मला कितीतरी वर्षांपूर्वीचा प्रसंग आठवला. मी ही कबीरबाबांना असाच प्रश्न विचारला होता.

” बसा हो.”

” धन्यवाद ! आपण ? “

” मी ? मी, सूर्य ढळलेला माणूस ! “

पूर्वीचा प्रसंग ऐकून नकळत माझ्या तोंडून मला त्यावेळी बाबांनी दिलेले उत्तरच बाहेर पडले.

माझ्या उत्तराने ती व्यक्ती चमकली आणि माझ्या शेजारी येऊन बसत म्हणाली,

” तुम्ही बाबांना भेटला होतात ?  ओळखत होतात त्यांना ? “

” एकदा भेट झाली होती.. पण अजूनही लक्षात आहे. त्यालाही झाली असतील पंचवीसेक वर्षे.”

” पंचवीस वर्षे ? कसे शक्य आहे ? त्यांना जाऊन तर सत्तावीस वर्षे झाली. “

” वर्षांचा हिशेब आठवणीत कुठे राहतो ? आठवणीत फक्त क्षणांची गर्दी असते. काही मोजक्याच क्षणांचीच गर्दी. बाबांची भेटही तशीच. काही क्षण घडलेली. त्यांचे नावही मला ठाऊक नव्हते. मी त्यांना मनोमन कबीरबाबा असे नावही दिले होते. मी त्यांना नाव विचारले होते, नाही असे नाही  तेंव्हा त्यांनी हेच उत्तर दिले होते, ‘ सूर्य ढळलेला माणूस ! ‘

” हो. ते शब्द नेहमी त्यांच्या तोंडात असायचे. “

ते म्हणायचे नाव काहीही असले तरी आपली खरी ओळख हीच असते. उगवत्या सूर्याचे कौतुक असते. कोवळी कोवळी किरणे मनाला उल्हासित करतात, एखाद्या बालकासारखी. मध्यानीचा सूर्य आपल्या मस्तीतच तळपत असतो. आपण साऱ्या जगाला प्रकाश देतो याची त्याला जाणीव झालेली असते. कुटुंबातील कर्ता-सवरता माणूस असाच असतो… आणि सूर्य मावळतीला गेला की आपला अस्त जवळ आला असल्याची जाणीव त्याला होत असावी. त्याने आपल्याला प्रकाश दिला आहे याची कृतज्ञतापूर्वक जाणीव इतरांना असत नाही. ते फक्त मावळत्या सूर्याची शोभा पहात असतात.  त्यांना तो सूर्य क्षितीजपार झालेला, मावळलेला पहायचा असतो. त्यांच्या दृष्टीने त्याची उपयुक्तता संपलेली असते. उगवत्या सूर्याची प्रतीक्षा त्यांच्या मनात असते.

” आयुष्यभर खस्ता काढून थकली-भागलेली माणसे अशीच…. “

” हो. फक्त अडचण ठरणारी. कुणीही उठ म्हणले की उठावे लागणारी..”

माझ्या मनात घरातील प्रसंग तरळून जाऊ लागले.

” तुम्हांला सांगतो, खूप वाईट वाटते हो , बाबांची आठवण आली की.. या वयात अपेक्षा असतात त्या काय आणि किती ? पण आम्ही त्याही पूर्ण करू शकलो नाही. प्रेमाने दोन शब्द बोलायला, विचारपूस करीत दोन क्षण जवळ बसायलाही आम्हांला वेळ मिळाला नाही.. वेळ मिळाला नाही म्हणणेही चुकीचेच आहे. आम्हांला जाणीवच झाली नाही कधी त्याची. “

” त्यावेळी तुम्ही मध्यान्ही तळपत होता ना ! हे असेच असते हो … फार वाईट वाटून घेऊ नका. ही जगराहाटीच आहे. एक विचारू ? “

” विचारा. “

” ही चुकल्याची जाणीव तुम्हांला कधी झाली ? सूर्य ढळल्यावरच ना ? “

क्षणभर विचारात पडून तो म्हणाला,

” खरं सांगायचं तर हो. “

मी हसलो. मी पहिल्यांदा इथं आलो तेंव्हा माझी आणि बाबांची भेट झाली. त्यानंतर बाबा पुन्हा इथं आलेच नाहीत. अनंताच्या प्रवासाला निघून गेले.. इथल्या प्रवासाच्या अंतिम स्टेशनवर पोहोचले.. त्यांचा इथला प्रवास संपला. सूर्य क्षितीजपार गेला.  आज तो इथं आला म्हणजे… म्हणजे माझाही हा प्रवास संपत आलाय. आता उद्यापासून इथं यायचं कारण नाही, कुणाला अडचण वाटायचे कारण नाही.. कुणाच्या टी-पार्ट्या, कुणाचं रॅप-पॉप.. कुठंच अडचण नाही.

