(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “पहचान…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 60 ☆ पहचान… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “तुलादान”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 ☆
🌻लघुकथा🌻 ⚖️ तुलादान ⚖️
अपने पुत्र के प्रतिवर्ष के जन्म दिवस पर तुला दान करके पिताजी गदगद हो दान स्वरूप अन्न, वस्त्र, फल, बर्तन, सूखे मेवे बाँटा करते थे।
आज पिताजी के दशगात्र में विदेश में रहने वाला बेटा घर के सारे पुराने पीतल, काँसे के बर्तनों को निकाल कर पंडित जी के सामने तराजू पर रखकर कह रहा था… जो कुछ भी करना है, इससे ही करना है। आप अपना हिसाब- किताब, दान- दक्षिणा सब इसी से निपटा लीजिएगा।
जमीन के सारे कागजात मैंने विक्रय के लिए भेजें हैं। इन फालतू के आडंबर और मरने के बाद मुक्ति – मोक्ष के लिए मैं विदेशी रुपए खर्च नहीं कर सकता।
मुझे वापस जाना भी है। पंडित जी ने सिर्फ इतना कहा… ठीक है मरने बाद पिंडदान होता है और पिंडदान के रूप में आप कुछ नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं।
आज आप स्वयं बैठ जाइए क्योंकि आपके पिताजी आपके लिए सदैव तुलादान करते थे मैं समझ लूंगा यह वही है।
पास खड़ा उनका पुत्र भी कहने लगा.. बैठ जाइए पापा मुझे भी पता चल जाएगा कि भविष्य में ऐसा करना पड़ता है। तब मैं पहले से आपके लिए तुलादान की व्यवस्था करके रख लूंगा। बेटे ने देखा तराजू के तोल में वह स्वयं एक पिंड बन चुका है।
चुपचाप कमरे में जाता दिखा। पंडित जी मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिए।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है ब्राज़ील के आदिम जंगलों से प्रेरित कथ्य पर आधारित एक हृदयस्पर्शी कथा “संसार का एक हिस्सा”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — संसार का एक हिस्सा —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
{ब्राज़ील के आदिम जंगलों से प्रेरित कथ्य}
साठ वर्षीय एक आदमी ने स्कूल से लौटती हुई लड़की का अपहरण कर लिया था। लड़की की उम्र दस साल थी। आदमी का जानिरो और लड़की का नाम पारिता था। पुलिस को संकेत मिल चुका था यह किस आदमी की करतूत है। उसे बड़े पैमाने पर ढूँढा जा रहा था। पर उसे पाना असंभव बना रह गया था। वह पारिता को लिये मीलों दूर विशाल जंगल में जा छिपा था। पारिता ने उसकी गिरफ्त से भागने की बहुत कोशिश की, लेकिन भाग न सकी। पर यह भी सच था पारिता ने उस छोटी सी उम्र में शरीर के संस्पर्श को कबूल कर लिया था। यह आकर्षण उसे जानिरो से अलग होने नहीं देता। यह मात्र आकर्षण न रह कर प्रेम में परिवर्तित हो गया था। तब तो जानिरो के लिए उससे परेशान और आशंकित होने का कोई मतलब ही न रहा।
जानिरो जंगल छोड़ कर शहर जाने से डरता था। जाने का मतलब होता वह पारिता को खो देता। उसने जंगल में छोटा सा घर बनाया। खाने के लिए दोनों जंगल से फल पा लेते थे। पानी के लिए नदियाँ थीं। पर बहुत सारी मानवीय आवश्यकताओं से उन्हें वंचित रहना पड़ता था। पारिता शरीर के एक ही कपड़े में बड़ी हो रही थी। एक तो उसका कपड़ा फटने के दिन आए। दूसरी बात यह कि शरीर बड़ा होते जाने से कपड़ा छोटा पड़ने लगा था। कपडों से वंचित हो जाने पर उन्हें पत्तों से शरीर ढाँपना पड़ा।
