(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 107 ☆ शक्तिपर्व नवरात्रि ☆
शक्तिपर्व नवरात्रि आज से आरंभ हो रहा है। शास्त्रोक्त एवं परंपरागत पद्धति के साथ-साथ इन नौ संकल्पों के साथ देवी की उपासना करें। निश्चय ही दैवीय आनंद की प्राप्ति होगी।
1. अपने बेटे में बचपन से ही स्त्री का सम्मान करने का संस्कार डालना देवी की उपासना है।
2. घर में उपस्थित माँ, बहन, पत्नी, बेटी के प्रति आदरभाव देवी की उपासना है।
3. दहेज की मांग रखनेवाले घर और वर तथा घरेलू हिंसा के अपराधी का सामाजिक बहिष्कार देवी की उपासना है।
4. स्त्री-पुरुष, सृष्टि के लिए अनिवार्य पूरक तत्व हैं। पूरक न्यून या अधिक, छोटा या बड़ा नहीं अपितु समान होता है। पूरकता के सनातन तत्व को अंगीकार करना देवी की उपासना है।
5. स्त्री को केवल देह मानने की मानसिकता वाले मनोरुग्णों की समुचित चिकित्सा करना / कराना भी देवी की उपासना है।
6. हर बेटी किसीकी बहू और हर बहू किसीकी बेटी है। इस अद्वैत का दर्शन देवी की उपासना है।
7. किसीके देहांत से कोई जीवित व्यक्ति शुभ या अशुभ नहीं होता। मंगल कामों में विधवा स्त्री को शामिल नहीं करना सबसे बड़ा अमंगल है। इस अमंगल को मंगल करना देवी की उपासना है।
8. गृहिणी 24×7 अर्थात पूर्णकालिक सेवाकार्य है। इस अखंड सेवा का सम्मान करना तथा घर के कामकाज में स्त्री का बराबरी से या अपेक्षाकृत अधिक हाथ बँटाना, देवी की उपासना है।
9. स्त्री प्रकृति के विभिन्न रंगों का समुच्चय है। इन रंगों की विविध छटाओं के विकास में स्त्री के सहयोगी की भूमिका का निर्वहन, देवी की उपासना है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है त्रयोदश अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। श्रीमद्भागवत गीता जी का अध्याय तेहरवां पढ़िए। अपने आज और कल को उज्ज्वल करिएआज आप पढ़िए।आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
प्रकृति, पुरुष और चेतना
इस अध्याय में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष और चेतना के बारे में ज्ञान दिया।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा–
क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या,बोलो कृपानिधान।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया—–
हे अर्जुन मेरी सुनो,कर्मक्षेत्र यह देह।
यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2
ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।
ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3
कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।
परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4
वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?
क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5
मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।
मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6
पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।
अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7
दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।
प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8
स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।
विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9
अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।
रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10
स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।
सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11
वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।
जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12
जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।
श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12
अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।
ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13
परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।
कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ’ नाक।। 14
मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।
लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15
जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।
ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16
अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।
सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17
सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।
भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18
कर्म, ज्ञान औ’ ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।
भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19
गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि अजेय।
प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20
प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।
सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21
तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।
जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ’ रोग।। 22
दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।
साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23
प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?
मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24
कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।
कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25
श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।
जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26
भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।
ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27
आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।
ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28
ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।
दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29
कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।
सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30
दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।
जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31
अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत दिव्य।
दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32
सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।
तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33
सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।
उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34
ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।
विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति, पुरुष तथा चेतना ” तेहरवां अध्याय समाप्त।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है दशम अध्याय।
स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का दशम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए
– डॉ राकेश चक्र
ऐश्वर्य – श्रीभगवान ने अपने ऐश्वर्य के बारे में अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान देकर बताया
महाबाहु मेरी सुनो, तुम हो प्रियवर मित्र।
श्रेष्ठ ज्ञान मैं दे रहा, खिलें फूल से चित्र।। 1
यश वैभव उत्पत्ति को , नहीं जानते देव।
उद्गम सबका मैं सखे, करता प्रकट स्वमेव।। 2
मैं स्वामी हर लोक का, अजर अनादि अनंत।
जो जाने इस ज्ञान को, मुक्ति पंथ गह अंत।। 3
सत्य-ज्ञान, सद्बुद्धि सब, मैं ही देता प्राण।
मोह विसंशय,मुक्त कर, हर लेता सब त्राण।। 4
यश-अपयश-तप-दान भी, मैं ही करूँ प्रदत्त।
क्षमा भाव जीवन-मरण, सुख-दुख चक्रावर्त।। 4
विविध गुणों का स्वामि मैं, मन निग्रही अनादि।
इन्द्रिय-निग्रह मैं करूँ, हर लेता भय आदि।। 5
सप्तऋषी गण, मनु सभी, अन्य महर्षी चार।
उदगम मूलाधार मैं, फैले लोक अपार।। 6
जानें मम ऐश्वर्य को, जो योगी आश्वस्त।
करते भक्ति अनन्य जो,मैं उनका विश्वस्त।। 7
सकल-सृष्टि आध्यात्म का, सबका मैं हूँ सार।
सबका ही उद्भूत मैं, सबका पालन हार।। 8
शुद्ध भक्त जो भी करे, मन में शुद्ध विचार।
बाँटें मेरे ज्ञान को, अंतःगति उद्धार।। 9
मेरी सेवा भक्ति से,करते हैं जो प्रेम।
उनको देता ज्ञान मैं, सुभग योग अरु क्षेम।। 10
कृपा विशेषी मैं करूँ, करता उर में वास।
दीप जलाऊँ ज्ञान का, फैले दिव्य प्रकाश।। 11
अर्जुन ने श्रीभगवान के बारे में कुछ इस तरह कहा—
आप परम् भगवान हैं, परमा-सत्य पवित्र।
आप अजन्मा-दिव्य हैं, आदि पुरुष हैं पित्र।। 12
आप सर्वथा हैं महत, कहते नारद सत्य।
असित, व्यास, देवल कहें, यही सत्य का तथ्य।। 13
माधव तुमने जो कहा, वही पूर्ण है सत्य।
देव-असुर अनभिज्ञ सब, ना जानें यह सत्य।। 14
सबके उदगम आप हैं, सबके स्वामी आप।
सब देवों के देव हैं, ब्रह्माण्डों के बाप।।15
सदय कहें विस्तार से, यह निज दैविक मर्म।
सर्वलोक स्वामी तुम्हीं , सबके पालक धर्म।। 16
चिंतन कैसे मैं करूँ, मुझको प्रिय बतायं।
कैसे जानूँ आपको, कैसे ह्रदय बसायं। 17
योगशक्ति-ऐश्वर्य का, वर्णन करो दुबार।
तृप्त नहीं माधव हुआ, कहिए अमृत- विचार।। 18
श्रीभगवान ने अर्जुन को अपने सूक्ष्म ऐश्वर्य के बारे में इस प्रकार वर्णन किया—–
मुख्य-मुख्य वैभव कहूँ, तुमसे अर्जुन आज।
मेरा चिर-ऎश्वर्य है, चिर सर्वत्री राज।। 19
सब जीवों के ह्रदय में, मेरा रहता वास।
आदि-अंत औ’ मध्य मैं, मैं ही भरूँ प्रकाश।। 20
आदित्यों में विष्णु मैं, तेजों में रवि सन्द्र।
मरुतों मध्य मरीचि मैं,नक्षत्रों में चन्द्र।। 21
वेदों में मैं साम हूँ, देवों में हूँ इन्द्र।
इंद्रियों में मन रहूँ, जीवनशक्ति-मन्त्र।। 22
सब रुद्रों में शिव स्वयं, दानव-यक्ष कुबेर।
वसुओं में मैं अग्नि हूँ, सब पर्वत में मेरु।। 23
पुरोहितों में वृहस्पति, मैं ही कार्तिकेय।
जलाशयों में जलधि हूँ, जानो मेरा ध्येय।। 24
महर्षियों में भृगु हूँ, दिव्य-वाणि ओंकार।
यज्ञों में जप-कीर्तना, मैं हिमवान-प्रसार।। 25
वृक्षों में पीपल रहूँ , चित्ररथी -गंधर्व।
सिद्धों में मुनि कपिल हूँ, नारद- देव रिश्रर्व। 26
उच्चै:श्रवा अश्व मैं, प्रकटा सागर गर्भ।
ऐरावत गजराज मैं, राजा मानव धर्म।। 27
शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गऊओं में सुरीभि।
कामदेव में प्रेम हूँ, सर्पों में वासूकि।। 28
फणधारि में अनन्त हूँ, जलचरा वरुणदेव।
पितरों में मैं अर्यमा, न्यायधीश यमदेव।। 29
दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमनों में महाकाल।
पशुओं में मैं सिंह हूँ, खग में गरुड़ विशाल।। 30
पवित्र-धारि में वायु हूँ, शस्त्रधारि में राम।
मीनों में मैं मगर हूँ, सरि में गंगा नाम।। 31
सकल सृष्टि में आदि मैं, मध्य और हूँ अंत।
विद्या में अध्यात्म हूँ, सत्य और बलवंत।। 32
अक्षर मध्य अकार हूँ, समासों में द्वंद्व ।
मैं ही शाश्वत काल हूँ, सृष्टा ब्रह्म निद्वन्द।। 33
मैं सबभक्षी मृत्यु हूँ, मैं ही भूत-भविष्य।
सात नारि में मैं रहूँ, कीर्ति-श्री -सी हस्य।। 34
मैं और मेधा-सुस्मृति , मैं ही धृति हूँ भव्य।
मैं ही क्षमा सुनारि हूँ, मैं ही वाक सुनव्य।। 34
सामवेद वृहत्साम हूँ, ऋतुओं में मधुमास।
छन्दों में मैं गायत्री, अगहन उत्तम मास।। 35
छलियों में मैं जुआ हूँ, तेजवान में तेज।
पराक्रमी की विजयी प्रिय, बलवानों की सेज।। 36
वृष्णिवंशी वसुदेव हूँ, पांडवों में अर्जुन।
मुनियों में मैं व्यास हूँ, महान उशना- जन।। 37
अपराधी का दण्ड मैं, और न्याय की नीति।
रहस्य का मैं मौन हूँ, ज्ञान-बुद्धि की रीति।। 38
जनक बीज मैं सृष्टि का, चर-अचरा सब कोय।
नहीं रह सके मुझ बिना, सब जग मुझ में होय।। 39
अंत न दैव- विभूति का, यह अनन्त आख्यान।
विशद विभूति हैं मेरी, सार प्रिये तू जान।। 40
जो सारा ऐश्वर्य है, या जो है सौंदर्य।
मेरी अनुपम सृष्टि है, सब कुछ मेरा कर्य।। 41
विशद ज्ञान ब्रह्मांड का, अंशमात्र यह दृश्य।
सब कुछ धारण मैं करूँ, चले जगत कर्तव्य।। 42
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” ऐश्वर्य वर्णन” दसवाँ अध्याय समाप्त।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 96 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆
लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे यह भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।
मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।
हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच ज़मीन की फरोख्त करते हैं। खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ, धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!
मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।
माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।
और हाँ, पर्यावरण दिवस के आयोजन भी शुरू हो चुके हैं। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले ही शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों, खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।
कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।
चलिए इस बार पर्यावरण दिवस के आयोजनों पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत ज्ञानवर्धक, ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक आलेख “चेदि के नंदिकेश्वर”.)
☆ किसलय की कलम से # 45 ☆
☆ चेदि के नंदिकेश्वर ☆
देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की पूजा आराधना तो बहुत बाद की बात है, भोले शंकर के स्मरण मात्र से मानव अपने तन-मन में उनका अनुभव करने लगता है। पावन सलिला माँ नर्मदा की जन्मस्थली अमरकंटक से खंभात की खाड़ी तक 16 करोड़ शिवलिंग तथा दो करोड़ तीर्थ होने की मान्यता सुनकर आश्चर्य होता है। अतैव हम नर्मदातट को शिवमय क्षेत्र भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं माना जाएगा। नर्मदा तट के जनमानस में भगवान शिव के प्रति प्रारंभ से ही अगाध आस्था के प्रमाण उपलब्ध हैं। सोमेश्वर , मंगलेश्वर , तपेश्वर , कुंभेश्वर , शूलेश्वर , विमलेश्वर , मदनेश्वर , सुखेश्वर , ब्रम्हेश्वर , परमेश्वर , अवतारेश्वर एवं बरगी जबलपुर (मध्य प्रदेश) के नजदीक नंदिकेश्वर शिवलिंग आज भी विद्यमान हैं। नर्मदा में डुबकी लगाकर निकाले गए पाषाणों की शिवलिंग के रूप में स्थापना कर भक्तगण पूरी आस्था के साथ पूजा करते हैं। माँ नर्मदा की धारा में शिव रूपी पाषाण सहजता से देखे जा सकते हैं। ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ के परिवर्तन की स्थिति में नर्मदेश्वर की ही स्थापना की जाती है। नर्मदा एवं भगवान शिव की कृपा से नर्मदा के दोनों तटों के एक डेढ़ किलोमीटर क्षेत्र में कभी अकाल या दुर्भिक्ष नहीं पड़ता। इसीलिए यह क्षेत्र सुभिक्ष क्षेत्र कहलाता है। इस क्षेत्र में यह भी देखा गया है कि हमारे अनेक ऋषियों ने नर्मदा के किनारे जिस स्थान को अपनी तपोस्थली बनाया अथवा जहाँ ठहरे वहाँ उन्हीं नाम से उस स्थान अथवा कुंड का नामकरण हो गया।
पौराणिक कथाओं, नर्मदा पुराण, धार्मिक ग्रंथों एवं ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर प्राचीन चेदि के अंतर्गत महिष्मती एवं त्रिपुरी आती थी। महिष्मती के महाबली सहस्रार्जुन, परशुराम के पिताश्री जमदग्नि एवं चेदि नरेश शिशुपाल को कौन नहीं जानता। नर्मदा तट भगवान दत्तात्रेय, शिवभक्त रावण की तपोभूमि एवम् भ्रमण स्थली रही है। चेदि की प्राचीनता का प्रमाण इसी से लगाया जा सकता है कि चेदि नरेश स्वयं सीता जी के स्वयंवर में गए थे। बाल रामायण के अनुसार:-
सीतास्वयंवर निदान धनुर्धरेण
दग्धात्पुर त्रितयतो बिभूना भवेन्।
खंड निपत्य भुवि या नगरी बभूव
तामेष चैद्य तिलकस्त्रिपुरीम् प्रशस्ति।।
इसी तरह स्वयं भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का पिंडदान भी नर्मदा तट पर ही किया था। परशुराम द्वारा सहस्रार्जुन के पुत्रों को मारने के उपरांत भयभीत हैहयवंशी राजा सुरक्षा की दृष्टि से त्रिपुरी (जो वर्तमान में जबलपुर, भेड़ाघाट मार्ग पर पश्चिम दिशा में 13 किलोमीटर दूर तेवर है) आ गए और त्रिपुरी को ही राजधानी के रूप में अपनाया । प्रमाणित है कि इसी त्रिपुरी में त्रिपुरासुर के अत्याचारों से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शिव ने त्रिपुर नामक राक्षस का वध किया था।
बलशाली त्रिपुरासुर ने भगवान शिव के विश्वकर्मा द्वारा निर्मित अद्भुत रथ को भी जब छतिग्रस्त कर दिया तब अपने आराध्य की सहायतार्थ भगवान विष्णु ने मायावी बैल नंदी का रूप धारण कर रथ को अपने सींगों से ऊपर उठा लिया था। उसी समय भगवान शिव त्रिपुर राक्षस का वध करके त्रिपुरारि अर्थात त्रिपुर के अरि (दुश्मन) नाम से विख्यात हुए। इसी तरह जैसा सभी जानते हैं कि विष्णु के आराध्य भगवान शिव ही हैं। अतः इस त्रिपुरासुर संग्राम स्थल पर विष्णु ने नंदी का रूप धारण किया था, जिस कारण नंदी के ईश्वर (आराध्य) अर्थात नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना की गई यहाँ से लगभग 7 किलोमीटर दूर जिस स्थान पर नंदी रूपी विष्णु भगवान ने विश्राम किया था वह स्थान नाँदिया घाट नाम से विख्यात है। नंदिकेश्वर के समीप ही भगवान परशुराम के पिता जमदग्नि की तपोभूमि के पास जमदग्नि कुंड एवम् ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्ति दिलाने वाले हत्याहरण कुंड का स्थित होना समसामयिक तत्त्वों की पुष्टि करता है। ज्ञातव्य है कि इनमें से अनेक स्थल नर्मदा नदी पर बरगी बाँध बनने के कारण जलमग्न हो चुके हैं। हम पाते हैं कि त्रिपुरासुर वध विषयक शिलालेख से प्रतीत होता है कि शिव द्वारा त्रिपुरासुर का वध देवासुर संग्राम की कथा नहीं वरन आर्य एवं अनार्य जातियों के संघर्ष का प्रतीक है। महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 5-4 छंद 8 में त्रिपुरी एवं चेदि का उल्लेख मिलता है। प्रामाणिक रूप से उपरोक्त तथ्यों की ओर ध्यानाकर्षण का मात्र उद्देश्य वर्तमान प्रामाणिक स्थल हमारे पुराने एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कहे जा सकते हैं । जबलपुर जिले के बरगी नगर स्थित नंदिकेश्वर शिवलिंग की स्थापना परशुराम काल में ही की गई थी विद्वानों द्वारा की गई काल गणना के अनुसार राम जन्म के पूर्व परशुराम हुए थे। नंदिकेश्वर शिवलिंग का स्थापना काल लगभग 8 लाख वर्ष ही माना जाना चाहिए।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है अष्टम अध्याय।
स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का अष्टम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए
– डॉ राकेश चक्र
भगवत्प्राप्ति क्या है?
