हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 112 – “मन पवन की नौका” … कुबेर नाथ राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  कुबेर नाथ राय जी  की पुस्तक “मन पवन की नौका” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

“मन पवन की नौका” … कुबेर नाथ राय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

पुस्तक – मन पवन की नौका

लेखक   – कुबेर नाथ राय

प्रकाशक – प्रतिश्रुति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य – ₹३५०

 पृष्ठ  – १४४

ललित निबंध साहित्य की वह शैली है जिसमें कविता सा लालित्य, निबंध का ज्ञान, उपन्यास सा प्रवाह, कहानी सा आनन्द सम्मलित होता है. यदि निबंधकार कुबेर नाथ जी जैसा महान साहित्य मर्मज्ञ हो जिसके पास अद्भुत अभिव्यक्ति का कौशल हो, अथाह शब्द भंडार हो, इतिहास, संस्कृति, समकालीन अध्ययन हो तो सचमुच निबंध ललित ही होता है. हजारी प्रसाद द्विवेदी से ललित निबंध की परम्परा हिनदी में देखने को मिलती है, कुबेरनाथ जी के निबंध उत्कर्ष कहे जा सकते हैं. प्रतिश्रुति का आभार कि इस महान लेखक के निधन के बीस से ज्यादा वर्षो के बाद उनकी १९८३ में प्रकाशित कृति मन पवन की नौका को आज के पाठको के लिये सुंदर कलेवर में प्रस्तुत किया गया है. ये निबंध आज भि वैसे ही प्रासंगिक हैं, जैसे तब थे जब वे लिखे गये. क्योकि विभिन्न निबंधो में उन भारतीय समुद्रगामी अभीप्साओ का वर्णन मिलता है जिसकी बैजन्ती  अफगानिस्तान से जावा सुमात्रा तक ख्याति सिद्ध है. जिसके स्मारक शिव, बुद्ध, राम कथाओ, इनकी मूर्तियो लोक संस्कृति में अब भी रची बसी है. मन पवन की नौका पहला ही निबंध है, सिन्धु पार के मलय मारुत, अगस्त्य तारा, एक नदी इरावदी, जल माता मेनाम, मीकांग्ड गाथा, जावा के देशी पुराणो से, बाली द्वीप का एक ब्राह्मण, क्षीर सागर में रतन डोंगियां, यायावर कौण्डिन्य निबंधो में ज्ञान प्रवाह, सांस्कृतिक विवेचना पढ़ने मिलती है. किताब पढ़ना बहुत उपलब्धि पूर्ण है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 111 –“रुपये का भ्रमण पैकेज” … सुश्री सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री सुधा कुमारी जी  की पुस्तक “रुपये का भ्रमण पैकेज” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “रुपये का भ्रमण पैकेज” … सुश्री सुधा कुमारी जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

Rupaye Ka Bhraman Package

रुपये का भ्रमण पैकेज

लेखिका.. सुधा कुमारी

पृष्ठ १७२,सजिल्द  मूल्य ३५० रु

प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

बीरबल या तेनालीराम जैसे ज्ञानी सत्ता में राजा के सर्वाधिक निकट रहते हुये भी राजा की गलतियों को अपनी बुद्धिमानी से इंगित करने के दुस्साहसी प्रयास करते रहे हैं. इस प्रयोजन के लिये उन्होने जिस विधा को अपना अस्त्र बनाया वह व्यंग्य संमिश्रित हास्य ही था. दरअसल अमिधा की सीधी मार की अपेक्षा हास्य व्यंग्य में कही गई लाक्षणिक बात को इशारों में समझकर सुधार का पर्याप्त अवसर होता है, और यदि सच को देखकर भी तमाम बेशर्मी से अनदेखा ही करना हो तो भी राजा को बच निकलने के लिये बीरबलों या तेनालीरामों की विदूषक छबि के चलते उनकी कही बात को इग्नोर करने का रास्ता रहता ही है. लोकतंत्र ने राजनेताओ को असाधारण अधिकार प्रदान किये हैं, किन्तु अधिकांश  राजनेता उन्हें पाकर निरंकुश स्वार्थी व्यवहार करते दिख रहे हैं. यही कारण है कि हास्य व्यंग्य आज अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है. सुधाकुमारी जी जैसे जो बीरबल या तेनालीराम अपने परिवेश में देखते हैं कि राज अन्याय हो रहा है, वे चुपचाप व्यंग्य लेख के जरिये आईना दिखाने का अपना काम करते दिखते हैं. ये और बात है कि अधिकांशतः उनकी ये चिंता अखबारों के संपादकीय पन्नो पर किसी कालम में कैद  या किसी पुस्तक के पन्नो में फड़फड़ाती रह जाती है. बेशर्म राजा और समाज उसे हंसकर टालने में निपुण होता जा रहा है. किन्तु इससे आज के इन कबीरों के हौसले कम नहीं होते वे परसाई,शरद, त्यागी और श्रीलाल शुक्ल के मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं, सुधा कुमारी जी भी उसी बढ़ते कारवां में रुपये का भ्रमण पैकेज लेकर आज चर्चा में हैं.

“स्थानांतरण का ईश्वरीय आदेश” में वे सरकारी कर्मचारियों की ट्रांसफर नीतीयो पर पठनीय कटाक्ष करती हैं, उन्होने स्वयं भी खूब पढ़ा गुना है तभी तो व्यंग्य में यथा स्थान काव्य पंक्तियो का प्रयोग कर रोचक प्रवाही शैली में लिख सकी हैं. इसी शैली का एक और सार्थक व्यंग्य ” बेचारा” भी किताब में है.  “ओम पत्रकाराय नमः” में वे लिखती हैं ” आप ही देश चलाते हो, प्रशासन की खिंचाईकरते हो, कानून भी आपके न्यूजरूम में बन सकते हैं और न्याय भी आप खुद करते हो, खुद ही अभियोजन करते हो खुद ही फैसला सुनाते हो “… हममें से जिनने भी शाम की टी वी बहस सुनी हैं, वे सब इस व्यंग्य के मजे ले सकते हैं. ” अथ ड्युटी पार्लर कथा, बासमैनेजमेंट इंस्टीट्यूत, असेसमेंट आर्डर की आत्मकथा, सूचना अधिकार…अलादीन का चिराग, मखान सर शिक्षण संस्थान इत्यादि उनके कार्यालाय के इर्द गिर्द से उनके वैचारिक अंतर्द्वंद जनित रचनायें हैं, जिन्हें लिखकर उन्होने आत्म संतोष अनुभव किया होगा. कुछ रचनायें कोरोना की वैश्विक त्रासदी की विसंगतियों से उपजी हैं. और प्रजातंत्र की उलटबासियां, चुनावी दंगल, प्रजातांत्रिक पंचतंत्र,, नेताजी पर लेख जैसी रचनायें अखबार या टीवी पढ़ते देखते हुये उपजी हैं. चुंकि सुढ़ाकुमारी जी का संस्कृत तथा अंग्रेजी साहित्य का गहन अध्ययन है अतः उनके बिम्ब और रूपक मेघदूत, यक्षिणी, पीटर पैन, सोलोमन का न्याय के गिर्द भी बनते हैं. “चिंतन के लिये चारा” पुस्तक का सबसे छोटा व्यंग्य लेख है, पर मारक है…एक मरियल देसी गाय और एक बिहार की जर्सी गाय का परस्पर संवाद पढ़िये, इशारे सहज समझ जायेंगे… ” उन्हें विशेष प्रकार का चारा खिलाया गया , जो सामान्य आंखों से नही दिखता था, वह सिर्फ बिल और व्हाउचर में दिखाई देता था….

