☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव द्वारा प्रो हेमंत सामंत के मूल लेखों से अनुवादित दो हिंदी पुस्तकें ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी. जी. परिख के हाथों लोकार्पित ☆
१७ नवंबर २०२४ को महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय के स्मृति दिवस के दिन प्रो. हेमंत सामंत द्वारा अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों और उनके कार्यक्षेत्र से संबंधित मराठी लेखों पर आधारित डॉ मीना श्रीवास्तव द्वारा अनूदित “भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनदेखे समरांगण” और “भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की अनकही कहानियां” इन दो हिंदी अनुवादित पुस्तकों का विमोचन हुआ। प्रत्येक पुस्तकों में ३८ अध्याय हैं, जो न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी क्रांतिकारियों द्वारा किये हुए स्वतंत्रता संघर्ष को दर्शाते हैं।
लेखक और अनुवादक के लिए यह बड़े ही गर्व की बात थी कि उम्र का शतक पार कर चुके बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी. पारिख ने मुंबई के ग्रांट रोड स्थित अपने आवास पर इन दोनों पुस्तकों का विमोचन किया। उनके प्राकृतिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, केवल कुछ व्यक्ति ही इस कार्यक्रम में शामिल हो पाए। हिंदी में अनुवादित पुस्तकों की लेखिका डॉ. मीना श्रीवास्तव, मूल लेखक प्रो. हेमंत सामंत एवं लुपिन कंपनी के मॅन्युफॅक्चरिंग ऑपरेशन्स के अध्यक्ष श्री राजेंद्र चुनोडकर विमोचन के कार्यक्रम में उपस्थित थे। साथ ही लेखक द्वय के परिवारजन भी इस अवसर पर उपस्थित थे| उल्लेखनीय बात यह है कि इन दोनों पुस्तकों की प्रस्तावना ई-अभिव्यक्ति – www.e-abhivyakti.com के संपादक श्री हेमन्त बावनकर ने लिखी है|
इस अवसर पर संक्षिप्त मार्गदर्शन व्यक्त करते हुए श्री पारिख ने बिगड़ते पर्यावरण और जल के अपव्यय पर खेद व्यक्त किया। उन्होंने अहम संदेश देते हुए कहा कि “समाज की सेवा के लिए सत्ता की जरूरत नहीं है, बल्कि देशभक्ति की भावना को प्रदीप्त करने की जरूरत है।” कुल मिलाकर, पुस्तक विमोचन का यह कार्यक्रम अनूठा रहा।
ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ. मीना श्रीवास्तव जी को इस विशिष्ट उप्लब्धि के लिए हार्दिक बधाई
≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – “भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆
आलेख – भोपाल गैस त्रासदी, पर्यावरण और औद्योगिक कचरा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
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घर-आंगन में आग लग रही। सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर- छाजन।
तन जलता है, मन जलता है जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से जकड़े गर्हित बंधन।
दूर बैठकर ताप रहा है, आग लगानेवाला,
देश हमारा जल रहा है, कौन बुझानेवाला
– डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन
विकास का सूचक और अर्थव्यवस्था का आधार बढ़ता मशीनीकरण आज आधुनिक जीवन के हर क्षेत्र को संचालित कर रहा है। आधुनिक जीवन मशीनों पर इस कदर निर्भर है कि इसके बिना कई काम रूक जाते हैं। इंटरनेट और मोबाइल दूरी व समय की सीमाओं को लांघ कर सारी दुनिया को अपने में समेटने का दावा करते हैं। इस यंत्र युग में सारी दुनिया में हिंसा, शोषण, विषमता और बेरोजगारी भी बढ़ रही है। स्वास्थ्य समस्याएँ और पर्यावरण विनाश भी अपने चरम पर हैं। दौड़ती-भागती जिंदगी में समय का अभाव प्राय: आम शिकायत रहती है। रिश्तों में कृत्रिमता और दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग स्वयं को बेहद अकेला महसूस करने लगे हैं। बढ़ती मशीनों ने मनुष्य की शारीरिक श्रम की आदत को कम करके स्वास्थ्य समस्याओ का आधार तैयार किया है। दूरदर्शी गांधीजी ने चेताया था – ”अगर मशीनीकरण की यह सनक जारी रही, तो काफी संभावना है कि एक समय ऐसा आएगा जब हम इतने असमर्थ और लाचार हो जाएगे कि अपने को ही यह कोसने लगेंगे कि हम भगवान द्वारा दी गई शरीर रूपी मशीन का इस्तेमाल करना क्यों भूल गए”। बढ़ता मशीनीकरण उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर समाज में विषमता की नींव को पुख्ता करता आया है। एक औद्योगिककृत अर्थव्यवस्था में अंधाधुंध बढ़ता मशीनीकरण वस्तुत: स्थानीय जरूरतों व सीमाओ को लांघकर व्यापक स्तर पर वस्तुओ के उत्पादन, बिक्री या खपत को बढ़ाने की महत्वाकांक्षाओ से प्रेरित होता है। औद्योगिक कचरे को बढ़ाता है ! ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देता है। पर्यावरण प्रदूषण की ऐसी आग को जन्म देता है जिसे बुझाने वाला सचमुच कोई नहीं है।
भोपाल गैस त्रासदी को वर्षौं हो गए हैं। वहां पर पड़ा जहरीला अपशिष्ट प्रत्येक मानसून में जमीन में रिस कर प्रति वर्ष क्षेत्र को और अधिक जहरीला बना रहा है। कंपनी को इस बात के लिए मजबूर किया जाना चाहिये कि वह इसे अमेरिका ले जाकर इसका निपटान वहां के अत्याधुनिक संयंत्रों में करे। परन्तु इसके बजाय सरकारें अब भोपाल ही नहीं गुजरात में अंकलेश्वर व म.प्र. के पीथमपुर के भस्मकों में इसे जला कर इस औद्योगिक कचरे को नष्ट करना चाहती है।
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के अनुपयोगी हो जाने से इकट्ठा हो रहे कचरे का निपटान सही ढंग से नहीं हो पाने के कारण पर्यावरण के खतरे बढ़ रहे है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष डेढ़ लाख टन ई-वेस्ट या इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ रहा है। इसमें देश में बाहर से आने वाले कबाड़ को जोड़ दिया जाए तो न केवल कबाड़ की मात्रा दुगुनी हो जाएगी, वरन् पर्यावरण के खतरों और संभावित दुष्परिणामों का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा।
प्रतिवर्ष भारत में बीस लाख कम्प्यूटर अनुपयोगी हो जाते हैं। इनके अलावा हजारों की तादाद में प्रिंटर, फोन, मोबाईल, मॉनीटर, टीवी, रेडियो, ओवन, रेफ्रिजरेटर, टोस्टर, वेक्यूम क्लीनर, वाशिंग मशीन, एयर कंडीशनर, पंखे, कूलर, सीडी व डीवीडी प्येयर, वीडियो गेम, सीडी, कैसेट, खिलौने, फ्लोरेसेंट ट्यूब, बल्ब, ड्रिलिंग मशीन, मेडिकल इंस्टूमेंट, थर्मामीटर और मशीनें आदि भी बेकार हो जाती हैं। जब उनका उपयोग नहीं हो सकता तो ऐसा औद्योगिक कचरा खाली भूमि पर इकट्ठा होता रहता है, इसका अधिकांश हिस्सा जहरीला और प्राणीमात्र के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होता है। कुछ दिनों पहले इस तरह के कचरे में खतरनाक हथियार व विस्फोटक सामगी भी पाई गई थी।
इनमें धातुओ व रासायनिक सामग्री की भी काफी मात्रा होती है जो संपर्क में आने वाले लोगों की सेहत के लिए खतरनाक होती है। लेड, केडमियम, मरक्यूरी, एक्बेस्टस, क्रोमियम, बेरियम, बेटीलियम, बैटरी आदि यकृत, फेफड़े, दिल व त्वचा की अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं। अनुमान है कि यह कचरा एक करोड़ से अधिक लोगों को बीमार करता है। इनमें से ज्यादातर गरीब, महिलाएँ व बच्चे होते हैं। इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई होना जरूरी है।
मगर देश के लोगों की मानसिकता अभी कबाड़ संभालने व कचरे से आजीविका कमाने की बनी हुई है।
उर्जा उत्पादन हेतु ताप विद्युत संयंत्र, बड़े बाँध, प्रत्यक्ष, परोक्ष बहुत अधिक मात्रा में औद्योगिक कचरा फैला रहे हैं . सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, ऊर्जा के बेहतरीन विकल्प माने गए हैं। राजस्थान में इन दोनों विकल्पों के अच्छे मानक स्थापित हुए हैं। सोलर लैम्प, सोलर कुकर जैसे कुछ उपकरण प्राय: लोकप्रिय रहे हैं। एशियन डेवलपमेंट बैंक के साथ मिलकर टाटा पॉवर कंपनी लिमिटेड देश में (विशेषकर महाराष्ट्र में) कई करोड़ों रूपये के बड़े पवन ऊर्जा प्लांट लगाने की योजना बना रही है। इसी तरह से दिल्ली सरकार भी ऐसी कुछ निजी कंपनियों की ओर ताक रही हैं जो राजस्थान में पैदा होती पवन ऊर्जा दिल्ली पहुंचा सकें। परमाणु ऊर्जा के निमा्रण से पैदा होते परमाणु कचरे में प्लूटोनियम जैसे ऐसे रेडियोएक्टिव तत्वों का यह प्रदूषण पर्यावरण में भी फैल सकता है और भूमिगत जल में भी.
