हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 29 ☆ परिंदे संवेदना के… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “परिंदे संवेदना के…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 29 ☆ परिंदे संवेदना के… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अब नहीं आती ख़बर

अमराइयों से

मर चुके हैं

परिंदे संवेदना के।

 

फूल-पत्ते सिसकते हैं

पेड़-डाली हैं उदास

उग नहीं पाते ज़रा भी

बंजरों में अमलतास

 

कटे पर लेकर उजाले

जीते पल आलोचना के।

 

प्रकृति के पालने में

ध्वंस के सजते हैं मंच

झाँकते वातायनों से

अँधेरों के छल-प्रपंच

 

सुनाई देते नहीं हैं

स्वर कोई आराधना के।

(परिंदे संवेदना के से साभार)

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆ कथा कहानी – सवारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी ‘सवारी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 214 ☆

☆ कहानी – सवारी 

जग्गू अपना रिक्शा लेकर सुबह पाँच बजे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन साढ़े पाँच बजे आती है। कई बार लेट भी हो जाती है। सर्दियों में यह ट्रेन तकलीफ देती है। पाँच बजे पहुँचने के लिए चार बजे उठना पड़ता है। एक तरफ अँधेरे और दूसरी तरफ ठंड से जूझना पड़ता है। गनीमत यह है कि स्टेशन छोटा होने की वजह से उसे सब जानते हैं, इसलिए रेलवे के साहब लोग अगर किसी कोने में अलाव जलाकर तापते मिल गये तो वहीं धीरे से घुस जाता है। उसकी पूछ-कदर इसलिए भी है कि स्टेशन पर दो ही रिक्शे हैं, इसलिए बाबुओं को अटके-बूझे उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्रेन आने पर रिक्शे पर रहना ही सुरक्षित होता है क्योंकि सवारी सीधे रिक्शे पर पहुंचकर उसकी घंटी टुनटुनाती है।

उसके अलावा दूसरा रिक्शा रघुवीर का है। उन दोनों को छोड़कर कोई तीन किलोमीटर दूर गाँव में जाना चाहे तो पाँवगाड़ी इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

स्टेशन के बाहर गुलाब का स्टोव भर्र-भर्र जल रहा है। गुलाब सवेरे साढ़े चार बजे तक दूकान में जम जाता है। सोता भी दूकान में ही है। दोपहर से शाम तक मदद करने के लिए एक लड़का आ जाता है जिसे उसने असिस्टेंट के तौर पर रख लिया है। गुलाब की दूकान अच्छी चल जाती है। गाँव के लड़कों और बूढ़ों को करने धरने को कुछ होता नहीं, इसलिए जब जिसका मुँह उठा, स्टेशन चला आता है। कुछ ऐसे हैं जो दिन भर गुलाब की बेंच पर जमे रहते हैं। भूख लगने पर कागज़ पर नमकीन लेकर खाया, ऊपर से एक ‘कट’ चाय। घर में सोने से तो भला, स्टेशन पर कुछ चहल-पहल रहती है। ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते बहुत से नये चेहरे दिख जाते हैं, जिन्हें देखकर ज़िन्दगी में थोड़ी रौनक आ जाती है। गाँव के युवक ट्रेनें आने पर उनके सामने जा खड़े होते हैं, फिर उनके चले जाने पर वापस दूकानों की बेंचों पर आ जमते हैं।
उस दिन ट्रेन रुकी तो जग्गू उम्मीद से सवारियों की तरफ देखता रहा। अचानक उसकी आँखें चमकीं। साफ-सफेद कुर्ते धोती में एक सयाने, गोल-मटोल सज्जन छोटा सूटकेस लिये बाहर निकल रहे थे। शरीर के रख-रखाव, सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे, घड़ी की चेन और हाथ की अँगूठियों से ज़ाहिर था कि आदमी ऊँचे तबके का, सुख-सुविधा संपन्न है। जग्गू ने देखा उनका चेहरा मक्खन से तराशा हुआ लगता था, हाथों की हथेलियाँ गुलाबी और मुलायम। उसके जैसी खुरदरी और गुट्ठल वाली नहीं।

जग्गू ने बढ़कर उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। बोला, ‘आइए बाबूजी, कहाँ जाएँगे?’

वे सज्जन धोती के छोर से चेहरा पोंछते हुए बोले, ‘चतुर्वेदी जी के यहाँ जाना है। आज उनकी तेरही है। जानते हो?’

जग्गू बोला, ‘गाँव में सब को एक दूसरे के घर की गमी और खुसी का पता रहता है। चौबे जी का घर हमें मालूम है। चौबाइन के साथ अकेले तो रहते थे। अभी तो खूब भीड़-भाड़ है। सब लोग आये हैं।’

वे सज्जन थोड़ा सावधान हुए, बोले, ‘पैसे कितने होंगे?’

जग्गू बोला, ‘तीस रुपया होगा। बँधा बँधाया रेट है। यही मिलता है।’

सज्जन ने अपने शहरी चातुर्य को जग्गू की ग्रामीण व्यवहारिकता से भिड़ाया, बोले, “ज्यादा है। वह तो गाँव दिखता है।’

जग्गू बोला, ‘दिखता तो है, पर रास्ता बहुत खराब है। बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। टाइम भी ज्यादा लगता है।’

सज्जन बोले, ‘बीस रुपये में चलना हो तो चलो।’

जग्गू ने हाथ जोड़े, कहा, ‘नहीं होगा साहब। बहुत कम है।’

सज्जन ने थोड़ी दूर पर खड़े दूसरे रिक्शे पर नज़र डाली। बोले, ‘दूसरे रिक्शेवाले से भी पूछ लेते हैं।’

जग्गू हँसा, बोला, ‘कोई फायदा नहीं है बाबूजी। रघुवीर का बाप सवेरे पाँच बजे उसे ढकेल कर  घर से बाहर कर देता है। वह यहाँ आकर रिक्शे में सो जाता है। आप कोसिस कर लीजिए, वह उठेगा नहीं। थोड़ी देर बाद उठकर चाय पियेगा, फिर बीड़ी के सुट्टे लगाएगा। उसके बाद ही किसी सवारी को बैठने देगा।’

सज्जन ने पैंतरा बदला, बोले, ‘अच्छा, चौबे जी के लड़के जो कहेंगे वह दे देंगे।’

जग्गू ऐसे लोगों को जानता है। वे गरीबों का पेट मारने के बहुत तरीके जानते हैं। ठंडी आवाज़ में बोला, ‘तीस रुपये से कम नहीं होगा बाबूजी। सोच लें।’

सज्जन हार गये। झुँझलाकर बोले, ‘ठीक है, चलो। अकेले होने का फायदा उठा रहे हो।’

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका काम हो गया था। अब फालतू की झिकझिक करने से क्या फायदा?

