हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 3 ?

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे

विधा – अनुवाद

मूल लेखक – नीलेश ओक

अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – श्री संजय भारद्वाज ?

पत्थर पर खिंची रेखा

रमते कणे कणे इति राम:।

सृष्टि के कण-कण में जो रमते हैं वही (श्री) राम हैं। कठिनाई यह है कि जो कण-कण में है अर्थात जिसका यथार्थ, कल्पना की सीमा से भी परे है, उसे सामान्य आँखों से देखना संभव नहीं होता। यह कुछ ऐसा ही है कि मुट्ठी भर स्थूल देह तो दिखती है पर अपरिमेय सूक्ष्म देह को देखने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। नश्वर और ईश्वर के बीच यही सम्बंध है।

सम्बंधों का चमत्कारिक सह-अस्तित्व देखिए कि निराकार के मूल में आकार है। इस आकार को साकार होते देखने के लिए रेटिना का व्यास विशाल होना चाहिए। सह-अस्तित्व का सिद्धांत कहता है कि विशाल है तो लघु अथवा संकीर्ण भी है।

संकीर्णता की पराकाष्ठा है कि जिससे अस्तित्व है, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। निहित स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों ने कभी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए तो कभी उनके काल की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया। कालातीत सत्य है कि समुद्र की लहरों से बालू पर खिंची रेखाएँ मिट जाती हैं पर पत्थर पर खिंची रेखा अमिट रहती है। यह पुस्तक भी विषयवस्तु के आधार पर पत्थर पर खिंची एक रेखा कही जा सकती है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे’ में प्रभु श्रीराम के जीवन-काल की प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का कालगणना के लिए उपयोग कर उसे ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदला गया है। इसके लिए आस्था, निष्ठा, श्रम के साथ-साथ अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के मानकीकरण की प्रबल इच्छा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में पुस्तक में वर्णित कालगणना के कुछ उदाहरणों की चर्चा यहाँ समीचीन होगी। सामान्यत: चैत्र माह ग्रीष्म का बाल्यकाल होता है। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय शरद ॠतु का उल्लेेख किया है। बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिग और ॠतुचक्र में परिवर्तन से हम भलीभाँति परिचित हैं। वैज्ञानिक रूप से तात्कालिक ॠतुचक्र का अध्ययन करें तो चैत्र में शरद ॠतु होने की सहजता से पुष्टि होगी। राजा दशरथ द्वारा कराए यज्ञ के प्रसादस्वरूप पायस (खीर) ग्रहण करने के एक वर्ष बाद रानियों का प्रसूत होना तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत है। राजा दशरथ की मृत्यु के समय तेजहीन चंद्र एवं बाद में दशगात्र के समय के वर्णन के आधार पर तिथियों की गणना की गई है। किष्किंधा नरेश सुग्रीव द्वारा दक्षिण में भेजे वानर दल का एक माह में ना लौटना, वानरों के लिए भोजन उपलब्ध न होना, रामेश्वरम के समुद्र का वर्णन, लंका का दक्षिण दिशा में होना, सब कुछ तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है। एक और अनुपम उदाहरण रावण की शैया का अशोक के फूलों से सज्जित होना है। इसका अर्थ है कि अशोक के वृक्ष में पुष्प पल्लवित होने के समय हनुमान जी लंका गए थे।

साँच को आँच नहीं होती। श्रीराम के साक्ष्य अयोध्या जी से लेकर वनगमन पथ तक हर कहीं मिल जाएँगे। अनेक साक्ष्य श्रीलंका ने भी सहेजे हैं। अशोक वाटिका को ज्यों का त्यों रखा गया है। नासा के सैटेलाइट चित्रों में रामसेतु के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं।

श्री नीलेश ओक द्वारा मूल रूप से अँग्रेज़ी में लिखी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. नंदिनी नारायण ने किया है। अनुवाद किसी भाषा के किसी शब्द के लिए दूसरी भाषा के समानार्थी शब्द की जानकारी या खोज भर नहीं होता। अनुवाद में शब्द के साथ उसकी भावभूमि भी होती है। अतः अनुवादक के पास भाषा कौशल के साथ-साथ विषय के प्रति आस्था होगी, तभी भावभूमि का ज्ञान भी हो सकेगा। डॉ. नंदिनी नारायण द्वारा किया हिंदी अनुवाद, विधागत मानदंडों पर खरा उतरता है। अनुवाद की भाषा प्रांजल है। अनुवाद में सरसता है, प्रवाह है। पढ़ते समय लगता नहीं कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।

विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे। लेखक और अनुवादिका, दोनों को हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 162 ☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरुण अर्णव खरे जी द्वारा लिखित  “ एजी ओजी लोजी इमोजी ” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – एजी ओजी लोजी इमोजी (व्यंग्य संग्रह)

लेखक  – श्री अरुण अर्णव खरे

प्रकाशक – इंक पब्लीकेशन

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

सर्वप्रथम बात इंक पब्लीकेशन की, दिनेश जी वाकई वर्तमान साहित्य जगत में अच्छी रचनाओं के प्रकाशन पर उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हे और उनके चयन के दायरे में अरुण अर्णव खरे जी के व्यंग्य संग्रह हेतु दोनो को बधाई।

अरुण अर्णव खरे जी इंजीनियर हैं, अतः उनके व्यंग्य विषयों के चयन, नामकरण, शीर्षक, विषय विस्तार में ये झलक सहज ही दिखती है। किताब पूरी तो नही पढ़ी पर कुछ लेख पूरे पढ़े, कई पहले ही अन्यत्र पढ़े हुए भी हैं। पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य सोशल मीडिया में इमोजी की चिन्ह वाली भाषा से अनुप्रास में प्रायः हमारी पीढ़ी की पत्नियो द्वारा अपने पतियों को एजी के संबोधन से जोड़कर बनाया गया है। बढ़िया बन पड़ा है। लेख भी किंचित हास्य, थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा संदेश, कुछ मनोरंजन लिए हुए है। संग्रह इकतालीस व्यंग्य लेख संजोए हुए है। टैग बिना चैन कहां, सच के खतरे, झूठ के प्रयोग ( गांधी के सत्य के प्रयोग से प्रेरित विलोम ), नमक स्वादानुसार, ड्रीम इलेवन ( श्री खरे अच्छे खेल समीक्षक भी हैं ), पाला बदलने का मुहूर्त रचनाएं प्रभावोत्पादक है। आत्म कथन में अरुण जी ने प्रिंट  किताब के भविष्य पर अपनी बात रखी है, सही है। पीडीएफ होते हुए भी, अवसर मिला तो इस कृति को पुस्तक के रूप में पढ़ने का मजा लेना पसंद करूंगा। अस्तु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ लहू के गुलाब – श्री अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ☆ समीक्षक – प्रो. नव संगीत सिंह ☆

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – लहू के गुलाब (हिन्दी गजल संग्रह)

लेखक  – अमृतपाल सिंह ‘शैदा’

