हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़ सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा प्रेषित  “मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा। यह जानते हुए भी कि कुनबे क्यों बिखर रहे हैं, फिर भी हम कुनबों को जोड़ने के स्वप्न देखते हैं। यही सकारात्मकता है। )

☆  दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆ 

 गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।

फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।

बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।

बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।

ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।

घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।

बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।

बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।

ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब! कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।

घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।

लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। (राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।

दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।

दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।

सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।

बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।

घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।

बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!

पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।

बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।

अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। (सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)

हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।

आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।

आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।

बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। (अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं।)

हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।

बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। (धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)

बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।

© सुश्री ऋता सिंह

27/4/1998

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुंटे साहब ।)

?अभी अभी # 555 ⇒ कुंटे साहब ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यूं तो वे हमारे फैमिली डॉक्टर थे, फिर भी हम सभी उन्हें कुंटे साहब ही कहते थे। मोहल्ला क्लीनिक की धारणा हमारे यहां बहुत पुरानी है। हर मोहल्ले में आपको एक दो किराने की दुकानें, दूध की दुकान, और साइकिल की दुकान के साथ एक छोटा मोटा डॉक्टर का दवाखाना भी नजर आ ही जाता था।

आज भले ही इलाज बहुत महंगा हो गया हो, इस शहर में डॉ अकबर अली जैसे चिकित्सक केवल दो रुपए में मरीजों को देखते थे।

डॉ मुखर्जी की ख्याति तो पूरे प्रदेश में थी। पांच और दस रुपए वाले डॉक्टर बहुत महंगे डॉक्टर माने जाते थे।।  

कुंटे साहब का दवाखाना हमारे घर से एक डेढ़ किलोमीटर दूर, सुतार गली में था, लेकिन गली मोहल्लों की घनी बस्ती के बीच इतना दूरी आम तौर पर पैदल ही तय की जाती थी। पहले मेरी मां मुझे उंगली पकड़कर डॉ कुंटे के पास लाती थी, और बाद में मैं मां को उंगली पकड़कर दवाखाने लाता था।

तब हम डॉक्टरों को डिग्री से नहीं आंकते थे, उनके इलाज और स्वभाव पर ही हमारा ध्यान केंद्रित होता था। डॉक्टर कुंटे के सर पर मैने कभी बाल नहीं देखे, लेकिन उनके शांत और गंभीर चेहरे पर मूंछ जरूर थी। वे बहुत कम बोलते थे।।  

उनका एक कंपाउंडर भी था, जो लकड़ी के काउंटर के पीछे से पर्ची के अनुसार दवाइयां दिया करता था। दुबले पतले, चिड़चिड़े, स्वभाव के चश्माधारी इन सज्जन का नाम जोशी जी था। दुबले पतले लोग चिड़चिड़े और मोटे लोग हंसमुख क्यों होते हैं, यह पहेली मैं आज तक सुलझा नहीं पाया।

हर डॉक्टर गोलियों के साथ पीने की दवा भी देता था, इसलिए खाली शीशी साथ में लानी पड़ती थी। आजकल तो पीने की दवा भी बाजार से लेनी पड़ती है। गोलियों की भी पुड़िया बनाई जाती थी, आज भी कई चिकित्सक पॉलीथिन का प्रयोग कम ही करते हैं।।  

पैसे अक्सर मां ही दिया करती थी, फिर भी कुंटे साहब का इलाज इतना महंगा नहीं था। समय के साथ हम बड़े होते चले गए, और कुंटे साहब बूढ़े।

क्लीनिक के ऊपर ही उनका निवास था। उनका एक पुत्र मेरा कॉलेज का सहपाठी था। उनसे कुंटे साहब के हालचाल मिलते रहते थे।।  

एक बार मेरे मित्र के आग्रह पर उनसे मिलने उनके घर गया था। उनके घुटने जवाब दे चुके थे। सीढियां चढ़ना उतरना उनके लिए संभव नहीं था। तब तक घुटने का प्रत्यारोपण इतना आम नहीं हुआ था, केवल मालिश और व्यायाम से ही काम चल रहा था।

उनका शरीर कसरती था।

जब तक आप कसरत करते रहते हैं, शरीर काम करता रहता है। तब देसी व्यायाम ही कसरत कहलाता था। दंड बैठक लगा ली, और शरीर की मालिश कर ली। योगासन में स्ट्रेचिंग एक्सरसाइजे़स होती हैं, जिससे शरीर लचीला बना रहता है। इस उम्र में कुंटे साहब को सलाह देना मुझे उचित नहीं लगा।।  

