हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ साहित्य अकादमी उपाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा से बातचीत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार ☆ साहित्य अकादमी उपाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा से बातचीत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सभी भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने का रहेगा प्रयास : प्रो. कुमुद शर्मा

साहित्य अकादमी की नवनिर्वाचित उपाध्यक्ष प्रो कुमुद शर्मा का जन्म मेरठ में हुआ लेकिन पालन पोषण व एम ए, पीएचडी तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई । एम.ए में सर्वोच्च अंकों का रिकॉर्ड बनाकर तीन स्वर्ण पदक प्राप्त किए। मीडिया में डी लिट रांची विश्वविद्यालय से की । आईएएस बनने का संकल्प था पर विवाह के बाद अध्यापन का विकल्प चुना। विवाह से पूर्व एम ए करते ही इलाहाबाद के एक महाविद्यालय में तीन महीने पढ़ाया । यू जी सी फैलोशिप प्राप्त होने पर डॉ जगदीश गुप्त के निर्देशन में ‘ नयी कविता में राष्ट्रीय चेतना के स्वरूप विकास ‘ विषय पर पर पीएचडी की उपाधि । विवाह के उपरांत दिल्ली आते ही जीसेस एंड मेरी कॉलेज में अध्यापन शुरु किया । फिर दिल्ली के एस पी एम कॉलेज, आई पी कॉलेज, शिवाजी कॉलेज में पढ़ाने के बाद के बाद सन् 2004 से दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हैं। इस समय हिंदी विभाग की अध्यक्ष एवं इसी विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम कार्यालय निदेशालय के कार्यवाहक निदेशक का दायित्व भी सँभाल रही हैं ।

लेखन कब शुरू किया ?

उन्नीस साल की उम्र में । इलाहाबाद के समाचार पत्र ‘अमृत प्रभात’ में पहला लेख अनुशासनहीनता की जड़ें कहां है’ प्रकाशित हुआ । फिर आकाशवाणी की ओर भी मुड़ी । ड्रामा ऑडिशन क्लीयर किया और रेडियो नाटक किये ।

अमृत प्रभात से आगे कहां कहां ?

जनसत्ता , सारिका , नवभारत टाइम्स , दैनिक जागरण ,कादम्बिनी, वामा , गगनाचंल, इन्द्रप्रस्थ भारती, बहुवचन जैसी अनेक पत्र -पत्रिकाओं में लेखन। साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ की संयुक्त संपादक रही । इस पत्रिका के संपादक थे पं विद्यानिवास मिश्र । इसी पत्रिका में स्तम्भ लिखा- हिंदी के निर्माता ! जिसे बाद में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया जिसके चार संस्करण आ चुके हैं । दिल्ली में 1987 से दूरदर्शन से जुड़ी । पत्रिका, कला परिक्रमा , मेरी बात जैसे कार्यक्रमों की प्रस्तुति ही । फिर प्रसार भारती बोर्ड के अन्तर्गत लिटरेरी कोर कमेटी की सदस्य के रुप में साहित्यिक कृतियों पर बनी फ़िल्मों के निर्माण से जुड़ी ।

आप प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की बहू हैं । क्या स्मृतियां हैं आपकी ?

बहुत कुछ सीखने लायक़ था उनके व्यक्तित्व में। बाबू जी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति थे। किसी के लिए भी कोई दुर्भावना नहीं । किसी से ईर्ष्या द्वेष नहीं । सुख दुख में सम भाव से जीने वाले । लेखन उनकी प्राथमिकता थी । भौतिक संसाधनों को लेकर कोई महत्वाकांक्षा नहीं । मैंने जीवन में उन्हें कभी भी क्रोध करते हुए नहीं देखा ।

परिवार के बारे में बताइए ।

दो बेटे हैं- बड़ा बेटा अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी में डायरेक्टर है। बहू बैंक ऑफ अमेरिका में है। दूसरा बेटा फिल्म जगत में । पति अरूण वर्धन ‘टाइम्स ऑफ इन्डिया’ के ‘नवभारत टाइम्स’ अख़बार में विशेष संवाददाता थे। कोरोना की दूसरी लहर में सन् 2021 में हमने उन्हें खो दिया ।

साहित्य अकादमी से नाता ?

पहले कार्यक्रमों में व्याख्यान देने के लिये जाती थी । साहित्य अकादमी द्वारा पंडित विद्यानिवास मिश्र पर बनी फिल्म लिखी । साहित्य अकादमी की भारतीय साहित्य के निर्माता श्रंखला के अन्तर्गत अम्बिका प्रसाद वाजपेयी पर पुस्तक लिखी । यहॉं से निकलनेवाली पत्रिका में भी लिखा ।

पहले भी कोई चुनाव लड़ा आपने साहित्य अकादमी का ?

पहली बार ही चुनाव लड़ा और उपाध्यक्ष चुनी गयी ।

कितनी किताबें हैं आपकी ?

तेरह किताबें हैं । आलोचना , स्त्री विमर्श और मीडिया पर केंद्रित ।

उल्लेखनीय सम्मान /पुरस्कार ?

केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय से दो बार भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार । पहला ‘स्त्री घोष’ कृति पर । दूसरा समाचार बाज़ार की नैतिकता पुस्तक पर । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ‘साहित्य भूषण’ सम्मान। दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन से साहित्य श्री सम्मान बाबू बालमुकुंद गुप्त सम्मान। इनके अतिरिक्त अनेक सम्मान/पुरस्कार ।

उपाध्यक्ष बन कर क्या करने का सपना ?

अपने देश के साथ विविध भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के भावों का रिश्ता एक जैसा ही रहा । आज भी सामजिक , मानवीय और राष्ट्रीय सरोकारों को अपनी रचनाधर्मिता का अभिन्न हिस्सा मानने वाले विविध भारतीय भाषाओं के रचनाकारों की चिँताए एक जैसी है, उनके सरोकार एक जैसे हैं । उनकी निष्ठाएँ एक जैसी हैं। भाषा के ज़रिए मनुष्यत्व को बचा लेने की ज़िद भी एक जैसी है । भाषा और साहित्य दोनों का प्रयोजन सबको एक स्वस्थ साझेदारी के लिए तैयार करना होना चाहिए । साहित्य अकादमी का प्रयास रहेगा सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की सोच में सांस्कृतिक साझेदारी की उत्कंठा बनी रहे। सभी भारतीय भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश।

क्या सपने है साहित्य अकादमी को लेकर ?

साहित्य अकादमी अपने कार्यक्रमों को लेकर देश भर के छोटे-छोटे शहरों और गॉंवों तक जायेगी।

हमारी शुभकामनाएं प्रो. कुमुद शर्मा को ! 💐

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ फिल्मों में सफलता के बावजूद थियेटर की जिद्द बरकार : हिमानी शिवपुरी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार ☆ फिल्मों में सफलता के बावजूद थियेटर की जिद्द बरकार : हिमानी शिवपुरी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

हम आपके हैं कौन, दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे, कुछ कुछ होता है, परदेस जैसी अनेक सफल फिल्मों  की अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी की थियेटर की जिद्द अभी तक बरकरार है । वे सिर्फ थियेटर ही करना चाहती थीं और इसके लिए अमेरिका में पढ़ाई के लिये स्कॉलरशिप मिलने के बावजूद एनएसडी में दाखिला लेकर दुनिया की नजर में अपने सुनहरे करियर को उस समय बर्बाद कर लिया ! अब भी हिमानी 22 फरवरी को दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में ‘जीना इसी का नाम है ‘नाटक मंचन करने आ रही हैं, जो सिर्फ दो पात्रों वाला नाटक है और दूसरे पात्र हैं प्रसिद्ध एक्टर राजेंद्र गुप्ता !

हिमानी शिवपुरी मूलतः देहरादून की रहने वाली हैं और प्रसिद्ध लेखक डाॅ हरिदत्त भट्ट शैलेश की बेटी हैं । दून स्कूल,देहरादून की छात्रा रहते ही डांस व थियेटर से जुड़ीं और फिर आजीवन यह जुड़ाव चला आ रहा है । डी ए वी काॅलेज , देहरादून से एम एस सी की और स्कॉलरशिप के आधार पर अमेरिका जाने की बजाय एनएसडी में थियेटर पढ़ने चली गयीं !

-यह खूबसूरत मोड़ कैसे आया ?

-जब स्कूल में डांस, डिबेट आदि में  परफाॅर्म करती थी तब हमारे हैडमास्टर साहब की पत्नी ने कहा था कि तुम्हें तो फिल्मों में जाना चाहिए ! हालांकि उन दिनों इस बात पर गौर नहीं किया । बात आई गयी हो गयी । जबकि साइंस की ब्रिलियंट छात्रा थी, अच्छे मार्क्स लेती लेकिन थियेटर से लगाव बराबर जारी रहा ! जैसे जैसे काॅलेज में थियेटर करने लगी तब बहुत मज़ा आने लगा और सोच लिया कि इसी क्षेत्र में जाना है मुझे !

-जब अमेरिका की बजाय एनएसडी जाने का फैसला किया तब परिवार में क्या प्रतिक्रिया रही ?

-परिवार में  जैसे हाय तौबा मच गयी ! बस एक पापा को छोड़कर सबने इसका विरोध किया कि स्कॉलरशिप छोड़कर , बढ़िया करियर छोड़कर यह क्या नौटंकी करने जा रही है ! यह क्या ड्रामा ड्रामा लगा रखा है ! मैंने पापा से कहा कि मेरे मन में यह मलाल न रहे कि थियेटर नहीं किया और पापा चल दिये मुझे एनएसडी में दाखिल करवाने ! आखिरी कोशिश जरूर की जब बी बी कारंत से कहा कि इसे समझाइए कि पहले अमेरिका जाये और फिर थियेटर करे ! इस पर कारंत जी ने कहा कि जब वह थियेटर करना चाहती हो तो करने दीजिए न ! फिर पापा दाखिल करवा कर चले गये !

-दिल्ली में कब तक रहीं ?

-लगभग दस साल ! कोर्स करने के बाद खुद्दारी के चलते छह सौ रुपये की एप्रेंटिसशिप की ! फिर रेपेट्री में आई, ए ग्रेड आर्टिस्ट बनी और यहीं ज्ञानदेव शिवपुरी से मुलाकात हुई, निकटता बढ़ी और हम एक साथ मुम्बई तक पहुंचे !

-पहला अवसर या पहली बार नोटिस कब लिया गया आपका ?

-पहला अवसर ‘हमराही’ में मिला दूरदर्शन पर ! देवकी भौजाई को सफल कैरेक्टर के रूप में चहुंओर प्रसिद्धि मिली ।

-फिर ?

