हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 44 ☆ व्यंग्य संग्रह – अपनी ढपली अपना राग – श्री मुकेश राठौर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री मुकेश राठौर  जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “अपनी ढ़पली अपना राग” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 44 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – अपनी ढ़पली अपना राग 

व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर 

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर 

पृष्ठ १००

मूल्य १२० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – अपनी ढ़पली अपना राग – व्यंग्यकार – श्री मुकेश राठौर ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

यूं तो मुझे किताब पढ़ने का सही आनंद लेटकर हार्ड कापी पढ़ने में ही मिलता है, पर ई बुक्स भी पढ़ लेता हूं. मुकेश राठौर जी का व्यंग्य संग्रह अपनी ढ़पली अपना राग चर्चा में है.  इसकी ई बुक पढ़ी.

मुकेश जी जुझारू व्यंग्यकार हैं. नियमित ही यहां वहां पढ़ने मिल रहे हैं व अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करवाते हैं.

उन्हें स्वयं के लेखन पर भरोसा है. संग्रह के कुछ व्यंग्य पूर्व पठित लगे संभवतः किसी पत्र पत्रिका या समूह में नजरो से गुजरे हैं. राजनीति, सोशल मीडीया,मोबाईल, बजट, प्याज, और ग्राम्य परिवेश के गिर्द घूमते विषयो पर उन्होने सार्थक कलम चलाई है. भेडियो की दया याचना संवाद शैली में व्यंग्य का अच्छा प्रयोग है. प्रतीको के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट समझी जा सकती है. बाजा, गाजा और खाजा से शुरू किताब का शीर्षक व्यंग्य अपनी ढ़पली अपना राग  छोटा है, वर्णात्मक ज्यादा है  इसको अधिक मुखर, संदेश दायक व प्रतीकात्मक लिखने की संभावनायें थीं. सच है जीवन में संगीत का महत्व निर्विवाद है. हर कोई अपने तरीके से अपनी सुविधा से अपनी जीवन ढ़पली पर अपने राग ठेल ही रहा है.

ठगबंधन का कामन मिनिमम प्रोग्राम वर्तमान राजनैतिक स्थितियो कर गहरा कटाक्ष है. घर में ” जितनी बहुयें उतने ही बहुमत “, हम वो नही जो चुनाव जीतने के बाद बदल जायें हमने आपकी सेवा के लिये ही पार्टी बदली है, या बाबुओ की थकती कलम के कारण विलम्बित वेतन जैसे अनेक शैली गत व्यंग्य प्रयोग बताते है कि मुकेश जी में व्यंग्य रचा बसा है वे जिस भी विषय पर लिखेंगे उम्दा लिख जायेंगे. बस विषय के चयन का केनवास बड़ा बना रहे तो उनसे हमें धड़ाधड़ धाकड़ व्यंग्य मिले रहेंगे. यही आकांक्षा भी है मेरी.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 43 ☆ व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी सर्वव्यापी – डॉ लालित्य ललित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  डॉ लालित्य ललित जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “पांडेय जी सर्वव्यापी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 43 ☆ 

व्यंग्य संग्रह – पांडेय जी सर्वव्यापी

व्यंग्यकार – डॉ  लालित्य ललित

प्रकाशक – इंडिया नेट बुक्स

पृष्ठ १२०

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – पांडेय जी सर्वव्यापी – व्यंग्यकार – डॉ  लालित्य ललित ☆ पुस्तक चर्चाकार -श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र☆

मुक्त कापी राइट एक्ट के वे युग पुराने प्रतीत हो रहे हैं जब कुछ दशको के बाद किताबें कापी राइट एक्ट से मुक्त हो जाती थीं.  महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की मानस व अन्य साहित्य,  ऐसे ही जाने कितने महान रचनाकारों सहित मुंशी प्रेमचंद जो स्वयं आजीवन अभावों में जीते रहे आज उनकी किताबें छाप छाप कर जाने कितने प्रकाशक धनाढ़्य हो रहे हैं.

इलेक्ट्रानिक संसाधनो और इंटरनेट के इस सुपर फास्ट युग में सामान्यतः प्रकाशक व लेखक दोनो ही किताबों  की पीडीएफ प्रति सहजता से सुलभ करवाने में डरते हैं कि जो थोड़ी बहुत किताब बिकने की संभावना हो वह भी समाप्त न हो जावे.  पर मैं मुक्त कंठ प्रशंसा करता हूं इस ग्रुप के सदस्य और स्वयं कवि व लेखक श्री संजीव कुमार जी की तथा श्री लालित्य जी जैसे हम लेखको का जिनके चलते  हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है. यह इस व्हाट्सअप समूह की सफलता का अलिखित सोपान है.

हर सीमा के बंधन को लांघ सर्वव्यापक बनना वायु से,  सर्वव्यापक बनना गन्ध से,  सर्वव्यापक बनना ताप से,  सर्व व्यापक बनना वैचारिक भाव से,  सीखना ही चाहिये हम सब को.  अदृश्य अणु का ब्रम्हांड सा विस्तार है पांडेय जी की सर्वव्यापकता.  इस कृति के लेखक का मैत्रेय स्वभाव भी सर्वव्यापकता लिये हुये है.  उन्होने पांडेय जी के कैरेक्टर की रचना की है.

अनेक जाने माने साहित्यकार हैं जिनके रचे बुने हुये केरेक्टर  बड़े पाप्युलर हुये हैं. लहनासिंह चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा का था का अमर नायक बन चुका है.  किसी न किसी स्वरूप में  मिकी माउस के कार्टून पढ़े बिना शायद ही कोई बच्चा बड़ा होता है.  प्रायः व्यंग्यकार किसी न किसी कल्पना चरित्र की रचना कर,  उसके अवलंबन से अपनी बात सहजता से कह पाते हैं.  इंस्पैक्टर मातादीन की रचना करते वक्त शायद ही परसाई जी ने सोचा रहा हो कि जाने कितने मंचो पर मातादीन चांद का सफर करेगा.  एक सफल कथा नायक का चरित्र कथा को लेखक को तथा रचना को अमर बना देता है.

मैंने ललित जी के पाडेय जी से मुलाकात की है.  यद्यपि लेख बहुत लम्बे हैं और मोबाईल या टैब पर पढ़ने की मेरी अपनी सीमायें हैं,  पर जो एक तथ्य मैं इस केरेक्टर में ढ़ूंढ़ सका वह है पाडेय जी का साधारणीकरण.  सचमुच पाण्डेय जी हम सब के आस पास बिखरे पड़े हैं.  आस पास क्या हम सब में थोड़े बहुत पांडेय जी विद्यमान हैं.  यही सरलीकरण उन्हें सर्व व्यापक बना रहा है.  इतना अधिक लिख पाना कि १२० पृष्ठ केवल ग्यारह व्यंग्य से भर जायें ललित जी की खासियत है.  किताब का मर्म समझने के लिये राजेशकुमार जी की विशद व्यापक विवेचना करती हुई भुमिका पढ़ लेना ही पर्याप्त है.

इस किताब के जरिये ललित जी ने बहुत नई शैली के साथ व्यंग्य जगत में जोरदार दस्तक दी है.  एक साथ ही ये लेख व्यंग्य भी हैं,  संस्मरण भी हैं,  आत्मकथ्य भी हैं,  कहानी भी हैं,  व्यंग्य तो हैं ही.  कविता भी समेटे हुये हैं.  जो भी हैं पढ़ने लायक हैं,  रोचक हैं चित्रमय वर्णन हैं.  कभी पूरी किताब हार्ड कापी में पढ़ी तो फिर लिखूंगा और विस्तार से.  फिलहाल यदि आप समकालीन व्यंग्य के संग चल रहे हैं तो आप सबको इसे अवश्य पढ़ने का आमंत्रण दे रहा हूं.

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 42 ☆ व्यंग्य संग्रह – वे रचना कुमारी को नहीं जानते – श्री शांतिलाल जैन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री शंतिलाल जैन जी  के  व्यंग्य  संग्रह   वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। संयोग से  इस व्यंग्य संग्रह को मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। श्री शांतिलाल जी के साथ कार्य करने का अवसर भी ईश्वर ने दिया। वे उतने ही सहज सरल हैं, जितना उनका साहित्य। श्री विवेक जी ने भी उसी सहज सरल भाव से पैंतालीस कॉम्पैक्ट व्यंग्य रचनाओं परअपने सार्थक विचार रखे हैं। यह तय है कि एक बार प्रारम्भ कर आप भी बिना पूरी पुस्तक पढ़े नहीं रह सकते।)

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 42 ☆ 

पुस्तक – वे रचना कुमारी को नहीं जानते

व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन

प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन , भोपाल

पृष्ठ – १३२

मूल्य – १२०० रु

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह  – वे रचना कुमारी को नहीं जानते– व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन

किताबों की दुनियां बड़ी रोचक होती है. कुछ लोगों को ड्राइंगरूम की पारदर्शी दरवाजे वाली आलमारियों में किताबें सजाने का शौक होता है. बहुत से लोग प्लान ही करते रहते हैं कि वे अमुक किताब पढ़ेंगे, उस पर लिखेंगे. कुछ के लिये किताबें महज चाय के कप के लिये कोस्टर होती हैं, या मख्खी भगाने हेतु हवा करने के लिये हाथ पंखा भी.

मैं इस सबसे थोड़ा भिन्न हूँ. मुझे रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की लत है. पढ़ते हुये नींद आ जाये या नींद उड़ जाये यह भी किताब के कंटेंट की रेटिंग हो सकता है.  अवचेतन मन पढ़े हुये पर क्या सोचता है, यह लिख लेता हूँ और उसकी चर्चा कर लेता हूँ जिससे मेरे पाठक भी वह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित हो सकें.

