हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 33 ☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “मैं, मैं और सिर्फ़ मैं”.  “मैं”  शब्द ही हमें हमारे हृदय में अपने आप अहं की भावना जागृत करता है। डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें  ‘स्व ‘ से उठकर  ‘अन्य ‘ के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित करता है । इस आलेख का अंतिम  कथन “दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे। ” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 33☆

☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं 

 

‘कोई इंसान खुश हो सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुर्सत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखलाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।

मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन भी सदैव दोषारोपण करने को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लीन रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर आगे क्यों न बढ़ना पड़े। उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से उसे कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग मानव अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह पाते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्यों-दायित्वों का वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता।… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है, परंतु अब किसी को उसकी दरक़ार नहीं रहती।

इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर, अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस व्यूह से बाहर निकल संबंधों- सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना जाता है, उन अपनों में…अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर चलती है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम व सौहार्द की। सो! बचपन में माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की दरक़ार व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन-साथी अर्थात् केवल अपने परिवार से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा दोनों सुख- दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते। एक भाव है, तो दूसरा अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन है।

जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन से सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट आकर छूने का साहस भी नहीं जुटा पाता। वह मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और

आत्मावलोकन कर खुद में सुधार लाने की डगर पर  चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीर जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात्  पूरे संसार में उसे खुद से बुरा कोई नहीं दिखाई पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी नहीं मिलता। ऐसे लोग खुद को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।

कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर है। हां! पावों में चप्पल पहन कर चलना सुविधाजनक है। सो! समस्या का समाधान खोजिए, खुद को बदलिए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ करवाता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

मानव गल्तियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इसलिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज- संजो लीजिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी आवश्यकता ही महत्वपूर्ण है और आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जहां चाह, वहां राह… यह है, जीने का सही राह। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है, तो वह नवीन राह  ढूंढ निकालता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य मिलेगी।

हां! अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति हैं, आते-जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में दूसरा दस्तक देता है। इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग देंगे तथा खुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए नदारद हो जाएंगे। इसलिए परखिए नहीं, समझिए… यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगे, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना होती है। जब वे सामान्य लोगों की नज़रों का कांटा बन खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते जाना चाहिए।

ज़िंदगी हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं ज़िंदगी का सफ़र सुहाना है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल नहीं पा लेते तथा मन में केवल एक विचार रखो… तुम जो पाना चाहते हो, उसे हर दिन दोहराओ। अंत में उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’

अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयासरत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके अंतर्मन में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म अनुकरणीय है। आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव है, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिलवा कर सुक़ून पाते हैं। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का हार्दिक स्वागत है। आप व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।)

संक्षिप्त परिचय

जन्म 01.09.1954

जन्म स्थान – गंगापुर सिटी (राज0)

शिक्षा एम.ए. (हिन्दी), पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि।

व्यवसाय – स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर से सेवानिवृत अधिकारी।

कृतियां/रचनाएं – चार कृतियां- ’नाश्ता मंत्री का, गरीब के घर’, ‘काग के भाग बड़े‘,  ‘बेहतरीन व्यंग्य’ तथा ’यादों के दरीचे’। साथ ही भारत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पांच सौ रचनाएं प्रकाशित एवं प्रसारित। कुछेक रचनाओं का पंजाबी एवं कन्नड़ भाषा अनुवाद और प्रकाशन। व्यंग्य कथा- ‘कहां गया स्कूल?’ एवं हास्य कथा-‘भैंस साहब की‘ का बीसवीं सदी की चर्चित हास्य-व्यंग्य रचनाओं में चयन,  ‘आह! दराज, वाह! दराज’ का राजस्थान के उच्च माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में शुमार। राजस्थान के लघु कथाकार में लघु व्यंग्य कथाओं का संकलन।

पुरस्कार/ सम्मान – कादम्बिनी व्यंग्य-कथा प्रतियोगिता, जवाहर कला केन्द्र, पर्यावरण विभाग राजस्थान सरकार, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर, अखिल भारतीय साहित्य परिषद तथा राजस्थान लोक कला मण्डल द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित। राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार घोषित।

