(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “द्युति की यह अनिंद्या…”)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – या क्रियावान..
बंजर भूमि में उत्पादकता विकसित करने पर सेमिनार हुए, चर्चाएँ हुईं। जिस भूमि पर खेती की जानी थी, तंबू लगाकर वहाँ कैम्प फायर और ‘अ नाइट इन टैंट’ का लुत्फ लिया गया। बड़ी राशि खर्च कर विशेषज्ञों से रिपोर्ट बनवायी गयी। फिर उसकी समीक्षा और नये साधन जुटाने के लिए समिति बनी। फिर उपसमितियों का दौर चलता रहा।
उधर केंचुओं का समूह, उसी भूमि के गर्भ में उतरकर एक हिस्से को उपजाऊ करने के प्रयासों में दिन-रात जुटा रहा। उस हिस्से पर आज लहलहाती फसल खड़ी है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए
अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डबल-बेड”।)
अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड… श्री प्रदीप शर्मा
आदमी शादीशुदा है या कुंवारा, यह उसके बेड से पता चल जाता है। अगर सिंगल है, तो सिंगल बेड, अगर डबल हो तो डबल- बेड! क्या डबल से अधिक का भी कोई प्रावधान है हमारे यहाँ!
हमारे कमरे-नुमा घर में बेड की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। परिवार बड़ा था, घर छोटा! लाइन से बिस्तर लगते थे। बड़ों-बुजुर्गों के लिए एक खाट की व्यवस्था होती थी, जो गर्मी और ठण्ड में घर से बाहर पड़ी रहती थी। घर में प्रवेश केवल निवार के पलंग का होता था। परिवार में पहला लकड़ी का पलंग बहन की शादी के वक्त बना था, जो बहन के ही साथ दहेज में ससुराल चला गया। ।
कक्षा पाँच तक हमारे स्कूल में अंग्रेज़ी ज्ञान निषिद्ध था! Bad बेड और boy बॉय के अलावा अंग्रेज़ी के सब अक्षर काले ही नज़र आते थे। अक्षर ज्ञान में जब bed बेड पढ़ा तो उसका अर्थ भी बिस्तर ही बताया गया, पलंग नहीं।
घर में जब पहला जर्मन स्टील का बड़ा बेड आया, तब भी वह पलंग ही कहलाया, क्योंकि उस बेचारे के लिए कोई बेड-रूम उपलब्ध नहीं था। एक लकड़ी के फ्रेम-नुमा स्थान को टिन के पतरों से ढँककर बनाये स्थान में वह पलंग शोभायमान हुआ और वही हमारे परिवार का ड्राइंग रूम, लिविंग रूम और बेड-रूम कहलाया। पलंग पिताजी के लिए विशेष रूप से बड़े भाई साहब ने बनवाया था, जिस पर रात में मच्छरदानी तन जाती थी। एक पालतू बिल्ली के अलावा हमें भी बारी बारी से उस पलंग पर सोने का सुख प्राप्त होता था। आज न वह घर है, न पलंग, और न ही पूज्य पिताजी! लेकिन आज, 40 वर्ष बाद भी सपने में वही घर, वही पलंग, और पिताजी नज़र आ ही जाते हैं। ।
आज जिसे हम बेड-रूम कहते हैं, उसे पहले शयन-कक्ष की संज्ञा दी जाती थी। कितना सात्विक और शालीन शब्द है, शयन-कक्ष, मानो पूजा-घर हो! और बेड-रूम ? नाम से ही खयालों में खलबली मच जाती है। आप किसी के घर में ताक-झाँक कर लें, चलेगा। लेकिन किसी के बेडरूम में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है। बेड रूम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जो काम आज़ादी से कर सकता है, वही काम अगर वह खुले में करे, तो अशोभनीय हो जाता है।
आदमी जब नया मकान बनाता है, तब सबको शान से किचन के साथ अपना बेडरूम और अटैच बाथ बताना भी नहीं भूलता। ज़मीन से फ़्लैट में पहुँचते इंसान को आजकल सिंगल और डबल BHK यानी बेड-हॉल-किचन से ही संतोष करना पड़ता है। ।
