हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -1 ☆  श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

आज से  प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 1 ☆  संजय भारद्वाज ?

 पात्र परिचय

‘एक भिखारिन की मौत’ के कुल 8 स्तंभ हैं। रमेश और अनुराधा पत्रकार हैं। छह अन्य पात्र अलग-अलग क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं। रमेश और अनुराधा द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कारों के माध्यम से और इन पात्रों की भूमिका द्वारा शनै:-शनै: कथानक का विकास होता है। कथानक की शीर्ष नायिका ‘भिखारिन’ जिसके इर्द-गिर्द कथा चलती है, मंच पर कहीं नहीं है। कथानक के विकास में सहयोगी बने पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय नाटककार की कल्पना में चरित्र कैसा था, इसका वर्णन करना ही इस परिचय का उद्दिष्ट है। इससे नाटककार की कल्पना मंच पर उतारने में निर्देशकों को आसानी होगी। नाटककार के निर्देशक होने का लाभ भी अन्य निर्देशकों को मिल सकेगा।

नज़रसाहब – नज़रसाहब चित्रकार है। आयु लगभग 65 वर्ष। अपने आप में खोया चरित्र। प्रसिद्धि की ऊँँचाइयों पर होते हुए भी प्रसिद्धि की प्यास मरी नहीं है। स्वाभाविक रचनात्मक अहंकार का शिकार। अपने मोह  में दूसरे को महत्व न देने वाला, पत्रकारों को बीच-बीच में टोकते रहने के लिए कहनेवाला पर टोकने पर मना करने वाला, एक खास तरह की सनक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व।

मंच  पर कुर्ता-पायजामा पहने, मेहंदी रंगे लाल से बाल और चेहरे पर उच्चवर्गीय लाली पात्र को बेहतर स्वरूप दे सकती है। उसकी भाषा में उर्दू की बहुतायत और बोलने का ख़ास उर्दू लहज़ा है।

एसीपी भोसले – आयु लगभग 45 वर्ष। पारंपरिक भारतीय पुलिस का पारंपरिक असिस्टेंट कमिश्नर। खुर्राट, बेहद चालाक किस्म का चरित्र। एक ओर मीडिया से गहरी मित्रता का स्वांग करता है तो दूसरी ओर पत्रकारों से बातचीत में बेहद सतर्क भी रहता है। यह उसकी प्रोफेशनल एफिशिएंसी भी है। पुलिसिया चरित्र में वरिष्ठ स्तर का ओढ़ा हुआ काईंयापन उसके चरित्र में है।

वह सरकारी वर्दी में है। उसकी भाषा में उच्चारण में स्थानीय भाषा का पुट रहेगा। नाटककार ने स्थानीय प्रभाव की दृष्टि से मराठी का प्रयोग किया है। अन्य प्रांतों में प्रदेश धर्म के अनुरूप भाषा का परिवर्तन चरित्र को दर्शकों से ज्यादा आसानी से जोड़ सकेगा।

मधु वर्मा – हिंदी फिल्मों में जगह बनाने के लिए संघर्षरत अभिनेत्री। सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। आयु लगभग 20 वर्ष। निर्माता की इच्छा और सफलता की चाह के बीच व्यावसायिक संतुलन की समझ रखने वाली। स्वाभाविक रूप से आलोचकों से चिढ़ने वाली।

मधु को आधुनिकतम वस्त्रों में दिखाना अपेक्षित है। उसकी भाषा पर अंग्रेजी का बहुत अधिक प्रभाव है। हिंदी के जरिए पेट भरकर अंग्रेजी बोलने वाले कलाकारों का प्रतीक है मधु वर्मा। उच्चारण में हिंदी का कॉन्वेंट उच्चारण उसके चरित्र को जीवंत करने में सहायक सिद्ध होगा।

प्रोफेसर पंत – विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष। आयु लगभग 55 वर्ष। केवल अपनी बात कहने का आदी होने के कारण दुराग्रही चरित्र। ज्ञानी पर अभिमानी। उसके विचारों से असहमति उसे मान्य नहीं होती।

कोट-पैंट, मोटे फ्रेम का चश्मा चरित्र के अनुकूल होगा। प्रोफेसर की भाषा शुद्ध है। कहने का, समझाने का अपना तरीका है। अपनी बात को अपने आग्रहों और अपनी तार्किकता से रखने वाला चरित्र।

रमणिकलाल – एक छुटभैया नेता। आयु लगभग 50 वर्ष। नेताई निर्लज्जता और टुच्चेपन का धनी। प्रचार का ज़बरदस्त भूखा, चरित्रहीन व्यक्तित्व। अख़बार में अपने प्रेस नोट भेजकर उन्हें प्रकाशित देखने की गहरी ललक रखनेवाला, प्रचार के लिए उल-जलूल बेसिर-पैर का कोई भी हथकंडा अपनाने के लिए तैयार।

उसे कुर्ता, पायजामा, टोपी में दिखाया जा सकता है। उसकी भाषा पर देहाती उच्चारण का प्रभाव है। अपेक्षित है कि वह ‘श’ को ‘स’ बोले जिससे उसके चरित्र को उठाव  मिलेगा।

रूबी – पेशे से कॉलगर्ल। आयु लगभग 25 वर्ष। सकारात्मकता का नकाब ओढ़े हुए सारे नकारात्मक चरित्रों के बीच एकमात्र सच्चा सकारात्मक चरित्र है वह। उसके भीतर और बाहर कोई अंतर नहीं है। अपने भोगे हुए यथार्थ के दम पर खड़ी एक ईमानदार पात्र। समाज का काला मुँँह देख चुकी है, अतः समाज के प्रति उसके मन में आक्रोश फूट-फूटकर भरा है। बेबाक बात कहनेवाली। गहरी संवेदनशील।

रूबी की वेशभूषा में स्कर्ट ब्लाउज या स्कर्ट टी-शर्ट अपेक्षित है। उच्चारण में कोई खास पुट नहीं है किंतु भाषा कथित अश्लील है। जिन शब्दों को सभ्य समाज घुमा-फिराकर कहता है, उन्हें वह सीधे-सपाट कहती है। आक्रोश के क्षणों में उसकी भाषा में गालियों का समावेश है।

अनुराधा – रमेश के साथ नाटक की सूत्रधार। समाचारपत्र की उपासंपादिका। आयु लगभग 35 वर्ष। पत्रकारिता की आवश्यकता और अपेक्षा को पूरी करनेवाली। रमेश के साथ तालमेल रखते हुए वह इंटरव्यू सीरीज़ को सफल करने में जुटी है। चूँकि उसे सम्मोहन का ज्ञान है, वह इस नाटक के सारे सूत्र हाथ में रखते हुए मंच पर नायिका के रूप में उभरती है। सम्मोहन के दृश्यों में विविधता लाने उससे अपेक्षित है। उसके चरित्र में मंचन की दृष्टि से ढेर सारे रंग हैं।

