श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 25
दस्तक देती आँधियाँ — कवयित्री – डॉ. कांतिदेवी लोधी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- दस्तक देती आँधियाँ
विधा- कविता
कवयित्री- डॉ. कांतिदेवी लोधी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
भीतर तक प्रवेश करती आँधियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज
डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी का यह काव्यपुष्प उनके पूर्ववर्ती संग्रह ‘भावों के पदचिह्न’ का विस्तार है। पूर्ववर्ती संग्रह में उभरती प्रतिमाएँ यहाँ पूर्ण आकृति ग्रहण कर सृजन को प्रसूत करती हैं। विभिन्न भावों से विभूषित संवेदनाओं के इस नीड़ का नामकरण कवयित्री ने ‘दस्तक देती आँधियाँ’ किया है।
इस संग्रह में डॉ. लोधी ने अनुभूति और भाव साम्य की दृष्टि से कविताओं को क्रम दिया है। यह क्रम रचनाकार के विभिन्न भावों को कुशलता से चित्रित करने के सामर्थ्य को उभारता है तो कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति और लेखन शैली की सीमाओं को भी चित्रित करता है। समान भावों को एक साथ पिरोते समय यह होना स्वाभाविक है। इस स्वाभाविकता से समझौता किये बिना उसे रेखांकित होने देना कवयित्री की सहजता एवं साहस का परिचायक है।
रचनाएँ, रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ परिचय होती हैं। उन्हें पढ़ते समय आप रचनाकार को भी पढ़ सकते हैं। डॉ. लोधी की रचनाओं से एक ऐसी आकृति उभरती है जो उन्हें प्रयोगधर्मी सर्जक के रूप में स्थापित करती है। कवयित्री कहीं-कहीं सीधे लोकभाषा में संवाद करती हैं तो कहीं अंग्रेजी का एक ही शब्द प्रयोग कर काव्य को वर्तमान धारा और पाठक से सीधे जोड़ देती हैं। वे कहीं साहित्य के शुद्ध भाषा सौंदर्य के साथ बतियाती हैं तो कहीं परिधियों को लांघकर हिन्दी-उर्दू की मिली जुली ज़बान में अपनी बात प्रकट करती हैं। इतने विविध रूपों में एक बात समानता से दिखती है कि कवयित्री हर वर्ग के साथ संवाद स्थापित करने में सफल होती हैं। यही रचना का सामर्थ्य है, यही रचनाकार की विशेषता है। फलत: उनकी आकृति मानसपटल पर अधिक गहरी हो जाती है।
कवयित्री डॉ. लोधी के इस संग्रह में उनकी तीन दशकों की अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं । इन अभिव्यक्तियों के पड़ाव, उनकी भाषा, प्रवाह और भाव कुछ स्थानों पर देखते ही बनते हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता की अनुगूँज है। अधिकाश स्थानों पर यह अनुगूँज प्रकृति की विभिन्न छटाओं के साथ प्रतिध्वनित हुई है। इसका चित्रण करते समय वह नाटककार या कथाकार की-सी कुशलता से एक चित्र का वर्णन करते हुए दूसरे को अवचेतन में इतना प्रभावी कर देती हैं कि वह चेतन पर भी हावी हो जाए, फिर हौले से चेतन और अवचेतन का एकाकार कर देती हैं। एकाकार का उदाहरण देखिए-
प्रकृति का अनुपम शृंगार,
हमें मिला अद्भुत उपहार,
कण-कण रोमांचित करती हुई,
बरबस उस कलाकार की याद दिला रही है।
ईश्वर में आस्था और आध्यात्मिकता के स्वर उनकी कई रचनाओं में सुनने को मिलते हैं।
डॉ. लोधी की रचनाओं में प्रकृति के सौंदर्य और शृंगार का चित्रण गहराई से हुआ है। प्रकृति का मानवीकरण बेहद सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। उनकी उपमाएँ शब्दों को जीवित कर देती हैं। बादलों का वर्णन करते हुए वे लिखती है –
मानो कोई नटखट बालक,
मौसी का हाथ छुड़ा, माँ की ओर भाग रहा हो।
इसी भाव की कविताओं में चाय के बागानों को हरे मखमली दुशाले ओढ़े धरती की बेटियाँ कहना या बांस के वृक्षों से आच्छादित द्वीपों को, ‘रात में अनेक दैत्य घुटनों तक पानी में खड़े होकर षड्यंत्र रच रहे हों’ की दृष्टि से देखना उनके काव्य लेखन का सशक्ततम बिंदु है। ये उपमाएँ एक निष्पाप, मासूम-सी अभिव्यक्ति लगती हैं जिनके साथ पाठक लौह-चुंबक सा जुड़ जाता है। प्रकृति के साथ लिखने की यह प्रवृत्ति उन्हें कहीं बादलों से जोडती है, कहीं सागर से, कभी सूर्य से तो कभी नदियों और झरनों से भी ।
