मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बेधुंद होऊन गाईले गीत… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बेधुंद होऊन गाईले गीत… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

कितीतरी दिवसांच्या विश्रांती नंतर

पावसाचे हे जादू मंतर

 

समुद्रवरच मी  गेले थेट

अधीर मनाने घेतली भेट

 

तुफान सरी बेभान वारा

बेधुंद झाला आसमंत सारा

 

झोंबु लागला लडिवाळ वारा

ताशा वाजवती शुभ्र धारा

 

पावसाचेच मग झाले गीत

मनाचं झाले संगीत संगीत

 

भिजून घेऊ दे पावसा तुझ्यात

थिरकत संगीत गात्रा गात्रात

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ स्वामिनी मुक्तानंदा – भाग -1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर

सुश्री गायत्री हेर्लेकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ स्वामिनी मुक्तानंदा – भाग -1 ☆ सुश्री गायत्री हेर्लेकर ☆

तपोवन आश्रमातील सत्संग हॉल.

ऊद्यापासुन सुरु होणाऱ्या शिबिराच्या  परिचय कार्यक्रमासाठी जमलेले शिबिरार्थी उत्सुकतेने वाट बघत होते.

दुपारी पडलेले रणरणते ऊन,मधेच जोरदार पाऊस,अन् आता धुसर वातावरण—निसर्गाच्या लहरीपणा अनुभव देणारा हा हिमाचलप्रदेश.

बरोबर  ४-२५ ला स्वामिनी मुक्तानंदांनी मागील भव्य प्रवेश द्वारातुन  आत पाऊल टाकले.सर्वानी उभे राहुन अभिवादन केले.स्वामिनी  हात जोडुन प्रत्युत्तर देत हसतमुखाने,शांत गतीने मधल्या कार्पेटवरुन व्यासपीठाकडे निघाल्या.

अंगावर संन्याशिनीची भगवी वस्त्रे, वर भगवीच शाल, गळ्यात तुळशीमण्यांची माळ. उंच शिडशिडीत बांधा, गोरा रंग यामुळे साठी उलटून गेली तरी मुळचे देखणेपण लपत नव्हते. केसात रुपेरी झाक आली असली तरी मानेवरचा अंबाडा भरगच्च होता. दोन अडीच  तप – ३० वर्षांपेक्षाही जास्त –केलेल्या साधनेने मुद्रेवर, शांत, प्रसन्न भावाचे तेज झळकत होते.

व्यासपीठाच्या मागील शिशवी देव्हार्यातील गोपाळकृष्णाच्या सुंदर मूर्तीला वंदन करुन त्या स्थानापन्न झाल्या. डोळे मिटले.

ओम् ओम्, ओम्

ओंकार, नंतर, गुरुवंदना, नित्याचेच श्लोक, शांतीपाठ– अशी प्रर्थना-हॉलच्या शांत वातावरणात घुमु लागली.

हलकेच डोळे ऊघडुन हॉलवर नजर फिरवली. शिबिरार्थींची संख्या मर्यादित होती. नव्हे त्यांचा तसा आग्रहच असायचा. परत एकदा त्या शांतपणे प्रत्येकाचा चेहरा न्याहळु लागल्या. हॉलच्या डाव्या बाजुला मागील कोपऱ्यात एका गोरापान, मुलगा दिसला.

जेमतेम १२-१४ वर्षांचा असेल, –त्याचे डोळे –त्यातला वेगळाच भाव, —-त्यांची नजर तिथुन हटेना. त्यानेही आपले डोळे भिडवले.

जणूकाही अनेक प्रश्ण विचारले—-आणि उत्तरे, आधारच मागत होते ते डोळे.. आणि डोळ्यापुढे उभा राहिला —आशुतोष—शेवटची भेट झाली तेंव्हा एवढाच, अन् असाच सैरभैर डोळ्यांनी पहात होता आपल्याकडे,

मनाची तगमग–अस्वस्थता,—

आयोजक गंगासागरजींनी कार्यक्रम सुरु करण्यास अनुमती विचारली.

मिशन, अध्यात्मिक अभ्यासाचा प्रसार,जगभर पसरलेले कार्यकर्य्यांचे शिस्तबद्ध संघटन, सिध्द मार्गदर्शक गुरुपरंपरा, अशी प्राथमिक माहिती गंगासागरजींनी दिली.