अनुराधा की भाषा साफ़ और उसके पेशे के अनुकूल है। हर चरित्र का इंटरव्यू करते समय भिन्न वस्त्रभूषा का प्रयोग किया जा सकता है। सम्मोहन के दृश्यों को दृष्टिगत रखते हुए पोशाकों का चयन करें। संभव हो तो कुछ दृश्यों में सम्मोहन के लिए सायक्लोड्रामा का उपयोग करें।

रमेश – समाचारपत्र का संपादक। पूरे नाटक का प्रधान सूत्रधार। आयु लगभग 40 वर्ष। सुलझा हुआ पेशेवर चरित्र। अपने अख़बार को आगे ले जाने की इच्छा रखने वाला। इस इच्छा के चलते ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा’ का सूत्र अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं है। पत्रकारिता के हथकंडों के साथ अपने विषय का ज्ञानी। संपादक के रूप में सामने वाले को पढ़ सकने में समर्थ।

रमेश की भाषा शुद्ध है। चूँकि अनुराधा के साथ लह भी पूरे समय मंच पर है, अत: विविधता की दृष्टि से पोशाकों में परिवर्तन अपेक्षित है। थोड़े बढ़े हुए बाल, दाढ़ी, जींस- कुर्ता, सफारी आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रथम अंक

प्रवेश एक

(रंगमंच पर विशेष नेपथ्य की आवश्यकता नहीं है। बाएं भाग में एक मेज, कुर्सी, कैलेंडर आदि लगाकर दैनिक ‘नवप्रभात’ का कार्यालय दिखाया जा सकता है। दाएं भाग में अन्य पात्रों के लिए आवश्यक नेपथ्य इस तरह से लगाया जाए कि पात्रानुसार थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उसी मंचसज्जा का उपयोग किया जा सके।

रंगमंच पर समतोल बनाए रखने के लिए कुछ पात्रों को बाएं भाग में प्रस्तुत करना भी निर्देशक से अपेक्षित है। पर्दा उठने पर रमेश खबर पढ़ते हुए नजर आता है। वह रंगमंच के अगले हिस्से पर है। उसके लिए एक स्पॉटलाइट का प्रयोग किया जा सकता है।)

रमेश-  कल देर रात अर्द्धनग्न भिखारिन मेन पोस्ट के सामने वाले फुटपाथ पर मरी मिली। आश्चर्यजनक बात यह थी कि लाश के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। वह पूरी तौर से…, ऊँ हूँ, ख़बर में दम नजर नहीं आता। किसी और ढंग से लिखा जाए। फिर यह ख़बर फ्रंट पेज पर शॉर्ट न्यूज़ में क्यों? दिस केन बी सेंसेशनल हेडलाइन, न्यूड डेड बॉडी एंड डेड सेंसेटिविटी। …एक नंगी मुर्दा औरत और मुर्दा संवेदनशीलता!  वाह! साला सारे अखबारों की हेडलाइंस को पीछे छोड़ देगी यह ख़बर! हड़कंप मच जाएगा। लोग ‘नवप्रभात’ खरीदने के लिए टूट पड़ेंगे।मुखपृष्ठ पर एक बड़ी सारी तस्वीर होगी उस भिखारिन की। तस्वीर के नीचे शीर्षक होगा, ‘चर्चित भिखारिन की रहस्यमयी नंगी लाश! …चर्चित! ‘ (अनुराधा प्रवेश करती है।)

अनुराधा- हाँँ वह भिखारिन चर्चित तो थी ही। सभ्य समाज में कोई स्त्री योंं अर्द्धनग्न शरीर के ऊपरी हिस्से में बगैर कुछ पहने, कमर पर लिपटे जरा से वस्त्र से खुद को थोड़ा बहुत ढके, वह मुख्य शहर के मुख्य चौक पर भीख मांगने बैठी थी।

रमेश- एक बात समझ में नहीं आती। वह चौक में भीख मांगने बैठी ही क्यों थी?… केवल चर्चित होने के लिए..? पर उसे चर्चा की ज़रूरत ही क्या थी? चर्चा उसकी ज़रूरत तो हो ही नहीं सकती।

अनुराधा- पता नहीं। हो सकता है हाँ, हो सकता है ना। फिर भी ऐसा नहीं लगता रमेश कि सारा समाज कितना स्वार्थी और कितना पत्थर-सा हो गया है। निष्प्राण हैं हम सब। पिछले चार दिनों से यह औरत शहर भर में अपनी नग्नता की वजह से चर्चित रही और इस दौरान किसी ने उसके बदन पर एक टुकड़ा कपड़ा भी नहीं फेंका।

रमेश-  यू आर राइट। संवेदनशीलता का संकट एक कड़वा सच है। हज़ारों लोग गुज़रे होंगे मेनपोस्ट के उस फुटपाथ से जहाँँ वह भिखारिन बैठी थी। कितने ही लोगों ने उसे इस हालत में हाथ फैलाते देखा होगा लेकिन..!

अनुराधा- लेट इट बी। चाय पिओगे रमेश?

रमेश-  पूछने की क्या जरूरत है? पत्रकारों के सबसे ज्यादा रुचि दो ही बातों में होती है। एक, कोई सेन्सेशनल न्यूज़  और दूसरा चाय का प्याला।

अनुराधा- हाँ चाय या कॉफी का प्याला ना हो तो देश और समाज की घटनाओं पर घंटों बुद्धिजीवी चर्चाएँ कैसे होंगी?

रमेश- (चाय पीते हुए) अनुराधा, एक विचार आया है मन में। इस भिखारिन की मौत फिलहाल शहर का सबसे ‘हॉट इशू’ है। क्यों न हम इस पर एक इंटरव्यू सीरीज़ करें!

अनुराधा- कैसी इंटरव्यू सीरीज़?

रमेश- हम शहर के कुछ ऐसे चुनिंदा लोगों का इंटरव्यू करें जिन्होंने इस भिखारिन को वहाँँ उस हालत में भीख मांगते देखा है। अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग व्यक्तित्व। देखें कि इनडिविजिल रिएक्शन, व्यक्तिगत मत क्या है और सामूहिक प्रतिक्रिया क्या है? हम लगभग एक सप्ताह तक इस सीरीज़ को चला सकते हैं। ‘नवप्रभात’ की ज़बरदस्त चर्चा होगी और अखबार अपने आप ज़्यादा बिकेगा।

अनुराधा- यू आर ए टैलेंटेड एडिटर। ‘नवप्रभात’ को एस्टेब्लिश करने का अच्छा मौका है। लेकिन रमेश कल प्रेस क्लब में पोद्दार मिला था। ‘माय सिटी’ शायद इस मामले पर पाठकों की प्रतिक्रिया इकट्ठा कर रहा है। हाँँ लेकिन एक बड़ा फ़र्क आया है। कल तक वह भिखारिन ज़िंदा थी जबकि आज उसकी मौत के बाद संदर्भ बदल गए हैं।

रमेश- वैसे मेरा विचार कुछ अलग था। हम लोगों का इंटरव्यू तो करें पर….!

अनुराधा- पर…?

