हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 92 ☆ जंगल राग – श्री अशोक शाह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष तिवारी अशोक शाह जी की पुस्तक “जंगल राग” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 92 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति –  जंगलराग

कवि – अशोक शाह

मूल्य (हार्ड कवर) – 200 रु

मूल्य (ई- बुक) – 49 रु

हार्डकवर : 80 पेज

ISBN-10 : 9384115657

ISBN-13 : 978-9384115654

प्रकाशक – शिल्पायन, शाहदरा दिल्ली

अमेजन लिंक >> जंगल राग (हार्ड कवर) 

अमेजन लिंक >> जंगल राग ( किंडल ई- बुक)

मूलतः इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त, म. प्र. में प्रशासनिक सेवा में कार्यरत अशोक शाह हृदय से संवेदनशील कवि, अध्येता, आध्यात्म व पुरातत्व के जानकार हैं. वे लघु पत्रिका यावत का संपादन प्रकाशन भी कर रहे हैं. उनकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पर्यावरण के वर्तमान महत्व को प्रतिपादित करती उनकी छंद बद्ध काव्य अभिव्यक्ति का प्रासंगिक कला चित्रो के संग प्रस्तुतिकरण जंगलराग में है.

वृक्ष, जंगल प्रकृति की मौन मुखरता है, जिसे पढ़ना, समझना, संवाद करना युग की जरूरत बन गया है. ये कवितायें उसी यज्ञ में कवि की आहुतियां हैं. परिशिष्ट में ९३ वृक्षो के स्थानीय नाम जिनका कविता में प्रयोग किया गया है उनके अंग्रेजी वानस्पतिक नाम भी दिये गये हैं.

कवितायें आयुर्वेदीय ज्ञान भी समेटे हैं, जैसे ।

” रेशमी तन नदी तट निवास भूरी गुलाबी अर्जुन की छाल

उगता सदा जल स्त्रोत निकट वन में दिखता अलग प्रगट

विपुल औषधि का जीवित संयंत्र रोग हृदय चाप दमा मंत्र “

बीजा, हर्रा, तिन्सा, धामन, कातुल, ढ़ोक, मध्य भारत में पाई जाने वाली विभिन्न वृक्ष   वनस्पतियो पर रचनाकार ने कलम चलाई है. तथा सामान्य पाठक का ध्यान प्रकृति के अनमोल भण्डार की ओर आकृष्ट करने का सफल यत्न किया है. १४ चैप्टर्स में संग्रहित काव्य पठनीय लगा

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

पुस्तक – लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

लेखक – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

प्रकाशक – नोशन प्रेस

मूल्य – 200 रु (पेपरबैक) 

पृष्ठ संख्या –  156

ISBN:-10-1638324948

ISBN:-13-978-1638324942

इस संस्करण को अमेज़न और नोशन प्रेस से खरीदा जा सकता है।

अमेज़न लिंक >> लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

नोशन प्रेस लिंक >> लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं

? इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ?

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

लेखक परिचय

नाम- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

जन्मतिथि एवं स्थान- 26 जनवरी 1965, भानपुरा जिला-नीमच (मप्र)

प्रकाशन- अनेक पत्रपत्रिकाओं में रचना सहित 141 बालकहानियाँ 8 भाषा में 1128 अंकों में प्रकाशित।

प्रकाशित पुस्तकेँ- 1- रोचक विज्ञान बालकहानियाँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक  5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- पहाड़ी की सैर  सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित।

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘लेखकोपयोगी सूत्र और 100 पत्रपत्रिकाएं’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

प्रथम संस्करण से…..
अभ्यास भी गुरु है। बिना अभ्यास के कुछ नहीं सीखा जा सकता। संगीत के साथ रियाज जुड़ा है तो लेखन के साथ अभ्यास ।

अभ्यास के साथ-साथ यदि किसी से मार्गदर्शन मिलता रहे तो लक्ष्य जल्दी प्राप्त हो जाता है । गुरु का मार्गदर्शन दीपक की लौ की तरह है जो अंधेरे में राह बताता है ।

लेखन के लिए ये तीन बातें जरुरी है । एक, अभ्यास खूब किया जाए। दो, अपने ज्ञान का प्रयोग करना सीखा जाए । तीन, सही मार्गदर्शन प्राप्त किया जाए। इसी तीसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है, जिस का सारा श्रेय कहानी लेखन महाविद्यालय के सूत्रधार डॉ. महाराज कृष्ण जैन को जाता है ।

दिनांक 05-07-95

 

तीन महीने की मेहनत के बाद आखिर किताब पूरी हो ही गई…..

इस पुस्तक का पहला संस्करण सन 1995 में प्रकाशित हुआ था और वह 4 साल में ही समाप्त प्राय हो गया था। उस वक्त यह पुस्तक 40 पेज की थी और आज 150 के लगभग पेज की हो गई है। उसी वक्त आदरणीय डॉ महाराज कृष्ण जैन साहब ने मुझे इसे अद्यतन करने के लिए कहा था। वह अद्यतन संस्करण मैं ने तारिका प्रकाशन, कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला छावनी को पहुंचाया भी था। मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था। आदरणीय महाराज कृष्ण जैन साहब उसी दौरान हमें छोड़ कर चले गए। इस कारण यह संस्करण अटका हुआ रहा। पुन: इसे अद्यतन कर के आप के सम्मुख प्रस्तुत हैं।

इसमें नवोदित रचनाकारों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र शैली में जानकारी दी गई है।

उपन्यास लेखन की दो पद्धति है। अधिकांश दूसरी पद्धति का उपयोग करते हैं । इसी की व्यवहारिक योजना को इस पुस्तक में 13 पृष्ठों में समेटा गया है। यदि आप उपन्यास लिखना चाहते हैं तो आपके लिए यह पुस्तक काम की हो सकती है।

इस के अलावा भी बहुत कुछ है।

 

द्वितीय संस्करण से …..

लेखन में तीन बातें बहुत जरूरी है

यह अनुभव सिद्ध रहस्य है। जब तक आप बेहतर नहीं पढ़ते हैं तब तक बेहतर नहीं लिख सकते हैं। बेहतर पढ़ने पर ही बेहतर शब्दकोश तैयार होता है। यही शब्दकोश आपके लेखन में उपयोगी होता है।

इसलिए पहली बात- खूब पढ़ा जाए। जमकर पढ़ा जाए । अच्छा पढ़ा जाए। लेखन में सहायक हो, वैसा पढ़ा जाए। इन पंक्तियों के लेखक स्वयं अपनी रचना लिखने के पूर्व विधा की 20-25 रचनाएं पढ़ लेता है। तब लिखता है। तभी बेहतर ढंग से लिखा बाहर आता है।

दूसरी बात- जिस पत्रपत्रिका में छपना चाहते हैं उसे निरंतर देखते रहे। उसको देखने पढ़ने से उसकी रीति नीति पता चलता रहता है। उसके दृष्टिकोण को समझने के लिए यह बहुत जरूरी है। ताकि पत्रिका के इन रीति नीतियों को बेहतर ढंग से समझा जा सके। तभी आप उस पत्रिका के अनुरूप लिख सकते हैं।

पत्रिका क्या छपती है? यह जानना बहुत जरूरी है। आप एक धार्मिक रचना सरिता मुक्ता में छपने नहीं भेज सकते हैं। यदि भेज भी दी है तो वह हरगिज छप नहीं सकेगी। कारण स्पष्ट है कि सरिता मुक्ता की रीति नीति धार्मिक पाखंड का खंडन मंडन करना है। इस कारण वह इस तरह की रचनाएं प्रकाशित नहीं करेगी।

इसी तरह, एक धार्मिक पत्रिका सरिता मुक्ता की रीति नीति की रचनाएं भी हरगिज प्रकाशित नहीं करेगी। चाहे आपकी रचना कितनी भी श्रेष्ठ क्यों ना हो। कारण स्पष्ट है, धार्मिक पत्रिकाएं धार्मिक मान्यता, संस्कृति, परंपरा आदि की पोषक रचना ही स्वीकृत करती और छापती है। इस कारण, आपको पत्र पत्रिकाओं को सदा पढ़ते देखते रहना जरूरी है।