मनाला खूप बरं वाटू लागले… मोकळं मोकळं. जणू कसले तरी ओझे उतरून बाजूला ठेवून दिल्यासारखे, डोक्यावरून  उतरल्यासारखे.  

अंतिम स्टेशन जवळ आल्याचे जाणवले तसा प्रवासाचा सारा शीण उतरून गेल्यासारखे वाटू लागले.. एकदम ताजे-तवाने. माझा सूर्य आता क्षितिजापार चाललाय.

उद्या तो माझी वाट पाहिल, परवा वाट पाहिल, काही दिवस वाट पाहिल अन  वाट पाहण्याचं पुन्हा विसरूनही जाईल.. पण तो मात्र इथं येतंच राहील.. पुन्हा कुणीतरी नवागत इथं येईल. त्याला विचारेल,

‘ इथं बसले तर चालेल का ? ‘

तो विचारणाऱ्याकडे नजर टाकून म्हणेल,

‘ बसा. कुणीही तुम्हांला, ‘ इथून उठा, ‘ म्हणणार नाही. ‘

थोड्या वेळाने तो नवागत त्याला विचारेल,

‘ आपण ? ‘

तो म्हणेल,

‘ सूर्य ढळलेला माणूस. ‘

अन् दिशांदिशांमधून प्रतिध्वनी उमटत राहतील,

‘ सूर्य ढळलेला माणूस !’

‘ सूर्य ढळलेला माणूस !! ‘

‘सूर्य ढळलेला माणूस !!! ‘

◆ समाप्त

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली

८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ ७ सप्टेंबर – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ ७ सप्टेंबर – संपादकीय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

भगवान रघुनाथ कुलकर्णी अर्थात बी.रघुनाथ 

कथा, कादंबरी व काव्य लेखन करणारे बी. रघुनाथ हे मराठवाड्यातील परभणीचे. त्यांनी हैद्राबाद येथे मॅट्रीक पर्यंत शिक्षण घेतले.कौटुंबिक परिस्थितीमुळे शिकणे शक्य नसल्यामुळे त्यांनी निजामाच्या सार्वजनिक बांधकाम खात्यात नोकरी स्विकारली.

तरूण वयातच त्यानी लेखनाला सुरुवात केली. वयाच्या सतराव्या वर्षी त्यांची पहिली कविता हैद्राबाद येथील ‘राजहंस’ या मासिकात प्रसिद्ध झाली. तेथून त्यांचा साहित्यिक प्रवास सुरू झाला. कवितेशिवाय कथा, कादंबरी व निबंध लेखन हे त्यांचे लेखनाचे मुख्य प्रकार होते. कथा लेखन हीच आपली खरी ओळख आहे असे ते स्वतः मानत. सामाजिक, राजकीय, कौटुंबिक परिस्थिती अनुकूल नसतानाही त्यांनी केलेले कथा व कादंबरी लेखन मराठी साहित्यात महत्वाचे ठरते. आत्ममग्नतेला शब्दरूप देणारा लेखक असे त्यांच्या लेखनाचे वर्णन केले जाते.तसेच त्यांना प्रादेशिक कथा कादंबरीचे जनक मानले जाते. यावरून त्यांच्या लेखनाचे महत्व लक्षात येईल.

निजामशाहीत असल्यामुळे त्यांच्या भाषेवर उर्दू भाषेचा प्रभाव जाणवतो. त्यांची कविता ही नवता व नाविन्याची आस लागलेली कविता आहे असे जाणकारांनी म्हटले आहे. त्यांच्या कवितांचे विषय विविध असले तरी त्यात प्रणयाराधन व स्त्रीदेहाचे वर्णन अधिक आहे. सामाजिक आणि राजकीय जाणीव व्यक्त करणा-या कविताही त्यांनी लिहील्या आहेत. अवघ्या चाळीस वर्षांच्या आयुष्यात आणि प्रतिकुल परिस्थितीत त्यांनी निर्मिलेली साहित्य संपदा याप्रमाणे:

काव्यसंग्रह: आलाप आणि विलाप, पुन्हा नभाच्या लाल कडा

कथासंग्रह: साकी, फकीराची कांबळी, छागल, आकाश, काळी राधा.