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से ब्रह्म और आत्मा आदि के बारे में कुछ प्रश्न किए, जो इस प्रकार हैं—–
हे माधव क्या आत्मा, ब्रह्म-तत्व- संज्ञान।
कौन देवता, जगत क्या, कर्मयोग- पहचान।। 1
कौन अधीश्वर यज्ञ का,कैसा धरे शरीर।
कैसे जानें अंत में, माधव तुम्हें कबीर।। 2
श्रीकृष्ण भगवान ने भगवत्प्राप्ति के सरल साधन अर्जुन को इस प्रकार बताए——-
दिव्य जीव ही ब्रह्म है, मैं हूँ परमा ब्रह्म।
नित्य स्वभावी आत्मा, तन से होयँ सुकर्म।। 3
प्रकृति-देह अधिभूत हैं, मैं हूँ रूप विराट।
सूर्य-चंद्र अधिदेव गण,मैं सबका सम्राट।। 4
जो मेरा सुमिरण करे, अंत समय भज नाम।
ऐसा सज्जन पुरुष ही,पाता मेरा धाम।। 5
अंत समय जो नाम ले, त्यागे मनुज शरीर।
करे स्मरण भाव से, पाए वही शरीर।। 6
चिंतन कर मम पार्थ तू, कर धर्मोचित युद्ध।
मनोबुद्धि मुझमें करो, बने आत्मा शुद्ध।। 7
मेरा सुमिरन जो करें, और करें नित ध्यान।
ऐसे परमा भक्त का, हो जाता कल्यान।। 8
परमेश्वर सर्वज्ञ है, लघुतम और महान।
परे भौतिकी बुद्धि से, सूर्य सरिस गतिमान।। 9
निकट मृत्यु के पहुँचकर, करता प्रभु का ध्यान।
योग शक्ति अरु भक्ति से, हो जाता कल्यान।। 10
वेदों के मर्मज्ञ जो, करें ओम का जाप।
ब्रह्मज्ञान पाएँ वही, मिट जाते सब पाप।। 11
योगावस्थिति प्रज्ञ हों, इन्द्रिय वश में होंय।
मन हिरदय में जा बसे, प्राण वायु सिर होयँ।। 12
अक्षर शुभ संयोग है, ओमकार का नाम।
चिंतन योगी जो करें, पहुँचें मेरे धाम।। 13
सदा सुलभ उनके लिए, रखें प्रेम सद्भाव।
करें भक्ति मेरी सदा,सुखमय बने स्वभाव।। 14
भक्ति योग में जो रमें, ऐसे मनुज महान।
परम् सिद्धि पाएँ सदा, छूटे दुःख- जहान।। 15
सभी लोक हैं दुख भरे, जनम-मरण का जाल।
पाते मेरा धाम जो, कट जाते जंजाल।। 16
ब्रह्मा का दिन एक है, युग का एक हजार।
इसी तरह होती निशा, अद्भुत सृष्टि अपार।। 17
दिन होता आरंभ जब , रहता जीवा व्यक्त।
आती है जब रात भी ,हुआ विलय अव्यक्त।।18
ब्रह्मा का दिन पूर्ण है, जीवन का प्राकट्य।
ब्रह्मा की जब रात हो, होयँ सभी अव्यक्त।। 19
परे व्यक्त-अव्यक्त से,परा प्रकृति का सार।
प्रलय होय संसार का,रचना अपरम्पार।। 20
अविनाशी इस प्रकृति का, कभी न होता नाश।
वेद कहें इस बात को, मेरा धाम प्रकाश।। 21
परम् भक्ति से प्राप्त हों, ईश्वर श्रेष्ठ महान।
सर्वव्याप अविनाश प्रभु, करें भक्त कल्यान।। 22
भरतश्रेष्ठ मेरी सुनो, वर्णन अनगिन काल।
योगी पाते मोक्ष गति, परम् सत्य यह हाल।। 23
शुक्लपक्ष दिन सूर्य गति, उत्तरायणी होय।
तन त्यागे इस अवधि में, मुक्ति सुनिश्चित होय।। 24
सूर्य दक्षिणायन समय, कृष्णपक्ष हो काल।
चन्द्रलोक उनको मिले, तन त्यागें तत्काल।। 25
वेद कहें इस बात को, जाने के दो मार्ग।
पथ है एक प्रकाश का, दूजा पथ अँधियार।। 26
जो जाता दिनमान में,मुक्ति सुनिश्चित होय।
अंधकार परित्याग तन, पुनः आगमन होय।। 26
भक्तगणों को हैं पता, जाने के दो मार्ग।
सदा भक्ति करते रहो, होता बेड़ा पार।। 27
भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, शुभ-शुभ सब ही होय।
नित्यधाम पाएँ मेरा, जनम सार्थक होय।। 28
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” अक्षर ब्रह्मयोग ” आठवाँ अध्याय समाप्त।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 94 ☆ गिद्ध उड़ाने की कोशिश में ☆
‘आपदा में अवसर’ अर्थात देखने को दृष्टि में बदलना, आशंका में संभावना ढूँढ़ना। इसके लिए प्रखर सकारात्मकता एवं अचल जिजीविषा की आवश्यकता होती है। यह सकारात्मकता सामूहिक हित का विचार करती है।
सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आपदा में निजी लाभ और स्वार्थ की संकुचित वृत्ति मनुष्य को गिद्ध कर देती है। मृतक प्राणी को नोंच-नोंच कर अपना पेट भरना गिद्ध की प्राकृतिक आवश्यकता है पर भरे पेट मनुष्य का असहाय, मरणासन्न अथवा मृतक से लाभ उठाने के लिए गिद्ध होना समूची मानवता का सिर शर्म से झुका देता है।
इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में टीवी के एक शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’
माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।