एशियन डेवलपमेट बैक ने हाल ही गंगा के प्रदूषण रोकने के लिए एक योजना तैयार की है। गंगा के किनारे के नगरों की पानी, ससवीरेज, सॉलिड वेस्ट मेनेजमेंट, सड़क, ट्रेफिक व नदियों के प्रदूषण को दूर किया जायेगा। संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट में कहा है कि व्यापक औद्योगिक कचरे, भूमि का जरूरत से ज्यादा दोहन और सिंचाई के गलत तरीकों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है . मरूस्थलों के बढ़ते क्षैत्रफल के कारण लाखों लोग अपने घर छोड़ने को मजबूर हो सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि का मरूस्थल में बदलना पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा है और विश्व की एक तिहाई जनसंख्या इसका शिकार बन सकती है। रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक संतुलन, कृषि के कुछ सरल तरीके अपनाने आदि से वातावरण में कार्बन की मात्रा कम हो सकती है। इसमें सूखे क्षैत्रों में पेड़ उगाने जैसे कदम शामिल हैं। औद्योगिक अपशिष्ट से दिल्ली की जीवन धारा यमुना, इस कदर मैली हो चुकी है कि राज्य सरकार १९९३ से ही ‘यमुना एक्शन प्लान’ जैसी कई योजनाओ द्वारा सफाई अभियान चला रही है, जिस पर करोड़ों-अरबों रूपए लगाए जा चुके हैं । किसी भी नदी को जिंदा रखने के लिए ‘इको सिस्टम’ की सुरक्षा उतनी ही जरूरी है जितनी उसमें बहते पानी की गुणवत्ता।
पर्यटन जनित डिस्पोजेबल प्लास्टिक कचरे से बढ़ता प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच रहा है, जिस पर त्वरित नियंत्रण जरूरी है .सरकार ने रिसायकल्ड पॉलिथिन के उपयोग पर पाबंदी लगा रखी है। केवल नए प्लास्टिक दानों से बनी बीस माइक्रोन से अधिक की थैलियों का ही उपयोग किया जा सकता है। २५ माइक्रोन से कम की रिसायकल्ड प्लास्टिक की थैलियां और २० माइक्रोन से कम की नई प्लास्टिक की थैलियों के उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा। किसी भी नदी-नाले, पाइप लाइन और पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर इन थैलियों काकचरा डालने पर रोक रहेगी। नगरीय निकाय इन थैलियों के लिए अलग-अलग कचरा पेटी रखेंगे। पॉलीथिन के कारण सीवर लाइन बंद हो जाती है। इस वजह से दूषित पानी बहकर पाइप लाइन तक पहुंचकर पेयजल को दूषित करता है जिससे बीमारियां फैलती है। इसे उपजाऊ जमीन में फेंकने से भूमि बंजर होती जाती है। कचरे के साथ जलाने से जहरीली गैसे निकलती हे जो वायु प्रदूषण फैलाती है और ओजोन परत को क्षति पहुंचाती है। गाय बैल आदि जानवर पालिथिन में चिपके खाद्य पदार्थ खाने के प्रलोभन में पतली पालीथिन की पन्नियां भी गुटक जाते हैं जो उनके पेट में फँस कर रह जाती हैं एवं उनकी मृत्यु हो जाती है। अतः पालीथिन पर प्रभावी नियंत्रण जरूरी है।
कहा जा सकता है कि औद्योगिक कचरा प्रगति का दूसरा पहलू है जिससे बचना मुश्किल है, पर उसके समुचित तरीके से डिस्पोजल से ही हम मानव जीवन और प्रगति के बीच तादात्म्य बना कर विज्ञान के वरदान को अभिशाप बनने से रोक सकते हैं।
☆ पुण्य म्हणजे नक्की काय असतं..?… लेखिका : सुश्री संजीवनी बोकील ☆ प्रस्तुती – श्री मेघ:श्याम सोनावणे ☆
लहानपणी अनेकदा ‘असं का करायचं? ‘ या प्रश्नाला उत्तर असायचं “पुण्य मिळतं म्हणून! ” आणि ‘असं का नाही करायचं’ याचं “पाप लागतं म्हणून” असं उत्तर हमखास मिळायचं. पण पाप आणि पुण्य कसं ओळखायचं याचं उत्तर मनाशी निगडित आहे, नव्हे, पाप आणि पुण्याच्या तारा दुसऱ्याच मनाशी जोडलेल्या आहेत हे सत्य समजायला वयाची कित्येक वर्षे जावी लागली. या अशाच दिवसांची ही गोष्ट!