तीसरी और जरूरी बात- आपको बेहतर मार्गदर्शन मिलता रहे और आप बेहतर मार्गदर्शन प्राप्त करते रहें। यह मार्गदर्शन कई तरह का हो सकता है। छपना भी एक प्रेरक मार्गदर्शन ही है। इसके अलावा अपनी छपी रचना को कार्बन कॉपी से मिलान करते रहिए। इस से आपको अपनी कई तरह की गलतियां पता चलती रहेगी। यह स्व मार्गदर्शन होगा। आप अपनी गलतियों का परिष्कार कर पाएंगे।

यदि रचना अस्वीकृत हो तो उसका कारण खोजिए। निराश व हताश हरगिज़ न हो। अस्वीकृति कई कारणों से होती है। जरूरी नहीं कि रचना बेकार हो। इसके कारणों को जानने की कोशिश करें।

आपके आसपास कोई साहित्यकार रहता हो तो उसे रचना दिखाइए। उस से सलाह मशवरा कीजिए। इससे आप की नजर और नजरिया बदलेगा। उससे  अस्वीकृत रचना पर सलाह लीजिए। उन की बताई सलाह पर चलिए। उसे अपनाइए। वह आपके लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।

गुरु का मार्गदर्शन आप का मार्ग प्रशस्त करता है। यह बेहद जरूरी है। इसी तीसरी बात को सामने लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है। इस पुस्तक से आपको अनुभव सिद्ध मार्गदर्शन मिलेगा।

आप इसे पढ़कर बताइएगा कि यह पुस्तक आपको कैसी लगी ? इसमें और क्या जोड़ा जाए?  या और क्या घटाया जाए ? ताकि भविष्य में इसमें सुधार किया जा सके। आपके पत्र, संदेश या मोबाइल का इंतजार रहेगा।

आपका साथी रचनाकार

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 91 ☆ रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष तिवारी जी की पुस्तक “रिश्तें मन से मन के” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 91 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

 

रिश्तों को,

गलतियाँ उतना कमजोर नहीं करती….

जितना कि,

ग़लतफ़हमियाँ कमजोर कर देती है !

रिश्ते ऐसा विषय है जिस पर अलग अलग दृष्टिकोण से हर बार एक अलग ही चित्र बनता है, जैसे केलिडोस्कोप में टूटी चूडियां मनोहारी चित्र बनाती हैं, पर कभी भी चाह कर भी पुनः पिछले चित्र नही बनाये जा सकते।

अतः हर रिश्ते में प्रत्येक पल को पूरी जीवंतता से जीना ही जीवन है।

पति पत्नी का रिश्ता ही लीजिए प्रत्येक दम्पति जहां कभी  प्रेम की पराकाष्ठा पार करते दिखते है, तो कभी न कभी एक दूसरे से क्रोध में दो ध्रुव लगते हैं।

इस पुस्तक से गुजरते हुए मानसिक प्रसन्नता हुई। सन्तोष जी का अनुभव कोष बहुत व्यापक है। उन्होंने स्वयं के या परिचितों के अनुभवों को बहुत संजीदा तरीके से, संयत भाषा मे अत्यंत रोचक तरीके से संस्मरण के रूप में लोकवाणी बनाकर लिखा है। उनकी लेखकीय क्षमताओं को देख कलम कागज से उनके रिश्ते बड़े परिपक्व लगते हैं। मुझ जैसे पाठकों से उन्होने पक्के रिश्ते बनाने में सफलता अर्जित की है। मैं पुस्तक को स्टार लगा कर सन्दर्भ हेतु  सेव कर रहा हूँ।

पढ़ने व स्वयं को इन रिश्तो की कसौटियों पर मथने की अनुशंसा करता हूँ। पुनः बधाई।

इसकी हार्ड कॉपी अपनी लाइब्रेरी में रखना चाहूंगा।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘गांधी के राम’ ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

☆ पुस्तक चर्चा ☆ आत्मकथ्य – ‘गांधी के राम’ ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

पुस्तक – गांधी के राम 

लेखक – श्री अरुण कुमार डनायक

प्रकाशक – ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन, भोपाल (मो- 8815686059)  

मूल्य – 350 रु (सजिल्द) 

पृष्ठ संख्या –  180

ISBN – 978-93-82224-21-1

(वर्तमान में आप यह पुस्तक ज्ञानमुद्रा पब्लिकेशन (मोबाइल नं 8815686059) से अथवा श्री अरुण कुमार डनायक जी  (मोबाइल नं 9406905005) से सीधे संपर्क कर प्राप्त कर सकते हैं । शीघ्र ही यह पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध होगी जिसका लिंक हम आपसे शेयर करेंगे।)

श्री अरुण कुमार डनायक

? इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की और से श्री अरुण कुमार डनायक जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ?

लेखक परिचय

जन्म स्थान – हटा, जिला दमोह मध्य प्रदेश जन्म तिथि 15 फरवरी 1959

पिता – स्वर्गीय श्री रेवा शंकर डनायक माता – स्वर्गीय श्रीमती कमला डनायक

शिक्षा – शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि एवं सीएआईआईबी

सम्प्रत्ति –  भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त सहायक महाप्रबंधक, उन्तालीस वर्षों की सेवा के दौरान  दूरदराज के ग्रामीण व आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कार्य करने का अवसर तथा बैंक की कृषि, लघु उद्योग व व्यवसाय, औद्योगिक वित्त आदि  विभिन्न गतिविधियों में ऋण आकलन व वितरण का अनुभव ।

स्टेट बैंक से सेवानिवृति उपरान्त विभिन्न सामाजिक सरोकारों में संलग्न, कुछ  सेवानिवृत्त मित्रों के साथ मिलकर मध्य प्रदेश की जीवनरेखा नर्मदा की पैदल खंड परिक्रमा, स्कूली विद्यार्थियों, ग्रामीणों व युवाओं के बीच  गान्धीजी  के विचारों को पहुंचाने की दिशा में पहल और ग्रामीण अंचलों में स्वच्छता, वृक्षारोपण, बालिका शिक्षा, ग्रामीण महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण हेतु प्रयासरत श्री डनायक ने, गांधी जयन्ती के दिन 02 अक्टूबर 2019 से प्रारम्भ,  स्वप्रेरित प्रकल्प के तहत भारतीय स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त साथियों व अन्य मित्रों  के सहयोग से दो दर्जन से अधिक शासकीय शालाओं  में स्मार्ट क्लास शुरू करने में सफलता पाई है । आजकल अमरकंटक में बैगा आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं।

आत्मकथ्य

पुस्तक में मैंने गांधी जी के ईश्वर के अस्तित्व संबंधी विचारों को लिपिबद्ध करने की शुरुआत राम के प्रति उनकी भक्ति को प्रदर्शित करती हुई नवजीवन में प्रकाशित एक लेख से की है। यह लेख उन्होंने 1924 में एक वैष्णव भाई को, इस उलाहने का जवाब देने के लिए लिखा था कि वे राम आदि अवतारों के लिए एकवचनी प्रयोग क्यों करते हैं? लेखन आगे बढ़ता है और हम पाते हैं कि रामनाम पर गांधी जी की अटूट श्रद्धा इतनी जबरदस्त थी कि वे अपने बीमार पुत्र मणिलाल का इलाज प्राकृतिक जल चिकित्सा से करते हुए भी राम के आसरे रहते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी के प्रेरणास्रोत  तो जन-जन के नायक, निर्बल के बल राम हैं, जिनकी भक्ति में गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस जैसे अमर महाकाव्य की रचना कर रामचरित्र को विश्वव्यापी बना दिया,  हमारी विरासत की अनमोल धरोहर बना दिया। चाहे गोखले जी की सलाह पर भारत भ्रमण हो, हरिजन कल्याण के लिए देश व्यापी दौरा हो, नमक कानून के विरोध में दांडी मार्च हो सबकुछ राम के वन गमन से मेल खाता दिखता है।अपने हर कदम की अग्रिम सूचना अंग्रेजों को देने वाले गांधी जी यहां  हनुमान और अंगद जैसे रामदूतों से प्रेरित दिखते हैं, जो रावण को न केवल चेतावनी देते हैं वरन राम से संधि न करने के दुष्परिणाम भी बताते हैं । ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले गांधी जी नास्तिकों की शंकाओं का भी समाधान करते हैं और विभिन्न धर्मों  के प्रति अपने विचारों को भी बिना किसी भय के प्रस्तुत करते हैं। गांधी जी का सर्वधर्म समभाव के प्रति समर्पण उन्हें हिंदू धर्म से विमुख नहीं करता वरन यह भावना उन्हें श्रेष्ठ हिंदू बनाने में मदद करती है। वे सनातनी हिन्दू क्यों हैं? इसे भी वे बड़ी स्पष्टता के साथ स्वीकार करते हैं। एकादश व्रत तो उनके आध्यात्मिक जीवन की कुंजी है।