प्रकाशक – शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला,

पृष्ठ – 96

मूल्य – 200/-

☆ “लहू के गुलाब” ~  सामाजिक विसंगतियों की परिचायक: प्रो. नव संगीत सिंह ☆

अमृतपाल सिंह ‘शैदा’ ग़ज़ल को समर्पित त्रिभाषी कवि हैं। उन्होंने अब तक पंजाबी में 4 संपादित और 2 मौलिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें ‘गरम हवावां’ (कहानियां, 1985), ‘जुगनू अतीत दे’ (कविताएं, चरणजीत सिंह चड्ढा, 2003), ‘सांझ अमुल्ली बोली दी’ (ग़ज़लें, 2021), ‘सथ्थ जुगनुआं दी’ (कहानियाँ, 2021) (सभी संपादित); ‘फसल धुप्पां दी’ (गज़ल, 2019), ‘टूणेहारी रुत्त दा जादू’ (ग़ज़लें, 2022) (दोनों मौलिक) शामिल हैं। वह सहजता और ठहराव के कवि हैं। पिछले 40 वर्षों से उन्होंने स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कवि दरबारों/मुशायरों सहित त्रिभाषी कवि दरबारों की शोभा बढ़ाई है। उन्होंने दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो कार्यक्रमों में भी भाग लिया है। वे 1979 से ‘त्रिवेणी साहित्य परिषद’ पटियाला से जुड़े हुए हैं और 1985 से वे भाषा विभाग, पंजाब की साहित्यिक गतिविधियों से संबंधित हैं। ग़ज़ल की बारीकियां उन्हें अपने दिवंगत पिता श्री गुरबख्श सिंह शैदा की संगति से मिली।

समीक्षाधीन पुस्तक (‘लहू के गुलाब’, शब्दांजलि पब्लिकेशन, पटियाला, पृष्ठ 96, मूल्य 200/-) अमृतपाल सिंह शैदा की हिंदी ग़ज़लों की पहली मौलिक पुस्तक है, जिसमें 72 ग़ज़लें शामिल हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना एवं तब्सिरा में क्रमशः डाॅ. सुरेश नाइक (राजपुरा, पंजाब) और प्रो. सग़ीर तबस्सुम (पाकिस्तान) ने पुस्तक की विस्तृत और बारीकी से समीक्षा की है। शिरोमणि हिन्दी साहित्यकार डाॅ. मनमोहन सहगल ने भी पुस्तक पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखी है।

दरअसल, वर्तमान समय में ग़ज़ल भी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आडंबर/फंतासी/शाही दरबारों के चक्र से मुक्त होकर सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती देती दिखाई देती है। पुस्तक का शीर्षक “लहू के गुलाब” संघर्ष और प्रगति को दर्शाता है, अर्थात् गुलाब अब केवल सुगंधि या खुशबू का केन्द्र बिन्दु नहीं रहा, बल्कि उसके लाल रंग से कवि को रक्त/क्रान्ति का झंडा लहराता नजर आता है। और जब कवि को कोमल/नाज़ुक चीजों से भी रक्त का संचार दिखाई दे, तो समझ लेना चाहिए कि ‘ताज़ो-तख्त’ गिरने वाले हैं।

शायर ने सभी ग़ज़लों में शेयरों की संख्या सात तक सीमित कर दी है और लगभग हर ग़ज़ल के अंत में अपना उपनाम ‘शैदा’ इस्तेमाल किया है। उन्होंने अधिकतर ग़ज़लों में दो-दो शब्दों के दोहराव से वक्रोक्ति पैदा करने की कोशिश की है। किताब की दूसरी ग़ज़ल में ही यह जादू प्रमुखता से उभरता नज़र आता है:

गुलशन-गुलशन सहरा-सहरा, जंगल-जंगल आग लगी है

आँगन-आँगन मरघट-मरघट, आंचल-आंचल आग लगी है

मौसम-मौसम मातम-मातम, पल-पल-पल-पल आग लगी है

धरती-धरती झुलसी-झुलसी, बादल-बादल आग लगी है

                                                     (पृष्ठ 20)

हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं – अच्छे भी और बुरे भी। कुछ मददगार साबित होते हैं, कुछ लूटपाट/हत्या करने में लगे रहते हैं। कवि इस लम्बे चौड़े आख्यान को एक ही शेयर में कैसे समेटता है:

बस्ती पर जब संकट आया, कुछ लोगों ने लंगर खोले

कुछ लोगों ने लूट मचाई, कुछ ने जुगनू बांटे थे

                                                    (पृष्ठ 22)

शीर्षक ग़ज़ल में कई मुद्दों/विषयों को छुआ गया है और काफिया-रदीफ़ में ‘लहू के गुलाब’ का दोहराव है। पूरी दुनिया को जीतने की चाहत रखने वाला सिकंदर आखिरकार खाली हाथ चला गया। कवि ने इस तथ्य को जीवन की सच्चाई से कितनी गहराई से जोड़ा है:

जो चाहता था दुनिया को अपनी मुट्ठी में करना, 

थे हाथ उसके ख़ाली जनाज़े से बाहर

खिलाता रहा उम्र भर ही अना के,

वो अहमक़ सिकंदर लहू के गुलाब।     

(पृष्ठ 24)

क़लम की ताकत को ‘शैदा’ जैसा बुद्धिमान ग़ज़लगो ही समझ सकता है, अन्यथा आम लोग तो लेखक को मूर्ख ही समझते हैं:

तुम नहीं ताक़त क़लम की जानते, सोचो ज़रा

इन्किलाबों का है ये इक कारगर हथियार क्यों

जिस के फ़न को सोने-चांदी से खरीदा जा सके

उसको हम, ‘शैदा’ कहेंगे साहिबे-किरदार क्यों

                                                     (पृष्ठ 26)

आज के मनुष्य के तनावपूर्ण और जटिल जीवन को देखकर ऐसा लगता है कि वह एक ही समय में कई हिस्सों में बंटा हुआ है। वह करता कुछ और है, सोचता कुछ और; देखता कुछ और है, लिखता कुछ और.. और ऐसी परेशानी में उससे कोई काम अच्छे से नहीं हो पाता। मेरा मानना है कि इसका प्रमुख कारण प्रौद्योगिकी है, जिसने मनुष्य के विखंडन में प्रमुख भूमिका निभाई है:

 दिल कहीं, रुह कहीं, जिस्म कहीं पर होगा

तुम हवाओं में उड़ोगे तो बिखर जाओगे

अक़्लमंदों की जो सोहबत में रहोगे ‘शैदा’

अपने क़द से भी कहीं ऊंचा उभर जाओगे

(पृष्ठ 32)