गणपतीचे दिवस आले की मला ती जेमतेम पाच- पावणेपाच फुटाची बटुमूर्ती आठवते. अवघ्या दु:खाचा प्रदेश जिथवर पसरला असावा आणि समस्त सोशीकपणाची सीमा जिथून सुरू होत असावी असा तो समईतल्या सरत्या ज्योतीसारखा चेहरा आठवतो. सुकत चाललेल्या रोपट्यासारखी, विटकरी लुगड्यातली ती कृश देहयष्टी डोळ्यांसमोर येते. दात नसलेल्या तोंडावरचं ते गोड हसू आठवतं. समोरच्या रस्त्यावरून येणारी-जाणारी माणसे बघत, दाराशी एकटीच बसलेली ती दीनवाणी मूर्ती दिसते. पागोळ्यांमुळे छपराखाली खळगाही व्हावा आणि भरूनही निघावा तसं काहीसं होतं.
तर अशा त्या माझ्या आजेसासूबाई, मनूताई! लहानपणी पायाला गळू झालं. त्या काळाच्या उपायांप्रमाणे त्यावर जळू लावली गेली. का तर जखमेतला अशुद्ध द्रव शोषून घेते म्हणून. थोड्या वेळाने ती ओढून काढायची होती पण कामाच्या नादात घरातली मंडळी विसरली, अशुद्ध रक्तानंतर त्या जळवेने पायातले शुद्ध रक्तही ओढून घेतले आणि मनूताईचा उजवा पाय कायमचा अधू झाला. तरीही लग्न झालं, संसार झाला, मुलंबाळं झाली. पण वयाच्या तिसाव्या वर्षीच वैधव्य पदरी पडलं. मुलं शिकली सवरली पण वृक्ष वाढत रहावा आणि त्याच्या बुंध्याशी असलेल्या पाराला चिरा पडत रहाव्यात तसं होत राहिलं. वृक्षाचा पाचोळा, पारावरचं अश्राप देऊळ निमूट झेलत राहिलं.
माझ्या मुलीचं, सोनलचं बारसं झाल्यावर मी आजींना माझ्याबरोबर पुण्याला घेऊन आले. वैधव्य आल्यानंतर त्या काळी ज्या जनरीती पाळल्या जात असत त्या बिनबोभाट पाळणारा, द्रव्यहीन, कुचंबलेला, कित्येक वर्षे घराबाहेर न पडलेला हा एकाकी, लहानखोरा जीव आनंदाने माझ्याबरोबर यायला तयार झाला यामागचे कारण मला सहजी कळण्यासारखेच होते.
जेवायच्या वेळी त्या खाली बसत आणि आम्ही दोघे डायनिंग टेबलवर. असे दोन- तीन दिवस गेल्यावर मला राहवेना. “आजी तुमचा काही असा नियम आहे का की खाली बसूनच जेवायचं? ” जुन्या धारणांना आपला धक्का बसू नये अशा मर्यादेने मी विचारले.
निर्मळ हसून त्या म्हणाल्या, ” नाही ग, तसं काही नाही, पण सवय नाही आणि मला टेबल उंच पडतं ना! “
त्यांच्या उंचीची अडचण लक्षात आल्यावर मी त्यांच्या खुर्चीसाठी एक चौकोनी, जाड उशी करून घेतली आणि माझे मिस्टर त्यांना उचलून खुर्चीत बसवू लागले.
माहेरून मी सी. के. पी. असल्याने मांसाहारी आहे हे त्यांना माहीत होतं. त्यांना वाटलं होतं की माझ्याकडे रोजच तसा स्वयंपाक असणार. दोन तीन दिवस माझ्या ताटात शाकाहारी जेवण बघून, माझ्याकडे पाहात त्यांच्या सायीसारख्या आवाजात त्या मला हळूच म्हणाल्या, ” संजीवनी, तुझ्या पानात ते ‘तुमचं’ काही दिसत नाही? माझ्यासाठी तुझा पोटमारा करू नकोस हो, तुला हवं ते तू आपली खुशाल करून खात जा. “
मी थक्क झाले. ट्रिपला गेल्यावर माझ्या पानातलं नॉनव्हेज पाहून नाकतोंड वाकडं करणाऱ्या, पलीकडच्या टेबलावर जाऊन जेवणाऱ्या काही मैत्रिणी मला आठवल्या. सासऱ्यांना आवडतो म्हणून (वेगळ्या भांड्यांत, आपल्या परवानगीनेच) करावासा वाटणारा सामिष सैपाक सुरू केल्यापासून पार मागची आवराआवर होईपर्यंत जवळच्या देवळात जाऊन बसलेल्या सासूबाई आठवल्या. ही तर माझ्या दोन पिढ्या आधीच्या, शुद्ध ब्राह्मणी संस्कारात वाढलेली बाई! तिचं मऊ मन माझ्या मनाला एखाद्या शीतल झुळुकीसारखं स्पर्शून गेलं आणि डोळ्यात पाणी भरून आलं.