आजकल के संपन्न परिवारों में व्यक्तिगत बेडरूम के अलावा एक मास्टर बैडरूम भी होता है जिस पर परिवार के सभी सदस्य बेड-टी के साथ ब्रेकफास्ट टीवी का भी आनंद लेते है, महिलाएँ दोपहर में सास, बहू और साजिश में व्यस्त हो जाती हैं, और रात का डिनर भी सनसनी के साथ ही होता है। बाद में यह मास्टर बैडरूम बच्चों के हवाले कर दिया जाता है और लोग अपने अपने बेडरूम में गुड नाईट के साथ समा जाते हैं।
नींद किसी सिंगल अथवा डबल-बेड की मोहताज़ नहीं! गद्दा कुर्ल-ऑन का हो, या स्लीप-वेल का, कमरे में भले ही ए सी लगा हो, लोग रात-भर करवटें बदलते रहते हैं, ढेरों स्लीपिंग पिल्स भी खा लेते हैं, लेकिन तनाव है कि रात को भी चैन की नींद सोने नहीं देता। वहीं कुछ लोग इतने निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं कि जब गहरी नींद आती है तो उन्हें यह भी होश नहीं रहता, वे कुंआरे हैं या शादीशुदा। उनका बेड सिंगल है या डबल। ऐसे घोड़े बेचकर सोने वालों की धर्मपत्नियों को भी मज़बूरी में ही सही, धार्मिक होना ही पड़ता है। ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ता और प्यार“।)
अभी अभी # 54 ⇒ रिश्ता और प्यार… श्री प्रदीप शर्मा
क्या प्यार रिश्ता देखकर किया जाता है, क्या जहां रिश्ता नहीं होता, वहां प्यार नहीं होता! क्या प्यार को कोई नाम देना जरूरी है, क्या प्यार को केवल प्यार ही नहीं रहने दिया जा सकता। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं रिश्ते और प्यार। लेकिन यार के सिक्के में दोनों तरफ बेशुमार प्यार ही प्यार भरा रहता है।
इंसान अकेला पैदा जरूर होता है, लेकिन कभी अकेला रह नहीं पाता। वह जन्म से ही रिश्तों की कमाई करता चला जाता है। रिश्ते बढ़ते चले जाते हैं, प्यार परवान चढ़ा करता है। कितना प्यारा बच्चा है, किसका है। ।
रिश्ते हमें जोड़ते हैं, प्यार भी हमें जोड़ता है। जब तक रिश्तों में स्वार्थ और खुदगर्जी नहीं आती, प्यार भी कायम रहता है। चोली दामन का साथ नजर आता है दोनों में। लेकिन जब रिश्ते टूटते हैं, प्यार को भी चोट लगती है।
लोग प्यार में भी धोखा खाते हैं और रिश्ते भी बनते बिगड़ते रहते हैं। अचानक ऐसा क्या हो जाता है जो मलंग को यह कहना पड़ता है ;
कसमें वादे प्यार वफा
सब बातें हैं, बातों का क्या।
कोई किसी का नहीं
ये झूठे, वादे हैं, वादों का क्या। ।
क्यों ऐसे वक्त हमें जगजीत यह कहते हुए नजर आ जाते हैं ;
रिश्ता क्या है तेरा मेरा
मैं हूं शब और तू है सवेरा
रिश्तों में दरार आई
बेटा ना रहा बेटा
भाई ना रहा भाई। ।
कुछ रिश्ते हमारे बीच ऐसे होते हैं, जिन्हें हम कोई नाम नही दे सकते, लेकिन उनका अहसास हमें निरंतर होता रहता है। हम एक फूल को खिलते देखते हैं, किसी पक्षी को दाना चुगते देखते हैं, किसी अबोध बालक को किलकारी मारते देखते हैं, आसमान में बादलों की छटा देखते हैं, झरनों की कलकल और पक्षियों के कलरव हमें एक ऐसे अनासक्त जगत में ले जाते हैं, जहां सभी सांसारिक नाते रिश्ते गौण हो जाते हैं और मन में केवल यही विचार आता है ;
तेरे मेरे बीच में
कैसा है ये बंधन अनजाना
मैने नहीं जाना, तूने नहीं जाना …
अब आप इसे प्रकृति प्रेम कहें अथवा ईश्वरीय प्रेम, रिश्ता कहें या बंधन, लेकिन सिर्फ हम ही नहीं पूरी कायनात हमारे साथ यह पंक्ति दोहराती नजर आती है ;
☆ रानपाखरू – भाग २ – लेखिका – डॉ. क्षमा शेलार ☆ श्रीमती मीनाक्षी सरदेसाई ☆
(मागील; भागात आपण पहिले – “आता तू म्हनशील..मग या वर्सालाच का घाट घातला? तर बयो त्याचं असंय..सांजसकाळ तू लगीन करून दुसऱ्याच्या घरला जाशीन. उद्याला तुझ्या सासूनं म्हनाया नको, का ही पोर बिनआईची म्हनून हिला कुरडया येती नाईत.तिच्या आतीनं येवढंबी शिकवलं नाई..”)