जिंदगी सिर्फ जाम-ओ-सुराही, लबो-रुख़सार के  पेचो-ख़म की उलझनों में ही नहीं उलझी है, बल्कि उसे भूख, अस्तित्व और निजता जैसी कठिनाइयों और चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। मनुष्य की जवांमर्दी इसी में है कि वह ज़ुल्मो-सितम से लड़ने के लिए किसी और के सहारे को न ढूंढे, किसी से मदद मांगने के लिए हाथ न फ़ैलाए, बल्कि अपनी पूरी ताकत से, जितनी तेजी से संभव हो, कूद पड़े। रात चाहे कितनी भी भयानक और अंधेरी क्यों न हो, आने वाला कल अवश्य खुशनुमा होगा। कवि आशावादी सोच और भविष्य के सुनहरे सपनों को प्रमुखता से रेखांकित करते हुए लिखता है:

जुगनू की दिलेरी से, लीजेगा सबक़ कोई

लड़ता है अकेला ही, ज़ुलमात के लश्कर से

नस्लें ही चलो अपनी, पुरनूर सहर देखें

आओ कि लड़ें जमकर, हम रात के लश्कर से

                                                    (पृष्ठ 33)

 शैदा’ एक ऐसा संवेदनशील शायर हैं जो लोगों के दुखों, आंसुओं और परेशानियों से हमेशा विचलित रहता है। कवि ने इस पुस्तक को “संसार की सुख शांति, समृद्धि व सलामती को समर्पित” किया है। सांसारिक समस्याओं से डरना और भागना भी कायरता की निशानी है। सच्चा योद्धा वही होता है जो सिर पर कफ़न बांधकर युद्ध के मैदान में जूझता है:

 मेरे शे’रों में लोगों के दुःख हैं, आँसू हैं, खुशियाँ हैं

हर पल चिंतन और मनन ने हक़ सच का परचम लहराया

जीना बेशक रास न आया, सारा जीवन, ‘शैदा’ मुझ को

पर संघर्ष की राह अपनाई, मर जाना न मन को भाया

(पृष्ठ 34)

 

गहरी नींद से जागो, उट्ठो, और संघर्ष में जूझो

वक्त की नाद सुनो बंधु, तुम को ललकार पड़ी है

                          ‌‌                       (पृष्ठ 53)

पृष्ठ 48 पर कवि ने ‘ऐ दोस्त’ अलग-अलग वर्तनी में लिखे हैं, लेकिन हिंदी में ‘ऐ दोस्त’ ही सही है। शायर ने क़िताब की ग़ज़लों को हिंदी ग़ज़लों का नाम दिया है लेकिन इनमें प्रस्तुत शब्द/वाक्यांश अधिकतर फ़ारसी/अरबी हैं। कवि ने इन्हें अरबी-फ़ारसी के अनुसार लिखा है। इस पुस्तक की ख़ूबी यह है कि अंत में कठिन शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। लेकिन सभी कठिन शब्द यहां नहीं आ सके। शब्दार्थ-विधि भी सही नहीं है। उन्हें क्रमांकित या पृष्ठांकित किया जाना चाहिए था या फ़ुटनोट में लिखा जाना चाहिए था। जोश, प्रेरणा और संघर्ष की बातें कहतीं ‘शैदा’ की यह ग़ज़लें तहक़ीक़-ओ-तवारीख़ में भूचाल लाने की क्षमता रखती हैं, ऐसा मेरा मानना है!

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 2 ?

? संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – पुरानी डायरी के फटे पन्ने

विधा – कहानी

कहानीकार – ऋता सिंह

प्रकाशक – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी कहन – श्री संजय भारद्वाज?

माना जाता है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। सत्य तो ये है कि हर आदमी की एक कहानी है।

आदमी एक कहानी लेकर जन्मता है, अपना जीवन एक कहानी की तरह जीता है। यदि एक व्यक्ति के हिस्से केवल ये दो कहानियाँ भी रखी जाएँ तो विश्व की जनसंख्या से दोगुनी कहानियाँ तो हो गईं। आगे मनुष्य के आपसी रिश्तों, उसके भाव-विश्व, चराचर के घटकों से अंतर्संबंध के आधार पर कहानियों की गणना की जाए तो हर क्षण इनफिनिटी या असंख्येय स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

श्रीमती ॠता सिंह

श्रीमती ॠता सिंह की देखी, भोगी, समझी, अनुभूत, श्रुत, भीतर थमी और जमी कहानियों की बस्ती है ‘पुरानी डायरी के फटे पन्ने।’ संग्रह की कुल चौबीस कहानियाँ, इन कहानियों के पात्रों, उनकी स्थिति-परिस्थिति, भावना-संभावना, आशा-आशंका सब इस बस्ती में बसे हैं।

इस बस्ती की व्याप्ति विस्तृत है। बहुतायत में स्त्री वेदना है तो पुरुष संवेदना भी अछूती नहीं है, निजी रिश्तों में टूटन है तो भाइयों में  प्रेम का अटूट बंधन भी है। आयु की सीमा से परे मैत्री का आमंत्रण है तो युद्धबंदियों के परिवार द्वारा भोगी जाती पीड़ा का भी चित्रण है। वृद्धों की भावनाओं की पड़ताल है तो अतीत की स्मृतियों के साथ भी कदमताल है। सामाजिक प्रश्नों से दो-चार होने  का प्रयास है तो स्वच्छंदता के नाम पर मुक्ति का छद्म आभास भी है। आस्था का प्रकाश है तो बीमारी के प्रति भय उपजाता अंधविश्वास भी है। आदर्शों के साथ जीने की ललक है तो व्यवहारिकता की समझ भी है।  

अलग-अलग आयामों की इन कहानियों में स्त्री का मानसिक, शारीरिक व अन्य प्रकार का शोषण प्रत्यक्ष या परोक्ष कहीं न कहीं उपस्थित है। इस अर्थ में ये स्त्री वेदना को शब्द देनेवाली कही जा सकती हैं।

विशेष बात ये है कि स्त्री वेदना की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ शेष आधी दुनिया के प्रति विद्रोह का बिगुल नहीं फूँकती। पात्र के व्यक्तिगत विश्लेषण को समष्टिगत नहीं करतीं। सृष्टि युग्म राग है, इस युग्म का आरोह-अवरोह लेखिका की कलम के प्रवाह में ईमानदारी से देखा जा सकता है। लगभग आठ कहानियों में कहानीकार ने पुरुष को केंद्रीय पात्र बनाकर उससे बात कहलवाई है। इन सभी और अन्य कहानियों में भी वे पुरुष की भूमिका के साथ न्याय करती हैं।

अतीत को आधार बनाकर कही गई इन कहानियों में इंगित विसंगतियाँ तत्कालीन हैं। विडंबना ये है कि यही ‘तत्कालीन’ समकालीन भी है। इसे समाज का दुर्भाग्य कहिए कि विलक्षणता कि यहाँ कुछ अतीत नहीं होता। अतीत, संप्रति और भविष्य समांतर यात्रा करते हैं तो कभी गडमड भी हो जाते हैं।

बंगाल लेखिका का मायका है। सहज है कि मायके की सुगंध उनके रोम-रोम में बसी है। बंगाली स्वीट्स की तरह ये ‘स्वीट बंगाल’ उनकी विभिन्न कथाओं में अपनी उपस्थिति रेखांकित करवाता है।