श्री शांति लाल जैन जी अन्य महत्वपूर्ण सम्मानो के अतिरिक्त प्रतिष्ठित डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान २०१८ से सम्मानित सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है . लेखन के क्षेत्र में बड़ी तेजी से ऐसे लेखको का हस्तक्षेप बढ़ा है, जिनकी आजीविका हिन्दी से इतर है. इसलिये भाषा में अंग्रेजी, उर्दू का उपयोग, सहजता से प्रबल हो रहा है. श्री शान्तिलाल जैन जी भी उसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण नाम हैं, वे व्यवसायिक रूप से बैंक अधिकारी रहे हैं.

किताब की लम्बी भूमिका में डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उन्हें एक बेचैन व्यंग्यकार लिखा, और तर्को से सिद्ध  भी किया है. लेखकीय आभार अंतिम पृष्ठ है.  मैं श्री शांति लाल जैन जी को पढ़ता रहा हूँ, सुना भी है . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते ” पढ़ते हुये मेरी मेरी नींद उचट गई, इसलिये देर रात तक बहुत सारी किताब पढ़ डाली. मैने पाया कि उनका मन एक ऐसा कैमरा है जो जीवन की आपाधापी के बीच विसंगतियो के दृश्य चुपचाप अंकित कर लेता है. मैं डा ज्ञान चतुर्वेदी जी से सहमत हूं कि वह दृश्य लेखक को बेचैन कर देता है, छटपटाहट में  व्यंग्य लिखकर वे स्वयं को उस पीड़ा से किंचित मुक्त करते हैं . वे प्रयोगवादी हैं.

लीक से हटकर किताब का नामकरण ही उन्होंने “ये तुम्हारा सुरूर” व्यंग्य की पहली पंक्ति “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर किया है , अन्यथा इन दिनो किसी प्रतिनिधि व्यंग्य लेख के शीर्षक पर किताब के नामकरण की परंपरा चल निकली है. इसलिये संग्रह के लेखो की पहली पंक्तियो की चर्चा प्रासंगिक है.  कुछ लेखो की पहली पंक्तियां उधृत हैं जिनसे सहज ही लेख का मिजाज समझा जा सकता है. पाठकीय कौतुहल को प्रभावित करती लेख की प्रवेश पंक्तियो को उन्होंने सफल न्यायिक विस्तार दिया है.

वाइफ बुढ़ा गई है … , ” मि डिनायल में नकारने की अद्भुत प्रतिभा है” कार्यालयीन जीवन में ऐसे अनेको महानुभावो से हम सब दो चार होते ही हैं, पर उन पर इस तरह का व्यंग्य लिखना उनकी क्षमता है. इसी तरह आम बड़े बाबुओ से डिफरेंट हैं हमारे बड़े बाबू ,हुआ यूं कि शहर में एक्स और वाय संप्रदाय में दंगा हो गया …

उनके लेखन में मालवा का सोंधा टच मिलता है “अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गये आप” मालगंज चौराहे पर धन्ना पेलवान उनसे कहता है . ….

या पेलवान की टेरेटरी में मेंढ़की का ब्याह …

वे करुणा के प्रभावी दृश्य रचने की कला में पारंगत हैं ..

बेबी कुमारी तुम सुन नही पातीं, बोल नही पाती, चीख जरूर निकल आती है, निकली ही होगी उस रात. बधिर तो हम ठहरे दो दो कान वाले . …

राजा, राजकुमार, उनके कई व्यंग्य लेखो में प्रतीक बनकर मुखरित हुये हैं. गधे हो तुम .. सुकुमार को डांट रहे थे राजा साहब …. , या बादशाह ने महकमा ए कानून के वजीर को बुलाकर पूछा ये घंटा कुछ ज्यादा ही जोर से नही बज रहा ?

मुझे नयी थ्योरी आफ रिलेटिविटी रिलेटिंग माडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत पढ़कर मजा आ गया. इसी तरह छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहार वादी कविताएं वैवाहिक आमंत्रण पत्रो पर मुद्रित पंक्तियो का उनका रोचक आब्जरवेशन है. इसी तरह समय सात बजे से दुल्हन के आगमन तक भी वैवाहिक समारोहो पर मजेदार कटाक्ष है.

वे लोकप्रिय फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर लिखते मिलते हैं, जैसे महिला संगीत में बालीवुड धूम मचा ले से शुरूकरके, जस्ट चिल तक पहुँचता गुदगुदाता भी है, वर्तमान पर कटाक्ष भी करता है.

मैं पाठको को अपनी कुछ विज्ञान कथाओ में अगली सदियो की सैर करवा चुका हूँ इसलिये आँचल एक श्रद्धाँजंली पढ़कर हँस पड़ा, रचना यूँ  शुरू होती है “३ जुलाई २०४८ … आप्शनल सब्जेक्ट हिंदी क्लास टेंथ . …

पैंतालीस काम्पेक्ट व्यंग्य लेख. वैचारिक दृष्टि से नींद उड़ा देने वाले, सूक्ष्म दृष्टि, रचना प्रक्रिया की समझ के मजे लेते हुये, खुद के वैसे ही देखे पर अनदेखे दृश्यो को याद करते हुये जरूर पढ़िये.

रेटिंग – मेरे अधिकार से ऊपर

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 41 ☆ पत्रिका साहित्य समीर दस्तक – संपादक – कीर्ति श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  कीर्ति श्रीवास्तव  जी के संपादन में प्रकाशित  पत्रिका साहित्य समीर दस्तक पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 41 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – पत्रिका –  साहित्य समीर दस्तक  – संपादक – कीर्ति श्रीवास्तव ☆.

चर्चा में पत्रिका – साहित्य समीर दस्तक

सितंबर अक्टूबर 2020 अंक

संपादक – कीर्ति श्रीवास्तव

२४२, सर्व धर्म कालोनी कोलार रोड भोपाल ४६२०४२

बच्चों को चित्रमय प्रकाशन पसन्द आते हैं।

बच्चो के कोरे मन पर बाल साहित्य वह पटकथा लिखता है, जो भविष्य में उनका व्यक्तित्व व चरित्र गढ़ता है. बच्चो को विशेष रूप से गीत तथा कहानियां व नाटिकायें अधिक पसंद आती हैं. बाल साहित्य रचने के लिये बड़े से बड़े लेखक को बाल मनोविज्ञान को समझते हुये बच्चे के मानसिक स्तर पर उतर कर ही लिखना पड़ता है तभी वह रचना बाल उपयोगी बन पाती है. हिन्दी में जितना कार्य बाल साहित्य पर आवश्यक है उससे बहुत कम मौलिक नया कार्य हो रहा है, पीढ़ीयो से वे ही बाल गीत पाठ्य पुस्तको में चले आ रहे हैं, जबकि वैज्ञानिक सामाजिक परिवर्तनो के साथ नई पीढ़ी का परिवेश बदलता जा रहा है.

साहित्य समीर दस्तक ने  सामाजिक विद्रूपताओं पर केंद्रित विशेषांक सितंबर अक्टूबर 2020 अंक  निकाल कर महत्वपूर्ण कार्य किया है. पत्रिका में किशोर व नन्हे बच्चों के लिए शिक्षाप्रद संदेश देने वाले छंद बद्ध गीत व रचनाएं प्रस्तुत की गई हैं।

पत्रिका किशोर बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता के लिए भी बहुत ही साहित्यिक सामग्री के साथ प्रस्तुत  गई है।

पिछले कवर पर समीर श्रीवास्तव के दोहे बहुत ही महत्वपूर्ण है उदाहरण देखिए

अंधी दौड़ विकास की शहर हुए बेहाल

अपनापन गुम गया जीना हुआ मुहाल

या

भाईचारा प्यार का मिटे नहीं श्रीमंत

अपना ज्ञान बखान के मिटा रहे कुछ सन्त

 

संस्कार सब हवा हुए सभ्यभी नहीं परिधान

बदन उखाड़े घूमते समझ रहे हैं शान

पत्रिका में विजी श्रीवास्तव का व्यंग हाइवे पर गाय चिंतन, विवेक रंजन का लेख चिड़ियों से दोस्ती, शिक्षाप्रद कहानियां, लयबद्ध गीत, आदि सामग्रियां पठनीय रोचक व मनन योग्य है। सम्पादक जी को लेखकों व पाठकों को बधाई

 

समीक्षात्मक टिप्पणी.. विवेक रंजन श्रीवास्तव 

संयोजक पाठक मंच 

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य – पुस्तक चर्चा में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

व्यंग्य की नई पुस्तक चर्चा में 

कृति – समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य

लेखक –  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी को उनकी नई पुस्तक “समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य” के प्रकाशन के ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक बधाई।  यह नई पुस्तक चर्चा में है, और चर्चाकार हैं व्यंग्य जगत की सुप्रसिद्ध हस्तियां। प्रस्तुत हैं प्रसिद्ध व्यंग्यकारों के बेबाक विचार

☆ पुस्तक चर्चा ☆ समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य – पुस्तक चर्चा में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर लिखते हैं