इस सत्यकथा का संदर्भ यहाँ इसलिए दिया गया है क्यों कि कोविड महामारी की दूसरी लहर में कुछ लोग निरंतर गिद्ध हो रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी हो, रेमडेसिविर की मुँहमाँगी रकम लेना हो या प्लाज़्मा का व्यापार, गिद्ध हर स्थान पर मौज़ूद हैं। यद्यपि अब प्लाज़्मा और रेमडेसिविर को कोविड के इलाज के प्रोटोकॉल से बाहर कर दिया गया है पर इससे पिछले तीन-चार सप्ताह में मनुष्यता को नोंचने वाले गिद्धों का अपराध कम नहीं हो जाता। कुछ किलोमीटर की एंबुलेंस या शव-वाहिनी सेवा (!) के लिए हज़ारों रुपयों की उगाही और नकली इंजेक्शन की फैक्ट्रियाँ लगाकर दुर्लभ होते असली गिद्धों की कमी नरगिद्ध पूरी करते रहे। कुछ स्थानों से महिला रुग्ण के शीलभंग के समाचार भी आए। इन समाचारों से तो असली गिद्ध भी लज्जित हो गए।
कोविड के साथ-साथ इन गिद्धों का इलाज भी आवश्यक है। पुलिस और न्यायव्यवस्था अपना काम करेंगी। समाज का दायित्व है कि उस वृत्ति का समूल नाश करे जो संकट में स्वार्थ तलाश कर मनुष्य होने को कलंकित करती है। मनुष्य को परिभाषित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है,
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
सीधी, सरल बात यह है कि और कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हरेक उस गिद्ध को समाप्त न कर सके पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ आध्यात्मिक अभियान – ‘आपदां अपहर्तारं’ के सफल एक वर्ष पूर्ण ☆ प्रणेता – श्री संजय भारद्वाज एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज ☆
(इस आपदा के समय सभी लोग किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मानवता में अपना योगदान दे रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी सीमायें हैं। कोई व्यक्तिगत रूप से, कोई चिकित्सकीय सहायता के रूप से तो कोई आर्थिक सहायता के रूप से अपना योगदान दे रहे हैं।
ऐसे में कुछ लोग सम्पूर्ण मानवता के लिए अपना अभूतपूर्व आध्यात्मिक योगदान दे रहे हैं। उनका मानना है कि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार यदि हम सामूहिक रूप से प्रार्थना, श्लोकों का उच्चारण करें तो समस्त भूमण्डल में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण होता है और “वसुधैव कुटुम्बकम” की अवधारणाना के अंतर्गत समस्त मानवता को इसका सकारात्मक लाभ अवश्य मिलता है। इस आध्यात्मिक अभियान के प्रणेता श्री संजय भारद्वाज जी के हम हृदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारी जिज्ञासा स्वरुप ह्रदय में उत्पन्न कुछ प्रश्नों का उत्तर एक साक्षात्कार स्वरुप दिया है। इस सकारात्मकता का अनुभव मैंने स्वयं अपने “होम आइसोलेशन” के समय प्राप्त किया है।
हमें पूर्ण विश्वास है कि वर्तमान परिस्थितयों में आपदा के इन क्षणों (लॉक -डाउन, क्वारंटाइन और आइसोलेशन) में अध्यात्म द्वारा स्वयं एवं अपने आसपास सकारात्मक ऊर्जा के संचरण के लिए आपकी भी अध्यात्म सम्बन्धी जिज्ञासाओं की पूर्ति आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” के इस साक्षात्कार के माध्यम से पूर्ण हो सकेगी।
विदित हो कि इस आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” एक आज एक वर्ष पूर्ण हो जायेंगे और आपके ही एक और अभियान “हिंदी आंदोलन” ने इस वर्ष अपने सफल 26 वर्ष पूर्ण किये हैं। इस निःस्वार्थ वैश्विक एवं आध्यात्मिक मानव सेवा के लिए इन दोनों अभियानों के प्रणेताओं श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी को ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें। )
प्रश्न – आपके द्वारा स्थापित हिन्दी आंदोलन परिवार को 26 सफल वर्ष हो चुके। गत वर्ष से आपने यह आध्यात्मिक अभियान आरंभ किया। कृपया दोनों की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें।
