डॉ कुन्दन सिंह परिहार
मेरे लिखे को पढ़ने वाले
(डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का लेखकों की व्यथा का अत्यंत खोजपरख व्यंग्य)
यह लेखकों के लिए भारी संकट का समय है।लेखक मोटे-मोटे पोथे लिखकर पटक रहा है, लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं।पाठक सिरे से नदारद है।घोंघे की तरह अपने खोल में दुबक गया है।लेखक बार बार व्याकुल होकर आँखों पर हथेली की ओट लगाकर देखता है, लेकिन सब तरफ सन्नाटा पसरा है।पाठक ‘डोडो’ पक्षी की तरह ग़ायब हो गया है।
हालत यह है कि पत्रिकाओं में इने-गिने पच्चीस पचास लेखक ही बदल बदल कर कभी लेखक और कभी पाठक का चोला ओढ़ते रहते हैं। कभी वे लेखक बन जाते हैं, कभी पाठक।एक दूसरे की कमियां ढूँढ़ते रहते हैं और बगलें बजाते रहते हैं। कुछ लेखक पाठकों से इतने मायूस हो गये हैं कि अपने घर पर चाय का लालच देकर दस बीस मित्रों को बुला लेते हैं और उन से अपनी तारीफ सुनकर खुश हो लेते हैं।अगर कोई नासमझ,स्पष्टवादी श्रोता रचना की आलोचना करने लग जाए तो उसे तत्काल बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।यानी लेखक का ह्रदय कोमल होता है,इसलिए उसे आघात न पहुँचाया जाए।
साहित्य-प्रेम की हालत यह है कि अब साहित्यिक कार्यक्रमों के निमंत्रण-पत्र में लिखा जाता है–‘सबसे पहले पहुँचने वाले और अंत तक रुकने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कृत किया जाएगा।’ कार्यक्रम के बीच में दो तीन बार घोषणा होती है कि कार्यक्रम के अंत में सबके लिए चाय की व्यवस्था है।
इसी माहौल में जानी मानी मासिक पत्रिका ‘प्रलाप’ में मेरी एक रचना छपी और मैं उत्साह में मित्रों-परिचितों का मुँह देखने लगा कि कोई कहेगा कि वाह भई,क्या धाँसू रचना लिखी है।लेकिन मित्र और परिचित ‘हाय’ ‘हलो’ कहते आजूबाजू से गुज़रते रहे, किसी ने भी रुककर मुँह खोलकर यह नहीं कहा कि भाई, मैंने आपकी बेमिसाल रचना पढ़ी।
अंततः मेरा दिल बैठने लगा। दुनिया बेरौनक लगने लगी।लगा कि पृथ्वी पाठक-विहीन हो गयी।पाठक दूसरे लेखकों को भले न पढ़ें, कम से कम मुझे तो पढ़ें।लेकिन पाठक बड़ा निष्ठुर हो गया है।जब कद्रदाँ ही नहीं तो हुनर का क्या मोल!
हारकर मैंने एक दिन अपने मित्र पारखी जी को रास्ते में पकड़ लिया।उम्मीद से उनकी तरफ देखते हुए पूछा,’मासिक प्रलाप मँगा रहे हैं?’
वे नाक सिकोड़कर बोले,’जब से पेट्रोल चार रुपये मँहगा हुआ, अपन ने साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदना एकदम बन्द कर दिया।अब अपन साहित्य वाहित्य ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते।साहित्य वाहित्य से होता भी क्या है?किस मर्ज की दवा है यह?’
मैंने उनके उच्च विचार सुनने के बाद मरी आवाज़ में कहा,’उस पत्रिका के नये अंक में मेरी रचना छपी है।’
वे बोले,’वाह, अच्छी बात है।सुनकर खुशी हुई।अगर पत्रिका कहीं मिल गयी तो जरूर पढ़ूँगा,फिर अपने बहुमूल्य मत से अवगत कराऊँगा।’
मैंने संकोच को परे रखकर कहा,’कहें तो पत्रिका आपके पास भेज दूँ?