कहानी के तत्वों का विवेचन करें तो कथावस्तु सशक्त हैं। देशकाल के अनुरूप भाषा का प्रयोग भी है। कथोपकथन की दृष्टि से देखें तो इन कहानियाँ में केंद्रीय पात्र अपनी कथा स्वयं कह रहा है। अतीत में घटी विभिन्न घटनाओं का कथाकार की स्मृति के आधार पर वर्णन है। इस आधार पर ये कहानियाँ, संस्मरण की ओर जाती दृष्टिगोचर होती हैं।  

लेखिका, शिक्षिका हैं। विद्यार्थियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए शिक्षक विभिन्न शैक्षिक साधनों यथा चार्ट, मॉडेल, दृक-श्रव्य माध्यम आदि का उपयोग करता है। न्यूनाधिक वही बात लेखिका के सृजन में भी दिखती है। समाज का परिष्कार करना, परिष्कार के लिए समाज की इकाई तक अपनी बात पहुँचाने के लिए वे किसी विधागत साँचे में स्वयं को नहीं बाँधती। ये ‘बियाँड बाउंड्रीज़’ उनके लेखन की संप्रेषणीयता को विस्तार देता है।

अपनी बात कहने की प्रबल इच्छा इन कहानियों में दिखाई देती है। साठोत्तरी कहानी के अकहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी जैसे वर्गीकरण से परे ये लेखन अपने समय में अपनी बात कहने की इच्छा रखता है, अपनी शैली विकसित करता है। मनुष्य के नाते दूसरे मनुष्य के स्पंदन को स्पर्श कर सकनेवाला लेखन ही साहित्य है। इस अर्थ में ॠता सिंह का लेखन साहित्य के उद्देश्य तथा शुचिता का सम्मान करता है।

इन अनुभूतियों को ‘कहन’ कहूँगा। ॠता सिंह अपनी कहन पाठक तक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सफल रही हैं। प्रसिद्ध गज़लकार दुष्यंतकुमार के शब्दों में-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

आपके-हमारे भीतर बसे, अड़ोस-पड़ोस में रहते, इर्द-गिर्द विचरते परिस्थितियों के मारे मूक रहने को विवश अनेक पात्रों को लेखिका  श्रीमती ॠता सिंह ने स्वर दिया है। उनके स्वर की गूँज प्रभावी है। इसकी अनुगूँज पाठक अपने भीतर अनुभव करेंगे, इसका विश्वास भी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 161 ☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री पद्मेश गुप्त जी द्वारा लिखित  “डेड एंड” (कहानी संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “डेड एंड” (कहानी संग्रह) – लेखक – श्री पद्मेश गुप्त ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – डेड एंड (कहानी संग्रह)

लेखक  – श्री पद्मेश गुप्त

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ – १०० 

मूल्य – २९५  रु

ISBN – 978-93-5518-900-4

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय विदेश गये उनमें से जिन्हें हिन्दी साहित्य में किंचित भी रुचि थी, वह विदेशी धरती पर भी पुष्पित, पल्लवित, मुखरित हुई। विस्थापित प्रवासियों के परिवार जन भी उनके साथ विदेश गये। उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रफुल्लित हुईं उन्होंने मौलिक लेखन किया, किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया । सोशल मीडिया के माध्यम से उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को हि्दी साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया। भोपाल से प्रारंभ विश्वरंग, विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेशों में भारतीय काउंसलेट आदि ने प्रवासी हिन्दी प्रयासों को न केवल एकजाई स्वरूप दिया वरन साहित्य जगत में प्रतिष्ठा भी दिलवाई। प्रवासी रचनाकारों की सक्षम आर्थिक स्थिति के चलते भारत के नामी प्रकाशनो ने साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो को किंचित शिथिल करते हुये भी उन्हें हाथों हाथ लिया। वाणी प्रकाशन, नेशनल बुक ट्र्स्ट, इण्डिया नेट बुक्स, शिवना प्रकाशन आदि संस्थानो से प्रवासी साहित्य की पुस्तकें निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। विदेश से होने के कारण भारत में प्रवासी रचनाकारों की स्वीकार्यता अपेक्षाकृत अधिक रही है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल केअत्यंत सक्षम  हिंदी बहुविध रचनाकार हैं। उन पर विकिपीडिया पेज भी है। डॉ॰ पद्मेश गुप्त ने यू॰के॰ हिन्दी समिति एवं `पुरवाई’ पत्रिका के माध्यम से हिन्दी को  प्रतिष्ठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मूलत: वे कवि हैं, किन्तु उनकी कहानियाँ भी बेहद प्रभावी हैं। उनका अनुभव संसार वैश्विक है, वे नये नये बिम्ब प्रस्तुत करते हैं। हाल ही लंदन बुक फेयर में आयोजित एक विशेष कार्यक्रम में पद्मेश गुप्त के कहानी संग्रह ‘डेड एंड‘ का विमोचन संपन्न हुआ था। संयोगवश मैं भी लंदन प्रवास में होने से इस आयोजन में भागीदार रहा। इस संग्रह में कुल नौ कहानियां अस्वीकृति, औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है, डेड एंड, इंतजार, कशमकश, तिरस्कार, तुम्हारी शिवानी, कब तक और यात्रा सम्मिलित हैं।

