अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (22) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।।22।।

 

अनुचित देश औ” काल में, अनुचित जन को दान

बेमन, निंदा-क्रोध से ,जो वह तामस दान ।।22।।

 

भावार्थ :   जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ।।22।।

 

The gift which is given at the wrong place and time to unworthy persons, without respect or with insult, is declared to be Tamasic. ।।22।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (21) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌।।21।।

 

जो फल की आशा लिये प्रत्युपकारी को दत्त

मन के दुख के साथ जो, राजस दान वह स्मृत ।।21।।

भावार्थ :   किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में (अर्थात्‌मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।) रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।।21।।

And, that gift which is made with a view to receive something in return, or looking for a reward, or given reluctantly, is said to be Rajasic.।।21।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (20) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌।।20।।

उचित काल औ” देश में उचित व्यक्ति को दान

बिना स्वार्थ, अनुपकारी को जो वह सात्विक दान ।।20।।

 

भावार्थ :   दान देना ही कर्तव्य है- ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल (जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।) और पात्र के (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न, वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो, उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान्‌ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं।) प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है॥20॥

That gift which is given to one who does nothing in return, knowing it to be a duty to give in a fit place and time to a worthy person, that gift is held to be Sattwic.।।20।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (19) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्‌ ।।19।।

 

किसी मोह के भाव से, जनहित को नुकसान

पहुँचाने होता जो तप, तामस की पहचान।।19।।

 

भावार्थ :   जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ।।19।।

The austerity which is practised out of a foolish notion, with self-torture, or for the purpose of destroying another, is declared to be Tamasic. ।।19।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (18) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्‌।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌ ।।18।।

जो तप निज सत्कार हित, सहित दंभ अभिमान

वह अस्थिर चंचल तप है राजस यह तू जान ।।18।।

भावार्थ :   जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित (‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।।18।।

The austerity which is practised with the object of gaining good reception, honour and worship and with hypocrisy, is here said to be Rajasic, unstable and transitory. ।।18।।

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (17) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।

अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17।।

 

कर्म फलो की चाह बिन, श्रद्धा से संयुक्त

साधक करता त्रिविध तप वह सात्विक तप उक्त ।।17।।

भावार्थ :   फल को न चाहने वाले योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किए हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।।17।।

This threefold austerity practised by steadfast men with the utmost faith, desiring no reward, they call Sattwic.।।17।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (16) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।16।।

 

मन प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्म अवलंब

शुद्ध विचार, पवित्रता, मानस तप के अंग।।16।।

 

भावार्थ :   मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।।16।।

Serenity of mind, good-heartedness, purity of nature, self-control-this is called mental austerity.।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (15) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते ।।15।।

सरल सत्य प्रिय भाषण औ” दैनिक स्वाध्याय

जिस से न उद्वेग वह वाचिक तप कहलायॅ ।।15।।

भावार्थ :   जो उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम ‘यथार्थ भाषण’ है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है ।।15।।

 

Speech which causes no excitement and is truthful, pleasant and beneficial, the practice of the study of the Vedas, are called austerity of speech. ।।15।।

 

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (14) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।।14।।

 

द्विज, गुरू, ज्ञानी देव की पूरा सरल अहिंसा धार

की जाती वह तपस्या, कायिक विधि अनुसार ।।14।।

भावार्थ :   देवता, ब्राह्मण, गुरु (यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए।) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा- यह शरीर- सम्बन्धी तप कहा जाता है ।।14।।

Worship of   the   gods,   the   twice-born,   the   teachers   and   the   wise, purity, straightforwardness, celibacy and non-injury—these are called the austerities of the body. ।।14।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – सप्तदशोऽध्याय: अध्याय (13) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय १७

(आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद)

 

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्‌।

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ।।13।।

 

मंत्रहीन, दक्षिणा रहित, श्रद्धा रहित जो यज्ञ

उसे तामसी मानते सभी विज्ञ, शास्त्रज्ञ ।।13।।

 

भावार्थ :   शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं ।।13।।

 

They declare that sacrifice to be Tamasic which is contrary to the ordinances of the scriptures, in which no food is distributed, which is devoid of Mantras and gifts, and which is devoid of faith. ।।13।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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