-आप हैरान होंगे कि लेखक तो ज्यादातर मनोहर श्याम जोशी होते थे तो उन्होंने मुझे ‘हम लोग’ सीरियल में छुटकी के रोल का ऑफर दिया लेकिन मैंने कहा कि थियेटर नहीं छोड़ूंगी और यह रोल नहीं किया । फिर हमराही का ऑफर आया तब ज्ञानदेव जी ने कहा कि देख लो ! और फिर देवकी भौजाई की धूम मच गयी !

-मुम्बई कब गये ?

-सन् 1990 के आसपास ।

-देवकी भौजाई के बाद क्या ?

-यही हम भी सोच रहे थे कि अब क्या होगा ? हमराही तो खत्म हो गया । इस बीच बेटा भी हो गया । तभी सूरज बड़जात्या ने मुझे ‘हम आपके हैं कौन’  का रोल ऑफर किया ! हालांकि बीच में जीटीवी में ‘हसरतें’ सीरियल भी किया । बस हम आपके हैं कौन सुपरहिट रही और मैं भी चल निकली !

-आगे का सफर ?

-फिर तो दिल वाले दुल्हनिया , कुछ कुछ होता है जैसी फिल्मों में आई और ये फिल्में हिट रहीं और मुझे लक्की माना जाने लगा ! परदेस, उमराव जान , आ अब लौट चलें आदि अनेक फिल्मों में अवसर मिलता गया !

-जीना इसी का नाम है नाटक में क्या रोल है ?

-यह विदेशी नाटक का रुपांतरण है । दो वृद्धों के अकेलेपन पर आधारित जो संयोगवश इकट्ठे होते हैं और राजेंद्र गुप्ता इसमें डाॅक्टर के रोल में हैं जहां हैल्थ रिवाइनिंग सेंटर में मैं जाती हूं पेशेंट जैसी ! परिस्थितियोंवश हम निकट आते हैं और एक दूसरे के अकेलेपन को महसूस करते हैं ! यह आज के समाज की बहुत बडी समस्या भी है और सच्चाई भी ! अभी पटना में मन्नू भंडारी की कहानियों पर भी मंचन करके आई हूं !

-देहरादून को कितना याद करती हैं ?

-बहुत बहुत मिस करती हूं देहरादून को । जब दिल्ली रही तब तक रोडवेज की बस में हर वीकेंड पर देहरादून पहुंच जाती थी । फिर पापा की पहली बरसी पर उनकी कहानी ‘सुनहरी सपने’ पर नाटक मंचन करने गयी थी । अब भी साल में दो तीन बार तो देहरादून जाना हो ही जाता है ! अब भी दिल्ली में नाटक के बाद देहरादून जाऊंगी !

-कौन सी एक्ट्रेस पसंद ?

-ऐसे कोई आइडिया नहीं लेकिन डांसर थी तो वहीदा रहमान बहुत अच्छी लगती थीं । बलराज साहनी और फिर डांस के चलते ही माधुरी दीक्षित भी । यहां तक कि कंगना रानौत भी !

-वह भी आपकी तरह पहाड़ से है , हिमाचल से !

-जी ।

-पसंदीदा नाटक ?

-कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ पर आधारित नाटक जिसकी नायिका उस जमाने से आगे काफी बोल्ड थी लेकिन वह अद्भुत नाटक था । खुद कृष्णा सोबती देखने आईं और गले लगा कर कहा कि तुमने तो मेरी मित्रो को जीवंत कर दिखाया !

-परिवार के बारे में कुछ ?

-ज्ञानदेव शिवपुरी जी का निधन तब हुआ जब ‘दिल वाले दुल्हनिया’ का क्लाईमेक्स शूट होने जा रहा था और आप देखेंगे उसमें मैं नहीं हूं ! एक बेटा है कात्यायन जो फिल्म निर्देशन से जुड़ा है और शाॅर्ट फिल्में भी बनाता है !

-किन निर्देशकों के साथ कैसा लगा ?

-सूरज बड़जात्या बहुत प्यारे डायरेक्टर और कम बोलने वाले जबकि करण जौहर खूब बोलते हैं । डेविड धवन डायरेक्टर के तौर पर पूरी छूट देते हैं । उनके और गोविंदा के साथ बीबी नम्बर वन और हीरो नम्बर वन करके मजा आ गया ।

-कोई पुरस्कार ?

-अनेक । संगीत नाटक अकादमी अवाॅर्ड, श्रीकांत वर्मा स्मृति अवाॅर्ड, महाराष्ट्र सरकार सम्मान , उत्तराखंड गौरव और टीवी में आईटीए अवाॅर्ड, कलर्स अवाॅर्ड और ऑल इंडिया जर्नलिस्ट अवाॅर्ड सहित अनेक सम्मान !

-लक्ष्य ?

-थियेटर की जिद्द व सार्थक फिल्में ।

हमारी अनंत शुभकामनाएं हिमानी शिवपुरी को !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता” – श्री शेखर जोशी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता” – श्री शेखर जोशी ☆ श्री कमलेश भारतीय  

साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता

खुली आंखों देखें दुनिया , अच्छा साहित्य पढ़ें नये रचनाकार

-कमलेश भारतीय

हरियाणा ग्रंथ अकादमी की ओर से शुरू की गयी पत्रिका के प्रवेशांक नवम्बर , 2012 के अंक में हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित कथाकार शेखर जोशी से कथा विधा पर चर्चा की गयी थी । कल पंचकूला के सेक्टर 14 स्थित हरियाणा अकादमी भवन जाना हुआ तो प्रवेशांक ले आया ।

-हिंदी कहानी में वाद और आंदोलन कैसे शुरू हुए ?

-हिंदी कहानी में वाद और आंदोलन की शुरूआत का रोचक तथ्य यह है कि पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था ‘ सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी । संवेदना व शिल्प की दृष्टि से यह कहानी अपने रचनाकाल में बेजोड़ थी और आज भी है ! इस नयेपन के बावजूद गुलेरी ने इसे नयी कहानी नहीं कहा ।

प्रेमचंद , सुदर्शन , जैनेंद्र , अज्ञेय , पहाड़ी, इलाचंद्र जोशी और अमृत राय ने भी सहज ढंग से कहानी के विकास में अपना योगदान दिया लेकिन किसी आंदोलन की घोषणा नहीं की ।

संभवतः सन् 1954 में कवि दुष्यंत कुमार ने ‘कल्पना’ पत्रिका में कहानी विधा पर केंद्रित एक आलेख लिखा और स्वयं खूब जोर शोर से ‘नयी कहनी’ का नारा बुलंद किया । अपने अभिन्न मित्रों मार्कंडेय व कमलेश्वर की कहानियों को नयी कहानी की संज्ञा दी ! संपादक भैरव प्रसाद गुप्त और आलोचक नामवर सिंह ने भी इस नामकरण पर अपनी मुहर लगा दी तो यह नाम पड़ा !

नयी कहानी के प्रवक्ता कहानीकारों की दिगंतव्यापी कीर्ति को देखकर ही शायद आने वाली पीढ़ियों के कहानीकारों ने भी अपने लिए एक नया नाम खोजने की परंपरा चलाई ताकि अपना वैशिष्ट्य रेखांकित किया जा सके ! जो भी हो कहानी को किसी वाद या आंदोलन से लाभ या नुकसान नहीं हुआ । कालांतर में वे ही कहानियां सर्वमान्य हुईं जिनमें अपना युग का यथार्थ प्रतिबिंबित था और कथ्य और शिल्प के स्तर पर बेजोड़ थीं !

-क्या कविता में सन्नाटा है ?

-कौन कहता है कि कविता में सन्नाटा है ? नये ऊर्जावान , प्रतिभाशाली कवि बहुत अच्छी कविताएं लेकर आ रहे हैं । हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़, बिहार , मध्यप्रदेश और देश के अन्य भागों से कवि अच्छा लिख रहे हैं । प्रकाशकों से पूछ कर देखिए उनके पास कितने काव्य संग्रहों की पांडुलिपियां प्रकाशन की बाट जोह रही हैं !

-क्या कविता की तरह कथा में भी सन्नाटे की बात की जा सकती है ?

-कहानी में भी कोई सन्नाटा नहीं । जितने नये कहानीकार इस दौर में उभरे हैं उतने तो पचास दशक में भी नही थे !

-क्या कहानी पर बौद्धिकता भारी पड़ रही है ?

-कहानी पर बौद्धिकता हावी नहीं हो रही । कुछ लोग कई माध्यमों से अर्जित ज्ञान को अपनी कहानियों में प्रक्षेपित कर रहे हैं ! ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्धिकता हावी हो गयी! हां , कुछ प्रबुद्ध कहानीकार वाकई अच्छे बौद्धिक हैं । सहज ढंग से अपनी अभिव्यक्ति में बौद्धिकता का आभास देते हैं । यह स्वागत् योग्य है ।

-पत्र पत्रिकाओं में साहित्य का स्थान कम होता जा रहा है । ऐसा क्यों ?

-कथा के ही नहीं समाचारपत्रों के रविवारीय अंकों में भी पहले जो साहित्यिक सामग्री रहा करती थी अब वह लुप्त होती जा रही है । कहानी के लिए यदि पत्रिकाओं में पृष्ठ कम होने की शिकायत है तो यह स्वीकार करना होगा कि कुछ पत्रिकायें कहानी पर ही केंद्रित हैं । बहुत कहानियां आ रही हैं । कितना पढ़ेंगे ? संस्मरण , यात्रा वृत्तांत , निंदापुराण इस कमी को पूरा कर ही रहे हैं न !

-नये रचनाकारों के नाम कोई संदेश देना चाहेंगे ?

