हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ ~  कृति चर्चा ~ मधुर निनाद : गीत संग्रह ~गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” के गीत संग्रह “~ मधुर निनाद ~” पर चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ 

 कृति चर्चा ~ मधुर निनाद : गीत संग्रह ~गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

पुस्तक विवरण –

मधुर निनाद, गीत संग्रह

गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर”

प्रथम संस्करण २०१७

पृष्ठ १३५

मूल्य २००/-

साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर

गीतकार संपर्क चलभाष ८१२७७८९७१०, दूरभाष ०७६१ २६५५५९९)

(आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित)

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा “सलिल”

छंद हीन कविता और तथाकथित नवगीतों के कृत्रिम आर्तनाद से ऊबे अंतर्मन को मधुर निनाद के रस-लय-भाव भरे गीतों का रसपान कर मरुथल की तप्त बालू में वर्षा की तरह सुखद प्रतीति होती है। विसंगतियों और विडम्बनाओं को साहित्य सृजन का लक्श्य मान लेने के वर्तमान दुष्काल में सनातन सलिला नर्मदा के अंचल में स्थित संस्कारधानी जबलपुर में निवास कर रहे अभियंता कवि गोपालकृष्ण चौरसिया “मधुर” का उपनाम ही मधुर नहीं है, उनके गीत भी कृष्ण-वेणु की तान की तरह सुमधुर हैं। कृति के आवरण चित्र में वेणु वादन के सुरों में लीन राधा-कृष्ण और मयूर की छवि ही नहीं, शीर्षक मधुर निनाद भी पाठक को गीतों में अंतर्निहित माधुर्य की प्रतीति करा देता है। प्रख्यात संस्कृत विद्वान आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी ने अपने अभिमत में ठीक ही लिखा है कि मधुर निनाद का अवतरण एक साहित्यिक और रसराज, ब्रजराज की आह्लादिनी शक्ति श्री राधा के अनुपम प्रेम से आप्लावित अत:करण के मधुरतम स्वर का उद्घोष है…..प्रत्येक गीत जहाँ मधुर निनाद शीर्षक को सार्थक करता हुआ नाद ब्रह्म की चिन्मय पीठिका पर विराजित है, वहीं शब्द-शिल्प उपमान चयन पारंपरिकता का आश्रय लेता हुआ चिन्मय श्रृंगार को प्रस्तुत करता है।

विवेच्य कृति में कवि के कैशोर्य से अब तक गत पाँच दशकों से अधिक कालावधि की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। स्वाभाविक है कि कैशोर्य और तारुण्य काल की गीति रचनाओं में रूमानी कल्पनाओं का प्रवेश हो।

इंसान को क्या दे सकोगे?, फूलों सा जग को महकाओ, रे माँझी! अभी न लेना ठाँव, कब से दर-दर भटक रहा है, रूठो नहीं यार आज, युग परिवर्तन चाह रहा, मैं काँटों में राह बनाता जाऊँगा आदि गीतों में अतीत की प्रतीति सहज ही की जा सकती है। इन गीतों का परिपक्व शिल्प, संतुलित भावाभिव्यक्ति, सटीक बिंबादि उस समय अभियांत्रिकी पढ़ रहे कवि की सामर्थ्य और संस्कार के परिचायक हैं।

इनमें व्याप्त गीतानुशासन और शाब्दिक सटीकता का मूल कवि के पारिवारिक संस्कारों में है। कवि के पिता स्वतंत्रता सत्याग्रही स्मृतिशेष माणिकलाल मुसाफिर तथा अग्रजद्वय स्मृतिशेष प्रो. जवाहर लाल चौरसिया “तरुण” व श्री कृष्ण कुमार चौरसिया “पथिक” समर्थ कवि रहे हैं किंतु प्राप्य को स्वीकार कर उसका संवर्धन करने का पूरा श्रेय कवि को है। इन गीतों के कथ्य में कैशोर्योचित रूमानियत के साथ ईश्वर के प्रति लगन के अंकुर भी दृष्टव्य हैं। कवि के भावी जीवन में आध्यात्मिकता के प्रवेश का संकेत इन गीतों में है।

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ ~  कृति चर्चा ~ मैं प्रेम हूँ : उपन्यास ~ डा. रश्मि कौशल ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  डा. रश्मि कौशल जी के उपन्यास  “~ मैं प्रेम हूँ ~” पर चर्चा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 124 ☆ 

☆ कृति चर्चा ~ मैं प्रेम हूँ : उपन्यास ~ डा. रश्मि कौशल ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

‘मैं प्रेम हूँ’ – उपन्यास

डा. रश्मि कौशल

पृ.सं. – 184

मूल्य – 275 रुपये

प्रकाशक – शिल्पायन बुक्स, शाहदरा, दिल्ली,

प्रथम संस्करण 2020

कृतिकार संपर्क – 9711282391

चर्चाकार: आचार्य संजीव.

अमेजन लिंक 👉 ‘मैं प्रेम हूँ’ – उपन्यास – डा. रश्मि कौशल

‘मैं प्रेम हूँ’ राधाभाव रश्मि का अनूठा कौशल – आचार्य संजीव

मानव सभ्यता के जन्म से तुरत पश्चात् से आज तक विकास के हर सोपान पर कथा कहानियाँ चोली-दामन की तरह उसके साथ रही हैं। इऩका जन्म मानव की कौतूहली प्रवृत्ति, औत्सुक्य तथा मनोरंजन की तृप्ति हेतु हुआ। कई कथाओं का उद्देश्यपूर्ण क्रमवार सुगठित प्रस्तुतीकरण उपन्यास है। उपन्यास मानवीय जिजीविषा, स्पर्धा, संघर्ष, समरसता, सहिष्णुता, राग-द्वेष, आदि की समग्र झाँकी प्रस्तुत करते हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, भाषाशैली, देश, काल तथा उद्देश्य उपन्यास के प्रमुख अंग हैं। उपन्यास दो शब्दों उप+न्यास के योग से बना है, जिसका अर्थ आसपास की कहानी या घटनाक्रम है। उपन्यास को मानव जीवन का गाथा भी कहा जा सकता है। उपन्यास का रूपविधान लचीला होता है। प्रेमचंद ने उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र कहा है। उपन्यास के अनेक प्रकार हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सांस्कृतिक, समाजवादी, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, धार्मिक, राजनैतिक, प्रयोगात्मक, तिलस्मी-जादुई, लोक कथात्मक, आंचलिक, रोमानी, जासूसी, आदर्शवादी, नीतिप्रधान, आत्मचरितात्मक, समस्या-प्रधान, भावप्रधान, महाकाव्यात्मक, वातावरण प्रधान, पर्यावरणात्मक, चरित्रप्रधान, कथानक प्रधान, स्त्रीविमर्शवादी, आप्रवासी, पुरुष-विमर्शवादी आदि।

विवेच्य उपन्यास ‘मैं प्रेम हूँ’ धार्मिक भावप्रधान, मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। उपन्यासकार डा. रश्मि कौशल उच्च शिक्षित अभियंता हैं। अनास्था, पश्चिम के अंधानुकरण तथा धर्म व भक्ति को पिछड़ापन मानने के इस संक्रान्तिकाल में इलैक्ट्रॉनिक्स एवं इंजीनियरिंग में डॉक्टरी उपाधि प्राप्त रश्मिजी द्वारा एक भक्ति भाव प्रधान उपन्यास लिखा जाना चकित करता है। उपन्यास के शीर्षक से यह कृति रोमानी होने की प्रतीति होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास कृष्णकाल की बहुचर्चित, अतिलोकप्रिय, विवादास्पद (थी या नहीं थी), अगणित भक्तों की आराध्या सोलह कला से सम्पन्न विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की प्रेयसी, प्रेरणा और शक्ति का स्रोत रही राधा रानी पर केन्द्रित है। ‘राधा हरती भव बाधा’ लोक मानस में राधा की छवि तमाम लोक परंपराओं, रीति रिवाजों, मूल्यों आदि के विपरीत आचरण करने पर भी कल्याणकारी जगदम्बिका की है, जो ईश्वर की आल्हादिनी शक्ति है। जिसके साथ विवाह न हुआ, उसके साथ लुक-छिपकर, लड़-झगड़कर रास रचाने, श्रृंगार कराने तथा जिसके साथ विवाह हुआ उससे प्रायः दूरी पालने के बाद भी राधा लोकमानस में मंगलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित है। राधा थी या नहीं थी, राधा का आचरण अनुकरणीय था या नहीं, राधा-कृष्ण का प्रेम आत्मिक था या दैविक, राधाकृष्ण का विवाह हुआ या नहीं, कृष्ण एक से एक रूपवती, गुणवती पत्नियों के रहते राधा को विस्मृत नहीं कर सके, राधा, कृष्ण द्वारा छोड़ दिए जाने के बाद भी कृष्ण के प्रति समर्पित क्यों रही? दोनों का साहचर्य केवल निर्दोष बालक्रीड़ा थी या कैशोर्य, तारुण्य और यौवन की बेला में परिपुष्ट हुआ नाता, वार्धक्य में दोनों मिले या नहीं? कृष्ण की पटरानियों और राधा का अंतर्संबंध आदि अनेक प्रश्न लोक मानस में उठते और चर्चा का विषय बनते रहते हैं। इस कृति की रचना इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए नहीं की गई, पर विचित्र किंतु सत्य है कि इस कृति का आद्योपांत वाचन करने पर इनमें से हर प्रश्न का सटीक, परिस्थितजन्य, तर्क आधारित उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है।। यह उपन्यासकार रश्मिजी का अद्भुत कौशल है कि वे बिना लिखे भी वह सब लिख सकी हैं, जो पाठक पढ़ना चाहता है।

‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास एक दैवीय अनुभव, सृष्टि से पहले सृष्टि के बाद, रूप और नियम, पृथ्वी पर अवतरण, मिलन, बचपन, गोवर्धन, संबंध, स्पर्श, महारास, विवाह, घर-आँगन, मान, मथुरागमन, विरह, प्रयोजन, उद्धव प्रकरण, मेरा जीवन, मार्गदर्शन, भ्रमण, विलयन, संदेह प्रश्न, तथा सार संग्रह शीर्षक 24 अध्यायों में विभक्त है। हर शीर्षक कथाक्रम की प्रतीति कराता है। सामान्यतः, रचनाकार अपनी रचना का श्रेय खुद लेता है, किंतु रश्मि आभार के क्षण के आरंभ में ही “इस पुस्तक के लिए दैविकता के प्रति जितना भी आभार व्यक्त करूँ वो कम ही होगा। इस पुस्तक में जितनी भी कल्पनाएँ हैं, सत्य हैं, जो कुछ भी है उसका सारा श्रेय दैविकता को देती हूँ।” लिखकर “तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा?” की भंगिमा के साथ कृति को कृष्णार्पित कर देतीं हैं। विवेच्य कृति में पूर्व रश्मिजी काव्य संग्रह ‘बारिश की दीवारें’ तथा ‘दरख्त का दर्पण’, कहानी संग्रह, ‘यह शहर की धूप है’ तथा विज्ञानाधारित उपन्यास ‘मुरली एक रहस्यकथा’ का प्रणयन कर चुकी हैं। व्यावसायिक तकनीकी क्षेत्र में राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवादों में 24 शोधालेख प्रस्तुत कर रश्मि बहुश्रुत और बहुचर्चित हुई हैं।

‘मैं प्रेम हूँ’, न तो शत-प्रतिशत प्रामाणिक दस्तावेज है, न ही कपोल-कल्पना। यह लोक मान्यताओं, पौराणिक साहित्य, लोक परम्पराओं, वैयक्तिक चिंतन तथा प्रचलित धारणाओं का तर्कसंगत सुव्यवस्थित सिलसिलेवार विश्लेषण करता कथाक्रम है। मैं प्रेम हूँ की कथावस्तु सृष्टि रचना पूर्व दैवीय तत्वों के विमर्श, राधारानी के अष्ट रूपों का प्राकट्य, महारास, राधा का प्राकट्य, दाम्पत्य आदि लेखिका की मनःसृष्टि की उपज है। मौलिक चिंतन तथा तर्क सम्मतता के ताने-बाने से बुना गया कथानक यथावश्यक पौराणिक साहित्य से समरसता स्थापित कर अपनी तथ्यपरकता की प्रतीति कराता है। इस तकनीक ने मौलिक चिंतन को दिशाभ्रम से बचाकर लोक-मान्यताओं से संश्लिष्ट रखा है। यह कथानक लोकश्रुत, लोकमान्य, रुचिकर तथा पाठक को चिन्तन परक कल्पनाकाश में उड़ान भरने का अवसर देने में समर्थ है।

उपन्यास की नायिका राधा का चरित्र-चित्रण महिमामय होना स्वाभाविक है। ‘मैं प्रेम हूँ’ का कृष्ण भी राधा के समतुल्य महिमामय है। उपन्यासांत में राधा कृष्णावलंबित होकर अपेक्षाकृत कम उज्ज्वल प्रतीत होती हैं। सम्भवतः इसका कारण राधा का मूर्तिमंत प्रेम होना है। प्रेम में आत्मोत्सर्ग प्रेमी के प्रति समर्पण और प्रेमी में विलय के त्रिचरणीय सोपानों पर राधा के चरित्र का विकास किया गया है। कृष्ण पर गद्य और पद्य में असंख्य लघु-दीर्घ रचनाएँ सहज उपलब्ध हैं, किंतु राधा पर लेखन मुख्यतः राधाभक्तिधारा तक सीमित रह गया है। रश्मि ने राधा पर स्वतंत्र औपन्यासिक कृति की रचना कर साहस का परिचय दिया है, जोखिम उठाया है। राधा थी या नहीं? यह युधिष्ठिर के यक्ष प्रश्न की तरह चिरकाल तक पूछा-बूझा जाता रहेगा। ‘एक दैवीय अनुभव’ के अंतर्गत स्वयं रश्मि भी इस तथ्य का उल्लेख करती हैं। राधा पर लिखित अपनी कविता में वे ‘राधा कौन थी?’ इस प्रश्न के विविध पहलुओं और विकल्पों से दो-चार होती हैं किन्तु कोई मान्यता पाठक पर थोपती नहीं, उसे चिंतन करने का अवकाश देती हैं। अंतत:, वे राधा की ही शरण गहतीं हैं और तब राधा अनुकंपा कर उनके मानस के प्रश्नों के उत्तर ही नहीं देतीं, अपनी समूची कथा में प्रवेश कराकर उन्हें कृतकृत्य करती हैं।

‘सृष्टि से पहले’ के घटनाक्रम की बृहद् आरण्यक उपनिषद् में वर्णित कथा से साम्यता है। पुरुष (ब्रह्म) से उत्पन्न राधा (प्रेम) से सृष्टि उत्पन्न होने का वर्णन अद्भुत है। प्रेम का उद्भव पुरुष के हृदय में होना, प्रेम का पृथक् प्रकट होना, प्रेम के मन में प्रश्न और पुरुष द्वारा उत्तर पठनीय है पुरुष और प्रेम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन रोचक बन पड़ा है। तुम प्रेम हो, तुम्हारी उत्पत्ति मेरे हृदय से हुई है। मैं इस अनंतनिद्रा अवस्था में था। मैंने तुमको अपने भीतर अनुभव किया, मुझमें स्पंदन हुआ मैं भी तुमसे ही जागृत हुआ।

“…जैसे तुम मेरे अंदर थी, मैं तुम्हारे अंदर हूँ। तुम्हारे बिना मैं भी कुछ नहीं है।… तुम्हारी प्रेम-ऊर्जा से संसार की रचना होगी। जैसे तुम मेरे हदय के केंद्र में स्थित थीं, अब यह सारा अनगिनत ब्रह्माण्ड अनंत तक होगा और तुम उसका केंद्र होओगी। तुम्हारे बिना सृष्टि असंभव है, इसलिए तुम्हारा जन्म हुआ है।” इस प्रसंग में पुरुष से प्रेम की उत्पत्ति वर्णित है तथा प्रेम से सृष्टि के जन्म का संकेत है। प्रेम कहता है- ”पुरुष मुझे अपनी तरफ खींच रहा था, जैसे मैं फिर से उसमें समा जाऊँगी। पुरुष ने प्रकृति को इशारा किया। प्रकृति ने तुरंत मेरे पैरों में नूपुर बाँध दिए और पुरुष के हाथ में बाँसुरी दे दी। मेरे कदम बढ़े और नूपुरों की ध्वनि निकली, साथ ही बन रही सृष्टि में गूँजा एक मधुर संगीत बाँसुरी का संगीत। पुरुष एक के बाद एक धुनें बजा रहा था, मेरे कदम जो उसमें समाने के लिए निकले थे, वे धीरे धीरे नृत्य करने लगे। पुरुष भी झूम रहा था औऱ हम दोनों के कदमों की आवाज से, नृत्य और संगीत से हुए कंपन से सृष्टि में निर्माण हुआ अनंत ब्रह्माण्ड, अनेक सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, देव, यक्ष, गंधर्व, ब्रह्मराक्षस, असुर और अनेकानेक प्राणियों की उत्पत्ति हुई।” यहाँ प्रकृति कौन है, कहाँ से आई, प्रकृति पुरुष से उत्पन्न हुई या पुरुष प्रकृति से, जैसे प्रश्न उठते हैं किंतु अनुत्तरित हैं।

पुरुष के चरणों से ‘काल’ का जन्म जहाँ ‘काल’ वहाँ ‘मोह’ से परे, सृष्टि निवासियों द्वारा सीमोल्लंघन, महाविष्णु, महादेव, पुरुष, प्रेम का सृष्टि के सुचारु संचालन हेतु गोलोक में अवतरण… यहाँ पुनः प्रश्न उठता है कि महाविष्णु व महादेव पुरुष से उत्पन्न हुए या उऩकी स्वतंत्र सत्ता है? जिस तरह ‘पुरुष’ से ‘प्रेम’ उत्पन्न हुआ क्या वैसे ही महाविष्णु व महादेव से भी किसी तत्त्व की उत्पत्ति हुई? गोलोक के नीचे वैकुण्ठ और शिवलोक का संकेत है किंतु भूलोक या अन्य लोकों का नहीं। कालांतर में सिद्धों, मुनियों, देवों के आग्रह पर पुरुष और प्रेम, नर-नारी का रूप लेकर गोलोक में दृष्टिगोचर हुए, जिन्हें पृथ्वीलोक के प्रबुद्ध जनों ने ‘कृष्ण’ और ‘राधा’ नाम दिया। गोलोक में राधा-कृष्ण एक-दूसरे के आराध्य हैं।

