हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 19 ☆ साक्षात्कार ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत☆.

वरिष्ठ रचनाकार, काव्य जगत से अपने लेखन की शुरुआत करने वाली, श्रेष्ठ व्यंग्य लेखिका अनेक सम्मान से सम्मानित आज की श्रेष्ठ कथा लेखिका बहुमुखी प्रतिभा की धनी सूर्यबालाजी से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व तथा विविध लेखन विधा के संदर्भ में सूर्यबाला जी ने बहुत ही उम्दा तरीके से प्रस्तुति दी है। प्रस्तुत है सूर्यबाला जी से डॉ भावना शुक्ल जी की बातचीत…..

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार सूर्यबाला जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 19  साहित्य निकुंज ☆

☆ सूर्यबाला जी से डॉ.भावना शुक्ल की बातचीत

(मेरे पास मेरा अपना स्त्रीवाद है….)

डॉ भावना शुक्ल – आपके लेखन में स्त्रीत्व की सुगंध समाहित है आपका सम्पूर्ण लेखन स्त्री वाद पर ही आधारित है,  इस पर प्रकाश डालिए?

सूर्यबाला – सच पूछिए तो मैंने मात्र स्त्री-केंद्रित लेखन, यानी स्त्री समस्याओं से जुड़ा लेखन कम ही किया है। लेकिन यह सच है कि मेरे लेखन के केंद्र में स्त्रीत्व एक सुगंध की तरह व्याप्त है। मैं प्रकृति की इस रचना, स्त्री को बहुत अनूठे गुणों, और छबियों से युक्त मानती हूं, विलक्षण मानती हूं, स्त्री और, स्त्री-शक्ति को। मेरे पास मेरा अपना स्त्री-वाद है वह फार्मूले वाला वाद नहीं, स्त्री-भाव वाला स्त्री-वाद। इस भाव और वाद के केंद्र में वह स्त्री है जिसकी कोशिशों से ही यह विश्व सुंदर बन सकता है, स्त्री चाहेगी तभी, अन्यथा नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – ‘सुबह के इंतजार तक’ शीर्षक उपन्यास की मानू बलात्कार के अवांछित आघात को किस तरह वहन करती है ? क्या स्नेह और सहानुभूति ही उसका आधार है?

सूर्यबाला – इस छोटी की उपन्यासिका ‘सुबह के इंतजार तक…’ की किशोर नायिका मानू अपने भाई की पढ़ाई का छूट जाना (पिता की छंटनी के कारण) बर्दाश्त नहीं कर पाती। यह आज से तीस वर्ष पहले की कहानी है। अपने मामा के कारखानें के किसी वर्कर के कुकृत्यों का अभिशाप भुगतती मानू, अपने माता-पिता को इस आघात से भी विगलित नहीं देख पाती और एक अंधेरी सुबह, छोटे भाई के साथ घर छोड़ देती है। एक तरह से माता-पिता को जैसे मुक्त कर देती है। असंभव सी लगती इस कहानी में मानू उस विनम्र लेकिन दृढ़ संकल्पी स्त्री की छवि निर्मित करती है जो आक्रामकता से नहीं बल्कि विनम्र आत्मस्वीकार से अपने आस-पास वालों को वश में करती है। मेरे पास ऐसी बहुत सी स्त्री छबियां है जो कंदील की तरह मेरे जीवन और लेखन में जहां तहां जगमगाती दिख जायेगी आपको। मेरे पहले उपन्यास ‘मेरे संधि पत्र’ की शिवा ने भी अपने संवेदनशील स्त्री चरित्र से पाठकों को मुग्ध किया है। ये स्त्रियां आज के समय में भी लेने से ज्यादा देने के सुख में विश्वास करती हैं। यूं भी यह सिर्फ स्त्री का गुण नहीं, वरन मानवीय गुणों की श्रेणी में आता है।

डॉ भावना शुक्ल – आपका नया आया उपन्यास “कौन देस को वासी….वेणु की डायरी“ इन दिनों विशेष रूप से चर्चा में है? आपको क्या लगता है। इसकी किस विशेषता की वजह से पाठक इसे सराह रहे हैं?

सूर्यबाला – बहुत मुश्किल है बताना। स्वयं मुझे आश्चर्य हो रहा है। कभी सोचा नहीं था कि इस तेज रफ्तार समय में इस लगभग चार सो पृष्ठ वाले उपन्यास को पाठक इतने धैर्य से पढ़ेंगे और मुक्तभाव से सराहेंगे। लोगों को यह भी अच्छा लगा कि इस पूरे उपन्यास के इतने चरित्रों मैं किसी चरित्र के साथ जजमेंटल नहीं हुई हूं। वे इस उपन्यास के प्रमुख चरित्रों वेणु के साथ ही नहीं, बल्कि उसकी मां, तीनों बहनों वसुधा, वृंदा, विशाखा तथा विदेश में मिले स्त्री चरित्रों के साथ भी इतना जुड़ाव महसूस करेंगे। एक पाठक ने लिखा है, इस उपन्यास को मैंने सिर्फ पढ़ा नहीं जिया है। कभी वेणु बन कर तो कभी मां, कभी विशाखा बन कर तो कभी वसु…. एक कारण शायद यह भी हो कि मैंने मात्र पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों को कथा रूप में समांतर पाठकों के सामने रख दिया है और निर्णय उनके ऊपर छोड़ दिया है। मैं स्वयं निर्णायक नहीं हुई हूं। पाठक पूरी तरह स्वतंत्र है परंपराओं और आधुनिकता तथा पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के बीच से रास्ता निकालने के लिए।

डॉ भावना शुक्ल – इन दिनों विवाह स्थायी क्यों नहीं हो पा रहे हैं?

सूर्यबाला – कोई एक स्थूल कारण नहीं। पर कुछ चीजें शीशे की तरह साफ है। समय की रफ्तार बहुत तेज है। किसी के पास आपसी संबंध, दायित्व निभाने का समय नहीं। समय नहीं तो ‘साथ’ नहीं, और साथ की कामना  की चाहना धीरे-धीरे रितती चली जाती हैं। हर किसी के लिए विश्वास और संबंधों से ज्यादा कैरियर प्रमुख हो गया है। जीवन के सारे बहुत महत्वपूर्ण संबंध भी ‘अर्थ शास्त्र से जुड़ गए हैं। सबसे बढ़कर अब स्त्री ने अपने साथ निभाने वाली भूमिका से, त्याग और समर्पण वाले आदर्शों से किनारा कर लिया है। तो विवाह संस्था औंधे मुंह गिरेगी ही। आज भी जहां स्त्री, परिपक्व समझदार होती है, वह पति परिवार को बखूबी संभाल ले जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है दिनोंदिन तलाक की समस्या का बढ़ते जाना। यूं भी असफल विवाह के लिए तलाक एक सीमित समधान है मैंने कहीं लिखा था, तलाक स्वर्ग की गारंटी नहीं।

हमें दूसरों की भावना को समझने उसकी पसंद नापसंद की कद्र करनी होगी। बात बड़ी नहीं होती, बड़ी बना दी जाती है। सिर्फ एक दूसरे की भावना और पसंद को समझ कर हम एक दूसरे का दिल जीत सकते हैं। आज हर व्यक्ति बेसब्र है, हर किसी को अपनी शर्तों पर जीना है। ऐसे में ‘सहभाव’ और सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है!

डॉ भावना शुक्ल – क्या आज की स्त्री मुक्त हो पाई है। या वह मार्ग तलाश रही है, क्यों?

सूर्यबाला – ये मुक्ति, मुक्ति का शोर मचाने वाले ज्यादातर वही लोग हैं जो वास्तविक मुक्ति का मतलब भी नहीं जानते। ‘मुक्ति’ नापतौल कर, गज फुट से मापी और मांगी जाने वाली चीज नहीं है। मुक्ति एक मानसिकता है, एक विचार है जो आपकी दृष्टि को फैलाव देता है। इससे आप दूसरो को भी रोशनी देते हैं। मुझे नहीं लगता है कि बहुत सी स्त्रियों को पता भी है कि आखिर उनकी तलाश है क्या? कैसी मुक्ति? किससे मुक्ति? मैंने बहुत सी साक्षर, महिलाओं को इतनी तंग मानसिकता का देखा है कि आश्चर्य हुआ है….. उन्हें सिर्फ अपनी स्पेस चाहिए। मुक्त तो वह स्त्री हुई न जो दूसरों की ‘स्पेस’ की चिंता करती हो, या वह जो दूसरों की स्पेस पर भी अपना वर्चस्व चाहती हो।

डॉ भावना शुक्ल – आज के समय में पाठक की मर्मज्ञता क्या दृश्य माध्यम से पूर्ण हो सकती है?

सूर्यबाला – शायद आपका आशा यह है कि क्या दृश्य माध्यम आज एक मर्मज्ञ पाठक/श्रोता या दर्शक की अपेक्षा पूरी करने की स्थिति में हैं? तो बिलकुल नहीं। दृश्य माध्यम पूरी तरह हवाई, अतिशयोक्ति पूर्ण चीजें परस रहे हैं। उन्हें सिर्फ टी.आर.पी. की चिंता है। वे दर्शकों की रूचियों का परिष्कार नहीं उसे प्रदूषित कर रहे हैं। वे टी.आर.पी. का बहाना लगा कर अत्यंत फूहड़, अव्यवहारिक और सतही मनोरंजन दे रहे हैं, और  दोष दर्शकों के माथे मढ़ रहे हैं, यह कहकर कि उन्हें यही पसंद आता है। यदि दर्शकों को पसंद आ भी रहा हो तो भी उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का ध्यान रखकर वह देना चाहिए जो लोगों के लिए श्रेयस्कर हो। वह नहीं जो मात्र उनके आर्थिक लाभ का माध्यम बनें।

डॉ भावना शुक्ल – कहानी या उपन्यास लिखते समय आप किस मानसिक स्थिति से गुजरती है?

सूर्यबाला – मैं कभी पहले से विषय निश्चित कर, योजना बना कर नहीं लिखती। रचना, कृति मेरे अंदर वर्षों, महीनों बड़े सपनीले मनोरम और आभासी रूप में रहते रहे हैं तब किसी दिन भावना का आवेग चरम पर होने पर कलम कागज पर चलने लगती है। वह एक बेसुधी की सी स्थिति होती है उस स्थिति, भावना से जुड़ा सबकुछ हम उतारते चले जाते हैं…. वहां भावना और आवेग प्रधान होते हैं। समय, सुविधा और स्थितियां जितनी देर साथ देती हैं, उतना लिखती हूं। या फिर उस समय अंदर का भी आवेग थमा, ‘इंधन’ चुका तो कलम फौरन रोक देती हूं।

इस लिखे हुए को मैं पूरी तरह बंद कर आंखों से ओझल कर देती हूं। दो चार दिन या हफ्ते बाद खोल कर पढ़ती हूं…. जहां कहीं जो अटकता है, या बहुत भावावेगी लगता है, उसे काटती तराशती संतुलित करती हूं। प्रेशर या दबाव बाहर का नहीं मेरे अंदर बैठे अदृश्य आलोचक या पाठक का कह लीजिए, उसका होता है। यही होना चाहिए भी, ऐसा मैं मानती हूं।

डॉ भावना शुक्ल – आपने व्यंग्य विधा में भी कलम चलाई है आपकी दृष्टि इस ओर कैसे गई?

सूर्यबाला – व्यंग्य लेखन भी मेरी कलम की स्वतः स्फूर्त विधा है। मैंने कहानियां लिख चुकने के महीनों वर्षों बाद व्यंग्य लिखना नहीं प्रारंभ किया, बल्कि व्यंग्य, कहानियां और उपन्यास सब साथ साथ ही चले। वह आठवें नवें दशक का समय था जब मैं एक साथ कहानियां, व्यंग्य, उपन्यास और बाल साहित्य चारों विद्याओं के धाराप्रवाह लिख रही थी। अंदर जितना जो था, वह भी संभाषित विधाओं को सौंप रही थी।

लेखन में हमेशा मैंने एक अनुशासन भी बरता, जब जो विधा, जो रचना नहीं संभली, फौरन छोड़ दी। अतः मेरे पूरे लेखन में सायास कुछ भी नहीं।

डॉ भावना शुक्ल – उपन्यास कहानी व्यंग पर आप ने धारदार कलम चलाई है क्या कभी आपके मन में कविता लिखने का भाव नहीं उपजा ?

सूर्यबाला – लीजिए, मेरी शरूआत ही कविताओं से हुई है। यह पहली कविता भी अनायास ही लिख गई। मैंने कभी उस आठ नौ वर्ष की उम्र में कविता लिखने की सोची भी नहीं थी। एक दिन अनायास ही अकेले में सूझ गई, कुछ कविता टाइप पंक्तियां-

तुम बांसुरी हमारी, हो प्राण से प्यारी….

उस उम्र के लिहाज़ से इस पहली कविता की अंतिम पंक्तियां मुझे अभी भी ठीक ठाक ही लगती है- कृष्ण की बांसुरी पर सम्मोहित गोपियों के लिए वे पंक्तियां हैं-

यदि मार्ग में कोई रोक सके
तो प्राण उठा रख देती हैं।
प्राणों की बलि रखकर फिर भी….
आना वे नहीं भूलती हैं।

किशोर वय की प्रायः सभी कविताएं उत्तर प्रदेश के उन दिनों के सबसे लोकप्रिय समाचार पत्र ‘आज’ में छपती रहीं। उन्हीं किन्हीं दिनों क्रमशः कविता का जादू उतरता गया, कहानियां अपना वर्चस्व बढ़ाती गयीं।

डॉ भावना शुक्ल – लेखन आपके जीवन में क्या मायने रखता है क्या यह आपका अनिवार्य अंग बन गया है?

सूर्यबाला – अब इसमें दुविधा संशय नहीं रह गया है कि लिखना मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन गया है। मुझे लिख कर शांति मिलती है सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है। जीवन में इससे बढ़ कर कुछ चाहिए भी नहीं। मेरी जरूरतें बहुत सीमित हैं। कुछ प्यार भरे रिश्ते, अपना भरापूरा कुटुंब और अपनी कलम, बस…..

लोग अकसर मुझे फोन कर करके दूसरों को मिले पुरस्कारों का हवाला देकर टटोलते भी हैं कि फलां फलां को मिल गया… अमूक पुरस्कार….. लेकिन आपको….. मुझे हंसी आती है…. उन्हें कैसे समझाऊं कि एक अच्छी रचना पूरी करने के बाद का सुख लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। उसे उसी नशे में धुत होना चाहिए। मेरी जिद् ही कहिए कि आधी सदी से ऊपर हो गए, मैंने आज तक किसी पुरस्कार के लिए अपनी कोई पुस्तक नहीं भेजी। किसी प्रतिस्पर्धा में नहीं पड़ी। ऊपर ऊपर इसका नुकसान भी उठाया। पर इस जिद ने मुझे बहुत रिलेक्श रखा। अब तक के जीवन में, छोटे या बड़े, जो पुरस्कार स्वयं मेरे पास आए, उन्हें बेशक मैंने सरआंखों से लगाया। ये बिन मांगे मिले मोती थे।…..

डॉ भावना शुक्ल – अंत में आप अपनी किसी भी विधा का एक प्रेरणात्मक अंश हमारे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कीजिए ?

सूर्यबाला – मेरे नये आये उपन्यास ‘कौन देस को वासी…. वेणु की डायरी’ के परिशिष्ट का एक अंश जहां वेणु का अमेरिका में पला बढ़ा और भारत पर हंसने वाला बेटा, बेटू अपने पिता को उस डच बॉस जॉन मार्टिन के बारे में बता रहा है कि किस तरह उसका ‘योगी बॉस’ इंडिया से प्रभावित है-

‘.—-’ एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो मद्राः’ और ‘संतोष परम् सुखम्’ कोट करता रहता है दूसरी तरफ ‘इंडियन वे ऑफ मगिंग’, ‘इंडियन वे ऑफ लर्निंग,’ ‘इंडियन वे ऑफ लिविंग’ तक विश्लेषित करते हुए कहता है कि- नाउ इज़ द टाइम जब ‘वेस्ट’ को ‘ईस्ट’ से जूझ कर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं इंडियंस। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन इंश्योरेंस ऐंड बैंकिंग तक…. दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियंस का ही बोलबाला है।’

सूर्यबाला

बी. 504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड देवनार मुंबई-88

मो. 9930968670, Email- [email protected]

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है ☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ☆.

हम अनुग्रहित हैं डॉ भावना शुक्ल जी  के जिन्होंने हिंदी साहित्य की सुविख्यात साहित्यकार चित्र मुद्गल जी के साक्षात्कार को ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का अवसर प्रदान किया. ) 

 

☆ चित्रा मुद्गल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत

 

(“लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है, उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है, कुछ नहीं कह पाते, कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं”)

 

जानी मानी वरिष्ठ कथा लेखिका अनेक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित चित्रा मुद्गल जी का नाम ही परिचय का बोध कराता है। मैं उन्हें नमन करती हूँ। आज मेरे लिए बहुत ही हर्ष का विषय है और स्वयं को भाग्यशाली मानती हूँ जो मुझे उनसे साक्षात्कार लेने का अवसर प्रपट हुआ। प्रस्तुत है चित्रा मुद्गल जी से डॉ.भावना शुक्ल की लंबी वार्ता। मैं अपनी ओर से तथा आपके असंख्य पाठकों की ओर से आपको विगत दिनों प्राप्त सम्मानों पुरस्कारों के लिए बधाई देती हूँ।                            – डॉ भावना शुक्ल 

 

डॉ.भावना शुक्ल – आपके उपन्यासों में जीवन के यथार्थ को दर्शाया गया है, जैसे विज्ञापन की दुनिया में एक स्त्री किस प्रकार अपनी जमीन तलाश रही है उसकी जद्दोजहद को आपने किस प्रकार व्यक्त किया है. इस उपन्यास को लिखते समय आपकी मनो दशा क्या थी ?

चित्रा मुद्गल – पहली बात मैं कहना चाह रही हूँ कि जिस वक्त हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श को एक विशेष उठाए गए आंदोलनों की तरह रेखांकित नहीं किया जा रहा था उस समय मुझे लगा कि इस चीज की बहुत जरूरत है, क्योंकि मुझे यह एहसास हो रहा था की विमर्श जो है कहीं न कहीं जिस दृष्टि से स्त्री के संघर्ष को, स्त्री की पीड़ा को, स्त्री के उत्पीड़न को, उसके बुनियादी अधिकारों को जिस तरह से उठाया जाना चाहिए उस तरह से उठाया नहीं जा रहा है बल्कि उसको थोड़ा सा फॉर्मूला बद्ध किया जा रहा है। पहले हंस पत्रिका थी और 10 वर्ष बहुत ही अच्छी पत्रिका जो सामाजिक सरोकारों से हो सकती है वह हंस थी और 90 के आसपास आते-आते सारिका बंद हो गई थी, धर्मयुग बंद होने की कगार पर था, साप्ताहिक हिंदुस्तान बंद होने की कगार पर था, तो वमुझे यह लगा कि जिस तरह की कहानियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. हंस के माध्यम से वह कहीं ना कहीं सृजनात्मकता में स्त्री विमर्श की एक गलत तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है और उसको फार्मूला बनाया जा रहा है। लिखने वालों के माध्यम से सभी स्त्रियां जो उस समय नई पीढ़ी की लेखिकाएं थी उनको यह बात बहुत आकर्षित कर रही थी।  उसी समय वैश्विक पटल पर भी हम यह देख रहे थे स्त्री संघर्ष की जो बातें हो रही थी उन  बातों में केंद्रीय भूमिका स्त्री की ‘देह’ थी. बातों से मेरा तात्पर्य है थोड़ी चिंता हुई उसके बाद पहले मैं डेटा एडवरटाइजिंग कमेटी से भी जुड़ी थी, लैंड ऑफ एडवरटाइजिंग से भी जुड़ी थी मुझे इन सब बातों ने बहुत चिंतित किया.  सही दिशा जो है वह होनी चाहिए विदेशों में जो चर्चा चल रही है स्त्री विमर्श को लेकर के वह चीज हमारे भारतीय स्त्री के लिए सही नहीं है।  हमारी लड़ाई है कि स्त्री को एक मस्तिष्क के रुप में पहचाना जाए। हमारी लड़ाई है हमारे पितृ सत्तात्मक समाज में स्त्री को लेकर जरूरी हैं वह जाननी है, उसे संरक्षण की जरूरत होती है, वह अपने दिमाग से कुछ सोच नहीं पाती है, वह बच्चों के भविष्य को लेकर कोई निर्णय नहीं ले पाती है, बच्चों को क्या पढ़ना चाहिए उसके बारे में वह अवगत नहीं होती है, अवगत होना चाहिए वह होती नहीं है, वह अपनी चूल्हे चौके तक सीमित व्यक्तित्व, सारी चीजें बड़ी भ्रामक थी और इसको ही पितृसत्ता ने चला रखा, सदियों से स्त्री को उसी के अनुकूल अनुरूप उठा ले रखा तो उनका स्वार्थ सिद्ध होता था और उस समय उनको जो स्त्री चाहिए वो एक गुलाम।  जरूर चाहिए गुलाम और स्त्री में कोई अंतर नहीं कर पाते थे, वह सब मुझे उस समय बहुत गलत लगा कि एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते समाज को एक गलत संदेश सर्जना के माध्यम से फैलाए जा रहे हैं और जो हमारी नई पीढ़ी एक जागरुक पीढ़ी है भविष्य की नई पीढ़ी है. जैसे पुरानी पीढ़ी की लेखिकाएं लिखा करती थी जैसे मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती और इसी तरह से कविताओं में स्नेहमयी चौधरी उसके पहले शिवरानी देवी, सुभद्रा कुमारी चौहान, महीयसी महादेवी वर्मा हालांकि महादेवी वर्मा ने अपने समय में स्त्री विमर्श को जीवन से सिद्ध किया यानी वह एक कवयित्री ही नहीं थी यदि वह कहती है…. “मैं नीर भरी दुख की बदली …और इसी तरह उन्होंने स्त्री पुरुष की परस्परता बराबरी और समानता को लेकर और सामाजिक विषमता को लेकर के बड़े उम्मीदों के साथ और यह भी कहा कि भविष्य होना क्या चाहिए…….. ” आओ हम सब मिलकर झूले….  और उसको उन्होंने अपने जीवन में उतारा भी और वह खुद शिक्षाविद थी उसके बावजूद उन्होंने इस बात की आवश्यकता महसूस की कि   स्त्री के आत्म संपन्न होने के लिए, आत्मनिर्भर होने के लिए अपनी सत्ता के लिए यह चाहिए की वह शिक्षित हो और शिक्षित होकर वह आत्मनिर्भर बने. उन्होंने कन्या विद्यापीठ की स्थापना की। स्त्रियों को सक्षम करने के लिए उस जमाने में यह लगा कि यह सब पटरी से उतर रहा है, शिक्षित हो मस्तिष्क की प्रतिष्ठा और स्थापना ना करके आप अपनी ‘देह’ पर ही लौट रहे हो, मैं चाहे जिस तरह इस्तेमाल करूं यौन आतुरता को लेकर भी पितृसत्ता ने उसकी कभी भी परवाह नहीं की। सिर्फ एक बच्चा पैदा करने की मशीन उसे बना दिया गया था उसका भी हक है कि उसकी परवाह की जानी चाहिए। स्त्री विमर्श का एक मुद्दा यह नहीं है लेकिन मुझे लगा कि एक समय ऐसा लिखना चाहिए और लड़ाई है। क्या यह स्त्रियों को जानना चाहिए कि लड़ाई केवल 24/28/34 बने रहने की नहीं है, लड़कियों को यह बताना कि आपको अपने ही को  संवारने में ही खुला जीवन जीना अपने और किसी को अगर नहीं देखना अपनी आंखों का संयम बरतें, आंखों को घुमा ले। तुम इन वस्त्रों में क्यों नहीं रह सकते? ऐसे क्यों रहोगे? लड़कों को चाहिए कि वह अपनी नजरें झुकाए. जैसे एक वट वृक्ष की खूबी होती है। समय, प्रतिभा और क्षमता जो दूसरों को छांव दे सके जो उसके व्यक्तित्व में है जो उसे इतना सा बना दे। मैंने “एक जमीन अपनी” 1990 में लिखने की आवश्यकता महसूस की और भावना मैंने लिखा लेकिन मुझे नहीं मालूम कि मैंने कैसा लिखा और क्या लिखा, फिर भी  मेरे मन में संतुष्टि है विज्ञापन जगत का जो दायरा है जो औरत को प्रभावित करता है केवल उसकी सुंदरता को ध्यान में रखकर.