कालांतर में उनके चार बच्चे हुए। दो लड़के और दो लड़कियाँ। उनके बच्चों को भी पत्तों का ही परिधान मिला। माँ – बाप जिस शहरी भाषा से यहाँ आए थे वह भाषा उनसे विस्मृत होने लगी थी। वे अपने बच्चों को शहरी भाषा में बड़ा करने की स्थिति में रह नहीं पाए तो वे प्रकृति और जानवरों की भाषा में विलय होने लगे थे। माँ – बाप की जो थोड़ी बहुत प्रज्ञा शेष थी वह प्रज्ञा दोनों को बहुत दूर की चिंता में ले जाती थी। बच्चे यही पड़े रहें तो मानव सभ्यता से सदा के लिए अछूते रह जाते। दोनों के लिए विडंबना यह भी हुई कि जानिरो बूढ़ा हो जाने पर चलने में असमर्थ होने लगा था।
एक सुबह पारिता ने जगने पर जानिरो को कहीं न पाया तो उसे चिंता होने लगी। उसने बच्चों के साथ मिल कर जानिरो का बहुत इंतजार किया। पर वह कहीं से आता दिखता नहीं था। अब तो बहुत सारे दिन बीते। पारिता ने जानिरो के शोक में खाना पीना छोड़ा। वह बीमार पड़ी और दिवंगत हो गई।
एक दिन फौज के सिपाही वहाँ पहुँचे। जानिरो को शहर के एक गलियारे में अचेत पाया गया था। उसका उपचार हुआ। उसने मानवी और जंगल की मिली – जुली भाषा में जो कहा था उसका अर्थ यह था अशक्तता के कारण वह चार महीने घुटनों पर आगे बढ़ता रहा था। वह आत्म समर्पण करने के साथ कहने पहुँचा था उसके बच्चों और उसकी पारिता को ला कर शहर में आबाद किया जाए।
उसी दिन अस्पताल में जानिरो की आँखें बंद हो गई थीं।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘बेटी की बिदाई…’।)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बॉन्ड एंबेसेडर…“।)
अभी अभी # 315 ⇒ बॉन्ड एंबेसेडर… श्री प्रदीप शर्मा
हम भी अजीब हैं। हमारी पीढ़ी को आप चाहें तो बॉन्ड एंबेसेडर कह सकते हैं। ऐसा कौन इंदौरी होगा, जिसने स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देखी हों। जेम्स बॉन्ड 007 तब बच्चे बच्चे की जबान पर होता था। क्या नाम था उसका, सीन कॉनेरी, जिसे कुछ लोग सीन सीनरी भी कहते थे।
अंग्रेजी कभी हमारी मादरे ज़ुबां नहीं रही, फिर भी हमें अंग्रेजी फिल्मों से विशेष प्रेम रहा। वैसे भी प्रेम रोमांस और मारधाड़ की कोई भाषा नहीं होती।
भाषा के बारे में हमारी पुख्ता जानकारी यह कहती है कि अंग्रेजी और उर्दू तो कोई जुबान ही नहीं है। कोई ग्रीक और लैटिन से निकली है, तो कोई अरबी और फ़ारसी से। अगर हमें संस्कृत आती, तो हम भी कभी हिंदी में बात ही नहीं करते। सब समय समय की बात है।।
वह डॉन का नहीं, गॉडफादर और घोड़े पर हैट लगाए काउब्वॉय का जमाना था। हम साइकिल पर चलने वाले तब एंबेसेडर कार को ऐसे देखते थे, जैसे आज लोग विदेशी कारों को देखते हैं। इक्की दुक्की फिएट और एंबेसेडर कारें ही सड़कों पर दौड़ा करती थी। मारुति तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।
हम तब इतने गये गुजरे भी नहीं थे। हमें एंबेसेडर का एक और मतलब भी मालूम था, राजदूत। राजदूत से खयाल आया, मोटर साइकिल भी तो दो ही थी, राजदूत और रॉयल एनफील्ड। वेस्पा, लैंब्रेटा ने पूरे देश को आपस में बांट रखा था। चल मेरी लूना (मोपेड) का भी तब कहीं अता पता नहीं था।।
कई जेम्स बॉन्ड आए और चले गए, और हिंदी फिल्मों में डॉन का प्रवेश हो गया।
स्टार लिट और बेम्बिनो जैसे टॉकीज नेस्तनाबूद हो गए। कल का जेम्स बॉन्ड 007 बूढ़ा बरगद हो गया, और इधर हमारे देश में ही नए ब्रांड एम्बेसडर पैदा हो गए। जितने ब्रांड उतने एंबेसेडर। कोई चार दिन गुजरात में गुजारने की बात करता रहा तो कोई जुबां केसरी से खुशबू महकाता रहा।