रमेश- अनुराधा, मेरी समझ से हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है। ख़ासतौर पर जिस विकृत मानसिकता में हमारा समाज जीता है, उसमें यह पशु ज्यादा प्रभावी और हिंसक है।

अनुराधा-  मैं समझी नहीं।

 रमेश- अनुराधा, यह भिखारिन युवा थी, फिर लगभग नग्न। मेरी स्पष्ट समझ है कि जिस किसी ने भी उसे देखा होगा, उसके भीतर का पशु थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही, अनियंत्रित ज़रूर हुआ होगा। सवाल यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने भीतरी पशु के अनियंत्रित होने की बात पत्रकारों के सामने स्वीकार कैसे और क्यों करेगा?

अनुराधा- पर क्या हासिल होगा रमेश?

रमेश- ज़बरदस्त विवाद। इस भिखारिन के बहाने हम समाज के हर वर्ग का चेहरा देखेंगे।.. और मान लो कोई बड़ी हस्ती ‘नवप्रभात’ के खिलाफ गई तो भी लाभ हमें ही होगा। जितना विवाद होगा, उतनी ही चर्चा भी तो होगी। इस इंटरव्यू सीरीज़ से मैं सात महीने पुराने ‘नवप्रभात’ को सत्तर साल पुराने अखबारों के बराबर लाकर खड़ा कर देना चाहता हूँँ।… लेकिन समस्या वही है कि कोई भी व्यक्ति अपने अनियंत्रण का स्वीकार कैसे करेगा?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – रंगमंच ☆ नाटकावर बोलू काही: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ रंगमंच ☆ नाटकावर बोलू काही: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

‘नटसम्राट’ या नाटकाचे लेखक आणि या नाटकासाठी ज्ञानपीठ पुरस्कार मिळालेले वि. वा. शिरवाडकर यांची ‘वीज म्हणाली धरतीला’, ‘आनंद’, दूसरा पेशवा, ‘कौंतेय’, विदूषक,  अशी आणखीही अनेक उत्तम नाटके आहेत. ही सारी नाटके बघू जाता, त्यांना नाट्यलेखनाचे सम्राटच म्हणायला हवं. ‘आनंद’ हे असंच एक उत्तम नाटक. या नाटकाचा पहिला प्रयोग, नाट्यसंपदा मुंबई या संस्थेद्वारे १८ ऑक्टोबर १९७५ रोजी साहित्य संघ मंदिर मुंबई इथे सायंकाळी ७ वाजता सादर करण्यात आला. पुढे या नाटकाचे किती प्रयोग झाले माहीत नाही. नाटकापेक्षा यावरचा चित्रपट अधीक गाजला पण एखादी कलाकृती किती वाजली-गाजली यावर काही त्या कलाकृतिचे मोल ठरत नाही.

‘आनंद’ नाटकाचे मूळ श्री हृषिकेश मुखर्जी यांच्या ‘आनंद’ चित्रपटातलेच आहे. मरण समोर उभे असताना, एक मनुष्य, हसत-खेळत, प्रत्येक परिचितात स्वत:ला गुंतवून घेत, भोवतालच्या जीवनात सुखाच्या लहरी निर्माण करीत आपला अस्तकाल एका बेहोष धुंधीत व्यतीत करतो, ही कल्पना मला अतिशय हृद्य वाटली.’ असं सुरूवातीला, श्री हृषिकेश मुखर्जी यांचे आभार मानताना वि. वा. शिरवाडकर यांनी म्हंटले आहे. ‘कथासूत्र मूळ चित्राचेच असले, तरी त्याला नाट्यरूप देताना मी मला इष्ट वाटले, ते बदल त्यात केले आहेत. त्यामुळे पडद्यावरचेच सारे काही आपण नाटकात पाहात आहोत, असे प्रेक्षकांना अथवा वाचकांना वाटणार नाही, असा मला विश्वास वाटतो,’ असेही त्यांनी पुढे म्हंटले आहे.

‘आनंद’ नाटकात लेखकाने आनंद ही अफलातून व्यक्तिरेखा निर्माण केली आहे. नाटकातील डॉ. संजय सांगतो त्याप्रमाणे तो थोडा कवी आहे. थोडा नट आहे. थोडा विदूषकही आहे. कवी असल्यामुळे तो खूपसा कल्पनेत रमणारा आहे. क्वीकल्पनानेकदा सत्याच्या अधीक जवळ जाते.  आनंदचे बोलणेही तसेच आहे.

नाटकाचं थोडक्यात कथानक असं – डॉ. संजय आणि डॉ. उमेश मित्र आहेत. त्यांचा तिसरा मित्र डॉ. शिवराज नागपूरला आहे. तो आपला मित्र आनंद याला त्यांच्याकडे पाठवतो. आनंद हा खरं तर जगन्मित्र. त्याला लिफोसारकोमा  इंटेस्टाईन हा दुर्धर आजार आहे. तो संजयकडे येतो. संजय, उमेशचा मित्र बनतो. मेट्रन डिसूझाचा मुलगा जोसेफ बनतो. मुरारीलाल किंवा महम्मदभाईचा, फ्रेंड, फिलॉसॉफर, गाईड बनतो. संजायच्या बायकोचा भाऊ आणि उमेशच्या प्रेयसीचा राजलक्ष्मीचा दीर बनतो. मुरारीलाल्ला तो सरकारी कोट्यातून चित्रपट निर्माण करण्यासाठी कर्ज मिळवून देतो. डॉ. उमेशचं अबोल प्रेम मुखरीत करतो. आनंदची प्रेयसी मधुराणी नाटकात ३-४ वेळा आपल्याला भेटते. ३ वेळा त्याचा आठवणीतून आणि अगदी शेवटी वास्तवात. आनंदला आपल्या आजाराची कल्पना आहे, म्हणूनच त्याने तिला प्रत्यक्षात दूर सारलय पण मानाने ती त्याला बिलगूनच आहे.

आनंदचा स्वत:चा प्रयत्न आपलं दुर्धर आजारपण विसरण्याचा आहे पण त्याच्या जवळीकीच्या माणसांच्या डोळ्यात त्याच्या मृत्यूचा भय तरळताना त्याला दिसतय, त्यामुळे तो कासावीस होतोय. नाटकाची अखेर त्याच्या मृत्यूनेच होते पण त्यापूर्वी नाटकाचा एक भाग म्हणून केलेले स्वागत आणि शेवटी टेपवर म्हंटलेलं तेच स्वागत, अप्रतिम!

आनंद क्वीमानाचा आहे. त्यामुळे नाटकात अनेक सुंदर कवितांचा वापर झालेला आहे. इतकंच नव्हे, तर यातले गद्य संवादही काव्याचा बाज घेऊन येतात. ‘काही बोलायाचे पण बोलणार नाही,’ हे लोकप्रिय गाणं आणि

‘प्रेम नाही अक्षरांच्या भातुकलीचा खेळ

प्रेम म्हणजे वणवा होऊन जाळत जाणं

प्रम म्हणजे जंगल हून जळत राहणं

प्रेम कर भिल्लासारखं बाणावरती खोचलेलं

मातीमध्ये उगवूनसुद्धा मेघापर्यंत पोचलेलं’

ही प्रसिद्ध आणि रसिकप्रिय कविता यातलीच.