अभी आजकल मैं एक विज्ञापन देख रही हूं भावना मुझे बहुत आकर्षित करता है एक मां अपने बच्चे के साथ व्यायाम कर रही है। उसको फिटनेस देना चाह रही है और वह भी व्यायाम कर रहा है जब वह गिरता है तो वह कहती है कि जब तुम गिरोगे तब मैं भी गिरूंगी और कहती है कि जब मैं जीतूंगी तभी जब तुम मुझसे आगे जाओगे। मतलब एक औरत बच्चे को क्या नहीं बना सकती, जो भविष्य की पीढ़ी है। इस तरह संकीर्ण मनोवृत्ति जो पितृसत्ता ने सदियों सदियों से अपनाया है उसको लेकर मुझे लगा जो स्त्री विमर्श का भ्रामक अर्थ जा रहा है उससे लड़ना है.

 

सुश्री चित्र मुद्गल जी का साक्षात्कार लेते हुए डॉ. भावना शुक्ल  

 

डॉ.भावना शुक्ल- एक साक्षात्कार में आपने पितृसत्ता से मुक्ति का विचार दिया है यानी आप मातृ सत्ता के पक्ष में है कृपया स्पष्ट कीजिये ?

चित्रा मुद्गल – पितृसत्ता से मुक्ति का मतलब हो सकता है जो उसने स्त्री को क्या बना कर रखा हुआ था उससे मुक्ति चाहिए और उससे मुक्ति बिना अपने व्यक्तित्व को गढ़े हुए, बुने हुए नहीं मिल सकती और उसके लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। जो कुछ कहा उसने सर झुकाकर मान लिया। मानेंगे अगर सही कहा यदि एक परामर्श के रूप में साझेदारी के रूप में है। हमे नहीं लगता कि आप उस साझेदारी की भावना को लेकर चल रहे हैं। पितृसत्ता को बदलना होगा, उसका आवाहन उसकी सत्ता, उस मातृसत्ता को उस शक्ति को आप तभी स्वीकार करते हैं जब नवरात्रि आती है। तो हमें ऐसे तीज और त्योहारों और पर्व तक बांध के मत रखो और उसको बता कर हमें मूर्ख मत बनाओ और वह सत्ता मूर्तियों से बाहर निकल कर के आप की कलाई नहीं पकड़ सकती थी। आप शोषण कर रहे हैं, दमन कर रहे हैं इसलिए यह ठीक कह रही हो यह बात मैंने कही थी।

डॉ.भावना शुक्ल – आपके लेखन में आपके पति स्मृति शेष अवध नारायण जी मुद्गल की कितनी प्रेरणा रही कितना सहयोग रहा ?

चित्रा मुद्गल – एक बात मैं कहना चाहती हूँ जब हम दोनों ने यह निश्चय किया कि हम परिणय सूत्र में बंधेंगे तो हमारे सामने यह समस्या थी कि मेरे घरवाले इसके लिए राजी नहीं थे। मैं बहुत संपन्न घर से हूं लेकिन विपन्न मानसिकता है उन लोगों की, मैं उस घर से हूँ, जहाँ पिता इतने बड़े नेवल अधिकारी हैं, बाबा डॉक्टर हैं, चाचा पुलिस कमिश्नर हैं, एक होता है ऐसी मानसिकता जो क्षत्रिय में हम लड़कियों को शिक्षा तो देंगे क्योंकि आज का वक्त चीज की मांग करता लेकिन हम उनके मन को नहीं जानेंगे, नहीं पूछेंगे, हम जहां चाहेंगे वही व्याह करेंगे. खानदान से खानदान होता है और मैं इसके लिए राजी नहीं थी। मैं अपनी मां की विरासत को नहीं जी सकती थी। मेरे मन में हमेशा यह आक्रोश रहा कि मैं सर पर पल्ला देकर के चुटकियों में अपना पल्ला साधे हुए घर की डाइनिंग टेबल पर क्या लगेगा केवल इसकी चिंता में ही लगी रहूं, मैं उसकी चिंता जरूर करूंगी लेकिन इसके साथ-साथ इस बात की चिंता करूंगी कि मुझे मेरी अस्मिता को वह सम्मान मिल रहा है की नहीं जो एक स्त्री होने के नाते मिलना चाहिए, और पहचाना जाना चाहिए, स्वीकार किया जाना चाहिए, यहां एक मस्त छवि है जो तुम्हारी मस्तिष्क पर जो तुम्हारे मस्तिष्क से बराबरी करता है। यह कई मायनों में उस से गहरा चेतन है, तुम्हारी संवेदना की वनस्पति उसकी संवेदना का असीम विस्तार है। क्योंकि, स्त्री जिस प्रसव पीड़ा को झेलती है तो कोई उसको सपने में भी नहीं झेल सकता। पुरुष को यह लगता है कि मैं संरक्षण दे रहा हूं, खाना कपड़ा दे रहा हूं और क्या चाहिए? पर भाई तुमको तो घर का काम करना ही पड़ेगा अपना, यह सारी चीजें मुझे स्वीकार नहीं थी और जब मुद्गल जी से जब मैंने ब्याह करने का निश्चय किया बहुत विरोध हुआ और मैंने मुद्गल जी से बात कही हम शादी बहुत सादगी से करेंगे। हमने पांच रूपए माटुंगा आर्य समाज मंदिर में भरकर विवाह किया। मुश्किल से 7 लोग थे जो धर्मयुग के सब एडिटर थे, माधुरी में थे, सारिका में थे, नवभारत टाइम्स में थे, यह लोग थे हरीश तिवारी उन्होंने मेरे भाई की भूमिका निभाई और उसके बाद तो मित्रों का कहना था कि गोरेगांव बांगुर नगर में “टाइम्स ऑफ इंडिया” के संपादक है तीन सौ का छोटा मकान लेकर अपन रहिए, मैंने कहा नहीं मैं उसी झोपड़पट्टी में जिस झोपड़पट्टी के बीच मैं काम करती हूं, दुनिया के किसी भी कोने से वहाँ मैं थी।  वहाँ निर्धन लोग हैं लेकिन वे वहाँ मेरी बहुत इज्जत करते हैं और जो बड़े बूढ़े लोग युवा पीढ़ी पर भरोसा करते हैं, मेरे सुझावों को मानते हैं, मेरे संकेतों को समझते हैं, मैं उनके लिए धरना दे सकती हूँ, जेल जा सकती हूँ, मैं भूख हड़ताल कर सकती हूँ, उनके अधिकार को बढ़ाने के लिए और वह मुझ पर भरोसा करते हैं, और मैं उन पर भरोसा करती हूँ, मैं वहीं रहना चाहूंगी जिस तरह से वह रहते हैं.

तो हमने वहाँ एक खोली ली उसका किराया उस जमाने में 25 रूपए था और बिजली नहीं थी नल रात को 2:00 बजे आता था। वह जो पाँच/छह कमरों की  छोटी सी चाल थी जिसको रवींद्र कालिया सुपर डीलक्स चाल कहते थे मैं कहती थी जहाँ मै रहूंगी वह डीलक्स ही होनी चाहिए क्योंकि स्वर्ग तो वहीं होता है जहां शांति होती है उन लोगों ने मुझे आश्वस्त किया था आप हमारे साथ रहिए कोई दिक्कत नहीं बाद में बिजली हमने ली सामूहिक रूप से पैसा भर के सामूहिक रूप से और पंखा नहीं था तो कमलेश्वर भाई साहब अस्सी रूपए का ओरिएंट का पंखा  मुझे खरीद के दिया था बोले चित्रा इसे लगवा लो क्यों परेशान होती हो। वहीँ मैंने अपना काम शुरू किया। वहीं से अवध जी भांडुप स्टेशन आते थे और वह भांडुप से सेंट्रल मुंबई बोरीबंदर की ट्रेन पकड़ते थे और ठीक उसको सड़क क्रॉस करके सामने टाइम्स ऑफ इंडिया का ऑफिस था.

उसके बाद कुछ धमकियां मेरे घर से थी मार देंगे, परेशान करेंगे और बीच में करीब डेढ़ 2 महीने हम लोग दिल्ली आए हम लोग इन लोगों की आंखों के सामने से हट जाएंगे तो थोड़ा सा इन लोगों को ये होगा की हमने जो किया है उसको यह अपनी प्रतिष्ठा के प्रश्न से बाहर निकलकर सोचेंगे ये अधिकार है।

तो हम लोग दिल्ली आकर के रहे और दिल्ली आकर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के पास मॉडल टाउन में रहे. मन्नू दी और राजेंद्र यादवजी शक्ति नगर में रहते थे हम उनके यहाँ रहे उन्होंने हम दोनों को बहुत प्यार से रखा और सर्वेश्वर दादा तो सब को बड़े गर्व से कहते थे कि चित्रा मेरी बहू है, उसकी धर्मयुग में कहानी पढ़ी क्या? सबको कहते थे हमारी बहू बहुत सुंदर है देखा तुमने, दादा यह सब बात करते समय ऐसे बोलते जैसे कोई बच्चा हो जाता है। दादा इतने बड़े कवि इतने बड़े सृजनकार रहे, हम लोगो के प्रति आगाध स्नेह रहा। मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकती हूँ। और वहीँ मुझे मॉडल टाउन में रामदरश मिश्र जी से मिली वहीं अजीत कुमार से मिली, स्नेहमयी चौधरी से मिली, विश्वनाथ त्रिपाठी से मिली, देवीशंकर अवस्थी जी से मिली।  मतलब हमे इतना प्यार मिला, बड़ी ताकत मिली और फिर हम वापस लौटे क्योंकि छुट्टियां बढ़ाई नहीं जा सकती थी। अवध जी को नोटिस मिल गया था या तो नौकरी से रिजाइन कर दो या नौकरी पर बने रहना है तो तुरंत वापस आकर ज्वाइन कीजिए। फिर हम अपनी उसी चाल में गए।

तुमने जो उस साझेदारी की बात करी तो वह इस बात का ख्याल रखते थे वह हमेशा कहते रहते थे कि तुम को लिखना है तुम लिखो उस वक्त कांच का लैंप चलता था उसमें लिखते थे और बत्तियों वाला स्टोव 5 रूपए का हमने लिया था। तब मेरे मित्रों ने मिलकर के जैसे ममता कालिया भी थी और वह वहाँ पर अंग्रेजी की लेक्चरार थी एसएनडीटी कॉलेज में, और इन सब ने मिलकर के मेरी गृहस्थी की जरूरत के छोटे छोटे बर्तन मुझे लाकर के दिए। सब ने बहुत साथ दिया। मैंने जिस तरह से चाहा था कि अवध जी जैसा इतना जागरुक और तेजस्वी व्यक्तित्व  का साथ जो मुझे मिलेगा एक सही साथी के रूप में मिलेगा और मुझे वही मिला मेरे पहले लिखे हुए कच्चे-पक्के के पाठक सबसे पहले वही होते थे। उसी समय उन्होंने कवंध, संपाती यह सब कहानियां धर्म युग में लिखी।  निःसन्देह, भावना मैं आज भी इस बात को कह सकती हूँ।  लोगों को लगता है कि मैं बहुत अच्छी लेखिका हूँ फिर भी मुझे हमेशा लगता रहा कि अवध जी  में जो लेखन की प्रतिभा थी वह बहुत गजब की थी, गहरी थी और उनकी कहानियां मिथकीय कहानियां होती थी और आज भी वह प्रसंग कितना प्रसांगिक है। सहयोग उनसे हमें बराबर मिला।

डॉ.भावना शुक्ल – आपकी दृष्टि में संयुक्त परिवारों की आज कितनी आवश्यकता हैं ?

चित्रा मुद्गल – संयुक्त परिवारों की बहुत आवश्यकता है। यह जो कहा जाता है कि संयुक्त परिवार तो टूट कर रहेंगे और तब तक साथ रहेंगे जब तक बच्चों को शिक्षा की जरूरत है और उसके बाद हमें नहीं मालूम के बाद हमें नहीं मालूम कि वह कहाँ रोजगार पाएंगे शिक्षित होकर के अपने देश में ही पाएंगे या विदेश जाएंगे कुछ इसका भरोसा नहीं।  संयुक्त परिवार से मेरा तात्पर्य यह रहता है कि देश में रहे विदेश में रहें, वह जहां भी रहे वह अपने पारिवारिक दायित्व के प्रति सचेत रहें। अक्सर देखने में यह आया है जो टूट रहे हैं विदेश की बात तो छोड़ दीजिए अपने ही देश में कोई बच्चा पुरी चला जाता है कोई बच्चा कलकत्ता चला जाता है, कोई बेंगलुरु चला जाता है, और बड़े  हो जाने के बाद ब्याह हो जाने के बाद क्योंकि दोनों को नौकरी करने की आवश्यकता है जीवन स्तर जो है महंगाई से आक्रांत है बिल्कुल जरूरी होता है। यह कि घर वह किराए पर लेते हैं तो उनको 40000 भरना है। एक अकेला व्यक्ति कमाकर 40000 का दो रूम का फ्लैट नहीं ले सकता और अगर ले सकेगा तो वह घर नहीं चला पाएगा। स्त्री के लिए भी काम करना आवश्यक है, वह मुझे स्वीकार है लेकिन वह अपने संघर्ष के साथ-साथ वह माँ-बाप के उस संघर्ष को भूल गए। मैंने अपनी जवानी, जवानी की तरह नहीं जी, अपने सपने सपनों की तरह नहीं जी, ऐसी साड़ी की कामना माँ को भी है, वह दुकान पर जाती है, वह प्रगति मैदान में जाती है, मेले में देखती है 6000 का टैग देखती है और अपने को सिकोड़ लेती है, यानी अपने सपनों को अपनी कामनाओं को सिकोड़ लेती है। पिता रेमंड का सूट ले सकते हैं लेकिन नहीं चलो सरोजिनी नगर से सेकंड हैंड 100 रूपए का कोई कोट ले लेंगे सर्दियां बिताने के लिए क्योंकि बच्चे को इंजीनियर बनाना है, बच्चे के हॉस्टल का खर्चा भेजना है, क्योंकि बच्चे को एमबीए की फीस देनी है, बच्चों को पढ़ाना है, एक व्यक्ति कमाता था तो वह अपनी पत्नी के लिए साड़ी लेकर नहीं आता था, वह साड़ियां ले करके आता था जो अपनी मां के लिए भी अपनी बहन के लिए भी भाभी के लिए भी। लेकिन ये बात अलग है की बहुत स्त्री ने स्त्री का शोषण किया लेकिन मैं जो बात कहना चाहती हूँ। पारिवारिक जीवन की यह जीवन शैली है एक विकासशील देश की तो उसके लिए तो सब लोगों के लिए अलग-अलग सामान की व्यवस्था होगी। विदेशी फैक्ट्रियां यहाँ पर चलती रहे और इसीलिए फैमिली के और इसी न्यूक्लियर फैमिली के दबाव बनाकर के मानसिकता के अनुकूल आपको ढाल करके वह अपनी जरूरतों को पूरा करेंगे। भारतीय कुटुंबीय जीवन और बिखर रहा है यह बड़ी चिंता की बात है और मैंने एक उपन्यास “गिलिगुडू” लिखा है गिलि का अर्थ है चिड़ियाँ और गुडू का मतलब कलरव मलयालम में कहते हैं गिलिगुडू करो – मतलब है चिड़ियों की चहचाहट, और कुटुम्बिय चहचहाहट भी समाज की जीवन शैली से तिरोहित हो जाता है दूर हो जाता है उस समाज की जीवंतता संवेदना पोखर ही नहीं अंजलि पर जल भरने जैसा नहीं है ना पीने के काम आ सकता ना प्यास की तृप्ति के काम आ सकता है न ही कपड़े धोने के काम आ सकता है। यह छोटेपन का उदाहरण है अपने अलावा किसी के बारे में नहीं सोचता। यह जो हमारे देश में आ गया है, बहुत दुखद लगता है। लोग कहते हैं अरे यह क्या है अपने-अपने रोजगार क्या कर सकते हैं .आप बेंगलुरु में रह रहे हैं पिता बीमार हैं मां बीमार है आप को समय नहीं है.पत्नी के पास समय नहीं है पत्नी के पास 2 घंटे ब्यूटी पार्लर में बिताने के लिए समय है लेकिन इनके लिए समय नहीं है अनुत्तरदायित्वपूर्ण जो जीवन शैली है यह सोचकर चलोगे कि तुम जो अपने माँ बाप के साथ कर रहे हो जिन्होंने अपने सपनों अपने कामनाओं को निचोड़कर तुम पर निछावर कर दिया तुमको सबको सक्षम बनाने में तुम्हारे बच्चे जो हम दो हमारे दो हम दो हमारे एक वह देख रहा है वह दादी नानी से दूर देख रहा है घर में हर चीज की उपस्थिति है, बढ़िया सोफे हैं, फ्रीज है, दो दो गाड़ियां है सब कुछ है, घर में दादी नानी नहीं, खांसता हुआ बूढा नहीं है, क्योंकि खांसता हुआ बूढा आपको शर्म देता है। भीष्म साहनी की एक कहानी है… “चीफ की दावत” बुजुर्ग अपने आप में एक ऐसी उपस्थिति है जो अपने अनुभव के साथ उपस्थित है कला और संस्कृति  का वह वात्सल्य और वह प्रेम वह मोह माया का सब स्नेह का एक ऐसा पुंज है जो अपने बूढ़े आँचल में एक छतनार पेड़ की तरह आसरा दे सके. वह चीफ जो है वह माँ की बनाई फुलकारी वो तारीफ करता है पूछता है यह किसने बनाई तो वह शर्म महसूस करता है यह बताने में कि यह माँ ने बनाई है। यह महिलाये पहले घर में  चूल्हा-चौका करती हैं जब फुर्सत पाती थी तुम मूंज भिगोकर के कठौते में रंगों को रख कर के और उनमे लाल हरे पीले भिगोकर के डलवे बनाती थी। टोकरियाँ बनाती थी, वह बैना बनाती थी, पंखे बनाती थी, और ऐसे बढियां कि मैं क्या बताऊं।  भावना, जिनको मैं गांव जा कर देखती थी तो मैं 8/10 पंखे ले आती थी। मेरी सहेलियों ने तो उन पंखे की डंडी हटाकर उसको मोड़कर उसमे जिप लगवा ली और पर्स बना लिए, अब ये सारी चीजें सब खो गई हैं। आज खरीदी हुई चीजें या किस्तों पर ली गई और उससे अपने घर को सजा रहे हैं अब यह तो क्या हुआ है कि हम भीतर से इतने खाली हो चुके हैं हम सोचने लगे हैं कि बीमा बहुत जरूरी है बुढ़ापे के लिए क्योंकि आज आपकी तीमारदारी करने के लिए घर में कोई उपलब्ध नहीं होगा। हम सोचते हैं कि पंजाब में रहने वाला पंजाबी बोलने वाला जो व्यक्ति है वह भी हमारा भाई बंध है उससे भी हम वही नैतिक मूल्य और जीवन मूल्यों की अपेक्षा करेंगे कि वह कोई बहन बिटिया को देखेगा तो अपनी बहन बिटिया को याद करेगा और आपके सिर पर हाथ रखेगा आज वह चीज सब खत्म हो गए और यह गिलि गुडू मुझे बहुत अच्छा लगा और इसका स्वागत लोगों ने जिस तरह से किया इसमें केवल बुढ़ापे की चिंता ही नहीं थी बुढ़ापे की स्थिति को दर्शाया है इस उपन्यास को लिखने उस संस्कृति को भी मैंने दिखाया और किस तरह से बच्चे वीडियो गेम खेल रहे हैं और वह गली मोहल्ले के बच्चों से मिलना नहीं चाहते है, चिड़िया मार रहे हैं और बड़े खुश हो रहे हैं कि उन्होने 10 चिड़िया मार दी यह खेल कैसा खेल है? किसी देश की सीमा के संरक्षण के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने का जज्बा नहीं पैदा कर रहा हिंसा सिखा रहा है हिंसा हमारी यह जरूरी है कि सीमा पर जाकर के लड़ना है कि देश की सीमाओं की रक्षा करें करने के लिए हमारे सैनिक जो है अपने देश को बचाने के लिए लड़ते हैं, हिंसा हमारी जिंदगी में केवल आल्हाद देने के लिए केवल खिलवाड़ के लिए नहीं। हिंसा हमारे भारतीय जीवन शैली का अंग नहीं है. यहां महावीर हुए हैं यह गाँधी ने भी अपनी पूरी लड़ाई अहिंसा के बूते ही की है। इसकी चिंता मैंने अपने उपन्यास गिलि गुडू में की है। मैं यह मानती हूँ चिड़ियों का कलरव आज भी कस्बे या किसी गांव देहात में या शहर में सांझ की बेला में चिड़िया के समूह लौटते हैं। पक्षियों के समूह जब लौटते हैं अपने बच्चों को छोड़ गए हैं घोंसलों में वे खुश होते हैं उनके लिए दाना पानी लेकर आते हैं, कलरव करते आते है और वही समवेत स्वर हमारे जीवन सुख का आधार है उसके लिए सवाल तुम्हारा जो है वह मेरी चिंता है आप कहीं भी रहिए देश-विदेश में रहिए आप दोनों कमाइए आप के बूढ़े मां बाप को अपने घर में रख कर के उनकी देखभाल करिए। इस सत्य को स्वीकारने में शर्म नहीं आनी चाहिए। अपने देश में वहीं जीवन शैली अपनाने वाले को मै तो कभी माफ़ नहीं कर सकती।

डॉ.भावना शुक्ल – आज देश में नारी उत्पीडन से हम सब तिलमिला उठे है आपने ‘आंवा’ उपन्यास लिखा है इसमें भी नारी के उत्पीडन दर्शाया गया है किस दृष्टि कोण  से इसकी रचना की है, हमें अपनी अभिव्यक्ति दीजिये ?