गणपतीचे दिवस जवळ आले होते. आमच्या घराच्या पाठीमागच्या मंडपात सजावटीची तयारी जोरात चालू होती. खिडकीजवळ एक उंच स्टूल ठेवून त्यावर मी त्यांना बसवत असे. तिथून ते सगळे छान दिसत असे. ती सजावट बघताना त्या म्हणाल्या, ” किती वर्षे ऐकत आले पुण्यातल्या गणपतींबद्दल! फार बघण्यासारखे असतात ना? बरं झालं, बसल्या जागेवरूनच या गणपतीचं तरी दर्शन होईल आता मला. ” ऊन-पावसासारखा त्यांच्या चेहऱ्यावर खंत आणि आनंदाचा लपंडाव पाहिला मी. आपल्या पांगळेपणाची इतकी खंत त्यांना आजवर कदाचित कधीही वाटली नसावी.
आमच्या प्रेमनगर कॉलनीतल्या एकांची रिक्षा होती हे मला ऐकून माहीत होतं. मी संध्याकाळी त्यांच्याकडे गेले. नवा नवाच संसार होता आमचा. सांपत्तिक स्थिती बेताचीच होती. पण त्यांना म्हटले, “काका, गणपतीच्या पाचव्या दिवशी मला रिक्षेतून माझ्या आजेसासूबाईंना गणपती दाखवायला न्यायचे आहे, दुपारी चार ते साधारण सात वाजेपर्यंत. जमेल का तुम्हाला? त्यांना अधू पायामुळे जास्त चालता येत नाही. ” काकांचा होकार आला. ह्यांनी सोनलला सांभाळायची जबाबदारी घेतली आणि बेत पक्का झाला.
दुसऱ्या दिवशी सकाळी मी आजींना म्हटले, “आजी, दुपारी चार वाजता आपल्याला बाहेर जायचं आहे. सोनलच्या बारशाला घेतलेलं निळं इंदुरी लुगडं नेसून तयार व्हा बरं का. “
आजींचा चेहरा कावराबावरा! बिचाऱ्या कोमट आवाजात म्हणाल्या, ” मला फार चालवत नाही ग संजीवनी. कुठं जायचंय? “
“जायचंय जवळच. ” मी म्हटलं.
बरोबर चार वाजता रिक्षा दारात येऊन थांबली. काकांनी आधार देत आजींना रिक्षेत बसवलं. त्यांच्या अंगाभोवती शाल गुंडाळत मी काकांना म्हटलं, “काका ही तुमची आजी आहे असं समजा. जरा हळूच चालवा आणि कमी गर्दीच्या ठिकाणी अशी रिक्षा थांबवा की आजींना रिक्षेतूनच त्या – त्या गणपतीबाप्पांचं दर्शन होईल. जितकं शक्य आहे तेवढं फिरवाल आम्हाला. “
चांगली माणसं अवतीभवती असण्याचा जमाना होता तो! काकांनी रुकार भरत मान हलवली, रिक्षेला किक मारली आणि आमची बाप्पादर्शन टूर निघाली. बरोबर तिघांना पुरेल असा खाऊ डब्यात भरून घेतला होता. पाणी घेतलं होतं आणि फार पाणी प्यायला लागू नये म्हणून लिंबाच्या गोळ्या जवळ ठेवल्या होत्या.
सातारा रोडवरून निघालेली रिक्षा मजल दरमजल करत सिटी पोस्टाजवळच्या दगडूशेठ हलवाई गणपतीजवळ येऊन थांबली. जवळपास अठ्ठेचाळीस वर्षांपूर्वीची ही गोष्ट! आताइतकी अलोट गर्दी होण्याचा काळ नव्हता तो आणि वेळही साडेपाच-सहाची. रिक्षा चौकातल्या उंच स्टेजच्या पायऱ्यांपाशी येऊन थांबली. तो शालीन थाट पाहून डोळे तृप्त झाले. आजच्यासारखी भव्यदिव्य सजावट तेव्हा नव्हती. डोळे दिपवणारा श्रीमंती, भव्य दिव्य देखावाही नव्हता नि दिखावाही नव्हता. त्या मूर्तीचे महात्म्यच कदाचित तेव्हा भाविकांना जास्त मोलाचे वाटत असावे.
स्टेजवर पाच सहा तरुण गप्पागोष्टी करत बसले होते. त्यांनी, रिक्षेतूनच धडपडत दर्शन घेण्याचा प्रयत्न करणाऱ्या, भक्तिभावाने हात जोडणाऱ्या नाजुकशा आजींना बघितले. दोघेतिघे पटापट खाली आले आणि त्यातल्या एकाने लहान बाळाला उचलून घ्यावे तसा, तो चिमणासा देह हातांवर उचलून, पायऱ्या चढून चक्क बाप्पांच्या अगदी चरणांपाशी उभा केला. आम्हालाही वर बोलावले. आजवर जिचे त्यांनी फक्त वर्णन ऐकले होते अशी ती सुविख्यात, भव्य मूर्ती, इतक्या जवळून, याचि देहि याचि डोळा बघताना, तिच्या पायांजवळ डोके टेकवताना आजींच्या सुरकुतल्या गालांवरून घळाघळा आसवांच्या धारा ओघळत होत्या आणि मी बाप्पांच्या ऐवजी आजींचा अश्रूंतून वाहणारा आनंद आनंदाने बघत होते. किती रूपात दिसतो नाही देव आपल्याला?