कादंबरी: हिरवे गुलाब, उत्पात, म्हणे लढाई संपली, जगाला कळले पाहिजे, आडगावचे चौधरी, ओ, बांबू दडके.

स्फूटलेखन: अलकेचे प्रवासी.

काही गाजलेल्या कविता: उन्हात बसली न्हात, घन गरजे, तुजवर लिहीतो कविता साजणी, दुपार, सांज, लहर, या जगताची तृषा भयंकर, ते न तिने कधी ओळखीले.

सात सप्टेंबर एकोणीसशे त्रेपन्नला कार्यालयीन कामकाज चालू असतानाच त्याना हृदय विकाराचा झटका येऊन त्यांचे दुःखद निधन झाले.

त्यांच्या स्मृतीस विनम्र अभिवादन.🙏

☆☆☆☆☆

रामचंद्र भिकाजी जोशी

रामचंद्र भिकाजी जोशी हे संस्कृत आणि मराठी भाषा व व्याकरणाचे गाढे अभ्यासक म्हणून प्रसिद्ध आहेत.त्यांनी व्याकरण,भाषेतील अलंकार व  काही धार्मिक विषयांवरील पुस्तके लिहिली आहेत.

ग्रंथसंपदा: शिशुबोध व्याकरण, बालबोध व्याकरण, प्रौढबोध व्याकरण, मराठी पद्य वाचन, मराठी शब्द सिद्धी, मराठी भाषेची घटना, अलंकार विवेक, लग्नविधी आणि , सोहळे, धर्म आणि नीतिपर व्याख्याने, यापैकी मराठी भाषेची घटना हा एक महत्त्वाचा संदर्भ ग्रंथ मानला जातो.

रा.भि.जोशी यांचे 1927 मध्ये निधन झाले.

बी.रघुनाथ आणि रा.भि.जोशी यांच्या स्मृतीस अभिवादन. 🙏

☆☆☆☆☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भः आधुनिक मराठी काव्य संपदा – संपादक-मधु मंगेश कर्णिक, लोकसत्ता.काॅम, विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बेधुंद होऊन गाईले गीत… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बेधुंद होऊन गाईले गीत… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

कितीतरी दिवसांच्या विश्रांती नंतर

पावसाचे हे जादू मंतर

 

समुद्रवरच मी  गेले थेट

अधीर मनाने घेतली भेट

 

तुफान सरी बेभान वारा

बेधुंद झाला आसमंत सारा

 

झोंबु लागला लडिवाळ वारा

ताशा वाजवती शुभ्र धारा

 

पावसाचेच मग झाले गीत

मनाचं झाले संगीत संगीत

 

भिजून घेऊ दे पावसा तुझ्यात

थिरकत संगीत गात्रा गात्रात

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ स्वामिनी मुक्तानंदा – भाग -1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ स्वामिनी मुक्तानंदा – भाग -1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

तपोवन आश्रमातील सत्संग हॉल.

ऊद्यापासुन सुरु होणाऱ्या शिबिराच्या  परिचय कार्यक्रमासाठी जमलेले शिबिरार्थी उत्सुकतेने वाट बघत होते.

दुपारी पडलेले रणरणते ऊन,मधेच जोरदार पाऊस,अन् आता धुसर वातावरण—निसर्गाच्या लहरीपणा अनुभव देणारा हा हिमाचलप्रदेश.

बरोबर  ४-२५ ला स्वामिनी मुक्तानंदांनी मागील भव्य प्रवेश द्वारातुन  आत पाऊल टाकले.सर्वानी उभे राहुन अभिवादन केले.स्वामिनी  हात जोडुन प्रत्युत्तर देत हसतमुखाने,शांत गतीने मधल्या कार्पेटवरुन व्यासपीठाकडे निघाल्या.

अंगावर संन्याशिनीची भगवी वस्त्रे, वर भगवीच शाल, गळ्यात तुळशीमण्यांची माळ. उंच शिडशिडीत बांधा, गोरा रंग यामुळे साठी उलटून गेली तरी मुळचे देखणेपण लपत नव्हते. केसात रुपेरी झाक आली असली तरी मानेवरचा अंबाडा भरगच्च होता. दोन अडीच  तप – ३० वर्षांपेक्षाही जास्त –केलेल्या साधनेने मुद्रेवर, शांत, प्रसन्न भावाचे तेज झळकत होते.