नाटकाचं सूत्रगीत आहे,

माझ्या आनंदलोकात चंद्र मावळत नाही

दर्या अथांग प्रेमाचा कधी वादळत नाही.

माझ्या आनंदलोकात केले वसंताने घर

आंब्या आंब्याच्या फांदीला फुटे कोकिळेचा स्वर

सात रंगांची मैफल वाहे इथे हवेतून

इथे मारणही नाचे मोरपिसारा लेउन

 नाटकाची भाषा भर्जरी वैभव मिरणारी, तिचा तलम, मुलायम, कोमल, हळवा पोत, या सार्‍यावर अत्तरासारखा विनोदाचा शिडकावा आणि मुख्य म्हणजे त्यातून व्यक्त झालेलं आनंदचं तत्वज्ञान, ’ उद्या येणार्‍या पाहुण्याच्या ( मृत्यूच्या) फिकिरीत माझी जिंदगी आज मी जाळून टाकणार नाही. मी असा जगेन की माझा जगणं क्षणाक्षणाला तुम्हाला जाणवत राहील. आषाढातल्या मुसळधार पावसासारखं…’ किती किती म्हणून या नाटकाची वैशिष्ट्ये सांगावीत!

एखाद्या नाट्यसंस्थेने नव्याने हे नाटक रंगांमंचावर आणायला हवं.वाचकांनी हे नाटक  एकदा तरी वाचायला हवं आणि त्याचा सारा ‘आनंद’ आपल्यात सामावून घ्यायला हवा.

 

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर  

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416  ईमेल  – [email protected] मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – रंगमंच ☆ नाट्यउतारा: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

 ☆ रंगमंच ☆ नाट्यउतारा: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर’ ☆ 

आनंद

(आनंद नाटकातील आनंद आणि डॉ. उमेश म्हणजेच आनंदचा बाबूमोशाय, यांच्यातील एक संवाद)

आनंद: (रुद्ध स्वरात)  बाबूमोशाय, कितीदा कितीदा मला आठवण करून देशील- की तुझं आयुष्य आता संपलं आहे. – शेवटाची सुरुवात झाली आहे.  बाबूमोशाय, चांदयापासूंच नव्हे, तर माझ्या मरणापासूनही मी दूर आलो होतो. वाटलं होतं, तुम्हा लोकांच्या जीवनाच्या बहरलेल्या ताटव्यातून हिंडताना माझी आयुष्याची लहानशी कणिकाही डोंगरासारखी मोठी होईल. थेंबाला क्षणभर समुद्र झाल्यासारखा वाटेल. पण- नाही- बाबांनो- मरणाला मारता येत नाही. आपल्या मनातून काढलं तर समोरच्या डोळ्यात ते तरंगायला लागतं-तुमच्या प्रत्येकाच्या डोळ्यात मी माझं मरण पाहतो आहे- पण बाबूमोशाय,  तू म्हणतोस, ते खरं आहे. मी क्षमा मागतो तुझी – तुम्हा सर्वांची- इथं येऊन तुमच्या आयुष्यात असा धुडगूस घालण्याचा मला काहीही अधिकार नव्हता. – मी चुकलो- मी- मी – उद्या चांदयाला परत जाईन बाबूमोशाय-

उमेश: (उठून त्याचे खांदे धरून ओरडतो ) तू जाऊ शकत नाहीस, आनंद – माझ्या लाडक्या- तू आता कुठंही जाऊ शकत नाहीस- तू मरणार असशील तर इथे – माझ्या घरात – माझ्या बाहुपाशात मरणार आहेस-

आनंद: (हसतो.) भाबी घरात आल्यावर तुझे बाहुपाश मोकळे सापडले पाहिजेत मात्र –

ओ.के. बाबूमोशाय, ती – कविता- मैं टेप शुरू करता हूं.

उमेश: कोणती कविता ?

आनंद: शर्त 

उमेश: एका अटीवर

आनंद: कोणत्या?

उमेश: नंतर तूही काही तरी म्हंटलं पाहिजेस. आपले दोघांचे आवाज एकत्र टेप करायचे.  कबूल?

आनंद: कबूल. कर सुरुवात (टेप चालू करतो.)

उमेश: (कविता म्हणतो.)

एकच शर्त की

तुटताना धागे

वळोनिया मागे

पाहायचे नाही

वेगळ्या वाटेची

लाभता पायकी

असते नसते

म्हणायचे नाही.

वांझोटया स्वप्नांचा

उबवीत दर्प

काळजात सर्प

पाळायचा नाही

दिवा हातातील

कोणासाठी कधी

काळोखाच्या डोही

फेकायचा नाही.

उमेश: आता तू-

आनंद: पण मी काय म्हणू?

उमेश: काहीही. चल, मी रेकॉर्ड करतो.

आनंद: पण- (हसतो) हं, आठवलं. पण असं नाही- थांब – हं-

(उमेश टेप चालू करतो. आनंद युवराजाचा पवित्रा घेऊन उभा राहतो. तेवढ्यात काही लक्षात येते. तसाच मागे जाऊन एक चादर काढतो, डोक्याला गुंडाळतो आणि फुलदाणीतील फूल हातात घेतो. टेप चालूच असते. नंतर:)

आनंद: (नाटकी स्वरात ) बाबूमोशाय, बाबूमोशाय, – उद्या मी नसेन, पण आज आहे आणि आज इतका आहे अब्बाहुजूर, की उद्या मी असेन की नसेन याची मला चिंता वाटत नाही. उद्या येणार्‍या पाहुण्याच्या फिकिरीत माझी जिंदगी आज मी जाळून टाकणार नाही. मी शेवटच्या श्वासापर्यंत जगेन जहापनाह आणि असा जगेन की माझं जगणं तुम्हाला क्षणाक्षणाला जाणवत राहील. आषाढातल्या मुसळधार पावसासारखं. मरणावर मात करण्याचा हाच रास्ता आहे, हुजूर, ते येईपर्यंत जगत राहणं. मी जीवंत आहे तोपर्यंत तुम्हीच काय, जगातली कोणतीही सत्ता मला मारू शकत नाही. हा: हा: हा:!

(आनंद उमेशला मिठी मारतो. दोघेही गळ्यात गळा घालून खळखळून हसतात.)