कवयित्री की रचनाओं में प्रकृति के विनाश विशेषकर वृक्षों की कटाई को लेकर मार्मिक टिप्पणियाँ हैं। विकास के नाम पर होने वाले इस विनाश का प्रबल विरोधी होने के कारण संभवतः मुझे इन रचनाओं ने अधिक प्रभावित किया है। पर यह भी सत्य है कि वृक्षों के विनाश का दृश्य अपने एक परिजन को खोने की अनुभूति उपस्थित कर देता है-
जिसकी पूजा करती थी सुहागिनें,
अक्षत सौभाग्यदायी वटवृक्ष,
आज क्षत-विक्षत असहाय पड़ा था,
वहाँ आज बहुत बड़ा गड्ढा हो गया है।
शहर में मई महीने में गर्मी के पूछकर आने का अतीत और अब मार्च से ही पाँव पसार कर सो जाने का वर्तमान हृदय में शूल चुभो देता है। सड़क चौड़ी करने के अभियान में घर के बगीचे को काटने के निर्णय से घर को मिली ‘मौत और काले पानी की एक साथ सज़ा,’ ‘वसंत का भ्रम मात्र होना ‘जैसी पंक्तियाँ, उनकी संवेदनाओं को पाठकों के मानसपटल पर सीधे उतार देती हैं।
संवेदना, प्रेम की माता है। रचनाकार का संवेदनशील होना आवश्यक होता है……और संवेदनशील रचनाकार प्रेम पर, फिर वो चाहे जीवन के जिस पड़ाव और जिस स्वरूप का हो, न लिखे, यह हो नहीं सकता । प्रेम को कवयित्री यूँ स्वर देती हैं-
अलक्षित अहिल्या थी मैं, पथ के किनारे और तुम राम हो, मेरे लिए ।
प्रेम के बल पर विभिन्न पड़ावों और कठिनाइयों के बीच सहचर के साथ की सहयात्रा को कांति जी बड़ी मंत्रमुग्ध शैली में ‘हम साथ चलते रहे’ कविता में उकेरती हैं। वानप्रस्थ की बेला में घोसले की परिधियों को पार कर गगन में उड़ानें भरते अपने ही पंछियों को देखकर वे पुलकित हैं तो एकाकी होना उन्हें म्लान भी करता है। पर यहाँ भी उम्र की गठरी बांधे अपने सहचर की अंगुली थामे अंत में वह पूछती हैं, ‘कहाँ है हमारा घर ?’ ‘मैं’ से ‘हम’ होने की प्रक्रिया उनकी प्रेमाभिव्यक्ति को विशाल आयाम प्रदान करती है।
कवयित्री वर्तमान की त्रासदियों और भविष्य की चिंताओं से भी साक्षात्कार करती हैं। ‘मानवीय क्लोन होने की प्रवृत्ति’ में वह भविष्य की भयावहता को अधोरेखित करती हैं। समाज में निरंतर घटते जीवनमूल्यों पर ‘कर्तव्य आज का’ कविता में सीधे प्रश्न करती हैं। ‘दृश्य आज का’ राजनीति के मुखौटों के पीछे दबी कालिख व कटु सच्चाइयों का दर्पण है। ‘हवाएँ ज़हरीली हो गई हैं ‘में आतंकवाद और हिंसा से दुखी आम आदमी स्वर पाता है। ‘मीलों तक कोहरा है’ में अपने समय की सक्रिय खूँख़्वार प्रवृत्तियों और निष्क्रिय प्रतिक्रियाओं पर गहरे शब्द सामर्थ्य का वह परिचय देती हैं।
कवयित्री की रचनाओं में ‘माटी आंगन’ में जहाँ लोकभाषा उभरी है, वहीं कई रचनाएँ उर्दू के शब्द प्रयोग से युक्त हैं। काव्य की विभिन्न धाराओं और मनोभावों के बीच रचनाकार का जो पक्ष मजबूती से उभरता है, वह है उनके भीतर के प्रबल आशावाद का । मनुष्य के भीतर के बौने आदमी से सकारात्मक स्वर सुनने की आशा लिये वे खंडित होते-होते अखंडित रहने का मंत्र फूँकती हैं। आशा के प्रति ये आस्था जीवन और काल की सीमाओं को भी लांघती है। यथा-
प्रतीक्षा है आहट की, जब चाहे चल दूँगी, आस्था-विश्वास भरी, अक्षय डोरी थामे।
डॉ. श्रीमती कांतिदेवी लोधी की रचनाओं का यह संग्रह ‘दस्तक देती आँधियाँ’ स्तरीय है। उन्होने अभिव्यक्ति के सागर में शब्दों को अनमोल मोती लिखा है। शब्द और बह्म को वह समान ऊँचाई पर रखती हैं। शब्दों के माध्यम से वह रचना का पाठक से एकाकार करा देती हैं। अपनी शब्दयात्रा के बीच एक नन्ही आकांक्षा को भी शब्द देती हैं, कहती हैं –
ज़िंदगी की क़िताब में मेरा नाम दर्ज हो,
फूलों की जगह ।
शब्दों की स्वामिनी, भावनाओं की कुशल चितेरी डॉ. कांतिदेवी लोधी की रचनाएँ साहित्य की फुलवारी में गुलाब के पुष्प-सी प्रतिष्ठित हों, यह आशा करता हूँ। भविष्य की शब्द यात्रा के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएँ।
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