चित्रा मुद्गल – “आवा” उपन्यास में मैंने कई शताब्दियों की स्थितियों को दर्शाया गया है माँ की सोच है वह बीसवीं शताब्दी की है, स्मिता जो है वह 21वीं सदी की है वह अलग दृष्टिकोण रखती है, और नमिता जो है वह मुंबई जैसे आर्थिक राजधानी में रहते हुए गगनचुंबी इमारतों के बीच में वह एक ऐसे घर में रहती है जहां आम सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं तो “आंवा” जो है वह समय का आंवा है.

डॉ.भावना शुक्ल – थर्ड जेंडर के विषय में आपके क्या विचार है आपने कभी इसे अपनी कहानी का विषय नहीं बनाया?

चित्रा मुद्गल – नहीं मैंने कभी कोई कहानी इस विषय पर नहीं लिखी मैंने इस विषय पर कभी सोचा ही नहीं था कि मैं इस विषय पर कभी लिखूंगी, कभी लोकल ट्रेन में चढ़ जाए एक ही जैसी तालियां बजाते हुए कभी मेरा इनकी तरफ ध्यान नहीं गया।  दूर से बस देख लिया है।  कभी डब्बे में वह चढ़ जाते थे तो औरतें पीछे सिकुड़ जाती थी। और पुरुष डिब्बे में जब वे चढ़ते थे तो पुरुष उनके साथ ठिठोली करते थे बस यही मैंने देखा। मैं एक बार 1981 में दिल्ली से मुंबई वापस जा रही थी। बच्चों की छुट्टियों में मै दिल्ली रहने के लिए आती थी। दिल्ली स्टेशन छोड़ने के बाद बिटिया मेरी बहुत रो रही थी मैं उसे थपका रही थी और उसे कह रही थी बेटा चलो अब हम अपनी सीट पर चलते हैं और जैसे ही हम अपनी सीट पर आए मेरी सीट पर तभी इतने में एक लड़का आकर बैठ गया मैंने कुछ कहा नहीं मैंने सोचा कि इसकी बर्थ भी यहीं होगी. वह  बैठा रहा गाड़ी छूटने के करीब आधे घंटे के बाद टी.टी.आई आता है वह उस बच्चे से पूछता है बच्चे ने  कहा ट्रेन छूट रही थी मैं इसमें चढ़ गया आगे बदल दूंगा मेरा जनरल टिकट  कंपार्टमेंट में है मै चला जाऊंगा ट्रेन दिल्ली स्टेशन से छूटने के बाद रात को 11:00 बजे भरतपुर पहुंचती है मैंने कहा मेरी एक सीट बच्चे की भी है। हमने कहा बैठे रहने दीजिए। बड़ा हैंडसम सा लड़का था तो पहली मुलाकात मेरी उस बच्चे से हुई बातचीत के दौरान मैंने पूछा कहां जाएंगे तो उसने कहा “नालासोपारा” तो मैंने कहा कि यह तो पश्चिम एक्सप्रेस है यह नालासोपारा तो रुकती नहीं है तो क्या करेंगे आप तो उसने कहा कि मैं बोरीवली उतर कर  लोकल पकड़ कर चला जाऊंगा रात भर स्टेशन पर ही रहूंगा। कल मेरी माँ पूजा करने के लिए मंदिर जाने के लिए निकलेगी मुझ से प्लेटफार्म पर मिलेगी। तब मैंने कहा वह प्लेटफार्म पर क्यों ? मैं घर नहीं जा सकता तो वह घर क्यों नहीं जा सकता जब यह प्रकरण जब बातचीत में खुला वह प्रकरण खुलने के बाद मेरी आंख से झर-झर आंसू बहने लगे और मैं सुनकर अवाक रह गई, दंग रह गई और वह भी रो रहा था सामने की सीट पर एक दंपत्ति बैठे थे आगे बैठे थे सामने में बैठे थे सारे लोग सोने का उपक्रम कर रहे थे क्योंकि हमारे कंपार्टमेंट में हमारी 3 सीटें थी बाकी तो कोई आए नहीं थे मैं तो एकदम सन्न रह गई मैंने कहा देखो यह मुंबई पहुंचेगी रात को 3:30 तुम इतनी रात को कहां जाओगे तो तुम बोरीवली नहीं जाऊंगी मैं मुंबई सेंट्रल में उतरूंगी और वहां से मुझे पास पड़ेगा तुम रात को स्टेशन पर कहां सोओगे तो तुम मेरे साथ मेरे घर पर चलो उससे मैंने कहा मुझे बात करते करते आत्मीयता उससे ज्यादा हो गई थी तब मैंने उससे कहा कि तुम मुझे अपनी मां का फोन नंबर एड्रेस सब दो तो मुझे लगा पहली बार मुझे लगा कि मुझे कुछ करना चाहिए तो पहली बार मुझे इस विषय से मेरी मुलाकात हुई जिस तरह से मुलाकात हुई एक ऐसा बच्चा है मैंने इसके बारे में सिर्फ एक यात्रा वृतांत में लिखा “फर्लांग का सफरनामा” पहली बार एक समाज सेविका हो करके मैंने इस ओर कभी नहीं सोचा पर मेरी निगाह नही गई। ‘फर्लांग का सफरनामा’ एक अनुभव लोखंडवाला स्टेशन से लोखंडवाला तक . दिल्ली आने के बहुत दिनों से यह  बच्चा पढ़ना चाहता था मैंने सोचा इग्नू में उसका प्राइवेट फॉर्म भरवाकर के उसकी पढ़ाई जारी रखी। मन में एक बीज पड़ गया था और एक अपराध बोध महसूस हुआ था मेरा वह विषय नहीं था मन में सवाल था मां और बेटा यह क्या है और उनके साथ क्या हो रहा है किसी ने क्या किया? क्या नहीं किया? किस की वजह से समाज ने उनके साथ क्या किया? किस की वजह धर्म के साथ क्या किया किसी की वजह राजनीति ने इनके साथ क्या किया और खुद मां-बाप ने उनके साथ क्या किया? क्यों किसी चीज का किसी को दबाव नहीं होता तो लोग खुद मानते कि इस तरह के बच्चे को घर में नहीं रखना है? वो हमारी विरासत नहीं है। जिससे उनके घर की लड़कियों की शादी नहीं होगी। घर में किसी को खबर हो गई तो उस घर की बेटियों का ब्याह होना बंद हो जाएगा।

मुझे ट्रांसजेंडर पर अलग तरह की चीज लिखना है मुझे वह नहीं लिखना है जो सबके सामने होता है कि वह डांस करती है आती है ताली बजाती वह करते हैं मुझे समाज को मां बाप को धर्म को राजनीति को जो नियंता है इन को कटघरे में लेना है और सर्जना में ढाल करके लेना है सर्जना में होगा तो मन के संवेदन को जाएगा जब वह मनुष्य के संवेदन को कोई खरोंचेगा तब पपड़ियाँ उघडेगी कहीं यह महसूस होगा कि कुछ गलती हुई है उस माँ को भी महसूस होगा कि अपनी कोख पर उसका अधिकार नहीं है यह स्त्री विमर्श की बहुत बड़ी लड़ाई है. तो  नालासोपारा पोस्ट बॉक्स नंबर 203 में हमने कई अंश को उठाया और उपन्यास मेरा 2016 में आया और ‘वागर्थ’ में ‘जनपद’ में उसके दो तीन अंश में आए और 2011 में उस अंश को पढ़कर  एक जज ने मुझे चिट्ठी लिखी मत देने के लिए ट्रांसजेंडर को स्वीकार किया है। हर युवा पीढ़ी की हर बच्चे इस उपन्यास को पढ़ें अगर मां बनी हम दो हमारे दो चाहिए हम दो हमारे एक चाहिए एक बच्चा पैदा हो जाए तो उसे स्वीकार करें। इस उपन्यास के अंत में एक माँ क्या करती है मेरी गुजारिश है इसे आप भी पढ़े और सभी लोग पढ़े। इस उपन्यास का साल भर के अंदर तीसरा एडिशन आ गया।

डॉ.भावना शुक्ल – क्या आपने अपने उपन्यासों, कहानियों में अपने जीवन को उजागर किया  है ?

चित्रा मुद्गल – ऐसा तो अभी तक नहीं हुआ है हां ‘आंवा’ में अपने ट्रेड यूनियन के अनुभव को ही मैंने विषय-वस्तु बनाया है एक जो मेरे भीतर कहीं न कहीं ट्रेड यूनियन को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं, इतनी लड़ाई लड़ने के बावजूद क्या होता है और 6 महीने के बाद ताले बदली हो जाने के बाद फिर पता चलता है कि अगर ताला खुलता है, 10टक्के  पर समझौता होता है, उनके अंदर की जो दुर्दशा है उसका इस्तेमाल नेता तो अपने राजनीतिक जीवन के लिए करता है यह कमजोर है तो इतने पर भी खुश हो जाएंगे चलो हमारी चूल्हे राख पड़ी हुई थी किसी तरह चूल्हा तो जले, वे टूट कर इस पर समझौता कर लेंगे, बिखर कर कर लेंगे, अपने बच्चों को रोड के किनारे डिब्बे लेकर भीख मांगते देखना कटोरा लेकर भीख मांगता हुआ ना देखने के लिए समझौता कर लेंगे, यह जो नेता है मजदूरी मजदूरों की गरीबी की जरूरतों को अपने लड़ाई का मुद्दा बनाकर उनकी हित की लड़ाई का मुखौटा चढ़ाकर जो लड़ाई लड़ते हैं आखिर में वो यहां आकर क्यों पहुंच गए मेरे मन में बहुत आक्रोश है। और मुझे लगता रहा है कि अगर तो इसका समाधान कर दें देश के सारे मजदूरों का घर समाधान मिल जाएगा कायदे कानून से वो अधिकारों की बहाली के लिए लड़ रहे हैं सब उनको मिल जाएंगे तो इनके नेतृत्व का क्या होगा यही है समय का आंवा।

डॉ.भावना शुक्ल – पुराने लेखकों में और आज के इस दौर के लेखकों में साहित्यिक दृष्टि से क्या अंतर आप मानती है?

चित्रा मुद्गल – इतना ही अंतर है कि उन्होंने अपने समय को लिखा। अपनी इस समय की विसंगतियों और संघर्षों को लिखा अपने समय के आम आदमी के बुनियादी हकों को लेकर को लेकर भावनात्मक अधिकारों को लेकर के लिखा था उनके साथ जो भी ज्यादतियां होती रहीं, बहुत से लोगों ने इतिहास को ले करके भी लिखा और स्त्री विमर्श जैसे आपको स्त्री विमर्श यशपाल की दिव्या में मिलेगा, विस्थापन विभाजन झूठा सच में मिलेगा, 12 घंटे में बेबसी मिलेगी, नाच्यो बहुत गोपाल में स्त्री का वो रूप मिलेगा जो ब्राह्मण पति को छोड़कर अपने दलित प्रेमी के साथ चली जाती है और पत्नी बनकर रहती है और अंत में वह कहती है पति तो पति होता है चाहे वो दलित हो या सामान्य। उसके आगे जो पिछली पीढ़ी का प्रेमचंद से जिस तरह से अवगत हुए आधुनिक पहलुओं से अवगत हुए सब लोग गांव में रहते रहे हैं लेकिन इस दृष्टि से किसी ने भी विचार नहीं किया। एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखते रहे।  स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी है, साहित्य है, बहुत दिनों तक वह प्रतिध्वनियां भी रहे सर्जना में उसके बाद जो अटा हुआ समय था, जो करवट लेता हुआ समय था और एक वह समय जो विश्व से सीधे सीधे व्यापार शुरू हुआ उदारीकरण के दौर में, 90 के दौर में, जब उदारीकरण हुआ व जीवन शैली ने नया रूप लेना शुरू किया। जब हम लोगों ने लिखना शुरू किया तो उदारीकरण इस तरह से नहीं हुआ था तब तो अगर कोई विदेश जाता था और पूछता था दिदिया  आपके लिए क्या ले आए तो हम कहते थे कि ऐसा है हमारे लिए वहां से लिपस्टिक ले आना, मेरे देखते-देखते उदारीकरण के चलते किसी को विदेश से मंगाने की जरूरत नहीं आपके स्टोर में मिलती है. हमारी जीवनशैली बदलने लगी। कई तरह की चीजों को इस्तेमाल करने लगे उनका जो सोच था उनका जो विज्ञान है। वही जो आजकल लेखन है, समकालीन लेखन है जो समकालीनता मेरी थी जो मेरे समय की अंतर संगठन नई जीवन जीवन शैली से ऊपर मेरे समय के लेखन के अनुभव बताते कि मैं उनको लिखूँ उनको मैं देखूं जो समय का अभाव था आजादी के बाद जो प्रचलित किया गया, आजादी के बाद जवाब प्रज्वलित किया गया क्योंकि इसमें सब चरित्र नैतिकता है। सब ध्वस्त हो गए, क्योंकि हमने उनसे भी ज्यादा बुरा करना शुरु कर दिया। जो लैंग्वेज कहते रहेंगे हमारे समय की नई नई चुनौतियां नहीं आज जो नई पीढ़ी आ रही है उसकी चुनौतियां और अलग है अपने समय का दस्तावेज होती है सर्जनात्मकता लेखक अगर अपने समय के सरोकारों से नहीं जुड़ा है। मुझे नहीं लगता कि वह अपने समाज के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा।

डॉ.भावना शुक्ल – आपको अपना कौन-सा उपन्यास या कहानी अधिक प्रिय है और वह क्यों?

चित्रा मुद्गल – आजकल अभी मैंने “पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा” की जो लड़ाई मैंने लड़ी है अपने क्षेत्र में लड़ी है लिखा है उपन्यास के रूप में आजकल कोई मुझे टेलीफोन करता है और कहते हैं दीदी इसे पढ़कर तो मेरे आंसू नहीं रुक रहे मैं परेशान हूं मैं शॉक्ड हूं मुझे लगा कि हम स्त्रियों ने अपने कितने अधिकार छोड़ दिए हम स्त्री होकर पैदा हुए हमारे अंदर एक अदद कोख है, आज जो लड़ाई भ्रूण हत्या के मामले में लड़ी जा रही है, और यह ट्रांसजेंडर की लड़ाई मुझे लगता है कि मैंने शायद एक अच्छी कोशिश की है। हां मेरी 49 पुस्तके हो गई है। और ‘नक्टोरा’ आ जायेगा तो मेरी 50 किताबे हो जाएँगी। 7 बच्चो की किताबे 3 बच्चों के ऊपर नाटक है, कथा रिपोतार्ज है 12 कहानी संकलन है 4 उपन्यास लिखे हैं, कितनी किताबें हैं लेकिन मैं जब भी इस बारे में सोचती हूँ और इस सवाल से जूझती हूँ अब तक अपनी प्रिय चीज को लिखना अभी बकाया है मेरे लिए मेरी कलम के लिए वह प्रिय जो मेरे चेतन को झकझोर देगा जब मैं उसको अपने दिल से और दिमाग से एक गंभीरता से उसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति दूंगी शायद मैं उस चीज को अपनी प्रिय चीज के रूप में जन्म दूँगी अभी तक तो मैं कुछ कह नहीं सकती  आज कल मैं इमानदारी से कहूं भावना मैं नालासोपारा से गुजर रही हूँ।

अगर अच्छी कोई कहानी पढ़ती है उसके पहले आपने उस लेखक का नाम नहीं जाना होता नहीं सुना होता वह कहानी पढ़ते हुए पढ़ने के बाद निकलते हैं घर से साड़ी पहनकर और जाते हैं कहीं और बैठते हैं मंच पर और बीच-बीच में वह याद आ जाती है। कहानी ने आपके मर्म को छू लिया है, कहानी जब पीछा करती है, हफ्तों महीनों सालों इसका मतलब है कि वह कहानी अपने सामाजिक सरोकारों को पूरा कर रही है, चाहे वह अपने पति पत्नी के बीच के तनाव की कहानी है चाहे सामाजिक विसंगति को लेकर हो चाहे राजनीति विसंगति को लेकर हो चाहे किए जानेवाले ओ जानेवाले नकाब पर नकाब उद्घाटित करने वाले कहानी हो यानी व्यक्तित्व के चेहरे पर चेहरा चढ़ाए रखने की मजबूरी की व्यवस्था की कहानी हो। कोई भी कहानी हो वह बहुत गहरे उतर कर के डूब के लिखी गई है वह पीछा करती है कभी-कभी ऐसा होता था एक नया नाम सारिका में आते हुए कभी पढ़ती थी नया ज्ञानोदय में भागवत में नई पीढ़ी को पढ़ती थी। परिकथा में पढ़ती हूँ, हंस में पढ़ती हूं पहले पहले मुझे कहानी भी याद है शीर्षक भूल गई।  कभी इस बात का गर्व नहीं करती मैंने ऐसा लिख दिया कोई और नहीं लिख सकता। लेखक लेखन सर्जना सरिता किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है उसका स्रोत तो हिमालय के किसी कोने में अगर गंगा का है यह तो ऐसे ही मनुष्य की चेतना में हर मस्तिष्क की चेतना में कहीं वह बैठी हुई है। कुछ नहीं कह पाते कुछ कह पाते हैं और लिखकर अभिव्यक्त कर पाते हैं। जो नहीं कह पाते अपनी पीड़ा को कुछ ना कहने वाली की आवाज कह लेखक अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त कर पाने वाले आवाज में उसकी आवाज शामिल होती है, चित्रा मुद्गल की आवाज में उन सब की आवाज शामिल है, जो मैं शब्दों में ढालकर लिखती हूँ, पता नहीं कैसा लिखती हूँ पर मुझे भरोसा है नई पीढ़ी पर है।

डॉ.भावना शुक्ल – सम्मानों का दौर चल रहा है आपके क्या विचार है ?

चित्रा मुद्गल – मुझे लगता है कि कभी आपने सम्मान को इसलिए ग्रहण नहीं किया होगा कभी मौका आएगा तो आप उसको लौटा आएंगे क्योंकि सम्मानों की जो कामना भरी हुई है जिसकी वजह से तमाम ईर्ष्या द्वेष हैं, सृजनकारों की दुनिया में कि मैं भी बहुत महत्वपूर्ण लिख रहा हूँ लिख रही हूँ इनको कैसे मिल गया उसने कभी नहीं सोचा होगा यह एक चालाकी है यह चालाकी है जिन चीजों से आप असहमत है।  पुरस्कार वापस करने से क्या होगा वह तो उनके लिए है कि वह डिग्रियां बांट रहे हैं। मैं नहीं समझती कि यह सही काम था। मैं एक लेखक हूँ। भावना, लेखन की ताकत को जानती हूँ क्योंकि जब भी कोई विसंगति मन को कचोटती है मन के भीतर अंतर्द्वंद पैदा करती है रातों की नींद उचट जाती है। चलते-फिरते बोलते तुम्हारे दिमाग में कुछ चल रहा है मेरे अवचेतन में मुझे लगता है कि लिखना आसान काम नहीं है बड़ी हिम्मत जुटाने पड़ती है।

डॉ.भावना शुक्ल – आप हमारे पाठकों दर्शको लेखकों को लेखन प्रकिया के सन्दर्भ बताएं, या  कोई सन्देश दे जिससे वे अपने लेखन को बेहतर बना सकें ?