कहानी अस्वीकृति में ई मेल बिछड़े प्रेमियों राजीव और अनीशा को फिर से मिलवाने का माध्यम बनती है। इस तरह का नया प्रयोग समकालीन कहानियों में नवाचारी और अपारंपरिक ही कहा जायेगा। पूर्ण समर्पण को उद्यत अनीशा के प्रस्ताव के प्रति समीर की अस्वीकृति से पल भर में  अनीशा के प्रेम, भावनाओ, और समर्पण की इमारत खंडहर हो गयी। कहानी “औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है” में पद्मेश गुप्त का कवि उनके कहानीकार पर हावी दिखता है। एक लम्बी काव्यात्मक अभिव्यक्ति से कथा नायक राम, सुजान के संग बिताये अपने लम्हे याद करता है। … सुजान के बेटे लव में राधिका ने राम की छबि देख ली थी, वह दुआ मांगने लगी कि अब किसी मोड़ पर कोई कुश न मिल जाये। …. औरत प्रेम सिर्फ एक बार करती है …. सुजान का वह वाक्य एक बार फिर राम के हृदय में गूंजने लगा। कहानी प्रेम त्रिकोण को नवीन स्वरूप में रचती है, जिसमें राम, राधिका, लव के पुरातन प्रतीको को लाक्षणिक रूप से किया गया प्रयोग भी कहानीकार की प्रतिभा और भारतीय मनीषा के उनके अध्ययन को इंगित करता है। ‘डेड एंड’ कहानी के गहन भाव और सुघड़ शिल्प ने पद्मेश गुप्त के कहानी बुनने के कौशल को उजागर किया है। हिन्दी कहानी के अंग्रेजी शब्दों के शीर्षक से विदेशों में बदलते हिन्दी के स्वरूप का आभास भी होता है। पुस्तक की अनेकों कहानियों में संवाद शैली का ही प्रयोग किया गया है। ढ़ेरों संवाद अंग्रेजी में हैं। … मिनी ने हँसते हुये उत्तर दिया ….  ” आई नो वी कांट विदाउट ईच अदर “। इंतजार वर्ष २००६ में लिखी गई पुरानी कहानी है, यह स्पष्ट होता है क्योंकि अंदर वर्णन में मिलता है ” आज २१ मार्च २००६ को शादी की पाँचवी वर्षगांठ का दिन दीपक ने शालिनी से अपने दिल की बात कहने के लिये चुना। … वह महसूस कर रहा था कि अंजली उसका बीता हुआ कल है और शालिनी भविष्य। किन्तु कहानी का ट्विस्ट और चरमोत्कर्ष है कि दीपक को एक पत्र बेड के पास मिलता है जिसमें लिखा था … मैं तुम्हारे जीवन से सदा के लिये जा रही हूं, मैं राजेश से विवाह कर रही हूं … शालिनी। कहानी के मान्य आलोचनात्मक माप दण्डो पर पद्मेश जी की कहानियां खरी हैं। कहानी ‘कब तक‘ आज के परिदृश्य में प्रासंगिक है। ये कहानियां स्वतंत्र प्रेम कथायें हैं। यदि कथाकार भाषा की समझ रखता है। उसमें समाज के मनोविज्ञान की पकड़ है तो प्रेमकथायें हृदय स्पर्शी होती ही हैं। पद्मेश की कहानियां भी पाठक के दिल तक पहुंच बनाती हैं। कशमकश संग्रह की सर्वाधिक लंबी कहानी है जिसमें कथानक का निर्वाह उत्तम तरीके से हुआ है। तिरस्कार से अंश उधृत है …सिमरन का घमण्ड चूर होने लगा। जिस गोरे रंग पर सिमरन को इतना नाज था, उसी के कारण आये दिन उसका तिरस्कार होता। …. राखी को लोगों से बहुत प्रशंसा मिली पर सिमरन ने यह कहकर उसका मजाक बनाया कि साँवली होने के कारण उसे एशियन लड़की भूमिका बहुत सूट कर रही थी। …. सिमरन अखबार उठाकर बैठ गई, अचानक उसकी नजर तीसरे पेज पर पड़ी … सिमरन चौंक गई … यह तसवीर उसकी छोटी बहन राखी की थी, नीचे लिखा था इस साल विश्वसुंदरी का खिताब भारत की राखी ने जीता है। कहानी इस चरम बिंदु के साथ स्किन कलर रेसिज्म और वास्तविक सौंदर्य पर अनुत्तरित सवाल खड़े करते हुये पूरी हो जाती है। तुम्हारी शिवानी भी रोचक है। ‘कब तक’ मिली-जुली संस्कृति के टकराव की व्याख्या करती है। यात्रा में लेखक के आध्यात्मिक चिंतन से परिचय मिलता है ” आत्मा अमर है, शरीर वस्त्र। आत्मा शरीर बदलती है, नया जन्म होता है।

कहानी में रुचि रखते हैं तो डेड एंड शब्दों  में बांधते हुये प्रेम को व्यक्त करता नये वैश्विक बिम्ब बनाता रोचक कहानी संग्रह है। सरल सहज खिचड़ी भाषा में बातें करता यह कहानी संग्रह समकालीन वैश्विक परिदृश्य को अभिव्यक्त करता पठनीय और संग्रहणीय है। कुल मिलाकर मुझे हर कहानी पठनीय मिली। सब का कथा विस्तार बताकर मैं आप का वह आनंद नहीं छीनना चाहता जो कहानी पढ़ते हुये उसकी कथन शैली में डुबकी लगाते हुये आता है। वाणी प्रकाशन से सीधे बुलाइये या अमेजन पर आर्डर कीजीये, पुस्तक सुलभ है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “अशी माणसं : अशी साहसं” – लेखक : श्री व्यंकटेश माडगूळकर ☆ परिचय – सौ अनघा कुलकर्णी ☆

सौ अनघा कुलकर्णी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “अशी माणसं : अशी साहसं” – लेखक : श्री व्यंकटेश माडगूळकर ☆ परिचय – सौ अनघा कुलकर्णी ☆

पुस्तक : अशी माणसं : अशी साहसं

लेखक : श्री व्यंकटेश माडगूळकर

व्यंकटेश माडगूळकर यांची साहित्य विश्वा त ग्रामीण कथा-कादंबरीकार म्हणून ओळख आहेच तसेच ते एक निसर्ग प्रेमी, प्राणी प्रेमी होते हे आपल्याला माहित आहे.या त्यांच्या प्रेमा पायी त्यांनी राने वने धुंडाळली जंगले पायाखाली घातली ,निसर्गाच्या सानिध्यात राहून निरीक्षणे केली  रेखाटने केली, अनुभव घेतले ,विपुल वाचन केले आणि लेखनही  केले.

असेच थोड्या वेगळ्या विषयावरचे त्यांचे पुस्तक आहे ,अशी माणसं :अशी साहस जीवनात बरेच जण मळलेल्या वाटांनीच वाटचाल करतात .स्वतःच्याच पावलांनी नव्या वाटा पडणारे, हव्या त्या ठिकाणी जाऊन पोहोचणारे ,अगदी थोडे.  या थोड्यांच्या वाटचालीसंबंधीच्या हकीगती सांगणारे, त्यांच्या ग्रंथाची ओळख करून देणारे, लेख माडगूळकरांनी नियतकालिकातून लिहिले .या लेखांचा संग्रह म्हणजे हे पुस्तक.

अरबी भाषेतील सुरस आणि चमत्कारिक कथा आपण सर्वांनीच वाचले आहेत.या कथेतील बहादूर दर्यावर्दी सिंदबाद आणि त्याच्या सात सफरी आपण वाचल्या आहे त. याच सफरीने प्रभावित होऊन टीम सेवरी न या भूगोल तज्ञाला वाटले की , पण सिंदबादप्रमाणे जहाजातून समुद्र पार करायचे सिंदबाद ने केले त्याच मार्गाने .या सफरींची तयारी आणि अनुभव याचे कथन या लेखात आहे.

 ‘जेन गुडाल ‘या त्यांनी केलेल्या चिंपांझी वानराच्या संशोधनामुळे प्रसिद्ध झाल्या .जेन गुडाल आणि त्यांचे पती यांनी टांझानियातील गोरो गारो या जागी राहून रान कुत्री ,कोल्हा आणि तरस यांचा अभ्यास केला.आणि त्यावर इनोसंट किलर्स ‘हे पुस्तक लिहिले .या  पुस्तकाचा सारांश आपल्याला या लेखात वाचायला मिळतो.