तोपर्यंत स्वामिनींनी  स्वतःला सावरले. पण नंतर कार्यक्रम पुर्ण होईपर्यंत डाव्या बाजुला —मागच्या कोपर्याकडे डोळे जाऊ दिले नाहीत.

आवारातील निवासस्थानी गेल्यावरही मागच्या रुंद खिडकीजवळ बसल्यावर काचेतून चंद्राच्या धुसर प्रकाशात चकाकणारे बर्फाच्छादित सुळके, आणि दुरवर पसरलेले दिवे या मधुन तेच डोळे आपल्याकडे रोखून पहात आहेत, प्रश्ण विचारत आहेत असेच वाटु लागले.

तेवढ्यात सुमुखी आली.   सुमुखी—जेमतेम ३०, ३२ वय.

दोन मुलांचा बालवयात मृत्यु आणि नंतर मुल होऊ शकणार नाही म्हणुन नवर्‍याने केलेले दुसरे लग्न–यामुळे निराश होऊन  आत्महत्या करायला निघालेली –योगायोगाने आश्रमात आली होती, आणि अध्यात्मिक रुची नसल्याने स्वामिनींची मनापासुन सेवा करणारी—शिष्या, परिचारिका

–नेहमीप्रमाणे रात्रीचा फलाहार आणि दुध पुढे केले.पण कोणताच प्रतिसाद नाही, म्हणुन  तिने “स्वामिनी —तब्येत बरी नाही का?” विचारल्यावर तुटक उत्तर —काहीसे रागावूनच दिले.

तसं तर स्वामिनी सहसा कोणावर रागावत नसत. कारण राग—-क्रोध म्हणजे स्वतःलाच केलेली शिक्षा हे गुरुदेवांनी सांगितले होते. तसे फारसे प्रेम, आपुलकीही दाखवत नसत. क्रोध आणि प्रेम दोन्हींवर त्यांनी तपंसाधनेने नियंत्रण मिळवले होते.

शिबिराचा आज पहिला दिवस,.

पहाटे ध्यानवर्ग, मग गुरुस्तवन, दुपारी गीताप्रवचन, असा सर्व दिनक्रम व्यवस्थित चालु होता. स्वामिनी ईतर दैनंदिन कामात व्यस्त होत्या. कारण गंगासागरजींसारखे अनुभवी, निष्णात सर्व व्यवस्था चोख ठेवीत असत.

संध्याकाळी विशेष मार्गदर्शनपर प्रवचन मात्र स्वामिनींचे. गुरुदेवांच्या समाधीमंदिरातील आरती झाल्यावर स्वामिनी प्रवचनासाठी मधल्या पायवाटेने हॉलकडे निघाल्या.

तेवढ्यात कोणीतरी समोर येऊन त्यांच्या पदस्पर्शासाठी  वाकले.

क्रमशः…

© सुश्री गायत्री हेर्लेकर

201, अवनीश अपार्टमेंट, कोथरुड, पुणे.

दुरध्वनी – 9403862565

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 15 ??

लोकपरंपराओं, लोकविधाओं- गीत, नृत्य, नाट्य, आदि का जन्मदाता कोई एक नहीं है। प्रेरणास्रोत भी एक नहीं है। इनका स्रोत, जन्मदाता, शिक्षक, प्रशिक्षक, सब लोक ही है। गरबा हो, भंगड़ा हो,  बिहू हो या होरी, लोक खुद इसे गढ़ता है, खुद इसे परिष्कृत करता है। यहाँ जो है, समूह का है। जैसे ॠषि परंपरा में सुभाषित किसने कहे, किसने लिखे का कोई रेकॉर्ड नहीं है, उसी तरह लोकोक्तियों, सीखें किसी एक की नहीं हैं। परंपरा की चर्चा अतीतजीवी होना नहीं होता। सनद रहे कि अतीत के बिना वर्तमान नहीं जन्मता और भविष्य तो कोरी कल्पना ही है। जो समुदाय अपने अतीत से, वह भी ऐसे गौरवशाली अतीत से अपरिचित रखा जाये. उसके आगे का प्रवसन सुकर कैसे होगा? विदेशी शक्तियों ने अपने एजेंडा के अनुकूल हमारे अतीत को असभ्य और ग्लानि भरा बताया। लज्जित करने वाला विरोधाभास यह है कि निरक्षरों का ‘समूह’, प्राय: पढ़े-लिखों तक आते-आतेे ‘गिरोह’ में बदल जाता है। गिरोह निहित स्वार्थ के अंतर्गत कृत्रिम एकता का नारा उछालकर उसकी आँच में अपनी रोटी सेंकता है जबकि समूह एकात्मता को आत्मसात कर, उसे जीता हुआ एक साथ भूखा सो जाता है।