माँ सरस्वती जी की अनुकम्पा से कल 16 फ़रवरी 2021 वसंतोत्सव पर्व पर ही ‘गांधी के राम’ के प्रकाशक श्री वरुण माहेश्वरी और श्री प्रयास जोशी हमारे निवास पुस्तक की पांच प्रतियां लेकर आए। इस प्रसन्नता को आप सभी मित्रों एवं ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – प्रेमार्थ  –  श्री सुरेश पटवा ☆ प्रस्तावना – श्री युगेश शर्मा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। इस सन्दर्भ में आज प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध कहानीकार, नाटककार एवं समीक्षक श्री युगेश शर्मा जी की प्रेमार्थ पुस्तक की प्रस्तावना। अगले सप्ताह से प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे ।  )

☆ कथा संग्रह – प्रेमार्थ  –  श्री सुरेश पटवा ☆ प्रस्तावना   – श्री युगेश शर्मा

मैंने साहित्य की विभिन्न विधाओं की लगभग सवा सौ पुस्तकों की प्रस्तावना, टिप्पणी, समीक्षा लिखी है। इनमें बहुसंख्यक पुस्तकें वे हैं, जो कल्पना के धरातल पर साकार हुई हैं। साहित्यिक लेखन के क्षेत्र में सतत अध्ययन से अर्जित ज्ञान की बुनियाद पर अनुभवों का पुट देते हुए लिखने वाले लेखक कम ही हुए हैं, जिनके लेखन को कल्पना तो संपूरित मात्र करती है। इस श्रेणी के लेखकों का सृजन एकदम अल्हदा रंग और तेवर लिए हुए होता है। इन लेखकों की रचनाओं को पढ़ते समय पाठक रचना से सीधे जुड़कर लेखक के साथ-साथ चलता है और लेखक एवं पाठक के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती। नर्मदा अंचल की ऐतिहासिक बस्ती शोणितपुर वर्तमान सोहागपुर में जन्मे श्री सुरेश पटवा की अब तक प्रकाशित छह: पुस्तकों के आधार पर नि:संकोच भाव से कहा जा सकता है कि वे साहित्य जगत में अपनी पृथक साहित्यिक पहचान रखने वाले साहित्यकार हैं। सुरेश पटवा लेखन ने ज़ाहिर कर दिया है कि उनका लेखन अल्हदा क़िस्म का है।

किसी भी विषय पर लेखक की पकड़ उसके स्पष्ट नज़रिए से अंजाम पाती  है। सुरेश पटवा की अब तक प्रकाशित पाँच किताबों 1757 से 1857 तक का रोचक सच “ग़ुलामी की कहानी”, जेम्स फ़ारसायथ का रोमांचक अभियान “पचमढ़ी की खोज”, रिश्तों के दैहिक भावनात्मक मनोवैज्ञानिक रहस्य “स्त्री-पुरुष”, सौंदर्य, समृद्धि, वैराग्य की नदी “नर्मदा” और सैद्धांतिक प्रबंधन की साहसिक दास्तान “तलवार की धार” से यह पता चलता है कि सम्बंधित विषय की गम्भीरता पूर्ण गहराई से जानकारी  के उपरांत ही उनकी कलम चलती है जो पाठक को बाँधने में सक्षम है। सुरेश पटवा भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक-महाप्रबंधक हैं। पर्यटन और कालजयी पुस्तकों का अध्ययन उनके रुचिकर विषय व शौक़ रहे हैं।

प्रेमार्थ” कहानी संग्रह उनकी सातवीं कृति है। इसमें आपकी पंद्रह कहानियाँ शामिल हैं। कुछेक रचनाएँ बुनावट, तथ्यों और शैली के आधार पर संस्मरण और रिपोर्टाज के निकट परिलक्षित होती हैं परंतु साथ ही यह बात भी स्वीकार करना होगी कि इसमें कहन का पर्याप्त पुट है जो पाठक को पूरी कहानी पढ़ने को प्रेरित करता है।

श्री पटवा के लेखन में यह अल्हदापन अनायास नहीं अपितु सायास आया है। उन्होंने पुराणों और धार्मिक ग्रंथों के साथ-साथ व्यापक स्तर पर साहित्य और वांग्यमय का अध्ययन भी किया है। नया से नया ज्ञान अर्जित करने के लिए वे सदैव तत्पर, लालायित और उत्साहित बने रहते हैं। आपके अध्ययन के विषय विविध आयामी और गम्भीर होते हैं। इतिहास से सम्बंधित पुस्तकों और दस्तावेज़ों के अध्ययन में आपकी विशेष दिलचस्पी है। आपकी दिलचस्पी देशी और विदेशी दोनों प्रकार की पुस्तकों को स्पर्श करती है। आपने “स्त्री-पुरुष” पुस्तक में देशी-विदेशी विद्वानों के काफ़ी उद्धरण दिए हैं जो उनके मंतव्यों एवं निष्कर्षों को सिद्दत के साथ प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। श्री पटवा के साथ एक ख़ास बात यह भी जुड़ी हुई है कि वे अध्ययन के साथ पर्यटन के भी बहुत शौक़ीन हैं। उन्होंने बैंक से मिली पर्यटन सुविधा का उपयोग प्रमुख रूप से ज्ञानार्जन में किया। पर्यटन वृत्ति ने उनको ज्ञान सम्पदा के विभिन्न रूपों से परिचित कराने के साथ-साथ विस्तार से मानव प्रवृत्तियों को समझने का अवसर भी दिया है। ज्ञानार्जन की इस लम्बी प्रक्रिया ने उनके भीतर इतिहास दृष्टि पैदा की है। यह इतिहास दृष्टि उनके शोध परक लेखन को परिपुष्ट और सम्बंधित करने का साधन बनी है। इस कहानी संग्रह की कहानियों में पटवा जी के गहन गम्भीर इतिहास बोध के दर्शन होते हैं।

शोणितपूर, जो कि सौभाग्यपूर, सुहागपुर होता हुआ सोहागपुर  हो गया, के संदर्भ में आपने जो इतिहास सम्मत सटीक ब्योरे दिए हैं, वे प्रमाणित करते हैं कि इतिहास की दुनिया में श्री पटवा की गहरी पैठ है। सोहागपुर से जुड़ी कहानियों में आपने विभिन्न काल खंडों के ऐसे तथ्यों को शामिल किया है, जो आश्चर्यचकित करते हैं। मैं तो यह कह सकता हूँ कि शायद ही कोई दूसरा लेखक होगा जिसने अपनी जन्मभूमि के इतिहास और महात्म्य के बारे में इतनी व्यापक और सूक्ष्म खोज कर काफ़ी विश्वसनीय तथ्य जुटाए हों।

आजकल  कहानी जीवन की प्रतिच्छाया के रूप में लिखी जा रही है। यह सब कुछ होते हुए भी सामान्य पाठक कहानी में मनोरंजन के तत्त्वों को भी ढूँढता है। लेखक की सभी कहानियाँ भारतीय सामाजिक मूल्यों के आसपास मनोरंजक कौतूहल जागती प्रेरक संदेश देती हैं इसलिए यह पुस्तक एक उच्च कोटि का संग्रहणीय कहानी संग्रह है।