– नये रचनाकारों के नाम कोई संदेश देने की पात्रता मैं स्वयं में नही देखता ! जैसे हमने खुली आंखों दुनिया को देखकर लिखा , उस्ताद लेखकों के साहित्य को पढ़कर सीखा,अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं की बारीकियों को समझा वैसे ही किया जाये तो कुछ हासिल किया जा सकता है । आज के समाज को समझने के लिए साहित्य के अलावा अन्य विषयों की भी अच्छी जानकारी उतनी ही जरूरी है । सबसे बड़ी बात है आत्मविश्वास। धैर्य की ! साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ अविराम 1111 – साक्षात्कार – प्रश्न पाठक के, उत्तर लेखक के – श्री संजय भारद्वाज ☆ परिचर्चा – सुश्री विनीता सिन्हा ☆

सुश्री विनीता सिन्हा

संक्षिप्त परिचय

जन्म – 28 अप्रिल 1960

जन्मस्थान – गोला प्रखंड, जिला रामगढ़, झारखंड

शिक्षा – राँची विश्वविद्यालय तथा डिप्लोमा- वुमन इन्ट्राप्रिन्योरशिप, नरसी मुंजी काॅलेज, मुंबई, महाराष्ट्र से।

साहित्यिक विधा – कविता, कहानी, संस्मरण
प्रकाशन  – पाथेय (मिला जुला), विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ , कहानियाँ प्रकाशित।

अभिरुचि- लेखन, पठन, लोकगीत, चित्रकारी, पुराने गीत

संप्रति – स्वतंत्र लेखन, बुटिक ‘नंदिनी’ के माध्यम से डिज़ाईनिंग,अपरेल्स पेंटिंग, एम्ब्रायडरी इत्यादि।

 ☆ साक्षात्कार – प्रश्न पाठक के, उत्तर लेखक के – श्री संजय भारद्वाज ☆ परिचर्चा – सुश्री विनीता सिन्हा ☆

संजय भारद्वाज से विनीता सिन्हा की बातचीत

प्र.-आप जो रचते हैं, उस जगह स्वयं उपस्थित होते हैं या यह सर्वथा काल्पनिक होता है। यदि हाँ तो आप अलग-अलग विषयों को लेते हैं, जाने क्या- क्या गढ़ लेते हैं, इतनी गुंजाइश कैसे हो जाती है?

उ- विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मेरी रचना प्रक्रिया में काल्पनिकता का पुट लगभग नहीं होता। जैसे ज्वालामुखी में वर्षों तक कुछ न कुछ संचित होता रहता है, उसी तरह देखा, सुना, भोगा यथार्थ भीतर संचित होता रहता है। फिर एक दिन लावा फूटता है और रचना जन्म पाती है। रही बात उपस्थित रहने की तो ईश्वर ने हर मनुष्य को देखने की शक्ति दी है। माँ सरस्वती, लेखक के देखने को दृष्टि में बदल देती हैं।

मैं परकाया प्रवेश में विश्वास रखता हूँ। वागीश्वरी  प्रदत्त दृष्टि से संबंधित घटना के पात्र में जब प्रवेश करता हूँ तो घटना और पात्र के विभिन्न आयाम दिखने लगते हैं। अध्यात्म में अद्वैत का उल्लेख होता है। परकाया प्रवेश कर लेखक को अपने पात्र के साथ अद्वैत होना पड़ता है। तभी रचना में ईमानदारी आती है  और व्यक्तिगत की अपेक्षा समष्टिगत भाव प्रकट होता है।

जहाँ तक अलग-अलग विषयों का प्रश्न है, सुबह उठने से रात सोने तक मनुष्य का जीवन अनगिनत घटनाओं का साक्षी होता है। स्वाभाविक है कि लेखन के विषय भी अलग- अलग होंगे। समानांतर रूप से इसे संबंधों के संदर्भ में ढालकर देखिए। मनुष्य माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र-सहेली आदि के रूप में अलग-अलग भूमिकाओं का सहजता से निर्वहन कर रहा होता है। पिता और पति की भूमिकाओं में कितना विषयांतर है। बस कुछ इसी तरह भीतर का लेखक भी अलग-अलग भूमिकाओं को जी लेता है। इन सब की गुंजाइश के बाद भी गुंजाइश बची रहती है। यह शेष समाई, अशेष लिखाई का मार्ग प्रशस्त करती है।

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से सकुचाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

काग़ज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या पढ़ता रहा!

प्र.-आप प्रत्यक्ष में जहाँ होते हैं, अप्रत्यक्ष में क्या उसी समय कहीं और भी विराजमान रहते हैं ? अगर दो जगह अपनी उपस्थिति दिखाते हैं तो दोनों जगह किस तरह न्याय कर पाते हैं?

उ.- एक शब्द है अन्यमनस्कता। मैं हर काम मन लगाकर करता हूँ पर शाश्वत अन्यमनस्क हूँ। यह अन्यमनस्कता प्रकृति प्रदत्त है। मैं इसमें बदलाव नहीं करना चाहता, कर भी नहीं सकता।

प्रत्यक्ष और परोक्ष उपस्थिति केवल लेखक पर लागू नहीं होती, हर मनुष्य पर अपितु हर सजीव पर लागू होती है। मन के समान तीव्र गति वाला जेट आज तक न विकसित हुआ, न हो सकेगा। यह जेट क्षणांश में त्रिलोकी की परिक्रमा कर लेता है। लेखक को यह वरदान मिला है कि अपने स्थान पर बैठकर इस परिक्रमा को शब्दों में व्यक्त कर सके।

मस्तिष्क ने अनेक परतें तैयार कर ली हैं। अपना काम फिर चाहे वह रोज़ी-रोटी हो, सामाजिक-सांस्कृतिक उपक्रम हों, पुस्तकों की भूमिका-समीक्षा आदि हो, सब करते हुए भी एक परत में सृजन सम्बंधी चिंतन समानांतर सतत चल रहा होता है।

ऐसे में प्रत्यक्ष उपस्थित स्थान पर अपना काम  पूरी निष्ठा से करते हुए भी परोक्ष में चित्र बन रहे होते हैं, शब्द उमग रहे होते हैं। न्यूनाधिक यह स्थिति 24x 7 है। यह ‘बाय डिफॉल्ट’ है। 

जंजालों में उलझी

अपनी लघुता पर

जब कभी

लज्जित होता हूँ,

मेरे चारों ओर

उमगने लगते हैं

शब्द ही शब्द,

अपने विराट पर

चकित होता हूँ..!

प्र.- आप सड़क पर चल रहे हैं, किसी रास्ते से गुज़र रहे हैं, उस पल के अवलोकन से खुद को जोड़कर एक मर्मस्पर्शी रचना का रूप दे देते हैं। क्या आप एकदम से ऐसा कर लेते हैं या बहुत मनन, चिंतन के बाद रचना आकार लेती है।

उ.- जैसा मैंने आरंभ में कहा कि सृजन के मूल में वैचारिक संचय होता है। अबोध से बोधि होने की प्रक्रिया के मूल में विचार ही है। विचार का यह संचय  कुछ समय का नहीं होता। मनुष्य के जन्म लेने से लेकर किसी रचना के उस संदर्भ में प्रस्फुटित होने तक का होता है। मुझे तो अनेक बार लगता है कि आवश्यक नहीं, संचय केवल इस जन्म का ही हो। यह जन्म की सीमाओं को लांघकर जन्म-जन्मांतर का भी हो सकता है।

तथापि केवल विचार से रचना नहीं सिरजती। सृजन के लिए आवश्यक है अवलोकन। फिर अवलोकन चाहे दृश्यात्मक हो या शाब्दिक। कुछ देखकर, सुनकर एक आघात-सा होता है और रचना फूट पड़ती है।

निरंतर मेरे मर्म पर

आघात पहुँचा रहे हैं,

मेरी वेदना का घनत्व

लगातार  बढ़ा रहे हैं,

उन्हें क्या वांछित है

कुछ नहीं पता,

मैं आशान्वित हूँ

किसी भी क्षण

फूट सकती है एक कविता! 

यही मेरी रचना प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया हर लेखक पर लागू हो, यह आवश्यक नहीं। प्रत्येक का अनुभव ग्रहण करने का अपना तरीका होता है, अभिव्यक्ति का अपना तरीका होता है। सृष्टि में यूँ भी हर आदमी अनुपम है, हर आदमी अतुल्य है।

जहाँ तक चिंतन-मनन करके लिखने का प्रश्न है,  सोच-विचार करके, बिंदु तैयार करके अनुसंधानात्मक लिखना तो हो सकता है पर ललित लेखन नहीं। ललित लेखन से उपजी रचना स्वत: संभूत होती है, विशेषकर कविता। कहानी के चरित्र कुछ विस्तार की मांग रखते हैं। उपन्यास में विस्तार विस्तृत होता है। नाटक में चरित्र सर्वाधिक विचार के बाद उपजते है। तथापि सृजन का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि वह उस क्षण वैचारिकता के लिए थमा नहीं रह सकता। थमा तो जमा। इसका अर्थ है कि वैचारिकता सृजन से पूर्व की प्रक्रिया है।

मैंने अपना एक नाटक रात 3 बजे से अगली दोपहर 3 बजे तक लगभग एक सिटिंग में लिखा। पहला संवाद  लिखते समय तय नहीं था कि किस चरित्र का विकास किस भाँति होगा और कथानक का उत्कर्ष क्या होगा। प्रसव पीड़ा होती रही, नाटक लिखा जाता रहा और समाप्ति पर मैं स्वयं भी अवाक था।

प्र – आप चलते-बैठते महफिल में हमेशा मनन करते रहते हैं तो घर परिवार के साथ सामंजस्य किस प्रकार बैठा पाते हैं? क्या एक अच्छे रचनाकार की कोई निजी ज़िंदगी नहीं होती? क्या वह हमेशा समाज को क्या दे, इसी ऊहापोह में डूबता-उतरता रहता है?

उ- मनुष्य सामान्यत: ‘स्व’ तक सीमित रहना छोड़ नहीं पाता। तथापि ‘स्व’ का विस्तार कर इसमें समष्टि को ले आए तो स्वार्थ, परमार्थ हो जाता है। मेरे लिए घर-परिवार और समाज या यूँ कहूँ कि सजीव सृष्टि एक ही बिंदु में अंतर्निहित हैं। इसे आप ऐसे भी कह सकती हैं कि इन सबको  अलग-अलग आँख से नहीं देख सकता मैं। यह सत्य है कि लौकिक अर्थ में मैं शायद परिवार के साथ न्याय नहीं कर पाता पर अपने दायित्वों का निर्वहन सदैव करता रहा हूँ, आजीवन करता भी रहूँगा। लेखक के रूप में मेरी भूमिका के निबाह में बड़ा योगदान परिवार का भी है। मुख्य श्रेय सुधा जी को है। वह कभी कुछ विशेष की चाह नहीं रखतीं, डिमांड नहीं करतीं। यह उनका त्याग भी है, यही हमारा संतुलन भी है। मेरी दो पंक्तियाँ हैं-

बनने-गढ़ने की प्रक्रिया 

यों संतुलित करती रही,

मैं इतिहास रचता गया 

वह इतिहास होती गई। 

इतिहास रचने वाली बात को मेरे सम्बंध में कृपया न लें। मैं साहित्य का अल्पज्ञानी विद्यार्थी भर हूँ। शब्दों के माध्यम से थोड़ा बहुत व्यक्त हो लेता हूँ। मैं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को माँ शारदा की अनुकंपा, माता-पिता के आशीष और अपने पाठकों की आत्मीयता का परिणाम मानता हूँ।

प्र.- आपके रचने की जो गति है, वह इस दौर में अपने गंतव्य तक वक्त से कैसे पहुँच जाती है?