बोलता बोलता आतीचं हुरदं दाटून आलं. आता इथून पुढे)
संगी खाली बघत गहू खालवर करीत उपसत व्हती . आतीनं नीट केलेल्या गव्हाचं पानी बदलीत व्हती .जरा ईळ गव्हाची वली रास रांजनात सांडन्याचा आवाज,पान्याचा चुबूक चुबूक आवाज येत राह्यला.समजूतीचं पानी गव्हात मुरत व्हतं,अवखळ नादीक असं काई निथळून जात व्हतं.
मध्यान्हीला गुंजाळाच्या तात्यानं फटफटीवर जाता जाता पारावर बसलेल्या मामांना हाळी दिली.मामांबरोबरची सगळी माणसं वळू वळू पाह्या लागली.
मामांनी घरी आल्या आल्या ही बातमी आतीला सांगातली.आती खुश तर झाली पण ‘कसं व्हैल? काय व्हैल? समदं बैजवार झालं म्हंजे बरं..’ असा तिला काळजीकाटा लागला. कायतरी आठवल्यासारखं करीत आती म्हनली,
संगीच्या केसात माळलेल्या गजऱ्याची टवटवी तिच्या चेहऱ्यावानीच कोमावली व्हती.आतीनं एकदम विचारलं,
“यंदाच्या ऐतवारीच म्हनले व्हते ना? तात्यानं नीट निरोप दिला ना? तुमी परासलं का नाई नीट?”
” हा मंग! पाडव्यानंतरचाच ऐतवार..मी चांगलं ठाकूनठोकून इचारलं की तात्याला”
“आस्सं! पाडव्यानंतरचा ऐतवार हाच ना गं पोरीओ?”
“व्हय गं मावशे! हाच ऐतवार..येतीन वली.नको तकतक करू तू.उन्हामूळं थांबत थांबत येत असतीन.” जोडीदारीन म्हनली.
थांबतीन कशाला? मोठे बागायतदार हाईत.चारचाकी हाये घरची…
…मरूंदे!! पावनी येतीन तवा येतीन.तवर घोट घोट च्या तरी घेऊ पोरीओ”
आतीनं आमटीचं भगूनं औलावर ठिवलं आन चुलीवर चहाचं आधन टाकलं. वट्यावरच्या तुळशीपासल्या गवत्याची दोन पानं चुरडून आधनात टाकली.च्या ला कढ आला नाई कुडं तोच मामांची हाळी आली.आतीनं पुढल्या दारातून पायलं तर मामा छातीला येक हात लावीत पळतच आतमंदी आले,
“अगं!! पावनी आलीत बर्का!!”