‘सृष्टि के बाद’ अध्याय में असुरों का अनाचार, कृष्णभक्त श्रीदामा द्वारा प्रेम (राधा) की अवमानना से फलस्वरूप शंखचूड़ के रूप में जन्म, राधा की कला के अंश से तुलसी का जन्म, राधा के अंश से विरजा का जन्म, राधा-कृष्ण से गंगा की उत्पत्ति, कृष्ण-राधा का अवतरण आदि प्रसंगों का संकेत ब्रह्मवैवर्त पुराण से संकलित है। ‘रूप’ और ‘निगम’ शीर्षक अध्याय में शिव तथा विष्णु के आग्रह पर कृष्ण का विष्णु व राधा का लक्ष्मीरूप धारण करना, कश्यप, अदिति तथा द्रोण व धरा द्वारा तप, हरि का संग चाहनेवालों के जन्मादि का प्रसंग है। ‘पृथ्वी पर अवतरण’ नामक अध्याय में राधा-कृष्ण-योगमाया का धरावतरण, नश्वर सृष्टि देह बंधनों आदि का संकेत है। ‘मिलन’ अध्याय में राधा के 11 माह बाद कृष्ण का जन्म वर्णित है। शैशव से परस्पर आकर्षण, कृष्ण द्वारा असुरवध, बाल लीलाएँ, बचपन शीर्षक अध्याय में वकासुर, तथा कालिय मर्दन, राधा की मानरक्षा, गोवर्धन अध्याय में राधा के सहयोग से कृष्ण द्वारा गोवर्धन धारण वर्णित है। संबंध अध्याय राधा-कृष्ण-मैत्री से उठते लोकापवादों, दुर्वासा के आगमन, राधा की बालसुलभ जिज्ञासाओं पर केंद्रित है। स्पर्श अध्याय में ग्यारह वर्षीया राधा तथा दस वर्षीय कृष्ण की विविध लीलाएँ हैं, देवी द्वारा नृत्य शिक्षा तथा रास का आध्यात्मिक अर्थ ‘महारास’अध्याय का वर्ण्य विषय है। राधा के अनुसार– “रास एक क्रिया का नाम है, जिसके द्वारा ऊर्जा एकत्रित की गई थी, पृथ्वी के संतुलन के लिए, युग-युगांतर के लिए…. रास समाधि की वह अवस्था है, जहाँ हममें से कोई भी न शरीर होता था, न मन, न ही कर्मों में लिपटा आत्मन। हम सब सिर्फ ऊर्जा के रूप में थे।”

इसमें भाग लेनेवाली हर गोपी आध्यात्मिक शिखर पर थी… कृष्ण माया का उपयोग अवश्य करते थे तकि गोपियाँ अगले दिन सब भूल जाएँ… हमारी ऊर्जा का स्पंदन गाँव से निकल कर, पृथ्वी के वातावरण को चीरते हुए त्रिलोक में फैलने लगा… आगे महाभारत होने वाला था, उसमें जितना विध्वंस होता उसी को कमतर करने के लिए महारास की जरूरत थी अगर कोई मानव चाहे तो अपने अंदर इस महारास को देख सकता है।। उन 144 ऊर्जा-केंद्नों को समझ सकता है, सर्वशक्तिमान परब्रह्म का अनुभव कर सकता है परमानंद पा सकता है, परब्रह्म में विलीन हो सकता है।…”

बढ़ते लोकापवादों को समाप्त करने के लिए राधा-अमन विवाह, राधा की कृष्णमयता, ससुर नंद का रोष, घर-आँगन तथा महल अध्यायों में है। मथुरा गमन तथा विरह शीर्षक ही अध्यायों के कथ्य का संकेत देते हैं। प्रयोजन अध्याय में लेखिका कृष्ण के माध्यम से महारास पर और प्रकाश डालती है। रास में गोपेश्वर शिव के सम्मिलित होने पर राधा के प्रश्नों के उत्तर में कृष्ण कहते हैं- “वो सृजन और संहार की युगलबंदी हैं जिसे पाना आसान नहीं है… ऊर्जा संतुलन के लिए महारास का प्रयोजन (आयोजन) अनिवार्य था। महाभारत के लिए आसुरी शक्तियाँ थीं और महारास के लिए सात्त्विक प्रेम शक्तियाँ। ” इन प्रसंगों में राधा-कृष्ण की अभिन्नता, और एक दूसरे के बिना अपूर्णता जगह-जगह द्रष्टव्य है।

ब्रह्मज्ञान के गर्व से भरे उद्धव और प्रेमभक्ति में निमग्न गोपियों का संवाद उद्धव प्रकरण अध्याय में है। कृष्ण के जीवन की उथल-पुथल तथा आठ विवाहों का संकेत कर राधा कहती हैं- “उन आठों का उनके भौतिक जीवन पर अधिकार था और मेरे जीवन की हर साँस पर कृष्ण का नाम था, कृष्ण का अधिकार था।” लोक की दृष्टि में अमन की पत्नी की सांस पर कृष्ण का अधिकार कैसे मान्य होता?

स्वप्न साक्षात्कार में पधारे कृष्ण ने राधा को व्यावहारिक-आध्यात्मिक दीक्षा देकर मार्गदर्शन भी किया। राधा और अमन को हर (श्यामवर्णी) और हरि (गौरवर्णी) पुत्रों की प्राप्ति हुई। नंद बाबा द्वारा राधा से प्रेम और भक्ति का ज्ञान पाना, राधा के सास-ससुर तथा पति तथा दोनों पुत्रों का महाप्रस्थान, राधा द्वारा उद्धव व सखियों को ज्ञान देना, दोनों पटरानियों का रास से साक्षात्का,र राधा का चिर कैशोर्य तथा कांति देख विस्मित होना, ईर्ष्यावश गर्म दूध पिलाना, कृष्ण के पाँवों में छाले होना, कृष्ण द्वारा रोग के निवारणार्थ रानियों से उनकी चरणरज शीश पर लगाने का अनुरोध, रानियों का भय-संकोच और समाचार मिलते ही राधा द्वारा अपना पग कृष्ण के शीश पर रखकर उन्हें निरोग करने का प्रसंग राधा-कृष्ण की अभिन्नता और ऐक्य इंगित करते हैं। ‘विलयन’ के अध्याय में रुक्मिणी द्वारा आमंत्रण, राधा और गोपियों का द्वारका-गमन, वापिसी के समय कृष्ण विरह से व्याकुल गोपियों के अश्रुपात से भरे सरोवर में 26 गोपियों का देहपात, कृष्ण द्वारा राधा को रोकना, राधा द्वारा वृद्धा का रूप धारणकर रसोई बनाना, दुर्वासा को आभास, राधा द्वारा बनाई खीर का सेवनकर जूठी खीर में तपोबल मिलाकर कृष्ण के तन पर मलने हेतु कहना, कृष्ण द्वारा ऋषि-प्रसाद पाँवों पर न लगाना, दुर्वासा का चिंतित होकर पैरों का विशेष ध्यान रखने का संकेत करना, सांब द्वारा दुर्वासा का उपहास, दुर्वासा द्वारा शाप, कृष्ण का राधा के रंग में रंगकर पांडुरंग होना, व्याध जरा द्वारा कृष्ण वध तथा द्वारका का समुद्र में विलय होने के साथ उपन्यास का पटाक्षेप होता है।

परिशिष्टवत् संदेह-प्रश्न के अंतर्गत कुछ प्रश्नोत्तर हैं, जिनके अंत में राधाजी लेखिका को बतलातीं हैं कि वे लेखिका (हर भक्त) के अभ्यंतर में प्रेम रूप में हैं, अपने भीतर डूबकर उन्हें पाया जा सकता है। ‘सार-संग्रह’ में लेखिका की आत्मानुभूति है, उसका वैज्ञानिक मन, आध्यात्मिक अनुभूतियों से समायोजन स्थापित कर जो पाता है, वही राधा-कृष्ण का प्रसाद मानकर पाठकों में बाँट देता है। तदनुसार जीवन प्रेम है, प्रेम से उत्पन्न, प्रेम में लीन, प्रेम में विलीन… और बिन गुरु ज्ञान कहाँ से पाऊँ… अतः, गुरु के प्रति आभार।

‘मैं प्रेम हूँ’ में मुख्य तथा गौण पात्रों का चरित्र-चित्रण स्थूल रूप से कम, उऩकी मनोवृत्ति के संकेत के रूप में अधिक है। इस तकनीक से लेखिका ने अनावश्यक विस्तार से बचकर कथा को गति तथा दिशा देने में सफलता पाई है। इसी तरह कथोपकथन में पारस्परिक प्रश्नोत्तरी संवाद न्यून तथा वर्णनात्मक अभिकथन अधिक है। यह शिल्प हर संवाद के माध्यम से वह उद्घाटित करता है जिससे कथा तथा घटनाक्रम आगे बढ़ते रहे। घटनाओं को क्रमानुसार न रखकर, कथाक्रम की उपादेयता के अनुसार रखा गया है। इस तरह लेखिका अपनी विचार सरणि में पात्रों को भटकाव के भँवर से बचाकर सुरक्षित पार लगा सकी है।

उपन्यास की भाषा शैली विषय की गूढ़ता, आध्यात्मिक प्रसंगों में अभिव्यक्ति की जटिलता शब्दों की सीमित सामर्थ्य तथा पाठक की ग्रहण क्षमता के परिप्रेक्ष्य में सरल, सुबोध, सटीक तथा सहज है। उपन्यास का देश-काल अति विस्तृत है। राधा-कृष्ण के अवतरण से पूर्व प्रसंग पाठक के मन में पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। उन्हें राधा की आत्मानुभूति के रूप में कथाक्रम में पिरोया जा सकता था। पूरे उपन्यास में राधा की भूमिका द्वितीयक तथा कृष्ण की प्राथमिक है, बावजूद इसके कि स्वयं कृष्ण स्वीकारते हैं कि राधा-रहित कृष्ण नहीं हो सकते। ‘मैं प्रेम हूँ’ नायिका प्रधान उपन्यास है किन्तु नायिका हर प्रसंग में नायक पर आश्रित है, नायक उसमें संबल खोजता है पर बल पाता नहीं, देता हुआ मिलता है। उपन्यास का उद्देश्य राधा-कृष्ण का एकत्व प्रतिपादित करना है, और वह भली प्रकार से प्रतिपादित हुआ भी है। लेखिका अपनी विज्ञान के प्रति वैचारिक पृष्ठभूमि में अध्यात्मजनित कथांकुरों को पल्लवित-पुष्पित करने में पूरी तरह सफल है।