उ.- जब जो उपजता है, विद्युत गति से आता है। उस गति से उसे काग़ज़ पर लिखकर, मोबाइल पर टाइप करके या रिकॉर्ड करके या ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ के माध्यम से भी उतारा नहीं जा सकता। उस गति को, मैं क्या संभवत: कोई भी लेखक पकड़ नहीं  सकता। कोई मनुष्य इतना सक्षम होता ही नहीं कि वह अपौरुषेय की गति के साथ कदमताल कर सके। बहुत कुछ छूट जाता है। जो छूट गया उससे बेहतर या कमतर  संभवत: कभी आ भी जाए पर जो ज्यों का त्यों कभी नहीं लौटता। सत्य  तो यह है कि जितना उपजता है, उसका आधे से भी कम काग़ज़ पर उतार पाता हूँ।

कभी पूछा मैंने-

साँस कब लेते हो,

कैसे लेते हो,

क्यों लेते हो?

फिर क्यों पूछते हो-

कब लिखता हूँ,

कैसे लिखता हूँ,

क्यों लिखता हूँ?

…..बस लिखता हूँ!

प्र.- पूर्णकालिक लेखन के साथ-साथ आप हिंदी आंदोलन परिवार, क्षितिज प्रकाशन, आध्यात्मिक प्रबोधन, अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भी जुड़े हैं। एक मनुष्य के लिए इतना सब कैसे संभव है? शिक्षा के दौरान हमने टाइम मैनेजमेंट पढ़ा था पर 24 घंटों को 48 घंटे में बदलना महज किताबी ज्ञान से तो संभव नहीं हो सकता। कृपया इस पर भी प्रकाश डालें।

उ.- मनुष्य को चाहिए कि अपने काम में आनंद अनुभव करे। इस अनुभूति से काम बोझ नहीं लगता, अपितु चहुँ ओर आनंद ही प्रवाहित होने लगता है। एक प्रसंग साझा करता हूँ। किसी स्थान पर प्रभु श्रीराम का मंदिर बन रहा था।  एक जानकार ने अलग-अलग समय एक ही प्रश्न पत्थर ढोकर ले जानेवाले चार अलग-अलग मजदूरों से किया। प्रश्न था, ‘क्या कर रहे हो?’  पहले ने उत्तर दिया, ‘पिछले जनम में अच्छे करम नहीं किए, सो इस जनम में पत्थर ढो रहा हूँ।’ दूसरे ने कहा, ‘बचपन में पढ़ाई-लिखाई नहीं की तो मजदूरी करनी पड़ रही है।’ तीसरा बोला, ‘दिखता नहीं क्या? अपने परिवार का पेट पालने के लिए मेहनत-मजूरी कर रहा हूँ।’ तीनों परेशान, हैरान, खीज से भरे। इन मजदूरों की तुलना में चौथा मजदूर प्रसन्न था। कुछ गुनगुनाते हुए पत्थर ढोता चल रहा था। प्रश्न सुनकर प्रेम से बोला, ‘मेरे राम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि थोड़ी सेवा दे पा रहा हूँ।’

मेरे लिए हर काम, रघुनाथ जी के मंदिर में अपनी सेवा देने जैसा है। प्रार्थना कीजिए कि यह सेवा अविराम रहे।

अनेक काम एक साथ करना भी शायद विधाता का दिया इनबिल्ट है। एक बात और कहना चाहूँगा कि जो कुछ नहीं कर रहा, उसके लिए एक काम करना याने शत-प्रतिशत बोझ लेना। उसके मुकाबले दस काम एक साथ करते हुए एक काम और बढ़ा तो कुल 10% काम ही तो बढ़ा। मुझे दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी अच्छी लगती है। मुझे चुनौतियाँ अच्छी लगती हैं, सीखने की नयी संभावनाएँ सदा आकर्षित करती हैं।

जुग-जुग जीते सपने

थोड़े से पल अपने,

सूक्ष्म और स्थूल का

दुर्लभ संतुलन है,

नश्वर और ईश्वर का

चिरंतन मिलन है,

जीवन, आशंकाओं के पहरे में

संभावनाओं का सम्मेलन है!

– सुश्री विनीता सिन्हा

संपर्क – 9967448399, D-1803, लाॅयड ईस्टेट, विद्यालंकार रोड, वड़ाला ईस्ट, मुंबई- 400 037

ई-मेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती, मेरी किताब के विदेशी अनुवाद से पैसे मिले” – बेबी हालदार☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती, मेरी किताब के विदेशी अनुवाद से पैसे मिले” – बेबी हालदार ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती । मेरी पहली ही किताब इतनी चर्चित हूई कि देश विदेश की 27 भाषाओं में अनुवाद हुई जिससे मुझे पैसे मिले और अपना घर भी बना पाई । यह कहना है प्रसिद्ध लेखिका बेबी हालदार का । जिनके बारे में बहुत पढ़ा व सुना था कि वे कैसे दिल्ली में घरों में कामकाज खोजते खोजते उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के घर काम करने लगीं जिससे उनकी जिंदगी ही बदल गयी और वे उनकी प्रेरणा से प्रसिद्ध लेखिका बन गयीं । मेरी मुलाकात अभी पिछले माह उत्तराखंड के दिनेशपुर के लघु पत्रिका सम्मेलन में बेबी हालदार से हुई और तभी वादा लिया था कि एक दिन आपसे फोन पर ही बातचीत कर इंटरव्यू करूंगा और आज वह वादा पूरा कर दिया बेबी हालदार ने ।।हालांकि दो चार दिन पहले इनका जन्मदिन था लेकिन उस दिन वे गुरुग्राम के किसी काॅलेज में व्याख्यान के लिए जा रही थीं तो टाल देना पड़ा । बहुत सरल स्वभाव की बेबी हालदार ने दिनेशपुर में खूब बातचीत की ।

मूल रूप से पश्चिमी बंगाल के 24 परगना निवासी बेबी हालदार के पिता जम्मू कश्मीर में सेना में तैनात थे । फौजी होने के नाते शराब के आदी थे और मां से मारपीट करते रहते थे जिससे एक दिन मां हम बच्चों को छोड़कर चली गयीं । फिर मेरे पिता ने मेरी शादी मुझसे दुगुनी उम्र के आदमी से कर दी और इक्कीस साल की होते होते मेरे तीन बच्चे भी हो गये । मेरे पिता ने दूसरी शादी भी कर ली ।

 1. बेबी हालदार मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के साथ 

2. बेबी हालदार के साथ दिनेशपुर में 

मेरे पति भी कोई बहुत अच्छे न थे और आखिरकार मैं अपने बच्चों को साथ लेकर सन् 1999 में दिल्ली चली आई और मेरी खुशकिस्मती कि मुझे मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के घर काम मिल गया । जिन्होंने किताब व लेखन के प्रति मेरी रूचि को देखते हुए अपनी जीवन गाथा लिखने को प्रेरित किया ।

-आपकी शिक्षा कहां तक हुई ?

-आठवीं कक्षा तक । आगे पढ़ाया ही नहीं जबकि मैं बहुत रोई पढ़ने के लिए ।

-आपने किस भाषा में लिखी अपनी जीवन कथा ?

-बंगाली में और प्रबोध कुमार जी इसे हिंदी में अनुवाद करते चले गये और आखिर उन्होंने इसे प्रकाशक को सौंपा । प्रबोध जी बंगाली जानते थे ।

-क्या नाम है आपकी पुस्तक का ?

-आलो अंधारी यानी अंधेरे से उजाला । इसका हिंदी में अर्थ ।

-इस किताब का कैसा स्वागत् हुआ ?

-उम्मीद से कहीं ज्यादा । आप हैरान होते कि इसका देश विदेश की 27 भाषाओं में अनुवाद हुआ । सब जगह इस किताब की चर्चा होने लगी ।

-और कितनी किताबें लिखीं ?

-ईशित समयांतर यानी परिवर्तन हिंदी में । तीसरी किताब आई जिसका हिंदी में अर्थ घर के रास्ते पर । इस तरह अब तक तीन किताबें आ चुकी हैं ।

-नयी किताब लिख रही हैं कोई ?

-जी । चौथी किताब भी लिख रही हूं ।

-आपको कौन कौन से लेखक पसंद हैं ?

-शरतचंद्र , महाश्वेता देवी , अन्नपूर्णा देवी और सभी पुराने लेखक अच्छे लगते हैं ।

-कोई पुरस्कार मिला ?

-अनेक । विदेशी पुरस्कार भी मिले ।

-आम राय है कि आजकल लोग पुस्तकों से दूर जा रहे हैं ?

-कौन कहता है ? काफी पढ़ते हैं लोग आज भी साहित्य । यदि ऐसा न हो तो हम लिखें ही क्यों ?

-क्या साहित्य लेखन से रोजी रोटी चल सकती है ?

-नहीं चल सकती । मुश्किल है । सिर्फ लेखन से गुजारा मुश्किल है । यदि मेरी पहली पुस्तक विदेशों में अनुवादित न होती तो मुझे पैसे कहां से मिलते ? घर कैसे ले पाती ? अब भी कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है । सरकार को लेखकों के बारे में सोचना चाहिए ।

-किसी पाठ्य पुस्तक में भी आपको शामिल किया गया है ?

-जी । एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की पुस्तक में मेरी रचना शामिल है ।

-परिवार के बारे में बताइए ?

-मेरे तीन बच्चे हैं -दो लड़के और एक लड़की । बड़ा बेटा अपने पिता के पास रहता है लेकिन कभी कभार मिलने आ जाता है । तीनों काम पर लग गये हैं ।

-प्रबोध कुमार जी हैं अभी ?

-जी नहीं । पिछले वर्ष 19 जनवरी को उनका निधन हो गया ।

-आगे क्या लक्ष्य ?