इधर जो मैंने पढ़ा  क्रम में आज प्रस्तुत संस्कारधानी जबलपुर के ख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन जी श्रीवास्तव के सद्य:प्रकाशित व्यंग्य संग्रह समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य को आज पढ़ने का अवसर मिला।  जैसा कि भूमिका में ही पद्मश्री व्यंग्यकार आदरणीय डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने बताया कि श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर है। विज्ञान, तकनीकी का छात्र किसी भी विषय पर सुव्यवस्थित, सुसंगठित और क्रमबद्ध तरीके से अपनी बात रखता है। प्रस्तुत संग्रह में यह तथ्य उभरकर आया है। सीमित आकार की रचनाओं में विवेक जी ने सुव्यवस्थित रूप से अपना बात रखी है। संग्रह की प्रथम दो शुभारंभ रचनाओं – मास्क का घूंघट, हैंडवाश की मेहंदी के साथ मेड की वापसी और जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहियो, रोचक शीर्षकों के साथ पति-पत्नी और घरेलू खींचतान को हल्के से प्लेट कर विकेट पर जमते दिखे हैं। तीसरी रचना ‘शर्म तुम जहां कहीं भी हो लौट आओ’ से मानो खुल गए।  कहीं शर्म मिले तो इत्तला कीजियेगा! बेशर्म पीढ़ी के मुंह पर ज़ोरदार तमाचा है। फॉर्मेट करना पड़ेगा वायरस वाला 2020, सहित विभिन्न रचनाएं कोरोना त्रासदी की उपज है, जिसमें बदली जीवनशैली पर व्यंग्यकार ने अपना दृष्टिकोण स्प्ष्ट किया है।  भगवान सत्यनारायण कथा के पैटर्न पर बुनी गई चुनावकथा के पांचों अध्याय रोचक हैं।  संग्रह की शीर्षक रचना समस्या का पंजीकरण सरकारों द्वारा जनता की समस्याओं के थोकबंद निदान के लिए लगाए जाने वाले शिविर और मौसमी एकल खिड़की खोलने जैसे लोक लुभावन चोचलों की ग्राउंड रिपोर्ट है।

संग्रह की सभी 33 रचनायें पठनीय है। व्यंग्यकार ने बोलचाल के शब्दों के बीच उर्दू और अंग्रेजी भाषा के तकनीकी शब्दों को खूबसूरती से प्रयोग किया है। भाषा सरल, प्रवाहमान है जो पाठक को बहाते लिए जाती है। रचनाओं में यत्र-तत्र तर्कपूर्ण ‘पंच’ देखे जा सकते हैं। रचनाओं के शीर्षक बरबस ध्यान खींचते हैं यथा- ‘बगदादी की मौत का अंडरवियर कन्फर्मेशन’, मास्क का घूंघट..आदि। विवेकजी ने अपनी रचनाओं में पति, पत्नी और वो से लेकर पथभ्रष्ट युवा पीढ़ी, पाश्चात्य संस्कृति के अनुरागी, कामचोर बाबू, भ्रष्ट नेता और सरकार की नीतियों को भी लपेटा है। आंकड़ेबाजी, नया भारत सरीखी रचनाएं सरकार के न्यू इंडिया, स्मार्ट इंडिया की पोल खोलती है । जब व्यंग्यकार कहता है कि नाम के साथ ‘नया’ उपसर्ग लगा देने से सब कुछ नया-नया सा हो जाता है। वहीं ख़ास पहचान थी, गाड़ी की लाल बत्ती रचना में लेखक ने लाल बत्ती के शौकीन बत्तीबाजों को धांसू पंच दे मारा यह कहकर कि- जिस तरह मंदिर पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तों को मां का आशीष मिल जाता है, उसी तरह सायरन बजाती लाल बत्ती वाली गाड़ियों का काफ़िला देखकर जनता की जान में जान आ जाती है।

विभिन्न विषयों पर लिखे गए व्यंग्यलेखों से सजी यह पुस्तक पाठकों को ज़रूर पसन्द आएगी। एक कमी यह ख़ली की संग्रह का नाम केवल समस्या का पंजीकरण होना था । दूजी कमी यह कि कोरोना को केंद्र में रखकर लिखी गई रचनाओं की अधिकता सी है। हालांकि वे सभी एक न होकर अलग दृष्टिकोण से लिखी गई हैं। एक अच्छा व्यंग्य संग्रह पाठकों को उपलब्ध करवाने हेतु श्री श्रीवास्तव जी को बधाई।

2 वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शशांक दुबे जी लिखते हैं

विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण विवेकजी के पास चीजों को सूक्ष्मतापूर्वक देखने की दृष्टि भी है और बगैर लाग-लपेट के अपनी बात कहने की शैली भी। विवेकजी के इस संकलन की अधिकांश रचनाएँ नई हैं, कुछ तो कोरोना काल की भी हैं। संकलन की शीर्ष रचना ‘समस्या का पंजीकरण’ संवेदनाहीन व्यवस्था में आम आदमी की दुर्दशा पर बहुत अच्छा प्रहार करती है। ‘बसंत और बसंती’ में उन्होंने स्त्री के पंख फैलते ही पोंगापंथियों द्वारा त्यौरियां चढ़ा लेने की मानसिकता पर सांकेतिक तंज कसा है। आज यह संकलन हाथ में आया है।  इसे पूरा पढ़ना निश्चित ही दिलचस्प अनुभव होगा। विवेक भाई को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

3  उज्जैन से व्यंग्यकर्मी श्री हरीशकुमार सिंह का कहना है कि

प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव का नया व्यंग्य संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है ‘समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य’। इसे इंडिया नेटबुक्स ने प्रकाशित किया है। संकलन नया इसलिए भी है कि इसमें व्यंग्य के बिषयों में समकालीनता का बोध है और कुल 35 व्यंग्य में से कई व्यंग्यों में कोरोना काल और लॉकडाउन से उपजी सामाजिक विसंगतियों, कोरोना का भय और उतपन्न अन्य विषमताओं को व्यंग्य में बखूबी उकेरा गया है। लॉक डाउन में पहले काम वाली बाइयों को छुट्टी पर सहर्ष भेज देना और फिर घर के कामों में खपने पर, मेड की याद आने को लेकर, पूरे देश की महिलाओं का मान लेखक ने रखा। व्यंग्य ‘शर्म तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’ रंजन जी के श्रेष्ठ व्यंग्यों में से एक है क्योंकि शर्म किसी को आती नहीं, घर से लेकर संसद तक और इसलिए शर्म की गुमशुदगी की रपट वो  थाने में लिखाना चाहते हैं। सत्यनारायण जी की कथा के समान उनका व्यंग्य है अथ श्री चुनाव कथा, जिसमें पांच अध्यायों में चुनाव के पंच प्रपंच की  रोचक कथा है। व्यंग्य ‘किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन’ में आज के भारत के आम आदमी की व्यथा है कि उसे राजनीति ने सिर्फ दाल रोटी में उलझा दिया है और विचार करने का नहीं। संग्रह के व्यंग्य में लगभग सभी विषयों पर कटाक्ष है।एक सौ सात पृष्ठ के इस व्यंग्य संग्रह के अधिकांश व्यंग्य रोचक हैं और लगभग समाज में घट रही घटनाओं पर लेखक की सूक्ष्म दृष्टि अपने लिए विषय खोज लेती है।

विवेक जी भारी भरकम व्यंग्यकार हैं क्योंकि संकलन की भूमिका ज्ञान चतुर्वेदी जी, बी एल आच्छा जी और फ्लैप पर आदरणीय प्रेम जनमेजय जी, आलोक पुराणिक जी और गिरीश पंकज जी की सम्मतियाँ हैं।

(इसके पहले इतनी भूमिकाओं से भोपाल के व्यंग्यकार बिजी श्रीवास्तव का संग्रह इत्ती सी बात लबरेज था। खैर यह तो मजाक की बात हुई । अलबत्ता कई व्यंग्यकार एक भूमिका के लिए तरस जाते हैं।)

बहरहाल यह विवेक जी की स्वीकार्यता और लोकप्रियता का भी प्रमाण है। बधाइयाँ।

4 बहुचर्चित व्यंग्य शिल्पी लालित्य ललित की लेखनी से

विवेक रंजन श्रीवास्तव बेहतरीन व्यंग्यकार है इसलिए नहीं कह रहा कि यह व्यंग्य संग्रह मुझे समर्पित किया गया है।अपितु कहना चाहूंगा कि व्यंग्य तो व्यंग्य वे कविता में भी सम्वेदनशील है जितने प्रहारक व्यंग्य में।एक साथ दो विधाओं में सक्रिय है,यह सोच कर देख कर अत्यंत प्रसन्नता होती है।शुभकामनाएं

5 व्यंग्य अड्डा के संचालक लखनऊ के श्री परवेश जैन के विचार

परसाई जी की नगरी के श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी की रचनाओं में परसाई  की पारसाई झलकती हैंl   व्यंग्य संग्रह पुस्तक समस्या का पंजीकरण व अन्य व्यंग्य में 33 व्यंग्य सम्माहित हैं, प्रत्येक व्यंग्य  में गहन चिन्तन के पश्च्यात विषय का सावधानी से चयन किया गया हैं l पठनीयता के गुणों की झलक स्वतः साहित्यिक परिवेश से धरोहर स्वरुप प्राप्त हुये हैं l व्यंग्यकार विवेक को फ्रंट कवर पर लिखवा लेना चाहिए “चैलेंज पूरी पढ़ने से रोक नहीं सकोगें” l

अथ चुनाव कथा में पांच अध्यायों का वर्णन में  नये प्रयोग दिखलायी देते हैं l

एक शिकायत पुस्तक की कीमत को लेकर हैं 110 पन्नो को समाहित पुस्तक की कीमत 200 रूपए पेपर बैक और 300 रूपए हार्ड बाउंड की हैं जो पाठकीय दृष्टिकोण से अधिक हैं l

6 सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्ययात्री आदरणीय प्रेम जनमेजय जी के आशीर्वाद

अपने आरंभिक काल से व्यंग्य के लक्ष्य  सामयिक विषय रहे हैं। अपने समय की विसंगतियों का बयान कर उनपर प्रहार करना, गलत नहीं है। व्यंग्य की प्रकृति प्रहार की है तो व्यंग्यकार वही करेगा। विभिन्न विधाओं के रचनाकार भी अपने समय का बयान करते  हैं पर अलग तरह से। मिथक प्रयोग द्वारा रचना संसार निर्मित करने वाले रचनाकार तो पुराकथाओं की आज के संदर्भ में व्याख्या /विश्लेष्णा आदि करते हैं।समस्या वहां आती है जब आज के समय का कथ्य समाचार मात्र बन जाता है,रचना नहीं।