इसी बीच एक ऐसे इंडियन ब्रांड एंबेसेडर ने जन मानस में प्रवेश किया, जिसने सभी जेम्स बॉन्डों, गॉडफादरों और कॉब्वॉयज को पीछा छोड़ दिया। कभी वह समंदर में समाधि लगाता तो कभी हरमंदर में। अफ्रीकन सफारी को भी मानो अपना ब्रांड एंबेसेडर मिल गया हो। हमें कभी कभी तो उसे देखकर हमारे हीरो हेमिंग्वे की याद आने लगती।
आज भी वही भारत का जेम्स बॉन्ड 007 है और इंडियन ब्रांड एंबेसेडर भी। फौलादी इरादों के लिए फ़ौलादी बदन भी होना चाहिए। आज भले ही हम कल जैसे स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में नहीं देख पा रहे हों, लेकिन एडवेंचर, रोमांच और बहादुरी का बॉन्ड, हमारा भारतीय ब्रांड एंबेसेडर हमारे बीच हो, तो देशभक्ति के साथ साथ, मनोरंजन की तो पूरी गारंटी। स्वदेशी बॉन्ड, इंडियन ब्रांड एंबेसेडर हमारा परिवार।।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ “हे दान देऊ कसं ?” – भाग – १ ☆ श्री संभाजी बबन गायके☆
“अलख !” तिच्या दारात तिला हा आदेश ऐकू आला आणि ती दचकली. ती सकाळची कामं उरकायच्या गडबडीत होती. चुलीवर एका बाजूला कालवण रटरटत असतानाच तिचे हात भाकरी बडवण्यात गुंतले होते. ज्वारीच्या पीठाने पांढुरक्या झालेल्या उजव्या हाताच्या उपड्या बाजूने तिने कपाळावर येत असलेले आपले पांढरे केस मागे सारले. तिने वयाचा मध्य गाठला होता, केसांनी आपला काळा रंग हळूहळू सोडायला सुरूवात केली होती आणि ते पांढ-या रंगाचा हात धरायला लागले होते.
सकाळी सकाळी भिक्षेकरी दारावर येणं तिच्यासाठी काही नवं नव्हतं.पण आजच्या अलख आवाजात तिला तिच्या ओळखीचं काहीतरी जाणवलं. पण तरीही ज्वारीचं पीठ भरलेलं एक मध्यम आकाराचं भांडं घेऊन ती उठली. उठताना चुलीमधलं लाकूड थोडंसं मागं ओढून घ्यायला ती विसरली नाही. ती लगबगीने दाराच्या उंब-यात पोहोचली. भिक्षेक-याने आपली झोळी पुढे केली. त्याच्या मागे आणखी एक संन्याशी उभा होत…वयाने बराच मोठा. बहुदा याचा गुरू असावा. तिने पीठाचे भांडे त्याच्या झोळीत उपडं करायला हात पुढे केले पण आज का कुणास ठाऊक तिला त्या भिक्षेक-याच्या तोंडाकडे पहावंसं वाटलं. एरव्ही सर्व भिक्षेकरी सारखेच. तिने आपला चेहरा वर करून त्याच्याकडे पाहिले आणि झटकन झोळीकडे जाणारे हात मागे घेतले!
भगवी कफनी,गळ्यापर्यंत रुळणारी कोवळी दाढी,पायांत खडावा,काखेत झोळी…वेष तर संन्याशाचा…पण डोळे? डोळे अजूनही तिच्या बाळाचे….काळेशार. वीस वर्षांनंतरही तिने ते डोळे ओळखले. त्या डोळ्यात तिने दोन वर्षे आपल्याच बोटांनी काजळ घातलेले होते…ती कसे विसरेल? आणि तिला तर त्या दोन वर्षांत त्या डोळ्यांत खोलवर पहायची सवयच झाली होती की! किती नवसा सायासांनी जन्म झालेला होता त्याचा. असाच कुणी बैरागी आला होता दारी…तिने मापटंभर दाणे घातले होते त्याच्या झोळीत तर त्याने पुत्रवती भव असा आशीर्वाद दिला होता. एवढ्याशा दाण्यांच्या मोबदल्यात खूप मोठा आशीर्वाद दिला होता त्याने…तसा ते प्रत्येकीलाच देत असावेत, असं तिला वाटलं. पण बारा महिन्यांतच तिची झोळी भरली! पण तो बैरागी काही पुन्हा तिच्या दारी आला नाही!
आणि आज तसाच एक जण उभा होता तिच्यासमोर. ती त्याच्या झोळीत दान टाकणार होती पण तो तिला पुत्रवती भव असा आशीर्वाद देऊ शकणार नव्हता…तो स्वत:च तिचा पुत्र होता.तिच्या तोंडून शब्द फुटेना….ती कशीबशी म्हणाली…लल्ला! तुम? हो, तिचा लल्लाच होता तो…वीस वर्षांपूर्वी त्याला शेवटचं पाहिलं होतं…आणि आज तोच तिच्यासमोर उभा होता…नखशिखान्त संन्याशाच्या रुपात.