संगीच्या काळजातून लक्कन गोळा सरकून गेला.छाती धाडकनी धडकत व्हती. आतीनं त्याच च्या त पानी वाढीवलं.पटकनी पदर सावरीत भरला तांब्या मामांकडे दिला. मामांनी मोठ्यांदी हसत पावन्यांना ‘रामराम,श्यामश्याम’ केलं. महिपतरावाशी वळख व्हतीच.बाकीची पावनीबी मोकळंढाकळं बोलत व्हती. जोडीदारीन खिडकीच्या फटीतून समदं लक्ष देऊन बघत व्हती.पोराचे हावभाव बारकाईने बघत ती खुसफूसली,
“संगे! पोरगा लय चिकना हाय बघ.आक्षी कपिल देव सारखा”.आती जिवाचा कान करून बैठकीच्या खोलीतली बोलनी ऐकत व्हती.तिचं लक्ष नाई आसं पाहून जोडीदारनीनं पटकनी संगीलाबी खिडकीपाशी बोलवलं.तिनं खिडकीच्या फटीतून दिसनाऱ्या चेहऱ्याकडे पाह्यलं आन तिच्या काळजात लकलक व्हायला लागलं. तरनाताठा, रूबाबदार, येक बारकं लिंबू लपल येवढा भरघोस मिशीचा आकडा, घाटदार दंडावर तटतटलेला काळ्या धाग्यातला ताईत आन या समद्या पैलवानी बाजाला ठिगळावानी दिसनारं बुजरं हसू.संगीनं त्या चेहऱ्यावर तिच्याबी नकळत जीवाची कुरवंडी करून टाकली.नजर आपोआपच खाली झुकली.बोटं पदराशी चाळा करू लागली.काळजाचं रानपाखरू कवाच त्याच्या खांद्यावर जाऊन बसलं व्हतं. जोडीदारीन कायतरी आंबटचिंबट बोलली. संगीनं डोळे मोठे केले.लाजनारी संगी आक्षी जिवतीवानी दिसत व्हती.
तितक्यात ‘पोरीला बोलवा’ असा पुकारा झाला.आती पदराची सळसळ करीत आत वळली. संगीच्या हातून च्या पाठवला गेला.तिची लांबसडक बोटं लाजेनं थरथरत व्हती. कपबशीबी कापरं भरलं. मनात गोड हुरहूर सुरू झाली व्हती. सपनांची पाखरं गिर्र गिर्र गिरक्या घेत होती.महिपतरावानं आन दुसऱ्या येका हुलबावऱ्या पावन्यानं काय काय प्रश्न इचारले ह्ये आता तिच्या ध्यानातबी नवतं.
ती आत आल्यावर लगेचच मामांनी पावन्यांना न्याहारीचं ईचारलं.हुलबावरा पावना भसकनी म्हनला,
“अवो नाई नाई.येतांना त्या शिंदेसायबांकडं बुंदीलाडूची न्याहारी करून आलो आम्ही.म्हनून तर उशीर झाला इकडं यायला. त्यांच्याबी दोन पोरी लग्नाला आल्यात ना!”
महिपतरावानी पावन्याला कोपर ढोसून इशारा केला आन तो सोत्ता मोठ्यानं म्हनला,
“अवो शिंदेसायेब सहजावारी रस्त्यावर भेटलं. म्हने चला च्या घेऊ एक कप..आता येवढ्या मोठ्या मानसाला नाई म्हंता नाई येत ना..मग गेलो जरायेळ..नाईतर इकडंच यायला निघालो व्हतो.” त्यानी इषय हुशारीनी बदलला. हुलबावरा वरमून गप्प बसला व्हता.
संगीच्या मनातली पाखरं चिडीचूप झाली.आतीबी ईचार करू लागली,
“म्हंजे हा पावना आधीच दोन पोरी पाहून आलाय व्हय?शिंदेसाह्येब पोरीच्या वजनाइतकं म्हनलं तरी सोनं देईल खुशाल.महिपत्या वंगाळच शेवटी.पैशापुडं नांगी टाकली आसंन त्यानं.मोठ्याचीच लेक करायची व्हती तर आलाच कशाला इथं? उगाच पहाटपासून आदबाया लावलंय.”
पावनी आलीच हाईत तर साजरी करायची म्हनून जेवनंखावनं चालली खरी पन त्याच्यात राम नवता. आग्रह केल्यावर पावनी नकं म्हनू लागली तवा आती बोललीच,
पावनी गेल्यावर समदी थकून बसली.आतीच्या डोक्यात राग मावत नवता. मनात उलटेपाल्टे इचार चालले व्हते.डंख मारीत व्हते.