विवेकरंजन श्रीवास्तव की कुछ रचनाओं के आधार पर कह सकता हूँ कि इस विषय मे वे सावधान हैं। वे रचना को ताकत देने के लिए गांधी नेहरू के नामों, ऐतिहासिक घटनाओं आदि के संदर्भ लाते हैं। वे भरत द्वारा राम की पादुका से प्रशासित राज्य को आज उपस्थित इस मानसिकता के कारण उपजी सामयिक विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए प्रतीक के रूप में प्रयोग करते हैं।

वे अपने कहन को पात्रों और कथा के माध्यम से अभिव्यक्त करने में विश्वास करते हैं जिसके कारण कई बार लगता है कि उनकी रचना व्यंग्य धर्म का पालन नही कर रही है। उन्हें तो अभी बहुत लिखना है। मेरी शुभकामनाएं। -प्रेम जनमेजय

7 श्री राकेश सोहम जबलपुर से कहते हैं

ख्यात व्यंग्यकार आदरणीय विवेक रंजन के व्यंग्य संग्रह ‘समस्या का पंजीकरण’ पढ़ा. आज से कुछ दिन पूर्व जब उनका यह संग्रह प्रकाशित होकर आया था तब उन्होंने कहा था कि प्रतियां आने दो आपको भी एक प्रति दूंगा. मैं कोरोना में उलझ गया और वे सतत साहित्य सेवा में लगे रहे. उनकी सक्रियता व्हाट्स एप्प के समूहोंसे मिलती रही. आज उनका यह संग्रह ’21 वीं सदी के व्यंग्यकार’ समूह के माध्यम से पढ़ने को मिला तो मन हर्ष से भर गया. आदरणीय ज्ञान चतुर्वेदी जी द्वारा लिखी गयी भूमिका उनके संग्रह का आइना है. उनके संग्रह में पढ़ी गयी रचनाओं में उतरने से पता चलता है कि उनकी दृष्टी कितनी व्यापक है. एक इंजीनियर होने के नाते तकनीकी जानकारी तो है ही. अपनी पारखी दृष्टी और तकनीकी ज्ञान को बुनने का कौशल उन्हें व्यंग्य के क्षेत्र में अलग स्थान प्रदान करता है. मैंने शुरू के कुछ व्यंग्य पढ़े फिर किताब के अंतिम व्यंग्य से शुरू किया. शुरू के व्यंग्यों में एकरूपता है. वे परिवार से उपजते हैं और विषमताओं पर चोट करते चलते हैं. …आंकड़े बोल्राहे हैं … तो मानना ही पड़ेगा [आंकड़ेबाजी]. ..सफ़ेद को काला बनाने में इन टेक्स को याद किया जाता रहेगा [जी एस टी ] जैसे गहरे पंच व्यंग्यों को मारक बना गए हैं. अपने व्यंग्य में चिंतन की गहराई [दुनिया भर में विवाह में मांग में लाल सिन्दूर भरने का रिवाज़ केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिए की लाल सिन्दूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है .. ‘ख़ास बनने की पहचान थी गाडी की लाल बत्ती’] पिरोते हैं. कुल मिलाकर उनके व्यंग्य बड़ी नजाकत से विसंगतियों को उठाते और फिर चोट करते हैं जिससे पाठक उनकी किताब के व्यंग्य दर व्यंग्य पढता जाता है. इस संग्रह की हार्दिक बधाई. @ राकेश सोहम्

8 जबलपुर से वरिष्ठ व्यंग्य धारा समूह के संचालक श्री रमेश सैनी जी के विचार

विवेकरंजन जी नया संग्रह”समस्या का पंजीकरण और अन्य व्यंग्य” दृष्टि सम्पन्न संग्रह है जिसमें समाज और वर्तमान समय में कोरोना से व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार किया गया है.लेखक की नजर मात्र विसंगतियों पर नहीं वरन मानवीय प्रवृत्तियों पर गई है जो कहीं न कहीं पाठक को सजग करती हैं.”शर्म!तुम जहाँ हो लौट आओ”.वर्तमान समाज में आचरण संबंधी इस विकृति ने सामाजिक जीवन में काफी कुछ अराजकता फैलाई है.उस पर अनेक बिंदुओं पर पाठक का ध्यान आकर्षित किया है. समाज के अनेक लोगों पर बात की है. जोकि सोचनीय और चिंतनीय है.यहां पर लेखक नाम के जीव को बक्श दिया है. यह देखा जा रहा है कि व्यंग्यकार भी आज विसंगतियों का पात्र बन गया है और उन पर काफी कुछ लिखा जा रहा है. इसी तरह कारोना का रोना अच्छी रचना है.इंडिया नेटबुक्स से प्रकाशित यह संग्रह पठनीय और संग्रहणीय है. विवेकरंजन जी कवि, कहानीकार और व्यंग्यकार तीनों की भूमिका में है. पर संग्रह में व्यंग्य के अन्याय नहीं होने दिया. बधाई

9 मुम्बई की युवा व्यंग्य लेखिका अलका अग्रवाल सिगतिया लिखती हैं

पहले तो फ्लैप, भूमिका, यह सब ही बड़े कद के हैं। जन्मेजय सर, सूर्यबाला जी, ज्ञान चतुर्वेदी जी, आलोक पुराणिक जी, बी एल आच्छा जी।

33 व्यंग्य शीर्षक बांध लेने वाले।

अभी शीर्षक रचना, समस्या का पंजीकरण पढ़ी, शर्म तुम जहाँ कहीं भी लौट आओ पढ़ीं। विवेक जी के भीतर विचार बहुत परिपक्वता से रूप लेता है, प्रस्तुति भी संतुलित और प्रभावी।

शीर्षक आकर्षक हैं।

10 विद्वान समीक्षक प्रभाशंकर उपाध्याय जी की टीप

संग्रह में 33 व्यंग्य संकलित हैं, जिनमें से नौ में कोरोना उपस्थित है। यह एकरसता की प्रतीति कराता है। यहां सवाल यह है कि कुछ वर्षों बाद जब कोविड-19 की स्मृति धूमिल हो जाएगी तो इस संकलन की प्रासंगिकता क्या होगी? मेरा मानना है कि आपने संग्रह निकालने में जल्दबाजी दिखाई है और इसमें अखबारों में लिखे स्तंभों में प्रकाशित व्यंग्य आलेखों को समाहित किया है। भूमिका लेखक और टिप्पणीकार कदाचित इसी वजह से रचनागत बातें करने से बचे हैं। आप गंभीर रचनाकार हैं। बहुत अच्छा लिख रहे हैं अतः मैं विनम्रतापूर्वक एक सुझाव देना चाहता हूं कि अखबारों के लिए लिखते समय, पहले रचना को शब्द सीमा से मुक्त होकर लिखना चाहिए। उस मूल रूप को अलग से सुरक्षित रखें और उसके बाद शब्द सीमा के अनुरूप संशोधित कर समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में भेज दें। मैं ऐसा ही करता हूं।

आपकी तीन चार रचनाओं को ध्यानपूर्वक पढ पाया हूं। समस्या का पंजीकरण, शर्म! तुम जहां कहीं भी… और चुनाव कथा अच्छी रचनाएं हैं। ‘फार्मेट करना पड़ेगा..’ की बानगी अलग है। बात जो अखरी- ‘नैसर्गिक मानवीय’ के स्थान पर ‘मानव का नैसर्गिक गुण’ लिखा जाना अधिक उपयुक्त होता। इसी प्रकार ‘कुत्ते तितलियों के पर नोंचने..’ वाली पंक्ति मुझे जमी नहीं।

उम्मीद है, मेरी स्पष्टवादिता को अन्यथा नहीं लेंगे।

11 श्री भारत चंदानी जी के विचार

समस्या का पंजीकरण एवं अन्य व्यंग्य की कुछ रचनाएं पढ़ पाया। परसाईं जी की नगरी से आने वाले विवेक रंजन श्रीवास्तव जी एक मंजे हुए व्यंग्यकार हैं।

संग्रह की ज़्यादातर रचनाएं कोरोनकाल और लॉक डाऊन पीरियड की हैं जिनके माध्यम से विवेक जी ने सभी को घेरा है और ऐसा लगता है कि लॉक डाऊन में मिले समय का भरपूर सदुपयोग किया है।

समस्या का पंजीकरण एक सशक्त व्यंग्य रचना है। विवेक जी को बधाई एवं आगे आने वाले रचनाकर्म के लिए शुभकामनाएं।

12 श्री टीकाराम साहू, व्यंग्यकार लिखते हैं

विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के व्यंग्यसंग्रह ‘समस्या का पंजीकरण और अन्य व्यंग्य’ के कुछेक व्यंग्यों को पढ़ा और कुछ पर दृष्टिपात किया। इस संग्रह के व्यंग्यों की सबसे बड़ी विशेषता है- रोचकता और धाराप्रवाह। संग्रह का दूसरा व्यंग्य  ‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए’ की पंक्तियां हैं- ‘थानेदार मार-पीट कर अपराधी को स्वीकारोक्ति के लिए मजबूर करता रहता है। जैसे ही अपराधी स्वीकारोक्ति करता है, उसके सरकारी गवाह बनने के चांसेज शुरू हो जाते हैं’। ‘शर्म! तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ’ व्यंग्य में जीवन के हर क्षेत्र में किस तरह शर्म गायब हो रही है इस पर बड़े रोचक प्रसंगों के साथ प्रस्तुत किया है। व्यंग्य में कटाक्ष है-‘क्या करू, कम से कम अखबार के खोया पाया वाले कालम में एक विज्ञापन ही दे दूँ ‘‘प्रिय शर्म! तुम जहाँ कहीं भी हो लौट आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा।’’ ‘किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन’ व्यंग्य में चुनाव के दौरान पोलिंग बूथ पर कृष्ण का अर्जुन को उपदेश रोचक है। गर्दन पर घुटना, जरूरी है आटा और डाटा, स्वर्ग के द्वार पर कोरोना टेस्ट अलग-अलग तेवर के व्यंग्य है। शीर्षक बड़े मजेदार है जो व्यंग्य के प्रति उत्सुकता जगाते हैं।