डा. अवधेश प्रसाद सिंह ठीक ही लिखते हैं कि “वर्णित सारी घटनाएँ ऐसी हैं जैसे किसी ने सब कुछ अपनी आँखों देखा है।” श्रीपाद कश्यप के मत में – “पुराणों का ज्ञान, तथ्यों का ताना-बाना, रचनात्मकता, भावनाओं और दृश्यों की क्रमबद्ध बेहतरीन प्रस्तुति पुस्तक को पठनीय बनाता है।”

‘मैं प्रेम हूँ’ में प्रेम भाव की सघनता इतनी अधिक है कि कृष्ण भारद्वाज के शब्दों में “ पहली बार ऐसा लगा कि मैं राधाजी बन जाऊँ। पूर्ण प्रेम बन जाऊँ।” शिवी शर्मा इस कृति को “आधुनिक ग्रंथ के समान तथा दैविक प्रेरणा के वशीभूत लिखी गई” पाते हैं। डा. अश्विनी इंदुलकर इस किताब को पढ़ते समय खुद को कृष्ण भगवान् के युग में अनुभव करत हैं। “जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…”

मुझे एक पाठक के नाते ‘मैं प्रेम हूँ’ का प्रथमतः वाचन करते समय भावलोक में विचरण कर धन्यता की प्रतीति हुई। ‘मैं प्रेम हूँ’ का द्वितीय वाचन अपने अंतर्मन के सामान्यतः अज्ञात रहे पक्ष को उद्घाटित करता लगा और यह विवेचन लिखते समय उपन्यास को उलटते-पलटते हुए राधा-कृष्ण की विविध छवियों की साक्षात् प्रति हुई।

राधा-कृष्ण ही नहीं, अन्य पौराणिक पात्रों, घटनाओं आदि पर क औपन्यासिक कृतियाँ तथा प्रबंध काव्यों को पढ़ने का सौभाग्य मिला है। प्रायः रचनाकारों के पांडित्य प्रदर्शन से उन्हें सराबोर पाया है। कई कृतियों में पात्रों के संवादों, गतिविधियों आदि से रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता झलकती है तब ऐसा प्रतीत होता कि किसी कठपुतली को दूसरी कठपुतली की वेश-भूषा पहना दी गयी है।

रश्मि का कौशल यह है कि वह उपन्यास की हर पंक्ति, हर शब्द में होकर भी कहीं नहीं है। भोजन की थाली में हर व्यंजन में पानी होता है पर ऊपरी दृष्टि से कहीं नहीं दिखता। रश्मि के अभियंता के रूप में कथ्यानुशासन, वैज्ञानिक तथ्यों का नवान्वेषण, भक्त की भावपरकता, लेखिका का अभिव्यक्ति सामर्थ्य तथा ‘स्व’ को ‘सर्व’ में ढाल सकने के मातृत्व भाव के पंच तत्त्व इस उपन्यास की रचना करते हुए, सृजन में लीन सृष्टि में विलीन होकर पाठक मन में पुन: पुनः अवतरित होते हैं। यह लेखिका की सृजन साधना की सफलता है।

अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान के इस त्रिवेणी संगम में हर चैतन्य पाठक को अवगाहन करना चाहिए। पौराणिक औपनिषदिक कथ्यों को विज्ञान सम्मत तथ्यपरकता के साथ संगुंफित कर सत्साहित्य सृजन का सारस्वत अनुष्ठान सतत चलता रहे तो हिंदी साहित्य समृद्ध होगा तथा युवा पाठकों का अपनी उदात्त विरासत की प्रामाणिकता से भी परिचय होगा।

डा. रश्मि कौशल एक लगभग अछूते विषय पर ‘मैं प्रेम हूँ’ उपन्यास के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति सामर्थ्य की छाप छोड़ सकी हैं। कथ्य का संक्षेपीकरण-सरलीकरण, नीर-क्षीर-विश्लेषण, घटनाओं की तारतम्यता, पौराणिक प्रसंगों का यथार्थपरक वर्णन तथा सुगठित कथाक्रम कृति की पठनीयता में वृद्धि करता है। जयदेव तथा चैतन्य महाप्रभु प्रणीत राधा भाव भक्ति धारा आंदोलन ने संक्रमण काल में जनगण के मन को शांत-सुदृढ़ करने में महती भूमिका निभाई है। राधाभाव भक्ति का विज्ञान-सम्मत विश्लेषण, राधाभाव धारा को नव आयाम देकर तर्कणा प्रधान नव पीढ़ी को जोड़ने में महती भूमिका का निर्वहन कर सकता है। इस सोद्देश्य सृजन हेतु डा. रश्मि कौशल साधुवाद की पात्र हैं।

समीक्षक – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “कामदेव खंडकाव्य” – सुश्री ऊषा सक्सेना ☆ चर्चाकार – श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

☆ पुस्तक चर्चा  ☆ “कामदेव खंडकाव्य” – सुश्री ऊषा सक्सेना ☆ चर्चाकार – श्री सुरेश पटवा ☆

पुस्तक: कामदेव खंडकाव्य

लेखिका: ऊषा सक्सेना

प्रकाशक: अस्मि प्रकाशन भोपाल

मूल्य: 200/-

समीक्षक: सुरेश पटवा

भारतीय वांग्मय साहित्य मिथकीय चरित्रों का ख़ज़ाना है। जितनी विविधता भारतीय पौराणिक कथाओं में मिलती है उतनी विश्व की किसी सभ्यता में नहीं है। वेदों में प्रकृति के चरों अर्थात् सूर्य, सविता, इंद्र, रुद्र की अभ्यर्थना है। उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांत बिखरे हैं। सिद्धांतों का क़िस्सों-कहानियों के माध्यम से व्यक्तिकरण पुराणों का विषय रहा है।

जीवन की किसी घटना विशेष को लेकर लिखा गया काव्य खण्डकाव्य है। “खण्ड काव्य’ शब्द से ही स्पष्ट होता है कि इसमें मानव जीवन की किसी एक ही घटना की प्रधानता रहती है। जिसमें नायक या नायिका का जीवन सम्पूर्ण रूप में कवि को प्रभावित नहीं करता। कवि चरित्र के जीवन की किसी सर्वोत्कृष्ट घटना से प्रभावित होकर जीवन के उस खण्ड विशेष का अपने काव्य में पूर्णतया उद्घाटन करता है। कामदेव के जीवन की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना को लेकर यह खंड काव्य रचा गया है। संस्कृत साहित्य में खंडकाव्य की एकमात्र परिभाषा साहित्य दर्पण में उपलब्ध है वह इस प्रकार है-

भाषा विभाषा नियमात् काव्यं सर्गसमुत्थितम्।
एकार्थप्रवणै: पद्यै: संधि-साग्रयवर्जितम्।
खंड काव्यं भवेत् काव्यस्यैक देशानुसारि च।

इस परिभाषा के अनुसार किसी भाषा या उपभाषा में सर्गबद्ध एवं एक कथा का निरूपक ऐसा पद्यात्मक ग्रंथ जिसमें सभी संधियां न हों वह खंडकाव्य है। वह महाकाव्य के केवल एक अंश का ही अनुसरण करता है।

तदनुसार हिंदी के कतिपय आचार्य खंडकाव्य ऐसे काव्य को मानते हैं जिसकी रचना तो महाकाव्य के ढंग पर की गई हो पर उसमें समग्र जीवन न ग्रहण कर केवल उसका खंड विशेष ही ग्रहण किया गया हो। अर्थात् खंडकाव्य में एक खंड जीवन इस प्रकार व्यक्त किया जाता है जिससे वह प्रस्तुत रचना के रूप में स्वत: प्रतीत हो।

वस्तुत: खंडकाव्य एक ऐसा पद्यबद्ध काव्य है जिसके कथानक में एकात्मक अन्विति हो; कथा में एकांगिता (साहित्य दर्पण के शब्दों में एकदेशीयता) हो तथा कथाविन्यास क्रम में आरंभ, विकास, चरम सीमा और निश्चित उद्देश्य में परिणति हो और वह आकार में लघु हो। लघुता के मापदंड के रूप में आठ से कम सर्गों के प्रबंधकाव्य को खंडकाव्य माना जाता है।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सिद्धांतों का व्यावहारिक पहलू कथाओं में पिरोकर पुराणों में अभिव्यक्त हुआ है। श्रीमति उषा सक्सेना जी ने इनमे से एक पुरुषार्थ “काम” पर खंड काव्य लिखने का साहसी कार्य किया है। वे अनादि शिव-शक्ति के वैयक्तिक पूजनीय स्वरूप शिव-पार्वती को सृष्टि हेतु मिलाकर शिव पुत्र कार्तिकय से तारकासुर राक्षस का वध कराने की कहानी के माध्यम से काम को भस्म करवाती हैं। फिर अनंग रूप में स्थापित करवाती हैं। लेखिका की सनातन धार्मिक साहित्य पर पकड़ काव्य धारा को विचलित नहीं होने देती है। कथा अविचल चलती है। उनकी सरस कविताओं में सरल प्रवाह है। यह तब ही सम्भव है जब रचनाकार की विषय पर पकड़ हो। शैली सपाट और बोधगम्य है। कहीं दुरूहता नहीं नज़र आती।

श्रीमती उषा सक्सेना जी को इस खंड काव्य की रचना एवं प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि उनकी इस कृति को साहित्य रसिकों का प्रतिसाद अवश्य मिलेगा।

सुरेश पटवा

(लेखक, विचारक, उपन्यासकार, समीक्षक कवि)

भोपाल,  मध्यप्रदेश। मो 9926294974

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 123 ☆ ~ कृति चर्चा ~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान ~ कल्पना रामानी ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  कृति चर्चा और कृति है कल्पना रामानी जी का नवगीत संग्रह “~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 123 ☆ 

कृति चर्चा ~ हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान ~ कल्पना रामानी ☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

कृति चर्चा:

हौसलों के पंख : नवगीत की उड़ान

चर्चाकार: आचार्य संजीव.