लोक का जीवन सरल, सहज और अनौपचारिक है। यहाँ छिपा हुआ कुछ भी नहीं है। यहाँ घरों के दरवाज़े सदा खुले रहते हैं। महाराष्ट्र के शिर्डी के पास शनैश्वर के प्रसिद्ध धाम शनि शिंगणापुर में लोगों के घर में सदियों से दरवाज़े नहीं रखने की लोकपरंपरा है। कैमरे के फ्लैश में चमकने के कुछ शौकीन ‘चोरी करो’(!) आंदोलन के लिए वहाँ पहुँचे भी थे। लोक के विश्वास से कुछ सार्थक घट रहा हो तो उस पर ‘अंधविश्वास’ का ठप्पा लगाकर विष बोने की आवश्यकता नहीं। खुले दरवाज़ों की संस्कृति में पास-पड़ोस में, मोहल्ले में रहने वाले सभी मामा, काका, मामी, बुआ हैं। इनमें से कोई भी किसीके भी बच्चे को अधिकार से डाँट सकता है, अन्यथा मानने का कोई प्रश्न ही नहीं। इन आत्मीय संबोधनों का परिणाम यह कि सम्बंधितों के बीच  अपनेपन का रिश्ता विकसित होता है। गाँव के ही संरक्षक हो जाने से अनैतिक कर्मों और दुराचार की आशंका कम हो जाती है। विशेषकर बढ़ते यौन अपराधों के आँकड़ों पर काम करने वाले संबोधन द्वारा उत्पन्न होने वाले नेह और दायित्व का भी अध्ययन करें तो तो यह उनके शोध और समाज दोनों के लिए हितकर होगा।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – अपने लिए ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  अपने लिए)

☆ लघुकथा – अपने लिए ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

किसी बड़ी कारपोरेट कंपनी में कार्यरत कर्मचारियों की तरह वर्दीनुमा कपड़े पहने कुछ सुंदर नौजवान युवक-युवतियों ने कार्यालय-कक्ष में प्रवेश किया और एक-एक कर अपनी कंपनी की तरफ से दिए गए उत्पाद सभी को दिखाने लगे। सभी को कंपनी-संचालक द्वारा एक बंधे-बंधाये प्रबंधन कोर्स की तरह प्रशिक्षित किया गया था और वह एक रट्टू तोते की तरह बोलकर अपने उत्पादों की अच्छाइयां और उनके अनूठे उपयोगों के बारे में बता रहे थे। साथ ही, एक के साथ एक मुफ्त या एक के दाम में दो का भी प्रलोभन दे रहे थे, जैसा कि ग्राहकों को लुभाने, या सरल शब्दों में कहें तो फंसाने का एक कारगर उपाय होता है। कुछ साथी कर्मचारी इस अंत में दिए गए मारक जाल में आ गए थे, और अपनी आवश्यकताओं या पसंद के अनुसार कुछ ना कुछ खरीद रहे थे। किसी-किसी ने वर्तमान की बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए भी उन नवयुवक और नवयुवतियों के प्रति अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए कुछ उत्पाद लिए, तो एक-दो का उनके प्रति आकर्षण भी कारण रहा होगा।

अब जब वह मेरे सामने खड़े रटे-रटाए वाक्य बोलने को हुए तो मैंने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया, “एक बात बताओ, तुम्हें इस काम के कितने पैसे मिलते हैं?” वह एक-दूसरे को देखने लगे। मैंने कहा, “छोड़ो, जितने भी मिलते होंगे, पर इतने नहीं कि जिन्हें तुम्हारी दिनभर की दौड़-धूप के अनुसार संतोषजनक या ज्यादा कहा जा सके, क्यों?”