सज्जन आकर रिक्शे के बगल में खड़े हो गये। जग्गू ने दो बार सीट पर हाथ मार कर उसकी धूल झाड़ी, फिर कहा, ‘आइए, बैठिए।’

लेकिन उन सज्जन के लिए बैठना आसान नहीं था। सीट की पुश्त और सामने लगी पट्टी को पकड़कर वह बड़ी मुश्किल से सीट की ऊँचाई तक अपने को उठा सके। सीट पर बैठ जाने तक उनके हाथ और पाँव थरथर काँपते रहे। ज़ाहिर था कि उन्हें रिक्शे में बैठने का अभ्यास नहीं था। सीट पर बैठ कर उन्होंने फिर मुँह पोंछा, साथ ही बुदबुदाये— ‘क्या सवारी है!’

जग्गू ने घुमा कर रिक्शा पुलिया से बाहर निकाला और कीचड़, गढ्ढों और गोबर से बचाता चल दिया। गढ्ढों से बचाने के उपक्रम में रिक्शा सर्पाकार चल रहा था और वे सज्जन आलू के बोरे की तरह दाहिने बाएँ हिल रहे थे। आखिरकार जब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया तो गुर्राये, ‘जरा ठीक से चलो। पेट की अँतड़ियाँ हिली जा रही हैं।’
जग्गू को ऐसी नकचढ़ी सवारियों से चिढ़ होती है। वह मौजी आदमी है। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद शाम से इधर-उधर कीर्तन- भजन की बैठकों में मस्त रहता है। उस वक्त कोई रिक्शा खींचने के लिए बुलाये तो उसे भारी चिढ़ लगती है। लिहाज न हो तो कितना बुलाने पर भी नहीं जाता। दिवाली के टाइम आठ दस दिन की पक्की छुट्टी लेता है। ‘मौनियाँ ‘ के दल के साथ कमर में कौड़ियों की करधनी पहने, हाथ में मोरपंख लिये गाँव-गाँव घूमता और नाचता है। नाच के कपड़ों पर तीन चार सौ खर्च करने में उसे कोई तकलीफ नहीं होती।

उन सज्जन के चेहरे पर अरुचि और तकलीफ का भाव साफ झलक रहा था। गाँव की सड़क शुरू हो गयी थी। तीन चार साल पहले बनी थी, लेकिन बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के चलने के कारण बिल्कुल चौपट हो गयी थी। अब तो रिक्शे को एक एक कदम सँभाल कर ले जाना पड़ता है। कई जगह उतर कर खींचना पड़ता है। बस पैदल आदमी ही सुकून से चल सकता है।

जग्गू का मन हुआ रास्ता काटने के लिए कोई तान छेड़े। एक रोमांटिक गाना ‘साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना’ उसका प्रिय है। अक्सर उसी को छेड़ता है। लेकिन सवारी के चेहरे पर साच्छात सनीचर बैठा देख उसकी उमंग को लकवा लग गया। भगवान ऐसी मनहूस सवारी न भेजे।

गाँव की राह पर आने के बाद उन सज्जन का जबड़ा खुलता है। लगता है उन्हें भी ज्यादा देर चुप रहने की आदत नहीं है। जैसे अपने आप से कहते हैं—‘ पंद्रह साल बाद रिक्शे पर बैठा हूँगा। जरूरत ही नहीं पड़ती। घर में दो कारें हैं, ड्राइवर है। थोड़ी दूर भी जाना हो तो कार से जाते हैं।’

जग्गू मुँह फेरकर ‘अच्छा’ कहता है, लेकिन वह जान जाता है कि रिक्शे पर बैठना सवारी को भाया नहीं। उसका मन खट्टा हो जाता है।

कारन यह है जग्गू को अपने रिक्शे पर बड़ा नाज़ है। बैंक से लोन ले कर लिया है। गाँव में सिर्फ दो रिक्शे होने से वैसे भी वह अपने को विशिष्ट समझता है। धर्मी-कर्मी आदमी है, इसलिए जैसे शरीर को साफ-सुथरा रखता है, वैसे ही रिक्शे को भी धो-पोंछ कर रखता है। रिक्शे के बारे में कोई ऊटपटाँग टिप्पणी कर दे तो उसका मन आहत हो जाता है।

वे सज्जन आगे बोल रहे थे— ‘चतुर्वेदी जी हमारे समधी होते थे। अभी दो साल पहले रिटायर होने पर यहाँ आ बसे थे। इसीलिए हमारा यहाँ कभी आना नहीं हुआ।’
जग्गू ने फिर मुँह फेर कर ‘हाँआँ ‘ कहा।

वे कुछ और बोलने जा रहे थे, तभी रिक्शे के गढ्ढे में फँसने से उनकी देह पूरी हिल गयी।जग्गू के रिक्शे की सीट आगे की तरफ थोड़ा ढालू थी। कोई गढ्ढा आ जाए तो शरीर आगे की तरफ भागता था, और आदमी सावधान न हो तो घुटने आगे पटिये में टकराते थे। यही उन सज्जन के साथ हुआ। वे ज़ोर से चिल्लाये, ‘क्या करता है? देख के चल। घुटने टूटे जा रहे हैं।’

जग्गू का मन बुझ गया। गाँव के लोग उसके रिक्शे पर बैठना सौभाग्य समझते हैं। चिरौरी कर कर के बैठते हैं। गाँव के लालता बनिया का लड़का तो चाहे जब आ बैठता है और रिक्शा खाली हो तो घंटों घूमता है। कहता है, ‘बहुत मजा आता है।’ उसे घुमाने में जग्गू को भी मज़ा आता है क्योंकि उसके मुँह से तारीफ सुनकर जग्गू गदगद हो जाता है। रिक्शे ने गाँव में जग्गू की पोजीशन बना दी है। रोज दो चार लोग उसकी खुशामद करते हैं। और एक यह सवारी है जो उसे कोसे जा रही है।

गढ्ढे से बाहर निकले तो उन सज्जन ने घड़ी देखी, बोले, ‘सात आठ मिनट तो हो गये।कहाँ है तुम्हारा गाँव?’