[कृति विवरण: हौसलों के पंख, नवगीत संग्रह, कल्पना रामानी, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, नवगीत ६५, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद].

ओम निश्चल: ‘गीत-नवगीत के क्षेत्र में इधर अवरोध सा आया है. कुछ वरिष्‍ठ कवि फिर भी अपनी टेक पर लिख रहे हैं… एक वक्‍त उनके गीत… एक नया रोमानी उन्माद पैदा करते थे पर धीरेधीरे ऐसे जीवंत गीत लिखने वाली पीढी खत्‍म हो गयी. कुछ कवि अन्य विधाओं में चले गए …. नये संग्रह भी विशेष चर्चा न पा सके. तो क्‍या गीतों की आभा मंद पड़ गयी है या अब वैसे सिद्ध गीतकार नहीं रहे?’

‘गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्रा में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। ‘कम बोले से अधिक समझना’ की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है। भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है। गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है।’

उक्त दो बयानों के परिप्रेक्ष्य में नवगीतकार कल्पना रामानी के प्रथम नवगीत संग्रह ‘हौसलों के पंख’ को पढ़ना और और उस पर लिखना दिलचस्प है।

कल्पना जी उस सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसके लिए साहित्य रचा जाता है और जो साहित्य से जुड़कर उसे सफल बनाता है। जहाँ तक ओम जी का प्रश्न है वे जिस ‘रोमानी उन्माद’ का उल्लेख करते हैं वह उम्र के एक पड़ाव पर एक मानसिकता विशेष की पहचान होता है। आज के सामाजिक परिवेश और विशेषकर जीवनोद्देश्य लेकर चलनेवाले युवाओं नई ने इसे हाशिये पर रखना आरंभ कर दिया है। अब किसी का आँचल छू जाने से सिहरन नहीं होती, आँख मिल जाने से प्यार नहीं होता। तन और मन को अलग-अलग समझने के इस दौर में नवगीत निराला काल के छायावादी स्पर्शयुक्त और छंदमुक्त रोमांस तक सीमित नहीं रह सकता।

कल्पना जी के जमीन से जुड़े ये नवगीत किसी वायवी संसार में विचरण नहीं कराते अपितु जीवन जैसा ही देखते हुए बेहतर बनाने की बात करते हैं। कल्पना की कल्पना भी सम्भावना के समीप है कपोल कल्पना नहीं। जीवन के उत्तरार्ध में रोग, जीवन साथी का विछोह अर्थात नियतिजनित एकाकीपन से जूझ और मृत्यु के संस्पर्श से विजयी होकर आने के पश्चात उनकी जिजीविषाजयी कलम जीवन के प्रति अनुराग-विराग को एक साथ साधती है। ऐसा गीतकार पूर्व निर्धारित मानकों की कैद को अंतिम सत्य कैसे मान सकता है? कल्पना जी नवगीत और गीत से सुपरिचित होने पर भी वैसा ही रचती हैं जैसा उन्हें उपयुक्त लगता है लेकिन वे इसके पहले मानकों से न केवल परिचय प्राप्त करती हैं, उनको सीखती भी हैं।

प्रतिष्ठित नवगीतकार यश मालवीय ठीक ही कहते हैं कि ‘रचनाधर्मिता के बीज कभी भी किसी भी उम्र में रचनाकार-मन में सुगबुगा सकते हैं और सघन छायादार दरख्त बन सकते हैं।’

डॉ. अमिताभ त्रिपाठी इन गीतों में संवेदना का उदात्त स्तर, साफ़-सुथरा छंद-विधान, सुगठित शब्द-योजना, सहजता, लय तथा प्रवाह की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। कल्पना जी ने भाषिक सहजता-सरलता को शुद्धता के साथ साधने में सफलता पाई है। उनके इन गीतों में संस्कृतनिष्ठ शब्द (संकल्प, विलय, व्योम, सुदर्श, विभोर, चन्द्रिका, अरुणिमा, कुसुमित, प्राण-विधु, जल निकास, नीलांबर, तरुवर, तृण पल्लव्, हिमखंड, मोक्षदायिनी, धरणी, सद्ज्ञान, परिवर्धित, वितान, निर्झरिणी आदि), उर्दू लफ़्ज़ों ( मुश्किलों, हौसलों, लहू. तल्ख, शबनम, लबों, फ़िदा, नादां, कुदरत, फ़िज़ा, रफ़्तार, गुमशुदा, कुदरत, हक़, जुबां, इंक़लाब, फ़र्ज़, क़र्ज़, जिहादियों, मज़ार, मन्नत, दस्तखत, क़ैद, सुर्ख़ियों आदि) के साथ गलबहियाँ डाले हुए देशज शब्दों ( बिजूखा, छटां, जुगाड़, फूल बगिया, तलक आदि) से गले मिलते हैं।

इन नवगीतों में शब्द युग्मों (नज़र-नज़ारे, पुष्प-पल्लव, विहग वृन्दों, मुग्ध-मौसम, जीव-जगत, अर्पण-तर्पण, विजन वन, फल-फूल, नीड़चूजे, जड़-चेतन, तन-मन, सतरंगी संसार, पापड़-बड़ी-अचार आदि) ने माधुर्य घोला है। नवगीतों में अन्त्यानुप्रास का होना स्वाभाविक है किन्तु कल्पना जी ने छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास का भी प्रयोग प्रचुरता से किया है। इन स्थलों पर नवगीतों में रसधार पुष्ट हुई है। देखें: तृषायुक्त तरुवर तृण, सारू सरिता सागर, साँझ सुरमई, सतरंगी संसार, वरद वन्दिता, कचनार काँप कर, चंचल चपल चारुवदना, सचेतना सुभावना सुकमना, मृदु महक माधुरी, सात सुरों का साजवृन्द, मृगनयनी मृदु बयनभाषिणी, कोमल कंचन काया, कवच कठोर कदाचित, कोयलिया की कूक आदि।

कल्पना जी ने नवल भाषिक प्रयोग करने में कमी नहीं की है: जोश की समिधा, वसुधा का वैभव, निकृष्ट नादां, स्वत्व स्वामिनी, खुशरंग हिना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। महलों का माला से स्वागत, वैतरिणी जगताप हरिणी, पीड़ाहरिणी तुम भागीरथी, विजन वनों की गोद में, साधना से सफल पल-पल, चाह चित से कीजिए, श्री गणेश हो शुभ कर्मों का जैसी अभिव्यक्तियाँ सूक्ति की तरह जिव्हाग्र पर प्रतिष्ठित होने का सामर्थ्य रखती हैं

कल्पना जी के इन नवगीतों में राष्ट्रीय गौरव (यही चित्र स्वाधीन देश का, हस्ताक्षर हिंदी के, हिंदी की मशाल, सुनो स्वदेशप्रेमियों, मिली हमें स्वतंत्रता, जयभारत माँ, पूछ रहा है आज देश), पारिवारिक जुड़ाव (बेटी तुम, अनजनमी बेटी, पापा तुम्हारे लिए, कहलाऊं तेरा सपूत, आज की नारी, जीवन संध्या, माँ के बाद के बाद आदि), सामाजिक सरोकार (मद्य निषेध सजा पन्नो पर, हमारा गाँव, है अकेला आदमी, महानगर में, गाँवों में बसा जीवन, गरम धूप में बचपन ढूँढे, आँगन की तुलसी आदि) के गीतों के साथ भारतीय संस्कृति के उत्सवधर्मिता और प्रकृति परकता के गीत भी मुखर हुए हैं। ऐसे नवगीतों में दिवाली, दशहरा, राम जन्म, सूर्य, शरद पूर्णिमा, संक्रांति, वसंत, फागुन, सावन, शरद आदि आ सके हैं।

पर्यावरण और प्रकृति के प्रति कल्पना जी सजग हैं। जंगल चीखा, कागा रे! मुंडेर छोड़ दे, आ रहा पीछे शिकारी, गोल चाँद की रात, क्यों न हम उत्सव् मनाएं?, जान-जान कर तन-मन हर्षा, फिर से खिले पलाश आदि गीतों में उनकी चिंता अन्तर्निहित है। सामान्यतः नवगीतों में न रहनेवाले साग, मुरब्बे, पापड़, बड़ी, अचार, पायल, चूड़ी आदि ने इन नवगीतों में नवता के साथ-साथ मिठास भी घोली है। बगिया, फुलबगिया, पलाश, लता, हरीतिमा, बेल, तरुवर, तृण, पल्लव, कोयल, पपीहे, मोर, भँवरे, तितलियाँ, चूजे, चिड़िया आदि के साथ रहकर पाठक रुक्षता, नीरसता, विसंगतियोंजनित पीड़ा, विषमता और टूटन को बिसर जाता है।