इस कहानी संग्रह की कहानियों से गुज़रते हुए कहानीकार श्री सुरेश पटवा के लेखन की दो और विशेषताओं से साक्षात्कार हुआ है। पहली, उनकी अनुभूतियों में गहराई है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को लेखन में उतारने में अच्छी महारत हासिल की है। “गेंदा-गुलाबो” कहानी को लें  अथवा “शब्बो-राजा” कहानी को या फिर “एक थी कमला” या “ग़ालिब का दोस्त” को लें, उनकी अनुभूतियों में गहराई के साथ प्रचुर संवेदनशीलता भी विद्यमान है। दूसरी विशेषता मुझे उनकी प्रखर स्मृति के रूप में दिखाई दी। सोहागपुर की पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानियों में उनके स्मृति सामर्थ्य का आल्हादकारी चमत्कार देखने को मिलता है। वे अपने बचपन के मित्रों, सोहागपुर के बुजुर्गों, ख़ास व्यक्तियों और स्थानों के नामों का यथार्थ उल्लेख करते हैं। अचरज तो यह पढ़कर होता है कि वे छोटी जातियों के संगी साथियों का संदर्भ एवं नामोल्लेख करने में भी उदारता का भरपूर परिचय देते हैं। इन्ही वास्तविक ब्योरों के कारण कहानियाँ अधिक पठनीय और रोचक बन पड़ी हैं। वे स्वयं के शुरुआती जीवन की सच्चाइयों को भी यथाप्रसंग प्रस्तुत करने में चूकते नहीं है।  वे इस सच को भी नहीं छुपाते कि बचपन में रेल्वे स्टेशन पर मेहनत मज़दूरी करते और चाय बेचा करते थे। उन्होंने अपने खून के रिश्तों के खुरदरेपन को भी प्रस्तुत करने में गुरेज़ नहीं किया है। “एक थी कमला” कहानी इसका प्रमाण है।

मुझे यह कहने में क़तई संकोच नहीं है कि संग्रह की दो-तीन कहानियाँ कथाशिल्प की कसौटी पर चाहे शत-प्रतिशत खरी न उतर रही हों, लेकिन उनमें रोचकता और कहन की कोई कमी नहीं प्रतीत होती। इन कहानियों की कथावस्तु की नव्यता और नैसर्गिकता निस्संदेह आकर्षित करती है। इन कहानियों के पठनोपरांत पाठक निश्चित ही अनुभव करेंगे कि उन्होंने ऐसा कुछ पढ़ा है, जो उनको कुछ ख़ास दे रहा है। एक बड़ी बात तो यह है कि संग्रह की कोई भी कहानी पाठक को शिल्पगत चमत्कार पैदा करने के लिए न तो यहाँ-वहाँ भटकाती है और न ही किसी प्रकार की उपदेशबाज़ी के फेर में पड़ती है। यह बात उल्लेखनीय है कि प्रत्येक कहानी में ऐसा कुछ ख़ास अवश्य है, जो पढ़ते-पढ़ते नए ज्ञान के साथ-साथ जीवनोपयोगी मंत्र भी सौंप जाती है। इन कहानियों को पढ़ते-पढ़ते पाठक के मन में यह अहसास अवश्य जागेगा कि उसने जीवन के एक यथार्थ से साक्षात्कार किया है।

संग्रह की कहानियों की मौलिकता और जीवंतता भी बरबस आकर्षित करती है। कुछ कहानियों में आंचलिकता उनकी प्रमुख विशेषता के रूप में उभर कर आई है। विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी श्री आर. के. तलवार की महानता को संग्रह की प्रथम कहानी “अहंकार” में रेखांकित किया गया है। लेखक सुरेश  पटवा अस्सी वर्षीय यशस्वी जीवन यात्रा पूर्ण करने वाले श्री तलवार की दिव्य चेतना से अभिभूत है। पुदुच्चेरी में श्री अरविंद आश्रम में लेखक की उस महामानव से भेंट हुई थी। कहानी में अहंकार को बहुत ही अच्छी तरह समझाया गया है। “ग़ालिब का दोस्त” कहानी में महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और धनपति बंशीधर की आदर्श दोस्ती को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में ढाला गया है। सच्ची मित्रता न तो जाँत-पाँत देखती है और न अमीर गरीब। दिनों मित्रों का वार्तालाप मन में आत्मीयता का रस घोल देता है। “अनिरुद्ध ऊषा” कहानी में भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और शोणितपुर की राजकुमारी ऊषा की प्रेम कहानी को ऐतिहासिकता के पुट के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी इतनी विकट है कि श्रीकृष्ण और शिवजी को युद्ध में आमने सामने खड़ा कर दिया है। “कच-देवयानी” भी शोणितपुर की ही प्रेम कहानी है। कहानी में बहुत अंतर्द्वंद है। यह कहानी महाभारत में भी वर्णित है। कच बृहस्पति के पुत्र थे और देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री। जब कच ने देवयानी का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया तो उसने कच को श्राप दे दिया था। कच भी शांत नहीं रहा उसने भी देवयानी को श्राप दिया कि कोई भी ऋषि पुत्र उससे विवाह नहीं करेगा और वह पति प्रेम को तरसेगी। “गेंदा और गुलाबो” कहानी भी कम रसभरी नहीं है। इस कहानी के साथ प्रख्यात सोहागपुरी सुराही की अंतर्कथा भी चलती है। सतपुड़ा अंचल में परवान चढ़ी एक और प्रेम कहानी “शब्बो-राजा” शीर्षक से संग्रह में शामिल है। कहानी में प्रेम, षड्यंत्र और हत्या का त्रिकोण है। उसमें प्रतिशोध की आग भी है। “सोहिनी और मोहिनी” कहानी में राजाओं की रंगीन ज़िंदगी का चित्रण है। कहानी के केंद्र में सोहिनी और मोहिनी नाम की दो युवा नर्तकियाँ हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि रीवा के राजा मोहिनी से और शोभापुर के राजा सोहिनी से विवाह रचाते हैं।

एक थी कमला” एक दर्द भरी कहानी है। कमला के जीवन की त्रासदी उद्वेलित करती है। वह जी जान से सबकी सेवा करती है, किंतु उसको जीवन में वांछित सुख नहीं मिलता। “अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा” कहानी अन्य कहानियों से भिन्न पृष्ठभूमि की कहानी है। यह कहानी प्रख्यात समाज सेवी मुरली धर आमटे द्वारा की गई अद्वितीय कुष्ठ सेवा का इतिहास बयान करती है। उन्होंने सम्पन्न परिवार एवं अंग्रेज सरकार के महत्वपूर्ण सुख सुविधाओं की छोड़कर खुद को कुष्ठ मुक्ति आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया था। बड़ी प्रेरक कहानी है यह। “गढ़चिरोली की रूपा” एक ऐसी हथिनी की कहानी है, जिसको अनेकों कोशिशों के बाद भी मातृत्व सुख नहीं मिला। वह बसंती नामक दूसरी हथिनी की सौतिया डाह की शिकार बनी। कहानी बताती है कि सौतिया डाह मनुष्यों की तरह जानवरों में भी व्याप्त है। “बीमार-ए-दिल” एक रोचक कहानी बन पड़ी है। कहानीकार सुरेश पटवा को दिल के आपरेशन से गुजरना पड़ा। जिसकी अनुभूति तटस्थ मौज मस्ती में लिखी है। आपरेशन के भय का चित्रण तो पढ़ते ही बनता है। “साहब का भेड़ाघाट दौरा” शरद ऋतु की चाँदनी रात में अतीव सौंदर्य प्रकटन के वर्णन समेटे है। “सभ्य जंगल की सैर” वनीय सौंदर्य को समेटे उत्कृष्ट व्यंगात्मक कहानी है। “भर्तृहरि वैराग्य” कहानी में उज्जैन के राजा भर्तृहरि के वैराग्य-पथ पर अग्रसर होने का चित्रण है। राजा की पत्नी की बेवफ़ाई उसका कारण बनी। यह कहानी मित्रों की उज्जैन से भोपाल की यात्रा के दौरान संवाद शैली में आकार लेती है। चार दोस्तों में एक स्वयं लेखक भी है। “ठगों का काल कैप्टन स्लीमैन” बहुत रोचक अन्दाज़ में लिखी गई एतिहासिक कहानी है।