‘पोरगा देखना ,महिपत्या तालेवार .त्यांना उचलू उचलू धरतील अशाच ठिकानी सोयरीक करतीन.आपली गरीबाची पोर कवा आवडायची त्यानला? पन मंग आलीच कशाला इथं? उगाच पुरनावरनाचा घाट घालायला लावला.पोरीला हुरहूर लागली असंन.तिच्या जिवाला काय वाटत असंन?’
संगीचं मन मातूर कायतरी येगळंच म्हनत व्हतं,
‘पोरगा तर लय आवडला.असाच तर पायजेल व्हता..रूतून बसलाय काळजात पन् तरीबी जिथं आतीमामांना कायम खाली पाह्यची वेळ येईल आसं सासर मला नकोच. दिसत्यात फक्त मोठ्या घरची. पन त्यांचे वासे पोकळ असत्यात. उगाच आशा लावून ठिवायचं काय कारन पडलंय?कसा गचबशावानी जेवत व्हता.आवाजबी ऐकला नाई त्याचा. मरूदे..कितीबी आवडला तरी त्याचा ईचार नाई करायचा आता’
तिनं पार पक्कं ठरीवलं.संध्याकाळची हुरहूर सोडली तर संगी परत घरात हसूखेळू लागली. तिला हसतांना पाहून आतीचा बी जीव भांड्यात पडला.तवर मामाबी दुसऱ्या स्थळांच्या तपासाला लागले.
बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को वर्ष 2023 का महाराणा सूरजमल बाल विज्ञान साहित्य सम्मान – अभिनंदन
जयपुर साहित्य संगीति
(कलम, तूलिका, वाद्य, नाट्य, कला, मेधा का बौद्धिक संगम)
इस के अंर्तगत इस वर्ष 2023 का महाराणा सूरजमल बाल विज्ञान साहित्य सम्मान बाल साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ और लखनऊ के डॉक्टर जाकिर अली रजनीश को प्रदान कर सम्मानित किया जाएगा।
जयपुर बाल साहित्य सम्मान वर्ष 2023 – परिणाम
बाल साहित्य पर विभिन्न विधाओं में सम्मान वर्ष 2023 हेतु
1.बप्पा रावल बालगीत सम्मान
राजकुमार निजात, सिरसा हरियाणा
कुसुम अग्रवाल राजसमन्द राजस्थान
2. राणा हम्मीर बाल कहानी सम्मान
1.नीलम राकेश, लखनऊ
2.डा. शील कौशिक, सिरसा हरियाणा
3. महाराजा सूरजमल बाल विज्ञान साहित्य सम्मान
1.ओम प्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, रतनगढ़ नीमच मध्यप्रदेश
2.डा. जाकिर अली रजनीश, लखनऊ
4. मेजर शैतान सिंह बाल कार्टून कथा सम्मान
कोई नहीं
5. राणा सांगा धार्मिक बोधकथा सम्मान
कोई नहीं
6. महाराणा प्रताप बाल शौर्य कथा सम्मान
कोई नहीं
जयपुर बाल साहित्य सम्मान 2023 विशेष अलंकरण पत्र
(बाल साहित्य में बेहतरीन समग्र एवं सतत् कार्य करने हेतु)
लगभग दो माह पूर्व बच्चों में बाल साहित्य को पढ़ने की उत्सुकता जगाने तथा राजस्थान के वीर रणबांकुरे योद्धाओं के बारे में जानने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिवर्ष चयनित बाल साहित्यकारों को विभिन्न विधाओं में सम्मानित करने के ध्येय से यह बाल साहित्य सम्मान योजना प्रारम्भ की गयी थी। इसमें कुल 24 बाल साहित्यकारों के नाम के प्रस्ताव आये जिनमें से ज्यादातर बप्पा रावल और राणा हम्मीर बाल साहित्य सम्मान के लिये थे। महाराजा सूरजमल, मेजर शैतान सिंह, राणा सांगा और महाराणा प्रताप बाल साहित्य सम्मान के लिये रखी गयी विधाओं में या तो प्रविष्टि आयी ही नहीं या फिर बहुत कम।