चित्रा मुद्गल फार्मूला में ना जाए लिखने का शौक है तो यह मत सोचो कि क्या लिखा जा रहा है क्यों मन में ऐसा होता है शायद ऐसा ही छपेगा आज परिकथा में कविताएं भरी रहती हैं। वही बातें जो लोग कहते हैं आप किस दृष्टि से लिखना चाहते हैं और आप जब परिवर्ती लेखन को पढ़ेंगे नहीं कि क्या लिखा जा चुका है और जो लिखा जा चुका है अपने समय का और उसके आगे जिस तरह की चुनौतियां आ रहीं हैं उसका मोर्चा क्या होना चाहिए उसमें क्या चीज है? गलत आ गया उसे कैसे लड़ा जाना चाहिए? पहली चीज अपने अनुभवों से सीखिए अपने अनुभवों से जो समाज आपको सामने मिला है और समाज क्या है यहां से मेट्रो पकड़ेंगे। मेट्रो पकड़कर विश्वविद्यालय जाएंगे उसके बाद के लिए राजीव गांधी चौक उतरेंगे विश्वविद्यालय तक पहुंचने के लिए अपनी कक्षा तक पहुंचने के लिए हमको राजीव गांधी चौक के एक बहुत बड़े पीर के जिले से टकराना पड़ेगा एक समंदर लहरा रहा होता है, वह चुप हो रहे होते हैं,  हड़बड़ी में होते हैं। कैसे पकड़े इस हड़बड़ी में, आप भी होते और आपके साथ और भी लोग होते हैं कहां किस की कहानी लगती है? कहां किसका पर्स गिर जाता है? कहां किसके पास से मोबाइल निकल जाता है? तो यह कौन लोग हैं ? यह तो अपना लोगे आप अपने अनुभवों की खिड़की को खुला रखें उसे पढ़ें सोचे रोज रात में मंथन करें डायरी लिखे क्या महसूस किया जब आप देखेंगे तो आपको विषयों की कमी नहीं नजर आएगी।  फॉर्मूला पिछले 15 वर्षों से चल रहा है।  जरूरी नहीं है कि भावना भी उसी पर लिखें।  जरूरी नहीं है जान्हवी भी उसी पर कविता लिखे दे, वही वही बातें मैं यह कहना चाहती हूँ, लिखना चाहते हो या चाहती हो। लिखने की ललक लिखने से पहले मैं पढ़ने को मानती हूँ। पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़कर के विज्ञान की रसायनों की केमिस्ट्री को समझ पाएंगे, लेकिन समाज की जो केमिस्ट्री है समाज के अलग-अलग व्यक्तित्व सोचने समझने की जरूरत बन रही है उसको समझने के लिए जरूरी है पढ़ना, यदि आप ‘झूठा सच’ पढ़ेंगे तो आपने विभाजन को नहीं देखा विभाजन के क्या परिणाम होते हैं? क्या दुष्परिणाम होते हैं कैसे आपके ताऊ, चाचा, चाची गहने लूटने के लिए उनके हाथ काट लेते हैं? क्योंकि उनके पास समय नहीं है? अपने घर से बेघर कर दिया गया इसको आप जब तक नहीं जानेंगे अपने वर्तमान समाज को जो 10 दिनों से ऐतिहासिक घटनाओं की कड़वी स्मृतियों को इतिहास में दर्ज किया लेकिन जब सर्जना में दर्ज होता है, लेकिन इतिहास में तो राजे-रजवाड़ों की वह बड़े नेताओं की बात होगी लेकिन उस आम आदमी को लेकर नाम का जिक्र नहीं होगा । जब जन की बात होगी तब आप समझ सकेंगे आप समाज के आंदोलन से आप समझेंगे इतिहास आपको नहीं देगा पाठ्यक्रम में रेशमा अशोका होंगे, वाजिद अली शाह होंगे कि आम आदमी?  उसमें आम आदमी किस रूप में होगा कि अशोक, अकबर के जमाने में यह था वह था और उनके जमाने में इंतजार की प्रजा सुखी थी या नहीं थी। इसका अगर इतिहास जानना है, साहित्य पढ़ना पड़ेगा साहित्य ही बताएगा, जो प्रेमचंद का गोदान ने बताया, प्रेमचंद की निर्मला औरतों की मन की बात कही उसने नहीं सुना था कि उसकी दोहाजू से शादी हो जाए लेकिन जब दोहाजू का बेटा भी उसकी उम्र का है उसके मन में कुछ नहीं है फिर भी आप वह कलुष मन में डाल रहे हो, मनोवैज्ञानिक पक्ष जब तक आप इसको पढ़े बिना नहीं समझ सकेंगे।  मैं यह नई पीढ़ी को कहना चाहती हूँ पहले बहुत पढ़ो आज मुझे बहुत सारी रचनाएं ऐसी लगती है यह तो लिखा जा चुका है इसमें मैंने ही नहीं लिखा, मन्नू भंडारी की कहानी, महादेवी जी ने ‘श्रंखला की कड़ियों’ में क्या लिख दिया उसे पढो और सबसे पहले अपने अनुभवों को पढ़ो और वह अपने समाज को,अपने इतिहास को आप अपने साथ नहीं रख सकते अगर आपको लिखना है तो आप सबसे पहले पढ़ें और अपने अनुभवों की किताब लिखिए।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311

ईमेल : [email protected]

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जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆ (30 सितम्बर 2019 -2020 रजत जयंती वर्ष) ☆

 ☆ जीवन यात्रा – श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(प्रसिद्ध साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था हिंदी आंदोलन परिवार 30 सितम्बर 2019 को रजत जयंती वर्ष में प्रवेश कर रही है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से इस सफल यात्रा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं .  इस अवसर पर संस्था के संस्थापक अध्यक्ष  श्री संजय भारद्वाज  जी से  सुश्री वीनु जमुआर जी की बातचीत)

वीनु जमुआर- सर्वप्रथम हिंदी आंदोलन परिवार के रजत जयंती वर्ष में कदम रखने के उपलक्ष्य में अशेष बधाइयाँ और अभिनंदन। अब तक की अनवरत यात्रा से  देश भर में चर्चित नाम बन चुका है हिंआप। हिंआप की स्थापना की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए। इसकी स्थापना का बीज कब और कैसे बोया गया?

संजय भारद्वाज- हिंआप का बीज इसकी स्थापना के लगभग सोलह वर्ष पूर्व 1979 के आसपास ही बोया गया था। हुआ यूँ कि मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था। बाल कटाने के लिए एक दुकान पर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहा था। प्रतीक्षारत ग्राहकों के लिए कुछ पत्रिकाएँ रखी थीं जिनमें अँग्रेजी की पत्रिका, शायद ‘दी इलस्ट्रेटेड वीकली’ भी थी। अँग्रेजी थोड़ी बहुत समझ भर लेता था। पत्रिका में बिहार की जेलों में बरसों से बंद कच्चे महिला कैदियों की दशा पर एक लेख था। इस लेख में अदालती कार्रवाई पर एक महिला की टिप्पणी उद्वेलित कर गई। रोमन में लिखी इस टिप्पणी का लब्बोलुआब यह था कि ‘साहब, अदालत की कार्रवाई कुछ पता नहीं चलती क्योंकि अदालत में जिस भाषा में काम होता है, वह भाषा हमको नहीं आती।’ यह टिप्पणी किशोरावस्था में ही खंज़र की तरह भीतर उतर गई। लगा लोकतंत्र में लोक की भाषा में तंत्र संचालित न हो तो लोक का, लोक द्वारा, लोक के लिए जैसी परिभाषा बेईमानी है। इसी खंज़र का घाव, हिंआप का बीज बना।

(साक्षात्कार लेतीं सुश्री वीनू जमुआर )

वीनु जमुआर- किशोर अवस्था में पनपा यह बीज संस्थापक की युवावस्था में प्रस्फुटित हुआ। इस काल की मुख्य घटनाएँ कौनसी थीं जो इसके अंकुरण में सहायक बनीं?

संजय भारद्वाज- संस्थापक की किशोर अवस्था थी तो बीज भी गर्भावस्था में ही था। बचपन से ही हिंदी रंगमंच से जुड़ा। महाविद्यालयीन जीवन में प्रथम वर्ष में मैंने हिंदी मंडल की स्थापना की। बारहवीं के बाद पहला रेडियो रूपक लिखा और फिर चर्चित एकांकी, ‘दलदल’ का लेखन हुआ। आप कह सकती हैं कि बीज ने धरा के भीतर से सतह की यात्रा आरम्भ कर दी। स्नातक होने के बाद प्रारब्ध ने अकस्मात व्यापार में खड़ा कर दिया। नाटकों के मंचन के लिए समय देने के लिए स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। 1995 में पीलिया हुआ। पारिवारिक डॉक्टर साहब ने आत्मीयता के चलते एक तरह से अस्पताल में नज़रबंद कर दिया। पुणे में दीपावली पर प्रकाशित होनेवाले साहित्यिक विशेषांकों की परंपरा है। बिस्तर पर पड़े-पड़े हिंदी में शहर के पहले साहित्यांक ‘अक्षर’ का विचार जन्मा और दो महीने बाद साकार भी हुआ। साहित्यकारों से परिचय तो था पर साहित्यांक के निमित्त वर्ष में केवल एक बार मिलना अटपटा लग रहा था। इस पीड़ा ने धीरे-धीरे  बेचैन करना शुरू किया, बीज धरा तक आ पहुँचा और जन्मा हिंदी आंदोलन परिवार।

वीनु जमुआर- युवावस्था में जब युवा अपने भविष्य की चिंता करता है, आपने भाषा एवं साहित्य के भविष्य की चिंता की। क्या आप रोजी-रोटी को लेकर भयभीत नहीं हुए?

संजय भारद्वाज- हिंदी मेरे लिए मेरी माँ है क्योंकि इसने मुझे अभिव्यक्ति दी। हिंदी मेरे लिए पिता भी है क्योंकि इसने मुझे स्वाभिमान से सिर उठाना सिखाया। अपने भविष्य की चिंता करनेवाले किसी युवा को क्या अपने माता-पिता की चिंता नहीं करनी चाहिए? रही बात आर्थिक भविष्य की तो विनम्रता से कहना चाहूँगा कि जीवन में कोई भी काम भागनेवाली या भयभीत होनेवाली मनोवृत्ति से नहीं किया। सदा डटने और मुकाबला करने का भाव रहा। रोजाना के लगभग चौदह घंटे व्यापार को देने के बाद हिंआप को एक से डेढ़ घंटा नियमित रूप से देना शुरू किया। यह नियम आज तक चल रहा है।

वीनु जमुआर- आपकी धर्मपत्नी सुधा जी और अन्य सदस्य साहित्य सेवा के आपके इस यज्ञ में हाथ बँटाने को कितना तैयार थे?

संजय भारद्वाज- पारिवारिक साथ के बिना कोई भी यात्रा मिशन में नहीं बदलती। परिवार में खुला वातावरण था। पिता जी, स्वयं साहित्य, दर्शन और विशेषकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। परिवार में वे हरेक के इच्छित को मान देते थे। सो यात्रा में कोई अड़चन नहीं थी। जहाँ तक सुधा जी का प्रश्न है, वे सही मायने में सहयात्री सिद्ध हुईं। हिंआप को दिया जानेवाला समय, उनके हिस्से के समय से ही लिया गया था। उन्होंने इस पर प्रश्न तो उठाया ही नहीं बल्कि मेरा आनंद देखकर स्वयं भी सम्पूर्ण समर्पण से इसीमें जुट गईं। यही कारण है कि हिंआप को हमारी संतान-सा पोषण मिला।

(हिंदी साहित्य और भाषा के क्षेत्र में योगदान के लिए ‘विश्व वागीश्वरी पुरस्कार’ श्री-श्री रविशंकर जी की उपस्थिति में पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी पाटील द्वारा प्रदत्त)

वीनु जमुआर-  मराठी का ’माहेरघर’ (पीहर) कहे जानेवाले पुणे में हिंआप की स्थापना कितना कठिन काम थी?

संजय भारद्वाज- महाराष्ट्र में हिंदी के प्रति प्रेम और सम्मान की एक परंपरा रही है। अनेक संतों ने मराठी के साथ हिंदी में भी सृजन किया। हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा महाराष्ट्र से थेे। देश को आद्य हिंदी प्रचारक महाराष्ट्र विशेषकर पुणे ने दिये। संभाषण के स्तर पर धाराप्रवाह हिंदी न आनेे के बावजूद स्थानीय नागरिकों ने हिंआप को साथ दिया। हाँ संख्या में हम कम थे। किसी हिंदी प्रदेश में एक किलोमीटर चलने पर एक किलोमीटर की दूरी तय होती। यहाँ चूँकि प्राथमिक स्तर से सब करना था, अत: पाँच किलोमीटर चलने के बाद एक किलोमीटर अंकित हुआ। इसे मैं प्रारब्ध और चुनौती का भाग मानता हूँ। अनायास यह यात्रा होती तो इसमें चुनौती का संतोष कहाँ होता?

वीनु जमुआर- हिंआप की यात्रा में संस्था की अखंड मासिक  गोष्ठियों का बहुत बड़ा हाथ है। इन पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- बहुभाषी मासिक  साहित्यिक गोष्ठियाँ हिंआप की प्राणवायु हैं। संस्था के आरंभ से ही इन गोष्ठियों की निरंतरता बनी हुई है। हमने हिंदी की प्रधानता के साथ मराठी और उर्दू के साहित्यकारों को भी हिंआप की गोष्ठियों से जोड़ा। यों भी हिंदी अलग-थलग करने में नहीं में नहीं अपितु सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती है। इन तीन भाषाओं के अतिरिक्त सिंधी के रचनाकार अच्छी तादाद में संस्था से जुड़े। राजस्थानी, गुजराती, कोंकणी, बंगाली, उड़िया और सामान्य रूप से समझ में आनेवाली विभिन्न भाषाओं/ बोलियों के रचनाकार भी हिंआप की गोष्ठी में आते रहे हैं। अनुवाद के साथ काश्मीरी और कन्नड़ की रचनाएँ भी पढ़ी गई हैं। एक सुखद पहलू है कि प्राय: हर गोष्ठी में एक नया रचनाकार जुड़ता है। साहित्य के साथ-साथ इन गोष्ठियों का सामाजिक पहलू भी है। महानगर में लोग महीने में एक बार मिल लेते हैं, यह भी बड़ी उपलब्धि है। हमारी मासिक गोष्ठियाँँ अनेक मायनों में जीवन की पाठशाला सिद्ध हुई हैं। संस्था के लिए गर्व की बात है कि गोष्ठियों की अखंड परंपरा के चलते हिंआप की अब तक 238 मासिक गोष्ठियाँ हो चुकी हैं।

वीनु जमुआर- किसी संस्था को जन्म देना तुलनात्मक रूप से सरल है पर उसे निरंतर चलाते रहने में अनेक अड़चनें आती हैं। हिंआप की यात्रा में आई अड़चनों का खुलासा कीजिए।

संजय भारद्वाज- संभावना की यात्रा में आशंका भी सहयात्री होती है। स्वाभाविक है कि आशंकाएँ हर बार निर्मूल सिद्ध नहीं हुईं। हमारे देश की साहित्यिक संस्थाओं की संगठनात्मक स्थिति कमज़ोर है। दो ही विकल्प हैं कि या तो आप इसे ढीले-ढाले तरीके से चलाते रहें अन्यथा इसे संगठनात्मक रूप दें। जैसे ही इसे संगठनात्मक रूप देंगे, अनुशासन आयेगा। एक अनुशासित संस्थान जिसमें कोई वित्तीय प्रलोभन न हो, चलाना हमेशा एक चुनौती होती है। अनेक बार अपितु अधिकांश बार अपने ही घात करते हैं। साथी कोई दस कदम साथ चला कोई बीस, कोई सौ, कोई चार सौ। यद्यपि उन साथियों से कोई शिकायत नहीं। उनकी सोच के केंद्र में उनका अपना आप था, हमारी सोच के केंद्र में हिंआप था।….व्यक्ति हो या संस्था दोनों को अलग समय अलग समस्याओं  से दो हाथ करने पड़ते हैं। आरम्भिक समय में यक्ष प्रश्न होता था कार्यक्रम के लिए जगह उपलब्ध करा सकने का। गोष्ठियों का व्यय भी एक समस्या हो सकता था, जिसे हम लोगों ने समस्या बनने नहीं दिया। विनम्र भाव से कहना चाहता हूँ कि कोई व्यसन के लिए घर फूँकता है, हमने ‘पैेशन’ के लिए फूँका। साथ ही यह भी सच है कि जब-जब हमने घर फूँका, ईश्वर ने नया घर खड़ा कर दिया। उसके बाद तो हाथ जुड़ते गये, साथी बढ़ते गये। आज संस्था के हर छोटे-बड़े आयोजन का सारा खर्च हिंआप के सदस्य-मित्र मिलकर उठाते हैं। …..समयबद्धता का अभाव भी बड़ी समस्या है। साहित्यिक कार्यक्रमों में समय पर न आना एक बड़ी समस्या है। चार बजे का समय दिया गया है तो पौने पाँच, पाँच तो निश्चित बजेगा। कल्पना कीजिए कि 130 करोड़ के देश में रोजाना पचास गोष्ठियाँ भी होती हों, औसत दस आदमी एक घंटा देर से पहुँचते हैं तो पाँच सौ लोगों के चलते 500 मैन ऑवर्स बर्बाद होते हैं। यह मात्रा महीने में पंद्रह हज़ार और एक वर्ष में एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की बर्बादी का है। एक लाख अस्सी हज़ार घंटे की ऊर्जा का क्षय राष्ट्र का बड़ा क्षय है। इसे बचाना चाहिए। हिंआप में हमने इसे बहुत हद तक नियंत्रित किया है।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

वीनु जमुआर- उन दिनों सोशल मीडिया नहीं था। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी बहुत उन्नत नहीं था। ऐसे में लोगों को सूचनाएँ पहुँचाने का क्या माध्यम था?

संजय भारद्वाज- मासिक गोष्ठियों की सूचना देना उन दिनों अधिक समय लेनेवाला और अधिक श्रमसाध्य था। तब हर व्यक्ति के घर में फोन नहीं था। हमने लोगों के पते कीएक सूची बनाई। सुबह जल्दी घर छोड़ने के बाद रात को लौटने में देर होती थी। हम पति-पत्नी रात को बैठकर पोस्टकार्ड लिखते। सुबह व्यापार के लिए निकलते समय मैं उन्हें पोस्ट करता। अधिकांश समय ये पोस्टकार्ड लिखने की जिम्मेदारी सुधा जी ने उठाई। लोगों का पता बदलने पर सूची में संशोधन होता रहता। फिर अधिकांश सूचनाएँ लैंडलाइन पर दी जाने लगीं। इससे सूचना देने का समय तो बढ़ा, साथ ही फोन का बिल भी ज़बरदस्त आने लगा। मैं 1997-98 में लैंडलाइन का मासिक बिल औसत रुपये 1500/- भरता था। फिर मोबाइल आए। आरंभ में मोेबाइल लक्ज़री थे और इनकमिंग के लिए भी शुल्क लगता था। शनै:-शनै: मोबाइल का चलन बढ़ा। फिर लोगों को एस.एम.एस. द्वारा सूचनाएँ देने लगे। फिर चुनिंदा लोगों को ईमेल जाने लगे। वॉट्सएप क्राँति के बाद तो संस्था का पटल बन गया और एक क्लिक पर हर सूचना जाने लगी।

वीनु जमुआर- हिंआप की गोष्ठियों की एक विशेषता है कि महिलाएँ बहुतायत से उपस्थित रहती हैं। स्त्रियों की दृष्टि से देखें तो गोष्ठियों का वातावरण बेहद ऊर्जावान, सुंदर, पारिवारिक और उत्साहवर्धक होता है। अपनीे तरह की इस विशिष्ट उपलब्धि पर कैसा अनुभव करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- महिलाएँ मनुष्य जीवन की धुरी हैं। स्त्री है तो सृष्टि है। स्त्री अपने आप में एक सृष्टि है। भारतीय परिवेश में पुरुष का करिअर, उसका व्यक्तित्व, विवाह के पहले जहाँ तक पहुँचा होता है, उसे अपने  विवाह के बाद वह वहीं से आगे बढ़ाता है। स्त्रियों के साथ उल्टा होता है। खानपान, पहरावे से लेकर हर क्षेत्र में उनके जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाता है। अधिकांश को अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों का कत्ल करना पड़ता है और परिवार की सारी ज़िम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। हमारे साथ ऐसी महिलाएँ जुड़ीं जो विवाह से पहले लिखती-छपती थीं। विवाह के बाद उनकी प्रतिभा सामाजिक सोच के संदूक में घरेलू ज़िम्मेदारियों का ताला लगाकर बंद कर दी गई थीं। हिंआप से जुड़ने के बाद उन्हें मानसिक विरेचन का मंच मिला। मेलजोल, हँसी-मज़ाक, प्रतिभा प्रदर्शन और व्यक्तित्व विकास के अवसर मिले। हिंआप में उनकी प्रतिभा को प्रशंसा मिली और मिले परिजनों जैसे मित्र। कुल मिलाकर सारी महिला सदस्यों को मानो ‘मायका’ मिला। आपने स्वयं देखा और अनुभव किया होगा। वैसे भी स्त्री के लिए मायके से अधिक आनंददायी और क्या होगा! वे आनंदित हैं तो सृष्टि आनंदित है। हिंआप के बैनर तले सृष्टि को आनंदित देखकर हिंआप के प्रमुख के नाते सृष्टि के एक जीव याने मुझे तो हर्ष होगा ही न। अपने जैविक मायके से परे महिलाओं को एक आत्मिक मायका उपलब्ध करा पाना मैं हिंआप की बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूँ।

वीनु जमुआर- साहित्यिक क्षेत्र में हिंआप की  चर्चा प्राय: होती है। आपकी  गोष्ठियाँ अब पुणे से बाहर मुंबई और अन्य शहरों में भी होने लगी हैं। इस विस्तार को कैसे देखते हैं आप?

संजय भारद्वाज- मेरी मान्यता है कि सफलता का कोई छोटा रास्ता या शॉर्टकट नहीं होता। आप बिना रुके, बिना ठहरे, आलोचना-प्रशंसा के चक्रव्यूह में उलझे बिना निरंतर अपना काम करते रहिए। यात्रा तो चलने से ही होगी। ठहरा हुआ व्यक्ति चर्चाएँँ कितनी ही कर ले, यात्रा नहीं कर सकता। कहा भी गया है, ‘य: क्रियावान स: पंडित:।’ क्रियावान ही विद्वान है। हिंदी आंदोलन क्रियावान है। क्रियाशीलता की चर्चा समाज में होना प्राकृतिक प्रक्रिया है। जहाँ तक शहर से बाहर गोष्ठियों का प्रश्न है, यह हिंआप के प्रति साहित्यकार मित्रों के विश्वास और नेह का प्रतीक है। भविष्य में हम अन्य नगरों में भी हिंआप की गोष्ठियाँ आरंभ करने का प्रयास करेंगे। दुआ कीजिए कि अधिकाधिक शहरों में हिंआप पहुँचे।

वीनु जमुआर- अनुशासित साहित्यिक संस्था के रूप में हिंआप की विशिष्ट पहचान है। इस अनुशासन और प्रबंधन के लिए आप मज़बूत दूसरी और तीसरी पंक्ति की आवश्यकता पर सदा बल देते हैं। इस सोच को कृपया विस्तार से बताएँ।

संजय भारद्वाज- किसी भी संस्था का विकास और विस्तार उसके कार्यकर्ताओं की निष्ठा, उनके परिश्रम और लक्ष्यबेधी यात्रा से होता है। कार्यकर्ताओं की प्रतिभा को पहचान कर अवसर देने से बनता है संगठन। हिंआप में हमने प्रतिभाओं को निरंतर अवसर दिया। इससे हमारी दूसरी और तीसरी पंक्ति भी दृढ़ता से खड़ी हो गई। उदाहरण के लिए आरम्भ में मैं गोष्ठियों का संचालन करता रहा। कुछ स्थिर हो जाने के बाद संचालन के लिए गोष्ठियों में अनेक लोगों को अवसर दिया गया। हमने वार्षिक उत्सव का संचालन हर बार अलग व्यक्ति को दिया। संचालन महत्वपूर्ण कला है। आज हिंआप में आपको कई सधे हुए संचालक हैं। प्रक्रिया यहाँ ठहरी नहीं अपितु निरंतर है। वार्षिक उत्सव में संस्था का पक्ष, गतिविधियाँ और अन्य जानकारी अधिकांशत: कार्यकारिणी के सदस्य रखते हैं। इससे उनका वक्तृत्व कौशल विकसित हुआ। सक्रिय सदस्यता या दायित्व को 75 वर्ष तक सीमित रखने का काम आज सरकार और सत्तारूढ़ दल के स्तर पर किया जा रहा है। बहुत छोटा मुँह और बहुत बड़ी बात यह है कि किसी साहित्यिक या ऐच्छिक किस्म की गैर लाभदायक संस्था, स्थूल रूप से किसी भी गैरसरकारी संस्था के स्तर पर  देश में इस नियम को आरम्भ करने का  श्रेय हिंआप को है। हमने वर्ष 2012 से ही 75 की आयु में सेवा से निवृत्ति को हमारी नियमावली में स्थान दिया। नये लोग आयेंगे तो नये विचार आयेंगे। नई तकनीक आयेगी। यदि यह विचार नहीं होता तो आज तक हम पोस्टकार्ड ही लिख रहे होते। विभिन्न तरह के कार्यक्रम करते हुए अनेक बार अनेक तरह की स्थितियाँ आती हैं। इनकी बदौलत आप एक टीम की तरह काम करना सीखते हैं। टीम में काम करते हुए अनुभव समृद्ध होता है और आवश्यकता पड़ने पर कब दूसरी और तीसरी पंक्ति एक सोपान आगे आ जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। इससे संस्था के सामने शून्य कभी नहीं आयेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के सदस्य अभिवादन के लिए ‘उबूंटू’ का प्रयोग करते हैं। यह ‘उबूंटू’ क्या है?