फरले मो वॅट नावाच्या माणसाने उत्तर ध्रुवा कडील ओसाड प्रदेशात केलेल्या प्रवासावर पुस्तक लिहिलं .ते वाचताना माणूस नावाचा प्राणी किती चिवट आणि किती जिद्दी आहे ,निसर्गाशी जुळवून घेत तो या पृथ्वीतलावर कुठे कुठे वस्ती करून राहतो ,हे या पुस्तकातून कळतं .आपण ज्याला संकट म्हणतो त्या अति अडचणी वाटतात . तिसऱ्या लेखात फरले व त्याचे पुस्तक याचा परिचय होतो.

ओरिया ही तरुणी जंगली हत्तींच्या कळपात चार-पाच वर्ष राहिली .त्यांचा टांझा नियाला असलेल्या लेक मन्या रा नॅशनल पार्क मध्ये साडेचारशे हत्ती होते .झाडावर चढून बसणारे सिंह होते ,गेंडे होते ,मस्तवाल रा न रेडे म्हशी होत्या .विषारी चुळा  टाकणारे सर्प होते .या सगळ्या पसाऱ्यात ओरिया राहिली.आपण घेतलेल्या अनुभवांना शब्द रूप दिले .ओरिया विषयी आणि तिच्या अनुभवाविषयी चौथ्या लेखात सांगितले आहे.

कुनो स्टूबेन नावाच्या अफाट जिद्दी तरुणाने एकट्याने नाईल नदी तरु न जाण्याचा निश्चय केला.अनेक संकटाशी सामना करत तो पार पाडला .आपल्या विलक्षण अनुभवाने भरलेले त्याचे पुस्तक आहे .’अलोन ऑन द ब्ल्यू नाईल’ या पुस्तकाचा सारांश या लेखात वाचायला मिळतो.

जिम कॉर्बेट हे नाव आपल्याला परिचित आहे ते नरभक्षक वाघांचा शिकारी म्हणून.परंतु जिम कॉर्बेट व्यक्ती म्हणून खूप वेगळा होता तो निष्णात शिकारी तर होताच पण सहृदय  माणूस पण होता .एखाद्या शास्त्रज्ञाच्या तोडीची निरीक्षण शक्ती आणि चौकसपणा त्याच्याकडे होता .भीतीवर त्याने नेहमीच विजय मिळवला .जिम कॉर्बेटचे कार्य आणि व्यक्तीचित्र आपल्याला इथे वाचता येते.

यानंतरच्या लेखात पक्षी तीर्थ की ही म डॉक्टर सलीम आलि त्यांची भेट व अनुभव याविषयी लिहिले आहे.

संग्रहातील शेवटचा लेख आहे मारोतराव चित्तमपल्ली यांच्या विषयी.चितमपल्ली लेखक म्हणून आपल्याला परिचित आहेतच परंतु एक व्यक्ती म्हणून ते कसे आहेत हे आपल्याला या लेखात कळते .एक मित्र असलेल्या या’ जंगलातील माणसाचे’ ‘माडगूळकर यांनी रेखाटलेले शब्दचित्र आपल्याला चित्तमपल्लींची नव्याने ओळख करून देते.

संग्रहातील सर्वच लेख वाचनीय आहेत .’साहस ‘या शब्दाची आपली व्याप्ती किती तोकडी आहे हे पुस्तक वाचताना जाणवत राहत .माडगूळकर यांच्या चित्रमय आणि सुबोध शैलीत हे अनुभव वाचणे म्हणजे एक वेगळा ,आनंददायी अनुभव आहे.__

परिचय : सौ अनघा कुलकर्णी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 1 ?

? संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – अंतरा

विधा – कविता

कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी

? पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-

पर

तुझे पता भी है?

पत्थर के बीच

झरना भी बहता है..!

कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-

चिता पर रखी लकड़ी पर,

एक पौधे ने

खुलकर अंगड़ाई ली..!

विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-

अब मैैं

तुम्हारी आँखों के आकाश से

नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-

आकाश में

घर तो बनता नहीं कभी..!

कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।

यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।

अभी कुछ शेष है,

देह के कंकाल में

जो मुक्त होना नहीं चाहता,

गहरा अंतर तक खुद गया है,

यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!

पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।

हर बार वह

झुठला दी जाती,

अपनी क़ब्र में

दफ़न होने के लिए..

समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।

विष पीकर

वह निखरती रही,

मीरा बनती रही..

कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।

मैं आँखें खोल देखती हूँ

तुम्हारे नीले पड़े होठों को,

तुम कुछ कहते नहीं,

बस उठकर चल देते हो,

मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..

इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।

इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-

शाश्वत-अशाश्वत की

सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ

जब भी लम्बी यात्रा

पर निकल पड़ता है..!

कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “तालियां बजाते रहो…”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” जी की कृति “तालियां बजाते रहो… “ की समीक्षा)

श्री सुरेश मिश्र “विचित्र”

☆ “तालियां बजाते रहो… ”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

(आज 22 जून को विमोचन पर विशेष)

पुस्तक चर्चा 

कृतिकार सुरेश मिश्र “विचित्र” के श्रेष्ठ व्यंग्य

विषयों के चयन, निर्भीक कथन और सहज – सरल चुटीली प्रवाह पूर्ण भाषा शैली के कारण व्यंग्यकार सुरेश मिश्र “विचित्र” ने व्यंग्यकारों और पाठकों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। यों विचित्र जी एक अच्छे कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भी सहज ही व्यंग्य उपस्थित हो जाता है। विगत कुछ समय से उनके द्वारा लिखे जा रहे “यह जबलपूर है बाबूजी” में पाठकों को काव्य और व्यंग्य का दोहरा मजा आ रहा है। आज विचित्र जी के नवीन व्यंग्य संग्रह “तालियां बजाते रहो” का विमोचन हो रहा है। मुझे विश्वास है कि विचित्र जी के इस व्यंग्य संग्रह को भी पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त होगा। किसी भी लेखक की सफलता इस बात में है कि जब पाठक उसकी रचना पढ़ना प्रारंभ करे तो उसकी रोचक शुरूआत में ऐसा फंसे की पूरी रचना पढ़ने पर मजबूर हो जाए। देश के अनेक दिग्गज कहे जाने वाले व्यंग्यकारों में पाठकों को अपनी रचना से बांधने का जो कला कौशल नहीं है वह कला भाई विचित्र जी के लेखन में है। इसलिए वे पढ़े भी जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। यह बात अलग है कि समझ में न आने वाला लिखने वाले जोड़ तोड़ से निरंतर सरकारी व गैरसरकारी सम्मान अर्जित कर रहे हैं, स्वयं अपने श्रेष्ठ होने का डंका बजवा रहे हैं। मैं समझता हूं कि लेखक का असली सम्मान उसके लेखन को समझने वाले, उसमें रस लेने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले पाठकों की संख्या से होता है जो विचित्र जी के पास है।