जग्गू चिढ़कर बोला, ‘गाँव जहाँ है वहीं है, बाबूजी। रास्ता खराब है इसलिए देर हो रही है।’

रिक्शा फिर रास्ते के हिसाब से डगमग होता चल दिया।

सज्जन थोड़ी देर में बोले, ‘दो-चार दिन यहाँ रिक्शे पर बैठेंगे तो हड्डियों का चूरा हो जाएगा। महीना भर अस्पताल सेना पड़ेगा।’

जग्गू का मन बिलकुल बुझ गया। ऐसी सवारी मिल जाए तो पूरा दिन खराब हो जाता है। यह आदमी पन्द्रह मिनट से उसकी रोजी को कोस रहा है।

उसने धीरे से कहा, ‘कार से ही आ जाते बाबूजी।’

बाबूजी उसके व्यंग्य को नहीं समझ पाये। दुखी भाव से बोले, ‘कार से इतनी दूर कहाँ आएँगे? सब तरफ सड़कों की हालत खस्ता है।’

जग्गू मन में बोला, तो फिर गाँव की सड़क और उसके रिक्शे को क्यों कोस रहे हो? प्रकट बोला, ‘चौबे जी के यहाँ खबर करके गाड़ी बुलवा लेते। वहाँ तो दो तीन गाड़ियाँ खड़ी थीं।’

सज्जन फिर दुखी भाव से बोले, ‘दो तीन बार फोन लगाया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। लगता है सब सो रहे हैं।’

रिक्शा खींचते खींचते जग्गू को हाँफी  चढ़ रही थी। रास्ते में एक घर के सामने चाँपाकल के पास रिक्शा रोक दिया,बोला, ‘ एक मिनट जरा पानी पी लूँ।’

सज्जन और चिढ़ गये, बोले, ‘हाँ हाँ, जरूर पियो। बीड़ी वीड़ी भी पी लो। क्या जल्दी है?’

जग्गू खिसिया कर बोला, ‘बीड़ी वीड़ी हम नहीं पीते। गला सूख रहा है इसलिए थोड़ा पानी पी लेते हैं।’

सज्जन ने भी पिछले स्टेशन से खरीदी बोतल से दो घूँट पानी पिया। रास्ते में कहीं पानी नहीं पिया जा सकता। यहाँ बीमार पड़ जाएँ तो तीमारदारी के लिए डॉक्टर भी नहीं मिलेगा।

रिक्शा फिर किसी आर्थ्राइटिस के मरीज़ जैसा दाहिने बायें झूमता आगे बढ़ा। सज्जन का चेहरा तकलीफ और आक्रोश से विकृत हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर वे बोले,

‘यहाँ कम से कम एक ऑटो होना चाहिए। रिक्शे में तो हाथ-पाँव टूटना है।’

जग्गू को और चिढ़ लगी। एक तो ढो कर ले जा रहे हैं, ऊपर से बार-बार गाली दे रहा है। बोला, ‘यहाँ ऑटो खरीदने के लिए पैसा किसके पास है? आप जैसे बड़े आदमी ही खरीद सकते हैं। फिर ऑटो के लायक कमाई भी तो होना चाहिए।’   

सज्जन कुछ नहीं बोले। अगली चढ़ाई चढ़ते ही झुटपुटे में आधा ढँका गाँव सामने आ गया। सज्जन के चेहरे पर राहत का भाव आया।

अचानक गाँव के बीच से एक कार ‘पें पें ‘ हॉर्न बजाती, धूल उड़ाती, रिक्शे के सामने आकर रुक गयी। कार में से दो युवक उतरे। सज्जन के पाँव छूकर बोले, ‘आ गये, बाबूजी? माफ करें, हमें निकलने में थोड़ी देर हो गयी। रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?’

सज्जन का चेहरा अब बिलकुल तनावमुक्त हो गया था। जग्गू की तरफ देख कर बोले, ‘तकलीफ तो बहुत हुई, लेकिन अब तुम लोग आ गये हो तो सब ठीक है। बाकी यहाँ रिक्शे पर चढ़ना सजा जैसा है।’

युवकों ने उनका सूटकेस उठाकर कार में रख लिया। वे पैसे देने लगे तो युवकों ने उन्हें बरज दिया। जग्गू से बोले, ‘घर से ले लेना।’

सज्जन ने कार में बैठकर ज़ोर की साँस ली, बोले, ‘चलो भैया, मुक्ति मिली।’

कार मुड़कर गाँव की तरफ बढ़ी तो धूल का ग़ुबार आकर जग्गू के शरीर और रिक्शे पर बैठ गया। वह अँगौछे से मुँह पोंछता कभी दूर जाती कार और कभी अपने रिक्शे को देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #20 ☆ कविता – “राह…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 20 ☆

☆ कविता ☆ “एक दिन…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

ये ना समझो

कि हम भूल गए

ये समझो कि

बस लम्हें ही निकल गए

 

भला पानी को कभी प्यास

भूल सकती है क्या?

या दिन से कभी रात

जुदा हो सकती है क्या?

 

बस दायरे बढ़ गए हैं 

दरारें नहीं

बस वर्तमान सिमट गया है

भूत और भविष्य नहीं

 

शीशे की ये दीवारें

दुनिया ने खड़ी जो की हैं 

इस तरफ भी और उस तरफ भी

इससे बस धूप ही आती है

 

मगर एक दिन

शीशे ये टूटेंगे दिल नहीं

फिर बस प्यार ही खिलेगा

इन लफ्जों की जरूरत नहीं

 

वो दिन आएगा

हम वो लाएंगे

मरते दम तक दीवारों पे

इन लफ्जों के पत्थर मारेंगे

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 233 ☆ व्यंग्य – भीड़ के चेहरे… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – भीड़ के चेहरे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 233 ☆

? व्यंग्य – भीड़ के चेहरे ?

मैं अखबार की हेड लाईन पढ़ रहा था, जिसमें भीड़ द्वारा की गई तोड़ फोड़  की खबर बोल्ड लैटर में छपी थी,  मुझे उस खबर के भीतर एक अप्रकाशित चित्र दिखा, जिसमें बिलौटा भाग रहा था और चूहे उसे दौड़ा रहे थे. चित्र देखकर मैने बिलौटे से पूछा, ये क्या ? तुम्हें चूहे दौड़ा रहे हैं ! बिलौटे ने जबाब दिया यही तो भीड़तंत्र है. चूहे संख्या में ज्यादा हैं, इसलिये चलती उनकी है. मेरा तो केवल एक वोट है, दूसरा वोट मेरी बिल्लो रानी का है, वह भी वह मेरे कहे पर कभी नही देती. बल्कि मेरी और उसकी पसंद का आंकड़ा हमेशा छत्तीस का ही होता है. चूहो के पास संख्याबल है. इसलिये अब उनकी ही चलती है.

मैने खबर आगे पढ़ी लिखा था अनियंत्रित भीड़ ने ला एण्ड आर्डर की कोशिश करती पोलिस पर पथराव किया. मैने अपने आप से कहा, क्या जमाना आ गया है,  एक वो परसाई  के जमाने के इंस्पेक्टर मातादीन थे, जिन्होने चांद पर पहुंच कर महज अपने डंडे के बल पर पोलिस का दबदबा कायम कर लिया था और एक ये हमारे जमाने के इंस्पेक्टर हैं जो भरी रिवाल्वर कमर में बांधे खुद अपनी ही जान से हाथ धो रहे हैं. मुझे चिंता हो रही है, अब सैंया भये कोतवाल तो डर काहे का वाले मुहावरे का क्या होगा ?