वि. वा.शिरवाडकर यांच्या आनंद नाटकातील  एक उतारा

– स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच-सिनेमा ☆ दर्शकों को हंसा कर खुशी मिलती है पर सुकून संगीत में  : सुगंधा मिश्रा ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

 ☆ रंगमंच-सिनेमा ☆ दर्शकों को हंसा कर खुशी मिलती है पर सुकून संगीत में  : सुगंधा मिश्रा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

कॉमेडी कर दर्शकों को हंसा कर खुशी मिलती है लेकिन खुद को सुकून संगीत में मिलता है। यह कहना है कपिल शर्मा शो, कॉमेडी सर्कस, कॉमेडी क्लासिक, लॉफ्टर चैंपियन और लॉफ्टर के फटके आदि अनेक कॉमेडी शोज में हंसाने वाली सुगंधा मिश्रा का।

सुगंधा मिश्रा मूल रूप से जालंधर पंजाब से हैं और जालंधर व हिसार दूरदर्शन केंद्रों के निदेशक रह चुके संतोष मिश्रा की बेटी हैं। सुगंधा ने बताया कि जब पापा हिसार दूरदर्शन के निदेशक थे तब वह हिसार भी कुछ दिनों के लिए आई थीं। जालंधर के एपी जे कॉलेज से एम ए गायन किया। सुगंधा का परिवार संगीतमय परिवार है और चौथी पीढ़ी है जो इंदौर घराने से जुड़ी हुई है। जालंधर में बिग एफ एम में रेडियो जॉकी का काम भी किया कुछ समय।

-किससे प्रेरणा मिली संगीत में आने की?

-वैसे तो पूरा परिवार ही संगीत से जुड़ा हुआ है लेकिन चौथी कक्षा में थी जब दादा शंकरलाल मिश्रा जी ने सिखाना शुरू कर दिया था।

-कॉलेज में क्या योगदान रहा?

-युवा समारोहों में राष्ट्रीय स्तर तक पहुंची और पुरस्कार प्राप्त किये। कपिल शर्मा और भारती भी गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी की टीम में होते थे।

-और क्या क्या किया मंच पर?

-थियेटर, मिमिक्री। एक बार में पचास पचास आवाजें निकाल लेती थी। शास्त्रीय, पाश्चात्य गायन और सबमें पुरस्कार।

-फिर कॉमेडी में कैसे?

-सन् 2009 में युवा समारोह की वजह से ही अवसर मिला। ऑफर आया जब प्रतिभा खोज के लिए बुलाया मुम्बई से। लॉफ्टर चैलेंज के लिए। कहा कि पसंद न आए तो एक एपीसोड के बाद निकल जाना।

-फिर क्या रहा?

-आपके सामने है मेरी यात्रा। वहां मैंने म्यूजिकल कॉमेडी बनाई बिना किसी स्क्रिप्ट के। ऐसे मैं सेमीफाइनल तक पहुंच गयी। शत्रुघ्न सिन्हा जी आए थे। इस तरह कॉमेडी में मेरी पहचान बन गयी। वैसे सा रे ग म प में भी गयी और सेकेंड रनर अप रही। वैसे भी यदि पंजाब में अगर रहती तो एक संगीत प्राध्यापिका ही बन कर रह जाती। वह मेरी मंजिल नहीं थी।

-गायन का मौका नहीं मिला?

-दो साल बहुत संघर्ष किया लेकिन एक दो मूवीज में मौका मिला भी तो गाने हिट नहीं हुए।

– और किन किन कॉमेडी शोज में आईं?

-कपिल शर्मा के शो में लगभग डेढ़ साल। कॉमेडी सर्कस, कॉमेडी क्लासिज, लॉफ्टर चैंपियन, लॉफ्टर के तड़के आदि। फिर तो कॉमेडी मे गाड़ी चल निकली। मुम्बई में ही ठिकाना हो गया और विदेशों में भी लाइव शोज मिलने लगे। मम्मी पापा भी साथ देते रहे।

-संगीत की दुनिया से कॉमेडी में आ जाने से कैसा लगा?

-लक्ष्य तो आज भी संगीत और गायन ही है। एक म्यूजिक एप खोलना चाहती हूं। दर्शक जब मेरी कॉमेडी पर हंसते हैं तो खुशी होती है। हो सकता है यह कला मुझमें छिपी हो जिसे मुम्बई ने पहचान लिया। पर सुकून संगीत में ही मिलता है।

-कौन पसंदीदा गायिका?

-लता जी तो हैं ही। उनके अंदाज को फॉलो करके दिखाया। ऑल टाइम फेवरिट किशोर दा, आशा भौंसले। वे गज़ल भी उतनी ही खूबसूरती से गाती हैं।

– कॉमेडी मे कौन पसंद?

-श्रीदेवी। उतनी ही बढ़िया कॉमेडी करती थी जितना भावपूर्ण अभिनय।

-पुरस्कार?

-युवा समारोहों में राष्ट्रीय पुरस्कार तक। हरबल्लभ संगीत सम्मेलन में गाना भी किसी पुरस्कार से कम नहीं। पंडित रवि शंकर जी से जूनियर आर्टिस्ट पुरस्कार। प्राचीन कला केंद्र और रेडियो मिर्ची से भी।

-अपने आप को क्या कहना पसंद करोगी -गायिका या कमेडियन?

-एक एंटरटेनर। फुल एंटरटेनर। जो संगीत, अभिनय, गायन और कॉमेडी सब कर सकती है और कर रही है।

हमारी शुभकामनाएं सुगंधा मिश्रा को।

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 21 – शख़्सियत: गुरुदत्त…6 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आजकल आप  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर आपने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…6।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 21 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…6 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

फ़िल्म कागज़ के फूल के बाद गुरु दत्त ने यह फ़ैसला लिया था कि अब वह कभी भी कोई भी फिल्म का निर्देशन नहीं करेंगे और यही वजह थी कि साहिब बीबी और ग़ुलाम का निर्देशन उनके लेखक दोस्त अबरार अलवी ने किया था।

गुरु दत्त ने पहले इस फ़िल्म को निर्देशित करने के लिए सत्येन बोस और फिर नितिन बोस से बात की। लेकिन जवाब न मिलने पर यह फ़िल्म अबरार अलवी को निर्देशित करने के लिए दे दी गई। गुरु दत्त चाहते थे कि भूतनाथ का किरदार शशि कपूर निभायें लेकिन समय न होने के कारण शशि कपूर ने मना कर दिया और गुरु दत्त को ही यह किरदार निभाना पड़ा। वहीदा रहमान छोटी बहू का रोल चाहती थीं लेकिन गुरु दत्त ने उनकी कम उम्र को देखते हुये मना कर दिया। फिर वहीदा ने अबरार अलवी से कह कर अपने लिए इस फ़िल्म में रोल लिखवाया और फ़िल्म का हिस्सा बनीं।

फ़िल्म वर्तमान से शुरु होती है। कई वर्ष बीत चुके होते हैं और अब अधेड़ उम्र का अतुल्य चक्रवर्ती उर्फ़ भूतनाथ (गुरु दत्त), जो कि एक वास्तुकार है, अपने कर्मचारियों के साथ एक हवेली के खण्डरों को गिराकर एक नयी इमारत का निर्माण करने जा रहा है। उन खण्डरों को देखकर उसे पुराने दिनों की याद आ जाती है।