तो तरूण संन्याशी पुन्हा म्हणाला,”माई,भिक्षा घालतेस ना झोळीत?” तिच्या हातून पीठाचं भांडं गळून पडलं आणि तिने मोठ्या आवेगाने त्या संन्याशाला मिठी मारली….लल्ला! का सोडून गेला होतास? किती शोधलं तुला! आणि तिनं हंबरडा फोडला. ते ऐकून तिचं सारं घर दारात धावलं. आया-बाया हातातली कामं टाकून बाहेर आल्या. कामावर जाण्याच्या गडबडीत असणारी माणसं थबकून राहिली.
वीस वर्षांनी तो परतला होता. चांगलं अंगणात खेळणारं दोन वर्षांचं पोर..आई घरात स्वयंपाक करीत होती….कसं कुणास ठाऊक कुठं हरवून गेलं एकाएकी. कुणी नेलं,कसं नेलं, आणि हे पोर तरी कसं गेलं असावं कुणासोबत? काही एक समजलं नाही. पाडस हरवलेली हरिणी त्याला शोधण्यासाठी काय नाही करत? अगदी श्वापदांच्या समोरही जाऊन उभी राहते…माझ्या बदल्यात माझ्या बाळाला सोडा अशी मूक विनवणी करीत!
गावोगावीच्या जत्रा,देवळं धुंडाळून झाली,अंगारे धुपारे,ज्योतिष सर्वकाही अजमावून झाले. पण नाहीच मिळून आला तिचा लल्ला! कुणी म्हणे भिकारी बनवण्यासाठी कुणी पळवून नेलं असेल, कुणी म्हणे विनापत्य बाईला विकलं असेल कुणीतरी नेऊन. कुणा आईच्या पदराखाली असेल तरी चालेल…पण भिकारी? नको रे देवा ! पण आयुष्य थांबलं नाही…वीस वर्षे निघून गेली.
☆ अयोध्या डायरी भाग-१– लेखक : श्री विश्वास चितळे ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆
अयोध्या वरून परत येत आहे . सर्व चितळे परिवार कडून श्रीराम प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रमाला जाता आले, रीप्रेझेन्ट करता आले. संपूर्ण कार्यक्रमात खूप ऊर्जा जाणवली. आपल्या सर्वांकडून श्रीरामाला वंदन करून आता परत येत आहे.
पुष्करने ही यात्रा छान घडवून आणली.
कार्यक्रम संघ परिवाराने खूप आखीव घडविला.
मी सकाळी ९:३० वाजता गेलो व आसनस्थ झालो . शेजारी तंजावर चे राजे भोसले बसले होते . मी मराठीत सायली बरोबर बोलत होतो . ते पाहून राजांनी मराठी मध्ये माझ्याशी सवांद साधला व विचारले आपण कोठून आलात . तंजावर मध्ये अजून हि २०० मराठी कुटुंब राहत आहेत . त्यांनी व राजेंनी अजूनही मराठीची नाळ सोडली नाही व त्यांनी मला तंजावर चे निमंत्रण दिले .
आणखी थोड्या वेळात हेमामालिनी यांचे आगमन झाले . संयोजक त्यांना प्रथम रांगेंत बसण्यासाठी सांगत होते पण त्यांनी, मी आपल्या जावया बरोबर आले आहे असे म्हणत, माझ्या शेजारी असलेल्या खुर्ची वर बसणं पसंत केले .मी त्यांना माझी जागा देवूं केली ती त्यांनी न स्वीकारतां
सांगितले की मी इथेच बसेन .
आम्ही सर्व स्थिरस्थावर होत असताना सोनू निगम ,शंकर महादेवन यांच्या जय श्री रामाच्या गीतांनी वातावरण भक्तीमय झाले .सर्व आसमंत जय श्रीरामांच्या उद्घोषांनी प्रफुल्लीत झाला.
संघाचे स्वयंसेवक सर्वांची अंत्यत अदबीने विचारपूस करत होते.
समोरील कलात्मक रामलल्लाचे निवासस्थान इतक्या सुंदर पानाफुलांनी सुशोभीत केले होती कि ती भव्य वास्तू , जणू स्वर्गातुन अवतरली आहे असा भास होत होता.