“तालियां बजाते रहो” व्यंग्य संग्रह में विभिन्न विषयों, संदर्भों पर 35 व्यंग्य रचनाएं हैं। इनमें राजनैतिक व्यस्था – उथलपुथल, विसंगतियों, विद्रूपता, अतिवाद, भ्रष्टाचार, कुत्सित मानवीय प्रवृत्तियों आदि को आधार बना कर व्यंग्य की चुटकी लेते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के नाम “तालियां बजाते रहो” शीर्षक से रचित व्यंग्य में विचित्र जी ने तालियां बजवाने और बजाने वालों के साथ साथ तालियों के प्रकार पर व्यापक चर्चा करते हुए उसके विविध अर्थ प्रकट किए हैं। संग्रह में तबादलों का मौसम खंड वृष्टि जैसा, पैजामा खींच प्रतियोगिता, वृद्धाश्रम का बढ़ता हुआ दायरा, भविष्यवाणियों का दौर जारी है, तृतीय विश्वयुद्ध के नगाड़े बज रहे, गधों को गधा मत कहो, नैतिकता के बदलते मापदंड, मेरे सफेद बाल जैसी संवेदना से भरपूर मारक व्यंग्य रचनाएं हैं। पाठक एक रचना पढ़ने के बाद तुरन्त ही दूसरी रचना पढ़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।

“साहित्य सहोदर” संस्था के संस्थापक सुरेश मिश्र “विचित्र” वर्षों से समारोह पूर्वक कबीर जयंती समारोह माना रहे हैं। वे कबीर को सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं और उनकी रचनाओं का अध्ययन मनन करके, उनसे प्रेरणा प्राप्त करके ही उन्होंने लेखन की व्यंग्य विधा को चुना है। मैं समझता हूं कि न सिर्फ विचित्र जी वरन किसी भी रचनाकार की तुलना किसी भी अन्य रचनाकार से नहीं की जा सकती क्योंकि प्रत्येक रचनाकार का समयकाल, बचपन, उसका पालन पोषण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, मित्र, पेशा, परेशानियों आदि का संयुक्त प्रभाव उसकी मनोदशा का निर्माण करता है जो उसकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। अतः परसाई जी, शरद जोशी या किसी भी अन्य वर्तमान व्यंग्यकार से सुरेश मिश्र “विचित्र” की कोई तुलना नहीं। विचित्र जी “विचित्र” हैं और सदा सबसे अलग लिखने, दिखने वाले “विचित्र” रहेंगे। कृति विमोचन के अवसर पर सभी मित्रों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई, मंगलकामनाएं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 160 ☆ “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) – संपादक – प्रो कम्मू खटिक ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा प्रो कम्मू खटिक जी द्वारा संपादित पुस्तक “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 160 ☆

☆ “मास्क के पीछे क्या है ?” (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) – संपादक – प्रो कम्मू खटिक ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – मास्क के पीछे क्या है  (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १)

संपादक – प्रो कम्मू खटिक

प्रकाशक – सदीनामा प्रकाशन

संस्कारण – पहला संस्करण २०२३,

पृष्ठ – १९६

मूल्य – ३००रु

ISBN – 978-93-91058-31-9

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

हाल ही मास्क के पीछे क्या है? शीर्षक से प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सामूहिक व्यंग्य संग्रह का पहला भाग प्रकाशित हुआ है, जिसमें ५६ समकालीन व्यंग्यकारों की रचनायें संकलित हैं। किताब सदीनामा प्रकाशन से छपी है। सदीनामा जितेंद्र जीतांशु जी के द्वारा संचालित एक बहुआयामी अद्भुत संस्था है जो प्रतिदिन साहित्यिक बुलेटिन प्रकाशित कर अपनी देश व्यापी पहचान बना चुकी है। साहित्य जगत प्रतिदिन इसकी साफ्ट कापी की प्रतीक्षा करता है। सदीनामा के स्त्री विमर्श और व्यंग्य के स्तंभो से प्रो कम्मू खटिक समर्पित भाव से जुड़ी हुई हैं। तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहु चर्चित रहा है। सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं। मेरे संपादन में “मिली भगत” शीर्षक से वैश्विक स्तर पर पहला सामूहिक व्यंग्य संग्रह भी छपा था। “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “।यद्यपि व्यंग्य  अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है, संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है, प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में  व्यंग्य है, यह कटाक्ष  किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि विसंगतियों के परिष्कार के लिये लिखा जाता है। कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है। हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है, जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है। व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को  तिलमिलाकर रख देते हैं। व्यंग्य लेखक के, संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। शायद व्यंग्य, उन्ही तानो और कटाक्ष का  साहित्यिक रचना स्वरूप है, जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुल मिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं। कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है, भी कुछ कुछ व्यंग्य, छींटाकशी, हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है।

प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं, क्योकि किसी  घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य, अखबार में फटाफट छपता है, पाठक को प्रभावित करता है, गुदगुदाता है, थोड़ा हंसाता है, कुछ सोचने पर विवश करता है, जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है। जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं। अखबार के साथ ही व्यंग्य  भी रद्दी में बदल जाता है।उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है। किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये  अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो। मास्क के पीछे क्या है ? अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का ऐसा ही कमाल है।