रिक्षेत बसल्यावरही किती तरी वेळ वाहात होते ते थकलेले वयस्क डोळे! माझा घट्ट धरून ठेवलेला हातच काय ते बोलत होता. मागे वळून काकांनी म्हटले, ” काय आजी, खूश ना? अहो दगडूशेठ गणपतीच्या पायांना हात लावायला मिळाला तुम्हाला! असं पुण्य कुणाला मिळतं का? ”
आजी डोळे पुसत म्हणाल्या, “अहो, माझ्यासारख्या लंगड्या बाईला कधी पुण्यातले गणपती बघता येतील असं जल्मात वाटलं नवतं. देव तुम्हा दोघांचं खूप कल्याण करेल हो! मला देव दाखवलात तुम्ही! “
तोवर न उमजलेली, ‘ एकाच्या आनंदाच्या कारणाच्या तारा दुसऱ्या मनाच्या मुळाशी जुळल्या की तिथे जे झंकारतं ते पुण्य असतं ‘ ही व्याख्या तेव्हा आकळली मला आणि त्यासाठी फार काही तप करावं लागत नाही ही गोष्टही कळलीच! !
लेखिका : सुश्री संजीवनी बोकील
प्रस्तुती : मेघ:श्याम सोनावणे .
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतिका “चलो एक दीप जलाएँ…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #252 ☆
☆ चलो एक दीप जलाएँ… 🏮 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
या नश्वर जगात मृत्यू अटळ आहे, तोच सत्य आहे, हे सर्वांना माहीत आहे, पण कधीतरी हा मृत्यू असू नये असे अगदी मनापासून वाटते. काल आदरणीय रतनजी टाटा यांचे निधन झाले आणि वरील विचार माझ्या मनात आला…!
काही माणसे मरण येत नाही म्हणून जगत असतात, तर काही माणसे जगता येत नाही म्हणून मरणाची वाट पहात असतात…
तर काही माणसे मिळालेल्या प्रत्येक क्षणाचा निगुतीने उपयोग करून आपला देह आपल्या देशाच्या प्रगतीसाठी लावत असतात, त्यासाठी कणाकणाने झिजत असतात…
अहो, हे काही पारतंत्र्य काळातील स्वातंत्र्य सैनिकाचे वर्णन नसून आपल्या रतनजी टाटांचे माझ्या अल्पमतीने केलेले वर्णन म्हणता येईल…
टाटा उद्योग समूह!!!!
भारताच्या जडणघडणीत ज्यांचा सिंहाचा वाटा आहे, असा एक मोठा उद्योग समूह. भारताला ज्याची गरज आहे, त्याची निर्मिती आम्ही करतो, असा नुसते न म्हणता प्रत्यक्षात तसे आचरण करणारा (नफा तोट्याची चिंता न करता….!) उद्योग समूह…! देशभक्ती हा या उद्योग समूहाचा ब्रँड झाला असे म्हटले तर वावगे होणार नाही…!
एकेकाळी तर ५०१ बार पासून ट्रक पर्यंत टाटा अनेक वस्तू बनवत असत…
लिहिण्यासारखे भरपूर आहे…,
असो….
आज प्रत्येक भारतीयाच्या डोळ्यांच्या कडा भिजल्याशिवाय राहणार नाहीत कारण ज्या पिढीने पारतंत्र्य अनुभवले नाही, त्यांनी आदरणीय रतन टाटांच्या रूपाने खरा देशभक्त कसा असतो, हे पाहीले असे म्हणता येईल…!
रतन टाटांनी सामाजिक बांधिलकी जपत, आपल्या मूल्यांशी किंचितही तडजोड न करता आपला उद्योग व्यवसाय तर वाढवला आणि याच बरोबर आपल्या देशाची शान आणि मान सतत उंच राहील यासाठी आटोकाट प्रयत्न केले…
त्यांचे अलिबाग जवळ घर होते. मांडवा येथे त्यांना अनेकदा पाहण्याचा योग आला आहे. साधी राहणी आणि उच्च विचार सरणी असे त्यांचे अगदी थोडक्यात वर्णन करता येईल…
एखाद्या उद्योग समूहाच्या प्रमुखाचा मृत्यू होणे हे अगदी नैसर्गिक आहे, पण जेव्हा तिथे रतनजी टाटा असतात तेव्हा निव्वळ उद्योगपती रहात नाहीत, तर आपल्या घरातील कोणी असतात…! माझ्या सारख्या सामान्य मनुष्याच्या मनापर्यंत त्यांच्या मनातील देशभक्तीची ऊब झिरपते, हेच त्यांच्या जीवनाचे यश आहे असे मला वाटते…
आज भारतमाता सुध्दा दुःखी असेल कारण तिच्या एका सुपुत्राला ती आता पाहू शकणार नाही…
मरावे परि कीर्ती रूपे उरावे…!!!