तभी मुझे एक माँ अपने बच्चे को गोद में लिये दिखी, बच्चा अपनी तोतली जवान में बोला गग्गा !  पर जाने क्यो मुझे सुनाई दिया शेर ! मैं जान बचाकर पलटकर भागा,मुझे यूं अचानक भागता देख मेरे साथ और लोग भी भागने लगे,जल्दी ही हम भीड़ में तब्दील हो गये. भीड़ में शामिल हर शख्स का चेहरा गुम होने लगा. भीड़ का कोई चेहरा नही होता. वैसे भीड़ का चेहरा दिखता तो नही है पर होता जरूर है, अनियंत्रित भीड़ का चेहरा हिंसक होता है. हिंसक भीड़ की ताकत होती है अफवाह, ऐसी भीड़ बुद्धि हीन होती है. भीड़ के अस्त्र पत्थर होते हैं. इस तरह की भीड़ से बचने के लिये सेना को भी बख्तर बंद गाड़ियो की जरूरत होती है. इस भीड़ को सहज ही बरगला कर मतलबी अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, भीड़ पथराव करके, नारे लगाकर, तोड़फोड़ करके या आग लगा कर, हिंसा करके, किसी ला आर्डर बनाने की कोशिश करते इंस्पेक्टर को मारकर,गुम जाती है,तितर बितर हो जाती है,  फिर इस भीड़ को  वीडीयो कैमरो के फुटेज में कितना भी ढ़ूंढ़ो कुछ खास मिलता नही है, सिवाय किसी आयोग की जांच रिपोर्ट के. तब इस भीड़ को लिंचिंग कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है. यह भीड़ गाय के कथित भक्तो को गाय से बड़ा बना देती है. ऐसी भीड़ के सामने पोलिस बेबस हो जाती है.

भीड़ एक और तरह की भी होती है. नेतृत्व की अनुयायी भीड़. यह भीड़ संवेदनशील होती है. इस भीड़ का चेहरा क्रियेटिव होता है.गांधी के दांडी मार्च वाली भीड़ ऐसी ही भीड़ थी. दरअसल ऐसी भीड़ ही लोकतंत्र होती है. ऐसी भीड़ में रचनात्मक ताकत होती है.  जरूरत है कि अब देश की भीड़ को, भीड़ के दोनो चेहरो से परिचित करवाया जाये तभी माब लिंचिंग रुक सकती है. गग्गा शब्द की वही कोमल अनुभूति बने रह सके, गाय से डर न लगने लगे, तोतली जुवान में गग्गा बोलने पर, शेर सुनाई न देने लगे इसके लिये जरूरी है कि हम सुशिक्षित हो कि कोई हमें डिस्ट्रक्टिव भीड़ में बदल न सके.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 211 ☆ श्राद्ध पक्ष के निमित्त ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 211 श्राद्ध पक्ष के निमित्त ?

पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक श्राद्धपक्ष चलता है। इसका भावपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और कर्तव्य का निर्वहन है। व्यवहार पक्ष देखें तो पितरों को  खीर, पूड़ी व मिष्ठान का भोग इसे तृप्तिपर्व का रूप देता है। जगत के रंगमंच के पार्श्व में जा चुकी आत्माओं की तृप्ति के लिए स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को भोज देना लोकातीत एकात्मता है। ऐसी सदाशय व उत्तुंग अलौकिकता सनातन दर्शन में ही संभव है। यूँ भी सनातन परंपरा में प्रेत से  प्रिय का अतिरेक अभिप्रेरित है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने की ऐसी परंपरा वाला श्राद्धपक्ष संभवत: विश्व का एकमात्र अनुष्ठान है।

इस अनुष्ठान के निमित्त प्राय: हम संबंधित तिथि को संबंधित दिवंगत का श्राद्ध कर इति कर लेते हैं। अधिकांशत: सभी अपने घर में पूर्वजों के फोटो लगाते हैं। नियमित रूप से दीया-बाती भी करते हैं।

दैहिक रूप से अपने माता-पिता या पूर्वजों का अंश होने के नाते उनके प्रति श्रद्धावनत होना सहज है। यह भी स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने दिवंगत परिजन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए उनके गुणों का स्मरण करे। प्रश्न है कि क्या हम दिवंगत के गुणों में से किसी एक या दो को आत्मसात कर पाते हैं?

बहुधा सुनने को मिलता है कि मेरी माँ परिश्रमी थी पर मैं बहुत आलसी हूँ।…क्या शेष जीवन यही कहकर बीतेगा या दिवंगत के परिश्रम को अपनाकर उन्हें चैतन्य रखने में अपनी भूमिका निभाई जाएगी?… मेरे पिता समय का पालन करते थे, वह पंक्चुअल थे।…इधर सवारी किसी को दिये समय से आधे घंटे बाद घर से निकलती है। विदेह स्वरूप में पिता की स्मृति को जीवंत रखने के लिए क्या किया? कहा गया है,

यद्यष्टाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो: जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी का अनुसरण करते हैं। भावार्थ है कि अपने पूर्वजों के गुणों को अपनाना, उनके श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

विधि विधान और लोकाचार से पूर्वजों का श्राद्ध करते हुए अपने पूर्वजों के गुणों को आत्मसात करने का संकल्प भी अवश्य लें। पूर्वजों की आत्मा को इससे सच्चा आनंद प्राप्त होगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है। 💥

🕉️ नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #202 ☆ ख़ामोशी एवं आबरू ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ामोशी एवं आबरू। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 202 ☆

☆ ख़ामोशी एवं आबरू 

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, सर्वव्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम् शब्द सर्वव्यापक है, जो अजर, अमर व अविनाशी है। इसलिए दु:ख, कष्ट व पीड़ा में व्यक्ति के मुख से ‘ओंम्, मैं तथा मां ‘ शब्द ही नि:सृत होते हैं। परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का, अपने लहू से सिंचन व भरण-पोषण करती है, जो किसी करिश्मे से कम नहीं है। जन्म के पश्चात् शिशु के मुख से पहला शब्द ओंम, मैं व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता-बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधु ले आती है, ताकि वह भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपने दायित्व का वहन कर सके।

घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… अपने आत्मज के बच्चों को देख पुनः उस अलौकिक सुख को पाना चाहती है और यह बलवती लालसा उसे हर हाल अपने आत्मजों के परिवार के साथ रहने को विवश करती है। वहां रहते हुए वह ख़ामोश रहकर हर आपदा सहन करती रहती है, ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो और कटुता के कारण दिलों में दूरियां न बढ़ जाएं। वह परिवार रूपी माला के सभी मनकों को स्नेह रूपी डोरी में पिरोकर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य व सौहार्द बना रहे। परंतु कई बार यह ख़ामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है। वैसे ख़ामोशी की सार्थकता, सामर्थ्य व प्रभाव- क्षमता से सब परिचित हैं। ख़ामोशी सबकी प्रिय है और वह आबरू को ढक लेती है, जो समय की ज़बरदस्त मांग है। ‘रिश्ते ख़ामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं।’ लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और उसके देहांत के बाद पुत्र के आशियां में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे मौन रहने का पाठ पढ़ाया जाता है; असंख्य आदेश-उपदेश दिए जाते हैं; प्रतिबंध लगाए जाते हैं और हिदायतें भी दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व असामान्य व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और उसके समानाधिकारों की मांग करने पर, उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि ‘वह कुल-दीपक है, जो उन्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा।’ परंंतु तुम्हें तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीखो। ख़ामोशी तुम्हारा श्रृंगार है और तुम्हें ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए ख़ामोश रहना है… नज़रें झुका कर हर हुक्म बजा लाना है तथा उनके आदेशों को वेद-वाक्य समझ हर आदेश की अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के बोझ तले दबी वह नवयौवना, पति के घर की चौखट लांघ उस घर को अपना घर समझ सजाने-संवारने में लग जाती है और सबकी खुशियों के लिए अपने अरमानों का गला घोंट, अपने मन को मार, ख्वाहिशों को दफ़न कर पल-पल जीती, पल-पल मरती है; कभी उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधियों को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह ख़ामोश अर्थात् मौन रहती है; प्रतिकार अथवा विरोध नहीं दर्ज कराती तथा प्रत्येक उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका मन विद्रोह कर उठता है। उस स्थिति में उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को चक्रव्यूह में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती रही, वह उसका कभी था ही नहीं। उसे तो किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए ख़ामोशी का बुर्क़ा अर्थात् आवरण ओढ़े घुटती रहती हैं;  मुखौटा धारण कर खुश रहने का स्वांग रचती हैं। विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं और पति के घर में वे सदा परायी अथवा अजनबी समझी जाती हैं…अपने अस्तित्व को तलाशती, हृदय पर पत्थर रख अमानवीय व्यवहार सहन करती, कभी प्रतिरोध नहीं करती। अन्तत: इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। बचपन से लड़कों की तरह मौज-मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात घर लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन जाता है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगती हैं। सो! प्रतिबंधों व सीमाओं में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं और न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे स्वतंत्रता-पूर्वक अपने ढंग से जीना चाहती हैं। मर्यादा की सीमाओं व दायरे में बंध कर जीवन जीना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत नहीं स्वीकारतीं; न ही घर-परिवार के क़ायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात-बात पर पति व परिवारजनों से व्यर्थ में उलझना, उन्हें भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भीषण परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गया है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी एक छत के नीचे अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंध- सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो संतान को जन्म देकर युवा-पीढ़ी अपने दायित्वों का निर्वहन करना ही नहीं चाहती, क्योंकि आजकल वे सब ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में आस्था व विश्वास रखने लगे हैं और वे भी यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर में सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता अंधी गली में जाकर खुलता है अर्थात् विनाश की ओर जाता है। सो! वे भी ऐसी आधुनिक जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की भयावह कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह व प्रतिक्रिया है– उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

‘शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह व गंभीर हैं।’ इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षा व भावों को उजागर भी नहीं कर पाता। इन असामान्य परिस्थितियों में मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं, जो खाई के रूप में मानव के समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है– संबंध-विच्छेद कर स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब ख़ामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगे, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उनसे मुक्ति पा लेना। जीवन में केवल समस्याएं नहीं हैं, धैर्यपूर्वक सोचिए और संभावनाओं को तलाशने का प्रयास कीजिए। हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है और उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की,

अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उसे उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक दें, क्योंकि आपाधापी भरे युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने- अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझिए, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं।

इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक़ सिखाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना संभव नहीं है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म- सीमित अर्थात् आत्मकेंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता। पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस विषम व असामान्य परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है, ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

ख़ामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। इसलिए समस्या के उपस्थित होने पर क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन-मनन कीजिए…सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए; समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है…जीने की सर्वश्रेष्ठ कला। परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर ही मानव को उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए ख़ामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। ख़ामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि वह हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए, क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना तो मरने के समान है, परंतु देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहनशक्ति बढ़ाएं। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और ख़ामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 53 – देश-परदेश – बची हुई दवाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 53 ☆ देश-परदेश – बची हुई दवाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हम सब अपने आप को स्वास्थ्य रखने के लिए नाना प्रकार की दवाओं का सेवन करते हैं। समय समय पर अस्वस्थ होने पर अंग्रेजी दवाओं का प्रयोग अब दैनिक जीवन का एक भाग हो चुका है। अनेक बार डॉक्टर बदलने या दवा को बदल देने से बहुत सारी दवाइयां शेष रह जाती हैं। प्रायः सभी के घर में बची हुई या शेष रह गई दवाइयों का स्टॉक पड़ा रह जाता है। कुछ समय के अंतराल पर वो निश्चित समयपार हो जाने के कारण अनुपयोगी हो जाती हैं।

इस प्रकार की दवाइयां निज़ी धन की हानि करती है, साथ ही साथ इसको राष्टीय क्षति भी कहा जा सकता है।

एक तरफ आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग दवा को खरीदने में असमर्थ होते हुए ना सिर्फ शारीरिक कष्ट उठाते है, वरना अनेक बार जीवन से भी मुक्त हो जाते हैं।

ये कैसी विडंबना है, एक तरफ दवा बेकार हो रही है, दूसरी तरफ बिना दवा की जिंदगी खोई जा रही है। कुछ शहरों में इन बची हुई दवाओं को जरूरतमंद लोगों के उपयोग की व्यवस्था होती हैं, परंतु जानकारी के अभाव में बहुत सारी दवाइयां अनुपयोगी हो जाती हैं। यदि आपके पास किसी भी संस्था के बारे में पुख्ता जानकारी हो तो समूह में सांझा कर देवें, ताकि उसका सदुपयोग हो सकें।

जब परिवार के किसी सदस्य की बीमारी से मृत्यु हो जाती है, उस समय तो बची हुई बहुत सारी दवाएं अनुपयोगी हो जाती हैं।

हम में से अधिकांश साथी सेवानिवृत हैं, कुछ समय इस प्रकार की गतिविधियों को देकर, समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्तियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए  कर सकते हैं।

आप सभी से आग्रह है, की इस बाबत अपने विचार और सुझाव सांझा करें ताकि उनका प्रभावी उपयोग हो सकें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 165 ⇒ कार निषेध दिवस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कार निषेध दिवस”।)

?अभी अभी # 165 ⇒ कार निषेध दिवस? श्री प्रदीप शर्मा  ?