विनम्रतापूर्वक एक सुझाव देना चाहूंगा कि व्यंग्यसंग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाशित करे तो पहला व्यंग्य कोई दूसरा व्यंग्य लीजिए। पठनीय व्यंग्य संग्रह के लिए श्रीवास्तवजी को हार्दिक बधाई।

और अंत मे लेखक की  अपनी बात विवेक रंजन श्रीवास्तव

इससे पहले जो मेरी व्यंग्य की पुस्तके छपी राम भरोसे, कौवा कान ले गया, मेरे प्रिय व्यंग्य, धन्नो बसंती और वसंत , तब व्हाट्सएप ग्रुप नहीं थे इसलिए किंचित पत्र पत्रिकाओं में समीक्षा छपना ही पुस्तक को चर्चा में लाता था . किंतु वर्तमान समय में सोशल मीडिया से हम सब बहुत त्वरित जुड़े हुए हैं. और इसका लाभ आज मेरी व्यंग्य की इस पांचवी पुस्तक की व्हाट्सएप समूह चर्चा में स्पष्ट परिलक्षित हुआ. जो प्रबुद्ध समूह ऐसी पुस्तक का लक्ष्य पाठक होता है उस में से एक महत्वपूर्ण हिस्से तक बड़ी सहजता से दिन भर में पीडीएफ किताब पहुंच गई।

यद्यपि जिस बड़े समूह को इंगित करते हुए व्यंग्य लिखे जा रहे हैं, उन सोने का नाटक करने वालो को जगाना दुष्कर कार्य है, काश की उनके व्हाट्सएप समूह में भी अपनी पुस्तकें सर्क्युलेशन में आ सकें ।

इसी तरह सबसे सदा आत्मीयता की अपेक्षाओं के संग सदा नए व्यंग्य लेखन के साथ

आप सबका अपना

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव,

जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ स्त्री-पुरुष – श्री सुरेश पटवा ☆ समीक्षक – श्री गोकुल सोनी

पुस्तक – स्त्री-पुरुष

लेखक – श्री सुरेश पटवा

प्रकाशक – नोशन प्रेस, चेन्नई

मूल्य – रु.२६०/-

☆ पुस्तक चर्चा – स्त्री-पुरुष – लेखक श्री सुरेश पटवा – समीक्षक – श्री गोकुल सोनी 

श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष’ को पढ़ते हुए वैचारिक धरातल पर जो अनुभव हुए, वैसे प्राय: अन्य कृतियों को पढ़ते समय नहीं होते. रिश्तों के दैहिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, गूढ़ रहस्यों को धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, संरचनात्मक, परिप्रेक्ष्य में अनावृत्त कर विवेचन करती यह पुस्तक समूचे विश्व के मत-मतान्तरों को समेटते हुए सचमुच एक श्रमसाध्य अन्वेषण है. जहां श्री पटवा जी स्त्री- पुरुष के अंतर्संबंधों की गहराई में उतरते हुए कभी एक मनोवैज्ञानिक नजर आते हैं, तो कहीं इतिहासवेत्ता, कहीं भूगोलवेत्ता, तो कहीं समाजशास्त्री. पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक की प्रतिभा के विभिन्न आयाम सामने आते हैं.

suresh patwa-साठीचा प्रतिमा निकालभारतवर्ष की पुरातन संस्कृति और धर्म तथा आध्यात्म का आधार वेद-पुराण, उपनिषद और अन्य धार्मिक ग्रन्थ हैं. जहाँ हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ अभीष्ट बताये हैं, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं. इनमे ‘काम’ अर्थात सेक्स को एक सम्मानजनक स्थान दिया गया है. वहीँ सुखी मानवीय जीवन हेतु त्याज्य बुराइयों में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह जैसे तत्वों या प्रवृत्तियों में ‘काम’ को पहला स्थान दिया गया है. काम दोनों जगह है.

प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों? उत्तर स्पष्ट है- यदि काम का नैसर्गिक और मर्यादित रूप जीवन में हो तो समूचा जीवन संगीत बन जाता है, परन्तु काम को विकृति के रूप में अपनाने पर यह व्यक्ति के मन और मष्तिष्क पर अपना अधिकार करके उसे रसातल में पहुंचा देता है. निर्भया के अपराधियों के कृत्य और उनको फांसी, इसके जीवंत उदाहरण हैं.

काम सृष्टि का नियामक तत्व है और जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में पाया जाता है. यह केवल मनुष्यों में ही नहीं, पशु-पक्षियों या मनुष्येतर प्राणियों में भी आचरण और स्वभाव का मूल कारक होता है. यह एक ऐसा विषय है जिसने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों देवी-देवताओं, दैत्यों, विद्वानों के चिंतन को उद्वेलित किया है. धार्मिक ग्रंथों को लें तो ‘नारद मोह’ इंद्र-अहिल्या, और राजा ययाति की कथा इसके जीवंत उदाहरण हैं, वहीँ यह राजा भर्तहरी को भोग लिप्सा के वशीभूत श्रंगार शतक लिखवाता है. फिर चिंतन की गहराई में धकेलते हुए वैराग्य शतक लिखवाता है.

स्त्री-पुरुष अन्तर्संबंधों में काम तत्व इतना जटिल रूप में दृष्टिगोचर होता है कि जिसको मात्र आध्यात्मिक चिंतन से विद्वान लोग हल नहीं कर पाए. यही वजह है कि धर्म ध्वजा फहराने निकले आदि गुरु शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में मिथिला विद्वान मंडन मिश्र को तो हरा दिया परंतु उनकी विदुषी पत्नी भारती के काम कला संबंधी सवालों का जवाब ब्रहमचारी सन्यासी आदि शंकराचार्य नहीं दे पाए. क्योंकि एक स्त्री से हारना उनको अपमानजनक लगा अतः उन्होंने एक राजा की देह में परकाया प्रवेश कर काम कला का ज्ञान प्राप्त किया, तब जाकर भारती को हराकर उसे शिष्या बनाया. इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि काम एक गूढ़ विषय है.

आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ऋषि वात्सायन ने समग्र चिंतन-मनन के पश्चात काम सूत्र की रचना की. यही नहीं आधुनिक लेखकों ने नर-नारी पृष्ठभूमि पर प्रोफ़ेसर यशपाल के उपन्यास “क्यों फँसे” और “बारह घंटे” लिखा जिसमें उन्मुक्त यौनाचार, नर नारी संबंधों का विश्लेषण है, साथ में बारह घंटे में प्रेम-विवाह की नैतिकता को केंद्र में रखकर इसके स्वरुप पर विचार किया है. काम की महत्ता मात्र वैदिक धर्म में ही नहीं, वरन अन्य धर्मों में भी देखने में आती है. यदि मुस्लिम धर्म का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि उन्हें भी प्रलोभन दिया गया है, कि यदि अल्लाह के बताए मार्ग पर चलेंगे, तो जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी. वहीँ ईसाई धर्म में तो प्रभु यीशु का कुंवारी मां के गर्भ से जन्म लेना काम का प्रभावी रूप दर्शाता है.

लेखक ने जहां भारतीय धर्म दर्शन वा साहित्य यथा- कामसूत्र, शिव पुराण, और अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढ़ा है वहीँ कबीर, गांधी, ओशो, के साथ ही पाश्चात्य दर्शन-साहित्य जैसे फ्राइड, काल मार्क्स, अरस्तू, प्लेटो, लिविजिन व लाक, विल्हेम, वुंट, टिनेचर, फेक्नर, हेल्मोलेत्स, हैरिंग, जी ई म्युलर डेकार्ट, लायब, नीत्से, ह्यूम,हार्टले, रीड, कांडीलेक, जेम्स मिल, स्टुअर्ट मिल, बेन, कांट, हरबर्ट, बेवर, हेल्मो, डार्विन, फ्रेंचेस्को, पेट्रार्क, बर्ट्रेण्ड रसेल, जैसे कई विदेशी वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, समाज शास्त्रियों के सिद्धांतों का अध्ययन कर, उनके जीवन-दर्शन, चिंतन को इस पुस्तक में समाहित किया है.