-बस लेखन ही लेखन ।

हमारी शुभकामनाएं बेबी हालदार को । आप इस मोबाईल नम्बर पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकती हैं : 9088861892

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ पंजाब के लेखक शिद्दत से याद आते हैं : से. रा. यात्री ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार – पंजाब के लेखक शिद्दत से याद आते हैं : से. रा. यात्री ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

पंजाब के लेखक बहुत शिद्दत से याद आते हैं मुझे। लगभग छत्तीस साल का साथ रहा है मेरा प्रसिद्ध लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क के साथ और मेरा नाम भी उनका दिया हुआ है। मेरा पूरा नाम सेवा राम गुप्ता था और उन्होंने कहा कि साहित्य में ऐसे नाम नहीं चलते। तुम्हारा साहित्यिक नाम होगा -से. रा. यात्री। इस तरह सेवा राम से मैं बन गया से. रा. यात्री। ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान प्रसिद्ध कथाकार से.रा. यात्री ने अपने नाम का रहस्य उजागर किया।

शनिवार की एक सुबह सवेरे उनके निवास एफ/ई-7 कविनगर में मिलने गया था सपरिवार। मेरे लिए तो वे ही मुख्य आकर्षण थे और एक तीर्थ जैसे भी। सुपुत्र आलोक यात्री ने ‘कथा संवाद’ के लिए ग़ाज़ियाबाद आमंत्रित किया था। लेकिन मेरे मन में से.रा. यात्री से मिलने की प्रबल इच्छा थी। सो उस दिन पूरी हो गई। वे बिस्तर से उठ तो नहीं पाए लेकिन उनकी आंखों में जो आत्मीयता दिखी, वह मेरे लिए अनमोल थी। जो बातें कीं वे भी अनमोल। नब्बे वर्ष की आयु के यात्री के आसपास या तो दवाइयां थीं या बीते वक्त की यादें। अश्क जी को स्मरण करते कहने लगे -उपेंद्रनाथ अश्क मेरे गुरु थे और मुझे अपना बड़ा बेटा मानते थे। मेरा प्रथम कथा संग्रह -‘दूसरे चेहरे’ और प्रथम उपन्यास -‘दराजों में बंद दस्तावेज’ अश्क जी ने अपने नीलाभ प्रकाशन से ही प्रकाशित किये थे। इस उपन्यास को बाद में भारतीय ज्ञानपीठ और हिंद पाकेट बुक्स ने भी संस्करण दिए।

– आपकी नवीनतम पुस्तक कौन सी है ?

– संयोग से वह भी अश्क जी के बारे में ही है जो सूचना व प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार ने प्रकाशित की है -‘उपेंद्रनाथ अश्क : व्यक्तित्व व कृतित्व।’

– कोई और उल्लेखनीय पुस्तक ?

– वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय में चार वर्ष के दौरान तैयार की -‘चिट्ठियों की दुनिया’ यह विश्व के कालजयी लेखकों की दुर्लभ चिट्ठियों का संकलन है।

– मुझे यह खुशी मिली कि आपके साथ मेरी कहानियां ‘कहानी’ और सारिका जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। आपको कुछ याद है ?

– हाँ मुझे नाम याद आ रहा है आपका -कमलेश भारतीय। आपको खूब पढ़ा और देखा है पत्रिकाओं में। मुझे तो आपको और आपके परिवार को देखकर सारा पंजाब याद हो आया है। कौशल्या अश्क जी और उनके पुत्र उमेश की पत्नी भी ऐसे ही सूट पहनती थीं जैसे आपकी पत्नी व बेटी ने पहन रखे हैं। आपके परिवार के आगमन से ऐसा महसूस हो रहा है जैसे पूरा पंजाब ही मेरे घर चला आया। हिंदी साहित्य में पंजाब के कथाकारों के योगदान को भुलाना मुश्किल है। राजेंद्र सिंह बेदी, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, रवींद्र कालिया, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, रामसरूप अणखी, करतार सिंह दुग्गल सबसे अच्छे मेरे आत्मीय संबंध रहे। तीस साल लम्बा संबंध रहा अश्क जी के साथ। सिर्फ तीस-बत्तीस साल का था जब पहली बार उनसे मिलने गया था। फिर जालंधर उनके घर भी गया। जनवरी सन 1960 में जाना शुरू किया था अश्क जी के घर इलाहाबाद और सन 1996 तक मिलना जुलना चलता रहा। गुरदयाल सिंह और जगदीश चंद्र वैद पंजाब के बहुत बड़े लेखक थे। जगदीश चंद्र वैद का उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ हिंदी साहित्य की अनमोल निधि है। मैं समझता हूं प्रेमचंद के ‘गोदान’ के समकक्ष उपन्यास है यह।

– प्रकाशकों से कैसे संबंध रहे आपके ?

– बहुत अच्छे। भारतीय ज्ञानपीठ, प्रभात प्रकाशन, हिंद पाकेट बुक्स, वाणी और आत्माराम संस  सहित करीब बीस बड़े प्रकाशकों ने मेरी पुस्तकें प्रकाशित कीं। अंत में आत्माराम संस ने मेरी पच्चीस पुस्तकें एक साथ ले लीं। 

– कोई मंत्र नये लेखकों के लिए ?

-बस… कहानी है जीवन की आलोचना। खूब पढ़ो और खूब लिखो।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ युवा शक्ति में मेरा विश्वास सबसे ज्यादा: प्रो जगमोहन सिंह ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार – युवा शक्ति में मेरा विश्वास सबसे ज्यादा : प्रो जगमोहन सिंह ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

युवा शक्ति में मेरा विश्वास सबसे ज्यादा है और शहीद भगत सिंह भी युवाओं के हीरो हैं। यह कहना है शहीद ए आज़म भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह का। वे सर्वोदय भवन में प्रोग्रेसिव छात्र फ्रंट की ओर से आयोजित संवाद कार्यक्रम में विशेष तौर पर आए थे। मेरी इनसे मुलाकातें सन् 1979 से हैं जब मुझे खटकड़ कलां के आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हिदी प्राध्यापक(बाद में प्रिंसिपल) के रूप में काम करने का अवसर मिला था। तब वे शहीद भगत सिंह के साथियों के दस्तावेज पुस्तक पर काम कर रहे थे और वह किताब आने पर मुझे प्रेमपूर्वक भेंट भी की थी। जब इनके हिसार आगमन का पता चला तो मुलाकात की और पुरानी यादें भी ताजा कीं और छोटी सी बातचीत भी की।

इनका जन्म पाकिस्तान के लायलपुर के चक नम्बर 206 में सन् 1944 में हुआ और स्वतंत्रता के बाद इनका परिवार जीटीरोड पर स्थित गांव दयालपुरा में आ गया। इसी गांव के स्कूल से मैट्रिक की और बाद में जालंधर के डी ए वी काॅलेज से बी एस सी की। वे बताते हैं कि मैट्रिक करते ही बड़े भाई जोगिन्दर सिंह ने नयी साइकिल उपहार में दी। उसी पर बीस किलोमीटर जालंधर पढ़ने जाते थे। फिर लुधियाना के गुरु नानक इंजीनियरिंग काॅलेज से इंजीनियरिंग की जिससे पहले ऑल इंडिया स्कॉलरशिप मिल गयी थी।

-पहली जाॅब कहां ?

-चंडीगढ़ के इंजीनियरिंग काॅलेज में एक साल। फिर लुधियाना के अपने ही गुरु नानक इंजीनियरिंग काॅलेज ने बुला लिया। साल भर बाद ही खड़गपुर आईआईटी में एम टैक करने के लिए चुना गया। टाॅपर रहा।

-फिर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में कब ?

-सन् 1975 से सन् 2004 तक। यहीं से सेवानिवृत्त। एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग में सोचा कि क्या योगदान दे सकता हूं ?

-फिर क्या योगदान दिया ?

-किसानों के लिए बनाया ट्यूबैल मोटर के लिए सेल्फ स्टार्टर जो किसानों में बहुत लोकप्रिय हुआ। मेरे नाम पेटेंट करना चाहते थे जिससे मुझे दो प्रतिशत मिलता लेकिन मैंने बिल्कुल मना करते कहा कि यह मैंने किसानों का ऋण उतारने के लिए बनाया है , अपने निजी फायदे के लिए नहीं।

-फिर शहीद भगत सिंह व इनके साथियों के दस्तावेज लिखने तक कैसे पहुँचे ?

-बचपन में दादा जी ने शेख सादी की पुस्तकें व अरविंद घोष की आत्मकथा जैसी पुस्तक पढ़ने के लिए दी थीं।  आठवीं में पढ़ता था जब ऐसी पठन पाठन की रूचि बना दी। मामा भगत सिंह की किताबों ने भी बहुत रोशनी दी।

-कहां से प्रेरणा मिली ?

-सन् 1963 में गदर पार्टी के पचास साल पूरे हो रहे थे तब सोहन सिंह भकना को शहीद यादगार हाल में सुनने का पहला अवसर मिला। उन्होंने आह्वान किया कि युवा हमारे जैसे क्रान्तिकारियों की विरासत संभालने के लिए आगे आए। बस।

-फिर कैसे आगे बढ़े इस दिशा में ?

-मेरे प्रो व मित्र मलविंदरजीत थे। उनके साथ सलाह मशविरा किया और खटकड़ कलां में बनाया युवक केद्र। तब तक नानी विद्यावती भी थीं। इसीलिए इसी गांव को चुना। फिर निकाला ‘कौमी लहर’ मासिक। इसमें शहीदों व क्रान्तिकारियों की गाथाएं देते थे। फिर आपातकाल लग जाने से सब काम रुक गया।

-फिर कैसे शुरू किया ?

-आपातकाल के बाद। सन् 1977 में बनाई जम्हूरी अधिकार सभा। सन् 1981 में शहादत की पचासवीं वर्षगांठ पर नानी विद्यावती के पास आए थे किरमचंद्र दास , शिव वर्मा , जयदेव कपूर और डाॅ दया प्रसाद। सबने पंजाब सरकार को भेजा कि भगत सिंह का एक बुत्त कम लगा लो लेकिन दस्तावेज प्रकाशित करो लेकिन जवाब आया था कि विचार कर रहे हैं और फिर सबने यह जिम्मेदारी मेरे ऊपर डालते कहा कि तुम्हें प्रोफेसर किसलिए बनाया है ? बस। काम शुरू कर दिया।

-कैसे काम हुआ ?

-तब प्रताप के संपादक वीरेंद्र व मिलाप के संपादक यश भी इनके सहयोगी रहे थे , वे शहीदी दिवस पर इनकी पुरानी चिट्ठियां प्रकाशित किया करते थे। वे सब इकट्ठी कीं। भगत सिंह ने तीन माह तक किरती का संपादक किया था , वे अंक खोजे। इस तरह जाकर किताब को अंतिम रूप दिया। जेएनयू में खोज कमेटी बनी जिसके सर्वेसर्वा थे विपिन चंद्र। उनका भो मुगालता दूर हुआ जब उन्हें पता चला कि समाजवाद की अवधारणा भगत सिंह की है न कि जवाहरलाल नेहरू की।

-और कितनी किताबें लिखीं आपने ?

