हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆
श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दम मारो दम”।)
अभी अभी # 163 ⇒ दम मारो दम… श्री प्रदीप शर्मा
सन् १९७१ में सदाबहार अभिनेता देवानंद ने एक फिल्म बनाई थी, हरे रामा हरे कृष्णा, जो युवा पीढ़ी में व्याप्त नशे की बुरी लत पर आधारित थी। पश्चिम के अंधानुकरण को लेकर उधर भारत कुमार मनोज कुमार भी उपकार फिल्म की सफलता के बाद पूरब और पश्चिम जैसी देशभक्ति से युक्त फिल्म लेकर पहले ही बाजार में उतर चुके थे।
धर्म तो अपने आप में नशा है ही, लेकिन जब धर्म और नशा दोनों साथ साथ हों, तो यह गजब की कॉकटेल साबित होती है। अपनी खोई हुई बहन को ढूंढते ढूंढते नायक देवानंद काठमांडू पहुंच जाता है, जहां एक हिप्पियों के झुंड में उसे अपनी बहन, नशे की हालत में, दम मारो दम, गाती हुई मिल जाती है। कितना लोकप्रिय गीत था यह उषा उथप और आशा भोंसले की आवाज में ;
दम मारो दम
मिट जाए गम।
बोलो सुबहो शाम
हरे कृष्ण हरे राम।।
तब हमारे भी वे कॉलेज के ही दिन थे। सिगरेट, शराब, तो खैर आम थी, लेकिन गांजा, चरस, एलएसडी और मेंड्रेक्स की आदत भी युवा पीढ़ी में लग चुकी थी। उधर आचार्य रजनीश भगवान बनकर युवा पीढ़ी को पुणे में बैठकर समाधि लगवा रहे थे और इधर हमारे हीरो देवानंद अपनी फिल्म के माध्यम से युवा पीढ़ी से अपील कर रहे थे ;
देखो दीवानों, तुम ये काम ना करो
राम का नाम बदनाम ना करो।
आज अगर देवानंद होते तो राम भक्त उनसे जरूर पूछते, भैया, क्या राम का नाम भी कभी बदनाम हुआ है। क्या आपने सुना नहीं ;
सबसे निराली महिमा है भाई,
दो अक्षर के नाम की,
जय बोलो सियावर राम की। जय श्रीराम !
लेकिन फिल्म, फिल्म होती है, और दर्शक दर्शक ! यहां क्या कब बिक जाए, और कब किसका दीवाला निकल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। आज इन फिल्मों को बने आधी सदी गुजर गई, धर्म कितना फल फूल गया, हर तरफ आज राम का ही नाम है, अयोध्या में भी भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य चल ही रहा है, लेकिन क्या वाकई आज हमारा नशा हिरन हो गया है।
और भी नशे हैं गालिब, शराब के अलावा !
राम नाम और देशभक्ति का नशा तो कतई बुरा नहीं, लेकिन बाकी नशों की फेहरिस्त भी कम नहीं।
सरकार नशाबंदी कर सकती है, नशामुक्ति केंद्र स्थापित कर सकती है, सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान और मद्यपान प्रतिबंधित तो है ही। लेकिन शासकीय शराब की दुकानें तो अलग ही कहानी कहती नजर आती है। ऐसे में जन जागरण भी क्या कर लेगा।।
आज देश में इतनी समस्याएं हैं, इतनी चुनौतियां हैं, इस बीच यह नशे की समस्या इतनी बड़ी भी नहीं कि इसके लिए कोई आंदोलन खड़ा कर दिया जाए, खासकर उस परिस्थिति में जहां सबसे बड़ा नशा, सियासत का नशा ही सबसे बड़ी समस्या हो।
समस्या, समस्या होती है, और उसका हल, समय और परिस्थिति के अनुसार ही संभव होता है। आज सियासत का नशा देवासुर संग्राम का रूप ले चुका है, जो लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है। नशे में चूर इस संग्राम में दुर्भाग्य से, हम आप भी शामिल हैं।।
नशे के बारे में जितना अच्छा नशे में बोला जाता है, उतना होश में नहीं। याद कीजिए १९६४ की फिल्म लीडर का यह यादगार गीत;
मुझे दुनिया वालों
शराबी ना समझो
मैं पीता नहीं हूं
पिलाई गई है।
नशे में हूं लेकिन
मुझे ये खबर है
कि इस जिंदगी में
सभी पी रहे हैं।।
आप पीयें ना पीयें
बोलें सुबहो शाम
हरे कृष्ण हरे राम ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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