बाल कथा और बाल कविता में सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार का चयन करना इसलिए भी बहुत कठिन हो गया क्योंकि लगभग सभी ने इन विधाओं में बहुत काम किया है। हालांकि हमारी मूल विज्ञप्ति के उस क्लाज़ को ज्यादातर ने शायद पढ़ा नहीं जिसमें लिखा था कि यह सम्मान योजना उन्हीं लेखकों के लिये है जो मूल एवं समग्र रूप से केवल बाल साहित्य में ही लिखते हैं। कभी कभार बाल कविता या कहानी लिखने वालों के लिये यह योजना नहीं थी।
फिर भी हमने कोशिश की है कि गुणवत्ता की उपेक्षा नहीं की जाये। इसीलिए प्रथम तीन श्रेणियों में प्रत्येक में दो दो लेखकों का चयन किया गया है।
चयन करते समय न तो हमने इस बात पर गौर किया है कि व्यक्ति विशेष को कितने और कहाँ कहाँ से अब तक पुरस्कार मिले हैं और ना ही हमने उनसे उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों का बंडल मंगवाया। हमने केवल बाल साहित्य में सतत् रूप से किये गये उनके कार्य पर ही दृष्टि रखी। अन्य सब हमारे लिए गौण था।
इसी श्रेष्ठता को दृष्टि में रखते हुए कुछ लेखकों को अतिरिक्त रूप से भी विशिष्ट अलंकरण पत्र से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया जिनकी सूची भी संग में ही जारी कर दी गयी है। ये सभी बाल साहित्य में समान रूप से विद्वान हैं और पुरस्कार/ सम्मान की किसी भी श्रेणी में आने की योग्यता रखते हैं।
विशिष्ट अलंकरण पत्र से सम्मानित सभी साहित्यकारों को अलंकरण पत्र डाक से प्रेषित कर दिया जायेगा। यदि वे स्वयं उपस्थित होकर इसे लेना चाहें तो पूर्व सूचना देकर दिनांक 25 जून 2023 को जयपुर साहित्य संगीति के तत्वाधान में आयोजित जयपुर साहित्य सम्मान 2023 अलंकरण समारोह एवं साहित्योत्सव में पधार कर इसे ग्रहण कर सकते हैं। यात्रा एवं आवास की व्यवस्था आपकी स्वयं की ही रहेगी।
कार्यक्रम स्थल
एस एफ एस सामुदायिक केंद्र सभागार, अग्रवाल फार्म, मानसरोवर, जयपुर 302020.
समय प्रातः 9 बजे से
साभार – श्री अरविंद कुमार संभव, संयोजक
9950070977
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जोड़ लिया है कैसा नाता…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 137 – जोड़ लिया है कैसा नाता…
☆ ‘एक नंबर शिवणार’… भाग १ – लेखक – श्री राजेंद्र परांजपे ☆ प्रस्तुती – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆
रविवारची सकाळ. आम्ही सगळे झोपेत होतो. इतक्यात दारावरची बेल वाजली. आधी मी दुर्लक्ष केलं. वाटलं भास असेल. पण दोन मिनिटांनी पुन्हा वाजली. तिसऱ्या वेळेस जेव्हा वाजली तेव्हा नाईलाजाने उठावं लागलं. उठून घड्याळात बघितलं तर जेमतेम साडेसात वाजत होते. म्हणजे रविवारच्या मानाने पहाटच म्हणायची.
मी आळस देतदेतच दार उघडलं. दारात साधारण चाळीस एक वर्षांचा एक काळासावळा माणूस उभा होता. अंगात पांढरा लेंगा झब्बा, आणि डोक्यावर मळकी गांधीटोपी. दाढीचे खुंट वाढलेले. त्याच्या हातात एक कापडी पिशवीपण होती. मी त्याला ओळखलं नाही.
माझ्या चेहऱ्यावरचे भाव बघून तोच म्हणाला, “साहेब, नमस्कार. मी राजाराम.”
“सॉरी, मी तुम्हाला ओळखलं नाही.” मी म्हणालो.
“अहो कसं ओळखणार? आपण पहिल्यांदाच भेटतो आहोत. मला बाबासाहेब देशमुखांनी तुमचा पत्ता दिला आणि भेटायला सांगितलं.” त्याने स्पष्टीकरण दिलं.