इन कहानियों की रचना में श्री सुरेश पटवा का श्रम प्रणम्य और कहानियों के लिए शोध कार्य अभिनंदनीय है। संग्रह की कहानियाँ पठन आनंद और प्रेरणा दोनों से पाठकों को आनंदित करेंगी, ऐसा विश्वास है।

© श्री युगेश शर्मा

कहानीकार, नाटककार एवं समीक्षक

‘व्यंकटेश कीर्ति’, 11 सौम्या एनक्लेव एक्सटेंशन, चूना भट्टी, भोपाल-462016 मो 9407278965

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 90 ☆ धर्म और संस्कृति एक विवेचना – श्री रंगा हरि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री रंगा हरि जी की पुस्तक  “धर्म और संस्कृति -एक विवेचना” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – धर्म और संस्कृति – एक विवेचना  # 90 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – धर्म और संस्कृति एक विवेचना

लेखक –  श्री रंगा हरि 

☆ पुस्तक चर्चा ☆ धर्म और संस्कृति – एक विवेचना – श्री रंगा हरि ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

धर्म को लेकर भारत में तरह तरह की अवधारणायें पनपती रही हैं . यद्यपि हमारा संविधान हमें धर्म निरपेक्ष घोषित करतया है किन्तु वास्तव में यह चरितार्थ नही हो रहा. देश की राजनीति में धर्म ने हमेशा से बड़ी भुमिका अदा की है. चुनावो में जाति और धर्म के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं है. आजादी के बाद अब जाकर चुनाव आयोग ने धर्म के नाम पर वोट मांगने पर हस्तक्षेप किया है. तुष्टीकरण की राजनीति हमेशा से देश में हावी रही है. दुखद है कि देश में धर्म व्यक्तिगत आस्था और विश्वास तथा मुक्ति की अवधारणा से हटकर सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन तथा दिखावे का विषय बना हुआ है. ऐसे समय में श्री रंगाहरि की किताब धर्म और संस्कृति एक विवेचना पढ़ने को मिली.  लेखक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुयायी व प्रवर्तक हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को हिन्दूवादी संगठन माना जाता है. स्वाभाविक रूप से उस विचारधारा का असर किताब में होने की संभावना थी, पर मुझे पढ़कर अच्छा लगा कि ऐसा नही है, बल्कि यह हिन्दू धर्म की उदारवादी नीति ही है जिसके चलते पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि हिन्दूत्व, धर्म से ऊपर संस्कृति है. मुस्लिम धर्म की गलत विवेचना के चलते सारी दुनियां में वह किताबी और कट्टरता का संवाहक बन गया है, ईसाई धर्म भारत व अन्य राष्ट्रो में कनवर्शन को लेकर विवादस्पद बनता रहा है.

सच तो यह है कि सदा से धर्म और राजनीति परस्पर पूरक रहे हैं. पुराने समय में राजा धर्म गुरू से सलाह लेकर राजकाज किया करते थे. एक राज्य के निवासी प्रायः समान धर्म के धर्मावलंबी होते थे. आज भी देश के जिन क्षेत्रो में जब तब  विखण्डन के स्वर उठते दिखते हैं, उनके मूल में कही न कही धर्म विशेष की भूमिका परिलक्षित होती है.

अतः स्वस्थ मजबूत लोकतंत्र के लिये जरूरी है कि हम अपने देश में धर्म और संस्कृति की सही  विवेचना करें व हमारे नागरिक देश के राष्ट्र धर्म को पहचाने. प्रस्तुत पुस्तक सही मायनो में छोटे छोटे सारगर्भित अध्यायों के माध्यम से इस दिशा में धर्म और संस्कृति की व्यापक विवेचना करने में समर्थ हुई है.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ आत्मकथ्य – मोहल्ला 90 का ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

( आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार जी की एक चर्चित पुस्तक “मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश जो निश्चित ही आपको कुछ समय के लिए ही सही अवश्य ले जायेंगे 90 के दशक में। )

 ☆ पुस्तक समीक्षा ☆ आत्मकथ्य – मोहल्ला 90 का ☆ श्री आशीष कुमार ☆ 

मौहल्ला 90 का (Hindi Edition) by [ASHISH KUMAR]

पुस्तक – मोहल्ला 90 ka

लेखक – श्री आशीष kumar

प्रकाशक –  ईविन्स पब्लिशिंग

मूल्य – पेपरबैक – रु 100 ई – बुक – रु 60

अमेज़न लिंक >> मोहल्ला 90 का

इस संस्मरण के मुख्य शीर्षक हैं – अच्छे दिन, दुनिया बदल रही है, त्यौहारों की खुशबू, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँव की शादी, खट्टे मीठे दिन स्कूल के, खुशबू लड़कपन के प्यार की, नाम की सवारी, 2020 का जमाना, मुकाबला वापसी के लिए।

यादों के झरोखे से ” मोहल्ला 90 का” के कुछ अंश –

बचपन संभवतय हर व्यक्ति की सबसे पुरानी यादों के साथ जुड़ा हुआ होता है। उसी उम्र में बच्चा पढ़ना शुरु करता है। माता – पिता के बार बार कहने के बावजूद भी समय बे समय वो अपने दोस्तों के साथ खेलने चला जाता है। उस वक्त गर्मी, सर्दी या बरसात उसे रोक नहीं पाती।बचपन की ज्यादातर यादें उस वक्त के दोस्तों की और परिवार या आस-पड़ोस, अध्यपक आदि की बातों से भरी होती हैं जो चाह कर भी भुलाई नहीं जा सकती है उस समय घर में डाँट पड़े या मार दोस्तों के साथ खेलना कूदना ही सबसे जरूरी लगता है। इस समय की यादे काफी भावुक और गहरी होती हैं।उम्र के बढ़ने के साथ साथ सोच भी बदलनी शुरू हो जाती हैआप सबको याद है की हमारे खेलों में भी बदलाव आते रहते हैं। पहले छुपन – छुपाई होती थी, फिर लूड़ो-साँप सीढी का जमाना आता है, उसके बाद व्यापार आदि। शाम हुई नहीं कि भागे मैदान की तरफ, परीक्षा के दिनों में भी हम घंटे दो खेल ही लेते थे पर अब?सड़क के नुक्कड़ पर बैठकर गप्पें मारना तो ऐसा था की कब दिन से रात हुई, यह आभास भी नहीं होता था।क्या आप लोग भूल गए की खेलो के पीरियड भी होते थे और अगर नहीं है हफ्ते-दो हफ्ते में हर विषय के सर या मैडम से उनका एक पीरियड खेल का करवाने की ज़िद करके हम उसे खेल का करवा लेते थे। आज कल तो बड़ो को छोड़ो 3-4 साल के बच्चे भी मोबाइल में ही घुसे रहते है।

क्या आप लोग मिस नहीं करते वो बारिश की बूंदें, वो ठंडी पछवाड़े, वो सपनो से भरी कागज़ की नाव, वो मिटटी के खेल, वो डबल बैड पर एक ओर लेट कर रोल होते होते डबल बैड के दूसरे कोने तक जाना।वो बिस्कुट के ऊपर लगे काजू, बादाम निकाल कर खाना, स्कूटर पर आगे खड़े होकर या पीछे उलटे बैठ कर जाना।परीक्षा से पहले पापा का कहना, पढ़ाई मत कर लेना टी.वी. हीदेखते रहना, याद आया सामने वाली गली में और हमारी इसी छत पर घंटो क्रिकेट खेलना, लुड्डो, सांप- सीडी, कैरम, लंगड़ी टाँग, खो खो और पता नहीं क्या क्या?