NO CAR DAY •

आज हमारी स्थिति ऐसी हो गई है कि हम एक दिन बिना प्यार के तो रह सकते हैं, लेकिन बिना कार के नहीं रह सकते। एक समय था जब पैसा या प्यार जैसी फिल्में बनती थी, आज अगर कार और प्यार में से किसी एक को चुनना पड़े, तो इंसान को दस बार सोचना पड़ेगा। हमने तो आजकल, दे दे प्यार दे की तर्ज पर, लोगों को आपस में, दे दे कार दे, कार दे, कार दे, कार दे कहते हुए, कार मांगते भी देखा है।

ट्रैफिक जाम और प्रदूषण का हाल ये देखा कि, एक दिन के लिए कार छोड़ दी मैने। एक समय था, जब हर तरफ आदमी ही आदमी नजर आता था, और आज यह नौबत आ गई कि हर तरफ कार ही कार। हर चौराहे पर बत्तियां बदलती रहती हैं और ट्रैफिक केंचुए की तरह रेंगता रहता हैं। चारों ओर से हॉर्न की कर्कश आवाज यही दर्शाती है कि हमने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है।।

अंततोगत्वा, ये तो होना ही था ! नो व्हीकल जोन की तरह आप इसे नो व्हीकल डे भी कह सकते हैं। लेकिन वाहन बिन सब सून ! बड़ी ज्यादती हो जाती है। वाहन में तो दो पहिया, तीन पहिया, सिटी बस, स्कूल बस, सभी आते हैं। चलिए, इसे कार तक ही सीमित करते हैं। एक दिन बिना कार का। अब आपको, नो कार डे, से ही समझौता करना पड़ेगा। इसके हिंदी में अनुवाद के चक्कर में मत पड़िए, इंडिया भारत हो गया, यही क्या कम है।

आज की स्थिति में आखिर कार क्यूं, जैसा प्रश्न पूछना ही बेमानी है। जो अपने परिवार से करे प्यार, वो कार से कैसे करे इंकार। जब हम दो थे, तो आराम से, आसानी से वेस्पा, लैंब्रेटा, राजदूत और हीरो होंडा मोटर साइकिल से काम चला लेते थे। हमने भी देखे हैं, चल मेरी लूना के दिन।।

फिर हम दो से, हमारे दो हुए। पहिए भी दो से चार हुए। बाल बच्चों वाला घर, कार का क्या, बेचारी घर के बाहर ही सो जाती है रात को। ठंड, गर्मी, बरसात, कोई शिकायत नहीं, बस सुबह कपड़ा मार दो, चमक जाती है। इंसान होती तो चाय पानी करवा देते, पर उसकी खुराक तो डीजल पेट्रोल है। सबको पेट काट काटकर पालना पड़ता है।

क्या जिनके पास कार नहीं, उनका परिवार नहीं, या वे बेकार हैं। अपनी अपनी हैसियत है, जरूरत है, मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, हर महीने कार की किश्त चुकाते हैं, तब कार का शौक पालते हैं।

अपना अपना नसीब है। आप क्यों हमसे जलते हैं।।

नो कार डे को आप बेकार डे नहीं कह सकते। हफ्ते पंद्रह दिन में, कुछ लोग उपवास रखते हैं, अन्न की जगह कुछ और खा लेते हैं। एक पंथ दो काज ! थोड़ा धरम करम, थोड़ा व्रत उपवास, पिज़्ज़ा बर्गर पास्ता की छुट्टी। क्या कहते हैं उसे, संयम। कुछ लोगों से तो कंट्रोल ही नहीं होता।

महीने पंद्रह दिन में अगर कार से भी परहेज किया जाए तो कोई बुरा नहीं।

अन्य साधन उपलब्ध तो हैं ही। बस अगर सामूहिक इच्छा शक्ति हो, तो हमारी बहुत ही समस्याओं का निदान तो हम ही कर लें।

जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, आपके एक दिन कार नहीं चलाने से भी बहुत फर्क पड़ सकता है।

बिना कार कहें, बहिष्कार कहें, आप चाहें तो इसे नो कार डे भी कहें, सब चलता है।।

बढ़ती कारों की संख्या आप रोक नहीं सकते। नए वाहनों के क्रय पर भी आप बंदिश भी नहीं लगा सकते। गैरेज का पता नहीं, कार सड़कों पर रखी जा रही हैं। कार पार्किंग की समस्या भी आज की सबसे बड़ी समस्या है।

जहां सामान खरीदना है, वहीं कार खड़ी कर दी। दो कदम पैदल चल नहीं सकते। पूरी सड़कें गलत पार्किंग से भरी रहती हैं, ट्रैफिक तो बाधित होता ही है। प्रशासन चालान काट काट कर हार गया। भगवान भरोसे शहर की ट्रैफिक व्यवस्था है। फिर भी हम खुश हैं, क्योंकि हमारे पास तो कोई कार ही नहीं है।

एवरी डे इज अ, नो कार डे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ त्या दोघी… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ त्या दोघी… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

जीवांरंग

         त्या दोघी… भाग २  लेखक – प्रदिप केळूसकर  –

( मागील भागात आपण पाहिले – – ‘‘पण मी कोल्हापूरातली नाही ना? मी मुंबईतल्या अभय कानविंदेंची मुलगी आहे. माझा बाबा बघा कसा फॉरवर्ड विचाराचा आहे. नाहीतर तुम्ही ….’’ असं म्हणून तेजश्रीने फोन ठेवला. सुलभाने तेजश्रीला पुन्हा फोन लावायचा प्रयत्न केला पण तिने फोन उचललाच नाही. आता इथून पुढे )

आज काही काम नव्हतं म्हणून सुलभा घरातच थांबली. तिने चादरी, बेडशीटस् धुवायला काढल्या. दहा वाजायला आले. दारावरची बेल वाजली म्हणून दार उघडलं तर बाहेर स्मिता.

‘‘अगं स्मितू ! फोन न करता आलीस ? नशिब मी आज घरी होते. ये आत.’’

‘‘होय  फोन करायचं पण विसरले. हल्ली विसरायला होतं गं. वय झालं का आपलं?’’

‘अगं वय कसलं, अजून पन्नाशी नाही आली.’’

‘‘मग अस का होत? काल भाजी घ्यायला विसरले, अभयचे कपडे इस्त्रीला द्यायचे विसरले. त्यावरुन सकाळी सकाळी अभय चिडला. घरची कामे जमत नसतील तर नोकरी सोड म्हणाला.’