व्यासपीठाच्या मागील शिशवी देव्हार्यातील गोपाळकृष्णाच्या सुंदर मूर्तीला वंदन करुन त्या स्थानापन्न झाल्या. डोळे मिटले.

ओम् ओम्, ओम्

ओंकार, नंतर, गुरुवंदना, नित्याचेच श्लोक, शांतीपाठ– अशी प्रर्थना-हॉलच्या शांत वातावरणात घुमु लागली.

हलकेच डोळे ऊघडुन हॉलवर नजर फिरवली. शिबिरार्थींची संख्या मर्यादित होती. नव्हे त्यांचा तसा आग्रहच असायचा. परत एकदा त्या शांतपणे प्रत्येकाचा चेहरा न्याहळु लागल्या. हॉलच्या डाव्या बाजुला मागील कोपऱ्यात एका गोरापान, मुलगा दिसला.

जेमतेम १२-१४ वर्षांचा असेल, –त्याचे डोळे –त्यातला वेगळाच भाव, —-त्यांची नजर तिथुन हटेना. त्यानेही आपले डोळे भिडवले.

जणूकाही अनेक प्रश्ण विचारले—-आणि उत्तरे, आधारच मागत होते ते डोळे.. आणि डोळ्यापुढे उभा राहिला —आशुतोष—शेवटची भेट झाली तेंव्हा एवढाच, अन् असाच सैरभैर डोळ्यांनी पहात होता आपल्याकडे,

मनाची तगमग–अस्वस्थता,—

आयोजक गंगासागरजींनी कार्यक्रम सुरु करण्यास अनुमती विचारली.

मिशन, अध्यात्मिक अभ्यासाचा प्रसार,जगभर पसरलेले कार्यकर्य्यांचे शिस्तबद्ध संघटन, सिध्द मार्गदर्शक गुरुपरंपरा, अशी प्राथमिक माहिती गंगासागरजींनी दिली.

तोपर्यंत स्वामिनींनी  स्वतःला सावरले. पण नंतर कार्यक्रम पुर्ण होईपर्यंत डाव्या बाजुला —मागच्या कोपर्याकडे डोळे जाऊ दिले नाहीत.

आवारातील निवासस्थानी गेल्यावरही मागच्या रुंद खिडकीजवळ बसल्यावर काचेतून चंद्राच्या धुसर प्रकाशात चकाकणारे बर्फाच्छादित सुळके, आणि दुरवर पसरलेले दिवे या मधुन तेच डोळे आपल्याकडे रोखून पहात आहेत, प्रश्ण विचारत आहेत असेच वाटु लागले.

तेवढ्यात सुमुखी आली.   सुमुखी—जेमतेम ३०, ३२ वय.

दोन मुलांचा बालवयात मृत्यु आणि नंतर मुल होऊ शकणार नाही म्हणुन नवर्‍याने केलेले दुसरे लग्न–यामुळे निराश होऊन  आत्महत्या करायला निघालेली –योगायोगाने आश्रमात आली होती, आणि अध्यात्मिक रुची नसल्याने स्वामिनींची मनापासुन सेवा करणारी—शिष्या, परिचारिका

–नेहमीप्रमाणे रात्रीचा फलाहार आणि दुध पुढे केले.पण कोणताच प्रतिसाद नाही, म्हणुन  तिने “स्वामिनी —तब्येत बरी नाही का?” विचारल्यावर तुटक उत्तर —काहीसे रागावूनच दिले.

तसं तर स्वामिनी सहसा कोणावर रागावत नसत. कारण राग—-क्रोध म्हणजे स्वतःलाच केलेली शिक्षा हे गुरुदेवांनी सांगितले होते. तसे फारसे प्रेम, आपुलकीही दाखवत नसत. क्रोध आणि प्रेम दोन्हींवर त्यांनी तपंसाधनेने नियंत्रण मिळवले होते.

शिबिराचा आज पहिला दिवस,.

पहाटे ध्यानवर्ग, मग गुरुस्तवन, दुपारी गीताप्रवचन, असा सर्व दिनक्रम व्यवस्थित चालु होता. स्वामिनी ईतर दैनंदिन कामात व्यस्त होत्या. कारण गंगासागरजींसारखे अनुभवी, निष्णात सर्व व्यवस्था चोख ठेवीत असत.

संध्याकाळी विशेष मार्गदर्शनपर प्रवचन मात्र स्वामिनींचे. गुरुदेवांच्या समाधीमंदिरातील आरती झाल्यावर स्वामिनी प्रवचनासाठी मधल्या पायवाटेने हॉलकडे निघाल्या.