संपूर्ण अयोध्या नगरी आणि भारत ह्या मूहूर्ताची वाट पाहत होते, तो क्षण आला .मा.प्रधानमंत्री मोदीजी पूजा साहित्य घेऊन मंदिराच्या पायऱ्या चढून गर्भ गृहःमध्ये गेले .
गणेश स्तुती सुरु झाली . संकल्प गुरुजी सांगू लागले .सनई चवघड्यांचा मंगल स्वर मंदिरातून येवू लागला .
मंत्र घोषात पूजा सुरु झाली. आम्हा सर्वांना स्वयंसवेकांनी घंटा दिल्या .घंटा वाजू लागल्या .जय श्री रामांचा उद्घोष टिपेला पोचला .
आर्मीच्या दोन हेलिकॉप्टरांनी बरोबर प्राणप्रतिष्ठे च्या क्षणी गुलाब पाकळ्यांचा वर्षाव सुरु केला
आणी समोर असलेल्या स्क्रीन वर श्री राम लल्लांचे दर्शन झाले .
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “D A U D ( दौड़)…“।)
अभी अभी # 250 ⇒ D A U D ( दौड़)… श्री प्रदीप शर्मा
वर्ष १९९७ में राम गोपाल वर्मा की एक फिल्म आई थी जिसका शीर्षक अंग्रेजी में DAUD था, लगा, फिल्म दाऊद इब्राहिम पर केंद्रित होगी। फिल्म आकर चली भी गई, बाद में कहीं पढ़ने में आया, फिल्म का नाम हिंदी में दौड़ था। हिंदी दिवस पर खयाल आया, दौड़ को वे लिखते भी कैसे, अगर DAUR लिखते, तो दौर भी हो सकता था। उदाहरण स्वरूप दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर NAYA DAUR को ही ले लीजिए। इसी अंधी दौड़ में योग, yoga, राम, Rama और विस्तार Vistara हो गया है।
दुनिया आज दौड़ नहीं, भाग रही है, बचपन से जवानी, जवानी से बुढ़ापा, स्कूल, दफ्तर, शादी ब्याह, जन्म मरण, की भागमभाग के बाद एक उम्र ऐसी आ जाती है जब सुबह शाम टहलने चले जाते हैं आसपास के बगीचों में, कोई पूछता है, तो यही कहने में आता है, अब कहां आना और कहां जाना।
इंसान की दौड़ मस्जिद तक हो या मंदिर तक, हर व्यक्ति जीवन में गति भी चाहता है और ठहराव भी। कहीं ज़िन्दगी में गति है, तो कहीं ठहराव। मिल्खा सिंह और पी टी उषा ने तो दौड़कर ही न केवल अपनी मंज़िल हासिल की, अपितु देश का गौरव भी बढ़ाया। एक तरफ अंधी दौड़ है। दौड़ सके तो दौड़।
दौड़ प्रतिस्पर्धा भी हो सकती है और मैराथन भी। लेकिन जब मैराथन भी प्रतियोगिता हो जाए तब साथ साथ नहीं दौड़ा जाता। आप साथ साथ चल तो सकते हो, लेकिन साथ साथ मंज़िल नहीं पा सकते। कहीं मंज़िल दौड़ने पर भी नसीब नहीं होती और कहीं मंज़िल खुद दौड़ी चली आती है। कहीं अजगर चाकरी नहीं करता तो कहीं, न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
एक सच्चे भक्त और आशिक में कोई फर्क नहीं होता। उसकी दौड़ उसके दिल तक ही सीमित होती है, वह नगरी नगरी द्वारे द्वारे नहीं भटकता। वह कहता है ;
ओ महबूबा,
तेरे दिल के पास ही है मेरी मंज़िले मक्सूद।
वो कौन सी महफ़िल है जहां
तू नहीं मौजूद।।
लेकिन फिर भी जब तक घट घट व्यापक हमारे आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम, असली अयोध्या में विराजमान नहीं हो जाते, हमारी दौड़ पूरी नहीं होती। फिर हमारी भी दौड़ अयोध्या तक ही सीमित रहेगी। और अगर हमारे रोम रोम में राम है तो यही राम मंदिर रोम में भी बनेगा और पेरिस में भी। भारत किसी दौड़ में पीछे नहीं।
जिस भक्त की लाज बचाने भगवान दौड़े चले जाते हैं, क्या वह भक्त अपने भगवान के लिए थोड़ी भी दौड़ नहीं लगा सकता।
फिर भी होते हैं कुछ मेरे जैसे आलसी, जो कहते हैं, बस ज़रा गर्दन झुकाई, देख ली तस्वीरे यार।।