– लिखी नहीं। संपादित कीं या पुनर्प्रकाशित कीं कह सकते हैं। चाचा अजीत सिंह की जीवनी पगड़ी संभाल ओए जट्टा का अनुवाद प्रकाशित हुआ। अब अजीत सिंह की मोहबाने वतन को ‘देशप्रेमी’ के रूप में प्रस्तुत किया है।

-भगत सिंह का क्या योगदान मानते हैं आप ?

-भगत सिंह हमारे ऐसे हीरो जो हर संकट व समय के हीरो हैं। युवा भगत सिंह के बारे में सबसे ज्यादा सवेर पूछते हैं जहां भी व्याख्यान के लिए जाता हूं।

-आपका संदेश व लक्ष्य ?

-युवा शक्ति में ही मेरा विश्वास।

हमारी शुभकामनाएं प्रो जगमोहन सिंह को। आप अपनी प्रतिक्रिया उन्हें इस नंबर पर दे सकते हैं : 9814001836

 

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “मैं सच्चे सुच्चे गीत लिखता हूँ, नयी पीढ़ी को बहकाता नहीं” – इरशाद कामिल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “मैं सच्चे सुच्चे गीत लिखता हूँ, नयी पीढ़ी को बहकाता नहीं” – इरशाद कामिल ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

आपने बहुत से गाने सुने होंगे । जैसे-दिल दीयां गल्लां, करांगे नाल नाल बैठ बैठ के ,,,

जग घूमेयो थारे जैसा न कोई ,,,

हवायें ले जायें जाने कहां,,,,,

शायद कभी न कह सकूं मैं तुमसे

ऐसे बहुत से फिल्मी गीत जो आप गुनगुनाते हैं । जानते हैं किसने लिखे ये प्यारे प्यारे गीत ?

हमारे प्यारे दोस्त और दैनिक ट्रिब्यून के पुराने सहयोगी इरशाद कामिल ने । जब जब ये गीत सुनता हूं तब तब इरशाद की याद आ जाती है ।   मूल रूप से पंजाब के मालेरकोटला निवासी इरशाद कामिल ने ग्रेजुएशन वहीं के गवर्नमेंट काॅलेज से की । फिर पंजाब यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग से एम ए और डाॅ सत्यपाल सहगल के निर्देशन में पीएचडी की -समकालीन कविता : समय और समाज । यहीं से जर्नलिज्म की और अनुवाद में डिप्लोमा भी किया । शायद ही मुम्बई की फिल्मी दुनिया में कोई और इरशाद कामिल की तरह गीतकार पीएचडी हो । जनसत्ता में भी काम किया ।

-फिल्मों से नाता कैसे जुड़ा?

 -लेख टंडन जी की वजह से । वे चंडीगढ़ सीरियल कहां से कहां तक की शूटिंग के लिए आए थे । उनका राइटर किसी कारण आ न पाया तब किसी माध्यम से मुझे बुलाया और सीरियल लिखवाया । उन्हें मेरा काम पसंद आया । बस । इसके बाद वे मुझे मुम्बई ले गये ।

-शुरू में कैसे जुड़े ?

-सीरियल्ज राइटिंग से । ज़ी , स्टार प्लस और सोनी के लिए लिखे । संजीवनी , छोटी मां और धड़कन आदि सीरियल्ज लिखे ।

-पहला गीत किस फिल्म के लिए गीत लिखा ?

-पहला गीत लिखा इम्तियाज अली की फिल्म सोचा न था के लिए । चमेली के गाने भी लिखे ।

-अब तक कितने गाने फिल्मों के लिए लिख चुके ?

-लगभग एक सौ से ऊपर गाने लिख लिए होंगे ।

-क्या फर्क है आपमें और दूसरों में ?

मै पहल जैसी पत्रिका में भी प्रकाशित होता हूं और फिल्मों के लिए शुद्ध मनोरंजन वाले गीत भी लिखता हूं । शाहरुख खान , सलमान खान और रणबीर कपूर सहित कितने एक्टर मेरे गानों पर थिरक चुके हैं ।

-आपने जब पंजाब यूनिवर्सिटी को अपनी अम्मी बेगम इकबाल बानो की स्मृति में पंजाब यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग को राशि अर्पित की स्काॅलरशिप के लिए तब मैं वहीं था । उस समारोह में । आपके बड़े भाई ने कहा था कि आपको हिंदी ऑफिसर का फाॅर्म लाकर दिया था पर ये महाश्य बने गीतकार । ऐसा क्या ?

-बिल्कुल भारती जी । मैं संदेश देना चाहता हूं कि हरेक बच्चे को अभिभावक वह करने दें जो वह चाहता है । बच्चे को स्पोर्ट करना चाहिए न कि विरोध । सुरक्षा के माहौल में टेलेंट मर जाती है । सुरक्षा की कोई सीमा नहीं होती ।

-आपको कौन कौन से पुरस्कार मिले ?

-तीन फिल्म फेयर पुरस्कार और शैलेंद्र सम्मान, साहिर लुधियानवी सम्मान और कैफी आजमी सम्मान । साहिर सम्मान पंजाबी यूनिवर्सिटी ने दिया और वहां भी उर्दू , फारसी व अरबी भाषा के लिए स्काॅलरशिप शुरू करने के लिए राशि दी है । पंजाबी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन है मेरी ।

-चंडीगढ़ कितना याद आता है ?

-जैसे विद्यार्थी जीवन में प्रेमिका । वह बाइस सेक्टर और पंद्रह सेक्टर । दोस्त मित्र । सब । पकवान के छोले भटूरे और गांधी भवन । बहुत कुछ ।

-सबसे मुश्किल गाना कौन सा रहा लिखने में?

-हवा हवा ,,,दस दिन में लिख पाया जबकि आमतौर पर ज्यादा से ज्यादा तीन दिन ही लगाता हूं गाना लिखने में । मनस्थिति , धुन और संगीत निर्देशक का भी योगदान और ध्यान रखना पड़ता है ।

-इरशाद के प्रिय गीतकार कौन ?

-साहिर लुधियानवी को रोमांस के फलसफे वाले गानों के लिए । शैलेंद्र के गीतों में मिट्टी की खुशबू आती है तो मजरूह सुल्तानपुरी टेक्निकली राइटर की वजह से अच्छे लगते हैं ।

-पत्नी यानी हमारी भाभी?

-तस्वीर कामिल । वे थियेटर आर्टिस्ट हैं ।

-बच्चे कितने ?

 -एक ही बेटा कामरान कामिल ।

-आगे क्या ?

-अच्छे सच्चे व सुच्चे  गीत,लिखता रहूं ।

हमारी शुभकामनाएं इरशाद कामिल को ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “साहित्य या शिल्प या अन्य कला, सब संवेदना और कल्पना के आयाम हैं” – सुश्री शंपा शाह ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “साहित्य या शिल्प या अन्य कला, सब संवेदना और कल्पना के आयाम हैं” – सुश्री शंपा शाह ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

( इस परिचर्चा के परिपेक्ष्य में झीलों के शहर भोपाल में भारतीय स्टेट बैंक के सेवाकाल के 21 वर्षों का प्रवास सहज ही चलचित्र की तरह गुजर गया। साथ ही  भारत भवन के अभिन्न अंग जैसे रूपांकर, रंगमंडल, वागर्थ और अनहद और साथ ही राष्ट्रीय इंदिरा गाँधी मानव संग्रहालय भी आँखों के सामने से चलचित्र की तरह  गुजर गए । श्री प्रवीण महुवाले, श्री असीम दुबे और कई प्रिय रंकर्मी मित्रों की यादें भी ताजा हो आई। भारत भवन ने संगीत, रंगकर्म, साहित्य एवं कला के नए आयाम रचे हैं इसी कड़ी में सुश्री शंपा शाह जी की कलाकृतियां हैं। श्री कमलेश भारतीय जी का आभार जो हमें समय समय पर विभिन्न क्षेत्र की महत्वपूर्ण हस्तियों से ई -अभिव्यक्ति के पाठकों  के लिए परिचर्चा साझा करते रहते हैं। )

लेखक माता पिता की बेटी बनी शिल्पकार : शंपा शाह

यह बात मेरे लिए भी हैरान कर देने वाली है कि एक लेखक माता पिता की बेटी हो कर भी मैं शिल्पकार ही क्यों बनी । यह कहना है शंपा शाह का जो प्रसिद्ध लेखक रमेश चंद्र शाह व ज्योत्स्ना मिलन की बेटी हैं । मां ज्योत्स्ना मिलन तो सन् 2013 को विदा हो गयीं पर पिता रमेश चंद्र शाह आपके पास ही भोपाल में रहते हैं । इनके पति ईश्वर सिंह दर्शनशास्त्र के ज्ञाता हैं और फिलाॅसफी ऑफ एजुकेशन से जुड़े प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं । इनकी बहन राजुला एक फिल्मकार है ।

मूल रूप से पापा रमेश चंद्र शाह अल्मोड़ा के निवासी हैं और मां ज्योत्स्ना मालवा, मध्य प्रदेश से, लेकिन उनके माता पिता मुंबई में बस गए थे। शंपा का जन्म मुम्बई में हुआ। लेकिन अधिकांश पढ़ाई लिखाई भोपाल में हुई । एम एस सी फारेस्ट ईकोलाॅजी और सोशिओलाॅजी में एम ए तथा । म्यूजिओलाॅजी में डिप्लोमा किया ।

माता पिता लेखक हैं, इसका आभास कैसे हुआ?

-बचपन से ही । शाम की सैर पर जाते तो वे दोनों एक दूसरे को कविताएं सुनाते। कॉलेज से लौट कर पिता अपनी मेज कुर्सी पर डटे दिखते और घर के काम निपटा कर मां अपनी मेज पर ।

थिएटर का शौक कैसे लगा?

-काॅलेज में थी जब विभा मिश्रा ने अपने नाटक में ले लिया । चार साल खूब थियेटर किया । अनेक नाटक किये । दिन में सेरेमिक्स का ( चीनी मिट्टी) काम सीखते तो शाम को थियेटर । यह मेरी ज़िंदगी थी ।

फिर शिल्पकार कैसे बन गयीं ?

-भारत भवन से । वहीं न केवल थियेटर बल्कि संगीत, नृत्य, साहित्य, फिल्म और शिल्प से भी जुड़ी। वहां खूब प्रदर्शनियां लगतीं और अन्य कार्यक्रम होते । वैसे साहित्य या शिल्प या अन्य कला में मुझे कोई भेद नहीं दिखता, सब संवेदना और कल्पना के आयाम हैं ।

फिर भी प्रेरणा किससे ?

-भारत भवन में जो स्टूडियो था उसके प्रभारी व प्रसिद्ध शिल्पकार पांडुरंग दरोज मेरे गुरु और प्रेरणा स्त्रोत हैं ।

कैसे शिल्प बनाती हैं?

