हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #161 ☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆
डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘सावित्री-सत्यवान कथा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – सावित्री-सत्यवान कथा ☆
अंततः सत्यवान सिंह का अंत आ गया। नगर के प्रसिद्ध ज्योतिषी भविष्याचार्य ने उसकी कुंडली देखकर चार छः महीने पहले ही बता दिया था कि उसके लिए इक्कीस का साल घातक है। इसमें भविष्याचार्य जी का कोई ज़्यादा श्रेय नहीं था। मँहगाई की मार से नित-नित सूखती सत्यवान सिंह की काया को देखकर कोई भी कह सकता था कि उसके लिए इक्कीस का साल पार करना मुश्किल होगा।
भविष्याचार्य ने सत्यवान सिंह से कहा था कि वह वृहस्पतिवार को उनके पास आये तो वे उसे उचित दक्षिणा लेकर अनिष्ट से बचने का कोई उपाय बताएँगे। लेकिन वृहस्पतिवार आने से पहले ही भविष्याचार्य जी हृदयाघात से पीड़ित होकर स्वर्गलोक को चले गये और सत्यवान सिंह को अनिष्ट-मुक्त करने का नुस्खा भी साथ ले गये।
एक शाम सत्यवान सिंह ड्यूटी से लौटकर घर आया और दरवाज़े पर चक्कर खाकर गिर गया। उसकी पत्नी सावित्री दौड़कर दरवाज़े पर आयी तो उसने देखा एक विकराल मुखाकृति और बड़ी-बड़ी मूँछों वाला मुकुटधारी वृद्ध पुरुष सत्यवान के जीव को एक रस्सी से बाँध रहा था। वृद्धावस्था के कारण उसके हाथ काँप रहे थे और जीव बार-बार रस्सी में से सटक जाता था।
सावित्री ने वृद्ध का परिचय पूछा तो वे बोले, ‘पुत्री, मैं यमराज हूँ। तेरे पति की आयु पूरी हुई। मैं उसका जीव लेने आया हूँ।’
सावित्री ने यमराज से पति के जीवन के लिए बहुत अनुनय-विनय की, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। बोले, ‘बाई, मैं बिना किसी ठोस कारण के किसी को ‘एक्सटेंशन’ नहीं दे सकता। मुझे भगवान को जवाब देना पड़ता है। इसलिए तू माया-मोह छोड़ और मुझे अपना कर्तव्य करने दे।’
अनुनय-विनय से काम न निकलते देख सावित्री ने एक दूसरे अस्त्र, खुशामद का प्रयोग किया। बोली, ‘प्रभु, आपके पास तो अनेक दूत हैं, फिर आप यह काम स्वयं क्यों करते हैं?’
यमराज उसकी बात सुनकर प्रसन्न हुए, फिर दुःखी भाव से बोले, ‘मैं जानता हूँ, पुत्री, कि ‘सीनियर’ को अपने हाथ से कोई काम नहीं करना चाहिए, लेकिन कारण बताते हुए मुझे शर्म आती है। पहले मैं अपने दूतों को इस काम के लिए भेजता था, लेकिन इसमें घपला होने लगा था। दूत अमीर लोगों से रिश्वत खा लेते थे और उनकी जगह गरीबों का जीव निकाल ले जाते थे। कई दूतों की विभागीय जाँच चल रही है। मेरे ऊपर भी आक्षेप आ रहा है। इसीलिए अब यह काम मैं अपने हाथ से करता हूँ।’
जब यमराज सत्यवान के जीव को लेकर चलने लगे तो सावित्री उनके पीछे लग गयी। कुछ दूर जाकर यमराज बोले, ‘देख पुत्री, मैं सत्यवान का जीव छोड़ने वाला नहीं। हाँ, उसके बदले तू कुछ और माँगे तो दे सकता हूँ।’
सावित्री की स्त्री-सुलभ व्यवहारिक बुद्धि जागी। उसने देख लिया कि वृद्धावस्था के कारण यमराज बात के मर्म को जल्दी नहीं पकड़ पाएँगे। अतः उसने आज जोड़कर कहा, ‘प्रभु, वर दीजिए कि मुझे अपने पति से सौ पुत्र प्राप्त हों।’
यमराज जल्दी में ‘एवमस्तु’ कह कर चल दिये तो सावित्री ने हँसकर कहा, ‘तो फिर प्रभु, मेरे पति को कहाँ लिये जाते हो?’
यमराज ने अपनी गलती समझ कर माथा ठोका, बोले, ‘निश्चय ही मैं सठिया गया हूँ, तभी तू इतनी आसानी से मुझे मूर्ख बना सकी। खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं तेरे पति के जीव को छोड़ता हूँ। मुझे भगवान को स्पष्टीकरण देना पड़ेगा, लेकिन कोई उपाय नहीं है।’
उन्होंने एक लंबी साँस लेकर सत्यवान के जीव को मुक्त कर दिया और अपनी रस्सी समेटने लगे।
सावित्री प्रसन्न भाव से उस स्थान पर आयी जहाँ सत्यवान लेटा था। सत्यवान अब बैठा हुआ, स्थिति को समझने की कोशिश में आँखें झपका रहा था।
सावित्री ने हुलास से उसे संपूर्ण घटना सुनायी। लेकिन जैसे ही सावित्री ने उसे सौ पुत्रों के वर की बात बतायी, वह पुनः भूमि पर गिर पड़ा और उसका जीव उसके शरीर से निकलकर यमराज के पास पहुँच गया। यमराज जीव को पकड़कर शरीर तक लाये और उसे बलात शरीर में प्रविष्ट करा दिया। सत्यवान पुनः जीवित हो गया।
जीवित होने पर सत्यवान सावित्री से बोला, ‘भद्रे, तूने सौ पुत्र माँग कर मेरा सर्वनाश कर दिया। इस मँहगाई में मैं भला कैसे उनका लालन-पालन करूँगा?’
सावित्री दुखी भाव से बोली, ‘आर्यपुत्र, मैंने तो सौ पुत्रों की माँग इसलिए की थी इस प्रकार आपका सौ वर्ष का बीमा हो जाएगा।’
तब सत्यवान यमराज के चरण पकड़ कर बोला, ‘प्रभु, आपने मेरा जीवन तो लौटा दिया, लेकिन यह वरदान देकर मुझे जीते जी मौत के मुँह में ढकेल दिया। मैं सौ पुत्रों के
नाम तो दूर, उनकी शकलें भी याद नहीं रख पाऊँगा। अतः इस वरदान को वापस लेने की कृपा करें।’
यमराज बोले, ‘पुत्र, मैं पुरानी परंपरा का पालक हूँ। मेरा वचन धनुष से निकले बाण की तरह होता है। अब इस प्रकरण में कुछ नहीं हो सकता।’
सत्यवान बोला, ‘प्रभु, अब धनुष- बाण का जमाना लद गया। यह मिसाइल का युग है। आजकल वचन पूरा करने वाला मूर्ख कहलाता है।’
यमराज बोले, ‘पुत्र, तुम्हारा कहना ठीक है, लेकिन अब इस उम्र में हम अपने संस्कारों से मुक्त होने से रहे। अतः अब तुम सौ पुत्र उत्पन्न करो और दीर्घायु का भोग करो।’
यमराज का यह फैसला सुनकर सत्यवान और सावित्री आपस में झगड़ने लगे, और यमराज उन्हें झगड़ते हुए छोड़कर अन्य जीवो को समेटने के लिए चल दिये।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