वह चुपचाप खड़े थे जिससे मुझे यह अंदाजा हो गया था कि मैं काफी हद तक सही हूं।

मैंने फिर कहा, “यह तो तुम लोग भी जानते हो कि यह सारे प्रोडक्ट, जो तुम लोग बेच रहे हो, वह उत्तम गुणवत्ता वाले या नामी कंपनियों के नहीं हैं। इनमें बहुत मार्जिन होता है। तुम लोगों को थोड़ा सा लाभ देकर ज्यादातर लाभ कंपनी या एजेंसी के पास चला जाता है, जबकि तुम इन्हें बेचने के लिए अपना पूरा पसीना बहा देते हो। तो क्यों नहीं तुम लोग अपना स्वयं का कोई काम शुरू करके उसमें अपना श्रम और शक्ति लगाते। कम से कम किसी मुकाम तक तो पहुंचोगे, और तुम्हें तुम्हारी मेहनत का पूरा फल भी मिलेगा। तुम्हें किसी के अधीन रहकर नहीं, बल्कि आजादी से काम करने को मिलेगा और तुम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करोगे, अपने लिए…।”

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 3 ??

एकता शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे अँग्रेजी के ‘यूनिटी’ के अनुवाद से अधिक कुछ नहीं लगता। अनेक बार राजनीतिक दल, गठबंधन की विवशता के चलते अपनी एकता की घोषणा करते हैं। इस एकता का छिपा एजेंडा हर मतदाता जानता है। हाउसिंग सोसायटी के चुनाव हों या विभिन्न देशों के बीच समझौते, राग एकता अलापा जाता है।

लोक, एकता के नारों और सेमिनारों में नहीं उलझता। वह शब्दों को समझने और समझाने, जानने और पहचानने, बरगलाने और उकसावे से कोसों दूर खड़ा रहता है पर लोक शब्दों को जीता है। जो शब्दों को जीता है, समय साक्षी है कि उसीने मानवता का मन जीता है। यही कारण है कि ‘एकता’ शब्द की मीमांसा और अर्थ में न पड़ते हुए लोक उसकी आत्मा में प्रवेश करता है।  इस यात्रा में एकता झंडी-सी टँगी रह जाती है और लोक ‘एकात्मता’ का मंदिर बन जाता है। वह एकात्म होकर कार्य करता है। एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी ‘एकता’ बहुत छोटा शब्द है ‘एकात्मता’ के आगे। अत: इन पंक्तियों के लेखक ने शीर्षक में एकात्मता का प्रयोग किया है। कहा भी गया है,

‘प्रकृति पंचभूतानि ग्रहा लोका: स्वरास्तथा/ दिश: कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।’

एकात्मता के दर्शन से लोक का विशेषकर ग्राम्य जीवन ओतप्रोत है। आज तो संचार और परिवहन के अनेक साधन हैं।  लगभग पाँच दशक पहले तक भी राजस्थान के मरुस्थली भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए ऊँट या ऊँटगाड़ी (स्थानीय भाषा में इसे लड्ढा कहा जाता था) ही साधन थे। समाज की आर्थिक दशा देखते हुए उन दिनों ये साधन भी एक तरह से लक्जरी थे और समाज के बेहद छोटे वर्ग की जद में थे। आम आदमी कड़ी धूप में सिर पर टोपी लगाये पैदल चलता था। यह आम आदमी दो-चार गाँव तक पैदल ही यात्रा कर लेता था। रास्ते के गाँव में जो कुएँ पड़ते वहाँ बाल्टी और लेजु (रस्सी) पड़ी रहती। सार्वजनिक प्याऊ के गिलास या शौचालय के मग को चेन से बांध कर रखने की आज जैसी स्थिति नहीं थी। कुएँ पर महिला या पुरुष भर रहा होता तो पथिक को सप्रेम पानी पिलाया जाता। उन दिनों कन्यादान में पूरे गाँव द्वारा अंशदान देने की परंपरा थी। अत: सामाजिक चलन के कारण पानी पीने से पहले पथिक पता करता कि इस गाँव में उसके गाँव की कोई कन्या तो नहीं ब्याही है। मान लीजिये कि पथिक ब्राह्मण है तो उसे पता होता था कि उसके गाँव के किस ब्राह्मण परिवार की कन्या इस गाँव में ब्याही है। इसी क्रम में वह अपने गाँव का हवाला देकर पता करता कि उसके गाँव की कोई वैश्य, क्षत्रिय या हरिजन कन्या तो इस गाँव  में नहीं ब्याही। जातियों और विशेषकर धर्मों में ‘डिफॉल्ट’ वैमनस्य देखनेवालों को पता हो कि पथिक यह भी तहकीकात करता कि किसी ‘खाँजी’ (मुस्लिम धर्मावलंबियों के लिए तत्कालीन संबोधन) की बेटी का ससुराल तो इस गाँव में नहीं है। यदि दूसरे धर्म की कोई बेटी, उसके गाँव की कोई भी बेटी, इस गाँव में ब्याही होती तो वहाँ का पानी न पीते हुए 44-45 डिग्री तापमान की आग उगलती रेत पर प्यासा पथिक आगे की यात्रा शुरू कर देता। ऐसा नहीं कि इस प्रथा का पालन जाति विशेष के लोग ही करते। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, हरिजन, खाँजी, सभी करते। एक आत्मा, एकात्म, एकात्मता के इस भाव का व्यास, कागज़ों की परिधि में नहीं समा सकता।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #125 – विजय साहित्य – आला आला कवी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 125 – विजय साहित्य ?