तेवढ्यात कोणीतरी समोर येऊन त्यांच्या पदस्पर्शासाठी  वाकले.

क्रमशः…

© सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ??

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – अपने लिए ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  अपने लिए)

☆ लघुकथा – अपने लिए ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी में कार्यरत कर्मचारियों की तरह वर्दीनुमा कपड़े पहने कुछ सुंदर नौजवान युवक-युवतियों ने कार्यालय-कक्ष में प्रवेश किया और एक-एक कर अपनी कंपनी की तरफ से दिए गए उत्पाद सभी को दिखाने लगे। सभी को कंपनी-संचालक द्वारा एक बंधे-बंधाये प्रबंधन कोर्स की तरह प्रशिक्षित किया गया था और वह एक रट्टू तोते की तरह बोलकर अपने उत्पादों की अच्छाइयां और उनके अनूठे उपयोगों के बारे में बता रहे थे। साथ ही, एक के साथ एक मुफ्त या एक के दाम में दो का भी प्रलोभन दे रहे थे, जैसा कि ग्राहकों को लुभाने, या सरल शब्दों में कहें तो फंसाने का एक कारगर उपाय होता है। कुछ साथी कर्मचारी इस अंत में दिए गए मारक जाल में आ गए थे, और अपनी आवश्यकताओं या पसंद के अनुसार कुछ ना कुछ खरीद रहे थे। किसी-किसी ने वर्तमान की बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए भी उन नवयुवक और नवयुवतियों के प्रति अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए कुछ उत्पाद लिए, तो एक-दो का उनके प्रति आकर्षण भी कारण रहा होगा।

अब जब वह मेरे सामने खड़े रटे-रटाए वाक्य बोलने को हुए तो मैंने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया, “एक बात बताओ, तुम्हें इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?” वह एक-दूसरे को देखने लगे। मैंने कहा, “छोड़ो, जितने भी मिलते होंगे, पर इतने नहीं कि जिन्हें तुम्हारी दिनभर की दौड़-धूप के अनुसार संतोषजनक या ज्यादा कहा जा सके, क्यों?”

वह चुपचाप खड़े थे जिससे मुझे यह अंदाजा हो गया था कि मैं काफी हद तक सही हूं।

मैंने फिर कहा, “यह तो तुम लोग भी जानते हो कि यह सारे प्रोडक्ट, जो तुम लोग बेच रहे हो, वह उत्तम गुणवत्ता वाले या नामी कंपनियों के नहीं हैं। इनमें बहुत मार्जिन होता है। तुम लोगों को थोड़ा सा लाभ देकर ज्यादातर लाभ कंपनी या एजेंसी के पास चला जाता है, जबकि तुम इन्हें बेचने के लिए अपना पूरा पसीना बहा देते हो। तो क्यों नहीं तुम लोग अपना स्वयं का कोई काम शुरू करके उसमें अपना श्रम और शक्ति लगाते। कम से कम किसी मुकाम तक तो पहुंचोगे, और तुम्हें तुम्हारी मेहनत का पूरा फल भी मिलेगा। तुम्हें किसी के अधीन रहकर नहीं, बल्कि आजादी से काम करने को मिलेगा और तुम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करोगे, अपने लिए…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ??

एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।

लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है।  इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,

‘प्रकृति पंचभूतानि ग्रहा लोका: स्वरास्तथा/ दिश: कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।’

एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं।  लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव  में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #125 – विजय साहित्य – आला आला कवी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 125 – विजय साहित्य ?

☆ आला आला कवी…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 (अतिशयोक्ती अलंकार)

आला आला कवी

वाचू लागला वही

चार तासांनी म्हणे

ही होती फक्त सही….!

 

कविता त्याची नाजूक

खसखशी पेक्षाही छोटी

मुंगी सुद्धा त्यांच्यापुढे

शंभर पट मोठी…!

 

आला आला कवी

किती त्याचे पुरस्कार

रद्दिवाला म्हणे

घेतो हप्त्यात चार..!

 

आला आला कवी

चला म्हणे घरी

दाखवतो तुम्हाला

स्वर्गातली परी…!

 

आला आला कवी

पिळतोय मिशा

शब्दांच्या कोट्यांनी

भरलाय खिसा…!

 

आला आला कवी

खांद्याला झोळी

शब्दांच्या भाकरीत

पुरणाची पोळी…!

 

आला आला कवी

चोरावर मोर

जोरदार घेई टाळ्या

कोल्हाट्याचं पोर…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