आदरणीय रतनजी टाटांच्या चरणी माझी ही शब्द सुमनांजली सादर समर्पित!!!! 🌹🙏
संस्थेत कामाला जाण्यासाठी मी घरातून निघाले. साधारणपणे साडेबारा एक ची वेळ होती. मी गेटच्या बाहेर आले तर आमचे सर भेटले. मी म्हणाले, “सर कुणीकडे चाललाआहात?… “
ते म्हणाले, “शनी देवळाकडे… “
मी म्हणलं, “चला मी सोडते तुम्हाला… ” आणि मग रिक्षा केली. माझ्या शेजारी बसलेले माझे शिक्षक हे माझे पूर्वीचे मुख्याध्यापक, ज्यांच्या नावाने मी तो ट्रस्ट चालवते ते श्री तडवळकर सर होते.
मग रिक्षात बसून मी संस्थेत झालेल्या ऍडमिशन्स.. असलेले शिक्षक.. इंग्रजी माध्यमाचे प्रवेश बंद झालेले तुडुंब भरलेले वर्ग… याबद्दल मी सरांना माहिती देत होते. मी विस्तृत पणे काय योजना केली आहे ते विचारत होते हे… सर्व बोलणे समोरचा रिक्षावाला मुलगा लक्षपूर्वक ऐकत होता.
सरांना मी दत्त चौकात सोडलं आणि मी संस्थेत येण्यासाठी निघाले. त्यावेळेला रिक्षावाल्या पोराने विचारलं, “बाई तुम्ही शाळेत शिकवता का?.. “
मी म्हणाले, “हो. मी शिक्षिका आहे…. ” मी त्याला विचारलं “तू किती शिकला आहेस?. “
तो म्हणाला, “मी बारावी पास आहे. ” तो मुस्लिम समाजाचा होता. तो म्हणाला, “आमच्याकडे जास्त शिकत नाहीत, लगेच कामधंद्याला लावतात त्यामुळे पुढे इच्छा असून मी शिकू शकलो नाही. कारण घरात माणसं खूप आहेत, प्रत्येकाला कमवावंच लागतं. “
मग मी नापास मुलांवर करीत असलेल्या कामाची त्याला माहिती दिली. त्याला त्यामध्ये खूपच इंटरेस्ट आहे असे मला लक्षात आले. संस्थेजवळ रिक्षा आल्यावर त्याला मी पैसे दिले आणि त्याला म्हणलं “तुला शाळा पाहावयाची आहे का?”
तो म्हणाला, “हो मला खूप आवडेल…. ” मग मी त्याला संस्थेत घेऊन आले. प्रत्येक वर्गात त्याला फिरवलं. त्याची थोडी माहिती मुलांना दिली आणि मुलांना म्हणाले “बघा त्याची इच्छा असून त्याला शिकता येत नाही. तुम्ही नापास झालात तरी तुम्हाला पालकाने पुन्हा शिकण्याची संधी दिली आहे त्या संधीचं सोनं करा. “
मग तोही मुलांना म्हणाला… “अरे खूप चांगले चांगले शिक्षक तुम्हाला मिळालेले आहेत. आणि आई बाबा सुद्धाछान आहेत.. शिकल्यावर तुम्हाला चांगले काम मिळेल आणि तुमचे आयुष्य सुधारेल…. ” त्याच्या परीने तो दोन वाक्य बोलून गेला. चारही वर्गातून आल्यानंतर मी त्याला दारापर्यंत सोडायला गेले. काही झालं तरी तो तरुण पोरगा होता. त्याच्या मनामध्ये अशा आस्था निर्माण झाल्याच पाहिजेत.
त्याने मला मध्येच प्रश्नही विचारला “तुम्हाला याचा पगार मिळतो का?”
मी म्हणाले, “नाही, एक रुपया सुद्धा घेत नाही. ” त्याला त्याचे खूप आश्चर्य वाटले होते. दारापर्यंत आल्यावर तो मुलगा मागे वळला आणि झटकन माझे दोन्ही हात हातात घेतले, थोडासा झुकला आणि म्हणाला “आप महान पुरुष हो “… हे कुठेतरी बहुदा त्याने वाचलेले किंवा ऐकलेलं वाक्य असावं.
मला खूप हसायला आलं. तो प्रचंड भारावलेला होता. मी म्हणलं “नाही नाही, ‘महान स्त्री हू’ असं म्हण पाहिजे तर, पुरुष नको रे. “
त्यावर तो हसला “… वही वही… आम्हाला कुठलं एवढं चांगलं बोलता येते मॅडम, तुम्ही मला एवढ्या प्रेमाने शाळा दाखवली, लय छान वाटलं. लई मोठं काम करता हो तुम्ही, खरच मॅडम, तुम्ही महान आहात!… “
मी म्हणलं, “नाही, अरे प्रत्येकाने समाजासाठी असं थोडं काम करायलाच पाहिजे. अगदी तू तुझ्या रिक्षात सुद्धा एखादा गरजू आजारी म्हातारा माणूस फुकट नेऊन सोडलास किंवा अडवाअडवी न करता सोडलास तरीसुद्धा ते एक मोठं काम आहे हे लक्षात ठेव…. !”