☆ आला आला कवी…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 (अतिशयोक्ती अलंकार)

आला आला कवी

वाचू लागला वही

चार तासांनी म्हणे

ही होती फक्त सही….!

 

कविता त्याची नाजूक

खसखशी पेक्षाही छोटी

मुंगी सुद्धा त्यांच्यापुढे

शंभर पट मोठी…!

 

आला आला कवी

किती त्याचे पुरस्कार

रद्दिवाला म्हणे

घेतो हप्त्यात चार..!

 

आला आला कवी

चला म्हणे घरी

दाखवतो तुम्हाला

स्वर्गातली परी…!

 

आला आला कवी

पिळतोय मिशा

शब्दांच्या कोट्यांनी

भरलाय खिसा…!

 

आला आला कवी

खांद्याला झोळी

शब्दांच्या भाकरीत

पुरणाची पोळी…!

 

आला आला कवी

चोरावर मोर

जोरदार घेई टाळ्या

कोल्हाट्याचं पोर…!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आँखें ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – आँखें ??

आँखें

देखती हैं वर्तमान,

बुनती हैं भविष्य,

जीती हैं अतीत,

त्रिकाल होती हैं आँखें…!

 

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अक्षय…✍️ ??

मैं पहचानता हूँ

तुम्हारी पदचाप,

जानता हूँ

तुम्हारा अहंकार,

झपटने, गड़पने

का तुम्हारा स्वभाव भी,

बस याद दिला दूँ,

जितनी बार गड़पा तुमने,

नया जीवन लेकर लौटा हूँ मैं,

तुम्हें चिरंजीव होना मुबारक

पर मेरा अक्षय होना

नहीं ठुकरा सकते तुम..!

🌹 अक्षयतृतीया की हार्दिक शुभकामनाएँ 🌹

© संजय भारद्वाज

12.11 बजे, 22.10.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 30 – सजल – सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 30 – सजल – सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… 

समांत -आने

पदांत -लगे हैं

मात्रा भार -२२

 

दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे हैं ।

मित्रता की तराजू झुकाने लगे हैं।।

 

सौगंध खाई निभाने की खूब मगर,

सीढ़ियांँ जब चढ़ीं तो गिराने लगे हैं।

 

खाए कभी सुदामा ने छिपाकर चने,

गरीब को चुभे दंश रुलाने लगे हैं।

 

कन्हैया सा दोस्त,अब मिलेगा कहाँ,

प्रतीकों में बनकर लुभाने लगे हैं।

 

भूल जाने की आदत सदियों से रही ,

आज फिर नेक सपने सुहाने लगे हैं ।

 

स्वार्थ की बेड़ियों में बँथे हैं सभी,

खोटे-सिक्कों को सब भुनाने लगे हैं।

 

तस्वीरें बदली हैं इस तरह देखिए,

चासनी लगा बातें, सुनाने लगे हैं ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोसी- सतलज एक्सप्रेस -भाग-1 – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी ☆ अनुवाद – सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ कोसी- सतलज एक्सप्रेस -भाग-1 (भावानुवाद) – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

सव्वा लाख क्यूसेक पाणी!म्हणजे किती कोणास ठाऊक! पुराच्या काळात रोज एवढं पाणी कोसी नदीतून वाहत असतं. एरव्ही मात्र, सप्टेंबर महिन्यात फक्त पाच लाख क्यूसेक एवढंच वाहतं. आणि ऑक्टोबरात किंवा अश्विनात नऊ लाख क्यूसेक.

काही दिवसांपूर्वी निरूपद्रवी असलेल्या ह्या सापाचं दोन दिवसांपूर्वी अजस्र, क्रूर, सगळं गिळंकृत करणाऱ्या ऍनाकोंडात रूपांतर झालं.