 ☆ व्यंग्य – फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में ☆

किबला मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी ने अद्भुत बात लिखी है कि इंसान को हैवाने जरीफ़ याने प्रबुद्ध जानवर कहा गया है और यह हैवानों के साथ बहुत बड़ी ज्यादती है। ओशो ने कहा था कि जानवर इसलिए नहीं हंसते क्योंकि वे ऊबते नहीं हैं। मुश्ताक साहब का कथन है कि इंसान एक मात्र अकेला ऐसा जानवर है जो मुसीबत पड़ने से पहले ही मायूस हो जाता है। मगर हास्य उसका एक मात्र ऐसा आलम्बन है जो उसे किसी भी मुसीबत से पार कर देता लेता है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में बहुत पहले हास्य के आठ प्रकार बता दिए थे। उनमें मुक्त हास्य, मंद हास्य एवं मौन हास्य प्रमुख हैं। अट्टहास, ठिठोली, ठट्ठा तथा ठहाका को मुक्त हास्य, मुस्कान को मंद हास्य और अंतर्हास को मौन हास्य कहा गया है। हास्य-कला का एक और वर्गीकरण है, ’अपहास’। यह निकृष्ट श्रेणी का हास्य है। उपहास, खिल्ली, खीस तथा कटाक्ष आदि अपहसित हास्य हैं। घोड़े की माफिक हिनहिनाना और लकड़बग्घी हंसी इसी श्रेणी के हास्य हैं। मुक्त हास्य इंसान को ईश्वर की नेमत है। कवि लिखता है, ‘हंसना रवि की प्रथम किरण सा, कानन के नवजात हिरण सा‘। सच, शिशु की भोली किलकारी सभी को सम्मोहित करती है। इंद्रजीत कौशिक ने बालक की खिलखिलाहट को ईश्वरतुल्य बताते हुए लिखा है- ‘संग खुदा भी मुस्कराया, जब एक बच्चे को हंसाया।’ यह मालूम नहीं कि निर्मल हंसी और निश्छल मुस्कान ईश्वर तक पहुंचती है या नहीं किन्तु यह दिल तक जरूर पहुंचती है। मुस्कान के बारे में इतना तक कहा गया है कि यह आपके चेहरे का वह झरोखा है, जो कहता है कि आप अपने घर पर हैं। महबूबा की उन्मुक्त हंसी पर अग्निवेश शुक्ल लिखते हैं- ’’जब्ज है दीवारों में तेरी हंसी और खुशबू से भरा है मेरा घर।’’ इसी मिज़ाज पर वीरेंद्र्र मिश्र ने लिखा है- ‘‘फूल हंसी भीग गयी, धार धार पानी में।’’ आंग्ल भाषा में कथन है कि हैप्पीनेस इज नॉट ए डेस्टीनेशन। इट्स ए मैथड ऑॅफ लाइफ। यानी मस्त होकर हंसो, फिर मस्त रहो। ‘तमक-तमक हांसी मसक’ यानी मनभावक, मतवाली और मस्तानी हंसी एक चिकित्सा है। ‘लाफ्टथैरपी’ के कद्रदान कहते हैं कि हंसने से  ‘बक्सीनेटर‘, ‘आर्बीक्यूलेरिस,’ ’रायजोरिस’ तथा ’डिप्रेशरलेबी’ जैसी मुख्य मांस पेशियों समेत दो सौ चालीस मांसपेशियां सक्रिय होकर सकारात्मक प्रभाव पैदा करती हैं और जब, हंसी बुक्काफाड़ हो तो समझो कि मांसपेशियों की तो शामत आ जाती है। ऐसे ही हंसोड़ थे, रामरिख मनहर। मेरे महल्ले में भी उसी नस्ल के एक शायर रहते हैं। जनाब, गज़ब के ठहाकेबाज हैं। अस्सी पड़ाव लांघ चुके हैं लेकिन अब भी उनकी हंसी अनेक घरों को लांघती हुई मेरे घर में बेतकल्लुफ प्रवेश करती है। एक दिन मैंने उनसे दो सौ चालीस मांसपेशियों की सक्रियता का उल्लेख कर दिया। दूसरे दिन खां साहेब छड़ी ठकठकाते घर आ गए और बोले, ‘‘जिन दांतों से हंसते थे खिल खिल, अब वही रूलाते हैं हिलहिल।’’ बताओ कि वह कौन सी नामाकूल पेशी है?, जिसने हमारे दांतों में ऐसा भूचाल ला दिया कि कल हमने बुक्का क्या फाड़ा कि रात भर कराहते रहे और अभी अभी डॉक्टर को दिखाकर लौटे हैं। कमबख्त ने पर्चा भर कर दवाइयां लिख दी हैं।’’

मैंने कहा, ‘‘म्यां! यह मांसपेशी का कुसूर नहीं बल्कि आप बरसों से जर्दा-किवाम की गिलौरियों का जो जुर्म इन पर ढाते रहे हो, यह उसी का नतीजा है।’’ यह सुनकर बरखुदार लाहौलविलाकुव्वत बोलते हुए निकल लिए।

कुछ महानुभावों ने हास्य की इंद्रिय को इंसान की छठी इंद्रिय कहा है। कदाचित, इसी वजह से तमाम बदहालियों और बीमारियों के बावजूद देश की जनता हंसे-मुस्कराए जा रही है। भय, भूख, बेरोजगारी, अराजकता और अनाचार के बाद भी हम सदियों से हंस रहे हैं, खिलखिला रहे हैं। भ्रष्टाचार और कुव्यवस्थाओं के खिलाफ आक्रोश जताने की जगह खीसें निपोर रहे हैं। गाहे-बगाहे, क्रोध प्रदर्शन हो भी जाता है तो उनमें भी हंसते- मुस्कराते मुखड़े नजर आ जाते हैं। हैरत है कि दारूण प्रकरणों तथा अंतिम संस्कारों जैसे अवसरों पर भी लोग चहक लेते हैं। कवि रघुवीर सहाय भी कदाचित इस अवस्था को अनुभूत करते हुए लिख गए- ’’लोकतंत्र का अंतिम क्षण है, कहकर आप हंसे। निर्धन जनता का शोषण है, कहकर आप हंसे। चारों ओर है बड़ी लाचारी, कहकर आप हंसे। सबके सब हैं भ्रष्टाचारी, कहकर आप हंसे।‘‘ चुनंाचे, आलम यह है कि आवाम ही नहीं बल्कि देश के दिग्गज राजनीतिबाज भी बात-बेबात मुस्करा रहे हैं। ताज्जुब तो तब होता है जब चुनावों में मुंह की खाने के बाद भी शीर्ष नेता हंस-विहंस कर आत्मचिंतन की आवश्यकता जाहिर करते हैं। फिर नतीजा चाहे, ढाक के तीन पात निकले। गंभीर विषयों पर आयोजित नौकरशाहों की बैठकें अमूमन चाय-नाश्ते के चटखारे के साथ समाप्त हो जाती हैं। नतीजा वही ढाक के तीन…। टी.वी. स्क्रीन पर दिख रही चख..चख का नतीजा भी ढाक के तीन पात ही होता है। फिर वे चाहे लोकसभायी हों या न्यूज चैनल्स पर आमंत्रित माननीयों की। हम भी उस कुत्ता लड़ाई का पूर्णता से लुत्फ ले ही लेते हैं।