किताब के शीर्षक व्यंग्य रुपये का भ्रमण पैकेज से उधृत करता हूं… कुछ लोगों को रुपया हाथ का मैल लगता है पर अधिकतर को पिता और भाई से भी बड़ा रुपैया लगता है….. एडवांस्ड्ड मिड कैरियर ट्रैवल प्रोग्राम, प्रायः सरकारी अफसरो की तफरी के प्रयोजन बनते हैं उस पर तीक्ष्ण प्रहार किया है सुधा जी ने. “रिची रिच टू मैंगो रिपब्लिक” रुपये के देशी भ्रमण पैकेज के जरिये वे सरकारी अनुदान योजनाओ पर प्रहार करती हैं., उन्होंने  तीसरा पैकेज ठग्स एंड क्रुक्स कम्पनी डाट काम के नाम पर परिकल्पित किया है.

कुल मिलाकर सुधा जी की लेखनी से निसृत व्यंग्य लेख उनकी परिपक्व वैचारिक अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं. व्यंग्य जगत को उनसे निरंतरता की उम्मीद है. मेरी कामना है कि उनका अनुभव केनवास और भी व्यापक हो तथा वे कुछ शाश्वत लिखें. यह किताब बढ़िया है, खरीदकर पढ़ना और पढ़ने में समय लगाना घाटे का सौदा नही लगेगा, इसकी गारंटी दे सकता हूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ सिलसिला चलता रहेगा – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री सुरेखा शर्मा

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ सिलसिला चलता रहेगा – डॉ मुक्ता ☆ समीक्षा – सुश्री सुरेखा शर्मा ☆

पुस्तक – सिलसिला चलता रहेगा (काव्य-संग्रह )

लेखिका -डाॅ• मुक्ता

प्रकाशक – समदर्शी प्रकाशन, मेरठ (उ•प्र•)

संस्करण – प्रथम जुलाई 2021

पृष्ठ संख्या – 120

मूल्य – 160₹

निर्मम सच्चाईयों से परिचय करवाती कविताएँ – सुश्री सुरेखा शर्मा

सुश्री सुरेखा शर्मा

 ‘ऐ मनवा !

 चल इस जहान को तज

 कहीं और चलें

 जहाँ न हो कोई भी तेरा-मेरा

 और न हो ग़मों का बसेरा

 वहीं अपना आशियाना बसाते हैं।’

उपर्युक्त काव्य-पंक्तियाँ हैं वरिष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद्, पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत डाॅ मुक्ता जी के नवीनतम काव्य-संग्रह ‘सिलसिला  चलता रहेगा ‘ की कविता ‘मेरी तन्हाई ‘ से। कोरोना काल में जहाँ हमें स्वयं के बारे में ही सोचने का समय नहीं मिल रहा था, वहीं विदुषी डाक्टर मुक्ता जी ने अपने अनुभवों, अपनी संवेदनाओं एवं गंभीर चिंतन को शब्दों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति कविताओं के रूप में दी है। ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘काव्य-संग्रह  छोटी-बड़ी 82 कविताओं को समेटे हुए है। पहली कविता ‘संस्कृति और संस्कार’ से लेकर अंतिम कविता ‘संस्कार व अहंकार’ कविताएं अपने भीतर संकेतों और बिम्बों के साथ दर्द, आकुलता और बेचैनी की छटपटाहट लिए हुए हैं। तनाव-ग्रस्त जीवन में यथार्थ का बोध व्याप्त है । शीर्षक कविता ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘ की कुछ पंक्तियाँ बानगी के रूप में देखिए —– हैरान हूँ यह सोचकर/ कैसे जिन्दगी गुज़र गई/ होंठ सिए/ ज़िल्लत सहते-सहते/ पर उसे कोई रहनुमा न मिला/ वह दरिंदा सितम ढाता रहा / और वह मासूम ज़ुल्म सहती रही’

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित)

कवयित्री के स्वर में आक्रोश है; जीवन के यथार्थ को पकड़ने की आकुलता है, जो संवेदनहीनता और समय की विसंगतियों को प्रस्तुत करती व मनोमस्तिष्क को झकझोरती हैं। बहुत कुछ अनकहा हृदय में गूँजता रहता है; कल्पना का आदर्श और यथार्थ का भयावह रूप पाठक को झिंझोड़ता है। ‘देश जल रहा है’, ‘शर्म आती है’, ‘ज़मीर’ व ‘वजूद’ कविताएं मानो कवयित्री के रक्त में प्रवाहित होती रहती हैं और वे उसी प्रकार पाठक की भावनाओं को भी कुरेदती हैं।

एक बानगी देखिए – ‘शर्म आती है यह सोच कर/हम उस देश के वासी हैं/ जहाँ एक मिनट में होता है/ चार महिलाओं की/ अस्मत से खिलवाड़  / सामूहिक बलात्कार ही नहीं होता/ उन्हें जिंदा जलाया जाता है।’

एक और उदाहरण —‘मेरा देश जल रहा /धर्म, जाति, मज़हब के /असंख्य शोलों से दहक रहा/ धू-धू कर जल रहे लोगों के घर /उन्माद में अग्नि की भेंट ।’ 

कविता का एक-एक शब्द चोट करता हुआ प्रतीत होता है। आज जब कदम-कदम पर आतंकी प्रलय की सिहरन हमें बेचैन करती है और इंसानियत स्वार्थ के पापकुण्ड में डूब चुकी है। कविता “लग गया ग्रहण” को पढ़कर पाठक इसी मनःस्थिति से स्वयं को गुज़रता हुआ पाता है। किसी भी रिश्ते पर विश्वास नही रहा–ये पंक्तियाँ देखिए– ‘हैरत होती है यह देखकर/ रिश्तों को लग गया ग्रहण/ नहीं रहा कोई भी रिश्ता पावन/ पंद्रह वर्षीय किशोरी के साथ/ भाई करता रहा दुष्कर्म।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ मनुष्य के हृदय पर दस्तक देता, कचोटता व झिंझोड़ता ऐसा काव्य-संग्रह है, जो एक ऐसे चिन्तन का आग्रह करता है; जहाँ मानवीयता को बचाए रखना ज़रूरी है। इस संग्रह की कविताओं में पीड़िता व उपेक्षिता की वेदना को सूक्ष्मता से चित्रित किया गया है। कवयित्री  ने समय और परिस्थितियों को अपनी लेखनी से कागज़ पर बखूबी उकेरा है। कवयित्री ने नितांत निजी भावों में कविताएँ रची हैं तथा वे अपने परिवेश के घटनाक्रम के साथ विभिन्न प्रकार की विषम व असामान्य परिस्थितियों में घर-परिवार, समाज और देश की चिंता ही नहीं करतीं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति की पक्षधर हैं। सो! उन्होंने नयी-पुरानी पीढ़ी की विचारधारा से संबंधित सभी पहलुओं को उजागर किया है। ‘सवाल उठने लगे’,’मर्मांतक व्यथा’, ‘दहलीज़ ‘, ‘अंतर्मन की चीत्कार’, ‘पहचाना मैम’ जीवन-संघर्ष से सरोकार रखती ऐसी संवेदनशील कविताएँ हैं, जिन में गहन मर्म छिपा है। समाज में घट रही घटनाओं को जीवन का कटु सत्य मानकर कवयित्री का संवेदनशील मन चीत्कार कर उठता है। ‘अन्तर्मन की चीत्कार’ कविता की बानगी द्रष्टव्य है —