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पग पग नर्मदा दर्शन के सहयात्री श्री सुरेश पटवा जी से पहली बार इस यात्रा में ही परिचय हुआ। वे मुझसे 5 साल बड़े हैं। स्टेट बैंक के सहायक महाप्रबंधक पद से रिटायर हुए हैं। हमारी पैदल नर्मदा यात्रा के सूत्र धार वे ही हैं। आपको लिखने पढ़ने का शौक है, इतिहास की सिलसिलेवार तारीख के साथ जानकारी उन्हें कंठस्थ है।वे लेखक भी हैं उनकी पहली पुस्तक “गुलामी की कहानी” में इतिहास के अनछुए किस्सों को रोचक ढंग से लिखा गया है। आपकी दूसरी पुस्तक “पचमढ़ी की खोज” जेम्स फार्सायथ का रोमांचक अभियान है, आपने तीसरी पुस्तक ” स्त्री पुरुष की उलझनें “ पति पत्नी और प्रेमियों के रिश्तों की देहिक, भावात्मक,और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर केन्द्रित है। श्री पटवा जी ने नर्मदा घाटी के इतिहास और यात्रा अनुभव को अपनी पुस्तक “नर्मदा” सौंदर्य, समृद्धि,और वैराग्य की नदी में लिखा है।

– श्री अविनाश दवे, सेवानिवृत सेंट्रल बैंक

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लेखक ने अपना एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है, कि ईश्वर ने मंगल ग्रह के पत्थरों और कड़क मिट्टी को लेकर मजबूत हड्डियों और पुष्ट मांसपेशियों से आदमी बनाया, उसके बाद उसका दिमाग बनाकर उसमें ताकत, क्षमता, उपलब्धि और सफलता प्राप्त करने के बीज रोपित कर दिए. उसे ऐसी योग्यता का एहसास दिया, कि कठिन से कठिन परिस्थिति का हल ढूंढ सकता है. उसे इस भाव से भर दिया, कि मुश्किलों से निकलने के लिए मंगल ग्रह के जीव के अलावा किसी अन्य जीव का सहयोग वांछित नहीं और दिमाग में अजीब सी रासायनिक चीज डाली कि जवान औरत को देखकर उसे पाने हेतु उसमें तीव्र इच्छा जागृत हो. जिसे मात्रा अनुसार क्रमशः प्रेम, कामुकता, और वासना कहा गया. क्योंकि उसे सृष्टि का सृजनचक्र अनवरत जारी रखना था, इसीलिए यह सृष्टि कायम रखने के लिए उसने शुक्र ग्रह की हल्के, मुलायम, पत्थर और नरम मिट्टी से सुंदर स्त्री बनाकर उसके दिमाग में प्रेम-भावना, कमनीयता, अनुभूति, समस्या आने पर दूसरों से साझा कर, सुलझाने की प्रवृत्ति और आदमी से आठ गुना अधिक काम का अंश, दिमाग में रसायन देकर सुंदर शरीर-सौष्ठव, कामुक अंग, मन की चंचलता, परंतु ममता की भावनाओं से भर दिया. सजने-सँवरने द्वारा काम उद्दीपन और पसंद के आदमी से सृजन हेतु चयन का रुझान दिया. इतना ही नहीं, पशु पक्षियों में काम अंश की स्थापना की, ताकि सृष्टि का क्रम निर्वाध गति से चलता रहे. क्योंकि दोनों की वाह्य संरचना और आंतरिक सोच में पर्याप्त अंतर है, इसलिए आपस में समस्याएं भी उत्पन्न होती है. दोनों एक दूसरे को अपने जैसा समझ लेते हैं. अंतर भूल जाते हैं. तब एक दूसरे पर भावनात्मक शासन की प्रवृत्ति जागृत होती है. जब आपसी समस्या उत्पन्न होती है, तो आदमी चिंतन की आंतरिक गुफा में प्रवेश कर जाता है. वह अपनी समस्या को बगैर किसी से बाटें, स्वयं सुलझाना चाहता है और औरत के बार बार टोकने पर क्रोधित हो जाता है. वहीँ औरत जब समस्या अनुभव करती है, तो वह साझा करना चाहती है. वह चाहती है, कि आदमी धैर्य पूर्वक उसकी बात सुन भर ले, समस्या तो वह स्वयं हल कर लेगी. ऐसा नहीं होता, तो वह तनाव ग्रस्त होकर ऊपर से भले संयत दिखे, पर दुखी होकर अपना अस्तित्व खोने लगती है. यदि दोनों परस्पर एक दूसरे की मानसिक संरचना और शरीर में स्रावित रसों से उत्पन्न भावना चक्रों को ध्यान में रखते हुए परस्पर व्यवहार करें, तो जीवन की सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाती है.

लेखक यह भी मानता है, कि पूरे जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में काम होता है, जिसे उसने वात्सायन, फ्राइड, रजनीश आदि के सिद्धांत द्वारा स्पष्ट करते हुए रजनीश के उपन्यास “संभोग से समाधि की ओर” का विश्लेषण कर समझाने की चेष्टा की है. पुस्तक में औरत एवं आदमी की वाह्य अंगों की संरचना एवं आंतरिक स्वभाव की दृष्टि से कई वर्गीकरण भी किए गये हैं, तो जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं और उनके समाधान के तरीके भी सुझाए गये हैं.

प्रेम के दैहिक वा मनोवैज्ञानिक रहस्य को समझने हेतु विभिन्न उदाहरण, और अंत तीन प्रेम कहानियां भी दी गई हैं, जो पुस्तक को सरल और बोधगम्य बनाती हैं. पृष्ठ ४७ से ५४ तक मनोविज्ञान के विकास का विस्तृत इतिहास पढ़ते हुए लगता है, कि लेखक जैसे अपने मूल विषय से भटक कर विषयांतर होकर उन मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने लगा हो जो पूर्णत: स्त्री-पुरुष अंतर्संबंधों के आवश्यक कारक नहीं है तथापि पृष्ठ 62 से 66 पठनीय है जिसमें भारतीय संस्कृति और हिंदू दर्शन के बीज निहित हैं.

हमारे प्राचीन दर्शन में काम संबंधी वर्जनाएँ नहीं थी. आज के युग में काम विकृति का कारण ही यही है, कि उसे निंदनीय, गंदा, नियम विरुद्ध, त्याज्य बताकर ही बचपन से विचारों में ढाला जाता है, अतः जब नियम टूटता है तो व्यक्ति को ग्लानि भाव होने लगता है. लेखक के अनुसार यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है और इसे सहजता पूर्वक अपनाकर मर्यादित रुप से आनंद लेने में कोई बुराई नहीं है. अंदर से प्रत्येक स्त्री-पुरुष इसे चाहते हुए ऊपर से परंपराओं के वशीभूत हो, इसकी आलोचना करते हैं, परंतु लेखक की दृष्टि में यह तथ्य भी मैं लाना चाहता हूँ कि जब कोई आदत या प्रवृत्ति बहुत सामान्य हो जाएगी तब वह निश्चित ही अपना आकर्षण खो देगी. लंबे अंतराल के पश्चात जो मिलन होता है वह कई गुना आनंद देता है. दूसरे अनावृत्त के प्रति अधिक आकर्षण होता है, पाने की चाह और आनंद होता है, अतः आंशिक वर्जनाओं का अपना अलग महत्त्व है. उसी से समाज का स्वरुप बना रहता है. यदि पुस्तक में राजा ययाति के चरित्र का चित्रण किया जाता तो विषय की व्यापकता में वृद्धि होती और यह सोने पर सोहागा सिद्ध होता। पुस्तक को पाठ्यपुस्तक की तरह लिखा गया है. वास्तव में यह पुस्तक ग्रेजुएशन के कोर्स में पढाये जाने लायक है, पुस्तक का शीर्षक एकदम सपाट “स्त्री पुरुष” है. लेखक विद्वान हैं अत: अच्छा होता कि इसका शीर्षक कलात्मक, यथा- जीवन और प्रेम, सुखद दांपत्य का रहस्य, सुखद अंतर्संबंधों का रहस्य, या सृष्टि-सृजन में प्रेम की भूमिका जैसा कलात्मक शीर्षक होता तो अधिक अच्छा लगता.

कुल मिलाकर यह पुस्तक चिंतन को नया आयाम देकर काम की विज्ञान और मनोविज्ञान सम्मत परिभाषा देते हुए स्त्री-पुरुष के बीच सौहार्द्र स्थापित करने की कुंजी है जो सुखद दाम्पत्य जीवन की नींव है. टीनेजर से लेकर सभी आयु वर्ग के पाठकों के  पढ़ने योग्य है यह पुस्तक. श्री सुरेश पटवा जी को इस सुंदर सार्थक साहित्य-सृजन हेतु बधाई एवं उन्नत लेखकीय भविष्य हेतु हार्दिक मंगलकामनाएं.

 

समीक्षक .. श्री गोकुल सोनी (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)

ए-४, पैलेस आर्चर्ड, फेस-१,  कोलार रोड, भोपाल. मो- ७०००८५५४०९

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 40 ☆ व्यंग्य संग्रह – ५ वां कबीर – श्री बुलाकी शर्मा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री बुलाकी शर्मा जी  के  व्यंग्य  संग्रह   “५ वां कबीर  ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 40 ☆ 

पुस्तक – ५ वां कबीर

व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

पृष्ठ – ११२

मूल्य – १०० रु

पुस्तक चर्चा – व्यंग्य  संग्रह   – ५ वां कबीर  – व्यंग्यकार – श्री बुलाकी शर्मा

व्यंग्य यात्रा में हर सप्ताह हमें किसी नई व्यंग्य पुस्तक, किसी नये व्यंग्य लेखक को पढ़ने का सुअवसर मिलता है.. जाने माने व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा के व्यंग्य उनके मुख से सुन चुका हूं. पढ़ने तो वे प्रायः मिल ही जाते हैं. प्रकाशन के वर्तमान परिदृश्य के सर्वथा अनुरूप ११२ पृष्ठीय ” ५ वां कबीर ” में बुलाकी जी के कोई ४० व्यंग्य संग्रहित हैं. स्पष्ट है व्यंग्य ८०० शब्दो के सीमित विस्तार में हैं. इस सीमित विस्तार में अपना मंतव्य पायक तक पहुंचाने की कला ही लेखन की सफलता होती है. वे इस कला में पारंगत हैं.