चुनांचे, अब वक्त आ गया है, जब बचे-खुचे लोग भी हंसने-मुस्कराने की इस पुनीत राष्ट्रीय धारा में शरीक हों और अपना स्वास्थ्य दुरूस्त रखें। इसके लिए किसी लॉफिंग-क्लब से जुड़ने लॉफ्टर शो आदि देखने की जरूरत नहीं। सिर्फ, सतर्कता से अपने आवास, दफ्तर, प्रतिष्ठान के आसपास के मौजूं का अवलोकन करें, बस इसी ताका-झांकी में आपको अनेक भी हास्य प्रसंग मिल जाएगा। इस मामले में थोड़ा सा मार्गनिर्देशन हम किये देते हैं- जब लोग गुलाब जामुन को रसगुल्ला। बाघ, चीता, तेंदुआ को शेर। किसी कंपनी की कार को मारूति। किसी भी मोटर साइकिल को हीरो होंडा। वनस्पति घी को डालडा और  लेमीनेट को सनमाइका कह कर पुकारें; तो आप यकीनन खिलखिला सकते हैं। आपके उपालंभ पर दूधिया कहे कि सा‘ब! मेरा दूध तो एकदम शुद्ध और पेवर है। आपका पड़ौसी बोले कि मैं तो रोज सुबह उठकर, डेली घूमता हूं। अधिकारी पूछे कि इन आंकड़ों का कुल टोटल क्या है? चिकित्सक नसीहत दे कि रोजाना फल-फ्रूट खाया करो अथवा अतिथि आपके चाय के प्रस्ताव पर नाक-भौं सिकोड़े और कहे कि टी तो मैं सिर्फ बेड-टी पर ही लेता हूं। गर्ज यह कि आप ऐसे प्रसंगों पर अपनी एक अद्द मुस्कराहट न्यौछावर कर सकते हैं। एक महिला अपने बच्चे को डॉक्टर को दिखाते हुए बोली- डॉक्टर साहब! देखिए तो इसके बाथरूम में सूजन आ गई है। उसकी उस बाथरूमी-संज्ञा पर चिकित्सक की इच्छा लहालौंट होने को अवश्य हुई होगी? किसी कस्बाई नेता का अभिनंदन है और प्रशंसा के बड़े-बड़े पुल बांधे जा रहे हैं कि इनके नेतृत्व से देश ही नहीं वरन विश्व को बड़ी बड़ी आशाएं हैं। तबादलित, जिला स्तर के अधिकारी के विदाई समारोह में भाषण झाड़े जा रहे हों कि इनकी कार्यकुशलता का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है अथवा सूदखोर सेठ को दानवीर कर्ण या भामाशाह की उपाधि से विभूषित किया जा रहा हो या धुर देहात में ग्रामीणों के मध्य कृषि संबंधी जानकारी अंग्रेजी में दी जा रही हो, किसी स्थानीय समाचार-पत्र का लोकार्पण या संगठन का अभ्युदय हो और उसे राष्ट्रीय स्तर के संबोधन दिए जा रहे हों तो ऐसे मौकों पर सिवा ठहाका लगाने के आप कर ही क्या सकते हैं?

चलिए, चलते चलते दिविक रमेश की ये पंक्तियां स्मरण करके ही हंस लें-

‘‘कुछ नालायक विचार भी प्यारे तो बहुत होते हैं। आते ही उनके हंसने लगती हैं, हमारी उदासियां।’’

 

© प्रभाशंकर उपाध्याय

193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

सम्पर्क-9414045857

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #29 – ☆ भान… ☆ – सुश्री आरूशी दाते