‘‘आणि काय करु म्हणाव? टाळ घेऊन भजन करावं का ? स्मितू तू फार साधी मुलगी गं. त्याचा फायदा घेतो हा अभय आणि त्याचे पाहून तेजू. जगात एवढं साध राहून चालत नाही बाई. माती मऊ दिसली की जो तो खणू पाहतो. आता तुझा अभय . नोकरी सोडून दे म्हणाला, आपण नोकरी आधीच सोडली. मग घर खर्च कसा करणार ? मोठा सावकार लागून गेला तो. बेफिकीर माणूस. स्मितू तुला वाईट वाटेल म्हणून जास्त बोलत नाही, नाहीतर….’’

‘‘बोलून काही उपयोग आहे का सुलु? ’’

‘‘आज बँकेत नाही गेलीस’ ?’’

माझं कशात लक्ष लागत नाही गं…तेजूशी बोललीस काय ?’’

‘‘बोलले बाई, ती मला काय सरळ उत्तर देते? त्याच्याशी रिलेशन मध्ये राहणार म्हणे. मग वाटलं तर लग्न करीन म्हणते. मी तुमच्यासारखी मुळमुळीत नाही म्हणाली. अभय कानविंदेसारख्या स्मार्ट बापाची मुलगी आहे म्हणे.’

हे असं रिलेशन वगैरे आपण याचा विचार तरी केलेला का गं सुलु ?’’

‘‘आपण जुन्या संस्कारातल्या मुली गं…. आपले नवरे राम आणि आम्ही सिता. पण आपणच सितेची भूमिका निभावतो म्हणून अभय सारख्यांच फावतं.

‘जाऊ दे सुलु ! मला कंटाळा आला आहे तोच तोच विषय बोलून. मी आज मुद्दाम आले होते. माझ्या इन्शुरन्स पॉलिसीज किती रकमेच्या आहेत ते पहायला.

आज काय अचानक ? तरी पण तू म्हणते आहेस तर पाहू. सुलभाने कॉम्प्युटर उघडला आणि स्मिताच्या सर्व पॉलिसीज, हप्ते चेक केले.

‘‘एकंदर एक कोटी पंचेचाळीस लाखाच्या पॉलिसीज आहेत ग स्मितू.’’

‘‘आणि नॉमिनीज वगैरे, केवायसी ?’’

‘‘नॉमिनीज बहुतेक अभय कानविंदे, काहीवर तेजश्री कानविंदे. केवायसी अपटूडेट केलेल्या आहेत.’’

‘आणि मॅच्युअल फंड?’ 

‘‘तीन फंड हाऊस मध्ये तुझी एसआयपी सुरु आहे. त्याची आजची किंमत अंदाजे सोळा लाख आहे.’’

‘आणि शेअर्स ?’

‘‘तुझ्या शेअर्सची आजची किंमत सहा लाख पन्नास हजार आहे. पण हे सर्व आजच का पाहते आहेस तू स्मितू ?’’

‘‘तसं नाही गं. नवरा म्हणतो ना नोकरी सोड म्हणून समजा नोकरी सोडली तर किती रक्कम मिळेल याचा अंदाज घेत होते.’’

पण तुझ्या या इन्शुरन्स पॉलिसीज चालू आहेत बरं का ? एवढ्यात त्याचे पैसे मिळणार नाहीत किंवा एकदम कमी मिळतील. हा तुझ्या पश्चात वारसांना आत्तासुधा मिळतील.’’

‘‘झालं तुझे इन्शुरन्स फंड वगैरे? किती दिवसात तुझ्या केसांना तेल घातलं नाही. सुलभाने स्मिताला पुढे बसवलं आणि ती तिच्या केसांना मालीश करु लागली.’’

‘‘सुलू केव्हा केव्हा मला वाटतं आपण लग्न केलेल्या मुली फक्त आपला नवरा, मुलं यांचीच काळजी घेतो. पण आपली माहेरची माणसं आई, बाबा, भाऊ, वहिनी, भाचरं यांचा पण विचार करायला हवां. आपली आई नऊ महिने पोटात वाढविते. आई-बाबा किती प्रेमाने संगोपन करतात. भाऊ प्रेम देतो, संरक्षण देतो, पण आपण जेव्हा अर्थार्जन करतो तेव्हा आपला संसार पाहतो. माहेरच्या मंडळींना गरज असेल तर आपण त्यांना मदत करायला नको ?’

‘‘करायला हवीच बाई ! तू आता ही नोकरी करतेस, तू पण तुझ्या भावाचा श्यामूचा काहीतरी विचार कर. ’’

तेल घालून केस विंचरल्यावर सुलभाने गरम पाणी काढले आणि स्मिताला आंघोळ करायला सांगितली. आंघोळ झाल्यावर दोघी जेवायला बसल्या. सुलभाने तिच्याशी कोल्हापूरातील मैत्रिणींच्या आठवणी जागवल्या. दामले सरांची नक्कल केली. पाटील बाईंचे विनोद सांगितले. स्मिता पण हसली. दोघींनीही झटपट ओटा, भांडी आवरली आणि बेडरुममध्ये आल्या. सुलभा म्हणाली, स्मितू थोडी झोप आता. पूर्वी कोल्हापूरात असताना मी तुला थोपटायचे ना ? तशी आज थोपटते आणि सुलभा हळू आवाजात गाणं म्हणू लागली आणि स्मिताला झोप लागली. सुलभा पण झोपली. तासा दिडतासाने स्मिताला जाग आली.

‘‘सुले किती दिवसात अशी गाढ झोपले नव्हते गं !’’

‘‘मी थोपटलं ना स्मितू राणीला म्हणून गाढ झोप बरं का ’’

‘‘होय बाई सुले, तू म्हणजे माझी आईच आहेस. चल निघते आता.’’

‘‘जा ग सावकाशीनं दुपारची वालाची उसळ आहे ती देऊ का डब्यातून ?’’

‘‘दे, तेजुला फार आवडते वालाची उसळ.’’ सुलभा स्वयंपाक घरात डबा भरायला गेली तो पर्यंत स्मिताने फोनवर कुणाचे फोन, मेसेज आलेत का हे पाहू लागली. फोनवरचे मेसेज वाचता वाचता एकदम रडू लागली.

‘‘काय हे ? आता काय करायचं मी ?’’

सुलभा बाहेर आली तर स्मिता रडते आहे.

‘‘अग काय झालं?’’

‘‘वाच हा तेजूचा मेसेज’’ स्मिताने रडत रडत मोबाईल सुलभाला दाखवला. सुलभाने मेसेज वाचला, तेजश्रीने लिहिलं होतं –

‘‘मी आज रात्री घरी येत नाही, जहाँगिर बरोबर बाहेर जात आहे. ’’

‘‘आता काय करायचं गं सुले? हे आपले संस्कार का ? मला नाही सहन होत आता.’’