समय लगातार बदलता रहता है वक्त की रफ्तार में दौड़ते दौड़ते कब पैसे की ज़रूरत महसूस होने लगी इसकाअंदाजा आपको भी महँगी महँगी कारो और लोगो की लाइफस्टाइल को देखकर ही लगा होगा ना? आप में से बहुत सारे लोगो को नौकरी के लिए घर छोड़कर दूसरे शहरो में जाना पड़ा, शहर अनजान सा था। एक छोटा सा कमरा जो सामान से ही भरा रहता था। शुरू-शुरू में होटल का खाना अच्छा लगता होगा लेकिन आज बताओ घर के खाने का ही मन करता है ना।जिन कामो को जब मम्मी या पापा हमारे लिए कर देते थे तो वो बड़े आसान से लगते थे लेकिन अब जब खुद करने पड़ते है तो वो बड़े मुश्किल से लगते हैना? मेहनत से काम करने के बावजूद ऑफिस में बॉस की डांटमन को कचोटती है ना? हमने घर में कभी किसी की सुनी नही थी लेकिन पैसों की चाह ने यहाँ सब कुछ चुपचाप सहन करना सीखा दिया। आज लगता है ना की घर के जिस चैन को हम दुखो का दौर समझते थे असल मे वो ही हमारा गोल्डन टाइम था । जिसको शायद पैसा कभी भर नही सकता।

मौसम भी वही है हम भी वही हैं मगर पहले जैसी, अब बात नहीं है वही बारिश है वही बारिश की बूंदे हैं मगर अब उनमे हमारे जज्बात नहीं है, गलियां भी वही है यार भी वही हैं मगर पहले जैसे,अब मिलते नहीं हैं क्योकि आज वो भी बिजी है और हम भी।

चलो आप लोगो को स्कूल के उस दौर में ले चलता हूँ और अध्यापको द्वारा दिए गए कुछ ज्ञान याद करवाता हूँ:

  • मुझे क्लास में पिन ड्रॉप साइलेन्स चाहिये(मुझे आज तक वो पिन नहीं मिली)
  • बहुत हँसी आ रही है हमें भी तो बताओ थोड़ा हम भी हँस लें (अरे हाँ पहले सच्ची हँसी भी तो हुआ करती थी)
  • क्या बेटा, बाहर देखने में ज़्यादा आनन्द आ रहा हो तो बाहर ही निकल जाओ (अब तो अंदर का एकांत पसंद है बस)
  • आज आप लोगों का सरप्राइज़ टेस्ट है (काश आज फिर कोई सेSurprise टेस्ट ले ले)
  • ज़रा सा बाहर जाते ही क्लास को सब्जी मंडी बना देते हो, सब खड़े हो जाओ (टीचर द्वारा कुर्सी पर हाथ ऊपर करके खड़े होने की सज़ा याद है ना?)
  • किताब कहाँ है ? घर पर दूध दे रही है क्या? (अब तो किताब भी मोबाइल में घुस गयी)
  • माँ बाप का खूब नाम रोशन कर रहे हो बेटा, क्यों उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई बर्बाद कर रहे हो ? (नाम ही माँ-बाप का दिया हुआ है)
  • खाना खाना भूले थे ? होमवर्क कैसे भूल गये ? (अब तो होम में वर्क ही होता है बस शरारत कहाँ?)
  • हाँ तुमसे ही पूछ रही हूँ खड़े हो जाओ, इधर उधर क्या देख रहे हो, Answer दो (मेरे पास आज भी Answer नहीं है)
  • ज़ोर से पढ़ो यहाँ तक आवाज़ आनी चाहिये, मस्ती में तो बहुत गला फाड़ते हो, पढ़ने में क्या हो जाता है ? (पूर्ण मौन)
  • कल से तुम दोनों को अलग अलग बैठना है (दोस्त अब कुछ ज्यादा ही अलग अलग हो गए है)
  • अगर वह कुँए में कूदेगा तो क्या तुम भी कूद जाओगे ?( मन करता है कि अब तो कुँए में ही कूद जाये)
  • इतने सालों में कभी इतनी ख़राब क्लास और इतने ढीठ बच्चे नहीं देखे (ढीठ तो अब हो गए है)

स्कूल में हम सबकी टीचरों द्वारा सबके सामने भी पिटाई होती थी पर तब भी हमारा Ego हमें कभी परेशान नही करता था हम बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि Ego होता क्या है। क्योकि पिटाई के एक घंटे बाद ही हम फिर से हंसते हुए कोई और शैतानी करने लगते।

पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में हम शहर-शहर में मरे फिरते है पर सच बताओ हमारे बचपन की ये गालियाँ, वो स्कूल का जीवन, तीज- त्यौहारो की मस्ती हमारा आज भी पीछा करते हैं ना और उन्हें ही याद करके अब हम सब शायद सबसे ज्यादा खुश होते है।याद है वो घर में मूंगफली भी जितने भाई-बहन है उतने हिस्सों में बाटी जाती थी और हमेशा लगता था की मेरे हिस्से में ही एक-दो मूंगफली कम है।ये नया जमाना हमे कहाँ ले आया?, नल की टोटी का काई वाला पानी पी के जो प्यास बूझती थी उसका कोई जवाब नहीं,अब तो RO का शुद्ध पानी पीकर भी बरसो से प्यासे ही है।आप सब कभी एक मिनट भी एक दूसरे के बगैर नहीं रह पाते थे कभी स्कूल में साथ तो कभी स्कूल के बाद शाम ढलने तक रोज मिलते थे फिर भी रोज नयी और ज्यादा खुशी। और आप लोग आज काफी समय बाद मिल रहे है कुछ को तो शायद बीस सालो से भी ज्यादा हो गए, क्या मुझे बातयेंगे जब इतने समय बाद आप लोग आज यहाँ पर मिले कितनो ने एक दूसरे से कितनी देर बात की? एक मिनट, दो मिनट या ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट और फिर लग गए सब अपने अपने मोबाइलो में।नाम मोबाइल है पर इस 6-7 इंच की वस्तु ने सबकी जिंदगी स्थायी बिना किसी गति के बना दी है।

याद करिये वो दिन जब हमारे पास न तो Mobile, DVD’s, PlayStation, Xboxes, PC, Internet, चैटिंग कुछ नहीं था फिर भी हम हर पल को जीते थे क्योकि तब हम दोस्तों के साथ जीते थे।पोशम्पा भाई पोशम्पा डाकूो ने क्या किया सौ रूपये की घड़ी चुराई, आज फिर कोई सौ रूपये की घडी चुरा ले जिससे समय हमेशा के लिए रुक जाये कम से कम और आगे ना बढ़े।

चलो क्यों ना फिर से बचपन में जाये, चलो क्यों ना अन्य उत्सवों की तरह बचपन भी मनाये क्यों ना हफ्ते में या महीने में या कम से कम साल में एक बार सब कुछ भूल जाये।चलो फिर से तबियत ना बिगड़ने के डर से आगे बढ़े और बारिश की बूंदो के साथ मज़े करे, कागज़ की नाव फिर से चलाये, फिर से मिट्टी में खेले, छत की ज़मीन पर एक रात फिर सो ले।आज मोबाइल पर फिर से लूडो खेलते हो ना चलो एक असली लूडो लाये और फिर से टोलिया बनाये।चलो फिर एक बार एक कक्षा की रौनक बढ़ाये, फिर से कुछ कागज के जहाज उड़ाये।अपनी अपनी कारों को पार्क ही रहने दो चलो फिर से साइकिलो से दौड़ लगायें।

एक दिन के लिए फिर से Health Un conscious हो जाओ और मीठी चाय में रस या पापे डूबा कर खाओ।क्यों ना बाजार की आइसक्रीम छोड़ कर आज फिर से घर पर आइसक्रीम जमायी जाये।पापड़ और स्नैक्स भी बहार के खाते हो, भूल गए बचपन में मम्मी के हाथो से बने पापड़ और कचरियों जो छतो पर सूखते थे और हम उनके ऊपर से कूदते थे। इस बार क्यों ना आपने हाथो से बने पापड़ मम्मी को खिलाये…………….. चलो इसी बहाने घर लौट आये।

चलो फिर से अपने कमरों में क्रिकेटरों के पोस्टर लगायें, यादो के लिए ही सही पर एक बार फिर से स्टोर में पड़े धूल लगे थैले में से कुछ ऑडियो कैसेट निकाले और उसके एक खांचे में पैंसिल फसा कर फिर से घुमा ले।क्यों ना आज अपनी कॉमिको के सारे सुपर हीरो बुला ले।कल होली पर मोहल्ले के हर घर में जाकर रंग लगाने के लिए आज ही टोलिया बना ले।मैं तो कहता हूँ इस बार अपने अपने बच्चो को भी उसमे मिला ले। 15-20 तो हम है ही, इस बार दशहरा पर क्यों ना अपने मोहल्ले में ही रामलीला का मंच लगा ले। किसी को रावण किसी को हनुमान बना ले।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 89 ☆ ककनमठ (उपन्यास) – पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  उपन्यास  “ककनमठ ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – उपन्यास – ककनमठ  # 89 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – उपन्यास  – ककनमठ 