उत्तर – हिन्दी आंदोलन परिवार मूलरूप से साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित संस्था है। भाषा सभ्यता की वीणा और संस्कृति की वाणी है। विभिन्न वर्गों के अवलोकन और अध्ययन से अनुभव हुआ कि विदेशी भाषा के प्रयोग ने हम भारतीयों में दंभ और खोखलापन भर दिया है। हम निरंतर अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। समुदाय की जड़ों को हरा रखने रखने में भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कवि कुसुमाग्रज बाढ़ की विभीषिका में भी नदी को गंगा नहीं अपितु ‘गंगा माई’ कहकर संबोधित करते हैं। संस्कृति का यह धरातल आपकी अपनी भाषा देती है। फलत: भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करने का मानस बना। सबके सहयोग से गत 26 वर्ष की अखंड यात्रा में हिंदी आंदोलन परिवार, इस क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय स्थान बना चुका है।
जहाँ तक प्रश्न आध्यात्मिक अभियान का है, मेरा मानना है कि अध्यात्म मनुष्य में इनबिल्ट है। अध्यात्म का अर्थ है अपने चारों। मनुष्य जैसे-जैसे स्वयं का समग्र अध्ययन करने लगता है, उसके भीतर अपने अस्तित्व के प्रति जिज्ञासा बढ़ने लगती है।अपने केंद्र तक पहुँचने की यह जिज्ञासा सौम्य अथवा तीव्र रूप में प्रत्येक मनुष्य में होती है पर अधिकांश को लगता है कि अध्यात्म तो वानप्रस्थ आश्रम से आरंभ करेंगे। कुछ तो अध्यात्म के लिए संन्यास आश्रम की प्रतीक्षा में होते हैं। विशेष बात यह कि इनमें से हरेक जानता है कि जीवन क्षणिक है। इसका अर्थ है कि हर क्षण में पूरा जीवन है। ऐसे में अध्यात्म के लिए जीवन के किसी पड़ाव की प्रतीक्षा करना कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि अभी तो श्वास लेने का समय नहीं है, पचास वर्ष के बाद लेना आरंभ करेंगे। होना तो यह चाहिए कि थोड़ी समझ आने के साथ ही अध्यात्म से जुड़ना हो जाना चाहिए।
गतवर्ष पहली बार महामारी ने मनुष्य की भौतिक रफ़्तार पर अंकुश लगा दिया। भय और लॉकडाउन ने लोगों को घर में कैद कर दिया था। निराशा-सी छा रही थी। मानस में लगातार चल रहा था कि इस महामारी का सामना करने के लिए मनोबल की आवश्यकता है। मनोबल मिलता है आस्था से। आस्था का स्रोत है अध्यात्म। फलत: हमने कोविड के विरुद्ध सारे दिशा-निर्देश पालने के साथ-साथ अध्यात्म को अपनाया। इसी पृष्ठभूमि में ‘आपदां अपहर्तारं’ आध्यात्मिक समूह और अभियान का श्रीगणेश हुआ। इस समूह में साधक अपनी साधना का पचास प्रतिशत कोविड के समूल नाश के लिए अर्पित करते हैं।
प्रश्न – आपकी शैक्षिक पृष्ठभूमि केमिस्ट्री और फार्मा क्षेत्र की है। फिर अध्यात्म का पथ कैसे चुना?
उ- विज्ञान जीवन को देखना सिखाता है। कहता है, जो दिख रहा है वही घट रहा है। अध्यात्म स्थूल विज्ञान को सूक्ष्म ज्ञान के मार्ग पर ले जाता है। कहता है, जो घटता है वही दिखता है। देखने को दृष्टि से संपन्न करता है अध्मात्म। फार्मेसी के फॉर्मूलेशन हों या केमिस्ट्री के इक्वेशन, संग से ही संघ बनता है। ज्ञान-विज्ञान का संघ, जिज्ञासाओं के शमन के पथ पर ला खड़ा करता है।
प्रश्न – समूह का नाम आपदां अपहर्तारं क्यों रखा?
उ.- श्रीरामरक्षास्तोत्रम् में मेरा अटूट विश्वास है। मेरे पिता जी इसके पाठ किया करते थे। बुधकौशिक ऋषि द्वारा अनुष्टुप छंद में रचित यह स्तोत्र सकारात्मक ऊर्जा का साकार शब्दब्रह्म है। इसकी सकारात्मक ऊर्जा आपने स्वयं भी अनुभव की है। गत वर्ष अप्रैल- मई का समय भारत में कोविड-19 का शुरुआती समय था। विश्व पहली बार एक अनजान महामारी से जूझ रहा था। श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का 35वाँ श्लोक है,
हमें आपदा के विरुद्ध लड़ना था, अत: नामकरण आपदां अपहर्तारं किया।
श्रीमती सुधा भारद्वाज
प्रश्न–दोनों अभियानों में आप दंपति की सहभागिता अभूतपूर्व एवं अनुकरणीय है। अपने कार्य, दोनों अभियान एवं दैनिक जीवन, ये सब में आप लोग कैसे मैनेज कैसे कर पाते हैं?
उ.- हम सारी आपाधापी के बीच आजीवन साँस भी तो ले रहे होते हैं। क्या कभी विचार होता है कि साँस लेना कैसे मैनेज कर लेते हैं। विनम्रता से मेरा मानना है कि जो भीतर प्रकृतिगत है, सामान्यत: उसे मैनेज नहीं करना पड़ता। जीवन क्षण-क्षण बीत रहा है। उसका बीतना हम रोक नहीं सकते लेकिन जीवन का रीतना अवश्य रोका जा सकता है। जीवन के रिक्त में अध्यात्म का रिक्थ उँड़ेलने का प्रयास करें तो सामंजस्य स्वयंमेव, प्रकृतिगत हो जाता है।
प्रश्न – साहित्य एवं अध्यात्म दोनों अलग-अलग विषय हैं। आपके साहित्य में कहीं न कहीं अध्यात्म की छाप दिखाई पड़ती है किन्तु दोनों के मध्य एक अदृश्य रेखा भी दिखाई देती है। आप दोनों के मध्य संतुलन कैसे बना पाते हैं?