‘चार दिसंबर प्रातः/अखबार हाथ में लेते ही/  हृदय आहत हुआ/ अंतर्मन चीत्कार कर उठा/ नौ साल की बच्ची से पिता द्वारा दुष्कर्म /आठ साल की बच्ची का बलात्कार/ दस वर्ष की मासूम  बच्ची ••••हवस का शिकार हुई /ये घटनाएँ अंतर्मन को झिंझोड़ती हैं/ आखिर क्यों•••कब तक चलेगा यह सिलसिला••••?/ यह प्रश्न हृदय को कचोटता /हर पल उद्वेलित करता।’ संग्रह की कविताओं में दम तोड़ते मूल्य, समाजिक विघटन एवं तार-तार होते पारिवारिक रिश्तों पर आक्रोश  प्रकट किया गया है।

आत्मा की अभिव्यक्ति के साथ कविता का संवेदन तत्व संपूर्ण जगत् से जुड़ता है। इन तमाम जटिलताओं के होते हुए भी कविता हमारी संवेदना के क़रीब प्रतीत होती है। इस  काव्य-संग्रह में उन सभी अवांछित विद्रूपताओं व विसंगतियों का उल्लेख हुआ है, जो आज समाज में घटित हो रही हैं। भारतीय संस्कारों के स्खलन व सामाजिक-मूल्यों के विघटन के कारण जीवन-शैली में अनुभूत बदलावों का भी कवयित्री ने अपनी कविताओं में बेबाक वर्णन किया है। ‘सिलसिला चलता रहेगा’ काव्य-संग्रह की प्रथम कविता ‘संस्कृति और संस्कार’ की बानगी देखते हैं, जो उपर्युक्त कथन की पुष्टि करती है– ‘संबंध-सरोकार मुँह छिपा रहे/ और अजनबीपन एहसास/ सुरसा के मुख की भाँति पाँव पसार रहा/ नहीं रहा किसी को किसी से सरोकार/ विश्वास हर किसी को छल रहा।’ इसी प्रकार —-‘धन, पैसा, रुतबा/ हरदम साथ निभाते नहीं/ संसार मृगतृष्णा/ इनसान व्यर्थ ही इसके पीछे/ बेतहाशा दौड़ा चला जाता/ अंतिम  समय में/ कुछ भी उसके साथ जाता नहीं।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ की कविताओं को वाह-वाह की नहीं, अपितु आह व दर्द की अनुभूति की आवश्यकता है। करुणा कविता की जननी है। इसलिए बिना आह के कविता अधूरी है। किसी की पीड़ा को महसूस करना संवेदनशील व्यक्ति की पहचान होती है और उस पीड़ा को शब्दों में पिरो डालना कवयित्री की विशेषता है। एक बानगी देखिए – ‘बलात्कार पीड़ित लड़की/ जो पहले आज़ादी से घूमती थी/वही आज डरी-सहमी सी रहती है,’ उस मासूम की अंतहीन पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान करती है।

इसी श्रृंखला में ‘किसान और सैनिक’ कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए, जो हृदय में टीस पैदा करती हैं— ‘किसान का आत्मज/ जब सीमा पार शहीद होता/ हृदय क्रन्दन कर उठता/ और दसों दिशाएँ कर उठती चीत्कार/ हवाएँ सांय-सांय कर/ धरा को कंपायमान करती/ और जीवन में सुनामी आ जाता।’

इस संग्रह में समाहित कविताओं के विषय बहुआयामी हैं। कवयित्री ने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू का बहुत ही सूक्ष्मता से अध्ययन किया है, जीवन के कटु यथार्थ को उसकी पूर्णता में देखा है। बूढ़े माँ-बाप के प्रति बच्चों के असंवेदनशील व्यवहार को कवयित्री ने ‘मर्मांतक पीड़ा’  कविता में व्यक्त किया है। बच्चों की अपने माँ-बाप के प्रति असंवेदनशीलता को जिस ढंग से व्यक्त किया है, वह समाज के कटु यथार्थ  से परिचय कराता है– ‘बेटे ने विवाहोपरांत/ उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाया/ और वह वर्षों से झेल रही है/ मर्मांतक पीड़ा/ नहीं समझ पाता मन/ जिसने अपने मुँह का निवाला/ अपनी संतान को खिलाया/ वही पड़ी है आज बेहाल/

शायद ! प्रतीक्षारत।’ कविता सिर्फ़ किसी दर्द का इतिहास ही नहीं, बल्कि खुशी का गीत भी होती है। कविता को जहां आत्मा की अभिव्यक्ति कहा गया है, वहीं कविता कर्म भी है। अनेक मनोभावों को व्यक्त करती ‘सिलसिला चलता रहेगा’ की कविताएँ स्वयं इसके शीर्षक को सार्थक करती हैं। कविताओं का जीवन के साथ जुड़ाव है और वे पाठक के साथ सीधा संवाद करती प्रतीत होती हैं। नि:संदेह आज के सामाजिक परिवेश में कदम-कदम पर स्वार्थी व मुखौटाधारी लोगों से अक्सर सामना होता रहता है। ‘ये कैसे रिश्ते’ कविता के माध्यम से कवयित्री ने ऐसे लोगों के चेहरे से मुखौटा उतारने का बखूबी प्रयास किया है; जिनका व्यवहार अंधेरे में अशोभनीय व निंदनीय होता है और दिन के उजाले में उससे सर्वथा विपरीत भासता है। इसका सशक्त उदाहरण द्रष्टव्य है—‘पिता के दोस्त की छात्रा को/ काॅलेज छोड़ने और लेने जाना/ रास्ते में ज़ोर-ज़बरदस्ती करना/ खेतों में ले जाकर दुष्कर्म का प्रयास/ भाई की उपस्थिति में अश्लील हरकतें/ यह कैसे रिश्ते/ यह कैसा जग-व्यवहार/  जहाँ अपने, अपने बनकर/ कर रहे मासूमों का शील-हरण।’    

डाॅ मुक्ता संवेदनशील कवयित्री हैं। उनके मन की छटपटाहट समाज के उपेक्षित वर्ग तक पहुंचती हैं और उनका हृदय करुणा, प्रेम और दर्द से आप्लावित है, मानो दर्द का समन्दर ठाठें मार रहा है। कवयित्री ने अपने दिल के दर्द व आक्रोश को अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। शब्द-चित्र खींचती-सी सभी कविताएँ अपने मन में गहन अर्थबोध सेमेटे हुए हैं और तप्त हृदय को शांत करती हैं। कविताओं में बिंबों के साथ-साथ प्रतीक, लक्षणा एवं व्यंजना का सौंदर्य झलकता है। यह संग्रह कवयित्री के अनुभवों, संवेदनाओं और अनुभूतियों का दस्तावेज़ है। ‘यक्ष प्रश्न’, ‘गांधारी’, ‘शबरी’, ‘धरती पुत्री’ आदि कविताएं कवयित्री की मानसिक प्रौढ़ता को प्रकट करती हुई विकास और विस्तार को आयाम देती हैं। ये कविताएं समकालीन कविताओं में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाएंगी।