संजय भारद्वाज- ‘उबूंटू’ को समझने के लिए एक घटना समझनी होगी। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भरकर पेड़ के नीचे रख दीं। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा सबसे दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरी के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह क्या है तो बच्चों ने उत्तर दिया, ‘उबूंटू।’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू का अर्थ है, ‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ। सामूहिकता का यह अनन्य दर्शन ही हिंआप का दर्शन है।

वीनु जमुआर- वाचन संस्कृति के ह्रास आज सबकी चिंता का विषय है। हिंआप की गोष्ठियों में वाचन को बढ़ावा देने के लिए आपने एक सूत्र दिया है। क्या है वह सूत्र?

संजय भारद्वाज- डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने कहा था, “सौ पृष्ठ पढ़ो, तब एक पंक्ति लिखो।” समस्या है कि हममें से अधिकांश का वाचन बहुत कम है। अत: एक सूत्र देने का विचार मन में उठा। विचार केवल उठा ही नहीं बल्कि उसने वाचन और सृजन के अंतर्सम्बंध को भी परिभाषित किया। सूत्र यों है-‘जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा।’ हम हमारी गोष्ठियों में रचनाकारों से कहते हैं कि आपने जो नया रचा, वह तो सुना जायेगा ही पर उससे पहले बतायें कि नया क्या पढ़ा?

वीनु जमुआर- ढाई दशक की लम्बी यात्रा में ‘क्या खोया, क्या पाया’ का आकलन कैसे करते हैं आप?

संजय भारद्वाज- पाने के स्तर पर कहूँ तो हिंआप से पाया ही पाया है। अनेक बार देश के विभिन्न हिस्सों में रहनेवाले अपरिचित लोगों से बात होती है। …“आप संजय भारद्वाज बोल रहे हैं? …हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज.?”  इसके बाद आगे संवाद होता है। इससे अधिक क्या पाया जा सकता है कि व्यक्ति की पहचान संस्था के नाम से होती है। ‘उबूंटू’ का यह सजीव उदाहरण हैं। खोने के स्तर पर सोचूँ तो हिंआप ने दिया बहुत कुछ,  साथ ही हिंआप ने लिया सब कुछ। संग आने से संघ बनता है, संघ से संगठन। इकाई के तौर पर मेरे निजी सम्बंधों का अनेक लोगों के साथ विकास और विस्तार हुआ। इन निजी सम्बंधों को संगठन से जोड़ा। संगठन के विस्तार से कुछ लोगों की व्यक्तिगत आकांक्षाएँ बलवती हुईं। निर्णय लिए तो मित्र खोये। ये दुख सदा रहेगा पर संस्था व्यक्तिगत आकांक्षा के लिए नहीं अपितु सामूहिक महत्वाकांक्षा के लिए होती है। संस्था के विकास के लिए अध्यक्ष कोे समुचित निर्णय लेने होते हैं। अध्यक्ष होने के नाते  निर्णय लेना अनिवार्य होता है तो मित्र के नाते सम्बंधों की टूटन की वेदना भोगना भी अनिवार्य होता है। मैं दोनों भूमिकाओं का ईमानदारी से वहन करने का प्रयास करता हूँ।

(गांधी जी की सहयोगी रहीं डॉ. शोभना रानाडे और भारत को परम कंप्यूटर देने वाले डॉ विजय भटकर, साहित्यकार डॉ दामोदर खडसे द्वारा हिंदी आंदोलन परिवार के वार्षिक अंक ‘हम लोग’ का विमोचन. इस पत्रिका में प्रतिवर्ष १०० से अधिक रचनाकारों को स्थान दिया जाता है.)

वीनु जमुआर- नये प्रतिमान स्थापित करना हिंदी आदोलन परिवार की विशेषता है। यह विशेषता संस्था की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ और ‘हिंदीभूषण और हिंदीश्री सम्मान’ में भी उभरकर सामने आती है। इसकी भी थोड़ी जानकारी दीजिए।

संजय भारद्वाज- हिंआप की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ संभवत: पहली पत्रिका है जिसमें प्रतिवर्ष औसत 101 रचनाकारों को स्थान दिया जाता है। इसमें लब्ध प्रतिष्ठित और नवोदित दोनों रचनाकार होते हैं। इस वर्ष से पत्रिका का ई-संस्करण आने की संभावना है। जहाँ तक पुरस्कारों का प्रश्न है, विसंगति यह है कि हर योग्य पुरस्कृत नहीं होता और हर पुरस्कृत योग्य नहीं होता। हमने इसे सुसंगत करने का प्रयास किया। हिंआप द्वारा दिये जानेवाले सम्मानों के माध्यम से हमने योग्यता और पुरस्कार के बीच प्रत्यक्ष अनुपात का सम्बंध पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है।

वीनु जमुआर- हिंआप ने सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र को भी साहित्य के अंग के रूप में स्वीकार किया है। इस पर रोशनी डालिए।

संजय भारद्वाज- मैं मानता हूँ कि साहित्य अर्थात ‘स’ हित। समाज का हित ही साहित्य है। सामाजिक-सांस्कृतिक प्रकल्पों द्वारा हम समाज के वंचित वर्ग के साथ जुड़ते हैं। अनुभव का विस्तार होता है। एक घटना साझा करता हूँ। हमने दिव्यांग बच्चों का एक कार्यक्रम रखा। इसमें दृष्टि, मति और वाचा दिव्यांग बच्चे थे। दृष्टि दिव्यांग (नेत्रहीन) बच्चे जब नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे तो हमने लोगों से निरंतर तालियाँ बजाने को कहा क्योंकि वे तालियों की आवाज़ सुनकर ही उनको मिल रहे समर्थन का अनुमान लगा सकते हैं। जब वाचा दिव्यांग ( मूक-बधिर) बच्चे आए तो तालियों के बजाय दोनों हाथ ऊपर उठाकर समर्थन का आह्वान किया क्योंकि ये बच्चे देख सकते थे पर सुन नहीं सकते थे। कितना बड़ा अनुभव! हरेक के रोंगटे खड़े हो गये, हर आँख में पानी आ गया।…हिंआप के सदस्य रिमांड होम के बच्चों के बीच हों या वेश्याओं के बच्चों के साथ, फुटपाथ पर समय से पहले वयस्क होते मासूमों से मिलते हों या चोर का लेबल चस्पा कर दिये गये प्लेटफॉर्म पर रहनेवाले बच्चों से, महिलाश्रम में निवासियों से कुशल-मंगल पूछी हो या वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को सिर नवाया हो, कैदियों को अभिव्यक्ति के लिए  मंच प्रदान कर रहे हों या भूकम्प पीड़ितों के लिए राहत कोष में यथासंभव सहयोग कर रहे हों, वसंत पंचमी पर पीतवस्त्रों में माँ सरस्वती का पूजन कर रहे हों या भारतमाता के संरक्षण के लिए दिन-रात सेवा देनेवाले सैनिकों के लिए आयोजन कर रहे हों, पैदल तीर्थयात्रा करनेवालों की सेवा में रत हों या श्रीरामचरितमानस के अखंड पाठ द्वारा वाचन संस्कृति के प्रसार में व्यस्त, हर बार एक नया अनुभव ग्रहण करते हैं, हर बार जीवन की संवेदना से रूबरू होते हैं। साहित्यकार धरती से जुड़ेगा तभी उसका लेखन हरा रहेगा।

वीनु जमुआर- हिंआप के भविष्य की योजनाओं पर प्रकाश डालिए।

संजय भारद्वाज- भविष्य की आँख से तत्कालीन वर्तमान देखने के लिए समकालीन वर्तमान दृढ़ करना होगा। वर्तमान में पश्चिमी शिक्षा के आयातित मॉडेल के चलते हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य में रुचि रखनेवाले युवा तुलनात्मक रूप से कम हैं। हम हिंआप मेें युवाओं को विशेष प्रधानता देना चाहते हैं। हम वर्ष में एक आयोजन नवोदितों के लिए करते आये हैं। इसकी संख्या बढ़ाने और कुछ अन्य युवा उपयोगी साहित्यिक गतिविधियों का विचार है। गत पाँच वर्ष से हम हमारे पटल पर ई-गोष्ठी कर रहे हैं। अब तक 38 ई-गोष्ठियाँ हो चुकीं। हम स्काइप आधारित गोष्ठियों का भी विचार रखते हैं। पुस्तकालय और वाचनालय का प्रकल्प तो है ही। हम दानदाता की तलाश में हैं जो हिंदी पुस्तकों के पुस्तकालय और वाचनालय के लिए स्थान उपलब्ध करा दे।

वीनु जमुआर- अंत में एक व्यक्तिगत प्रश्न। हिंदी आंदोलन के संस्थापक-अध्यक्ष की पहचान  कवि, कहानीकार, लेखक, संपादक, समीक्षक, पत्रकार, सूत्र-संचालक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक और समाजसेवी के रूप में भी है। इस बहुआयामी व्यक्तित्व के निर्वहन में आपको अपना कौनसा रूप सबसे प्रिय है?

संजय भारद्वाज- मैं सृजनधर्मी हूँ। उपरोक्त सभी विधाएँ या ललितकलाएँ  प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सृजन से जु़ड़ी हैं। ये सब अभिव्यक्ति के भिन्न-भिन्न आयाम हैं। मैं योजना बनाकर इनमें से किसी क्षेत्र में विशेषकर सृजन में प्रवेश नहीं कर सकता। अनुभूति अपनी विधा स्वयं चुनती है। वह जब जिस विधा में अभिव्यक्त होना चाहती है, हो लेती है और मेरी कलम उसका माध्यम बन जाती है। हाँ यह कह सकता हूँ कि मेरे लिए मेरा लेखन दंतकथाओं के उस तोते की तरह है जिसमें जादूगर के प्राण बसते थे। इसीलिए मेरा सीधा, सरल परिचय है, ‘लिखता हूँ, सो जीता हूँ।’

 

सम्पर्क- संजय भारद्वाज 

9890122603

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जीवन-यात्रा- सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की  वरिष्ठ एवं प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी  भारतीय जी साहित्य ही नहीं  अपितु समाज सेवा में भी लीन हैं. हमें गर्व है कि आप ई-अभिव्यक्ति  की एक सम्माननीय लेखिका हैं.   इस साक्षात्कार  के माध्यम से आपने अपने जीवन  की  महत्वपूर्ण  साहित्यिक उपलब्धियां  एवं साहित्यिक तथा सामाजिक जीवन पर विस्तृत चर्चा की है. आपकी जीवन यात्रा निश्चित ही नवोदितों के लिए प्रेरणास्पद है. सुश्री  निशा नंदिनी  जी  का इस साक्षात्कार के लिए आभार. )

 

☆ जीवन यात्रा – सुश्री निशा नंदिनी भारतीय ☆

 

१. आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं शिक्षण ?

जी, मेरा जन्म रामपुर उत्तर प्रदेश में 1962 में हुआ। मेरे पिता रामपुर शुगर मिल में चीफ इंजीनियर थे। विद्या मंदिर गर्ल्स इंटर कॉलेज द्वारा इलाहाबाद बोर्ड से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। इसके बाद रुहेलखंड विश्व विद्यालय बरेली से बी.ए प्रथम श्रेणी में तथा  एम.ए हिन्दी में प्रथम श्रेणी में पास किया। 21 वर्ष की आयु में (बी. एड) के प्रारंभ में ही सन 1984 में ग्वालियर मध्य प्रदेश में विवाह हो गया। लगभग दो वर्ष ग्वालियर के “के.आर जी कॉलेज” में अध्यापन कार्य किया।

चूंकि पति असम के तिनसुकिया शहर में व्यवसाय करते थे, तो नौकरी छोड़कर हम तिनसुकिया आ गए। तिनसुकिया में हमने विभिन्न स्कूल व कॉलेज में लगभग 30 वर्ष अध्यापन किया।

तिनसुकिया में रहते हुए ही समाज शास्त्र व दर्शनशास्त्र में एम. ए. भी किया।  2018 में लेखन की व्यस्तता के चलते विवेकानंद केंद्र विद्यालय से स्वेच्छिक रिटायरमेंट ले लिया। वर्तमान में असम हाइट्स स्कूल में सलाहकार व काउंसलर हैं। हमारे तीन बच्चे हैं। एक बेटा और जुड़ाव बेटियां – रोचक, रुमिता और रुहिता। वर्तमान में तीनों अमेरिका, जर्मनी और बैंकॉक में कार्य कर रहे हैं।

 

२. लेखन में आगमन एवं प्रारंभिक लेखन की प्रेरणा ?

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। कक्षा तीसरी-चौथी से ही पुस्तकों की कविताओं को याद करके विद्यालय में उनकी प्रस्तुति  करना बहुत अच्छा लगता था। जबकि अर्थ समझ में नहीं आता था। इस तरह कविता से लगाव बचपन से ही था। कुछ शब्दों के साथ तुकबंदी और खिलवाड़ चलता रहता था,पर हमने पहली कविता कक्षा दस में घर के आंगन में चारपाई पर बैठ कर लिखी थी। जिसमें प्रकृति चित्रण किया था।

“था चांदनी रात का प्रथम पहर

मैं बैठा था अपने प्रांगण में।”

और इस तरह फिर कविताओं का सिलसिला चल पड़ा। स्कूल की पत्रिका में, अखबार आदि में। हमारे कॉलेज में आशु कविता प्रतियोगिता होती थी उसमें हमारी रचना हमेशा प्रथम  आती थी।

और हाँ, किसने सबसे ज्यादा प्रोत्साहित किया। इसमें अलग-अलग आयु में अलग अलग लोग थे। बचपन में पिता से बहुत प्रोत्साहन मिला। स्कूल कॉलेज में शिक्षकों से और विवाह उपरांत मेरे पति मेरी रचनाओं की आलोचना करते थे। इस तरह लेखन का सिलसिला चल पड़ा।

 

३. पुस्तक प्रकाशन एवं पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन 

जी,अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और पांच पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं। लगभग 31 पत्रिकाओं में और 13 समाचार पत्रों में लेख, कविता, जीवनी, निबंध आदि छप चुके हैं।

 

४. साहित्य की विधाएँ जिनमें आप अपनी कलम चला रही हैं:

जी, अब तक कविता, कहानी, निबंध, संस्मरण, लेख, जीवनी, बाल उपन्यास आदि पर लेखनी चलाई है और सतत् चल रही है।

 

५. अपने नाम के साथ ‘भारतीय’ उपनाम कब से और क्यों  ?

जी, यह प्रश्न बहुत लोग करते हैं।

मैंने अपने नाम के साथ भारतीय यही कोई पाँचसाल पहले लगाना शुरू किया है। इसका मुख्य कारण तो यह है कि मैं भारत की रहने वाली हूँ इसलिए मैं भारतीय हूँ। हम सबकी एक ही जाति होना चाहिए और वह जाति है ‘भारतीय’। मुझे अपने आपको भारतीय कहने पर बहुत गर्व होता है इसलिए मैंने अपने नाम साथ  भारतीय लगाना प्रारंभ किया। मेरी अधिकतर रचनाएं समाज व देश को समर्पित है।

 

६. पाठ्य पुस्तकों में आपकी किन रचनाओं को स्थान मिला ?

जी हाँ, मेरी पुस्तक “शिशु गीत”असम के पाँच स्कूलों में चल रही है और मेरी एक कविता जिसका शीर्षक है “प्रयत्न” अमरावती विश्व विद्यालय के (बी. कॉम) प्रथम वर्ष में तीन वर्षों से पढ़ाई जा रही है। पुस्तक का नाम “गुँजन” है।

 

७. क्या आपकी कोई पुस्तक अनुवादित होकर भी प्रकाशित हुई है ?

जी हाँ, मेरे बाल उपन्यास “जादूगरनी हलकारा” का असमिया भाषा में अनुवाद हुआ है और दो पुस्तकों पर अनुवाद का कार्य चल रहा है।

 

८.  साहित्य सेवा के लिए आपको अब तक कितने सम्मान मिल चुके हैं ?

जी, हमने गिने नहीं हैं लेकिन हाँ, साहित्य के क्षेत्र में देश-विदेश में अब तक लगभग लगभग पच्चीस सम्मान मिल चुके हैं।

 

९. आप किन-किन संस्थाओं से जुड़ी हुई है ?

जी, मैं  “इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल न्यास”, “शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास”, विवेकानंद केंद्र कन्या कुमारी से , एकल विद्यालय, मारवाणी सम्मेलन समिति, लॉयंस क्लब, हार्ट केयर सोसायटी, महिला आयोग तथा अहिंसा यात्रा आदि संगठनों से जुड़ी हूँ।

 

१०. एक लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशन का महत्व  

जी, बहुत अच्छा प्रश्न किया आपने। एक लेखक को पहचान उसकी पुस्तकों के माध्यम से ही मिलती है। पाठक पुस्तक पढ़ने के बाद ही लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व से रूबरू होता है क्योंकि लेखक का लेखन उसके व्यक्तित्व का आइना होता है। पुस्तकों के माध्यम से लेखक युग युग तक रोशनी फैलाता रहता है।

आज भी जब हम पचास-साठ साल पुराने लेखकों को पढ़ते हैं, तो लेखक का व्यक्तित्व हमारे समाने सजीव हो उठता है। हम उनकी पुस्तकों से लाभांवित होते हैं। वे सब अपनी  पुस्तकों के माध्यम से अमर हैं। इसलिए पुस्तकों को प्रकाशित करवाना अति आवश्यक है।

 

११.  यदि आपको मौंका मिले तो आप साहित्यिक क्षेत्र में क्या बदलाव लाना चाहेंगी ?

जी, जहाँ तक साहित्य में बदलाव की बात है तो “जिसमें हित नहीं, वो साहित्य ही नहीं”। पर आज साहित्य मंच की वस्तु बन कर रह गया है। गुप्त जी तो बहुत पहले ही लिख गए हैं।

केवल मनोरंजन न कवि का

कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

साहित्य कोई हंसी मजाक की वस्तु नहीं है, कोई खिलवाड़ नहीं है। साहित्य समाज का यथार्थ होने के साथ-साथ सुधार भी है।

साहित्यकार के कंधों पर समाज निर्माण की जिम्मेदारी होती है।

हम जैसा परोसेंगे, समाज वैसा ही लेगा इसलिए साहित्यकार को बहुत सोच समझकर अपनी लेखनी का उपयोग करना चाहिए।

 

१२. महिला के किस रूप को आप सर्वश्रेष्ठ मानती हैं और क्यों?

जी, यह प्रश्न तो बिल्कुल इसी तरह का है कि भगवान के किस रूप को आप श्रेष्ठ मानते हैं। महिला हर रूप में श्रेष्ठ है। छोटी सी कन्या के रूप में वह आशीर्वाद देती है। बहन के रूप में भाई की रक्षा के लिए तैयार रहती है। बेटी के रूप में पूरे परिवार की रक्षा करती है। पत्नी के रूप पूरे परिवार में खुशियों के दीप जलाती है और एक माँ के रूप अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है। अब आप ही निश्चित कर लीजिए कि महिला का कौन सा रूप सर्व श्रेष्ठ है?

 

१३. आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहेंगी ?

जी, मेरी सफलता का श्रेय मेरे परिवार के साथ-साथ मेरी दृढ़ इच्छाशक्ति और मेरी कर्मठता को जाता है।

 

१४. नए लेखकों को क्या सुझाव देंगी आप ?