फ़िल्म फ़्लेश बैक में चली जाती है और भूतनाथ गांव से कोलकाता शहर नौकरी की तलाश में अपने मुँह बोले बहनोई के यहाँ आता है जो इसी हवेली के मुलाज़िमों की रिहाइशगाह में रहता है। यह हवेली शहर के बड़े ज़मीनदारों में से एक, चौधरी ख़ानदान की है जो तीन भाई थे-बड़े बाबू, मंझले बाबू (सप्रू) और छोटे बाबू (रहमान)। फ़िल्म में पहले से ही बड़े बाबू का इन्तक़ाल हुआ दिखाया गया है। भूतनाथ को मोहिनी सिंदूर बनाने वाले कारख़ाने में नौकरी मिल जाती है जिसके मालिक़ सुबिनय बाबू (नज़ीर हुसैन) हैं, जो कि एक ब्रह्म समाजी हैं और उनकी एक बेटी है जबा (वहीदा रहमान)। रात को जब भूतनाथ हवेली में चल रहे क्रियाकलापों को देखता है तो अचंभे में पड़ जाता है। हर रात छोटे बाबू बग्घी में बैठकर तवायफ़ के कोठे की ओर निकल पड़ते हैं। वह छिपकर हवेली में ही चल रही मंझले बाबू की महफ़िल का भी आनन्द लेता है।

भूतनाथ कारख़ाने के शीघ्र छपने वाले विज्ञापन को ठीक कराने के लिए सुबिनय बाबू के पास जाता है लेकिन जबा वहाँ होती है जो भूतनाथ को विज्ञापन पढ़ने को कहती है। उस विज्ञापन में ऐसी चमत्कारी बातें लिखी होती हैं कि यदि पत्नी या प्रेमिका उस सिंदूर को धारण कर अपने पति या प्रेमी के सामने पड़ती है तो पति अथवा प्रेमी उस पर मोहित हो जायेगा। उस रात छोटे बाबू का नौकर बंसी (धुमाल) भूतनाथ के पास आता है और कहता है कि छोटी बहू (मीना कुमारी) उसे बुला रही है। दोनों छिपकर छोटी बहू के कमरे में जाते हैं और छोटी बहू भूतनाथ को सिंदूर की डिबिया थमाकर कहती है कि इसमें मोहिनी सिंदूर भर के लाये ताकि वह अपने बेवफ़ा पति को अपने वश में कर सके। भूतनाथ छोटी बहू की ख़ूबसूरती और संताप से मंत्रमुग्ध हो जाता है और न चाहते हुये भी उसके राज़ों का भागीदार हो जाता है। भूतनाथ अगले दिन मोहिनी सिंदूर की सच्चाई सुबिनय बाबू से सुनना चाहता है लेकिन सुबिनय बाबू इस बात को टाल जाते हैं। फिर भी वह छोटी बहू के संताप से इतना व्याकुल हो जाता है कि वह उस सिंदूर को छोटी बहू के पास ले जाता है। इसी बीच भूतनाथ का मुँह बोला बहनोई एक स्वतंत्रता सेनानी निकलता है जो बीच बाज़ार अंग्रेज़ पुलिस पर बम का हमला कर देता है और उसके बाद चली गोली-बारी में भूतनाथ की टांग ज़ख़्मी हो जाती है। जबा भूतनाथ का उपचार करती है। चोट ठीक हो जाने के बाद भूतनाथ एक अच्छे वास्तुकार का सहयोगी बन जाता है और कुछ समय के लिए अपने काम में इतना तल्लीन हो जाता है कि वह न ही जबा और न ही छोटी बहू की ख़बर लेता है।

भूतनाथ द्वारा छोटी बहू को दिए गए सिंदूर का असर तो नहीं होता है अलबत्ता छोटे बाबू छोटी बहू से कहते हैं कि यदि वह नाचने वालों की तरह उनके साथ शराब पीकर सारी रात रंगरलियाँ मनाये तो वह घर में रुकने को तैयार हैं। छोटी बहू यह चुनौती भी स्वीकार कर लेती है और अपने पति को घर में रखने के लिए शराब पीना और तवायफ़ों के जैसा बर्ताव भी शुरु कर देती है। तरक़ीब कुछ दिनों के लिए तो कामयाब हो जाती है और छोटे बाबू छोटी बहू के ही साथ वक़्त बिताने भी लगते हैं। लेकिन ऐयाशी के शिकार छोटे बाबू एक दिन अपनी प्रिय तवायफ़ के कोठे में पहुँचते हैं तो पाते हैं कि उनका दुश्मन छेनी दत्त उसके रास में डूबा है। छेनी दत्त और उसके साथी छोटे बाबू को लहु-लुहान कर देते हैं और वह अपंग हो जाते हैं। जब कुछ समय बाद भूतनाथ वापस आता है तो पाता है कि छोटी बहू को तो शराब की लत लग गयी है और छोटे बाबू अपंग पड़े हैं। वह जब जबा के पास जाता है तो पता चलता है कि अभी-अभी सुबिनय बाबू का देहान्त हो गया है और जबा म्लेछ न होकर एक सम्भ्रांत परिवार की लड़की है और सुबिनय बाबू जबा को गांव से चुराकर लाये थे लेकिन एक साल की उम्र में ही उसका उसी गांव के अतुल्य चक्रवर्ती (जो कि भूतनाथ स्वयं है) से विवाह कर दिया गया था।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 – शख़्सियत: गुरुदत्त…5 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…5।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 20 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…5 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

लखनऊ शहर में इस्लामिक संस्कृति पनपी है। इस शहर में रहने वाले दो सबसे अच्छे दोस्तों को जमीला नाम की महिला से प्यार हो जाता है, असलम (गुरुदत्त) और नवाब (रहमान) इस प्रेम त्रिकोण में जमीला (वहीदा रहमान) के साथ दो दोस्त जुड़ जाते हैं। गुरुदत्त फिल्म का एक अभिन्न हिस्सा जॉनी वॉकर हास्य भूमिका में हैं जबकि फरीदा मिर्जा मसरदिक की भूमिका में है।

गुरुदत्त के पहले की फ़िल्मों के संगीतकार, एसडी बर्मन ने उन्हें कागज़ के फूल (1959) नहीं बनाने की चेतावनी दी थी, जिसकी कहानी उनके खुद के जीवन से मिलती जुलती थी। जब गुरुदत्त ने फिल्म बनाने पर जोर दिया, तो एसडी बर्मन ने कहा कि गुरुदत्त के साथ उनकी आखिरी फिल्म होगी। इसलिए, संगीतकार रवि को इस फिल्म के संगीत की पेशकश की गई थी और समीक्षकों द्वारा प्रशंसित किया गया था, और उनके सभी पसंदीदा पसंदीदा शकील बदायुनी ने गीत लिखे थे। यह गुरुदत्त की एक रचनात्मक पसंद थी, जिसका शीर्षक रंग में था जबकि बाकी फिल्म काले और सफेद रंग में थी।

सर्वश्रेष्ठ पुरुष पार्श्वगायक का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड – मोहम्मद रफ़ी (1961) – “चौदहवीं का चाँद” (1960) के लिए

सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए फिल्मफेयर अवार्ड – शकील बदायुनी (1961) – “चौदहवीं का चाँद” (1960) के लिए

सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए फिल्मफेयर अवार्ड – बीरेन नाग

साहिब बीबी और ग़ुलाम गुरु दत्त द्वारा निर्मित और अबरार अलवी द्वारा निर्देशित १९६२ की भारतीय हिन्दी फ़िल्म है। यह बिमल मित्रा द्वारा लिखी गई एक बंगाली उपन्यास, शाहेब बीबी गोलाम पर आधारित है और ब्रिटिश राज के दौरान १९वीं शताब्दी के अंत तथा २०वीं शताब्दी की शुरुआत में बंगाल में ज़मींदारी और सामंतवाद के दुखद पतन की झलक है। फ़िल्म एक कुलीन (साहिब) की एक सुंदर, अकेली पत्नी (बीबी) और एक कम आय अंशकालिक दास (ग़ुलाम) के बीच एक आदर्शवादी दोस्ती को दर्शाने की कोशिश करती है। फ़िल्म का संगीत हेमंत कुमार और गीत शकील बदायूँनी ने दिए हैं। फ़िल्म के मुख्य कलाकार गुरु दत्त, मीना कुमारी, रहमान, वहीदा रहमान और नज़ीर हुसैन थे।

इस फ़िल्म को कुल चार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से नवाज़ा गया था जिनमें से एक फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार भी था।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 – शख़्सियत: गुरुदत्त…4 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…4।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 19 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…4 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

भाग्य भी गुरुदत्त की 1954 की ब्लॉकबस्टर “आर पार” पर मुस्कुराया। इसके बाद 1955 की हिट, मिस्टर एंड मिसेज ’55, उसके बाद सी आई डी, और 1957 में “प्यासा” – दुनिया से खारिज एक कवि की कहानी, जो अपनी मृत्यु के बाद ही सफलता प्राप्त करती है। दत्त ने इन पांच फिल्मों में से तीन में मुख्य भूमिका निभाई।

देवानंद से मित्रवत् करार के मुताबिक़ गुरुदत्त ने देवानंद को हीरो लेकर सी आई डी बनाई जो बहुत कामयाब फ़िल्म सिद्ध हुई। C.I.D. राज खोसला द्वारा निर्देशित और गुरुदत्त द्वारा निर्मित 1956 की अपराध थ्रिलर है। इसमें देवानंद, शकीला, जॉनी वॉकर, के एन सिंह और वहीदा रहमान जैसे सितारे हैं। फिल्म में देव आनंद एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे हैं जो एक हत्या के मामले की जांच कर रहा है। संगीत ओ पी नैय्यर का है और गीत मजरूह सुल्तानपुरी और जाँ निसार अख्तर के हैं। यह वहीदा रहमान की पहली फिल्म थी, और भविष्य के निर्देशक प्रमोद चक्रवर्ती और भप्पी सोनी सहायक निर्देशक के रूप में काम करते थे। गुरुदत्त ने वहीदा रहमान को एक तेलुगु फिल्म में देखा था और प्यासा में लेने के पहले सी.आई.डी. में उसे प्यासा के लिए तैयार करने के लिए क़ाम करवाया।

उनकी 1959 में “कागज़ के फूल” एक गहन निराशा का प्रतिबिम्ब थी। उन्होंने इस फिल्म में बहुत प्यार, पैसा और ऊर्जा का निवेश किया था, जो एक प्रसिद्ध निर्देशक की एक आत्म-कहानी थी, जो एक अभिनेत्री के साथ प्यार में पड़ जाता है। कागज़ के फूल बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। कागज़ के फूल 1959 में बनी गुरुदत्त द्वारा निर्मित और निर्देशित हिंदी फ़िल्म है, जिसने फ़िल्म में मुख्य भूमिका भी निभाई। यह फिल्म सिनेमास्कोप में पहली भारतीय फिल्म मानी गई और निर्देशक के रूप में दत्त की अंतिम फिल्म थी। 1980 के दशक में इसे विश्व सिनेमा की क्लासिक माना जाने लगा। फिल्म का संगीत एस डी बर्मन द्वारा रचा गया था, गीत कैफ़ी आज़मी और शैलेन्द्र द्वारा लिखे गए थे, कई लोग इस फिल्म को अपने समय से बहुत आगे मानते हैं।

फिल्म का संगीत एस डी बर्मन ने तैयार किया था। एस डी बर्मन ने उन्हें “कागज़ के फूल” न बनाने की चेतावनी दी थी, जो उनके खुद के जीवन से मिलता जुलता था। जब गुरुदत्त ने फिल्म बनाने पर जोर दिया, एस.डी. बर्मन ने कहा कि गुरु दत्त के साथ उनकी आखिरी फिल्म होगी।

फिल्मफेयर बेस्ट सिनेमैटोग्राफर अवार्ड – वी.के. मूर्ति

फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन पुरस्कार – एम आर अचरेकर

“चौदहवीं का चाँद” मोहम्मद सादिक द्वारा निर्देशित अत्यंत सफल फिल्म है। यह फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर 1960 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक थी। गुरुदत्त, रहमान और वहीदा रहमान के बीच एक प्रेम त्रिकोण पर केंद्रित इस फिल्म में रवि का संगीत शामिल हैं। फरीदा जलाल ने इस फिल्म में पहली बार अतिथि भूमिका निभाई। कागज़ के फूल के विनाशकारी बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन के बाद गुरुदत्त के लिए यह एक व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म थी, जिसने गुरुदत्त के प्रोडक्शन स्टूडियो को खंडहरों में तब्दील होने से बचा लिया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 – शख़्सियत: गुरुदत्त…3 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी चारों पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…3।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 18 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…3 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

गुरुदत्त को प्रभात फ़िल्म कम्पनी ने बतौर एक कोरियोग्राफर के रूप में काम पर रखा था लेकिन उन पर जल्द ही एक अभिनेता के रूप में काम करने का दवाव डाला गया। केवल यही नहीं, एक सहायक निर्देशक के रूप में भी उनसे काम लिया गया। प्रभात में काम करते हुए उन्होंने देव आनन्द और रहमान से अपने सम्बन्ध बना लिये जो दोनों ही आगे चलकर अच्छे सितारों के रूप में मशहूर हुए। उन दोनों की दोस्ती ने गुरुदत्त को फ़िल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने में काफी मदद की। गुरुदत्त और देवानंद ने आपस में तय किया था कि जब देवानंद फ़िल्म बनाएँगे तब गुरुदत्त उस फ़िल्म का निर्देशन करेंगे। जब गुरुदत्त फ़िल्म बनाएँगे तब देवानंद को हीरो की भूमिका में अवसर देंगे।