‘‘आता काय करणार बाई, मनाची तयारी करायला हवी. काळच तसा आलाय.’

सिनेमातल्या आणि मालिकेतल्या नट्या काय काय करतात ते या मुली पाहतात. ते आदर्श त्यांचे. तू शांत हो पाहू.’

कितीतरी वेळ स्मिता रडत राहिली आणि सुलभा तिला थोपटत राहिली. संध्याकाळ होत आली तशी स्मिता उठली, तिनं तोंड धुतलं आणि ‘‘येते गं सुले’’ असं म्हणत तिने पायात चप्पल घातले.’’ सांभाळून गं स्मिते, मी येऊ का घरापर्यंत?’’

‘‘नको बाई, किती दिवस माझ्यासाठी रडणार तू. शेवटी मलाच तोंड द्यायला हवे. येते. अस म्हणत स्मिता बाहेर पडली . सुलभा गॅलरीत उभी राहिली. लांब पर्यंत चालणारी स्मिता तिला दिसत राहिली. मग हळू हळू गर्दीत गडप झाली.

विषण्ण मनाने सुलभा घरात आली. तिचे मन काळजीने आणि दुखःने भरुन गेले होते. तिला स्मितूची काळजी वाटत होती. आपल्या एकुलत्या एक मुलीने आपल्या पेक्षा दहा वर्षांनी मोठ्या पुरुषाबरोबर रात्रौ बाहेर जाणे आणि तसा मेसेज आईला करणे ह किती दुखःचे आणि त्रासाचे. सुलभाच्या मनात आलं. काळ किती बदललाय कोल्हापूरला असताना आम्ही वर्गातल्या मुली, शेजारच्या मुलांबरोबर बोलायचोसुद्धा नाही. आता गळ्यात गळे घालून सगळीकडे मुल-मुली फिरतात. काळ बदललाय.

तिने कन्येला विनयाला फोन केला. तिला आत्ता स्मितू मावशी येऊन गेल्याचे सांगितले. हॉलमध्ये येऊन तिने टिव्ही लावला आणि कार्यक्रम पाहत राहीली. टिव्ही पाहता पाहता तिचे डोळे मिटू लागले. हॉलमध्ये कोचवर कधी ती झोपली हे तिलाच कळले नाही. दरवाजाच्या बेल वाजत राहिली त्याने तिला जाग आली. तिने घड्यात पाहिले साडेसात वाजत होते. यावेळेस कोण आले ? असे पुटपुटत तिने टिव्ही बंद केला आणि दरवाजा उघडला. बाहेर राजन होता.

‘‘अरे, आज एवढ्या लवकर ? मेनन सध्या तुमच्यावर खूष दिसतो.’’ ती हसत हसत म्हणाली.     ‘‘नाही, नाही मी मुद्दाम आलो. स्मिताचा अ‍ॅक्सिडेंट झालाय गोरेगांवला, एसव्ही रोडवर. ’’

‘‘काय !’’ सुलभा किंचाळली.

‘‘आत्ता ती पाच वाजता येथून घरी गेली.’’

‘‘इथे आली होती काय ? तिच्या भावाचा कोल्हापूरहून मला फोन आला. रस्ता क्रास करताना, म्हणजे हिचीच चूक सिग्नल नसताना ही क्रॉस करत होती म्हणे, टॅक्सीने उडवले’’

‘‘पण आता कसं आहे ?’’ सुलभा किंचाळत बोलली.

राजन चाचरत चाचरत तिची नजर चुकवत म्हणाला,

‘‘श्यामू म्हणाला बरं आहे म्हणून, पण डोक्याला मार लागलाय. अ‍ॅडमिट केलंय, आपण निघायला हवं.’’ सुलभा रडायलाच लागली. राजनने तिचा ड्रेस आणून दिला.

‘‘चल चल घाल हा ड्रेस, मी उबर मागवतो.’’

सुलभाने रडत रडत ड्रेस बदलला आणि खाली उभ्या असलेल्या उबर मध्ये दोघे बसले. संध्याकाळच्या सुमारास मुंबईतील रस्त्यावर गर्दी त्यामुळे उबर हळूहळू चालत होती. शेवटी रात्रौ नऊ वाजण्याच्या सुमारास उबर भगवती हॉस्पिटलमध्ये पोहोचली. नेहमीप्रमाणे हॉस्पिटलमध्ये गर्दी. राजनने सुलभाच्या हाताला धरुन तिला अ‍ॅक्सिडेंट विभागाकडे नेले. राजन व सुलभा आत जाताच त्याठिकाणी आधीपासून आलेली स्मिताची बँकेतील मंडळी तसेच बिल्डींगमधील मंडळी पुढे आली. स्मिताची बँकेतील जवळची मैत्रिण कल्पना रडत रडत पुढे आली. सुलभाच्या गळ्यात पडून – ‘‘गेली ग स्मिता आपली !’’ म्हणून आक्रोश करु लागली. तिच्या सोबतीच्या अनेक स्त्रियांनी पण हुंदके देत रडायला सुरुवात केली. राजनला स्मिताच्या निधनाची कल्पना होतीच तरी तो भांबावून गेला. आता स्मिताला कसे सांभाळावे याचा तो विचार करत होता पण सुलभा शांत होती. कदाचित ती बधीर झाली असावी. हा आक्रोश तिच्या मेंदूपर्यंत पोहोचत नव्हता. कुणीतरी स्मिताचा मृतदेह बाजूच्या पोलीसांच्या खोलीत असल्याचे राजनला सांगितले. राजन सुलभाच्या हाताला धरून त्या खोलीत गेला. संपूर्ण झाकलेला तो देह आणि बाजूला बसलेले अभय, तेजश्रीला पाहून सुलभा ‘‘स्मिते’’ म्हणून जोरात किंचाळली आणि बेशुध्द झाली.

क्रमश: – २

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #208 – 94 – “जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े…”)

? ग़ज़ल # 94 – “जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

शायरों ने कहा दिलों में मुहब्बत होती है,

हमने कहा जनाब इंसानी क़ुदरत होती है।

आती है जवानी जिस्म परवान चढ़ता है,

हसीन अन्दाज़ उनकी ज़रूरत होती है।

राह में कोई मेहरवान कद्रदान मिलता है,

बहकना-बहकाना मजबूर फ़ितरत होती है। 

जिंस बाज़ार में खुलते हैं सफ़े दर सफ़े,

अरमानों की खुलेआम बग़ावत होती है।

मुहब्बतज़दा दिलों में झाँकता है ‘आतिश’

आशिक़ी फ़रमाना सबकी क़ुदरत होती है।

दिलों में मुहब्बत का खेल शुरू होता है,

ज़हन में ग़ुलाम परस्त हसरत होती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