नए लेखकों से मैं यही कहना चाहती हूँ कि इस प्रक्रिया से सतत् जुड़े रहें। लेखन एक तपस्या है। खूब लिखें,अच्छा लिखें और कभी भी इससे संतुष्ट न हो। अच्छे लेखन की भूख कभी भी तृप्त न हो। अपने लेखन से परिवार, समाज, देश व विश्व का कल्याण करें।

 

संपर्क :

निशा नंदिनी भारतीय
पति श्री एल.पी गुप्ता
आर.के.विला, बाँसबाड़ी, हिजीगुड़ी, गली- ज्ञानपीठ स्कूल
तिनसुकिया – 786192 असम
मोबाइल- 9435533394, 9954367780
ई-मेल आईडी : [email protected]

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जीवन-यात्रा- ☆ सुश्री मीनाक्षी भालेराव (पृथा फाउंडेशन, पुणे) ☆

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

(ई-अभिव्यक्ति हेतु सुश्री मीनक्षी भालेराव जी के साक्षात्कार पर आधारित आलेख)

 

☆ जीवन यात्रा – सुश्री मीनाक्षी भालेराव (साहित्यकार, समाज-सेविका एवं मॉडल) ☆

 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव एक प्रसिद्ध कवयित्री तो हैं ही, इसके अतिरिक्त वे साहित्य, कला, संस्कृति के क्षेत्र में सेवाएँ देने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं।

गुमनामी में दफन होने से अच्छा है

जरूरत मंदों के दिलों में जिन्दा रहें।

लोगों की कला को नई पहचान देना और उनका सम्मान करना तथा  सब के साथ सादगी से पेश आना, लोगों के दिलों को जीतना उनकी फि़तरत है और सदैव मुस्कराते रहना उनकी आदतl अपनी सादगी एवं सद्कार्यों के कारण वे समाज में सम्माननीय हैं।

उनके अनुसार अपने अन्दर के इंसान को जीवित रखना बहुत जरूरी है। उनके ही शब्दों में –

हर एक इन्सान में, एक इन्सान और रहता है,

जो बचाना चाहता है, अपने इन्सान होने को

विगत २८ वर्षों से उन्होने आपने आपको साहित्य, कला और समाज सेवा में स्वयं को समर्पित कर दिया है। हर किसी की परेशानी को अपनी परेशानी समझकर तथा गरीबों एवं जरूरतमंदों के बीच में रहकर उनकी मदद करना वे अपना धर्म समझती हैं। अमीर गरीब का भेद मिटाते हुए हर परेशान व्यक्ति की सहायता करने से वे आत्म संतुष्टि पाती हैं।

२०१४ में उन्होने पृथा फाऊंडेशन नामक संस्था की नींव रखी जिसके माध्यम से वे साहित्यकारों को हिन्दी, उर्दू, मराठी और अन्य भाषाओं में कविता, शायरी, नज्म़ और आपने मन की बात रखने का अवसर प्रदान करती हैं प्रत्येक माह के तीसरे शनिवार को इस संस्था के माध्यम से   बुद्धिजीवियों  और  साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाता हैl  विभिन्न क्षेत्रों में अच्छा कार्य करने वाले बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों एवं कलाकारों से उनके विचार सुने जाते हैं एवं पृथा फाउंडेशन की ओर से सम्मानित किया जाता है। सभी राष्ट्रीय उत्सव, महापुरुषों की जयन्ती, शहीद दिवस, नारी सशक्तिकरण तथा पर्यावरण जैसे कई कार्यो को साकार किया जाता हैl

जरुरतमन्द लोगों को रोज़मर्रा की जिंदगी में काम आने वाली वस्तुएं जैसे किताबे, कपडा, अनाज आदि से मदद करने का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य सेवाभावी संस्थाओं की भी सहायता पृथा फाऊंडेशन करती आ रही हैl

*परामर्श की पहल *

आज लोगों को एक दुसरे को मिलने जुलने और बातचीत के लिये वक्त नहीं है। व्यक्ति एक दुसरे से टूटता जा रहा हैं आज उसे परामर्श की आवश्यकता है। परामर्श के इस कार्य में पृथा फाऊंडेशन सकारात्मक कार्य कर रही हैंl

*भाषा से भारत जोडो*

पृथा फाऊंडेशन में हर भाषा का सम्मान किया जाता है। किन्तु, हिन्दी तो हमारी राष्ट्रभाषा है और प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है की वे उसका सम्मान और  प्रचार प्रसार करें। यह पृथा फाऊंडेशन की धारणा है और उसके लिये संस्था हर तरह के प्रयास करती आ रही है।

*अक्षर अक्षर कविता*

प्रत्येक माह काव्य पाठ, दिवयांगों और बच्चों के लिए महफिल, साहित्य निर्माण के लिए प्रयास किये जा रहे हैl

* पुरस्कार एवं सम्मान *

  • मणिभाई देसाई सेवा पुरस्कार
  • स्त्री शक्ती विशेष सेवा पुरस्कार
  • वुमेन्स अचिव्हर्स अवार्ड
  • हिन्दी भाषारत्न पुरस्कार
  • हिन्दी भूषण पुरस्कार
  • पुणे रोटरियन विशेष पुरस्कार
  • साहित्य सेवा पुरस्कार

जागतिक महिला दिवस के उपलक्ष में सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की ओर से विशेष महिलाओं को “पृथा स्त्री-शक्ती पुरस्कार” दिया जाता है।

*भविष्यकालीन योजनाएँ*

  • जरुरत मंदो को रोटी, कपडा और जल पहुँचाना
  • स्त्री सशक्तिकरण
  • महिलाओं के लिए आरोग्य सेवा मुहैया कराना
  • व्यसनमुक्त समाज के हेतु भवन निर्माण करना
  • ग्राम विकास व समाजसेवा के लिए युवाओ में जाग्रति पैदा करना

व्यक्ति का विकास ही समाज का विकास है और समाज का विकास ही देश का विकास हैl इस सोच के साथ सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी पुणे में विगत 28 वर्षों से कार्यरत हैं एवं वे सदैव ऐसे ही कार्यों से साहित्य, कला व समाज की सेवा करती रहें एवं प्रगति पथ पर बढ़ती रहें इसी कामना के साथ।

 

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जीवन-यात्रा – ☆ ‘पूर्ण विनाशक’ तक की जीवन यात्रा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी उतार चढ़ाव भरी रहस्यमयी  जीवन यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।  उनके साहित्य पर उनके जीवन का प्रभाव  स्पष्ट दिखाई पड़ता है।  श्री आशीष कुमार की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक  ‘पूर्ण विनाशक’  पढ़ने के पूर्व  एक बार उनकी जीवन यात्रा  अवश्य पढ़ें। श्री आशीष जी की जीवन यात्रा किसी रहस्यमय  उपन्यासिका से कम नहीं है। )

 

मेरा जन्म 18 सितंबर 1980 को एक छोटे पवित्र शहर हरिद्वार के मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था । एक परिवार में, जो जानता है कि जीवन का अर्थ है दूसरों की मदद करना और जितना हो सके उतना सरल जीवन जीना । मेरे पिता ने PSU, BHEL में काम किया । मैंने अपनी बुनियादी शिक्षा पब्लिक स्कूलों से की, जिनकी मासिक फीस 10 रुपये के आसपास होती थी । मेरे पिता एक मेहनती व्यक्ति हैं और उन्होंने हमारी स्थिति से परे अपने बच्चों को हर संभव विलासिता प्रदान की । मुझे बचपन से ही विज्ञान के प्रति रुचि थी। रात में, मैं ब्रह्मांड के रहस्य को समझने के लिए घंटों आकाश की ओर देखता था । मुझे स्कूल के बाद खुद से भौतिकी और रसायन विज्ञान के प्रयोग करना पसंद था । जिसमें से मैं केवल 50 प्रतिशत प्रयोग ही सही ढंग से कर पाता था ।

बचपन से ही मेरा दूसरा प्यार हिंदू पौराणिक कथाएँ और दर्शन थे । यहां तक ​​कि मैं उस समय उनके बारे में ज्यादा नहीं जानता था लेकिन उन्होंने मुझे आकर्षित किया । इसका अर्थ है कि मेरा दिमाग सामाजिक जीवन के दो चरम ध्रुवीकरणों के बीच झूलता रहता था । उस समय मैं हमेशा आश्चर्य में रहा कि दोनों मार्ग एक दूसरे के इतना विपरीत क्यों दिखते हैं ।

मैंने भेल हरिद्वार के एक पब्लिक स्कूल से वर्ष 1998 में 12 वीं की है । 12 वीं के बाद मैंने भारत में उच्च प्रौद्योगिकी के IIT और इसी तरह के कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने के लिए एक साल का ब्रेक लेने का फैसला किया ।

अगर मैं पीछे मुड़कर देखूं तो मेरे जीवन के फुट प्रिंट आसानी से देखे जा सकते हैं कि 12 वीं तक मेरा जीवन एक बेचैन दिमाग वाला व्यक्तित्व था जो बहुत भाग्यशाली था । हां, मैं अपनी किशोरावस्था तक बहुत भाग्यशाली व्यक्ति था, और मेरे चाहने से पहले ही मुझे सब कुछ मिल जाता था । मुझे पूरा यकीन था कि मैं IIT की प्रवेश परीक्षा पास करूंगा । यहां तक ​​कि मेरे शिक्षक भी इस बारे में बहुत आश्वस्त थे । मैं रातों की नींद हराम करके IIT की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा था ।

फरवरी 1999 के अंत में, अचानक मैं बीमार पड़ जाता हूं और मेरा शरीर बुखार से पीड़ित होने लगता है । पास के चिकित्सक के साथ प्राथमिक परामर्श के बाद भी मुझे राहत नहीं मिली । इसलिए आखिरकार मुझे भेल के अस्पताल में भर्ती कराया गया । रोगियों के उस डोरमेट्री हॉल में, मैंने मृत्यु को बहुत करीब से देखा और मनाया है । हर 3 या 4 दिनों में मेरे डॉरमेटरी हॉल के एक मरीज की मृत्यु हो जाती थी । कुछ लोग विशाल दर्द के साथ मर जाते हैं और कुछ लोग शांति से । एक रात जब मेरे पिता उस स्थिति में मेरी मदद करने के लिए वहां रह रहे थे, तो मैंने देखा कि रात के 2:00 बजे के आसपास मेरे बगल के एक मरीज ने बहुत अजीब तरह से बात करना शुरू कर दिया है और मैं जल्द ही नींद से जाग गया और मैंने देखा कि उस मरीज का शरीर कांपने लगा है और फिर वह एक तरफ गिर पड़ता है । मुझे उस समय बहुत डर लग रहा था । फिर मेरे पिता ने वार्ड बॉय और नर्स को बुलाया ।

 

प्रत्येक बीतते दिनों के साथ मेरा स्वास्थ्य खराब होता जा रहा था । अस्पताल में 10 दिनों के बाद, मैं अपने आप को एक स्थान से दूसरे में स्थानांतरित करने में असमर्थ था क्योंकि मेरे अंगों के जोड़ों में भारी दर्द महसूस हो रहा था । मेरा वजन कम हो गया और लगभग 40 किलो रह गया । हां, 19 साल के लड़के के लिए 40 किलो वजन है, जिसकी ऊंचाई लगभग 5 फीट 11 इंच हो । मेरे पिता मुझे वॉशरूम ले जाने के लिए व्हील चेयर का इस्तेमाल करते थे । हर दिन मेरी स्थिति और ज्यादा खराब होती जा रही थी । मेरे शरीर की दिनचर्या कुछ इस तरह की थी कि हर सुबह 5:00 बजे के आसपास बुखार मेरे शरीर पर कब्जा करना शुरू कर देता था, फिर डॉक्टर मेरे शरीर में कुछ दवा का इंजेक्शन लगाते थे, जो लगभग दो घंटे तक बुखार के प्रभाव को दूर रखता था । और दो घंटो के बाद बुखार फिर से मेरे शरीर पर कब्जा करने लगता था । मैं अपने हाथो और पैरो को हिलने डुलाने में असमर्थ हो गया था । हर दिन मेरे रिश्तेदार मुझे अस्पताल में देखने आते थे । मेरे परिवार के सदस्य बहुत चिंतित थे । अब मुझे अस्पताल में भर्ती हुए लगभग 17 दिन हो गए थे लगने लगा था कि मैं हर गुजरते पल के साथ खुद को मरता हुआ देख रहा हूँ । 19 वें दिन डॉक्टर ने मेरे पिता से कहा कि अब क्षमा करें, हम कुछ नहीं कर सकते है । आप चाहें तो अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं। उस समय, मेरे पिता ने डॉक्टरों से अनुरोध किया था कि वे मुझे दिल्ली में अपने सहयोगी अस्पताल में रेफर करें। अगले दिन भेल हरिद्वार अस्पताल में 21 दिन रुकने के बाद मुझे सबसे खराब स्थिति में दिल्ली जाना है । उस रात जब मैं उस अस्पताल के हॉल को छोड़ रहा था जहाँ मैं नियमित रूप से मृत्यु देख रहा था, मेरी भावनाएँ पूरी तरह से बदल गई थीं । मुझे लग रहा था कि यह मेरे छोटे से जीवन का अंत है । जिसमें मैंने कुछ अनोखा या विशेष या कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे कि लोग एक अच्छे व्यक्ति के रूप में मेरा नाम याद रखें ।

उस रात मेरा घर लोगों से भरा था । अगली सुबह हम एक टैक्सी से दिल्ली गए मेरे पिता, मेरे बड़े भाई, एक चचेरे भाई, और एक चाचा मेरे साथ दिल्ली गए । हरिद्वार से दिल्ली तक पूरे 6 से 7 घंटे के सफर में मैं भगवान से कह रहा था कि अगर मैं इस बीमारी के कारण नहीं मरूंगा, तो मैं दूसरों के लिए अपना जीवन जीऊंगा ।

दिल्ली के अस्पताल में भी, मैं लगभग 21 दिन रहा । उन 21 दिनों में, मैंने प्रतिदिन लगभग 5-6 इंजेक्शन, 25-30 गोलियां लीं और अस्पताल वाले विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के लिए रोजाना मेरा 30 मिली खून चूसते थे । मैंने वहां हर संभव दर्द का सामना किया है । उन्होंने अप्रैल 1999 के अंत में मुझे छुट्टी दे दी और मुझे लगभग 2 महीने तक बिस्तर पर आराम करने का सुझाव दिया ।

जब मैं दिल्ली से अपने घर लौटा तो सभी प्रवेश परीक्षाओं की तारीख पहले ही निकल चुकी थी । मैं अपने अध्ययन कक्ष में गया और अपने अध्ययन की पुस्तकों पर मकड़ी के जाले देखे । मैं उस अलमारी के पास गया और जब मैंने अपनी किताबें देखीं तो मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे ।

किसी भी तरह से दिन गुजर रहे थे और वह वर्ष 1999 में दिसंबर का महीना था । मैं पूरी तरह से शारीरिक रूप से ठीक हो गया था और फिर मैंने अगले साल 2000 में केवल यूपी इंजीनियरिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा देने का फैसला किया ।

 

मुझे इसमें अच्छा रैंक मिला और फिर मैंने बरेली यूपी के इंजीनियरिंग कॉलेज की सूचना प्रौद्योगिकी शाखा में प्रवेश लिया । बी.टेक के अपने चार वर्षों के दौरान मैं ज्यादातर समय खोया रहा । अन्य सभी छात्रों की सोच मुझसे बहुत अलग थी । उन चार सालों में भी, मुझे कई बार शारीरिक रूप से पीड़ित होना पड़ा । अध्ययन में, मेरे इंजीनियरिंग के पूरे आठ सेमेस्टर मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण थे । सभी विषयों में, मैं औसत था और किसी तरह सिर्फ औसत अंक प्राप्त करने का प्रबंधन करता था, लेकिन प्रत्येक सेमेस्टर में, मैं एक विषय में टॉपर रहा वो भी पूरे यू पी में और मैंने उस विषय पर पूरे सेमेस्टर में गहन शोध किया । वर्ष 2004 में मैं एक भ्रमित स्नातक था ।

मैं हरिद्वार में अपने घर लौटता हूं और मुझे नौकरी की चिंता नहीं थी, जैसे की मेरे कॉलेज के सभी छात्रों को थी । पूरा 2004 साल बीत गया और मैं अपने घर पर कुछ नहीं कर रहा था । अगस्त 2005 में मैं कंप्यूटिंग में अग्रिम प्रोग्रामिंग सीखने के लिए, सी-डैक में शामिल हो गया । अध्यन केंद्र दक्षिण दिल्ली में था ।

हमारे C-DAC पाठ्यक्रम के छह महीनों में मेरी B.Tech अवधि के विपरीत मैंने कंप्यूटर तकनीकों, सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग आदि के विषय में बहुत अध्ययन किया और सीखा और मैंने उस सीखने का आनंद भी लिया । उस दौरान, मैं बहुत कम सोता था और मेरी पूरी एकाग्रता मेरे सीखने पर थी ।

फरवरी 2006 में हमारे पूरे बैच के छात्र जो परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे, वे सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम में बैठने के पात्र थे, जो पुणे शहर में C-DAC द्वारा आयोजित किया गया था । पूरे भारत में सभी C-DAC केंद्रों के सभी छात्र सामान्य प्लेसमेंट के लिए उपस्थित थे । उन्होंने प्रत्येक उम्मीदवारों को आई टी कंपनियों के प्लेसमेंट कार्यक्रमों में बैठने के लिए दस मौके दिए थे । सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम की शुरुआत से एक दिन पहले, उन्होंने सभी छात्रों के लिए एक आई कार्ड जारी किया और आई कार्ड के सत्यापन के बाद कोई भी छात्र विभिन्न कंपनियों के लिए सामान्य प्लेसमेंट दौर में भाग ले सकता था ।

उन्होंने विभिन्न सी-डैक केंद्रों के लिए संख्याओं की एक श्रृंखला निर्धारित की । हमारी C-DAC केंद्र संख्या श्रृंखला 100+ से बताई गई थी जिसका अर्थ है कि हमारे दिल्ली C-DAC केंद्र के लिए छात्र की क्रमांक संख्या 102,103 … .etc जैसी थी । इसी तरह हैदराबाद सी-डैक सेंटर के लिए 201, 202… . आदि आदि अन्यो के लिए भी ।

प्लेसमेंट शुरू होने से एक रात पहले, हमारे C-DAC केंद्र समन्वयक ने I-Cards वितरित किये । मेरे नाम का आई-कार्ड जारी नहीं किया गया । जब मैंने उनसे पूछा । तब उन्होंने पुष्टि की कि कुछ गलती के कारण मेरा आई कार्ड नहीं बनेगा और अगले दिन बनाया जाएगा । अगले दिन उन्होंने मुझे रोल नंबर 1121 का आई कार्ड दिया । पूरे भारत के सभी C-DAC केन्द्रो के छात्रों में से में अकेला था जिसके साथ ये हुआ था। कई कंपनियों के इंटरव्यू में मुझे इसलिए भी नहीं बुलाया गया क्योंकि वे रोल नंबर के अनुसार इंटरव्यू ले रहे थे, पहले 1,2,3… ..100, फिर 101, 102… फिर… .801, …… .1101 इत्यादि । मेरे आई-कार्ड अनुक्रम संख्या आने से पहले ही कई कंपनियों ने उनकी आवश्यकता के अनुसार छात्रों का साक्षात्कार लेकर उन्हें चुन लिया था ।

किसी भी तरह से मैं 10 कंपनियों की भर्ती प्रक्रिया के अलग-अलग दौर में गया । मैं पूरे भारत के सभी सी-डैक केंद्रों में एकमात्र छात्र था जिसने सभी 10 कंपनियों के लिखित चरणों को पास किया । इसके अलावा, मैं एकमात्र छात्र था जिसे अंतिम दौर में किसी कंपनी द्वारा नहीं चुना गया था । हमारा सी-डैक सामान्य प्लेसमेंट कार्यक्रम समाप्त हो गया था और मैं अभी भी बेरोजगार था । फिर मैं पुणे और मुंबई की आईटी कंपनियों से संपर्क करने की कोशिश करने लगा । मैं अपना C.V. जमा किसी आईटी कंपनी में जमा करने के लिए पुरे दिन बिना भोजन किया इधर-उधर घूमता रहता था । कुछ कंपनियों में गार्ड मेरा C.V. लेकर रख लेते थे और मुझे वही से वापस जाने को बोल देते थे अन्य कुछ में वो मुझे अंदर जाने देते थे ।

यहां तक ​​कि एक या दो अवसरों पर, मैं लगभग कंपनियों द्वारा चुना जा चूका था, लेकिन मेरा भाग्य अलग था । एक उदाहरण है कि मैंने शुक्रवार को मुंबई में साक्षात्कार दिया और उन्होंने मुझे बताया कि आप चयनित हैं तो अब आपको HR दौर और अन्य औपचारिकताओं के लिए सोमवार को आना पड़ेगा । मैं बहुत खुश था और जैसे ही मैं मुंबई में अपने दोस्त के फ्लैट पर पहुंचा, मेरे पेट में दर्द शुरू हो गया । मेरे दोस्त मुझे अस्पताल ले गए और फिर उन्होंने मुझे अस्पताल में भर्ती कराया । सोमवार को, मुझे उसी कंपनी का फोन आया, जिसके HR चरण के साक्षात्कार के लिए मुझे जाना था । मैं अस्पताल में था और अस्पताल से छुट्टी के बाद डॉक्टर ने मुझे कम से कम दो महीने का बेड रेस्ट करने का सुझाव दिया । कुछ अन्य घटनाएं हैं जिनमें मैं नौकरी पाने के बहुत करीब था लेकिन एक कारण या अन्य के कारण प्रकृति की इच्छा से मुझे नौकरी नहीं मिल सकी ।

कई संघर्षों के बाद, मुझे पुणे में नौकरी मिल गई जहाँ उन्होंने मुझे छह महीने की शुरुआत के लिए पैसे नहीं दिए । मैं बिखरा हुआ था जैसा कि समय हो सकता है । मैं उस समय सोचता था कि मैं बहुत बुद्धिमान और प्रतिभाशाली हूं लेकिन मैं एक छोटी सी नौकरी के लिए पीड़ित था । यही कुंठा मुझे भगवद गीता की ओर मोड़ देती है । भगवद गीता पढ़ने के अलावा उस समय मैंने अपनी भावनाओं को भी पेपर पर उतरना शुरू कर दिया था। । अथार्त मैंने अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी कविताएं और गीत लिखना शुरू कर दिया था। । मैं आईटी जॉब इस तरह से कर रहा था जैसे कि वह मेरे लिए अत्याचार हो और मैं पूरी तरह से उसका आनंद नहीं ले रहा था । इसलिए मैंने वह नौकरी छोड़ दी और कॉपीराइटर के एक पद पर एक ऐड एजेंसी में नौकरी करने लगा । मुझे वह रचनात्मक क्षेत्र पसंद है । जल्द ही विज्ञापन की वह ग्लैमरस दुनिया मुझे धूल की तरह लग रही थी । मुझे नौकरी का रचनात्मक पक्ष बहुत पसंद आया लेकिन जैसा ही मैंने पेज 3 पार्टियां पर जाना शुरू किया, मुझे उस माहौल की आभा काटने लगी । शुरू में, वह माहौल मेरे लिए काल्पनिक दुनिया जैसा लग रहा था लेकिन कुछ समय बाद मैं सोचने लगा कि इसके बाद क्या है? इसका मतलब है कि मैं सभी संभावित विलासिता को देख रहा था, लेकिन वो माहौल मुझे मुझे सूखी बर्फ की तरह देखा, जो शांत दिखती हैं लेकिन वास्तव में सब कुछ जला सकती हैं । इसलिए, यह मेरा संतृप्ति बिंदु था ।