बाबासाहेब देशमुख म्हणजे प्रसिद्ध इतिहास संशोधक. माझे चांगले आणि गेल्या अनेक वर्षांपासूनचे मित्र. त्यांनी पाठवलंय म्हणजे हा माणूस नक्कीच कामाचा असणार. हे लक्षात आल्यावर, मी राजारामला म्हणालो,
“या ना, आत या. बसा. मी तुमच्यासाठी पाणी घेऊन येतो.”
“साहेब, तुम्ही मला अहो जाहो नका करु. नुसतं राजाराम म्हणा. मी लहान माणूस आहे.” राजाराम म्हणाला.
“बरं, बस राजाराम. मी आलोच” असं म्हणून मी आत जाऊन त्याच्यासाठी पाणी घेऊन आलो, आणि काय काम आहे ते विचारलं.
“साहेब, मी जुनी फाटकी पुस्तकं शिवतो. देशमुखसाहेब म्हणाले की तुम्हीपण त्यांच्यासारखेच इतिहास संशोधक आहात. त्यामुळे तुमच्याकडेपण शिवण्यासारखी अशी दुर्मिळ आणि फाटकी पुस्तकं असतील तर ती द्या. एक नंबर शिवतो बघा मी ती. अगदी नव्यासारखी करुन देतो.” राजारामने त्याच्या येण्याचं प्रयोजन सांगितलं.
त्याचं म्हणणं खरं होतं, मीदेखील गेली तीसेक वर्ष इतिहासाचा अभ्यासक असल्यामुळे, कुठून कुठून जुनी आणि दुर्मिळ पुस्तकं, ग्रंथ, बखरी आणि इतर बरेच ऐतिहासिक दस्तावेज जमा केले होते. त्यातल्या काहींची अवस्था खूप नाजूक होती. ती व्यवस्थित शिवणं गरजेचं होतं. नाहीतर त्यातली पानं सुटून गहाळ होण्याची शक्यता होती. त्यामुळे मी अशाच एखाद्या माणसाच्या शोधत होतो. बरं झालं बाबासाहेबांनी त्याला धाडला ते.
“आहेत अशी पुस्तकं वगैरे. अरे पण ती बेडरुममधे कपाटात आहेत. बेडरूम मध्ये माझी बायको आणि मुलगा झोपले आहेत. कपाटातून पुस्तकं बाहेर काढताना कदाचित त्यांची झोपमोड होईल. तू असं कर, तू दुपारनंतर ये. तोपर्यंत मी ती काढून ठेवतो.” मी म्हणालो.
“दुपारनंतर?” तो चाचरत पुढे म्हणाला, “साहेब, मी अंबरनाथला राहतो. आता घरी जाऊन परत यायचं म्हणजे खूप उशीर होईल. त्यापेक्षा मी तुमच्या बिल्डिंगच्या खालीच थांबतो, आणि तासाभराने वर येतो. चालेल?
अंबरनाथला राहतो? अरे बापरे ! तिथून निघून हा माणूस रविवारी इतक्या लवकर अंधेरीला माझ्या घरी पोहोचला? पहिल्यांदाच आल्यामुळे माझं घर शोधण्यातदेखील त्याचा थोडा वेळ गेला असेलच. कमाल आहे या माणसाची. म्हणजे घरुन निघाला तरी किती वाजता असेल हा? मनातल्या मनात विचार करुन मी त्याला म्हणालो, “बरं, चालेल. मी लवकरात लवकर पुस्तकं बाहेर आणतो. पण तू घरुन काही खाऊन निघालास का?”
“हो साहेब” तो म्हणाला खरा, पण त्याच्या चेहऱ्यावरून स्पष्ट जाणवत होतं की तो खोटं बोलतोय. घरुन निघताना किंवा वाटेत त्याने काहीच खाल्लेलं नसावं. मी खणातून माझं पाकीट काढलं, आणि त्यातली शंभरची नोट काढून त्याच्या पुढ्यात धरुन म्हटलं “हे घे आणि कोपऱ्यावर जाऊन आधी चहा, नाश्ता करुन ये.”
राजारामने थोडे आढेवेढे घेतले, पण मी ती नोट त्याच्या खिशातच कोंबल्यावर त्याचा नाईलाज झाला. तो नाश्ता करायला गेला.