लेखक –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज

पृष्ठ – 180

मूल्य – 500 रु

☆ पुस्तक चर्चा ☆ उपन्यास – ककनमठ  –  पंडित छोटेलाल भारद्वाज ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

विक्रम संवत 1015 से 1025 के मध्य काल में अद्भुत विशाल कच्छप घात राजवंश के शैव संप्रदाय में राजा कीर्तिराज और रानी कंगनावती के प्रेम की परिणीति के स्मारक के रूप में भगवान शंकर का विशाल लगभग 115 फिट ऊंचा मंदिर ककनमठ का निर्माण कराया गया था,  जो आज भी मुरैना जिले के अश्व नदी के किनारे महमूद ग़ज़नवी, अल्तमश और अन्य सिकंदर लोदी जैसे आक्रांताओं के प्रहारों को सहने के कारण क्षत-विक्षत स्वरूप में ही भले हो पर अपना गौरवशाली इतिहास समेटे हुए मीलों दूर से उच्च मीनार जैसा दिखने वाला शिल्प समुच्चय  आज भी मौजूद है । राजा कीर्तिराज और कंकण की प्रेम कहानी की अमरता का यह आध्यात्मिक  प्रतीक बना । प्रेम के आध्यात्मिक परिणीति की हमारी पुरातन संस्कृति का यह स्मारक खजुराहो, कोणार्क जैसे भव्य मंदिरों श्रृंखला में एक कम चर्चित पर पौराणिक स्थल है।

लेखक ने इस पुरातात्विक स्मारक के ऐतिहासिक मूल्यों की रक्षा  करते हुए जनश्रुतियों के आधार पर कहानी को बुना है।  सरल भाषा में यह ऐतिहासिक विषय वस्तु का उपन्यास पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है।

यह महमूद गजनवी  जैसे आक्रांता पर राजा कीर्तिराज की वीरता पूर्ण जीत का भी गवाह है। जिसके कारण गजनवी केवल लूटपाट करके ही इस क्षेत्र से भाग गया था।

उपन्यास में वर्णन के माध्यम से लेखक ने अनेक शाश्वत मूल्य को भी स्थान दिया है उदाहरण के तौर पर गुरु हृदय शिव राजा से कीर्ति राज से कहते हैं “वत्स राज्य संचालन के लिए हृदय की जिस गरिमा की आवश्यकता है वही देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है संकुचित है ना स्वयं की रक्षा कर पाता है और ना अपने देश की”

यह ऐतिहासिक आंचलिक कथावस्तु पर आधारित उपन्यास वीरता व प्रेम का दस्तावेज भी है, जो तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक ककनमठ के क्षतिग्रस्त अवशेष भी हमारी धरोहर बने रहेंगे।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 40 ☆ पुस्तक चर्चा – जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव☆ चर्चाकार – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा  पुस्तक चर्चा  ‘जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 40 ☆ 

☆ ☆ पुस्तक चर्चा – जिजीविषा (कहानी संग्रह) – डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव ☆ 

[कृति विवरण: जिजीविषा, कहानी संग्रह, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, द्वितीय संस्करण वर्ष २०१५, पृष्ठ ८०, १५०/-, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक जेकट्युक्त, बहुरंगी, प्रकाशक त्रिवेणी परिषद् जबलपुर, कृतिकार संपर्क- १०७ इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट मार्ग जबलपुर।]

जिजीविषा : पठनीय कहानी संग्रह

चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

हिंदी भाषा और साहित्य से आम जन की बढ़ती दूरी के इस काल में किसी कृति के २ संस्करण २ वर्ष में प्रकाशित हो तो उसकी अंतर्वस्तु की पठनीयता और उपादेयता स्वयमेव सिद्ध हो जाती है। यह तथ्य अधिक सुखकर अनुभूति देता है जब यह विदित हो कि यह कृतिकार ने प्रथम प्रयास में ही यह लोकप्रियता अर्जित की है। जिजीविषा कहानी संग्रह में १२ कहानियाँ सम्मिलित हैं।

सुमन जी की ये कहानियाँ अतीत के संस्मरणों से उपजी हैं। अधिकांश कहानियों के पात्र और घटनाक्रम उनके अपने जीवन में कहीं न कहीं उपस्थित या घटित हुए हैं। हिंदी कहानी विधा के विकास क्रम में आधुनिक कहानी जहाँ खड़ी है ये कहानियाँ उससे कुछ भिन्न हैं। ये कहानियाँ वास्तविक पात्रों और घटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होने के कारण जीवन के रंगों और सुगन्धों से सराबोर हैं। इनका कथाकार कहीं दूर से घटनाओं को देख-परख-निरख कर उनपर प्रकाश नहीं डालता अपितु स्वयं इनका अभिन्न अंग होकर पाठक को इनका साक्षी होने का  अवसर देता है। भले ही समस्त और हर एक घटनाएँ उसके अपने जीवन में न घटी हुई हो किन्तु उसके अपने परिवेश में कहीं न कहीं, किसी न किसी के साथ घटी हैं उन पर पठनीयता, रोचकता, कल्पनाशक्ति और शैली का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद भी उनकी यथार्थता या प्रामाणिकता भंग नहीं होती।

जिजीविषा शीर्षक को सार्थक करती इन कहानियों में जीवन के विविध रंग, पात्रों – घटनाओं के माध्यम से सामने आना स्वाभविक है, विशेष यह है कि कहीं भी आस्था पर अनास्था की जय नहीं होती, पूरी तरह जमीनी होने के बाद भी ये कहानियाँ अशुभ पर चुभ के वर्चस्व को स्थापित करती हैं। डॉ. नीलांजना पाठक ने ठीक ही कहा है- ‘इन कहानियों में स्थितियों के जो नाटकीय विन्यास और मोड़ हैं वे पढ़नेवालों को इन जीवंत अनुभावोब में भागीदार बनाने की क्षमता लिये हैं। ये कथाएँ दिलो-दिमाग में एक हलचल पैदा करती हैं, नसीहत देती हैं, तमीज सिखाती हैं, सोई चेतना को जाग्रत करती हैं तथा विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं।’

जिजीविषा की लगभग सभी कहानियाँ नारी चरित्रों तथा नारी समस्याओं पर केन्द्रित हैं तथापि इनमें कहीं भी दिशाहीन नारी विमर्ष, नारी-पुरुष पार्थक्य, पुरुषों पर अतिरेकी दोषारोपण अथवा परिवारों को क्षति पहुँचाती नारी स्वातंत्र्य की झलक नहीं है। कहानीकार की रचनात्मक सोच स्त्री चरित्रों के माध्यम से उनकी समस्याओं, बाधाओं, संकोचों, कमियों, खूबियों, जीवत तथा सहनशीलता से युक्त ऐसे चरित्रों को गढ़ती है जो पाठकों के लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। असहिष्णुता का ढोल पीटते इस समय में सहिष्णुता की सुगन्धित अगरु बत्तियाँ जलाता यह संग्रह नारी को बला और अबला की छवि से मुक्त कर सबल और सुबला के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