उसके बाद मैंने वेदों, पुराणों आदि जैसे सभी हिंदू धर्मग्रंथों को पढ़ना शुरू किया । मैंने 4 वेदों, 18 पुराणों, 108 उपनिषदों समेत सभी संभावित उपलब्ध ग्रंथों को पढ़ा, जिनमें भगवद-गीता, रामायण, महाभारत के सभी उपलब्ध संस्करण शामिल हैं । , उप वेद, वास्तु-शास्त्र, ज्योतिष, हस्तरेखा, संगीत, आयुर्वेद, पौराणिक कथा, दर्शन, आगम और बहुत कुछ । आध्यात्मिकता का विषय एक संतुष्ट इच्छा नहीं है । यह ऐसा है, मान लीजिए, आप बहुत प्यासे हैं और पानी की सख्त तलाश कर रहे हैं, कुछ समय बाद आपको पानी मिलता है, लेकिन पीने के बाद आपको पता चलता है कि यह नमकीन पानी था जो आपकी प्यास को पहले से अधिक बढ़ा देता है, कुछ समय बाद, आपको एक और गिलास पानी मिलता है जैसे ही आप पीते हैं, यह पहले की तुलना में अधिक नमकीन था इस तरह से आपकी प्यास कभी भी संतुष्ट नहीं होगी । यह धर्म या अधिक सही ढंग से आध्यात्मिक या धर्म के दार्शनिक भाग के विषय में पूर्ण सत्य है । मैं खुद को खोजने के लिए पूरी तरह से खो गया था ।

मैंने रात में करीब साढ़े ग्यारह बजे ध्यान करना शुरू किया । जो रात्रि 02:00 बजे तक जारी रहता था । मेरे रूममेट सोचते थे कि मैं पागल हो गया हूँ । धीरे-धीरे मेरी दिनचर्या ने मेरी नौकरी में खलल डालना शुरू कर दिया । मैं पूरी तरह से शास्त्र पढ़ने और उनके व्यावहारिक उपयोग के लिए बाध्य था । इसने मेरे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया । मेरे फ्लैट में, मैं केवल दो काम करता था । शास्त्र पढ़ने और उनके अभ्यास और विभिन्न प्रकार के गैर-मादक पेय बनाने के लिए प्रयोग ।

एक दिन मुझे मुंबई की लोकेशन बोरिवली में एक साझेदारी में कॉफी शॉप खोलने का अवसर मिला । उस दिन मैंने अपनी कॉपी राइटिंग जॉब से इस्तीफा दे दिया । फरवरी 2009 को सभी तैयार थे, एक निर्धारित तारीख पर हमारे कॉफी सह अन्य पेय की दुकान खोलने का फैसला किया गया था । जनवरी 2009 में मैं अपने कॉफी शॉप पार्टनर को बिना बताए अपने गृह नगर हरिद्वार लौट आया । जनवरी 2009 के महीने के अंत में मैं हिमाचल प्रदेश में अपने एकांत समय का आनंद ले रहा था जब मेरा कॉफी शॉप पार्टनर मुझसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा था । मैं अगम्य था । फिर उन्होंने अकेले कॉफी शॉप शुरू की । मेरी आविष्कार की गई कॉफी मेरे साथी का व्यवसाय आज भी बढ़ा रही है क्योकि मैं अपने पार्टनर को अपनी सबसे अच्छी कॉफी के बनाने का तरीका सीखा चुका था ।

जुलाई 2009 में मैं वापस पुणे लौट आया और नौकरी खोजने लगा । मैंने फिर से आईटी क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया । मेरे सभी दोस्त सदमे में थे उन्होंने कहा कि आप आईटी प्रौद्योगिकी से दूर हैं और लगभग एक वर्ष से अधिक समय बीत चुका है । आपको नौकरी कैसे मिलेगी? फिर मुझे IT में ही बहरीन देश में काम मिला ।

21 अगस्त 2009 को मैं बहरीन की धरती पर उतरा । अगले दिन मैं अपने कार्यालय गया जहाँ उन्होंने मुझे मेरा काम समझाया । फिर उन्होंने मुझे तकनीक के विषय में बताया, जिसमें मुझे कोड विकसित करना था लेकिन मैंने पहले उस तकनीक में काम नहीं किया था । मेरा मैनेजर चिंतित था । फिर मैंने उनसे एक सप्ताह का समय देने का अनुरोध किया ताकि मैं उस तकनीक के अनुसार अपडेट हो पाऊ जिसमें मुझे काम करना था । मैने वही करा भी । मैं अपनी नौकरी में बहरीन में अच्छा कर रहा था लेकिन आंतरिक शांति अभी भी गायब थी । इसलिए, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 4 महीने बाद भारत लौट आया । फिर मैंने फरवरी अंत तक हरिद्वार में अपने घर पर समय बिताया ।

ये वह समय था जब मुझे नहीं पता था कि हर शाम मेरी आंखों का क्या हो जाता था । उन्हें हर चीज की धुंधली छवि दिखाई देने लगती थी और मेरे दिमाग में तेज दर्द शुरू हो जाता था । उस समय मैंने तंत्र शास्त्र पढ़ना शुरू किया और शाम और रात में, मैं गंगा घाटों और श्मशान घाटों में जाकर साधना करता था । 2010 के जनवरी और फरवरी के वो दो महीने मेरे जीवन के लिए बहुत रहस्यमय थे । मैं अपने गृहनगर हरिद्वार में था और रोज हिन्दू शास्त्र पढ़ता था, आँखों की समस्या और सिरदर्द से पीड़ित था और रात में मैं आमतौर पर श्मशान घाट या ऐसी जगहों पर 1-2 घंटे बिताता था जो अधिकांश धार्मिक लोगों के लिए वर्जित हैं पर जहां असीम शांति होती है । एक रात जब मैं दोपहर 1:45 बजे के आसपास अपने कमरे में सो रहा था, मैं उठा और उच्च-स्तर के ध्यान में चला गया, जहां एक समय मुझे लगा कि मेरी सीमित चेतना ब्रह्मांड की अनंत चेतना के साथ विलय कर रही है । संचार की किसी भी विधा से आनंदित होने वाला वो अहसास अवर्णनीय है ।

उन दो महीनों में, मैंने उस आनंद को दो बार अनुभव किया । इसके अतरिक्त, मैंने अनुभव किया कि कुछ उच्च शक्ति मुझे वापस जाने की आज्ञा दे रही है और कह रही है कि आपको लोगों को बहुत कुछ देना होगा इसलिए यह आपका मार्ग नहीं है । उन दो घटनाओं के बाद, मैंने आज तक उस आनंद को अपने अंदर अनुभव नहीं किया है ।

उस समय मेरी आँखों की समस्या भी बढ़ रही थी और मेरा परिवार चिंतित था । उन्होंने आंखों और नसों के कई डॉक्टरों से सलाह ली लेकिन कोई भी मेरी समस्या का निदान नहीं कर पाया । फरवरी के अंत में मेरा परिवार और मैं निराश थे और ऐसा लग रहा था कि अब मुझे अपना शेष जीवन एक शाम के अंधे व्यक्ति के रूप में बिताना होगा । फिर, एक चमत्कार हुआ और अंत में मेरे पिता मुझे एक बहुत ही सामान्य चिकित्सक के पास ले गए । उन्होंने कहा कि मस्तिष्क तक आँखों से जुड़ने वाली मेरी कोशिकाएँ कमज़ोर थीं और फिर उन्होंने मुझे एक दिन में एक दस दिनों तक दस इंजेक्शन लगाने की सलाह दी । पहले इंजेक्शन से ही मेरी आँखों की समस्या कम होने लगी और दस दिनों के बाद मैं पूरी तरह से फिट हो गया ।

मार्च 2010 में मैं फिर से पुणे में आईटी कंपनी से जुड़ गया । मैंने वह काम एक साल तक आराम से किया । यही वह समय था जब मैंने कर्मों के नियम और उनके शरीर और मन पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करने की कोशिश की । 2011 के मार्च में, मैंने उस नौकरी से इस्तीफा दे दिया और फिर से अपने घर वापस आ गया । उस समय मैंने संन्यास (त्याग) लेने का फैसला किया । दूसरी ओर मेरे माता-पिता और भाई- बहन चाहते थे कि मैं शादी करूँ क्योंकि मेरी उम्र 30+ थी । मेरे लिए यह बहुत ही उलझन भरा समय था । एक तरफ मैं 2-3 महीनों के लिए गहन ध्यान के लिए हिमालय जाने की योजना बना रहा था । दूसरी तरफ जब भी मैं अपने घर में प्रवेश करता, मेरे परिवार के सभी सदस्य मेरी शादी के विषय में चर्चा करते । उस समय मैं हरिद्वार में एक छोटी कंपनी में नौकरी करने लगा ।

क्योंकि मैं ज्यादा भौतिक चीजें नहीं चाहता था । उस नौकरी में मैंने कई दोस्त बनाए जो नौकर वर्ग के थे और देखा कि भारत में निम्न वर्ग के लोग कैसे दैनिक आधार पर पीड़ित हैं । अब मेरे माता-पिता मेरे करियर और मेरे लिए बहुत चिंतित थे । दिसंबर 2011 में मैंने एक साक्षात्कार दिया और JNNURM के तहत भारत सरकार की एक परियोजना में चुना गया । दिसंबर 2011 में मैं 6-7 महीने के लिए नैनीताल में कार्यालय में शामिल हो गया, उसके बाद उन्होंने मुझे देहरादून स्थानांतरित कर दिया । मेरे लिए यह अच्छा था क्योंकि देहरादून मेरे घर हरिद्वार से लगभग 2 घंटे की दूरी पर है । मैं अपने घर से कार्यालय तक बस या ट्रैकर के माध्यम से दैनिक यात्रा करता था उस यात्रा में मैंने बस और ट्रैकर के दैनिक यात्रियों और ड्राइवरों के जीवन का बारीकी से अवलोकन किया । अब मेरा ध्यान योग, ध्यान, हिंदू धर्म में विज्ञान की खोज से लेकर आम लोगों की पीड़ा तक पर पर केंद्रित होने लगा था ।

फरवरी 2013 में मैंने इस उम्मीद में शादी की कि मेरा जीवनसाथी भी मेरी यात्रा में सच्चाई की खोज करने और उन लोगों की मदद करने में मदद करेगा जिन्हे उसकी आवश्यकता है । लेकिन हमारे विचार पथ और गंतव्य अलग थे । और मुझे वर्ष 2014 में मानसिक रूप से टूटना पड़ा । 2014 में मेरे नवजात बेटे के रूप में मेरे जीवन में खुशी लौट आयी । वर्ष 2014 में मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी और यह एक प्रेम कहानी थी जिसका शीर्षक ‘Love Incomplete’ था । 2015 में मेरी दूसरी किताब हिंदी में ‘क्या है हिंदुस्तान में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी

यदि मैं 1999 की घटना से पहले अपने जीवन का विश्लेषण करता हूं जब डॉक्टरों ने मुझे मृत घोषित कर दिया था और उसके बाद जब मैं ठीक हो गया । मेरे लिए लोग, प्रकृति, पर्यावरण पूरी तरह से बदल गए थे । जो चीजें मुझे पहले आसानी से मिल जाती थी, अब हर कदम पर मुझे प्रताड़ित कर रही थीं । उस घटना से पहले, मैं इतना खुशकिस्मत था कि मुझे लगता था कि मैं एक राजा हूँ और उस घटना के बाद मैं जो चाहता था, वह मुझे केवल शारीरिक और मानसिक पीड़ा के बाद ही मिला वो भी बहुत कम मात्रा में । मुझे ऐसा लगता है कि यह ईश्वर ने मुझे सारे आराम के बदले में एक मौका दिया है ।

मैं विज्ञान पर सामान्य काम और शोध कर रहा था । एक बार जब मैं क्वांटम भौतिकी पर एक लेख पढ़ रहा था और इसकी अनिश्चितता ने जल्द ही मेरे मन में एक पुराने हिंदू दर्शन के बारे में एक विचार उत्पन्न किया जिसे ‘सांख्य’ कहा जाता है और तब मैं सब कुछ भूल गया और ‘सांख्य’ दर्शन और क्वांटम भौतिकी के बीच की कड़ी को समझने और खोजने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया । दिसंबर 2015 में इस विषय में मेरा शोध पत्र इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइंटिफिक एंड इंजीनियरिंग रिसर्च ’में थ्योरी ऑफ एनीथिंग – सांख्य दर्शन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । लेकिन मैं बेचैन था क्योंकि यह मुझे आम लोगों के लिए एक सार मात्र लगता था । इसलिए मैंने अपने शोध पत्र की सामग्री को समझाने के लिए एक पुस्तक लिखना शुरू किया । वर्ष 2016 में इस संबंध में मेरी पुस्तक ‘Detail Geography of Space’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । यह मेरी तीसरी पुस्तक थी, लेकिन मुझे मार्केटिंग की जानकारी नहीं थी । इसलिए मेरी किताब की पहुंच बहुत सीमित थी । मैंने अपनी पुस्तक और पत्र की एक प्रति प्रधानमंत्री और भारत के राष्ट्रपति को भी भेजी जिसमें मैंने बताया कि मैंने अपना शोध करने के लिए कितना दर्द उठाया है । लकिन किसी ने भी मेरी मेहनत को ध्यान नहीं दिया ।

फिर मैंने अपने तरीके बदल दिए और एक और पुस्तक ‘The Ruiner’ लिखी, जिसमें मैंने हिंदू पौराणिक कथाओं के रहस्यों और हिंदू शास्त्रों के अनुष्ठानों और दर्शन को बहुत वैज्ञानिक तरीके से और कहानी के रूप में हल करने की कोशिश की । 2018 में मेरी एक और किताब हिंदी में ‘सच्ची सच्चाई कुछ पन्नो में’ शीर्षक से प्रकाशित हुई ।

एक दिन मैं अपनी जिंदगी के पथ का विश्लेषण कर रहा था तो मुझे क्या मिला । मेरे बचपन से मेरी रुचि विज्ञान और अग्रिम गणित थी à मैं लगभग मृत हो गया था और भगवान की कृपा के बाद जीवन में वापस आ गया –à मैंने B.tech किया है -à और उसके बाद कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र से अध्ययन किया -à मैंने अपने लेखन को बेहतर बनाने के लिए एक रचनात्मक लेखक के रूप में काम किया और कुछ किताबें भी लिखीं -à सभी हिंदू शास्त्रों का अभ्यास और अध्ययन –àइस संबंध में हिंदू दर्शन को आधुनिक विज्ञान और –àमेरे प्रकाशित हिंदू दर्शन से विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए एवं एक पुस्तक लिखी ।

जनवरी 2019 में मेरा दूसरा शोध पत्र अंतरष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक ‘स्पन्दकारिका – थ्योरी ऑफ़ नथिंग’ था जिसमे मैंने हमारे सौरमंडल के सारे बलों और विकिरणो को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है

मई 2109 में मेरी छठी पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक ‘कुछ अनोखे स्वाद और बातें’ है जिसमे मैंने अपने द्वारा खोजी और बनायीं गयी खाने-पीने की चीजों और उन से जुड़ी रोचक बातो का जिक्र किया है।

मेरी आने वाली सातवीं पुस्तक “पूर्ण विनाशक” है जिसके विषय में कुछ बाते निम्न है :

वर्तमान युग के दो लड़के और दो लड़कियां हिंदू धर्मग्रंथों के पौराणिक इतिहास की खोज में हैं । उनके उद्देश्य और शौक अलग-अलग हैं । यहां तक कि उनके पेशे भी अलग हैं । वे दुनिया की सबसे आकर्षक कहानी का पता लगाने के लिए एक साथ आए हैं । हां, वे श्रीलंका में भगवान राम और लक्ष्मण के पदचिन्हों पर चलने के लिए एक साथ आए हैं । वहां वे अपने मार्गदर्शक से मिलते हैं, एक व्यक्ति जो उन्हें समझाता है और उन्हें रामायण के स्थानों की यात्रा भी कराता है, जैसे वे सभी उस युग का भाग हैं । उन्हें कुछ तथ्यों के उत्तर भी मिले, जिन्हें पहले कोई नहीं जानता था, जैसे कि: रावण क्लोन विज्ञान जानता था और अपने बेटों के 1 लाख क्लोन और अपने पोते के 1.25 लाख क्लोन बनाता हैं वे अब कहाँ हैं? रावण भोजन तैयार करने के लिए चंद्रमा की ऊर्जा का उपयोग करने का विज्ञान जानता था । कैसे? भगवान स्वयं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कैसे स्थान्तरित कर सकते थे? रावण ने इस लोक से स्वर्ग को कैसे जोड़ा था? इन्द्रजाल, मोहिनी अस्त्र, लक्ष्मण रेखा आदि के पीछे क्या विज्ञान है? देवी सीता ने स्वर्ण मृग की मांग क्यों की? भगवान हनुमान ने बाली को क्यों नहीं मारा? सीता की गीता क्या है? श्रीलंका का नाम ‘श्रीलंका’ कैसे पड़ा? दक्षिणमुखी और पंचमुखी हनुमान का क्या महत्व है? चंद्रमा पृथ्वी की परिक्रमा 15 दिनों के अंतराल के साथ क्यों कर रहा है? कालनेमि भगवान हनुमान से तेज कैसे उड़ सकता था? हथियार शक्ति, ब्रह्मास्त्र के पीछे क्या विज्ञान है? संजीवनी चिकित्सा के पीछे विज्ञान क्या है? पुष्पक विमन एक अलग अलग गति से कैसे उड़ सकता था? क्या महाभारत के युद्ध के पीछे का कारण भगवान कृष्ण है? क्या हम अपने DNA में हेरफेर करके अपनी उम्र को बढ़ने से रोक सकते हैं? कर्म कैसे काम करते हैं? क्या शाप और वरदान हमारे कर्म को प्रभावित करते हैं? प्राण, चेतना और आत्मा एक ही हैं या अलग-अलग हैं? अमावस्या के पीछे क्या विज्ञान है? चंद्रमा के चरण की चरणो की देवियाँ कौन कौन सी है? बलिदानों के पीछे का विज्ञान क्या है? क्या कोई अन्य सूत्र E = mc2  से अधिक शक्तिशाली है? यदि हाँ, तो वह क्या है? क्या हमारे समाज में अपराध और भ्रष्टाचार के लिए अंतरजातीय विवाह जिम्मेदार है? भावनाओं का हमारे मन और शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?

आदि कई अनसुलझे प्रश्नो का उत्तर खोजिये …… !

 

© आशीष कुमार 

 

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जीवन-यात्रा- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी  से अंतरजाल  पर एक संक्षिप्त वार्ता।

आपके जीवन का सर्वाधिक स्मरणीय क्षण : बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा तथा माँ कवयित्री शांतिदेवी वर्मा के पाँव दबाना.

आपके जीवन का कठिनतम : अभी आना शेष है.

आपकी ताकत :  पत्नी और परमात्मा

आपकी कमजोरी : काम क्रोध मद लोभ भय

आत्मकथ्य :   पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि . संपादन ८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन.

आपका कार्य-जीवनशैली का सामंजस्य : सभी कामना छोड़कर, करता चल तू कर्म / यही लोक-परलोक है, यही धर्म का मर्म

समाज को आपका सकारात्मक संदेश : खुश रहो, खुश रखो

 

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जीवन-यात्रा- डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

 

 

 

 

(श्रद्धेय डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होने मुझे प्रोत्साहित किया और मेरे विशेष अनुरोध पर अपनी जीवन-यात्रा के कठिन क्षणों को बड़े ही बेबाक तरीके से साझा किया, जिसे साझा करने के लिए जीवन के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के बाद अपने कठिनतम क्षणों को साझा करने का साहस हर कोई नहीं कर पाते। मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, जमीन से जुड़े डॉ गुणशेखर जी का हृदय से सम्मान करते हुए उनकी जीवन यात्रा उनकी ही कलम से।)

जन्म: 01-11-1962

अभिरुचि:  लेखन

मेरी पसन्द : अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है।

संप्रति: पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय

परिचय:

(मैंने ऊपर ‘मैं और मेरी पसंद’ में बता दिया है कि अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है। )

इसके बावज़ूद अगर लिखना ही हो तो मैं कहूँगा कि मेरी ज़िंदगी  में कई ऐसे मोड़   आए जहाँ से लौटने  के अलावा कोई चारा  ही नहीं  दिखता था लेकिन चमत्कार  हुए और रास्ते  मिलते  चले गए।

मेरे जीवन में धमाकेदार मोड़  १४ जून १९७८ को तब आया जब मेरी शादी हो गई। उस समय मैं बारहवीं का विद्यार्थी था। ज़िंदगी में दो-दो  बोर्ड  एक साथ।मेरे ससुर  के लिए ब्याही  बेटी  को घर में रखना नाक  का सवाल लगता था और मुझे बवाल। जब भी घर जाता और लौटने को होता तो पत्नी  मेरे पायजामे  के नाड़े  में लटक  जाती थी। नाड़ा याद नहीं  कि कभी टूटा  कि  नहीं।अगर नहीं टूटा होगा तो बस  इसी कारण से कि लोकलाज  वश मैं ठंडा हो जाता था।
मैंने पढ़ना तब शुरू किया था जब यह समझ पैदा हो गई कि अगर रामायण पढ़नी सीख गए तो लोग  इज़्ज़त से अपने घर बुलाएँगे।जीवन का एक मोड़ यह भी था। संयोग से हमारे चचेरे  ताऊ को रामायण पढ़ने वाले लड़के   नहीं मिल  रहे थे।वे  हमारे लिए वरदान  सिद्ध हुए और मौलवी  नुमा  अध्यापक को एक दिन धर लाए कि हमारे गाँव के बच्चों को पढ़ाओ। उनका उद्देश्य्य रामायण पढ़ लेने वाले लड़के  तैयार करना था ।सो, दो रुपए  महीने  की फीस भर कर एक ही साल   की घिसाई में मैं पाँचवीं  तक पढ़ गया। पहले दर्ज़े  में दस  ग्यारह के बीच  रहा हूँगा और पाँचवीं में भी वही उमर लिखाई गई। यानी  एक साल  में ही पाँच-पाँच  वैतरणियाँ (कक्षाएँ) पार कर गया। परिणामतः सन् सतहत्तर  तक दसवीं की बड़ी  वैतरणी भी तर गया। इसके बाद समस्याएँ भले बड़ी-बड़ी  आईं लेकिन कभी बड़ी   लगीं नहीं।
पत्नी के ज़ेवर जो  उधार के थे वे बरात से लौटते ही लौट गए थे। ट्यूशन पढ़ाके उसे पायल  बनवा के दी वह भी बारहवीं  की परीक्षा के लिए ३० रुपए में बेंच दीं। उन्नासी में बारहवीं की वैतरणी भी पार हो गई।
उसके  बाद का जीवन और संघर्षमय हो गया। ज्यों -ज्यों  संघर्ष बढ़ता गया मैं मज़बूत होता गया। बी.ए.और एम.ए. तक मेरे पास बीबी और दो बच्चों के भरण-पोषण के लिए शाम को चार बाग  स्टेशन पर उतरने वाले बैगन के सड़े-सुड़े  केले  लाकर  बाहर बेंचना  और उससे दो-चार  रुपए कमा  लेने के कारण कभी कभार सौ-पचास  की नकद पूँजी इसके अलावा  चल  संपत्ति में  शायद कटोरी या कटोरा और एक तवा  यानी  कुल  जमा दो-तीन  बर्तनों की ही पूँजी रही। उसी पूँजी के साथ सन् बयासी में लखनऊ महानगर  में शानसे अड़ा या पड़ा  हुआ था एम.ए. करने के लिए।
लखनऊ प्रवास के दौरान  ही मेरे जीवन में और ज़बर्दस्त मोड़ आया जहाज मुड़ना  भी था साथ में आँधी से सामना  भी करना  था। हुआ यह था कि मेरे लखनऊ आने के एक ही साल के भीतर ही बीबी-बच्चों का गाँव में रहना  दुष्कर हो गया था।
एक कोचिंग में जब मुझ अकेले को ज़िंदा  रहने भर को मिलने लगा तो उन्हें भी इलाज के बहाने ले आया। कहाँ एक का खर्च और कहाँ चार का! जीविका  दुष्कर हुई। कभी-कभी भूखों भी मरे  लेकिन एल.टी. और एम.एड कर ही डाले। नौकरी  तब मिली  जब पूरी तरह टूट चुके  थे सन् १९९१में। सन् ८९ में जे आर एफ निकाल  चुके थे लेकिन वे पैसे  काम न आ सके। उनकी प्रक्रिया पूरी होते-होते पूरे दो साल लग गए और नौकरी मिल गई तो उस वज़ीफ़े को सलाम कर लिया। मेरे जीवन का एक यह भी मोड़ है जहाँ से पुर शुकूँ मंज़िल भले न दिखी हो पर भूख ने हमसे नमस्ते अवश्य कर ली थी।