उ.- ‘अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते’, योगेश्वर का यह कथन साहित्य और अध्यात्म का अंतर्सम्बंध अभिव्यक्त करने के लिए ‘भगवान उवाच’ है। अध्यात्म अपने अध्ययन के लिए प्रवृत्त करता है। आत्माध्ययन श्रेष्ठ मनुष्य बनने के पथ पर ले जाता है। चिंतन करें कि सामाजिक के परिवेश में मनुष्य की भूमिका क्या है? मनुष्य समाज की इकाई है। साहित्य अर्थात समाज का हित। स्वाभाविक है कि स्वाध्यायी, श्रेष्ठ समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। उसका साहित्य अमृत बाँटेगा, हलाहल नहीं। अत: मेरा मानना है कि साहित्य और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अध्यात्म का एक अधिवास है साहित्य जबकि साहित्य की नाभि में अध्यात्म का वास है।
प्रश्न – अध्यात्म में व्यक्तिगत साधना का चलन है।आपने सामूहिक साधना का मार्ग चुना।
उ- व्यक्तिगत और समष्टिगत में अंतर कहाँ है? सनातन दर्शन मनुष्य को बाँधता नहीं अपितु मुक्त करता है। हमारी मीमांसा रोकती नहीं, विस्तार का मार्ग प्रशस्त करती है। हिंदूत्व सामासिकता और सामूहिकता का दर्शन है। यह दर्शन आदेश नहीं करता, उपदेश देता है। स्पष्ट उपदेश है,-
जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं के लिए किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है । तात्पर्य है कि किस धारा के साथ प्रवाहित होना है, यह व्यक्ति स्वयं निर्धारित करे।
गोस्वामी जी की धारा कुछ ऐसी है,-
‘जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥
जब सबमें श्रीराम ही बसते हैं तो व्यक्तिगत और समष्टिगत का भेद ही मिट जाता है।
प्रश्न – आपने ‘आत्म-परिष्कार’ साधना का सूत्रपात किया। इस अभिनव संकल्पना की पृष्ठभूमि क्या रही।
उत्तर – ‘आत्म-परिष्कार’ लीक से हटकर एक साधना है।इसमें विद्यार्थी भी आप, शिक्षक भी आप, परीक्षक भी आप और निर्णायक भी आप। मनुष्य स्वयं को सबसे अधिक जानता है। वह अपनी दुर्बलताएँ जानता है। आत्म-परिष्कार श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण की साधना है। साधक अपनी दुर्बलताओं पर स्वयं विचार करता है। अपने आपसे अपने तर्क स्वयं साझा करता है। अपने शक्तिकेंद्र स्वयं जागृत कर दुर्बलताएँ कम करने का प्रयत्न करता है। इस तरह आत्म-मूल्याकंन से लेकर आत्म-परिष्कार की सारी प्रक्रिया उसीके हाथ में होती है। किसी अन्य से उसे कुछ भी साझा नहीं करना होता। आत्म-प्रदर्शन से आत्म-दर्शन की ओर ले जाता है, आत्म-परिष्कार।
प्रश्न – श्लोकपाठ मन ही मन करें या सस्वर होना चाहिए?
उत्तर – निर्णय आपका है। मेरा मत है कि सस्वर पाठ, सामूहिकता की पुष्टि करता है व विस्तार भी। अनेक घरों में बच्चों या युवाओं को दैनिक आरती, हनुमान चालीसा, अन्य पाठ इसलिए कंठस्थ हैं क्योंकि उनके कानों ने वर्षों तक अपने बुजुर्गों को इन्हें गाते या पाठ करते सुना है। सस्वर पाठ का एक लाभ यह भी है कि स्वर लहरियाँ घर के कोने-कोने में पहुँचती हैं। यह सकारात्मकता अथवा पॉजिटिव एनर्जी का विस्तार है। सस्वर पाठ, सामान्य साधक को साधना की अवधि में मन भटकने से रोकने में भी सहायता करता है।
प्रश्न – किसी मंत्र के पाठ के लिए साधारणत: 108 मनकों की माला का उपयोग करते हैं। माला में 108 अंक का क्या महत्व है?