-सेरेमिक्स यानी चीनी मिट्टी के । इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में इक्कीस साल तक काम किया । यहां सेरेमिक्स अनुभाग की प्रमुख रही और इसके अंतर्गत पारंपरिक शिल्पों, जनजातीय मिथकों आदि पर केंद्रित प्रदर्शनियां क्यूरेट कीं। इसके साथ साथ एक कलाकार के बतौर देश के सभी प्रमुख नगरों तथा अन्य देशों में अपने शिल्प की प्रदर्शनियां लगाई।

आपको कौन से पुरस्कार मिले?

-सिरेमिक में पांच अखिल भारतीय पुरस्कार। जूनियर नेशनल फैलोशिप ।

लेखन नहीं किया ?

– पारंपरिक और जनजातीय कला पर, मिथक और संस्कृति पर बहुत से आलेख लिखे हैं । आदिवासी कलाकारों और साहित्यकारों पर भी प्रचुर लेखन किया है ।

बच्चे कितने?

-एक बेटा निरंजन जो बारहवीं में पढ़ता है ।

लक्ष्य ?

-कल से और बेहतर काम कर सकूं , कल से और बेहतर मन हो , कल से और बेहतर देख सकूं दुनिया को । कल से और बेहतर ज़िंदगी जिऊं।

हमारी शुभकामनाएं शंपा शाह को । आप सुश्री शंपा शाह जी को इस नम्बर पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं : 9424440575

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ ☆ आध्यात्मिक अभियान – ‘आपदां अपहर्तारं’ के सफल एक वर्ष पूर्ण ☆ प्रणेता – श्री संजय भारद्वाज एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ आध्यात्मिक अभियान – ‘आपदां अपहर्तारं’ के सफल एक वर्ष पूर्ण ☆ प्रणेता – श्री संजय भारद्वाज एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज ☆

(इस आपदा के समय सभी लोग किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मानवता में अपना योगदान दे रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी सीमायें हैं। कोई व्यक्तिगत रूप से, कोई चिकित्सकीय सहायता के रूप से तो कोई आर्थिक सहायता के रूप से अपना योगदान दे रहे हैं।  

ऐसे में कुछ लोग सम्पूर्ण मानवता के लिए अपना अभूतपूर्व आध्यात्मिक योगदान दे रहे हैं। उनका मानना है कि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार यदि हम सामूहिक रूप से प्रार्थना, श्लोकों का उच्चारण करें तो  समस्त भूमण्डल में एक सकारात्मक ऊर्जा का संचरण होता है और “वसुधैव कुटुम्बकम” की अवधारणाना के अंतर्गत समस्त मानवता को इसका सकारात्मक लाभ अवश्य मिलता है। इस आध्यात्मिक अभियान के प्रणेता श्री संजय भारद्वाज जी के हम हृदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारी जिज्ञासा स्वरुप ह्रदय में उत्पन्न कुछ प्रश्नों का उत्तर एक साक्षात्कार स्वरुप दिया है। इस सकारात्मकता का अनुभव मैंने स्वयं अपने “होम आइसोलेशन” के समय प्राप्त किया है। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि वर्तमान परिस्थितयों में आपदा के इन क्षणों (लॉक -डाउन,  क्वारंटाइन और आइसोलेशन) में अध्यात्म द्वारा स्वयं एवं अपने आसपास सकारात्मक ऊर्जा के संचरण के लिए आपकी भी अध्यात्म सम्बन्धी जिज्ञासाओं की पूर्ति आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” के इस साक्षात्कार के माध्यम से पूर्ण हो सकेगी।

विदित हो कि इस आध्यात्मिक अभियान “आपदां अपहर्तारं” एक आज एक वर्ष पूर्ण हो जायेंगे और आपके ही एक और अभियान “हिंदी आंदोलन” ने इस वर्ष अपने सफल 26 वर्ष पूर्ण किये हैं। इस निःस्वार्थ वैश्विक एवं आध्यात्मिक मानव सेवा के लिए इन दोनों अभियानों के प्रणेताओं श्री संजय भारद्वाज जी  एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी को  ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें। )

प्रश्न – आपके द्वारा स्थापित हिन्दी आंदोलन परिवार को 26 सफल वर्ष हो चुके। गत वर्ष से आपने यह आध्यात्मिक अभियान आरंभ किया।   कृपया दोनों की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालें।

उत्तर – हिन्दी आंदोलन परिवार मूलरूप से साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित संस्था है। भाषा सभ्यता की वीणा और संस्कृति की वाणी है। विभिन्न वर्गों के अवलोकन और अध्ययन से अनुभव हुआ कि विदेशी भाषा के प्रयोग ने हम भारतीयों में दंभ और खोखलापन भर दिया है। हम निरंतर अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं। समुदाय की जड़ों को हरा रखने रखने में भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कवि कुसुमाग्रज बाढ़ की विभीषिका में भी नदी को गंगा नहीं अपितु ‘गंगा माई’ कहकर संबोधित करते हैं। संस्कृति का यह धरातल आपकी अपनी भाषा देती है। फलत: भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य करने का मानस बना। सबके सहयोग से गत 26 वर्ष की अखंड यात्रा में हिंदी आंदोलन परिवार, इस क्षेत्र में अपना उल्लेखनीय स्थान बना चुका है।

जहाँ तक प्रश्न आध्यात्मिक अभियान का है, मेरा मानना है कि अध्यात्म मनुष्य में इनबिल्ट है। अध्यात्म का अर्थ है अपने चारों। मनुष्य जैसे-जैसे स्वयं का समग्र अध्ययन करने लगता है, उसके भीतर अपने अस्तित्व के प्रति जिज्ञासा बढ़ने लगती है।अपने केंद्र तक पहुँचने की यह जिज्ञासा सौम्य अथवा तीव्र रूप में प्रत्येक  मनुष्य में होती है पर अधिकांश को लगता है कि अध्यात्म तो वानप्रस्थ आश्रम से आरंभ करेंगे। कुछ तो अध्यात्म के लिए  संन्यास आश्रम की प्रतीक्षा में होते हैं। विशेष बात यह कि इनमें से हरेक जानता है कि जीवन क्षणिक है। इसका अर्थ है कि हर क्षण में पूरा जीवन है। ऐसे में अध्यात्म के लिए जीवन के किसी पड़ाव की प्रतीक्षा करना कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि अभी तो श्वास लेने का समय नहीं है, पचास वर्ष के बाद  लेना आरंभ करेंगे। होना तो यह चाहिए कि थोड़ी समझ आने के साथ ही अध्यात्म से जुड़ना हो जाना चाहिए।

गतवर्ष पहली बार महामारी ने मनुष्य की भौतिक रफ़्तार पर अंकुश लगा दिया। भय और लॉकडाउन ने लोगों को घर में कैद कर दिया था। निराशा-सी छा रही थी। मानस में लगातार चल रहा था कि इस महामारी का सामना करने के लिए मनोबल की आवश्यकता है। मनोबल मिलता है आस्था से। आस्था का स्रोत है अध्यात्म। फलत: हमने कोविड के विरुद्ध सारे दिशा-निर्देश पालने के साथ-साथ अध्यात्म को अपनाया। इसी पृष्ठभूमि में ‘आपदां अपहर्तारं’ आध्यात्मिक समूह और अभियान का श्रीगणेश हुआ। इस समूह में साधक अपनी साधना का पचास प्रतिशत कोविड के समूल नाश के लिए अर्पित करते हैं।

प्रश्न – आपकी शैक्षिक पृष्ठभूमि केमिस्ट्री और फार्मा क्षेत्र की है। फिर अध्यात्म का पथ कैसे चुना? 

उ- विज्ञान जीवन को देखना सिखाता है।  कहता है, जो दिख रहा है वही घट रहा है। अध्यात्म स्थूल विज्ञान को सूक्ष्म  ज्ञान के मार्ग पर ले जाता है। कहता है, जो घटता है वही दिखता है। देखने को दृष्टि से संपन्न करता है अध्मात्म। फार्मेसी के फॉर्मूलेशन हों या केमिस्ट्री के इक्वेशन, संग से ही संघ बनता है। ज्ञान-विज्ञान का संघ, जिज्ञासाओं के शमन के पथ पर ला खड़ा करता है।

प्रश्न – समूह का नाम आपदां अपहर्तारं क्यों रखा?

उ.- श्रीरामरक्षास्तोत्रम् में मेरा अटूट विश्वास है। मेरे पिता जी इसके पाठ किया करते थे। बुधकौशिक ऋषि द्वारा अनुष्टुप छंद में रचित यह स्तोत्र सकारात्मक ऊर्जा का साकार शब्दब्रह्म है। इसकी सकारात्मक ऊर्जा आपने स्वयं भी अनुभव की है। गत वर्ष अप्रैल- मई का समय भारत में कोविड-19 का शुरुआती समय था। विश्व पहली बार एक अनजान महामारी से जूझ रहा था। श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का 35वाँ श्लोक है,

आपदां अपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्, लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो-भूयो नमाम्यहम्।

हमें आपदा के विरुद्ध लड़ना था, अत: नामकरण आपदां अपहर्तारं किया।

श्रीमती सुधा भारद्वाज 

प्रश्न–दोनों अभियानों में आप दंपति की  सहभागिता अभूतपूर्व एवं अनुकरणीय है। अपने कार्य, दोनों अभियान एवं दैनिक जीवन, ये सब में आप लोग कैसे मैनेज कैसे कर पाते हैं?

उ.- हम सारी आपाधापी के बीच आजीवन साँस भी तो ले रहे होते हैं। क्या कभी विचार होता है कि साँस लेना कैसे मैनेज कर लेते हैं। विनम्रता से मेरा मानना है कि जो भीतर प्रकृतिगत है, सामान्यत: उसे मैनेज नहीं करना पड़ता।  जीवन क्षण-क्षण बीत रहा है। उसका बीतना हम रोक नहीं सकते लेकिन जीवन का रीतना अवश्य रोका जा सकता है। जीवन के रिक्त में अध्यात्म का रिक्थ उँड़ेलने का प्रयास करें तो सामंजस्य स्वयंमेव, प्रकृतिगत हो जाता है।

प्रश्न – साहित्य एवं अध्यात्म दोनों अलग-अलग विषय हैं। आपके साहित्य में कहीं न कहीं अध्यात्म की छाप दिखाई पड़ती है किन्तु दोनों के मध्य एक अदृश्य रेखा भी दिखाई देती है। आप दोनों के मध्य संतुलन कैसे बना पाते हैं?