जीवन के अविस्मरणीय क्षण : 

मेरे ईरान और चीन के लंबे प्रवास मेरे लिए सुखद और सम्मान जनक रहे। इसके अलावा लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में सहायक प्रोफ़सर रहते हुए काफ़ी मान-सम्मान मिला। आज भी किसी प्रदेश में जाता हूँ तो दस-पाँच आईएएस,आईपीएस,आईआरएस और विदेश जाता हूँ तो आईएफएस मिल जाते हैं तो उस समय अपना गरुत्त्व जाग जाता  है लेकिन गुरूर तब भी नहीं।

जीवन के सबसे कठिन क्षण: 

एम.ए करते समय लखनऊ की एक ठेकी पर रहना, रेलवे स्टेशन पर कोलाहल के बीच पढ़ना पर ताप-ताप कर रातें बिताना।

आपकी शक्ति:

चराचचराचचर  के प्रति समान संवेदना, सकारात्मक सोच और  मनुष्य में आस्था।

आपकी कमजोरी

किसी भी संवेदनशील बात पर बिना आँसू गिराए नहीं रह पाना।

आपके शोध कार्य / प्रकाशन

बीस से अधिक पुस्तकें-गज़ल, कविता और दोहा संग्रह, आलोचना की एक पुस्तक, भाषा और व्याकरण पर पाँच पुस्तकें और कुछ संपादित  हैं (विवरण नेट पर उपलब्ध हैं)। आईएएस अकादमी, मसूरी  में दो आधार पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। क्वांग्तोंग  वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय के स्नातक  पाठ्यक्रम में भी रचनाएँ शामिल की गई हैं।

आपकी कार्य-जीवन संतुलन: 

कभी नसीब नहीं हुई। फूलों की सेज की कल्पना भी कभी नहीं की। इसलिए आज भी स्लीपवेल के गुलगुल और थुलथुल गद्दे को छोड़कर फर्श पर बिछी दुबली-पतली खुरदरी दरी पर पूरे अभिमान के साथ सोता  हूँ।

आपका समाज को सकारात्मक सन्देश: 

आज ही के दिन २०१५ को प्रिय भाई जय प्रकाश मानस की टाइम लाइन पर दी  गई मेरी  अभिव्यक्ति –

मैं और मेरी पसंद – 15
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

”अपने संदर्भ में क्या और कौन के उत्तर खुद देने में हमें सदैव संकोच रहा है। अपने बारे में तो सभी बोलते हैं। अच्छा हो कि कुछ दूसरों के बारे में भी बोला जाए। श्रम-स्वेद सने श्रमिक और अन्न दाता किसान हमें बहुत प्यारे लगते हैं। इनके कोमल हाथों से आँगन और द्वार-द्वार रोपे गए हरे-भरे पौधे, बगिया, हरी-भरी लहलहाती फसलें और इन्हीं के सुदृढ़ हाथों खोदी गई रेगिस्तान को भी हरा-भरा कर देने वाली नहरें अच्छी लगती हैं। इसलिए इनको और इनके बारे में लिखने-पढ़ने वाले हमें बहुत अच्छे लगते हैं।

देश और विदेश के विभेद से रहित शांत और उन्मद नदी-नद, पर्वत और उत्ताल तरंगों वाले सागरों को अपने अंक में सहेजे  समूची प्रकृति हमें मोहित करती  है। इसी प्रकृति के पुजारी महा पंडित राहुल सांकृत्यायन और उनकी यायावरी भी हमें  बहुत पसंद हैं। किशोरावस्था में पढ़ा गया उनका यह प्रिय शेर –

सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ ।

अवस्था ढलने के बावजूद भुलाए नहीं भूलता। यही शेर अब भी शिथिल होते पैरों में रवानी भर देता है। उनकी तरह हमको भी घूमना बहुत पसंद है। कभी-कभी मन करता है कि सारा घर-द्वार बेंच-बाँच कर पूरी दुनिया घूम डालें। लेकिन माँ, पत्नी और बच्चों तथा परिवार वालों के  नेह से गीले नयन सदा बांधते रहे हैं। बच्चों का मतलब बेटे-बेटी से अधिक नातिनें और पोती से है।

शहरों में लखनऊ शहर और प्रदेशों में केरल हमें बहुत प्यारा लगता है। वर्षों पहली देखी केरल की नैसर्गिक आभा अब भी आँखों में बसी हुई है। वहाँ के समुद्री तट हमें सदैव आकर्षित  करते रहे हैं। जब भी उन तटों पर गया हूँ ऐसा लगा है कि जैसे प्रगल्भा नायिका की तरह उनकी नीलांचल, उत्ताल तरंगें बाहें फैलाकर अपनी ओर बुला रही हैं।

साहित्य का पठन-पाठन मुझे बहुत पसंद है। किसी खास कवि/कवयित्री या लेखक/लेखिका से बंधकर केवल उसी का हो जाना हमें कभी पसंद नहीं रहा। हमने जीव और जीवन दोनों को छुट्टा रखने में सदैव सुख का अनुभव किया है। इसलिए न कभी किसी खास खूँटे में बंधे और न आगे बंधने  का विचार है। सच कहें,हमें तो  वे कवि या लेखक ही अधिक पसंद आते रहे जिन्होंने जीवन को सच्चे अर्थों में जिया है और  उसे सही संदर्भों में परिभाषित भी किया है। वे लोग फिर चाहे साहित्यकार हों या आमजन हमें बिल्कुल पसंद नहीं जो जीवन में नहीं बल्कि जीवन के अभिनय में विश्वास करते हैं। भाव को अंतस का नहीं जिह्वा का ऋंगार बनाकर प्रस्तुत करते हैं।

अपनी समझ की सभी भाषाओं की समस्त  विधाएँ हमें अच्छी लगती हैं।अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का फ़िल्मों को छोडकर सामान्यतः फ़िल्में मुझे अच्छी नहीं लगतीं लेकिन नाटक अच्छे लगते हैं।  मैं तो पंजाबी, मराठी और उर्दू के नाटक भी बड़े चाव से देखता-सुनता हूँ। अच्छा तो और भी बहुत कुछ लगता है लेकिन सबका उल्लेख  इतने छोटे कैनवास पर संभव नहीं। विशेष रूप से वे लोग हमें बहुत पसंद हैं जो केवल अपने लिए नहीं, केवल और केवल अपनों  के लिए भी नहीं अपितु अपने-पराए और छोटे-बड़े के भेद से परे समस्त सृष्टि के लिए उदार भाव से जीते हैं -“अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां, उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुंबकम् ।”

मोबाइल: 8000691717/00862036204385

ईमेल: [email protected]

 

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जीवन-यात्रा-सुश्री मालती मिश्रा

मालती मिश्रा

 

 

 

 

 

(जीवन में प्रत्येक मनुष्य को अपनी जीवन यात्रा नियत समय पर नियत पथ पर चल कर पूर्ण करनी होती है।  किसी का जीवन पथ सीधा सादा सरल होता है तो किसी का कठिन संघर्षमय ।

मैं “नारी शक्ति”का सम्मान करते हुए शेयर करना चाहूँगा, एक युवती की जीवन यात्रा, जिसने एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर बचपन से संघर्ष  करते हुए एक अध्यापिका, ब्लॉगर/लेखिका तक का सफर पूर्ण किया। शेष सफर जारी है।  जब हम पलट कर अपनी जीवन यात्रा का स्मरण करते हैं, तो कई क्षणों को भुला पाना अत्यन्त कठिन लगता है और उससे कठिन उस यात्रा को शेयर करना। प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा जी की जीवन यात्रा उनकी ही कलम से।)     

साहित्यिक नाम– ‘मयंती’

जन्म :  30-10-1977

संप्रति : शिक्षण एवं  स्वतंत्र लेखन

जीवन यात्रा : 

मेरा नाम मालती मिश्रा है।  मेरे पिताजी एक कृषक हैं और ग्राम देवरी बस्ती जिला, जो कि अब सन्त कबीर नगर में आता है के निवासी हैं। एफ०सी०आई० विभाग में कार्यरत होने के कारण पहले कानपुर उ०प्र० में सपरिवार रहते थे। इसलिए मेरी प्रारंभिक शिक्षा कानपुर से ही हुई। जब मैं कानपुर कन्या महाविद्यालय से ग्यारहवीं की पढ़ाई कर रही थी तभी मेरी माँ की तबियत अधिक खराब होने के कारण मुझे उनकी देखभाल के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी और ऑपरेशन के उपरांत उनके साथ ही गाँव चली गई। एक वर्ष के बाद मैंने पुनः श्री जगद्गुरु शंकराचार्य विद्यालय मेहदावल से इंटरमीडिएट की पढ़ाई की। चित्रकला में मुझे बचपन से शौक होने के कारण तथा उसमें मेरा हाथ साफ था अतः ये जानने के बाद कि मैं आगे की पढ़ाई कानपुर से करूँगी मेरे आर्ट के अध्यापक महोदय ने ही मुझे कानपुर के डी०ए०वी० कॉलेज में एडमिशन लेने की सलाह दी। मैंने फिर डी०ए०वी० से चित्रकला विषय के साथ स्नातक की पढ़ाई आरंभ की परंतु कुछ व्यक्तिगत कारणों से बी०ए० की तृतीय वर्ष की परीक्षा पूरी न दे सकी और निराशा के अधीन हो आगे न पढ़ने का फैसला कर लिया।

तदुपरांत विवाह के पश्चात मैं दिल्ली की स्थानीय नागरिक बन गई। समय का सदुपयोग और स्वयं को आजमाने के लिए किसी सहेली के साथ विद्यालय में शिक्षिका के पद के लिए साक्षात्कार दे आई और नियुक्ति भी हो गई। मुझे बखूबी याद है कि मुझे दूसरी कक्षा दी गई थी पढ़ाने के लिए और मैं बहुत नर्वस थी।  परंतु कक्षा में जाकर जब मैंने अंग्रेजी की पुस्तक देखी तो सारा डर काफ़ूर हो गया। अब अध्यापन के साथ-साथ मैंने पुनः दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक तथा इग्नू से हिन्दी में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। चित्रकला में स्नातकोत्तर या करियर तो अतीत में देखा हुआ महज़ स्वप्न बन चुका था। मैं स्नातकोत्तर होने से पहले ही हिन्दी की अध्यापिका बन चुकी थी और दसवीं कक्षा तक हिन्दी पढ़ाती थी। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते ही मैं क्रिया-कलाप करवाते हुए अपनी चित्रकारी के शौक को पूरा कर लिया करती।  क्रियाकलाप के लिए बच्चों के लिए एकांकी लिखती थी, साथ ही स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों का प्रतिवेदन अखबारों के लिए लिखती। इससे मेरे भीतर लेखन के प्रति रुचि उत्पन्न होने लगी।  इसी प्रक्रिया के अंतर्गत मैंने छात्रों से मैगज़ीन बनवाया और उसमें मैंने अपनी पहली कविता लिखी किन्तु दुर्भाग्यवश मैं वो मैगजीन पब्लिश  करवाती उससे पहले ही स्कूल छोड़ दिया। मैंने अध्यापन किसी अन्य स्कूल से बदस्तूर जारी रखा।

मैं अपने विचारों को पब्लिकली रखना चाहती। इसमें मेरी मदद मेरे पति ने की, उन्होंने मुझे ‘अन्तर्ध्वनि’ द वॉयस ऑफ सोल’ नामक वेब साइट तथा meelumishra.Blogspot.in  ब्लॉग बनाकर दिया ताकि मैं अपने विचार उस पर साझा कर सकूँ। अब मेरे विचारों को ज़मीन मिल गई थी। धीरे-धीरे मैंने काव्य रचना शुरू की। मेरे काव्य संग्रह में जब कविताओं की संख्या इतनी हो गई कि मैं उन्हें पुस्तक का रूप दे सकूँ, तब मैंने ‘उन्वान प्रकाशन’ से अपनी पुस्तक पब्लिश करवाई। अब मेरी दूसरी पुस्तक भी प्रकाशन हेतु तैयार है।

आपके जीवन के यादगार क्षण:

एक माँ के तौर पर 1995 में जब मैंने पहली बार अपनी बेटी को गोद में लिया और एक लेखिका के तौर पर जब मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित होकर मेरे हाथ में आई।

आपके जीवन का सबसे कठिन क्षण : 

मेरे इकलौते मामा जी के देहांत के उपरांत तय हुआ कि मैं और मेरे दोनों छोटे भाई बाबूजी के साथ कानपुर में रहेंगे।  माँ गाँव में रहते हुए नाना-नानी की व अपने तथा उनके खेत-खलिहान की देखभाल करेंगीं। उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी मानों किसी बच्चे को मनचाहा खिलौना हाथ में देकर उससे जबरन छीन लिया गया हो, मैं बहुत रो रही थी कोई चुप नहीं करवा पा रहा था।  तभी बाबूजी ने डाँटा।  अब मैं न रो पा रही थी और न चुप हो पा रही थी।  उस समय और फैसले ने मुझसे मेरा बचपन छीन लिया।

आपकी शक्ति :  मेरा आत्मविश्वास और मेरे बच्चे ये दोनों ही मेरी शक्ति हैं।

आपकी कमजोरी : गलत चीजें बर्दाश्त न कर पाने के कारण मेरा शीघ्र ही क्रोधित होजाना।

आपका साहित्य :

प्रकाशित पुस्तक- ‘अंतर्ध्वनि’ (काव्य-संग्रह), ‘इंतजार’ अतीत के पन्नों से (कहानी संग्रह), तीन साझा संग्रह तथा पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन जारी।

आपका कार्य-जीवन संतुलन

विवाहोपरांत, परिवार व बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों को निभाते हुए अध्यापन के साथ-साथ मैंने अध्ययन भी किया।  आसान न होने के बावजूद इसे पूर्ण किया। आजकल प्राइवेट स्कूल में अध्यापन का मतलब 24×7 स्कूल के कार्यों में व्यस्त, ऐसे में घर और स्कूल में तालमेल बिठाना भी अपने-आप में चुनौतीपूर्ण होता है।  परंतु, मैं इसके साथ-साथ लेखन भी करती हूँ इसके पीछे मेरी बेटियों का सहयोग है। बिना उनके मेरे लिए ये सब बहुत मुशकिल होता।

आपका समाज के लिए सकारात्मक संदेश

मनुष्य हर पल, हर घड़ी, हर स्थान पर हर परिस्थिति में कुछ न कुछ सीखता ही है।  बेशक उसे उस वक्त इसका ज्ञान न हो परंतु आवश्यकता पड़ने पर उसे अनायास ही परिस्थिति, घटना, समस्या और समाधान सब याद हो आते हैं और तब महसूस होता है कि हमने अमुक समय अमुक सबक सीखा था। अत: जब हम जाने-अनजाने प्रतिक्षण सीखते ही हैं तो क्यों न हम प्रकृति से भी सीखें। प्रकृति एक ऐसी शिक्षक है,  जिसकी शिक्षा ग्रहण करके यदि मानव उसका अनुकरण करने लगे तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ महज एक मान्यता नहीं रह जाएगी बल्कि यह सहज ही साक्षात् दृष्टिगोचर होगी।

आकाश पिता की भाँति सभी प्राणियों पर बिना भेदभाव के समान रूप से अपनी छाया करता है, धरती सबकी माँ है, इसे देश, नगर, गाँव में मनुष्यों ने बाँटा है।  नदी जल देने में, वृक्ष फल व प्राणवायु देने में जब कोई भेदभाव नहीं करते, सभी प्राणिमात्र पर सदैव समान कृपा करते हैं तो हमें भी उनसे सीख ग्रहण कर अपने बीच के भेदभाव मिटाकर आपसी भाईचारे को बढ़ावा देना चाहिए, तभी यह “वसुधैव कुटुम्बकम्” की धारणा साकार हो सकती है।

मैं मानती हूँ कि आज के समय में यह इतना सहज नहीं है। परन्तु, जिससे जितना हो सके उतना तो अवश्य करना चाहिए मसलन अपने आस-पास यदि हम किसी की कोई मदद कर सकें तो यथासंभव करना चाहिए।  इससे उस इंसान का इंसानियत पर विश्वास बढ़ जाता है तथा वह या अन्य जिसने भी उस क्षण का अवलोकन किया होगा, सक्षम होने की स्थिति में दूसरों की मदद करने में कतराएँगे नहीं। इंसानियत से ही इंसानियत का जन्म होता है और मनुष्य को स्वार्थांध होकर अपना यह सर्वोच्च गुण नहीं त्यागना चाहिए।

व्यक्ति से समाज और समाज से गाँव, नगर और देश बनते हैं। किसी भी देश के सम्पन्न होने के लिए उसके नागरिकों की सम्पन्नता आवश्यक है और इसके लिए प्रत्येक नागरिक का शिक्षित होना आवश्यक है अतः यथासंभव हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि कोई बच्चा अनपढ़ न रहे क्योंकि शिक्षा ही वह माध्यम है जो व्यक्ति से उसकी स्वयं की पहचान कराती है तथा उसे उसकी मंजिल तक ले जाती है।

Email : [email protected]

© सुश्री मालती मिश्रा

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जीवन यात्रा -डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

 

 

 

 

आज मैं आपको एक अत्यन्त साधारण एवं मिलनसार व्यक्तित्व के धनी  मेरे अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सुरेश कुशवाहा जी से उनके ही शब्दों के माध्यम से मिलवाना चाहता हूँ।

उनका परिचय या आत्मकथ्य उनके ही शब्दों मेँ –    

अन्तस में जीवन के अनसुलझे,

सवाल कुछ पड़े हुये हैं

बाहर निकल न पाये,

सहज भाव के ताले जड़े हुये हैं।

 

फिर भी इधर-उधर से

कुछ अक्षर बाहर आ जाते हैं,

कविताओं में परिवर्तित,

हम जंग स्वयं से लड़े हुये हैं।

 

अनुभव चिन्तन मनन,

रोजमर्रा की आपाधापी में

अक्षर बन जाते विचार,

मन की इस खाली कॉपी में,

 

कई विसंगत बातें,

आसपास धुंधुवाती रहती है,

तेल दीये का बन जलते,

संग जलने वाली बाती में।

 

अ आ ई से क ख ग तक,

बस इतना है ज्ञान मुझे

कवि होने का मन में आया

नहीं कभी अभिमान मुझे

 

मैं जग में हूं जग मुझमें है,

मुझमें कई समस्याएं हैं,

इन्हीं समस्याओं पर लिखना,

इतना सा है भान मुझे।

 

अगर आपको लगे,

अरे! ये तो मेरे मन की बातें हैं

या फिर पढ़कर अच्छे बुरे

विचार ह्रदय में जो आते हैं,

 

हो निष्पक्ष सलाह आपकी,

भेजें मेरे पथ दर्शक बन

आगे भी लिख सकूं,

कीमती ये ही मुझको सौगातें हैं।

 

आपकी प्रिय विधा है – साहित्य।

डॉ सुरेश जी के शब्दों मेँ –

जैसा दिखा वैसा लिखा, कहीं मीठा कहीं तीखा।

उपर्युक्त पंक्ति के अनुसार ही मेरा प्रयास रहा है कि कविता एवं लघुकथा विधाओं में अपने विचार तथा मनोभावों को प्रगट कर सकूं। साहित्य के प्रति बचपन से ही अभिरूचि रही, घर में पठन-पाठन का अनुकूल वातावरण था। बचपन में ही पिताजी के माध्यम से गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित अनेक किताबों व ग्रंथों को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस प्रकार साहित्य के प्रति लगाव बढ़ता गया। वर्ष 1969 से छिटपुट लेखन तुकबंदियों के रूप में प्रारंभ हुआ, प्रोत्साहन के फलस्वरूप लेखन के प्रति गंभीरता बढ़ती गई और मुख्य झुकाव छांदस कविता के प्रति हुआ। वर्ष 1971 से भोपाल में नौकरी के दौरान कवि-गोष्ठियों के माध्यम से आकाशवाणी भोपाल से कविताओं का प्रसारण एवं स्थानीय अखबारों में प्रकाशन” का सिलसिला प्रारंभ हुआ, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है।

मुख्य रूप से साहित्य में काव्य विधा में प्रमुख रूप से गीत व लघुकथा के माध्यम से वैचारिक अभिव्यक्ति सृजित होती रही। मुझे लगता है कि जहां कविता के माध्यम से रूपक व अलंकारों के द्वारा रचनाकार अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति देता है वहीं लघुकथा के द्वारा कम शब्दों में बड़ी बात सरलता से कह दी जाती है। यूं तो साहित्य की सभी विधाओं का व्यापक क्षेत्र है तथा सभी का अपना महत्व है, फिर भी मेरी प्रिय विधाओं में गीत काव्य एवं लघुकथा सम्मिलित है।

विशेषआपकी एक लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा  9  की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।

यह परिचय डॉ सुरेश ‘तन्मय’ जी की मात्र साहित्यिक आत्माभिव्यक्ति है। विस्तृत परिचय हमारे Authors लिंक पर उपलब्ध है। 

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