प्रभात के 1947 में विफल हो जाने के बाद गुरुदत्त बम्बई आ गये। वहाँ उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म गर्ल्स स्कूल में और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म संग्राम में साथ काम किया। वायदा मुताबिक़ बम्बई में उन्हें देव आनन्द की पहली फ़िल्म के लिये निर्देशक के रूप में काम करने की पेशकश की और देव आनन्द ने उन्हें अपनी नई कम्पनी नवकेतन में एक निर्देशक के रूप में अवसर दिया था। इस प्रकार गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी नवकेतन के बैनर तले बनी “बाज़ी” जो 1951 में प्रदर्शित हुई। फ़िल्म की कहानी और पटकथा बलराज साहनी ने लिखी थी। फिल्म में देवानंद  के साथ गीता बाली और कल्पना कार्तिक हैं। यह एक क्राइम थ्रिलर है और इसमें एस.डी. बर्मन बहुत लोकप्रिय संगीत था। फिल्म नैतिक रूप से अस्पष्ट नायक के साथ फोर्टिस की फिल्म नॉयर हॉलीवुड के लिए एक श्रद्धांजलि है, जो जलपरी और छाया प्रकाश  के प्रयोग का कलात्मक नमूना मानी जाती है। यह बॉक्स ऑफिस पर बहुत सफल रही थी।

बाजी एक तात्कालिक सफलता थी। दत्त ने इसके बाद जाल और बाज़ के साथ काम किया। न तो फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन किया, बल्कि वे गुरु दत्त की टीम को साथ लाए जिसने बाद की फिल्मों में इतना शानदार प्रदर्शन किया। उन्होंने खोज की, और सलाह दी, जॉनी वॉकर (कॉमेडियन), वी.के. मूर्ति (छायाकार), और अबरार अल्वी (लेखक-निर्देशक), अन्य लोगों के बीच। उन्हें हिंदी सिनेमा में वहीदा रहमान को पेश करने का श्रेय भी दिया जाता है। बाज़ उस दौर में उल्लेखनीय था, जिसने निर्देशन और अभिनय दोनों किया, मुख्य चरित्र के लिए उपयुक्त अभिनेता नहीं मिला।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 – शख़्सियत: गुरुदत्त…2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है आलेख  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : शख़्सियत: गुरुदत्त…2।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 17 ☆ 

☆ शख़्सियत: गुरुदत्त…2 ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

जब गुरु दत्त 16 वर्ष के थे उन्होंने 1941 में पूरे पाँच साल के लिये 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जाकर नृत्य, नाटक व संगीत की तालीम लेनी शुरू। 1944 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेण्टर बन्द हो गया गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आये। यद्यपि आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे स्कूल जाकर अध्ययन तो न कर सके परन्तु रवि शंकर के अग्रज उदय शंकर की संगत में रहकर कला व संगीत के कई गुण अवश्य सीख लिये। यही गुण आगे चलकर कलात्मक फ़िल्मों के निर्माण में उनके लिये सहायक सिद्ध हुए।

गुरुदत्त ने पहले कुछ समय कलकत्ता जाकर लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही वे वहाँ से इस्तीफा देकर 1944 में अपने माता पिता के पास बम्बई लौट आये। उनके चाचा ने उन्हें तीन साल के अनुबन्ध के तहत प्रभात फ़िल्म कम्पनी पूना में काम करने भेज दिया। वहीं सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता व्ही शान्ताराम ने कला मन्दिर के नाम से अपना स्टूडियो खोल रखा था। यहीं रहते हुए गुरु दत्त की मुलाकात फ़िल्म अभिनेता रहमान और देव आनन्द से हुई जो आगे जाकर उनके बहुत अच्छे मित्र बन गये।

उन्हें पूना में सबसे पहले 1944 में चाँद नामक फ़िल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका मिली। 1945 में अभिनय के साथ ही फ़िल्म निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखते थे। 1946 में उन्होंने एक अन्य सहायक निर्देशक पी० एल० संतोषी की फ़िल्म “हम एक हैं” के लिये नृत्य निर्देशन का काम किया। यह अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया। उसके बाद उनकी माँ ने बाबूराव पेंटर जो प्रभात फ़िल्म कम्पनी व स्टूडियो में एक स्वतन्त्र सहायक के रूप में से नौकरी दिलवा दी। वह नौकरी भी छूट गयी तो लगभग दस महीने तक गुरुदत्त बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते रहे। इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की क्षमता विकसित की और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया नामक एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिये लघु कथाएँ लिखने लगे।

उनके संघर्ष का यही वह समय था जब उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में प्यासा फ़िल्म की पटकथा लिखी। मूल रूप से यह पटकथा कश्मकश के नाम से लिखी गयी थी जिसका हिन्दी में अर्थ संघर्ष होता है। बाद में इसी पटकथा को उन्होंने प्यासा के नाम में बदल दिया। यह पटकथा उन्होंने माटुंगा में अपने घर पर रहते हुए लिखी थी। यही वह समय था जब गुरु दत्त ने दो बार शादी भी की; पहली बार विजया नाम की एक लड़की से जिसे वे पूना से लाये थे वह चली गयी तो दूसरी बार अपने माता पिता के कहने पर अपने ही रिश्ते की एक भानजी सुवर्णा से शादी की, जो हैदराबाद की रहने वाली थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 – गुरुदत्त ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : गुरुदत्त पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 16 ☆ 

☆ गुरुदत्त  ☆

guru dutt-साठीचा प्रतिमा निकाल

गुरुदत्त (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बैंगलौर

निधन: 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई

हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक, निर्माता, कोरियोग्राफर और अभिनेता थे। उन्होंने 1950 और 1960 दशक में कई उत्कृष्ट फ़िल्में बनाईं जैसे प्यासा, कागज़ के फूल, साहिब बीबी और ग़ुलाम और चौदहवीं का चाँद। प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका के 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल किया गया है और साइट एन्ड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण द्वारा, दत्त खुद भी सबसे बड़े फ़िल्म निर्देशकों की सूचि में शामिल हैं। उन्हें कभी कभी “भारत का ऑर्सन वेल्स” (Orson Welles)  भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के “सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं” के सूची में भी शामिल किया गया। गुरुदत्त 1950 दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी फ़िल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में प्रदर्शन पर अब भी सराहा जाता है।

गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था। उनके माता पिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता शुरुआत के दिनों एक विद्यालय के हेडमास्टर थे जो बाद में एक बैंक के मुलाजिम हो गये। माँ एक गृहिणीं थीं जो बाद में एक स्कूल में अध्यापिका बन गयीं। गुरुदत्त जब पैदा हुए उनकी माँ की आयु सोलह वर्ष थी। वसन्ती माँ घर पर प्राइवेट ट्यूशन के अलावा लघुकथाएँ लिखतीं थीं और बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं।

गुरु दत्त ने अपने बचपन के प्रारम्भिक दिन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजारे जिसका उन पर बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। उनका बचपन वित्तीय कठिनाइयों और अपने माता पिता के तनावपूर्ण रिश्ते से प्रभावित था। उन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरुदत्त रख लिया।

गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और चौदह वर्षीय गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते। यहीं से उनके मन में कला के प्रति संस्कार जागृत हुए।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

 

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