उ.- ‘अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते’, योगेश्वर का यह कथन साहित्य और अध्यात्म का अंतर्सम्बंध अभिव्यक्त करने के लिए ‘भगवान उवाच’ है। अध्यात्म अपने अध्ययन के लिए प्रवृत्त करता है। आत्माध्ययन श्रेष्ठ मनुष्य बनने के पथ पर ले जाता है। चिंतन करें कि सामाजिक के परिवेश में  मनुष्य की भूमिका क्या है? मनुष्य समाज की इकाई है। साहित्य अर्थात समाज का हित। स्वाभाविक है कि स्वाध्यायी, श्रेष्ठ समाज के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। उसका साहित्य अमृत बाँटेगा, हलाहल नहीं। अत: मेरा मानना है कि साहित्य और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अध्यात्म  का एक अधिवास है साहित्य जबकि साहित्य की नाभि में अध्यात्म का वास है।

प्रश्न – अध्यात्म में व्यक्तिगत साधना का चलन है।आपने सामूहिक साधना का मार्ग चुना।

उ- व्यक्तिगत और समष्टिगत में अंतर कहाँ है?   सनातन दर्शन मनुष्य को बाँधता नहीं अपितु मुक्त करता है। हमारी मीमांसा रोकती नहीं, विस्तार का मार्ग प्रशस्त करती है। हिंदूत्व  सामासिकता और सामूहिकता का दर्शन है। यह दर्शन आदेश नहीं करता, उपदेश देता है। स्पष्ट उपदेश है,-

 ‘आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।।’

जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं के लिए किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है । तात्पर्य है कि किस धारा के साथ प्रवाहित होना है, यह व्यक्ति स्वयं निर्धारित करे।

गोस्वामी जी की धारा कुछ ऐसी है,-

‘जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥

जब सबमें श्रीराम ही बसते  हैं तो व्यक्तिगत  और समष्टिगत का भेद ही मिट जाता है।

प्रश्न – आपने ‘आत्म-परिष्कार’ साधना का सूत्रपात किया। इस अभिनव संकल्पना की पृष्ठभूमि क्या रही।

उत्तर – ‘आत्म-परिष्कार’ लीक से हटकर एक साधना है।इसमें विद्यार्थी भी आप, शिक्षक भी आप, परीक्षक भी आप और निर्णायक भी आप।  मनुष्य स्वयं को सबसे अधिक जानता है। वह अपनी दुर्बलताएँ जानता है। आत्म-परिष्कार श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण की साधना है। साधक अपनी दुर्बलताओं पर स्वयं विचार करता है। अपने आपसे अपने तर्क स्वयं साझा करता है। अपने शक्तिकेंद्र स्वयं जागृत कर दुर्बलताएँ कम करने का प्रयत्न करता है। इस तरह आत्म-मूल्याकंन से लेकर आत्म-परिष्कार की सारी प्रक्रिया उसीके हाथ में होती है। किसी अन्य से उसे कुछ भी साझा नहीं करना होता। आत्म-प्रदर्शन से आत्म-दर्शन की ओर ले जाता है, आत्म-परिष्कार।

प्रश्न – श्लोकपाठ मन ही मन करें या  सस्वर होना चाहिए?

उत्तर – निर्णय आपका है। मेरा मत है कि सस्वर पाठ, सामूहिकता की पुष्टि करता है व विस्तार भी। अनेक घरों में बच्चों या युवाओं को दैनिक आरती, हनुमान चालीसा, अन्य पाठ इसलिए कंठस्थ हैं क्योंकि उनके कानों ने वर्षों तक अपने  बुजुर्गों को इन्हें गाते या पाठ करते सुना है। सस्वर पाठ का एक लाभ यह भी है कि स्वर लहरियाँ घर के कोने-कोने में पहुँचती हैं। यह सकारात्मकता अथवा पॉजिटिव एनर्जी का विस्तार है। सस्वर पाठ, सामान्य साधक को साधना की अवधि में मन भटकने से  रोकने में भी सहायता करता है।

प्रश्न – किसी मंत्र के पाठ के लिए साधारणत: 108 मनकों की माला का उपयोग करते हैं। माला में 108 अंक का क्या महत्व है?

उत्तर – इसकी अलग-अलग व्याख्या आपको मिलेगी। 12 राशियों और 9 ग्रहों के गुणनफल के संदर्भ में 108 का महत्व है। इस गुणनफल में जीवन की सारी दशा, दिशा एवं समस्त आयाम छुपे हैं। इस संदर्भ में अन्य अनेक सिद्धांत भी मान्य हैं।

प्रश्न – रंगकर्मी के रूप में आपकी विशिष्ट पहचान है। रंगमंच और साहित्य व अध्यात्म एक-दूसरे को कैसे और कितना प्रभावित करते हैं।

उत्तर – जीवन ही रंगमंच है। अपितु वृहद और अधिक चुनौतियाँ व तदनुरूप अधिक अवसर प्रदान करनेवाला रंगमंच। मनुष्य एक ही समय, अनेक भूमिकाओं का निर्वहन कर रहा होता है।  मेरे अल्प ज्ञान में सारी भूमिकाएँ पूरक हैं। जगत अनन्योश्रित है। अत: एक-दूसरे से प्रभावित होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। अध्यात्म हो, साहित्य या रंगकर्म, मूलाधार तो समान है पर सबका स्थूल स्वरूप या ट्रीटमेंट भिन्न है।

प्रश्न – 19 मई 2021 को आपदां अपहर्तारं समूह को एक 1 वर्ष पूरा हो रहा है। गत एक वर्ष में समूह की यात्रा को आप किस तरह से देखते हैं।

उत्तर – वॉट्सएप समूह होते हुए भी आपदां अपहर्तारं की कार्यप्रणाली भी ईश्वर की अनुकम्पा से अभिनव ही है। आप इससे जुड़े हैं, अत: इसकी कार्यप्रणाली से भली-भाँति परिचित हैं। विभिन्न साधनाएँ ऑनलाइन हो सकती हैं, श्रीरामचरितमानस का पारायण ऑनलाइन हो सकता है, सत्संग एवं प्रबोधन ऑनलाइन हो सकता है, घर पर रहकर आप चक्रीय साधना की सामूहिकता अनुभव कर सकते हैं, यह सब सचमुच कल्पनातीत था पर कर्ता करवाता रहा, हम सब निमित्त होते गए।

श्रीरामरक्षास्तोत्रम् के पाठ से प्रथम साधना आरंभ हुई थी। प्रथम साधना से ही देश भर से जुड़े साधकों ने धन्य कर दिया। विनम्रता से सूचित करना चाहता हूँ कि साधकों ने इन 365 दिनों में लगभग चार करोड़ बार नाम सुमिरन किया। विशेष बात यह कि साधना का कम से कम पचास प्रतिशत ( कुछ साधनाओं का शत प्रतिशत) कोविड की आपदा के नाश के लिए समर्पित किया गया। एक पाठ/माला से लेकर एक दिन में ग्यारह सौ से अधिक मालाजप करने वाले साधक इस परिवार में मनके की तरह सह-अस्तित्व लिए चल रहे हैं। राघव साधना हो या माधव साधना, श्रावण हो या पुरुषोत्तम मास या मार्गशीष मास साधना, श्रीगणेश साधना हो या गायत्री साधना, अथर्वशीर्ष का पाठ हो रूद्राष्टकम्, माँ शारदा साधना हो या श्रीहरि साधना, साधकों ने इस समूह को अखंड, अविरल भागीरथी बना दिया। श्रीरामचरितमानस का पारायण भी अद्भुत रहा।

हमारे आध्यात्मिक, धार्मिक ग्रंथ अनन्य साहित्यिक संपदा भी हैं। इनका पारायण आध्यात्मिक के साथ साहित्यिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर भी प्रदान करता है।

ईश्वर की असीम अनुकम्पा से आपदां अपहर्तारं समूह ने साधकों के जीवन में सकारात्मकता का अपूर्व बल दिया है। साधकों की आशु प्रतिक्रियाओं में आप इसकी प्रतिध्वनि सुन सकते हैं। मैं नतमस्तक भाव से इसे उपलब्धि के रूप में ग्रहण करता हूँ।

प्रश्न – समूह एवं आध्यात्मिक अभियान को लेकर भविष्य की योजनाएँ क्या हैं?

उत्तर – जहाँ तक समूह का प्रश्न है, इसके कार्य का निरंतर विस्तार हुआ है। विगत वर्ष भर हम पारिवारिक स्तर पर इसका प्रबंधन देखते रहे हैं। अब जिस तरह का विस्तार है, उसे देखते हुए कुछ प्रोफेशनल हाथ, साथ लेना आवश्यक हो चला है। साधकों से विचार-विमर्श कर इस पर निर्णय लेंगे।

वृहद अभियान के अंतर्गत आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के शमन के उद्देश्य से एक अनुसंधान केंद्र आरम्भ करने का स्वप्न है। इसके पहले कदम के रूप में हम कम से कम दाम या नाममात्र शुल्क पर एक से दो एकड़ ज़मीन खरीद सकने के प्रयास में हैं। मानस है कि पुणे से 30 से 35 किलोमीटर की परिधि में ऐसा स्थान हो जहाँ परिवहन के सामान्य साधन पहुँचते हों। अस्थायी विकल्प के रूप में शहर या शहर से बाहर कोई स्थान लीज़ पर ले सकने की संभावना पर भी काम चल रहा है ताकि ध्यान, सामूहिक साधना और प्रबोधन-सत्संग हो सके।

जीवन का उद्देश्य, जन्म से पहले और मृत्यु के बाद अस्तित्व, ईश्वर की साकार या निराकार अवधारणा जैसे अनेक विषयों पर इस केंद्र में मंथन करना चाहते हैं।

इच्छा है कि वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण, विभिन्न सूत्र-संहिता, अलग-अलग धार्मिक-आध्यात्मिक पुस्तकों का एक वृहद पुस्तकालय यहाँ हो।

प्रयत्न कर रहे हैं, शेष हरि इच्छा!

प्रश्न – अपने व्यक्तित्व में साहित्य और अध्यात्म में किसका पलड़ा भारी पाते हैं?

उत्तर – लेखन और अध्यात्म मेरा समन्वित अस्तित्व हैं। मेरी वृत्ति सत्यार्थी है। साहित्य सत्य का अन्वेषण करता है। सत्य के साथ किसी विशेषण का प्रयोग उचित नहीं, फिर भी कहना चाहूँगा कि अध्यात्म परम सत्य तक ले जाता है। मैं आजीवन सत्यार्थी बना रहना चाहता हूँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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