वे मुफ्तखोरी की संभावना देख प्रसन्न होकर बोले,’इससे बेहतर क्या हो सकता है!मैं तत्काल पढ़कर आपसे विचार-विमर्श करूँगा।’
मैंने उनके स्कूटर की बास्केट में कुछ पुस्तकें देखकर पूछा,’ये कौन सी किताबें हैं?’
वे बोले,’यह बैंगन बनाने की सौ विधियों पर है और दूसरी शनि की साढ़ेसाती के लक्षणों और उनके उपचार के बारे में है।’
फिर वे थोड़े दुखी स्वर में बोले, ‘दरअसल मेरे ग्रह अभी ठीक नहीं चल रहे हैं।घर में किसी न किसी वजह से अशांति बनी रहती है। वास्तु-विशेषज्ञ से पूछा तो उन्होंने अशांति की वजह यह बतायी कि हमारा टायलेट और किचिन साउथ-वेस्ट में है। टायलेट को नार्थ-वेस्ट और किचिन को साउथ-ईस्ट में ले जाना पड़ेगा।इसमें बीस-पचीस हजार का खर्चा होगा।’
मैंने सहानुभूति में कहा,’यह एक और सनीचर लग गया’
वे ठंडी साँस भरकर बोले,’क्या करें!जो लिखा है वह भोगना पड़ेगा।आप पत्रिका जल्दी भेज दें।मैं फटाफट पढ़ डालूँगा।’
मैंने जल्दी ही पत्रिका उनके पास भेज दी।फिर पन्द्रह-बीस दिन गुज़र गये, लेकिन उनका कोई फोन-वोन नहीं आया।धीरज खोकर मैंने उन्हें फोन किया।वे बोले,’गुरू दरअसल मैं तो वास्तुशास्त्र के चक्कर में फँसा रहा, इस बीच तुम्हारी पत्रिका मेरे साले साहब उठा ले गये।बड़े साहित्य-प्रेमी हैं।कहने लगे पहले मैं पढ़ूँगा।बस,मैं वापस ले लेता हूँ।एक दो दिन की बात है।’
फिर डेढ़ महीना बाद उन्हें फोन किया।जवाब मिला,’साले साहब कह रहे थे कि पत्रिका उनके ससुर साहब ले गये।वे भी घनघोर साहित्य-प्रेमी हैं।तुम्हारी रचना का अच्छा प्रसार हो रहा है।तुम चिंता मत करना।मैं पत्रिका वापस ले लूँगा।’
फिर एक दिन सड़क पर टकरा गये।बोले,’तुम्हारी पत्रिका तो साले साहब के ससुर के एक मित्र ले गये।वे भी बड़े पुस्तक-प्रेमी हैं।तुम्हारी रचना खूब पढ़ी जा रही है।’
छः महीने गुज़र जाने के बाद मैंने पारखी जी को फोन किया और निवेदन किया कि पत्रिका वापस कर दें,मुझे उसकी सख़्त ज़रूरत है।
वे बोले,’बंधुवर, फिलहाल तो पत्रिका का पता नहीं चल रहा है।साले के ससुर साहब के मित्र कुछ भुलक्कड़ हैं।उन्हें याद नहीं आ रहा है कि उन्होंने पत्रिका कहाँ छोड़ दी।वे उसे पढ़ भी नहीं पाये।उसमें उन्होंने एक सौ का नोट रख दिया था, वह भी चला गया।बेचारे बहुत परेशान हैं।’
फिर वे बोले,’आप ऐसा करो, पत्रिका की दूसरी प्रति मेरे पास भेज दो।मैं फटाफट पढ़ कर आपसे आपकी रचना पर चर्चा कर लूँगा।इस बार किसी को छूने भी नहीं दूँगा। आप निश्चिंत होकर भेज दो।आपकी रचना की प्रसिद्धि के लिए हमारी आलोचना ज़रूरी है।’
तब से मैं पारखी जी से बचता फिर रहा हूँ।मित्रों से पता चला है कि वे बेसब्री से पत्रिका की दूसरी प्रति का इंतज़ार कर रहे हैं।
© डॉ कुन्दन सिंह परिहार (मो. 9926660392)