उपरोक्त कृति में लंबी कविताएँ भी हैं, जिनमें जीवन के विविध नाद हैं  – ‘गांधारी नहीं निर्भया’ कविता देखिए -‘नारी! तुम्हें गांधारी नहीं/ निर्भया बनना है/ आँखों पर पट्टी बाँध /पति के आदेशों की पालना नहीं/ दुर्गा व काली सम/ शत्रुओं  का मर्दन करना है।’

कवयित्री ने अपनी लेखनी से शब्दों को नये तेवर के साथ कवितओं में ढाला है। कवयित्री के अंतर्मन में एक सागर अहर्निश उथल-पुथल करता रहता है, जिसमें भावों का मन्थन चलता है। आजकल रिश्ते टूटते जा रहे है और उनकी अहमियत रही नहीं;  हम एक-दूसरे से दूर अपने-अपने द्वीप में कैद होते जा रहे हैं। आजकल अक्सर घरों में संवादहीनता के कारण सन्नाटा पसरा रहता है; मतभेद के साथ-साथ मनभेद होते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में कवि मन का उद्वेलन कागज़ पर उतरकर कविता का रूप धारण कर लेता है। ‘आलीशान इमारतें’ कविता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, तनिक बानगी देखिए— ‘आलीशान घरों की/ इमारतों के अहाते में/ पारस्परिक वैमनस्य फलता-फूलता / ईर्ष्या- द्वेष का एकछत्र साम्राज्य होता/ अजनबीपन का एहसास होता/ जहां मतभेद नहीं/ मनभेद सदैव हावी रहता/ क्योंकि संवादहीनता /संवेदनहीनता की जनक होती।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ संग्रह की कविताएँ पठनीय ही नहीं, चिंतनीय व मननीय हैं। ‘संस्कृति और संस्कार’ से शुरू होकर ‘अंतिम कविता  ‘संस्कार व अहंकार’ शीर्षक से है। इन सभी कविताओं में आज के समय की विद्रूपता, विडम्बना, शोषण, बलात्कार का चेहरा बार-बार दिखायी देता है। इन कविताओं में अकुलाहट है,  छटपटाहट है, बेबसी है।  ‘उन्नाव की पीड़िता’ ऐसी ही एक लंबी कविता है, जिसमें कवयित्री के मन की वेदना-पीड़ा अत्यंत मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त हुई है। कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं — ‘उन्नाव की पीड़िता/ एक वर्ष नौ दिन/ ज़ुल्मों के प्रहार सहन करती रही/ तिल-तिल कर जीती- मरती रही/ चार दरिंदों द्वारा बलात्कार/ पीड़िता असहाय दशा में/ हर दिन नये ज़ुल्म का शिकार होती रही।

☆☆☆☆☆      

 हम उनकी बेहाली पर/ मन मसोसकर रहे जाएंगे/ और आँसू बहाने के सिवाय/ कुछ कर नहीं पाएंगे ।’

‘सिलसिला चलता रहेगा’ संग्रह की कविताओं में समसामयिक चिंताओं से लेकर वैश्विक चिंतन तथा देश-विदेश की घटनाओं तक को अभिव्यक्ति प्राप्त है। आज के युग में सुरसा के मुख की भांति बढ़ती संवेदनहीनता प्रमुख चिंता का विषय है। कविताओं के विषय रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव हैं, जो कभी खुशी दे जाते हैं, तो कभी नितांत उदासी। इसलिए ही  कवयित्री कहती हैं—-‘लम्हों की किताब है ज़िन्दगी/ जिसमें अंकित रहता/ जीवन-भर का लेखा-जोखा/ सुख-दु:ख, खुशी-ग़म, हानि लाभ/

☆☆☆☆☆

जो मिला है/ उसमें संतोष पाएँगे/ जो नहीं मिला/ उसे पाने का सार्थक प्रयास/ ताकि चलता रहेगा खुशी से/ ज़िन्दगी का यह सिलसिला ।’ ये कविताएँ सरल भाषा में पाठकों से दैनिक संवाद करती भासती हैं। कविताओं में जीवन के अनेक रंग हैं, आत्मचिंतन है, स्मृतियाँ हैं, समकालीन विचारधारा की सोच है। भाषा सरल, सहज व सुगम्य है । कहीं-कहीं गद्यात्मकता का अनुभव भी होता है। काव्य-संग्रह पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है। कवयित्री ने जीवन के कटु यथार्थ व मार्मिक अनुभूतियों को सत्यता से स्वीकार कर बखूबी उकेरा है, जो श्लाघनीय है। ये कविताएं मानो कवयित्री की आत्मा की पुकार हैं, जो सामान्य-जन के लिए न्याय की मांग करती हैं। ‘सिलसिला चलता रहेगा ‘काव्य-संग्रह का हिन्दी जगत् में हृदय से स्वागत किया जाएगा। डाक्टर मुक्ता जी को इस कृति के लिए हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ। वे स्वस्थ रहें एवं दीर्घायु हों और अपनी लेखनी से साहित्य मोती लुटाती रहें।

शुभकामनाओं के साथ  —-

सुरेखा शर्मा लेखिका /समीक्षक

पूर्व हिन्दी सलाहकार सदस्या नीति आयोग दिल्ली।

हिन्दी सलाहकार सदस्या हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी दिल्ली।

संयुक्त मंत्री प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन( प्रयाग) गुरुग्राम।

498/9-ए सेक्टर द्वितीय तल, नज़दीक  ई•एस•आई• अस्पताल, गुरुग्राम – पिन कोड -122001.

मो•नं• 9810715876

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ बाल गीत संग्रह -‘आकू-काकू’ – जयसिंह आशावत ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

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(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है जयसिंह आशावत जी के गीत संग्रह  “आकू -काकू की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘आकू-काकू’ – जयसिंह आशावत ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक- आकू-काकू 

गीतकार- जयसिंह आशावत 

प्रकाशक- बोधि प्रकाशन,

सी-46, सुदर्शन इंडस्ट्रीज एरिया, एक्सटेंशन, नाला रोड, 22-गोदाम, जयपुर- 302006

मोबाइल नंबर 9829018087

☆ सरस गीतों का संग्रह हैं आकू-काकू -ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बच्चे हमेशा गेय कविता या गीत पसंद करते हैं। लय-ताल वाली कविता झट से पढ़ते हैं। उन्हें गुनगुनाना अच्छा लगता है। इस कारण ऐसी काव्य पंक्तियां झट से याद कर लेते हैं।

प्रस्तुत कृति आकू-काकू एक बाल गीत संग्रह की पुस्तक है। रचनाकार की यह चौथी पुस्तक है, जिसकी निम्न काव्य पंक्तियों में सरसता, सरलता व सहजता को देख सकते हैं-

आकू-काकू अपनी-अपनी 

मम्मी से करते फरियाद।

लंबी-लंबी कविताएं तो 

होती मुश्किल से याद ।।

यहीं हाल बच्चों का है। उन्हें छोटी व लयबद्ध कविताएं पसंद आती है। सरल ,सहज व प्रवाहमय काव्य पंक्तियां उन्हें बहुत आकर्षित करती है।

बच्चों को बच्चों सी कविता

 जिनका हो छोटा आकार ।

हो बच्चों को शिक्षा देती

हंसी-खुशी की भरें फुहार।।

यह गीत ठीक इसी प्रकार की शिक्षा देता है। इस संग्रह में 29 कविताएं व गीत सम्मिलित किए गए हैं। इसमें कई कहानियों का पद्य रूप बहुत बढ़िया बना है। जिसे कहानी के रूप में बच्चे याद रख सकते हैं।

