अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (15-16) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।15।।

 

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16।।

 

मैं ही एक कुलीन हॅू, मुझ सा दूजा कौन ?

यही सोचते जग डरा मेरे सामने मौन ।।15।।

 

भिन्न विभ्रमों में पड़े, मोह जाल में बद्ध

काम भोग आसक्त ये पाते नरक प्रसिद्ध।।16।।

 

भावार्थ :  मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं।।15-16।।

“I am rich and born in a noble family. Who else is equal to me? I will sacrifice. I will give (charity). I will rejoice,”-thus, deluded by ignorance,।।15।।

Bewildered by  many  a  fancy,  entangled  in  the  snare  of  delusion,  addicted  to  the gratification of lust, they fall into a foul hell.।।16।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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मो ७०००३७५७९८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (14) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी।।14।।

मारा मैंने शत्रु , यह कल मारूँगा अन्य

मैं ही ईश्वर हॅू यहाँ , भोगी, बली, अनन्य ।।14।।

 

भावार्थ :  वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ।।14।।

 

“That enemy has been slain by me and others also I shall slay. I am the lord; I enjoy; I am perfect, powerful and happy”.।।14।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (13) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌।।13।।

इतना तो है पा लिया, कब आयेगा और

गलत मनोरथ पूर्ति हित रत रहते हर ठौर ।।13।।

 

भावार्थ :  वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा।।13।।

 

“This has been gained by me today; this desire I shall obtain; this is mine and this wealth too shall be mine in future.”।।13।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (12) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌।।12।।

कामी, क्रोधी, लालची बंधे आश के जाल

धन संचय, अन्याय से होने को खुशहाल ।।12।।

 

भावार्थ :  वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं ।।12।।

 

Bound by a hundred ties of hope, given over to lust and anger, they strive to obtain by unlawful means hoards of wealth for sensual enjoyment.।।12।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (11) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः।।11।।

घिरे सतत चिन्ताओं में प्रलय काल पर्यन्त

काम-भोग में रत सदा, पाते दुखमय अंत।।11।।

 

भावार्थ :  तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं।।11।।

Giving themselves  over  to  immeasurable  cares  ending  only  with  death,  regarding gratification of lust as their highest aim, and feeling sure that that is all.।।11।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (10) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।10।।

दंभी और मदान्ध ये करते दूषित कृत्य

रहकर पापाचार में जीवन भर अनुरक्त।।10।।

 

भावार्थ :  वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं।।10।।

 

Filled with insatiable desires, full of hypocrisy, pride and arrogance, holding evil ideas through delusion, they work with impure resolves।।10।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (9) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।9।।

दुष्टात्मा, अतिमंदमति, करने सतत विनाश

होते पैदा, लोक को करने दुखी, निराश ।।9।।

 

भावार्थ :  इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रुरकर्मी मनुष्य केवल जगत्‌ के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं।।9।।

 

Holding this view, these ruined souls of small intellects and fierce deeds, come forth as enemies of the world for its destruction.।।9।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (8) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌।।8।।

जग का कोई न अधीश्वर कहीं न कोई आधार

भोग मात्र है सुख सही करते यही विचार ।।8।।

 

भावार्थ :  वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत्‌ आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है?।।8।।

 

They say: “This universe is without truth, without a (moral) basis, without a God, brought about by mutual union, with lust for its cause; what else?”।।8।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (7) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।।7।।

असुरो में न पवित्रता, दया न शुभ आचार

सत्य से कोसो दूर रह, करते पापाचार ।।7।।

 

भावार्थ :  आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है।।7।।

 

The demoniacal know not what to do and what to refrain from; neither purity nor right conduct nor truth is found in them.।।7।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – षोडश अध्याय (6) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दैवासुर संपद्विभाग  योग

(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)

 

द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु।।6।।

इस जग में दो सृष्टि है, दैव आसुरी नाम

क्रमशः अच्छे बुरे है इन  दोनो के काम ।।6।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन।।6।।

 

There are two types of beings in this world-the divine and the demoniacal; the divine has been described at length; hear from Me, O Arjuna, of the demoniacal!।।6।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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