सारतः विवेच्य कृति का जयघोष करती जिजीविषाओं का तूर्यनाद है। इन नवगीतों में भारतीय आम जन की उत्सवधर्मिता और हर्षप्रियता मुखरित हुई है। कल्पना जी जीवन के संघर्षों पर विजय के हस्ताक्षर अंकित करते हुए इन्हें रचती हैं। इन्हें भिन्न परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकित करना इनके साथ न्याय न होगा। इन्हें गीत-नवगीत के निकष पर न कसकर इनमें निहित रस सलिला में अवगाहन कर आल्हादित अभीष्ट है। कल्पना जी को बधाई जीवट, लगन और सृजन के लिये। सुरुचिपूर्ण और शुद्ध मुद्रण के लिए अंजुमन प्रकाशन का अभिनन्दन।

चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१८-१२-२०२२, ७•३२, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “आवाज की खनक” – श्री मनोज शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “आवाज की खनक” – श्री मनोज शर्मा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मनोज शर्मा और उनकी कविता “मैंने एक कविता लिखी है” -कमलेश भारतीय

मनोज शर्मा जो मेरे छोटे भाई की तरह है । जिन दिनों नवांशहर में था उन दिनों मनोज अपनी हिंदी प्राध्यापिका अहिंसा पाठक के साथ नवांशहर आता । हमारी अनौपचारिक कवि गोष्ठियां उनके घर होतीं । खूब बातचीत भी । फिर मैं चंडीगढ़ चला आया दैनिक ट्रिब्यून में । तब भी मनोज जब जब चंडीगढ़ आता तब तब मुलाकातें होतीं । एक युवा कवि की अंतर की छटपटाहट इन मुलाकातों में हर बार देखने और महसूस करने को मिलती । फिर वह तबादलों की मार में मुम्बई जम्मू तक चला गया और हमारी मुलाकातें नहीं हुईं लेकिन सम्पर्क बना रहा हर शहर में । मैं काफी समय बाद पंचकूला पहुंचा । हरियाणा ग्रंथ अकादमी की जिम्मेवारी में । तब किसान भवन ज्यादा रहता था । एक दिन नीचे हाल में एक कार्यक्रम चल रहा था । यों हो नजर गयी जो मंच संचालन कर रहा था , वह मनोज शर्मा था । मुलाकात हुई । वह भी ट्रांस्फर होकर चंडीगढ़, नाबार्ड में आ चुका था । दोनों आसपास रहते भी फिर न मिल पाये । वह फिर जम्मू ट्रांस्फर हो गया और मैं अपना समय समाप्त होने पर वापिस हिसार । अब मनोज सेवानिवृत्त होकर होशियारपुर है और नया काव्य संकलन भेजा है -आवाज की खनक । मनोज को अपने भाई से बिना कहे एक उम्मीद रहती है कि कुछ तो लिखूंगा । पर थोड़ी देर हो गयी । यूं ही इधर उधर की व्यस्तताओं के चलते । अब तीन दिन से पढ़ रहा था मनोज की कविताएं । नववर्ष की पहली सुबह भी मनोज की कविताओं के साथ गुजारी ।

सच्ची बात कहूं कि मनोज इन वर्षों में कविता में बहुत आगे निकल चुका है । इसकी कविताओं की खनक अब देश सुन रहा है । समझ रहा है । इसकी एक कविता है – मैंने, एक कविता लिखी है । यदि इसे पूरा ही दे दूं तो लगेगा यह उसके पूरे संग्रह का मिजाज , उसकी कविता के तेवर और कविता लिखने की जरूरत सबको एकसाथ बयान करने के लिए काफी है । लीजिए :

एक उबलता कालखंड है

घरों से बाहर आ गये हैं लोग

कि औरतों ने तवे औंधे कर दिये हैं

और मैंने एक कविता लिखी है

जब चढ़ रहा है शेयर बाजार

संसद में आंख मार रहा है , चौकीदार

कोई एक तमाम नीलामियां खरीदता

दुनिया भर के अमीरों को

पिछाड़ने की जुगत में

मैंने एक कविता लिखी है !

लिखी है प्रकृति, जनांदोलन

स्मृति, साम्राज्यवाद, राजनिति लिखी है

बूढ़े मां बाप के इलाज के लिए तरसता

 वह चांद लिखा है

जो बेहिचक झोपड़ों में भी चढ़ आता है

पत्ते, हवायें, नदियां लिखी हैं

और बहुत कोशिश करके

संपादक से की है बात !

,,,

मैंने लिखी है कविता

इसी समय में

साथी भी लिख रहे हैं

कवितायें

धधकतीं !

बताइये पूरा मिजाज इस काव्य संकलन की कविताओं को समझने के लिए काफी नहीं ? इन कविताओं में कवि का दिल रो रहा है देश के वर्तमान कालखंड की दशा देखते हुए ! 

ऐसी ही कविता है -तर्पण । समाचारपत्र में गंगा नदी के किनारे बिना किसी परंपरा के कोरोना के समय शव मिट्टी में दबा दिये गये , जिस पर एक कवि के रूप में तर्पण किया मनोज शर्मा ने । ऐसे ही गूंज कविता में किसान आंदोलन की गूंज और दर्द साफ साफ सुनाई देता है । समाज में बढ़ती असहिष्णुता को बयान किया है -कौन जवाबदेह है कविता में ।

जब बची न हो

असहिष्णुता के बीच थोड़ी सी भी

जगह

सारी कथाओं के प्रति

 कौन जवाबदेह है,,,।।। ?

लीलाधर मंडलोई ने भी लिखा है मनोज के लिए कि यह समय ओर छोर विडम्बना का समय है । यह राजनीति , धर्म , पूंजीवाद से साम्राज्यवाद तक की विडम्बनाओं पर यथासंभव  नजर रखती है और यह अवसाद और असहायता में भी देख पाना सकारात्मक है ।

अनेक कवितायें है जो उल्लेखनीय हैं -जितना भूलना चाहता हूं से लेकर आवाज की खनक तक ! और चिंता रह कि

रोज उमड़ घुमड़ आती हैं

स्मृतियां

बची रहेंगीं कितनी …

ये स्मृतियां ही हैं जो उद्वेलित कर रही हैं और कवितायें जन्म रही हैं ।

मैं मनोज शर्मा को इस काव्य संकलन के लिए हार्दिक बधाई देता हूं । यह खनक आगे भी बनी रहे । शुभकामनाएं ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “काव्य रंग निशा के संग (काव्य-संग्रह)” – डॉ निशा अग्रवाल ☆

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “काव्य रंग निशा के संग (काव्य-संग्रह)” – डॉ निशा अग्रवाल ☆

काव्य रंग निशा के संग (काव्य-संग्रह)

लेखिका : डॉ निशा अग्रवाल

प्रकाशक : SGSH Publication

पृष्ठ – 81 

मूल्य – रु 149/-

अमेज़न लिंक  >> काव्य रंग निशा के संग

 

“अगर रख सको तो एक निशानी हूँ मैं, खो दो तो एक कहानी हूँ मैं” – सुश्री मंजु शर्मा, कैलीफोर्निया

आवरण ही मनमोहक-कमलपुष्प विविध रंगों की आभा बिखेरता हुआ, निशा जी की कर्म के प्रति निर्लिप्तता,निष्कामता प्रतिपादित करता हुआ।

उनकी कविताओं में गहन भावों की निर्झरिणी प्रवाहित होती है जिसमें अवगाहन कर रसानुभूति प्राप्त होती है। डॉ निशा, नारी सशक्तिकरण का सटीक उदाहरण हैं, इस दिशा में किए गए उनके प्रयत्न प्रशंसनीय हैं। कविताओं में भी नारी की व्यथा उभारती हैं। स्वयं शिक्षिका होते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हुए ”निःस्वार्थ भाव से शिक्षा देकर, राहों की रहबर बन जाऊँ” क्या ख़ूब अभिलाषा प्रकट की है। हौसले इतने बुलंद कि मस्त गगन में उड़, चाँद को छूना चाहती हैं। ”अगर रख सको तो एक निशानी हूँ मैं, खो दो तो एक कहानी हूँ मैं” कविता मन क़ो छू गयी। विविध विषयों पर कलमबद्ध कविताएँ और समसामयिक लेख, पाठकों में नवीन ऊर्जा भर चिंतन मनन के लिए प्रेरित करेंगे। 

– सुश्री मंजु शर्मा, कैलीफोर्निया

श्रीमती सुनीता शर्मा, डायरेक्टर, स्वामी विवेकानंद टी टी कॉलेज (जयपुर) को ‘काव्य रंग निशा के संग’ भेंट की। चिरअभिलिप्सित और चिरप्रतीक्षित स्वप्न साकार हुआ। वर्षों से सजे स्वप्न और अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति को काव्य रंग में समेटा है। दिल के एहसासों को शब्दों की माला में पिरोकर कागज़ पर उकेरा है। अहसास के पन्नों से बने पुलिंदे को काव्य रंग में भिगो कर आज आप सभी के लिए लेकर आई हूँ।

मेरे सभी सम्मानित एवं प्रिय साथियों, वरिष्ठ साहित्यकारों , शिक्षाविदों , एवं परिवारजनों  का हार्दिक आभार , जिनके आशीर्वचनों एवं स्नेहिल सहयोग से आज काव्य रंग को मूर्त रूप मिला हैl