सूरज उगने वाला अब ।

लाल हुआ पूरब में नभ ।।

जैसी सरल, सहज व प्रवाहमई पंक्तियों से से सृजित गीत संग्रह बच्चों को बहुत लुभाएगा। इसकी भाषा सरल व सहज हैं।

पूड़ी, कचोरी और समोसा 

खट्टी चटनी इडली डोसा।

बच्चों के मनभावन पकवान उन की काव्यरस आनंद को दो गुणित कर देता है।

बयाबान जंगल था उसमें

एक शेर रहता था। 

राजा हूं मैं इस जंगल का 

सबसे यह कहता था।।

कहानी भरी काव्य पंक्तियां बच्चों को कथारस सरल ढंग से मजा देती है।

आकू-काकू, हंकी-जंकी 

करते हैं मिलकर नौटंकी।

प्रस्तुत पुस्तक की साजसज्जा उत्तम है। गीत की दृष्टि से बच्चों के लिए उपयोगी और संग्रहणीय पुस्तक है। आकर्षण कवर से सज्जित पुस्तक का मूल्य ₹150 वाजिब है।

आशा है इस बाल गीत संग्रह का बाल साहित्य में भरपूर स्वागत होगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27/04/2022

मित्तल मोबाइल के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 110 –“शिवाजी व सुराज” … श्री अनिल माधव दवे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अनिल माधव दवेजी  की पुस्तक “शिवाजी व सुराज” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “शिवाजी व सुराज” … श्री अनिल माधव दवे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

पुस्तक – शिवाजी व सुराज

लेखक. अनिल माधव दवे, दिल्ली

पृष्ठ संख्या 224

प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

भारत के इतिहास में छत्रपति शिवाजी महाराज एक सर्वगुण संपन्न सुयोग्य शासक के रूप में प्रतिष्ठित है। उनका चरित्र वीरता , राज्य व्यवस्था, राजनैतीक चातुरी, परिस्थितियों की समझ, समस्याओं के समाधान निकालने की सूझबूझ और शांति की चिन्ता के गुण उन्हे युग युगों तक एक आदर्श राजा  के रूप में याद करने को विवश करते रहेंगे। वे आदर्श राजा थे और  विवेकशील  निर्णय लेकर उसे जनहित में कार्यान्वित करने में अद्वितीय सफल शासक थे। भारत 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन से मुक्त हो  गया पर अभी तक सुराज स्थापित नहीं हो सका है। मार्ग में नित नई कठिनाइयाॅं आ पड़ती हैं। लेखक एक विवेकवान व्यक्ति है। अतः आज की परिस्थितियों में सुधार कैसे हो, सुराज की स्थापना कैसे की जाय इसकी चिंता है और इसी भावना को व्यक्त करने के लिये उन्होंने इस पुस्तक की रचना की है । जिसमें शिवाजी के राज्य काल की व्यवस्था उनके सफल निर्णयों की योग्यता, उनके जन हित कारी दृष्टिकोण से संकलित सभी कार्यो का प्रमाणिक प्रस्तुतीकरण कर (शिवाजी के राज्य व्यवस्था के विभिन्न दस्तावेजों की प्रति देते हुये) एक सही रीति नीति के अपनाये जाने का संकेत आज के शासन करता के लिये उपस्थित किया है। आज शिवाजी महाराज की रीति नीति अनुकरणीय है यही लेखक के द्वारा संकेत दिया गया है।

शिवाजी के बचपन से उनके राज्य के सुयोग्य शासक होने तक के विभिन्न प्रसंगों का उल्लेख मार्ग की समस्याओं और उनके सामयिक सफल निर्णयों का सहज उल्लेख कर लेखक ने शासन को सुखद और सफल रीति से संचालन को शिवाजी से सीखने का मनोभाव है। प्रतिकूलतायें व्यक्ति को तराषती हैं। गल्तियाॅं उपलब्धियाॅं और अवसर से हर रोज एक नया पाठ पढ़ाते है। समय के साथ चलते-चलते यही व्यक्तित्व एक आकार ग्रहण कर लेता है। 

आज  भारतीय राजनीति के विभिन्न पदों पर पहुॅंचने के लिये पाखण्ड प्रधान गुण बन गया है। छद्म विनम्रता का अभिनय, संस्था संगठन व सरकारों में चयन और निर्णयों के कारण बनने लगे तब हर शासक के लिये यह समय सम्हल कर चलने और स्वयं को सार्वजनिक जीवन में जीवन बनाये रखने के लिये पूर्व नायकों से सीख लेकर सत्य व धर्म की स्थापना कर सुव्यवस्थित सरकार  चलाने की जरूरत का है। उन सबके लिये जो आज शासन में किसी भी पद पर है, शिवाजी के स्वराज संचालन के सभी गुण दिशा सूचक यंत्र बनें तथा उनके सफलता मंत्र भी। इस आस्था और विश्वास के साथ यह कृति सत्य के साधकों को सादर प्रस्तुत है।

व्यक्तिगत गुण – निर्भीकता, शीघ्र निर्णय क्षमता, परिस्थिति की सही समझ और दूरदर्शिता, सही समय पर निर्णायक चोट करने की योग्यता, जन साधारण के प्रति स्नेह भाव, चारित्रिक पवित्रता, धार्मिकता, आत्म विश्वास, स्त्री जाति के लिए सम्मान की भावना, ईमानदारी, देश प्रेम, सबके साथ सद्भाव व प्रामाणिक व्यवहार, शासन में सदाचार, कुशल शासन व्यवस्था, कृषि, व्यापार की प्रगति की नीति, न्याय की प्रखर व्यवस्था, जन संपर्क की सजगता कर्मचारियों के मन में विश्वास जगाना उनका उचित सम्मान, दुष्मन के प्रति कठोरता, विज्ञान की प्रगति, आवागमन के साधनों को बढ़ाना। विद्वत जनों की सुरक्षा तथा सम्मान योग्य मंत्रि मण्डल का गठन सेना का सही संगठन और प्रशिक्षण, कूटनीति, योजाना संचालन, भ्रष्टाचार पर रोक,  विकास के उपक्रम व सुराज के संवर्धन की हार्दिक चाह और कार्य शिवाजी के मौलिक गुण हैं जो सबके लिए अनुकरणीय हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 109 –“कुछ नीति कुछ राजनीति” … स्व.भवानी प्रसाद मिश्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है स्व.भवानी प्रसाद मिश्र जी  की पुस्तक “कुछ नीति कुछ राजनीति” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 109 ☆

☆ “कुछ नीति कुछ राजनीति” … स्व.भवानी प्रसाद मिश्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

कुछ नीति कुछ राजनीति

लेखक स्व.भवानी प्रसाद मिश्र

प्रति श्रुति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य  280/- ,  पृष्ठ 128

भवानी प्रसाद मिश्र के 17 काव्य संग्रह प्रकाशित हुए थे। उनकी  पहचान एक कवि के रूप में ही हिंदी जगत में की जाती है।