तो चहा, नाश्ता करुन येईपर्यंत, मी पुस्तकं काढून ठेवली होती. ही पुस्तकं शिवायचं काम तो कुठे बसून करणार, असा माझ्या मनात प्रश्न आला. पण जणू काही तो वाचून, राजारामच म्हणाला, “साहेब, तुम्ही तुमची गॅरेजमधली गाडी थोडावेळ बाहेर लावलीत तर मी तिथे बसून काम करतो. चालेल का?”
राजाराम हुशारीने आधीच सगळा विचार करुन आला होता तर. मला त्याचं कौतुक वाटलं. आणि त्याचा प्रस्तावही चांगला होता. मग आम्ही दोघांनी मिळून पुस्तकं आणि एक मोठी चटई खाली नेली. मी माझी गाडी बाहेर लावली, आणि गॅरेजची जागा त्याला मोकळी करुन दिली. त्याने ताबडतोब चटई अंथरुन त्याच्या जवळच्या पिशवीतून दाभण, दोरा, गोंद, चिकटपट्टी वगैरे सामान काढलं आणि तो कामाला लागला.
“एक नंबर शिवणार बघा साहेब. काही काळजीच नको तुम्हाला आता या पुस्तकांची. या तुम्ही तुमचं आवरुन.” तो म्हणाला.
वॉचमनला त्याच्यावर लक्ष ठेवायला सांगून मी घरी गेलो आणि आंघोळ, चहा नाश्ता करुन पुन्हा तासा दीड तासाने खाली गेलो. तोपर्यंत त्याने अर्धअधिक काम संपवलं होतं. कामातली त्याची सफाई बघून मी खुश झालो. त्याच्याशी गप्पा मारता मारता मला समजलं की त्याच्या घरी त्याची बायको आणि आई आहे. त्या दोघी लोकांकडे धुणी, भांडी करतात आणि फावल्या वेळेत गोधड्या, पिशव्या वगैरे शिवण्याचंही काम करतात. आणि हा चपलांपासून पुस्तकांपर्यंत सगळं शिवतो. तसे खाऊन पिऊन सुखी होते तिघे, पण त्याच्या लग्नाला पंधरा वर्ष झाली तरी अजून पाळणा हलला नव्हता. हा सल त्याच्या मनात होता, तो त्याने दोन तीन वेळा बोलूनही दाखवला. असतं एकेकाचं नशीब.
आणखी तासाभरात त्याचं काम संपलं. आम्ही पुस्तकं घेऊन वर घरी आलो. अगदी मला हवं होतं तसं काम केलं होतं त्याने. त्याला काही खायला देऊन, मी पैसे विचारले. माझ्या अंदाजापेक्षा त्याने कमीच सांगितले. मी ते दिले. त्याबरोबर त्याने त्यातले शंभर रुपये मला परत दिले. “साहेब, हे सकाळी तुम्ही मला नाश्त्यासाठी दिले होते.” तो म्हणाला.
मी अवाक् झालो. आजच्या लबाडीच्या जगात इतका प्रामाणिकपणा? नाहीतर लोक ठरलेले पैसे दिल्यावरसुद्धा वर लोचटपणे आणखी बक्षिसी मागतात. मी राहू दे म्हंटलं. पण त्याने ऐकलं नाही. ती नोट त्याने टेबलावर ठेवली आणि नमस्कार करुन तो निघून गेला. जाण्याआधी, ‘परत काही काम असेल तर सांगा साहेब, एक नंबर शिवणार’ हे सांगायला, आणि आपला फोन नंबर एका कागदावर लिहून द्यायला तो विसरला नाही. पण दुर्दैवाने राजारामने लिहून दिलेला त्याचा नंबर माझ्याकडून हरवला. त्यामुळे नंतर त्याच्याशी कुठलाच संपर्क झाला नाही. बाबासाहेबांकडून त्याचा नंबर घेईन म्हंटलं, पण तेही राहूनच गेलं.
क्रमश: भाग 1
मूळ लेखक – राजेंद्र परांजपे
संग्राहक – मेघःशाम सोनवणे
मो 9325927222
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