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ गीतांजलि की कवितायें ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(यह ‘गीतांजलि’ कविवर रवींद्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ की कवितायेँ नहीं है। अपितु, इन कविताओं की रचनाकार गीतांजलि! एक पंद्रह वर्षीय प्रतिभाशाली छात्रा थी जो मुम्बई के एक अस्पताल में 11 अगस्त 1977 को कैंसर के लम्बे रोग से ग्रस्त और त्रस्त होकर एक मुरझाये फूल की तरह चुपचाप मौत की सीढि़यां पार कर गई। शायद उसे अपनी मौत का अहसास पहले ही हो गया था।  उसकी अन्तिम इच्छा थी कि उसके नेत्र किसी नेत्रहीन को दे दिये जायें। वह अपने हृदय का बोझ शताधिक अंग्रेजी कविताओं में कैद कर गई। श्री प्रीतिश नंदी द्वारा 30 मार्च 1980 के ’इलस्ट्रेटेड वीकली आफ इण्डिया’ के अंक में प्रकाशित संकलन ने मेरा रचना संसार ही झकझोर कर रख दिया।  आज से 29 वर्ष पूर्व इन गीतांजलि की उन पांच कविताओं का भावानुवाद करने की चेष्टा की है। गीतांजलि की ये मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कवितायें ही मेरी भावी रचनाओं के लिये प्रेरणा स्त्रोत बन गई हैं। कालान्तर में मैंने उनकी सभी कविताओं का अनुवाद ‘गीतांजलि  – यादें और यथार्थ’ शीर्षक से किया और सहेज कर अपने पास रखा हुआ है।) 

 

गीतांजलि की कवितायें

☆ विदा लेती आत्मा की प्रतिध्वनि☆

 

मेरे जीवन की लौ

बढ़ रही है

अपने अन्त की ओर।

मैं नहीं जानती

कब आयेगा

मेरा अन्त।

मुझे दुख है

अपने लिये

किन्तु,

मुझे खुशी  है

तुम्हारे लिये

मेरे अज्ञात मित्र

तुम्हारे लिये,

उस ज्योति के लिये

मेरे नेत्रों की

जो तुम्हारी होगी।

जो तुम्हारी होगी।

 

यह वही प्रतिध्वनि है

मेरी विदा लेती आत्मा की

और

जो तुम पाओगे

मेरे मित्र

मेरी ज्योति

मेरे नेत्रों की

वह मेरी अमानत है

तुम्हारे लिये।

 

☆ विनती ☆

 

मैं हमेशा ढ़ूंढती हूं, तुम्हें

अपनी प्रार्थनाओं में

सर्वस्व में

उगते सूर्य में

और

ढलते दिन में।

 

मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ

स्वप्न में

अज्ञात प्रकाश में

तुम्हारे आलौकिक स्पर्श के लिये

जब मैं त्रस्त रहती हूं

असह्य पीड़ा से

और

धन्यवाद देना चाहती हूँ

इस आशा से

कि

– कब मेरी पीड़ा दूर करोगे।

 

मैं तुम्हें ढ़ूंढती हूँ

अपनी प्यारी माँ में

और

अपने पूज्य पिताजी में भी

तुम्हारे मार्गदर्शन के लिये।

संयोग से

यदि

मैं ठीक न हो पाई

तो

तुम्हारा नाम लेना व्यर्थ होगा।

हे प्रभु!

विश्वास करो

मैं असहय पीड़ा में हूँ।

 

मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ

उन अनमोल क्षणों के लिये

जब तुमने मुझे हंसाया था

इसी असहय पीड़ा में।

उन्हें

संजो रखा है मैंने

एक अनमोल खजाने की तरह

और

जी रही हूँ

उन्हीं अविस्मरणीय क्षणों को

याद कर ।

 

मैं

अनुभव कर रही हूँ

तुम्हारा अस्तित्व

अपनी माँ  में

और

पिताजी की गोद में।

 

मुझे विश्वास है

और

तुम जानते हो

मैं कुछ नहीं चाहती।

बस,

सत्य की रक्षा करो।

सत्य तुम्हारे अन्दर है

और

इसीलिये

मैं तुम्हें ढूंढ रही हूं।

मैं तुम्हें ढूंढूंगी

अपनी मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक।

मैं विनती करती हूँ

हे! मेरे प्रिय प्रभु!

मेरे पास आओ

मेरे हाथों को सहारा दो

और ले जाओ

जहां  तुम चाहते हो।

 

एक वात्सल्य विश्वास लिये

इसी आशा पर टिकी हूं

अतः हे प्रभु!

मुझ पर कृपा करो

मेरे करीब आओ।

 

☆ अफसोस☆ 

 

एक दीपक जल रहा है

मेरी शैय्या के पास।

मैं देख रही हूं

दुखी चेहरे

उदास

जो घूम रहे हैं

मेरे आसपास

नहीं जानते

कब मृत्यु आयेगी।

 

मैं!

मांग रही हूं

अपना अधिकार

मौत से।

अब मुझे कोई भय नहीं है

अतः

मैं स्वागत करुंगी

मौत का

अपनी बाहें फैलाकर।

 

किन्तु, …… अफसोस!

मेरे पास

अर्पण के लिये

केवल आंसू रहेंगे

और

यह नश्वर शरीर।

 

 

☆ निद्रा! ☆

 

हे निद्रा!

हम कब मिले थे,

पिछली बार?

तुम और मैं

हो गये हैं अजनबी।

 

अभी

कुछ समय पहले

हम लोग कितने करीब थे।

जब तुम ले जाती थी … मुझे

मेरा हाथ थाम कर

दूर पहाडियों पर

स्वप्नों का किला बनाने।

अब

यह सब

कितना अजीब है।

अब रह गई हैं

मात्र

एक धुंधली सी स्मृति

तुम्हारी!

 

याद करो

आदान प्रदान

हमारे करुण विचारों का?

अब

रह गई हूँ, अकेली

और

स्मृतियां शेष !