त्याने पुन्हा एकदा माझ्यासमोर कमरेपासून मान झुकवली आणि हसत हसत तो रिक्षा घेऊन निघून गेला…….. !
मला वाटतं आपल्या तरुण मुलांना अशा कामांची ओळख करून देणे गरजेचे आहे, अशाने त्यांच्यामध्ये आपण असं काम करावं अशी भावना निर्माण होईल. त्यांच्यासमोर जो आदर्श असेल तो त्यांना नक्की भारावून टाकतो. शाहरुख खान, सलमान खान हे आज त्यांचे आदर्श झालेत, तेही कदाचित खूप चांगलं काम करत असतील, पण त्यापेक्षा ते जे पात्र साकारतात त्याच्यावर त्यांचे प्रेम असते, त्या पात्राच्या आदर्श भूमिकेवर नसते. आता तरुण मुलांचे हिरो बदलण्याची गरज आहे त्यासाठी त्यांना चांगले काही दाखवणे आणि ऐकवणे गरजेचे आहे असे मला वाटते तुम्हाला ही असेच वाटते ना?…. मग आपण एक छोटासा आदर्श त्यांच्यासमोर उभा करायला काय हरकत आहे…. !
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जब बढ़ जाता शोभाधन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 213 ☆जब बढ़ जाता शोभाधन… ☆
जीवन एक जैसा चलता रहे तो रोचकता खत्म हो जाती है, उतार- चढ़ाव होने चाहिए। जितने लोग उतनी कहानियाँ, इन सबमें असफलता, संघर्ष, परिश्रम, धन का अभाव, बाधाएँ ये सब बहुतायात में थे पर उन्होंने इसको सीढ़ी बना सर्वोच्च शिखर प्राप्त किया।
बिना परीक्षा आप नर्सरी की कक्षा तक पास नहीं कर सकते तो जीवन में सफल होने के लिए, प्रेरक बनने के लिए परीक्षाएँ तो देनी ही होगी। स्तर बढ़ने के साथ प्रश्न पत्र कठिन होता जाएगा। जितनी मेहनत उतना अच्छा परिणाम मिलेगा। तारीफ विजेता की होगी जिसका अनुभव आप कर सकते हैं क्योंकि अथक श्रम जो किया है। इस सम्बंध में एक छोटी सी कहानी याद आती है-
दो सहेलियाँ, स्वभाव एकदम विपरीत एक हमेशा अपनी स्थिति का रोना रोती रहती तो दूसरी हमेशा मुस्कुराते हुए कार्य करती। एक दिन दोनों गणेश जी की झाँकी देखने अपनी स्कूटी से गयीं, रास्ते में बहुत जाम लगा था जिसे देख पीछे की सीट में बैठी सहेली ने कहा गाड़ी सुरक्षित जगह पर खड़ी कर देते हैं, पैदल चलेंगे, इतनी भीड़ में गाड़ी से जाना मुश्किल है। आगे बैठी सहेली ने कहा आज पहली बार तुमने सही बात कही, जब भी कोई कठिन दौर हो और रास्ता न सूझे तो थोड़े परिवर्तन के साथ धीरे- धीरे ही सही पर चलना अवश्य चाहिए। उन लोगों ने गाड़ी एक दुकान के सामने खड़ी की और हाथों में हाथ डाले चल दी झाँकी देखने।
सच्चे मन से जो भी प्रयास किये जाते हैं वो अवश्य पूरे होते हैं। यही बात रिश्तों के संदर्भ में भी कारगर है, आप अपनी अपेक्षाओं को कम कर दें तो ऐसी कोई ताकत नहीं है जो आपकी जीत में बाधक बनें। कहते हैं ताली एक हाथ से नहीं बजती ये बात नकारात्मक लोगों के लिए सही हो सकती है पर सकारात्मक चिन्तन करने वाले तो व्यक्ति के भावों को पढ़कर ही महसूस कर लेते हैं कि सामने वाला क्या चाहता है। जब भी ऐसी स्थिति हो कि माहौल बिगड़ने वाला है तो चुपचाप मुस्कुराकर ऐसे बन जाएं जैसे जो हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो इससे भी अच्छा होगा बस अपने आप सब ठीक हो जायेगा।
इसे प्राकृतिक चमत्कार मान सकते हैं मुस्कान का, यही रिश्तों को जीवित रखता है भले ही एक व्यक्ति का प्रयास क्यों न हो।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
गणेश चतुर्थी तदनुसार आज शनिवार 7 सितम्बर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार मंगलवार 17 सितम्बर 2024 तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः।
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