वे वर्धा के महिला आश्रम में शिक्षक के रूप में कार्य कर चुके थे और उन्हें गांधी जी का सानिध्य मिला था। वह बहुत अच्छे अध्येता भी थे.. उन्होंने फ्रेडरिक केनियान, जेम्स कजंस, पी सोरोकिन जैसे अंग्रेज विचारकों की संस्कृति समाज को लेकर रची गई किताबें पढ़ी और  भारतीय परिदृश्य में गांधीवाद के विचारों के साथ उनकी विवेचना भी की। अनेक सभ्यताओं जैसे बेबिलोनिया, मेंसेपोटमिया की संस्कृति समय केे साथ मिट गई। कितु, भारत की संस्कृति अनेकों बदलाव के बीच अपनी मूल प्रवृत्ति को संभाले रही और विकसित होती रही। भारतीय दर्शन स्नेह, करुणा, विश्व मैत्री का रहा है जबकि पाश्चात्य दर्शन सुख सुविधाओं का रहा है ..  समाजवाद के दर्शन ने वर्ग विहीन समाज की कल्पना  की व इसके लिए खोजों के आधार पर अपने विचारों को दूसरे पर प्रभुत्व से स्थापित करने के लिए विनाशकारी शस्त्रों का निर्माण किया।

दुनिया के देशों को बाजार बनाया गया। संसार में अपने तथाकथित धर्म इस्लाम या ईसाई धर्म को एकमात्र विचार की तरफ फैलाने के प्रयास हो रहे हैं।  हम आज सारे संसार में सब कुछ भूलकर सुविधाएं जुटाने और उन्हें अपने लिए छीनने की जो दौड़ देख रहे हैं वह इंद्रीय प्रधान पाश्चात्य मूल्यों की देन है। आज की हमारी संस्कृति का मुख्य स्वर पारलौकिक, धार्मिक, नैतिक और सर्व हितकारी ना होकर इह लौकिक कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक और स्वार्थ परक हो गया है।  कुछ नीति कुछ राजनीति पुस्तक में संग्रहित लेख इस विडंबना का निदान और उपचार प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। इन लेखों को पढ़कर लगता है कि भवानी दादा एक बहुत अच्छे विचारक और दार्शनिक भी थे।

गांधी, टालस्टाय, अहिंसा, सर्वोदय, लोकतंत्र, की विशद एवं सुन्दर  व्याख्या किताब में पढ़ने को मिली।

गाँधी की परिकल्पना का भारत उस से बिल्कुल भिन्न था जिस गांधी का उपयोग आज भारत की राजनीति मे किया जा रहा है। गांधी को समझने के लिए यह किताब पढ़ने की जरुरत है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 –“कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री श्याम सुंदर दुबे जी  की पुस्तक “कालः क्रीडति” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

किताब ..कालः क्रीडति 

लेखक …श्याम सुंदर दुबे

यश पब्लिकेशनस

मूल्य ४९५ रु

हिन्दी में ललित निबंध लेखन बहुत अधिक नही है.श्याम सुंदर दुबे अग्रगण्य, वस्तुपरक ललित लेखन हेतु चर्चित हैं. उनके निबंधो में प्रवाह है, साथ ही भारतीय संस्कृति की विशद जानकारी, तथ्य, व संवेदन है. प्रस्तुत पुस्तक में कुल ३३ लेख हैं. पहला ही लेख ” एक प्रार्थना आकाश के लिये ” किसी एक कविता पर निबंध भी लिखा जा सकता है यह मैं इस लेख को पढ़कर ही समझ पाया, महाप्राण निराला की वीणा वादिनी वर दे, पर केंद्रित यह निबंध इस कविता की समीक्षा, विवेचना, व्याख्या विस्तार बहुत कुछ है. अन्य लेखो में पहला दिन मेरे आषाढ़ का,, सूखती नदी का शोक गीत, जल को मुक्त करो, तीर्थ भाव की खोज, सूखता हुआ भीतर का निर्झर, नीम स्तवन, सूखी डाल की वासंती संभावना सारे ही फुरसत में बड़े मनोयोग से पढ़ने समझने और आनंद लेने वाले निबंध हैं. प्रत्येक निबंध चमत्कृत करता है, अकेला पड़ता आदमी, इंद्र स्मरण और रंगो की माया, फूल ने वापस बुलाया है, कालः क्रीडति, फागुन की एक साम आदि निबंध स्वयं किसी लंबी कविता से कम नही हैं. हर शब्द चुन चुन कर सजाया गया है, इसलिये वह सम्यक प्रभाव पेदा करता है. किताब को १० में से ९ अंक देना ही पड़गा. जरूर पढ़िये, खरीदकर या पुस्तकालय से लेकर.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #113 – “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” – श्री शंकर शरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री शंकर शरण जी की पुस्तक “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” – श्री शंकर शरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक.. भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन

लेखक.. शंकर शरण

प्रकाशक.. कृति कृति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य 560 रु

पृष्ठ..224

भारतीय संस्कृति में  आत्म प्रदर्शन को बहुत अच्छा नहीं माना जाता था  यही कारण है कि  कालिदास जैसे महान लेखकों की जीवनी तक सुलभ नहीं है. इसलिये तटस्थ वास्तविक भारतीय इतिहास अलिखित रहा.अतीत पर गर्व करना मनुष्य की आदत रही है जिसका शासन रहा उसके महत्व को अधिक प्रदर्शित करते हुए तोड़फोड़ कर इतिहास लिखे गए.

एनसीईआरटी नई दिल्ली के प्रोफेसर शंकर शरण ने बहुत तार्किक और संदर्भ सहित भारतीय इतिहास दृष्टि, कार्ल की भारत दृष्टि, इतिहास लेखन में राजनीति, धर्म और सांप्रदायिकता, दोहरे मानदंडों का घालमेल, कवि निराला और रामविलास शर्मा,भूमिका,तथा

उपसंहार  इन खंडो में यह बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। आजादी के बाद से देश के एकेडमिक संस्थाओं में मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थकों का प्रभाव रहा जिसके चलते भारतीय इतिहास का जो लेखन किया गया उसमें मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव रहा.   इतिहास वास्तविकता से भिन्न रूप में वर्णित हुआ. देश की मिली जुली संस्कृति  का श्रेय इन इतिहासकारों ने इस्लाम को दिया जबकि वास्तविकता यह है कि इस्लामी शासकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी की हिंदू संस्कृति का विनाश कर केवल इस्लाम को ही एक धर्म के रूप में स्थापित किया जाए.दरअसल यह  हिंदू संस्कृति एवं धर्म की विशेषता ही है की इन नितांत दुष्कर तथा कठिन परिस्थितियों में भी हिंदू संस्कृति जीवित बनी रही. इसी तरह युद्धों के वर्णन, अंग्रेज तथा मुगल शासको की राज व्यवस्था के इतिहास लेखन में भी हिंदूवाद की उपेक्षा की गई है, जिसकी ओर तार्किक तथ्यों के आधार पर इस पुस्तक में सविस्तार वर्णन है. पुस्तक पठनीय है व सन्दर्भों के लिये महत्वपूर्ण है.

लोगो को इतिहासकारों द्वारा यह बताया ही नही गया की निराला ने रामायण पर 20 खंडों में टीका लिखी है महाराणा प्रताप भी इस भक्त प्रहलाद भक्त ध्रुव पर पूरे पूरे उपन्यास लिखें इनके अलावा निराला के विस्तृत निबंध ओं लेखों के शीर्षक ही देख ले तो तुलसीकृत रामायण में अद्वैत तत्व विज्ञान और गोस्वामी तुलसीदास श्री देव राम कृष्ण परमहंस युग अवतार भगवान श्री राम कृष्ण भारत में श्री राम कृष्ण अवतार आदि लेख उन्हीं के हैं किंतु उन्हें इतिहासकारों ने मार्क्सवादी विचारधारा का कवि ही निरूपित किया है इस तरह के शुद्ध पूर्ण तथ्य इस पुस्तक में उजागर किए गए हैं.