 

कभी-कभी

कुछ शब्द-चक्र

पुनर्जीवित कर देते हैं

विस्मृत क्षणों को

एक लोरी की तरह।

एक शुभरात्रि चुम्बन

मुझे याद दिलाता है, तुमको

जिसे कहते हैं

’निद्रा’!

 

अब लेटी हूं

और

देख रही हूँ

अंधकार में

अकेली और दुखी।

 

एक बार

रास्ते में

निद्रा घेर लेती है

अचानक!

और …. स्वप्न

मुझसे दूर भागने लगते हैं।

 

22 अप्रेल 1980

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 21 – लाल बत्ती की इज्जत ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक कहानी “लाल बत्ती की इज्जत। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 21☆

 

☆ लघुकथा – लाल बत्ती की इज्जत  

 

“——- हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ?”

माँ चिल्लाती रही, बड़बड़ाती रही पर अमेरिका में नौकरी करने गए एकलौते बेटे को फुरसत नहीं मिली। बेटे के इंतजार में पिता की आंखें फटी रह गईं, सांस रुक गई, पर बेटे ने खोज खबर नहीं ली।

पिता को गए कई साल हो गये तो बेटे की पत्नी को लगा कि माँ भी अचानक चली गई तो मुंबई के मंहगे फ्लैट और नासिक की सौ एकड़ जमीन का क्या होगा…..?

मंहगे फ्लैट और मंहगी जमीन के लोभ में पति-पत्नी चिंतित रहने लगे।

एक दिन बेटा फ्लाइट से मुंबई पहुंचा। माँ को समझाया कि माँ क्यों न हम नासिक की सौ एकड़ जमीन और मुंबई का मंहगा फ्लैट बेच दें और फिर स्थाई रूप से तुम मेरे पास अमेरिका में रहो। तुम्हारी बहू दिनों रात तुम्हारी सेवा करेगी। बेटे की बातों में आकर माँ ने करोड़ों की जमीन और कई करोड़ का फ्लैट बेच दिया। बेटे ने सारा पैसा अपने विदेशी बैंक में जमा किया और माँ को लेकर एयरपोर्ट की कुर्सी में बैठ गया, माँ के साथ बढ़िया भोजन किया और थोड़ी देर बाद कोई बहाना बना कर कहीं चला गया माँ रास्ता देखती रही। पूरी रात जागती रही। वह नहीं आया, तब माँ हड़बड़ाहट में उस ओर भागी जिस ओर उसका बेटा यह कहकर गया था कि वह थोड़ी देर बाद आ जायेगा।

परेशान रोती हुई उसने सुरक्षा गार्ड से बेटे का हुलिया बताते हुए खोज खबर ली तो पता चला कि उसका बेटा रात की फ्लाइट से ही अमेरिका उड़ गया है। उसे विश्वास नहीं हुआ, वह सुरक्षा गार्ड को धक्का देने लगी…. पुलिस ने आकर उसे गिरफ्तार कर लिया। क्योंकि, वो लाल बत्ती के नियमों का उल्लंघन कर रही थी। जब लाल बत्ती जल रही हो तो लाल बत्ती की इज्जत करनी चाहिए।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( विस्तार से ध्यान योग का विषय )

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।

सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌।।13।।

सिर ग्रीवा ओै” देह को सम रेखा में ढाल

नासिकाग्र में दृष्टि रख मन के मिटा मलाल।।13।।

 

भावार्थ :  काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।13।।

 

Let him firmly hold his body, head, and neck erect and perfectly still, gazing at the tip of  his nose, without looking around.  ।।13।।

 

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7 ☆ हिस्सा ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “हिस्सा”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 7  

☆ हिस्सा  

 

तुमने

कर दिया है बंद मुझे

किसी सूने से लफ्ज़ की तरह

जो छुपा हुआ है

किसी ठहरी सी नज़्म में,

किसी किताब के मौन सफ्हे पर!

 

खामोश सी मैं

एक टक देख रही हूँ

तुम्हारी आँखों के चढ़ते-उड़ते रंगों को

और निहार रही हूँ

तुम्हारे होठों की रंगत को,

तुम्हारे माथे की चौड़ाई को

और तुम्हारे जुल्फों के घनेरेपन को!

 

सुनो,

मैं तुम्हारी मुहब्बत का

एक छोटा सा हिस्सा हूँ,

तुम ही हो मुझे बनाने वाले

और मेरी पहचान भी तभी तक है

जब तक तुम मुझे चाहो;

वरना मिटाने में तो

बस एक लम्हा लगता है!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆ – पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय  सुविख्यात साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  का मूर्धन्य साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो राजेंद्र ऋषि जी  के ७५वें जन्म दिवस पर यह विशेष आलेख.