डॉ निशा अग्रवाल

“ए जिंदगी जरा आहिस्ता चल..” – ‘राव’ शिवराज पाल सिंह

एक कलमकार अपने आसपास घटित हो रहे घटनाक्रम से प्रभावित होता  ही है, यही बात कवयित्री निशा की कविता “कोरोना का भय” से प्रमाणित होती है। इस कविता में उन्होंने उस भयावह काल की तस्वीर उतार कर रख दी है। दूसरी कविता धन मद में उन्मत्त हुए मानव के उथले चरित्र को बखूबी दर्शाती है। एक अन्य कविता में कवियत्री का अपनी माटी अपनी भाषा से जुड़ाव दिखता है, जो उनके स्वयं की अवधारणाओं के बारे में पाठक को बताता है।

“ए जिंदगी जरा आहिस्ता चल..”  कविता हमें एक ऐसे धरातल पर ले जाती है जहां जीवन का सार तत्व भी है, तो जीवन को व्यर्थ कैसे नही जाने दिया जाए और उसका अधिकतम उपयोग के बारे में परोक्ष रूप से परामर्श भी देती है।

कवयित्री निशा की कलम सशक्त है और सभी तरह की रचनाओं को रचने में सक्षम भी है। मैं निशा अग्रवाल जी को अंत:स्तल से अशेष शुभकामनाएं और बधाइयां।   

 – ‘राव’ शिवराज पाल सिंह

वरिष्ठ साहित्यकार, कॉलम राइटर,  सह-संयोजक INTACH करौली चैप्टर, एक्जीक्यूटिव समिति सदस्य अरावली राजस्थान, राजपूताना इतिहास, धर्म और संस्कृति अध्येता, पक्षी विशेषज्ञ एवम फोटोग्राफर। इनायती, करौली/ जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 127 – “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरे जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “अर्घ…” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 127 ☆

☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

पुस्तक चर्चा

अर्घ, कविता संग्रह

दामिनी खरे

आवरण.. यामिनी खरे

प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल

काव्य रचनाओ  को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे परिवेश के अनुकूल लिखित कविताओं को  पाठक उसी पृष्ठभूमि से  हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके,  जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के  पिछले आवरण पर  रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. प्रस्तुत कृति अर्घ का  आवरण चित्र प्रसिद्ध अव्यवसायिक महिला चित्रकार यामिनी खरे ने बनाया है, छोटे छोटे चित्रों से बना कोलाज ठीक वैसे ही हमारी संस्कृति के विभिन्न आयाम मुखरित करता है जैसे शब्द चित्र किताब की कविताओं से अभिव्यक्त होते हैं ।  आत्मकथ्य में कवियत्री ने लिखा है की उनके रचनात्मक व्यक्तित्व पर उनके पिता की छाप है, मैंने स्व  वासुदेव प्रसाद खरे जी की देवयानी सहित कुछ रचनाएँ सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ी हैं, मैं कह सकता हूँ की दामिनी जी की लेखनी में पिता की  प्रति छाया शैली, छंद विधान, शब्द सागर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। भारतीय सामाजिक परिवेश में अनेक महिलाएं विलक्षण व्यक्तित्व रखती हैं किन्तु विवाह के उपरांत परिवार, बच्चो तथा पति के साथ कदमताल करते हुए उनका निजी व्यक्तित्व शनैः शनैः कहीं खो जाता है, दामिनी जी जैसी बिरली महिलाये ही अपने भीतर उस क्षमता को दीर्घ काल तक सुशुप्त रहते हुए भी प्राणवान बनाये रख पाती हैं।

उन्होंने लिखा ही है

“करके अपना ही पिंड दान, बन दीप शिखा जलती जाती “, बेटियां  शीर्षक से लिखी गई यह कविता उनका भोगा हुआ यथार्थ है।  उनके सुपुत्र ने लैंडमार्क के बहाने उनकी लेखन प्रतिभा को पुनः जागृत करने में  भूमिका निभाई, और लेखिका संघ के व्हाट्स अप ग्रुप ने वह  धरातल दिया जहां बचपन से अब तक के उनके संवेदनशील मन ने जो मानस चित्र बना रखे थे वे शब्दों का रूप लेकर कागज पर उभर सके। पिता के काव्य संस्कारो को पति  का साथ मिला और यह किताब हिंदी जगत को मिल सकी ।  छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण,समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रचनाओं के पुस्तकाकार  प्रकाशन से साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेखिका ने उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाने की कोशिश की  है जिसकी छटपटाहट उनमें कविताओं के लेखन काल से रही होगी.कविताओ  में शाश्वत तथ्य मुखरित हुए हैं। यथा..

“ सुख दुःख में गोते लगाना है जीवन, हर पल ख़ुशी से बिताना है जीवन “

संग्रह में कुल ६१ कविताये हैं, प्रकृति, नारी, राष्ट्र, लोकचेतना, समाज जैसे विषयों पर कलम उठाई गई है।   मैं लेखिका की  कलम की उसी यात्रा में अपने आप को सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं,स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं. लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे मां को इंगित करते हुए लिखती हैं ” धैर्य धरा सा तुमसे सीखा, सीखा कर्म किये जाओ, फल देना ईश्वर के हाथो, तुम केवल चलते जाओ “

बादलों को लक्ष्य कर वे लिखती हैं “कनक कलश से छलक रहे ये वन उपवन को महकाते, नहीं जानते लेना ये बस देना ही देना जाने “

“ जीवन है इक भूल भुलैया, रह ढूँढना रे मन, नई  राह पर चलते चलते धैर्य न खोना रे मन “  इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.

धूप का टुकड़ा शीर्षक से एक रचना का अंश है.. ” सुनो संगीत जीवन का, नहीं मालूम क्या हो कल, मुझे भाता है संग इनका, तुम्हें भी रास आएगा”  जीवन विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये  दामिनी जी किसी परिपक्व वरिष्ठ कवि की तरह  उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.

अर्घ, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं…

भावना के अर्घ देकर चल मना

लौ प्रकम्पित कर रहा मन अर्चना

पंछियों सी अब गगन में उड़ चली

फलक पर नित नवल करती सर्जना

भारत माता शीर्षक से वे लिख रही हैं ” लेते हैं हम शपथ विश्व मे उन्नत मां  का भाल करे, सेवा का प्रण लेकर हम सब सदा स्वार्थ का त्याग करें  ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो दामिनी जी  की लेखनी सफल हो जावे.

उनका  ज्ञान व चिंतन परिपक्व है.  एक रचना अंश  उधृत है ” नैन कह जाते अकथ कहानी, मुखर ह्रदय की वाणी, शीतल सरिता के स्वर, नैन झरे झर झर “

छंद, शब्द सामर्थ्य, बिम्ब योजना हर दृष्टि से कवितायेँ  पठनीय तथा मनन, चिंतन योग्य सन्देश समाहित किये हुए है।  अपनी ” मौन स्वर “कविता में वे लिखती हैं ” जिंदगी के इस सफर में त्याग ही अनुगामिनी है,मौन स्वर तू रागिनी है “

प्रत्येक  रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते  आप को इस कृति  पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

वर्तमान मे – न्यूजर्सी अमेरिका

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 126 – “स्मृति के झरोखे से…” (यात्रा वृतांत) – सुश्री मनोरमा दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री मनोरमा दीक्षित जी द्वारा लिखित यात्रा वृत्तांत  “स्मृति के झरोखे से…” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 126 ☆

☆ “स्मृति के झरोखे से…” (यात्रा वृतांत) – सुश्री मनोरमा दीक्षित ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

पर्यटन व यात्राओ को साहित्य की जननी कहा जाता है. पर्यटन के दौरान साहित्यकार का मन प्रकृति का सानिध्य पाकर स्वाभाविक रूप से उर्वर हो जाता है. नये नये अनुभव व दृश्य वैचारिक विस्फोट करते हैं. कुछ रचनाकार इस अवस्था में उपजे मनोविचारो को तुरंत बिंदु रूप में लिख लेते हैं व अवकाश मिलते ही उस पर रचना लिख डालते हैं. कुछ के मन में उपजे यात्रा जन्य विचार उमड़ते घुमड़ते हुये बड़े लम्बे अंतराल के बाद कविता, कहानी या लेख के रूप में आकार ले पाते हैं, तो अनेक बार मन में ही रचना का गर्भपात भी हो जाता है. यह सब कुछ लेखकीय संवेदनाये हैं. राहुल सास्कृत्यायन जी को घुमक्ड़ी साहित्य का बड़ा श्रेय है. इधर यात्रा साहित्य के क्षेत्र में कुछ नवाचारी प्रयोग भी किये गये हैं. लेखक समूह की किसी स्थान विशेष की यात्रायें आयोजित की गईं, फिर सभी से यात्रा वृत्तांत लिखवाया गया तथा उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है,मुझे ऐसी किताबें पढ़ने व उन पर चर्चा करने  का सौभाग्य मिला है. मैंने पाया कि एक ही यात्रा के सहभागी लेखको की रचनाओ में उनके अनुभवो, वैचारिक स्तर के अनुसार व्यापक वैभिन्य था. अस्तु, इस सब के बाद भी हिन्दी का पर्यटन साहित्य बहुत समृद्ध नही है. ट्रेवेलाग की तरह की किताबों की बड़ी जरूरत है, जिससे पाठक के मन में पर्यटन स्थल के प्रति रुचि जागृत हो, उसे स्थल विशेष की अनुभूत जानकारियां मिल सकें तथा पर्यटन को बढ़ावा मिले. ऐसी पुस्तकें न केवल साहित्य को समृद्ध करती हैं, वरन पर्यटन को बढ़ावा देती हैं.