जितने भी लोग नये साल को किसी कारण से जश्न की तरह नही मना पाते वे नये साल के संकल्प जरूर लेते हैं, अपने पहले ही लेख में लेखक भी संकल्प लेते हैं, और आत्मनिर्भरता के संकल्प को पूरा करने के आशान्वित भरोसे के साथ व्यंग्य पूरा करते हैं. जरूर यह व्यंग्य जनवरी में छपा रहा होगा, तब किसे पता था कि कोरोना इस बार भी संकल्प पर तुषारापात कर डालेगा. दुख के हम साथी, फिर बापू के तीन बंदर पढ़ना आज २ अक्टूबर को बड़ा प्रासंगिक रहा, जब बापू के बंदर बापू को बता रहे थे कि वे न बुरा देखते, सुनते या बोलते हैं, तो टी वी पर हाथरस की रपट देख रहा मैं सोच रहा था कि हम तो बुरा मानते भी  नहीं हैं…… पांचवे कबीर के अवतरण की सूचना पढ़ लगा अच्छा हुआ कि कबीर साहब के अनुनायियों ने यह नहीं पढ़ा, वरना बिना कबीर को समझे, बिना व्यंग्य के मर्म को समझे केवल चित्र या नाम देखकर भी इस देश में कट्टरपंथियो की भावनाओ को आहत होते देख शासन प्रशासन बहुत कुछ करने को मजबूर हो जाता है. लेकिन वह व्यंग्यकार ही क्या जो ऐसे डर से अपनी अभिव्यक्ति बदल दे. बुलाकी जी कबीर की काली कम्बलिया में लिखते हैं ” मन चंचल है किंतु बंधु आप अपने मन को संयमित करने का यत्न कीजीये. ” प्याज ऐसा विषय बन गया है जिसका वार्षिक समारोह होना चाहिये, जब जब चुनाव आयेंगे, प्याज, शक्कर, स्टील, सीमेंट कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही.उनका प्याज व्यंग्यकार से कहता है कि वह बाहर से खुश्बूदार होने का भ्रम पैदा करता है पर है बद्बूदार. अब यह हम व्यंग्यकारो पर है कि हम अंदर बाहर में कितना कैसा समन्वय कर पाते हैं.

अस्तु कवि, साहित्य, साहित्यिक संस्थायें आदि पर खूब सारे व्यंग्य लिखे हैं उन्होने, मतलब अनुभव की गठरी खोल कर रख दी है. बगावती वायरस बिन्दु रूप लिखा गया शैली की दृष्टि से नयापन लिये हुये है. डायरी के चुनिंदा पृष्ठ भी अच्छे हैं.

मेरी रेटिंग, पैसा वसूल ।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 39 ☆ डॉ ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अट्टाहस पत्रिका – अतिथि संपादक – श्री शांतिलाल जैन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री शांतिलाल जैन जी के  अतिथि संपादन में प्रकाशित  डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी  पर केंद्रित अट्टहास पत्रिका पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 39 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – डॉ ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अट्टाहस पत्रिका – अतिथि संपादक – श्री शांतिलाल जैन 

चर्चा में पत्रिका – अट्टहास का डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अंकअक्टूबर २०२०

अंक संपादक –  श्री शांति लाल जैन

प्रधान संपादक – श्री अनूप श्रीवास्तव

गुलिंस्ता कालोनी, लखनऊ ( उ प्र )

इससे पहले कि अट्टहास के डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अंक इस विशेषांक पर कुछ लिखूं, व्यंग्य को समर्पित पत्रिका अट्टहास पर व इसके समर्पित संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव जी पर संक्षिप्त चर्चा जरूरी लगती है. ऐसे समय में जब कादम्बनी जैसी बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठानो की साहित्यिक पत्रिकायें बंद हो रही हों, एक बुजुर्ग व्यक्ति अपने कंधो पर अट्टहास का बोझ लिये चलता दिखे तो उसकी जिजिविषा व व्यंग्य के लिये समर्पण की मुक्त कंठ प्रशंसा आवश्यक है. वे व्यंग्य का इतिहास रचते दिखते हैं. अट्टहास के अनवरत प्रकाशन हेतु ही नही किसी भी पत्रिका के सफल संचालन के लिये यह आवश्यक होता है कि पत्रिका का उत्तरोतर विकास हो, नये पाठक, नये लेखक पत्रिका से जुड़ें. इस लक्ष्य को पाने के लिये अट्टहास ने अतिथि संपादन के रूप में अनेक महत्वपूर्ण प्रयोग किये. क्षेत्रीय व्यंग्य विशेषांक  निकाले गये हैं.अतिथि संपादक की व्यक्तिगत योग्यता, क्षमता व ऊर्जा का लाभ पत्रिका को मिला भी है. डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य के जीवंत शिखर पुरुषों में  हैं, उन पर केंद्रित विशेषांक निकालना किसी भी पत्रिका के लिये गौरव का विषय है. अट्टहास ने यह बेहद महत्वपूर्ण परम्परा प्रारंभ की है.

संपादन कितना दुष्कर काम है यह मैं समझता हूं, रचनायें बुलवाना, गुणवत्ता परखना, उन्हें एक फांट में संयोजित करना, सरल नही हैं. आदरणीय शांतिलाल जैन सर ने भोपाल से उज्जैन स्थानांतरित होने, स्वयं के स्वास्थ्य खराब रहने की व्यक्तिगत व्यस्तताओ के बाद भी महीनो भरपूर समय व ऊर्जा इस अंक के लिये सामग्री जुटाने व संपादन में लगाई है जिसके परिणाम स्वरूप ही अंक डा ज्ञान चतुर्वेदी पर संग्रहणीय दस्तावेज बन सका है.

अपने संपादकीय में अनूप जी लिखते हैं व्यंग्य विधा है या शैली इस बहस में पड़े बिना ज्ञान जी ने अपनी पृथक शैली में लगातार लिखकर स्वयं को साबित किया है. उनका यह लिखना कि शिखर पर होते हुये भी ज्ञान जी में लेश मात्र भी अभिमान नही है, वे लगातार युवाओ के मार्गदर्शक बने हुये हैं. यह टिप्पणी  डा साहब के कृतित्व व व्यक्तित्व का सूक्ष्म आकलन है.

अतिथि संपादक शांतिलाल जैन जी ने अपनी भूमिका बहुत गरिमा व गम्भीरता से निभाई है. उन्होने डा चतुर्वेदी की चुनिंदा रचनाये जैसे नरक यात्रा से अंश, हम न मरब से अंश,  मार दिये जाओगे भाई साब, पुरातन राजा रानी की आधुनिक प्रेम कथा, एक खूबसूरत खंजर अंक के पाठको के लिये प्रस्तुत की हैं. मुझे लगता है उनके लिये ज्ञान सर की लम्बी रचना यात्रा में से चंद रचनायें चुनना फूलो की टोकरी में से चंद बीज के दाने चुनने जैसा रहा होगा. तुम ज्ञानू हम प्रेमू पढ़ा मैं प्रेम जनमेजय जी की भावनाओ को आत्मसात करता रहा. वे लिखते हैं ज्ञान व्यंग्ययात्रा का घनघोर प्रशंसक है, ज्ञान जी लिखते हैं प्रेम सक्षम होते हुये भी तिकड़मी नहीं है. मुझे लगा जैसे सी सा झूले के दो छोर पर बैठे दो व्यक्ति एक दूसरे को आंखों में आंखे डाल बड़ा साफ देख रहे हों.सुभाष चंदर जी,  हरीश नवल जी, सूर्यबाला जी, गिरीश पंकज जी,  पंकज प्रसून जी, प्रभु जोशी जी, रामकिशोर उपाध्याय जी, डा हरीश कुमार सिंह,  अरुण अर्णव खरे जी, श्रवण कुमार उर्मलिया जी के लेख पठनीय हैं. ज्ञान जी का उपन्यास नरक यात्रा बहु चर्चित रहा है उसकी कांति कुमार जैन जी की समीक्षा, मरीचिका पर मधुरेश जी की समीक्षा, हम न मरब पर कैलाश मण्डलेकर जी की समीक्षा महत्वपूर्ण चयन है. अंक में प्रस्तुत सारे चित्र डा ज्ञान का जीवन एल्बम हैं. पारिवारिक चित्र, सम्मान के चित्र, पद्मश्री ग्रहण करते हुये चित्र, अनेक व्यंग्यकारो के साथ के चित्र सब दस्तावेज हैं. समग्र टीप की है विजी श्रीवास्तव जी ने जिसे पढ़कर अभीभूत हूं. मैं अट्टहास लम्बे समय से पढ़ता रहा हूं, जबलपुर में इसके एक अंक के विमोचन का आयोजन भी कर चुका हूं, पर निर्विवाद लिख सकता हूं कि अट्टहास का डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अक्टूबर २०२० अंक पिछले अनेक वर्षो के अंको में सर्वश्रेष्ठ है. जिसके लिये अट्टहास, अनूप जी, शांतिलाल जी, ही नही इसका हर पाठक बधाई का पात्र है. मुझे लगता है जो भी व्यंग्य प्रेमी इसे पढ़ेगा संदर्भ के लिये मेरी तरह संग्रहित जरूर करेगा.

 

चर्चाकार  .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

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हिन्दी साहित्य – ☆ पुस्तक चर्चा ☆ है हिन्दी हमारी बोली – इफ्तखार “बशर” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  इफ्तखार अहमद खान बशर  जी की पुस्तक “है हिन्दी हमारी बोली “ पर  पुस्तक चर्चा।

☆ पुस्तक चर्चा ☆ है हिन्दी हमारी बोली – इफ्तखार “बशर” ☆  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

अंधेरे आकाश में जैसे बिजली कौंध कर पूरे परिवेश को प्रकाशित…कर देती है उसी तरह अपनी भाव तरंग को वाणी देकर कवि खुद अपने साथ अनेकों श्रोताओं और पाठकों को प्रफुल्लित कर देते हैं. यह कुशलता बहुतों में जन्मजात होती है.