टिप्पणी… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश’’ – संपादक : आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ समीक्षक – प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा ☆

☆ ‘२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश’’ – संपादक : आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆ समीक्षक – प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा ☆

कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्य प्रदेश, संपादक आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, प्रथम संस्करण २०२२,

आकार २१.५ से.मी.x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी लेमिनेटेड पेपरबैक, पृष्ठ संख्या ७०, मूल्य १५०/-, प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स नई दिल्ली।

२१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ मध्यप्रदेश : लोक में नैतिकता अब भी हैं शेष – प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक

लोक कथाएँ ग्राम्यांचलों में पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रहीं ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें लोक जीवन, लोक मूल्यों और लोक संस्कृति की झलक अंतर्निहित होती है। ये कहानियाँ श्रुतियों की तरह मौखिक रूप से कही जाते समय हर बार अपना रूप बदल लेती हैं। कहानी कहते समय हर वक्ता अपने लिए सहज शब्द व स्वाभाविक भाषा शैली का प्रयोग करता है। इस कारण इनका कोई एक  स्थिर रूप नहीं होता। इस पुस्तक में हिंदी के वरिष्ठ साहित्य साधक आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ने देश के केंद्र में स्थित प्रांत मध्य प्रदेश की एक प्रमुख लोकभाषा बुंदेली में कही-सुनी जाती २१ लोक कथाएँ प्रस्तुत की हैं। पुस्तकारंभ में प्रकाशक नरेंद्र कुमार वर्मा द्वारा भारत की स्वतंत्रता के ७५ वे वर्ष में देश के सभी २८ राज्यों और ९ केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित नारी मन, बाल मन, युवा मन और लोक मन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना की जानकारी दी है।

पुरोवाक के अन्तर्गत सलिल जी ने पाठकों की जानकारी के लिये लोक कथा के उद्गम, प्रकार, बुंदेली भाषा के उद्भव तथा प्रसार क्षेत्र की लोकोपयोगी जानकारी दी है। लोक कथाओं को चिरजीवी बनाने के लिए सार्थक सुझावों ने संग्रह को समृद्ध किया है। लोक कथा ”जैसी करनी वैसी भरनी” में कर्म और कर्म फल की व्याख्या है। लोक में जो ‘बोओगे वो काटोगे’ जैसे लोकोक्तियाँ चिरकाल से प्रचलित रही हैं। ‘भोग नहीं भाव’ में राजा सौदास तथा चित्रगुप्त जी की प्रसिद्ध कथा वर्णित है जिसका मूल पदम् पुराण में है। यहाँ कर्म में अन्तर्निहित भावना का महत्व प्रतिपादित किया गया है। लोक कथा ‘अतिथि देव’  में गणेश जन्म की कथा वर्णित है. साथ ही एक उपकथा भी है जिसमें अतिथि सत्कार का महत्व बताया गया है। ‘अतिथि देवो भव’ लोक व्यवहार में प्रचलित है ही। सच्चे योगी की पहचान संबंधी उत्सुकता को शांत करने के लिए एक राज द्वारा किए गए प्रयास और मिली सीख पर केंद्रित है लोक कथा ‘कौन श्रेष्ठ’। ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ का आशीर्वाद नव वधुओं के घर के बड़े देते रहे हैं। छठ मैया का पूजन बुंदेलखंड में बहुत लोक मान्यता रखता है। यह लोक कथा छठ मैया पर ही केंद्रित है।

लोक कथा ‘जंगल में मंगल’ में श्रम की प्रतिष्ठा और राज्य भक्ति (देश भक्ति) के साथ-साथ वृक्षों की रक्षा का संदेश समाहित है। राजा हिमालय की राजकुमारी पार्वती द्वारा वनवासी तपस्वी शिव से विवाह करने के संकल्प और तप पर केंद्रित है लोक कथा ‘सच्ची लगन’। यह लोक कथा हरतालिका लोक पर्व से जुडी हुई है। मंगला गौरी व्रत कथा में प्रत्युन्नमतित्व तथा प्रयास का महत्व अंतर्निहित है। यह संदेश ‘कोशिश से दुःख दूर’ शीर्षक लोक कथा से मिलता है। आम जनों को अपने अभावों का सामना कर, अपने उज्जवल भविष्य के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होते हैं। यह प्रेरक संदेश लिए है लोककथा ‘संतोषी हरदम सुखी’। ‘पजन के लड्डू’ शीर्षक लघुकथा में सौतिया डाह तथा सच की जीत वर्णित है। किसी को परखे बिना उस पर शंका या विश्वास न करने की सीख लोक कथा ‘सयाने की सीख’ में निहित है।

भगवान अपने सच्चे भक्त की चिंता स्वयं ही करते हैं, दुनिया को दिखने के लिए की जाती पिजा से प्रसन्न नाहने होते। इस सनातन लोक मान्यता को प्रतिपादित करती है लोक कथा ‘भगत के बस में हैं भगवान’। लोक मान्यता है की पुण्य सलिला नर्मदा शिव पुत्री हैं। ‘सुहाग रस’ नामित लोक कथा में भक्ति-भाव का महत्व बताते हुए इस लोक मान्यता के साथ लोक पर्व गणगौर का महत्व है। मध्य प्रदेश के मालवांचल के प्रतापी नरेश विक्रमादित्य से जुडी कहानी है ‘मान न जाए’ जबकि ‘यहाँ न कोई किसी का’ कहानी मालवा के ही अन्य प्रतापी नरेश राजा भोज से संबंधित है। महाभारत के अन्य पर्व में वर्णित किन्तु लोक में बहु प्रचलित सावित्री-सत्यवान प्रसंग को लेकर लिखी गयी है ‘काह न अबला करि सकै’। मनुष्य को किसी की हानि नहीं करनी चाहिए और समय पर छोटे से छोटा प्राणी भी काम आ सकता है। यह कथ्य है ‘कर भला होगा भला’ लोक कथा का। गोंडवाना के पराक्रमी गोंड राजा संग्रामशाह द्वारा षडयंत्रकारी पाखंडी साधु को दंडित करने पर केंद्रित है लोक कथा ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। ‘जो बोया सो काटो’ में वर्णित कहानी पशु-पक्षियों की दाना-पानी आदि सुविधाओं का ध्यान देने की सीख देती है। ताकतवर को अपनी ताकत का उपयोह निर्बलों की सहायता करने के लिए करना चाहिए तथा कंबलशाली भी मिल-जुलकर अधिक बलशाली को हरा सकते हैं यह सबक कहानी ‘अकल बड़ी या भैंस’ में  बताया गया है। संकलन की आखिरी कहानी ‘कर भला होगा भला’ में बुंदेलखंड में अति लोकप्रिय नर्मदा-सोन-जुहिला नदियों की प्रेम कथा है।  यह कहानी प्रेम और वासना के अंतर को इंगित करते हुए त्याग और लोक हित की महत्ता बताती है।