ई-अभिव्यक्ति की और से प्रो राजेंद्र ऋषि जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए  हार्दिक शुभकामनाएं. )

 

☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆

 

सरहद पर सैनिक चीन की फौज से जूझ रहे थे, विकट परिस्थियां सामने थीं देश के नागरिकों में भयंकर आक्रोश था, कैसे भी हो चीन को सबक सिखाना है अपने अपने ढंग से लोग सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे ऐसी विकट परिस्थिति में संस्कारधानी से राष्ट्रवादी स्वर फूटा जिसकी कविताएं सैनिकों में जोश भर रही थीं वह नित नए प्रतीकों से सैनिकों में साहस भरता और मातृभूमि के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता वही स्वर आगे चलकर कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों का सिरमौर हुआ। सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा का स्वर बनकर मंचों से रात रात भर कविताओं को उलीचता, राष्ट्रभक्ति के साथ रसिकों की प्यास बुझाता। 1962 से जिन युवा गीतकारों ने मंचों पर धूम मचाई उनमें मेरे पूज्य पिता गीतकार स्व ओंकार तिवारी चाचा जनकवि स्व सुरेंद्र तिवारी के साथ प्रो राजेन्द्र ऋषि का नाम तात्कालिक  कवि सम्मेलनों की अनिवार्यता बन गए थे। अपने फक्कड़पन और औदार्य के कारण कवि राजेन्द्र तिवारी, अब राजेंद्र ऋषि हो गए। उन दिनों हिंदी कवि सम्मेलन  के सशक्त हस्ताक्षर संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध कवि व्यंग्य शिल्पी स्व श्रीबाल पांडेय जी का तीनों पर वरद हस्त था 1961 में कमानिया गेट पर आयोजित कवि सम्मेलन में श्रीबाल जी ने इन तीनों युवा कवियों का प्रथम बार बड़े मंच से काव्यपाठ करवाया ये कवि उनकी कसौटी पर खरे उतरे और वर्षों बरस मंचों पर प्रतिष्ठित रहे।

सरकारी नीतियां हों समाज सेवा हो शिक्षा का दान हो या मित्रों की आवश्यकता ऋषि जी सदैव तत्पर रहे और संकट के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर अपना मित्र धर्म निभाया। उन दिनों के कवि सम्मेलन आज की तरह ग्लैमरस नहीं थे मंच पर शुद्ध कविताएं होती थीं उस्ताद कवि बराबर काव्यपाठ पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते थे। कवि सम्मेलन रोजगार नहीं था साहित्य सेवा ही उसके मूल में थी अतः ऋषि जी ने जीवकोपार्जन हेतु हितकारिणी बीएड कालेज को कर्मभूमि बनाया। कविता का धर्म और शिक्षा का कर्म जीवन पर्यन्त चलता रहा शैक्षणिक जगत में ऐसी धाक बनी की जबलपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें ससम्मान डीन की कुर्सी लगातार 3 बार सौंपी उल्लेखनीय है कि यह पहला अवसर था जब अशासकीय शिक्षा महाविद्यालयों से कोई प्रोफेसर विश्व विद्यालय का डीन हुआ। ऋषि जी ने डीन की आसन्दी पर बैठकर शिक्षा को नए आयाम दिए इसका जीत जागता प्रमाण विश्व विद्यालय में बीएड विभाग की स्थापना है। इस स्थापना पीछे उनका उद्देश्य यह भी था कि महाकौशल क्षेत्र और शहर की प्रतिभाएं विश्व विद्यालय में अपनी सेवा दे सकें किन्तु उनका यह सपना आज भी अधूरा है। तथापि उनका  कार्यकाल विश्व विद्यालय के लिए बहुत प्रेरक और मार्गदर्शक रहा। शनैः शनैः सेवानिवृत्ति के समय आया मित्रों ने बड़ा जलसा कर उन्हें कार्यमुक्त किया।

नौकरी के दौरान ही उनका प्रथम काव्य संग्रह आपा सहित्याकाश में बहुत तेज़ी से चर्चित हुआ संग्रह की अनेक रचनाओं में रुपयों का झाड़, अंधेरे की आज़ादी और सब कुछ बदल गया है मगर कुछ नहीं बदला ने लोकप्रियता के कीर्तिमान गढ़े। द्वतीय काव्य संग्रह “इक्कीसवी सदी को चलें” का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने किया था। तेजी से बदलते राजनैतिक परिदृश्य में आम आदमी की व्यथा कथा और देश की किस्मत में लिखे राजनैतिक छलावे को उन्होंने अपनी रचनाओं में खूब लताड़ा। यथा-

“दिल्ली बनी हैं झांसी झांसे नहीं बदले।

नटवर बदल गए हैं तमाशे नहीं बदले”।

अमीरी और गरीबी, फ़र्ज़ी जनसेवा के छलावे को भी उन्होंने आड़े हाथों लेकर लिखा

प्रगति पंथ के निर्माता हैं कड़ी धूप में,

रथ पर चलने वालों को रिमझिम बरसातें,

देश देखनेवाली आंखें धूल भरी हैं

स्वार्थ भारी आंखों को सपनों की सौगातें।

जब जब भी देश  जाती धर्म की आग में झुलसा तब तब ऋषि जी ने जनता के बीच सकारात्मक  पैगाम पहुंचाया-

इंसानी रिश्तों से बढ़कर मज़हब नहीं बड़े रहते हैं।

बढ़ जाता इंसान राह पर मज़हब वहीं खड़े रहते हैं।

ऋषि जी जब कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते तो अपनी सशक्त प्रस्तुति और सम्प्रेषणीयता के कारण पूरे वातावरण को अपने पक्ष में कर लेते हैं लोग उनकी सम्मोहनी के कायल हो जाते हैं। उनकी कविताएं सहज सरल भाषा में बड़ा पैगाम देते हुए समाधान की यात्रा करती हैं।