संग्रह में लेख के साथ व्यंग्य चित्र भी प्रकाशित  हैं।

इंदिरा किसलय (नागपुर), डॉ. मधुकर राव लारोकर (नागपुर), प्रभात गोस्वामी (जयपुर), डॉ. सुधांशु कुमार (बिहार), सुनील सक्सेना (भोपाल), गीता दीक्षित (मध्य प्रदेश), परमानंद भार्गव (उज्जैन), डॉ. अरविंद शर्मा (जयपुर). स्वाति ‘सरु’ जैसलमेरिया (जोधपुर), रीता तिवारी (नागपुर), टीकाराम साहू ‘आजाद’ (नागपुर), सतीश लाखोटिया (नागपुर). राकेश सोहम (जबलपुर), राकेश अचल (ग्वालियर), संजय बर्वे (नागपुर), डॉ. रश्मि चौधरी (ग्वालियर), निवेदिता दिनकर (आगरा), राजेंद्र नागर निरंतर, श्रीलाल शुक्ल (अलीगढ़), डॉ. रवि शर्मा ‘मधुप’ (दिल्ली), लालित्य ललित (दिल्ली). कुंदन सिंह परिहार (जबलपुर), राजशेखर चौबे (रायपुर), डॉ. महेंद्र कुमार ठाकुर (रायपुर), अखतर अली (रायपुर), मुकेश नेमा (भोपाल). वेद माथुर (अलवर), घनश्याम अग्रवाल (अकोला), कामता प्रसाद सिंह ‘काम’, डॉ. नीरज दइया (बीकानेर), मुश्ताक अहमद युसुफी, शरद जोशी, सुरेश सौरभ (लखीमपुर, खीरी), डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ (हैदराबाद), भूपेंद्र भारतीय (देवास), राजेंद्र त्यागौ (मेरठ), वीरेंद्र सरल (छत्तीसगढ़), प्रभाशंकर उपाध्याय (सवाई माधोपुर), सुनीता महेश मल्ल (महाराष्ट्र), रंजना शर्मा (कोलकाता), डॉ. हरीश कुमार सिंह (उज्जैन), परवेश जैन (लखनऊ), श्री नारायण चतुर्वेदी (इटावा, यूपी), अनुराग बाजपेयी (जयपुर), डॉ. देवेंद्र जोशी (उज्जैन), अनीता रश्मि (रांची), संसार चंद्र, प्रेम जनमेजय (दिल्ली), पप्पू कुमार रजक (नैहाटी ) की रचनाओ का चयन भाग एक में संकलित करने के लिये संपादक ने किया है। शायद अगले भागों में और ज्यादा महत्वपूर्ण समकालीन लेखन सामने आये। सामूहिक संग्रहो की पठनीयता और चर्चा अधिक तथा दीर्घजीवी होती है, क्योंकि प्रत्येक सहभागी लेखक किताब को अपनी ही पुस्तक की तरह प्रमोट करता है। सभी परस्पर एक दूसरे की रचनाएं पढ़ते ही हैं। गिरिराज शरण के संपादन में 2009 में एक राष्ट्रीय स्तर का सामूहिक संग्रह पोलिस व्यवस्था पर केंद्रित छपा था। अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन “२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार ” भी हाल ही छप चुका है।इन संग्रहों में सहभागी रचनाकारों ने अपने अपने विषयों पर रचनाएं लिखी हैं। विषय केंद्रित संग्रह भी आ चुके हैं। ऐसा ही एक सामूहिक संग्रह थाने थाने व्यंग्य शीर्षक हरीश कुमार सिंह और नीरज सुधांशु के संपादन में छपा था। बहरहाल मास्क के पीछे क्या है ? (सामूहिक व्यंग्य संग्रह भाग १) प्रो कम्मू खटिक के संपादन में सदीनामा प्रकाशन के बेनर से एक और सामूहिक अच्छा प्रयास है, जिसकी सफलता, व्यापक पठनीयता हेतु मेरी शुभकामनायें हैं। खरीदिये और पढ़िये, प्रतिक्रिया दीजीये, लेखक को प्रतिक्रियाओ से बड़ा संबल मिलता है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 159 ☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा  सुश्री कविता वर्मा जी के उपन्यास अब तो बेलि फ़ेल गई पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 159 ☆

☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – अब तो बेलि फैल गई (उपन्यास)

अद्विक प्रकाशन

लेखिका … कविता वर्मा

पृष्ठ 190,

मूल्य 250 रु. – अमेजन पर सुलभ

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिन पर फुरसत से लिखने का मन बनता है, पर यह फुरसत ही तो है जो कभी मिलती ही नहीं। कविता जी ने अब तो बेलि फैल गई प्रकाशन के तुरंत बाद भेजी थी। पर फिर मैं दो तीन बार विदेश यात्राओ में निकल गया और किताब सिराहने ही रखी रह गई। एक मित्र आये वे पढ़ने ले गये फिर उनसे वापस लेकर आया और आज इस पर लिखने का समय भी निकाल ही लिया। साहित्य वही होता है जिसमें समाज का हित सन्नहित हो। समस्याओ को रेखांकित ही न किया जाये उनके हल भी प्रस्तुत किये जायें। उपन्यास के चरित्र ऐसे हों जो मर्म स्पर्शी तो हों पर जिनसे अनुकरण की प्रेरणा भी मिल सके। इन मापदण्ड पर कविता वर्मा का उपन्यास अब तो बेलि फैल गई बहुत भाता है। उनका भाषाई और दृश्य विन्यास परिपक्व तथा समर्थ है। पाठक जुड़ता है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास की ताकत जीवन और समाज की व्यापक व्याख्या है।  विश्व साहित्य के महाकाव्यों में भी कथानक ही मूल आधार रहा है। कहानियां हमेशा से रचनात्मक साहित्य का मेरुदंड कही जाती हैं। उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना ज्यादा समीचीन होगा। रचनाकार के अभिव्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार उपन्यास में शब्दावली, समकालीन आलोचनात्मक सोच, परिदृश्य के शब्द चित्र,  समाज की व्यवहारिक समझ, सहानुभूति और अन्य दृष्टिकोणों व्यापक संसार एक ही कथानक में पढ़ने मिलता है। पाठक का ज्ञान बढ़ता है। बौद्धिक खुराक के साथ साथ मानसिक आनंद एवं रोजमर्रा की जिंदगी से किंचित विश्रांति के लिये आम पाठक उपन्यास पढ़ता है। पाठक को उसके अनुभव संसार में उपन्यास के पात्र मिल ही जाते हैं और वह कथानक में खो जाता है। पाठक उपन्यास को कितनी जल्दी पढ़कर पूरा करता है, कितनी उत्सुकता से पढ़ता है, यह सब लेखक की रोचक वर्णन शैली और कथानक के चयन पर निर्बर करता है। कविता वर्मा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्तरीय पुरस्कार सहित कई सम्मानो से पुरस्कृत, अनेक कृतियों की परिपक्व लेखिका हैं जो लम्बे समय से विविध विधाओ में लिख रही हैं। किन्तु कहानी और उपन्यास उनकी विशेषता है। हिन्दी साहित्य में समाज का मध्य वर्ग ही बड़ा पाठक रहा है। स्वयं लेखिका भी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब तो बेलि फैल गई की कहानी मूलतः

इसी वर्ग के इर्द गिर्द बुनी गई है। उपन्यास के चरित्रो को पाठक अपने आस पास महसूस कर सकता है।

यह कृति लेखिका का दूसरा उपन्यास है। इससे पूर्व वे छूटी गलियां नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत को दे चुकीं हैं। इस कृति के कथानक को  दीपक सहाय, गीता,  सोना, राहुल, विजय, नेहा आदि चरित्रो से रचा गया है। आज ज्यादातर परिवारों में बच्चे विदेश जा बसे हैं, उस परिदृश्य की झलक भी पढ़ने मिलती है। भावनात्मक, मानसिक अंतर्द्व्ंद, उलझन, संवाद, सब कुछ प्रभावी हैं। रचनाकार स्त्री हैं, वे कुशलता से स्त्री चरित्रों की विभिन्न स्थितियों में मानसिक उहापोह, समाज की पहरेदारी, बेचारगी और  दोस्ती, सहानुभूति, मदद के सहज प्रस्ताव पर प्रतिक्रया जैसे विषयों का निर्वाह सक्षम तरीके  से करने में सफल रही हैं। मैं कहानी बताकर आपका पाठकीय कौतुहल समाप्त नहीं करूंगा, उपन्यास एमेजन पर उपलब्ध है। खरीदिये, पढ़िये और बताइये कि “अब तो बेलि फैल गई” की जगह और क्या बेहतर शीर्षक आप प्रस्तावित कर सकते हैं ? लेखिका को मेरी हार्दिक बधाई, निश्चित ही बड़े दिनो बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो मर्मस्पर्शी है, हमारे इर्द गिर्द बुना हुआ है और उपन्यास के आलोच्य मानको की कसौटी पर खरा है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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