उत्तर – इसकी अलग-अलग व्याख्या आपको मिलेगी। 12 राशियों और 9 ग्रहों के गुणनफल के संदर्भ में 108 का महत्व है। इस गुणनफल में जीवन की सारी दशा, दिशा एवं समस्त आयाम छुपे हैं। इस संदर्भ में अन्य अनेक सिद्धांत भी मान्य हैं।
प्रश्न – रंगकर्मी के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान है। रंगमंच और साहित्य व अध्यात्म एक-दूसरे को कैसे और कितना प्रभावित करते हैं।
उत्तर – जीवन ही रंगमंच है। अपितु वृहद और अधिक चुनौतियाँ व तदनुरूप अधिक अवसर प्रदान करनेवाला रंगमंच। मनुष्य एक ही समय, अनेक भूमिकाओं का निर्वहन कर रहा होता है। मेरे अल्प ज्ञान में सारी भूमिकाएँ पूरक हैं। जगत अनन्योश्रित है। अत: एक-दूसरे से प्रभावित होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। अध्यात्म हो, साहित्य या रंगकर्म, मूलाधार तो समान है पर सबका स्थूल स्वरूप या ट्रीटमेंट भिन्न है।
प्रश्न – 19 मई 2021 को आपदां अपहर्तारं समूह को एक 1 वर्ष पूरा हो रहा है। गत एक वर्ष में समूह की यात्रा को आप किस तरह से देखते हैं।
उत्तर – वॉट्सएप समूह होते हुए भी आपदां अपहर्तारं की कार्यप्रणाली भी ईश्वर की अनुकम्पा से अभिनव ही है। आप इससे जुड़े हैं, अत: इसकी कार्यप्रणाली से भली-भाँति परिचित हैं। विभिन्न साधनाएँ ऑनलाइन हो सकती हैं, श्रीरामचरितमानस का पारायण ऑनलाइन हो सकता है, सत्संग एवं प्रबोधन ऑनलाइन हो सकता है, घर पर रहकर आप चक्रीय साधना की सामूहिकता अनुभव कर सकते हैं, यह सब सचमुच कल्पनातीत था पर कर्ता करवाता रहा, हम सब निमित्त होते गए।
श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के पाठ से प्रथम साधना आरंभ हुई थी। प्रथम साधना से ही देश भर से जुड़े साधकों ने धन्य कर दिया। विनम्रता से सूचित करना चाहता हूँ कि साधकों ने इन 365 दिनों में लगभग चार करोड़ बार नाम सुमिरन किया। विशेष बात यह कि साधना का कम से कम पचास प्रतिशत ( कुछ साधनाओं का शत प्रतिशत) कोविड की आपदा के नाश के लिए समर्पित किया गया। एक पाठ/माला से लेकर एक दिन में ग्यारह सौ से अधिक मालाजप करने वाले साधक इस परिवार में मनके की तरह सह-अस्तित्व लिए चल रहे हैं। राघव साधना हो या माधव साधना, श्रावण हो या पुरुषोत्तम मास या मार्गशीष मास साधना, श्रीगणेश साधना हो या गायत्री साधना, अथर्वशीर्ष का पाठ हो रूद्राष्टकम्, माँ शारदा साधना हो या श्रीहरि साधना, साधकों ने इस समूह को अखंड, अविरल भागीरथी बना दिया। श्रीरामचरितमानस का पारायण भी अद्भुत रहा।
हमारे आध्यात्मिक, धार्मिक ग्रंथ अनन्य साहित्यिक संपदा भी हैं। इनका पारायण आध्यात्मिक के साथ साहित्यिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर भी प्रदान करता है।
ईश्वर की असीम अनुकम्पा से आपदां अपहर्तारं समूह ने साधकों के जीवन में सकारात्मकता का अपूर्व बल दिया है। साधकों की आशु प्रतिक्रियाओं में आप इसकी प्रतिध्वनि सुन सकते हैं। मैं नतमस्तक भाव से इसे उपलब्धि के रूप में ग्रहण करता हूँ।
प्रश्न – समूह एवं आध्यात्मिक अभियान को लेकर भविष्य की योजनाएँ क्या हैं?
उत्तर – जहाँ तक समूह का प्रश्न है, इसके कार्य का निरंतर विस्तार हुआ है। विगत वर्ष भर हम पारिवारिक स्तर पर इसका प्रबंधन देखते रहे हैं। अब जिस तरह का विस्तार है, उसे देखते हुए कुछ प्रोफेशनल हाथ, साथ लेना आवश्यक हो चला है। साधकों से विचार-विमर्श कर इस पर निर्णय लेंगे।
वृहद अभियान के अंतर्गत आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के शमन के उद्देश्य से एक अनुसंधान केंद्र आरम्भ करने का स्वप्न है। इसके पहले कदम के रूप में हम कम से कम दाम या नाममात्र शुल्क पर एक से दो एकड़ ज़मीन खरीद सकने के प्रयास में हैं। मानस है कि पुणे से 30 से 35 किलोमीटर की परिधि में ऐसा स्थान हो जहाँ परिवहन के सामान्य साधन पहुँचते हों। अस्थायी विकल्प के रूप में शहर या शहर से बाहर कोई स्थान लीज़ पर ले सकने की संभावना पर भी काम चल रहा है ताकि ध्यान, सामूहिक साधना और प्रबोधन-सत्संग हो सके।
जीवन का उद्देश्य, जन्म से पहले और मृत्यु के बाद अस्तित्व, ईश्वर की साकार या निराकार अवधारणा जैसे अनेक विषयों पर इस केंद्र में मंथन करना चाहते हैं।
इच्छा है कि वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण, विभिन्न सूत्र-संहिता, अलग-अलग धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों का एक वृहद पुस्तकालय यहाँ हो।
प्रयत्न कर रहे हैं, शेष हरि इच्छा!
प्रश्न – अपने व्यक्तित्व में साहित्य और अध्यात्म में किसका पलड़ा भारी पाते हैं?
उत्तर – लेखन और अध्यात्म मेरा समन्वित अस्तित्व हैं। मेरी वृत्ति सत्यार्थी है। साहित्य सत्य का अन्वेषण करता है। सत्य के साथ किसी विशेषण का प्रयोग उचित नहीं, फिर भी कहना चाहूँगा कि अध्यात्म परम सत्य तक ले जाता है। मैं आजीवन सत्यार्थी बना रहना चाहता हूँ।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
अध्याय 18
( श्रीगीताजी का माहात्म्य )
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं तथा धनुर्धर पार्थ
विजय सुनिष्चत वहाँ ही, मेरी मति निस्वार्थ। ।।78।।
भावार्थ : हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है॥78॥
Wherever there is Krishna, the Lord of Yoga, wherever there is Arjuna, the archer, there are prosperity, happiness, victory and firm policy; such is my conviction.