चूंकि ऋषि जी जीवन भर अक्खड़ फक्कड़ निरदुंद रहे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समय के साक्षी रहकर काव्य लेखन में लगे रहे चुनौतियों को सदा स्वीकार किया सच को सच लिखा गलत को आड़े हाथों लिया इसलिए सरकारी सम्मानों से सदैव वंचित रहे, सरकार की जन विरोधी नीतियों पर हमेशा कटाक्ष करते रहे इसलिए सरकारी कार्यक्रम, वजनदार लिफाफा और सुविधाएं उनसे कोसो दूर रहीं। वे राज दरबारी न होकर जनपीड़ा के गायक हैं उनकी कविता आम आदमी और गांव चौपालों में जिंदा है और हमेशा रहेगी।

ऋषि जी अलमस्त फकीर और ठठ्ठा मारकर हंसने वाले जिंदादिल इंसान हैं उनके पास समय का पाबंद होकर नहीं बैठा जा सकता किसी भी विषय की तह तक जाने  की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। किसी कार्य के दूरगामी परिणाम क्या होंगे वे पहले ही घोषणा कर देते हैं। साहित्य के गिरते स्तर और कवि सम्मेलन के दूषित माहौल से वे बहुत क्षुब्ध हैं और समय समय अपने शिष्यों को आगाह करते रहते हैं।

एक समय आया जब पारम्परिक कविता को साहित्य न मानकर उल जुलूल बेतुकी कविता और कवियों की विरुदावली गायी जाने लगी तब उन्होनें सजग रचनाकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए आंचलिक साहित्यकार परिषद का गठन कर पूरे मध्यप्रदेश में कविता की प्रतिष्ठा हेतु वृहद  अभियान चलाकर अनेक रचनाकार खड़े करते हुए बहुत मजबूत सारगर्भित सारस्वत अभियान का श्रीगणेश किया।मुझे गर्व है में भी आंचलिक  साहित्यकार परिषद का सिपाही रहकर अभियान में शामिल हुआ।

यहां यह जिक्र करना बहुत आवश्यक है कि 90 के दशक में सरकारी मंच पूर्णतः वामपंथियो की गिरफ्त में आ चुके थे दूरदर्शन और आकाशवाणी से वही रचनाएँ प्रसारित होती जिनके सिर पैर, ओर छोर नहीं होता ऐसी विकट स्थिति में सरकार से लड़ाई लड़कर पारम्परिक यथार्थ कविताओं का आकशवाणी से प्रसारण करवाने का श्रेय सिर्फ राजेन्द्र ऋषि को जाता है। इस दौर में आंचलिक  साहित्यकार परिषद के नीचे प्रदेश के समर्थ और सच्चे रचनाकार स्वाभिमान से काव्यपाठ कर सके। यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि इस दौर में गुमनामी के अंधेरे में खोए रचनाकारों की सुषुप्त चेतना जागृत हुई और आंचलिक साहित्यकार परिषद के अधिवेशनों से उन्हें देश व्यापी पहिचान मिली।

ऋषि जी का व्यक्तित्व सर्वग्राही और सर्व स्वीकार है जिस तरह उनकी लेखनी को सार्वभौम सर्वस्वीकृति है उसी तरह उनका निश्छल व्यवहार मौलिक रचनाकारों के प्रति सदैव प्रेरक रहा। अध्यक्षीय और मुख्यातिथ्य की मंचीय लिप्सा से दूर कविता के प्रति प्रतिबध्दता प्रणम्य है। अनेको बार मैंने ऋषि जी को श्रोता समुदाय में बैठकर मौलिक रचनाकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते देखा है।

परमप्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण जी और राधा रानी ने ऋषि जी पर अनुपम कृपा बरसायी उनकी कलम से प्रस्फुटित कृष्ण काव्य के छंदों को श्रखला बढ़ते बढ़ते 1000 हो गई अब वे कृष्ण काव्य के ऋषि हैं वे कृष्ण भक्ति में इस कदरलीन हैं कि उन्होंने कृष्ण के साथ खुद को एकाकार कर लिया है। प्रत्येक छंद में नए प्रतीक नए सम्बोधन नया भाव नया द्रष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। हिंदी साहित्य के लिए कृष्ण काव्य वरदान है। ऋषि जी जब डूबकर सुनाते हैं तो लगता है एक छंद और सुन लेते अद्भुत अद्वतीय कृति का शब्द शब्द अनमोल है। छंदों का लालित्य सहज भाषा मन में भक्ति का बीजारोपण करती है बानगी के 2 छंदों का आप आनन्द लीजिये-