इफ्तखार अहमद खान बशर में यह रूचि मैंने उनके छात्र जीवन में ही देखी थी यह उल्लेख अपनी पुस्तक है हिंदी हमारी बोली में प्रारंभ में ही उन्होंने किया है. अपने शासकीय सेवा काल में  विभिन्न कार्य भार  से दबे होने के कारण उनके कवि के मनोभावों ने अभिव्यक्ति कम पाई. सेवा से अवकाश पाकर उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रवृत्ति को पुनः अपनाया और लेखन  किया, यह एक अच्छी बात है, साहित्य प्रेम की रुचि खुद को आनंद देती है. साथ ही अनेकों पाठकों को भी सुख देते हुए सुखी करती है.

अपनी पुस्तक के प्रकाशन के कुछ समय बाद उन्होंने मेरी कुछ गजलो व कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद कर पुस्तक सहित जब मुझे प्रेषित किया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया उनकी पुस्तक में उनकी 40 गजलें, कविताएं व दोहे हैं. पुस्तक को पढ़कर मैंने उनके मनोभावों को समझने का प्रयास किया है. उनके बहुरंगी भावों को पढ़कर अच्छा लगा. कवि हृदय मनोभावों से लबरेज है. वे लिखते हैं

सूझते हैं मिसरे शायरी के मुझको

मुखड़े बहुत सारे मेरे जहन में है

पुस्तक का नाम ही कवि के मन की पवित्रता राष्ट्रप्रेम तथा मातृभाषा हिंदी के प्रति लगाव की गवाही देता है.

यह आरती की थाली है हिंदी हमारी बोली

अनुपम सुखद निराली है हिंदी हमारी बोली

 

कवि के मन में प्रकृति दर्शन की ललक दिखती है

इस दुनिया में जन्नत की अगर कोई निशानी है

ये हरियाली शाबादी फिजा की रूप रानी है

शरद पूर्णिमा की शोभा उसे आकर्षित करती है , मनमोहक लगती है उसे देख वे लिखते हैं

लो धवलता छा रही है इस गगन की नीलिमा में

है निखरती छटा शशि की इस शरद की पूर्णिमा में सामाजिक त्योहार भाईचारे और मन मिलन का संदेश देते हैं दीपावाली का त्यौहार प्राचीन काल से यही संदेश देता आ रहा है,  उन्होंने लिखा है

हुमायुं लक्ष्मी पूजा विधि विधान के साथ

करवाता था राज में दे दान खुले हाथ

सामाजिक व्यवहार चलते जाते हैं बदलाव नहीं दिखते

हुश्न के तेवर नहीं बदले जेवर बदलते जा रहे हैं

स्वार्थ पूर्ण व्यवहार बेईमानी कर्तव्य निष्ठा का अभाव भी वैसा ही चल रहा है

उनसे मुफ्त में उम्मीद क्या करें

रहनुमाई मिली जिनको कुर्सी खरीदकर

या

लोगों को तुम्हारी रोटियां सियासत की गोटियां हैं

ब्रिटिश शासकों ने बर्बरता से देश भक्तों का शिकार किया

घात की नज़दीकियों की अक्सर  फिकर है

झाड़ियों की ओट में आदिम शिकारी चल रहा है

 

अनेकों बहुरंगी भावों का गुलदस्ता उनकी यह कृति है.

आशा है भविष्य में भी कुछ और अच्छा उनसे पढ़ने को मिलेगा. गजलो का अंग्रेजी अनुवाद भी बहुत अच्छा है.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 38 ☆ ललित निबंध संग्रह – तन रागी मन बैरागी – डा देवेन्द्र जोशी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डा देवेन्द्र जोशी जी  के  ललित निबंध संग्रह  “तन रागी मन बैरागी” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 38 ☆ 

तन रागी मन बैरागी (ललित निबंध संग्रह)

लेखक –  डा देवेन्द्र जोशी 

प्रकाशक – निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स आगरा

मूल्य  १२५ रु

पृष्ठ ११२

☆ पुस्तक चर्चा –ललित निबंध संग्रह   – तन रागी मन बैरागी  – लेखक – डा देवेन्द्र जोशी 

मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है

जीवन जीना सहज न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी है

… निदा फाजली

जीवन  का भाव  पक्ष सदैव मर्मस्पर्शी होता है.  जब अपने स्वयं के अनुभवो के आधार पर कोई ललित निबंध लिखा जाता है तो वह और भी महत्वपूर्ण बन जाता है व पाठक को सीधा हृदयंगम हो, उसके अंतः को प्रभावित करता है.  ऐसे निबंध पाठक को जीवन दृष्टि देते हैं, उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं.  तन रागी मन बैरागी में संकलित प्रत्येक निबंध मैंने फुरसत से पढ़ा है, मैं कह सकता हूं कि ये निबंध डा जोशी की वैचारिक अभिव्यक्ति हैं, जो पाठक को चिंतन की प्रचुर समृद्ध सामग्री व दिशा देते हैं.  निदा फाजली के जिस शेर से मैंने अपनी बात शुरू की है, उसके बिल्कुल अनुरूप इस पुस्तक का प्रत्येक निबंध जीवन की फनकारी सिखलाता है.  लेखक डा देवेन्द्र जोशी चेतावनी के स्पष्ट स्वर में प्रारंभ में ही लिखते हैं, जिनमें जिंदा रहने का अहसास मर चुका है कृपया वे इस पुस्तक को न पढ़ें, सचमुच संग्रह के सभी निबंध जिंदगी के बहुत निकट हम सबके बिल्कुल आसपास के विषयों पर हैं.  अनावश्यक विस्तार  से मुक्त, छोटे छोटे निबंध हैं,  शीर्षक की सीधी वैचारिक अनुकरणीय विवेचना है.  पहला संस्करण हाल ही प्रकाशित हुआ है.

हिन्दी में ललित निबंध को  विधा के स्वरूप में अभिस्वीकृति का साहित्यिक इतिहास भी रोचक व विवादास्पद रहा है, लगभग वैसा ही जैसा व्यंग्य को विधा के रूप में स्वीकार करने की यात्रा रही है.  अब ललित निबंध की सात्विक सत्ता भी प्रतिष्ठित हो चुकी है, और व्यंग्य की भी.  डा देवेंद्र जोशी दोनो ही विधाओ के साथ विज्ञान लेखन के भी पारंगत सुस्थापित विद्वान हैं. वे कवि हैं , संपादक है, मंच संचालक हैं, शोधार्थी हैं.  बिना उनसे मिले मैं कह सकता हूं कि  बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डा जोशी सबसे पहले एक अच्छे इंसान हैं, क्योंकि ऐसा लेखन एक सदाशयी व्यक्ति ही कर सकता है.

उनमें सूत्र वाक्य लेखन की विशेषता है जैसे वे लिखते हैं ” निर्धन के अभाव की पूर्ति तो धन से संभव है, पर लालच और धन लोलुप प्रवृत्ति की पूर्ति कोई नहीं कर सकता”, या ” लक्ष्यहीन जीवन को जीवन की श्रेणि में नहीं रखा जा सकता‍‌. . चलना ही जिंदगी “, ” व्यक्तित्व विकास की प्रथम सीढ़ी है. .आत्म साक्षात्कार ” मैंने पुस्तक पढ़ते हुये ऐसे अनेक वाक्यो को रेखांकित किया है, ये उद्वरण  केवल इसलिये कि आप की जिज्ञासा पुस्तक पढ़ने के लिये जागृत हो.

जिन विषयो पर लेखक ने निबंध लिखे हैं उनमें ये शीर्षक शामिल हैं, राष्ट्रीयता का बोध, समय से पहले भाग्य से ज्यादा, माँ, प्यार का अहसास,युवा उम्र का रोमांच,रिश्तों की गर्माहट, स्वभाव के प्रतिकूल, बड़प्पन,सामाजिक सरोकार, पद की गरिमा, बाल मनोविज्ञान,सफलता का जश्न, अवसाद के क्षण,अकेलापन, श्मशान बैराग्य आदि आदि कुल तीस हम सबके जीवन के रोजमर्रा के विषय हैं.

प्रत्येक निबंध विषय की व्याख्या करते हुये एक निर्णायक मार्गदर्शक बिन्दु पर अंत होता है, उदाहरण स्वरूप वे बचपन की मीठी यादें निबंध का अंत इस शेर से करते हैं

घर से मस्जिद बहुत दूर है चलो यूं करें

किसी रोते हुये बच्चे को हंसाया जाये

अकेलापन निबंध का अंतिम वाक्य है ” अकेलापन हमारी कमजोरी बने उसके पहले उसे अपनी ताकत बनाना सीख लें.  ”

भाषा के लालित्य के मोती, भाव,  शिल्प के स्तर पर बुने हुये सभी निबंध प्रेरक हैं. अभिधा में सशक्त मनोहारी अभिव्यक्ति के सामर्थ्य के चलते  लेखक डा देवेन्द्र जोशी को श्रेष्ठ निबंधकार कहा जाना  सर्वथा तर्कसंगत है. यह  कृति हर उस पाठक को अवश्य पढ़नी चाहिये जो जीवन के किसी मोड़ पर किंकर्तव्य विमूढ़ हो, और इसे पूरा पढ़कर मैं सुनिश्चित हूं कि उसे अवश्य ही निराशा से मुक्ति मिलेगी व उसका भविष्य प्रदर्शित हो सकेगा.  इस दृष्टि से कृति जीवन की सफलता के सूत्र प्रतिपादित करती है.  संदर्भ हेतु संग्रहणीय व बार बार पठनीय है.  अभी ऐसी कई पुस्तकें लेखक से हिन्दी साहित्य को मिलें इसी शुभाशंसा के साथ.

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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