इस संकलन की कहानियाँ मध्य प्रदेश के विविध अंचलों में लोकप्रिय होने के साथ लोकोपयोगी तथा संदेशवाही भी हैं। कहानियों में सलिल जी ने अपनी और से कथा-प्रवाह, रोचकता, सन्देशपरकता, सहज बोधगम्यता तथा टटकेपन के पाँच तत्वों को इस तरह मिलाया है कि एक बार पढ़ना आरंभ करने पर बीच में छोड़ते नहीं बनता। कहानियों का शिल्प तथा संक्षिप्तता पाठक को बाँधता है। लोक कथाओं के शीर्षक कथानक से जुड़े हुए और मुहावरों पर आधृत है। इस संकलन को माध्यमिक कक्षाओं में पाठ्य पुस्तक के रूप होना चाहिए ताकि बच्चे अपने अतीत, परिवेश, लोक मान्यताओं और पर्यावरण से परिचित हो सकेंगे। लोक कथाओं में अंतर्नित संदेश कहानी में इस तरह गूंथे गए हैं कि वे बोझिल नहीं लगते। सलिल जी हिंदी गद्य-पद्य की लगभग सभी विधाओं में लगभग ४ दशकों से निरंतर सृजनरत आचार्य संजीव ‘सलिल’ ने लोक कथाओं का केवल संचयन नहीं किया है।  उन्होंने इनका पुनर्लेखन इस तरह किया है कि ये उनकी अपनी कहानियाँ  बन गयी हैं। संकलन में पाठ्यशुद्धि (प्रूफरीडिंग) पर कुछ और सजगता होना चाहिए। मुद्रण और कागज़ अच्छा है। आवरण पर ग्वालियर किले के मान मंदिर की आकर्षक छवि है। लोक कथाओं के साथ बुंदेलखं के वन्यांचलों के अप्रतिम सौंदर्य का चित्र आवरण के लिए अधिक उपयुक्त होता। सारत:, यह संकलन हिंदी भाषी क्षेत्र के हर विद्यालय के पुस्तकालय में होना चाहिए। लेखक और प्रकाशक इस सारस्वत अनुष्ठान हेतु साधुवाद के पात्र हैं।

प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा, सेवानिवृत्त प्राध्यापक

संपर्क : २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध” – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(भारतीय नव वर्ष के अवसर पर दिनांक 2 अप्रैल को श्रीमती वीनु जमुआर द्वारा लिखित पुस्तक ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ का ऑनलाइन लोकार्पण हुआ। यह कार्यक्रम क्षितिज प्रकाशन और इन्फोटेनमेंट के तत्वाधान में आयोजित किया गया था।)

? पुस्तक चर्चा ☆ “बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध” – श्री संजय भारद्वाज ☆ ??

 

जिस तरह बीज में वृक्ष होने की संभावना होती है, उसी प्रकार मनुष्य की दृष्टि में सृष्टि का बीज होता है। अनेक बार बीज को अंकुरण के लिए अनुकूल स्थितियों की दीर्घ अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेखिका वीनु जमुआर की इस पुस्तक के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है। युवावस्था में पर्यटन की दृष्टि से बोधगया में बोधिवृक्ष के तले खड़े होकर नववधू लेखिका की दृष्टि में जो समाया, लगभग साढ़े पाँच दशक बाद, वह शब्दसृष्टि के रूप में काग़ज़ पर आया। बोधगम्य, प्रबुद्ध शब्दसृष्टि का नामकरण हुआ, ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध।’

श्रीमती वीनु जमुआर

 

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’, का बड़ा भाग बुद्ध की जीवनयात्रा का कथा शैली में वर्णन करता है। उत्तरार्द्ध में जातक कथाओं, ऐतिहासिक तथ्यों, बौद्ध मठों की जानकारी, बुद्ध के विचारों का संकलन भी दिया गया है। इस आधार पर इसे मिश्र विधा का सृजन कहा जा सकता है। तथ्यात्मक जानकारी के साथ अनुभूत बुद्ध को पाठकों तक पहुँचाने की अकुलाहट इसमें प्रमुखता से व्यक्त हुई है। पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इस बात को कुछ यूँ अभिव्यक्त भी किया है- ‘सत्य और शांति के अटूट रिश्ते का महात्म्य हम तभी समझ पाते हैं जब आंतरिक शांति की जिजीविषा हृदय को कचोटने लगती है।’ विचारों की साधना से यह कचोट, जटिलता से सरलता की ओर चल पड़ती है। लेखिका के ही शब्दों में-‘विचारों को साध लो तो जीवन सरल हो जाता है।’ पग पग पर पगता अनुभव एक समृद्ध पिटारी भरता जाता है। बकौल लेखिका, ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है, इस बात की पुष्टि अनुभवों की पिटारी करती है।’

जैसाकि उल्लेख किया गया है, कथासूत्र के साथ सम्बंधित स्थान, काल, घटना विशेष के इतिहास की यथासंभव जानकारी और पुरातत्व अभिलेखों का उल्लेख भी पुस्तक में हुआ है। उदाहरण के लिए लोकमान्यता में ‘पिप्राहवा’ को कपिलवस्तु मानना पर पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ‘तौलिहवा’ को कपिलवस्तु के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी का वर्णन करते हुए चीनी यात्रियों फाहियान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व वर्ष 249 में स्थापित बलवा पत्थर के स्तंभ पर प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म लिखा होने की जानकारी भी है। इस तरह की जानकारी किंवदंती, लोक-कथा, सत्य को तर्क, तथ्य, इतिहास और पुरालेख के प्रमाण देकर पुष्ट करती है। यही इस पुस्तक को विशिष्टता भी प्रदान करती है।

बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के पार जाने का विचार बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का आधार बना। एक संन्यासी के संदर्भ में सारथी चन्ना द्वारा कहा गया वाक्य- ‘इसने जग से नाता तोड़ ईश्वर से नाता जोड़ लिया है’, उनके लिए नये मार्ग का आलोक सिद्ध हुआ। तथापि नया नाता जोड़ने की प्रक्रिया में यशोधरा से नाता तोड़ने और स्त्री के मान को पहुँची ठेस तथा पीड़ा को भी लेखिका ने विस्मृत नहीं किया है। पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुँचे संन्यासी बुद्ध से गृहस्थ जीवन में पत्नी रही यशोधरा ने मिलने आने से स्पष्ट मना कर दिया। यशोधरा का दो टूक उत्तर है, “मैंने उन्हें नहीं त्यागा था, वे त्याग गए थे हमें।”

इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना वांछनीय होता है। इससे तात्कालिक सामाजिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर मिलता है। जटाधारी साधुओं के प्रमुख पंडित काश्यप द्वारा गौतम बुद्ध को रात्रि निवास के लिए आश्रम में स्थान देना, ‘मतभेद हों पर मनभेद न हों’ की तत्कालीन सुसंगत सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। पुस्तक इस सहिष्णुता को अधोरेखित करती है।

भारतीय दर्शन में सम्यकता की जड़ें गहरी हैं। इसकी पुष्टि बुद्ध द्वारा अपने पिता राजा शुद्धोदन को किये उपदेश से होती है। बुद्ध ने पिता से कहा, ” महाराज जितना स्नेह और प्रेम अपने पुत्र से करते हैं, वही स्नेह और प्रेम राज्य के प्रत्येक व्यक्ति से रखेंगे तो सभी उनके पुत्रवत हो, वैसा ही प्रेम महाराज से करने लगेंगे।” राजवंश के दिनों में किये गए इस उपदेश में काफी हद तक प्रजातंत्र की ध्वनि भी अंतर्निहित है। यह उपदेश काल के वक्ष पर पत्थर की लकीर है।

‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ अनित्य से नित्य होने का मार्ग है। यह पुस्तक महात्मा के जीवन दर्शन को सामने रखकर पाठक को विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से पाठक अपने भीतर, अपने बुद्ध को तलाशने की यात्रा पर निकल सके तो लेखिका की कलम धन्य हो उठेगी।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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