‘पुनर्नवा’ की कादम्बिनी और नव्या, ‘स्वयंसिद्धा’ की निरमला, ‘ऊष्मा अपनत्व की’ की अदिति और कल्याणी ऐसे चरित्र है जो बाधाओं को जय करने के साथ स्वमूल्यांकन और स्वसुधार के सोपानों से स्वसिद्धि के लक्ष्य को वरे बिना रुकते नहीं। ‘कक्का जू’ का मानस उदात्त जीवन-मूल्यों को ध्वस्त कर उन पर स्वस्वार्थों का ताश-महल खड़ी करती आत्मकेंद्रित नयी पीढ़ी की बानगी पेश करता है। अधम चाकरी भीख निदान की कहावत को सत्य सिद्ध करती  ‘खामियाज़ा’ कहानी में स्त्रियों में नवचेतना जगाती संगीता के प्रयासों का दुष्परिणाम  उसके पति के अकारण स्थानान्तारण के रूप में  सामने आता है। ‘बीरबहूटी’ जीव-जंतुओं को ग्रास बनाती मानव की अमानवीयता पर केन्द्रित कहानी है। ‘या अल्लाह’ पुत्र की चाह में नारियों पर होते जुल्मो-सितम का ऐसा बयान है जिसमें नायिका नुजहत की पीड़ा पाठक का अपना दर्द बन जाता है। ‘प्रीती पुरातन लखइ न कोई’ के वृद्ध दम्पत्ति का देहातीत अनुराग दैहिक संबंधों को कपड़ों की तरह ओढ़ते-बिछाते युवाओं के लिए भले ही कपोल कल्पना हो किन्तु भारतीय संस्कृति के सनातन जवान मूल्यों से यत्किंचित परिचित पाठक इसमें अपने लिये एक लक्ष्य पा सकता है।

संग्रह की शीर्षक कथा ‘जिजीविषा’ कैंसरग्रस्त सुधाजी की निराशा के आशा में बदलने की कहानी है। कहूँ क्या आस निरास भई के सर्वथा विपरीत यह कहानी मौत के मुंह में जिंदगी के गीत गाने का आव्हान करती है। अतीत की विरासत किस तरह संबल देती है, यह इस कहानी के माध्यम से जाना जा सकता है, आवश्यकता द्रितिकों बदलने की है। भूमिका लेख में डॉ. इला घोष ने कथाकार की सबसे बड़ी सफलता उस परिवेश की सृष्टि करने को मन है जहाँ से ये कथाएँ ली गयी हैं। मेरा नम्र मत है कि परिवेश निस्संदेह कथाओं की पृष्ठभूमि को निस्संदेह जीवंत करता है किन्तु परिवेश की जीवन्तता कथाकार का साध्य नहीं साधन मात्र होती है। कथाकार का लक्ष्य तो परिवेश, घटनाओं और पात्रों के समन्वय से विसंगतियों को इंगित कर सुसंगतियों के स्रुअज का सन्देश देना होता है और जिजीविषा की कहानियाँ इसमें समर्थ हैं।

सांस्कृतिक-शैक्षणिक वैभव संपन्न कायस्थ परिवार की पृष्ठभूमि ने सुमन जी को रस्मो-रिवाज में अन्तर्निहित जीवन मूल्यों की समझ, विशद शब्द  भण्डार, परिमार्जित भाषा तथा अन्यत्र प्रचलित रीति-नीतियों को ग्रहण करने का औदार्य प्रदान किया है। इसलिए इन कथाओं में विविध भाषा-भाषियों,विविध धार्मिक आस्थाओं, विविध मान्यताओं तथा विविध जीवन शैलियों का समन्वय हो सका है। सुमन जी की कहन पद्यात्मक गद्य की तरह पाठक को बाँधे रख सकने में समर्थ है। किसी रचनाकार को प्रथम प्रयास में ही ऐसी परिपक्व कृति दे पाने के लिये साधुवाद न देना कृपणता होगी।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 89 ☆ साहबनामा – श्री मुकेश नेमा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  “साहबनामा ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – साहबनामा # 89 ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – साहबनामा 

लेखक –  श्री मुकेश नेमा  

प्रकाशक – मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल

पृष्ठ – २२४

मूल्य – २२५ रु

☆ पुस्तक चर्चा ☆ साहबनामा – श्री मुकेश नेमा ☆ समीक्षा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

कहा जाता है कि दो स्थानो के बीच दूरी निश्चित होती है. पर जब जब कोई पुल बनता है, कोई सुरंग बनाई जाती है या किसी खाई को पाटकर लहराती सड़क को सीधा किया जाता है तब यह दूरी कम हो जाती है. मुकेश नेमा जी का साहबनामा पढ़ा. वे अपनी प्रत्येक रचना में सहज अभिव्यक्ति का पुल बनाकर, दुरूह भाषा के पहाड़ काटकर स्मित हास्य के तंज की सुरंग गढ़ते हैं और बातों बातो में अपने पाठक के चश्मे और अपनी कलम के बीच की खाई पाटकर आड़े टेढ़े विषय को भी पाठक के मन के निकट लाने में सफल हुये हैं.

साहबनामा उनकी पहली किताब है. मेन्ड्रेक पब्लिकेशन, भोपाल ने लाइट वेट पेपर पर बिल्कुल अंग्रेजी उपन्यासो की तरह बेहतरीन प्रिंटिग और बाइंडिग के साथ विश्वस्तरीय किताब प्रस्तुत की है. पुस्तक लाइट वेट है,  किताब रोजमर्रा के लाइट सबजेक्ट्स समेटे हुये है. लाइट मूड में पढ़े जाने योग्य हैं. लाइट ह्यूमर हैं जो पाठक के बोझिल टाइट मन को लाइट करते हैं. लेखन लाइट स्टाईल में है पर कंटेंट और व्यंग्य वजनदार हैं.

अलटते पलटते किताब को पीछे से पढ़ना शुरू किया था, बैक आउटर कवर पर निबंधात्मक शैली में उन्होने अपना संक्षिप्त परिचय लिखा है, उसे भी जरूर पढ़ियेगा, लिखने की  स्टाईल रोचक है. किताब के आखिरी पन्ने पर उन्होने खूब से आभार व्यक्त किये हैं. किताब पढ़ने के बाद उनकी हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता समझकर मैं लिखना चाहता हूं कि वे अपने स्कूल के हिन्दी टीचर के प्रति आभार व्यक्त करना भूल गये हैं. जिस सहजता से वे सरल हिन्दी में स्वयं को व्यक्त कर लेते हैं, अपरोक्ष रूप से उस शैली और क्षमता को विकसित करने में उनके बचपन के हिन्दी मास्साब का योगदान मैं समझ सकता हूं.

जिस लेखक की रचनाये फेसबुक से कापी पेस्ट/पोस्ट होकर बिना उसके नाम के व्हाट्सअप के सफर तय कर चुकी हों उसकी किताब पर कापीराइट की कठोर चेतावनी पढ़कर तो मैं समीक्षा में भी लेखों के अंश उधृत करने से डर रहा हूं. एक एक्साईज अधिकारी के मन में जिन विषयो को लेकर समय समय पर उथल पुथल होती रही हो उन्हें दफ्तर, परिवार, फिल्मी गीतों, भोजन, व अन्य विषयो के उप शीर्षको क्रमशः साहबनामा में १८ व्यंग्य, पतिनामा में ८, गीतनामा में १०, स्वादनामा में १०, और संसारनामा में १६ व्यंग्य लेख, इस तरह कुल जमा ६२ छोटे छोटे,विषय केंद्रित सारगर्भित व्यंग्य लेखो का संग्रह है साहबनामा.

यह लिखकर कि वे कम से कम काम कर सरकारी नौकरी के मजे लूटते हैं, एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होते हुये भी लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो साहस मुकेश जी ने दिखाया है मैं  उसकी प्रशंसा करता हूं. दुख इस बात का है कि यह आइडिया मुझे अब मिल रहा है जब सेवा पूर्णता की कगार पर हूं .

किताब के व्यंग्य लेखों की तारीफ में या बड़े आलोचक का स्वांग भरने के लिये व्यंग्य के प्रतिमानो के उदाहरण देकर सच्ची झूठी कमी बेसी निकालना बेकार लगता है. क्योंकि, इस किताब से  लेखक का उद्देश्य स्वयं को परसाई जैसा स्थापित करना नही है. पढ़िये और मजे लीजीये. मुस्कराये बिना आप रह नही पायेंगे इतना तय है. साहबनामा गुदगुदाते व्यंग्य लेखो का संग्रह है.

इस पुस्तक से स्पष्ट है कि फेसबुक का हास्य, मनोरंजन वाला लेखन भी साहित्य का गंभीर हिस्सा बन सकता है. इस प्रवेशिका से अपनी अगली किताबों में  कमजोर के पक्ष में खड़े गंभीर साहित्य के व्यंग्य लेखन की जमीन मुकेश जी ने बना ली है. उनकी कलम संभावनाओ से भरपूर है.

रिकमेंडेड टू रीड वन्स.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print