सुश्री मनोरमा दीक्षित

स्मृति के झरोखे से श्रीमती मनोरमा दीक्षित जी की ऐसी ही अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक के रूप में मेरे सम्मुख आई है. अपने जीवन काल में उन्होने जिन अनेक पर्यटन स्थलो की यात्रायें की हैं उनमें से कुछ जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ, नेपाल, गंगोत्री, यमुनोत्री, हैदराबाद, अमरकंटक, कुल्लू मनाली, घृष्णेश्वर, त्रयम्बकेश्वर, शिरडी, जगन्नाथपुरी, कोणार्क, द्वारिका, रामेश्वरम, तिरुपति बालाजी, सहित उनकी कार्यस्थली मण्डला से जुड़ी अनेक विभूतियों का सविस्तार वर्णन प्रस्तुत पुस्तकमें उन्होने किया है. संक्षिप्त में कहा जावे तो किताब में विषय वैविध्य है. वर्णित स्थलो का आंखों देखा हाल है. सामान्यतः आम आदमी जो यात्रायें करता है, उसके अनुभव उस तक या वाचिक परम्परा से उसके परिवार व मित्रो तक ही सीमित रह जाते हैं, किन्तु जब श्रीमती मनोरमा दीक्षित जैसी कोई विदुषी, साधन संपन्न लेखिका ऐसी यात्रायें करती है तो उनके अनुभवो का लाभ ऐसी पुस्तको के प्रत्येक पाठक को मिलता है. निश्चित ही यह श्रीमती दीक्षित का नवाचारी विचार है, हमारी हार्दिक शुभकामना लेखिका के साथ हैं, मुझे भरोसा है कि यह पुस्तक साहित्य जगत में एक नई दस्तक देगी तथा यात्रा साहित्य के समुचित पुरस्कार से स्मृति के झरोखे से  को सम्मानित कर हिन्दी साहित्य जगत गौरवान्वित होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

वर्तमान मे – न्यूजर्सी अमेरिका

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 125 – “पारा पारा” (उपन्यास) – सुश्री प्रत्यक्षा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री कुमार सुरेश जी द्वारा लिखी कृति  “व्यंग्य राग” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 125 ☆

☆ “पारा पारा” (उपन्यास) – सुश्री प्रत्यक्षा ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

पारा पारा (उपन्यास )

लेखिका.. प्रत्यक्षा

राजकमल पेपरबैक्स

संस्करण २०२२

मूल्य २५०रु

पृष्ठ २३०

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

उपन्यास यहाँ से प्राप्त करें 👉 amzn.to/3R4eQmP  या व्हाट्सएप करें 👉 9311397733

“मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है। मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से, मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती  हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना  चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो” के जवाब में कहा था, “वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, ” बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है। मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो,  कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया। मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं  ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती।“

… पारा पारा से ही न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी  में  प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो  बातचीत  हुई ही  ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर  प्रत्यक्षा के कविता लेखन, चित्रकारी,  कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की। 

समीक्षा के लिए  प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा  लिया।  मजा इसलिए लिख  रहा हूँ क्योंकि  प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है। उनके वाक्य विन्यास, गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं।  स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख  पढ़ रहा हूँ, पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श, इतिहास, भूगोल, सामाजिक सन्दर्भ, वैज्ञानिकता, आधुनिकता, हस्त लिखित चिट्ठियो से  ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन, अनुभव, ज्ञान परिपक्व है।  वे विदेश भ्रमण के संस्मरण, संस्कृत, संस्कृति, अंग्रेजी, साहित्य, कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं।   

उपन्यास के कथानक तथा  कथ्य मे  पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता, डूबता  उतरता रहता है, मानो हेलोवीन में  घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो।  उपन्यास का भाषाई प्रवाह, कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है, जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती, वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती, वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक  परिदृश्य उपस्थित करता है।  इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी।  स्त्री की निजता के सामान  टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा, उपकथा, कथ्य,वर्णन, चरित्र, हीरो, हीरोइन, रचना विन्यास, आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से  मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है, शैली में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।

मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ। 

“….. और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”

“…… एक बार उसने मुझे कहा था-

 “To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It’s a way of life.” वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।

अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में…वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “

इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता  हैं।  उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन  हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है। 

इसी तरह ये अंश पढ़िए। …

“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।

लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “

भले ही प्रत्यक्षा  ने पारा पारा को हीरा, तारा, लीलावती, कुसुमलता, भुवन, जितेन, निर्मल, तारिक, नैन, अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों  के माध्यम से बुना है, और  हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं।  पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को  थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि  यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों  की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं।  उनके  व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास  के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं।  लेखिका के विचारों का, उनके अंतरमन  का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है.

उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों  के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा  “ या   “ नील रतन  नीलांजना.. नैन“. स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है। 

पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल, बिच्छू, जोंक, वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी, एक प्रसंग में वे लिखती हैं “तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था, बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है।  १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं कि हजारों लोग इस हिंसा की बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे, हजारों तो कतई नहीं।

मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा, बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें।  मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे, प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये। नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

वर्तमान मे – न्यूजर्सी अमेरिका

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 124 – ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी द्वारा लिखी कृति ““बिना मतलब” का मतलब” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 124 ☆

☆ ““बिना मतलब” का मतलब” – श्री राजा सिंह ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब

रचना के बिम्ब, लेखक, प्रकाशक, किताब, समीक्षक और पाठक का अटूट साहित्यिक संबंध होता है. मतलबी दुनिया की भागम भाग के बीच भी यह संबंध किंचित बेमतलब बना हुआ है, यह संतोष का विषय है. भीड़ के हर शख्स का जीवन एक उपन्यास होता है, और आदमी की जिजिविषा से परिपूर्ण दैनंदिनी घटनायें बिखरी हुई बेहिसाब कहानियां होती हैं. जब कोई कहानीकार आम आदमी के इस संघर्ष को पास से देख लेता है तो वह उसमें रचना के बिम्ब ढ़ूंढ़ निकालता है. इस तरह बुनी जाती है कहानी. वास्तविक किरदार अनभिज्ञ रह जाता है पर उसकी जिंदगी का वह हिस्सा, जिसे पढ़कर लेखक ने अपने कौशल के अनुरूप कहानी गढ़ी होती है, जब प्रकाशित होती है तो वह पाठको का मर्म स्पर्श कर उन्हें चिंतन, मनोरंजन, और आंसू देती है. पत्रिका का जीवन एक सीमित अवधि का होता है, पर किताबें दीर्घ जीवी होती हैं. इसलिये किताब की शक्ल में छपी कहानियां उस किरदार और घटना को नव जीवन देती हैं. आम आदमी को पढ़ कर कहानी गढ़ने वाले राजा सिंह के कहानी संग्रह “बिना मतलब” का मतलब समझने का प्रयास मैने किया. दो सौ पन्नो में फैली हुई कुल जमा तेरह कहानियां हैं. कुछ तो ऐसी हैं जिनको स्वतंत्र उपन्यास की शक्ल में पुनर्प्रस्तुत किया जा सकता है. छल ऐसी ही कहानी है, जो पात्र शालिनी के नाम से उपन्यास के रूप में विस्तारित की जा सकती है. मजे की बात है कि पाठको को उनके आस पास कोई न कोई शालिनी जरूर दिख जायेगी. क्योंकि शालिनी को एक वृत्ति के रूप में प्रस्तुत करने में राजा सिंह ने सफलता पाई है. फेसबुक की आभासी दुनिया के इस समय में कई शालिनी हमारे इनबाक्स में घुसी चली आ रही मिलती हैं.

प्रबंधन, नियति, बिना मतलब कुछ लम्बी कहानियां है. रिश्तों की कैद, सफेद परी पठनीय हैं. दरअसल प्रत्येक कहानीकार की बुनावट का अपना तरीका होता है. राजा सिंह बड़ी बारीक घटनाओ का सविस्तार वर्णन करने की शैली अपनाते हैं, इसलिये वे लम्बी कहानियां लिखते है. उसी कथानक को छोटे में भी समेटा जा सकता है. पत्र पत्रिकाओ में मैं राजा सिंह की कहानियां पढ़ता रहा हूं. किताब में पहली बार पढ़ा जब उन्होंने समीक्षार्थ “बिना मतलब” भेजी. वे देशज मिट्टी से जुड़े रचनाकार हैं. कहानियों के साथ कविताई भी करते हैं. उनके दो कथा संग्रह अवशेष प्रणय और पचास के पार शीर्षकों से पहले आ चुके हैं. हंस, परिकथा, पुष्पगंधा, अभिनव इमरोज, साहित्य भारती, रूपाम्बरा, वाक्, कथा बिम्ब, लमही, मधुमती, बया, आजकल आदि पत्रिकाओ के अंको में उनकी ये कहानियां जो इस संग्रह में हैं पूर्व प्रकाशित हैं.

बिना मतलब एक एकाकी बुजुर्ग साहित्यकार के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो बिन बोले मनोविज्ञान के पाठ पढ़ाती बहुत कुछ कहती है और जिंदगी का मतलब समझाती है. “कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बार में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्‍त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो”. इस परिभाषा पर “बिना मतलब” की कहानियां निखालिस खरी हैं.

मैं अकादमिक बुक्स इंडिया, दिल्ली से प्रकाशित इस किताब को थोड़ा फुरसत से पढ़ने की अनुशंसा करता हूं. मेरी मंगलकामना है कि राजा सिंह निरंतर लिखें, हिन्दी पाठको को उनकी ढ़ेरो और नई नई कहानियां पढ़ने मिलती रहें.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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