प्रेम के मीठे दो बोल कहो, बढ़ के सत्कार करो न करो,

दधि गागर को कम भार करो, दूजो उपकार करो न करो,

ये जन्म में प्रीति प्रगाढ़ रखो ओ जन्म में प्यार करो ने करो

अब पार कराओ हमें जमुना भव सागर पार करो न करो।

और

नज़रों पे चढ़ी ज्यों नटखट की खटकी खटकी फिरती ललिता,

कछु जादूगरी श्यामल लट की लटकी लटकी फिरती ललिता,

भई कुंजन में झुमा झटकी ,झटकी झटकी फिरती ललिता,

सिर पे धर के दधि की मटकी मटकी मटकी फिरती ललिता।

आज ऋषि जी ने अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये गत वर्ष राष्ट्रीय कवि सङ्गम, मप्र आंचलिक साहित्यकार परिषद, जानकीरमण महाविद्यालय ने ऋषिजी का अमृत महोत्सव बहुत धूमधाम से द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनन्द जी सरस्वती महाराज के निज सचिव ब्रह्मचारी सुबुध्दानन्द जी के पावन सानिध्य में मनाया था जिसमें नगर के कवि पत्रकार, लेखक, नेता, समाजसेवी, शिक्षाविद, किसानों ने बड़ी संख्या में उपस्थित होकर ऋषि जी को अपना शुभाशीष दिया । रसखान, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध , जगन्नाथ दास रतनाकर की परंपरा के संवाहक ऋषि जी अपने ढंग से अपनी शैली अपनी भावाभिव्यक्ति से जनमानस तक पहुंचने का महनीय कार्य कर रहे हैं । ऋषि जी के सृजन में जिन तीन भाषाओं का समन्वय मिलता है उनमें बुंदेली भाषा, ब्रजभाषा और खड़ी बोली प्रमुख हैं।एक महाकवि, भक्त कवि और पथ प्रदर्शक के 75 वर्ष पूर्ण होने पर उनके स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना के साथ बहुत बहुत बधाई।

साहित्य के ऋषिराज को नमन।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न ९४२४६०८०४० / 9826188236

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 9 ☆ उलझन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Remembering My Gurus On Guru Purnima ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Guru Purnima Special 

 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Remembering My Gurus On Guru Purnima☆

 

Today is Guru Purnima.

Guru is the one who shows you the path and takes you from darkness to light, from ignorance to knowledge and wisdom. Purnima is full moon.

Today is a special day to remember and revere our Gurus.

I pay my regards to five thinkers and influencers who have been revolutionaries in their fields.

They are my Gurus and have shown me the path to authentic happiness, well-being and fulfilment in life:

MARTIN SELIGMAN is known as the father of the new science of Positive Psychology. He has applied his wisdom and experience to the task of increasing wellness, resilience, and happiness for everyone. No psychologist in history has done more than him to discover the keys to flourishing and then give them away to the world.

 “I have been part of a tectonic upheaval in psychology called positive psychology, a scientific and professional movement. In 1998, as president of the American Psychological Association, I urged psychology to supplement its venerable goal with a new goal: exploring what makes life worth living and building the enabling conditions of a life worth living.”

Flourish, MARTIN SELIGMAN

MIHALY CSIKSZENTMIHALYI is the leading researcher into ‘flow states’. He has explored a happy state of mind called flow, the feeling of complete engagement in a creative or playful activity. The manner in which Csikszentmihalyi integrates research on consciousness, personal psychology, and spirituality is illuminating.

 “The wisdom of the mystics, of the Sufi, of the great yogis, or of the Zen masters might have been excellent in their own time – and might still be the best, if we lived in those times and in those cultures. But when transplanted to contemporary California those systems lose quite a bit of their original power.”

Flow, MIHALY CSIKSZENTMIHALYI

SWAMI SATYANANDA SARASWATI gave us the gift of Yoga Nidra – a simple yet profound technique adapted from the traditional tantric practice of nyasa. Realizing the need of the times as scientific rendition of the ancient system of yoga, he founded the International Yoga Fellowship in 1956 and the Bihar School of Yoga in 1963 and authored over 80 major texts on yoga, tantra and spirituality.

 “Yoga is not an ancient myth buried in oblivion. It is the most valuable inheritance of the present. It is the essential need of today and the culture of tomorrow.”

Asana Pranayama Mudra Bandha, SWAMI SATYANANDA SARASWATI

MATTHIEU RICARD is a Buddhist monk who had a promising career in cellular genetics before leaving France to study Buddhism in the Himalayas over forty years ago. He is an active participant in current scientific research on the effects of meditation on the brain. Through his experience as a monk, his close reading of sacred texts and his deep knowledge of the Buddhist masters, he demonstrates the significant benefits that meditation, based on selfless love and compassion, can bring to each one of us.

“Meditation is a process of training and transformation. It is important to devote time to meditation. Especially if you practise in the morning, meditation can give your day an entirely new ‘fragrance’.”

The Art of Meditation, MATTHIEU RICARD

MADAN KATARIA, a medical doctor, founded the first Laughter Club with just five members in Mumbai in the year 1995. Today there are thousands of laughter clubs all over the world where laughter is initiated as an exercise in a group but with eye contact and childlike playfulness, it soon turns into real and contagious laughter. It’s called Laughter Yoga because it combines laughter exercises with yoga breathing. This brings more oxygen to the body and the brain which makes one feel more energetic and healthy.

 “Laughter Yoga is a unique concept where anyone can laugh for no reason without relying on humour, jokes or comedy. The concept is based on a scientific fact that the body cannot differentiate between real and fake laughter if done with willingness. One gets the same physiological and psychological benefits.”

Dr Madan Kataria, Founder, Laughter Yoga

Founders: LifeSkills

Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University. Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht:

Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer Areas of specialization: Yoga, Five Tibetans, Yoga Nidra, Laughter Yoga.

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