आणि आता कोसी थोडी मवाळ झाली आहे .दोन्ही किनाऱ्यांवरून दुथडी भरून भरधाव वेगाने वाहणारं पाणी थोडं निवळलंय. आता कोसी नदी डौलात  वाहत आहे.

पानार, लोहनद्रा, महानदी आणि बकरा या तिच्या सर्व उपनद्यांचा पूर्वी नारिंगी असणारा रंग आता गढूळ झाला आहे .हरणाची शिकार करून ते अख्खेच्या अख्खे गिळल्यावर अजगर जसा सुस्तावतो, अगदी तशीच कोसीही अगदी शांत, एखाद्या मुलासारखी सालस झाली आहे. दिवसेंदिवस पाण्याची पातळी खाली खाली जात आहे. रोज, प्रत्येक प्रहराला लोक त्यांच्या कोसीमातेची प्रार्थना करत आहेत, ‘हे कोसीदेवी, आमच्यावर कृपा कर. पुरामुळे झालेल्या या प्रलयापासून आम्हाला वाचव!’

हॅरिसनगंज स्टेशनच्या फलाटावरची गर्दी आज ओसरल्यासारखी वाटतेय. काही लोक आपल्या घरी परतले आहेत. जे जाऊ शकले नाहीत, ते मागेच थांबले आहेत.बहुधा त्यांची घरं राहिलेली नाहीत किंवा त्यांच्या झोपड्या अर्ध्याअधिक चिखलात बुडालेल्या आहेत.नाहीतर एखादं मेलेलं, कुजलेलं जनावर -कुत्रा किंवा म्हैस – तिथे पडलं आहे आणि त्याची एवढी दुर्गंधी आजूबाजूला पसरली आहे, की अंगणातसुद्धा पाय ठेवणं मुश्किल झालं आहे. काहीजण आपल्या म्हाताऱ्या आई-वडिलांना किंवा मुलांना मागे सोडून पुन्हा फलाटावर आले आहेत. पुराने पाण्याबरोबर आणलेली एवढी रेती त्यांच्या शेतात पसरली आहे की ते आता तिथे कसलंच पीक काढू शकत नाहीत. काही लोक तर मजुरी -रोजगारीच्या आशेने गुजरात वा पंजाबसारख्या लांबच्या प्रांतात चालले आहेत.

रेल्वेमंत्री याच मतदारसंघातून निवडून आलेले आहेत. त्यांनी जाहीर केलं आहे की सहरसा, अररिया, कटिहार, सुपौल, पूर्णिया आणि मधेपुरा वगैरे ठिकाणाहून लोक विनातिकीट प्रवास करू शकतील. त्यामुळे हॅरिसनगंज स्टेशनजवळचे रेल्वे मार्ग दुरुस्त केले आहेत व त्यावरून गाड्या पुन्हा धावू लागल्या आहेत. लोक गाडीत चढले, तर कोणीही त्यांची तिकिटं तपासायला येणार नाहीत. आणि त्यामुळे तिकडे लोकांची एकच गर्दी झाली आहे. गाडी आतून तर भरलीच आहे, शिवाय टपावरही लोक बसले आहेत. प्रत्येक गाडीत तुफान गर्दी आहे. स्पष्टच सांगायचं, तर माणसं भरून ओतत आहेत.

एका सुक्या खडखडीत हातपंपासमोर बिरोजा विडी ओढत बसलाय. दोन दिवस अन्नाशिवायच गेले. आज दुपारी बहुधा डाळभात वाटतील. नशीब चांगलं असेल, तर एखादा कांदाही मिळेल प्रत्येकाला. तो आता फलाटावर फिरत आहे. ओळखीच्या प्रत्येक माणसाला विचारून याविषयी माहिती काढायचा प्रयत्न करत आहे. आणि जर ही माहिती खरी असेल, तर त्याला बांधावर जाऊन त्याच्या मुलीला -जनकदुलारीला -इकडे घेऊन यायचं आहे. त्याचे मुलगे मुरली आणि माधो दोघेही इथेच आहेत, फलाटावर खेळत आहेत. आणि त्याची बायको कालव्याच्या बांधाजवळ, जनकदुलारीबरोबर त्याची वाट पाहत आहे. सगळ्यात धाकटा छोटू तिच्या मांडीवर झोपला आहे.

क्रमश: ….

 मूळ इंग्रजी कथा – ‘कोसी- सतलज एक्सप्रेस’ मूळ लेखक – डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधुरी 

अनुवाद : सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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