घर जाकर मां को भी कुंटे साहब का हाल बताया। मां को भी अफसोस हुआ। मां ने बताया कुंटे साहब हमारे परिवार के लिए डॉक्टर नहीं भगवान थे। एक दर्द का रिश्ता ही तो मरीज और डॉक्टर को करीब लाता है। तब इस पेशे में पैसा और लालच प्रवेश नहीं कर पाया था।

कुंटे साहब को मेरी मां की तरह कितने मरीजों की दुआ लगी होगी। आज अनायास ही मां की स्मृति के साथ कुंटे साहब का भी स्मरण हो आया। उनकी तस्वीर आज सिर्फ मेरी यादों में है, केवल शब्द चित्र ही पर्याप्त है उनके लिए तो।।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Memoir ☆ The Citizenship journey: A Memoir ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ – The Citizenship journey: A Memoir – ☆ Mr. Jagat Singh Bisht ☆

Life has a way of presenting opportunities that shape not just our careers but also our inner selves. My journey with Citizen SBI was one such transformative experience. It began with my selection as faculty for the State Bank Academy, Gurgaon—a position I never assumed. Instead, I was posted as the head of the learning center at Indore, a role that coincided with my appointment as the intervention leader for the Citizen-SBI program.

Citizen SBI was more than a training program. Inspired by Swami Ranganathananda of the Ramakrishna Mission, it aimed to cultivate ‘enlightened citizenship.’ This concept transcended political citizenship—focused on rights and freedoms—and emphasized a deeper engagement with collective welfare and individual fulfillment. The program was the brainchild of our chairman, O.P. Bhatt, who envisioned its impact extending to 200,000 employees and, through them, to 140 million customers.

The foundation of this initiative was engagement—true, deep involvement in one’s work. As I immersed myself in its philosophy, I discovered the transformative power of meaningful contribution. No longer was work just a duty; it became a purpose-driven act of service. This shift in mindset was a spiritual awakening for me.

The journey began with workshops and pilots across locations, from Mumbai to Hyderabad and Gurgaon. I remember vividly my first interaction with V. Srinivas, the visionary CEO of Illumine Knowledge Resources. His conviction was palpable, though his ideas initially seemed abstract to many. Over time, through detailed workshops and apprenticeships, the abstract became tangible, and the facilitators, including myself, underwent a profound transformation.

The program’s influence extended beyond professional training. It created a rich network of facilitators, bonded by a shared purpose. The ‘facilitator gym’ sessions at the Bandra-Kurla Complex honed our skills and deepened our understanding of citizenship. These moments of camaraderie and collective learning were deeply fulfilling.

Back in Indore, I was tasked with implementing Citizen SBI in the State Bank of Indore. Initially, there was resistance—they did not yet see themselves as citizens of SBI. However, with the help of facilitators like Suresh Iyer, Harinaxi Sharma, and Arun Kalway, we gradually earned their trust. The program’s ethos resonated, bringing about a noticeable shift in their attitudes.

The essence of Citizen SBI was not about personal gain but about contributing positively to others. It wasn’t ‘swantah sukhai’—happiness for oneself—but a collective welfare-driven joy. This philosophy became my way of life, influencing not just my work but my personal ethos.

The program’s success was also a testament to the incredible people involved. Intervention leaders like Bijaya Dash, R. Natarajan, and Balachandra Bhat became cherished friends. Vasudha Sundararaman, our deputy general manager, coordinated the program with unmatched efficiency and warmth. Yashi Sinha, general manager, was an epitome of grace and wisdom. Above all, V. Srinivas, with his dedication to the cause, became a source of inspiration—a guru whose example I sought to follow in words and deeds.

As I reflect on this journey, I find myself deeply fulfilled. I have reaped not only the ‘outer fruits’ of professional growth and recognition but also the ‘inner fruits’ of spiritual evolution and the joy of contribution. My experiences as a behavioral science trainer and student of positive psychology further enriched this journey, grounding it in the principles of authentic happiness.

Citizen SBI was not merely a program; it was a movement, a way of life. It taught me that true citizenship is an internal transformation, a continuous journey of growth, contribution, and engagement. It is a journey I carry forward with pride and gratitude, knowing that it has shaped me into not just a professional but a better human being.

© Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Founder:  LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी ?

राजस्थान भारत का एक ऐसा ख़ूबसूरत राज्य है जहाँ आज भी असंख्य लोग अपनी- अपनी कलाओं से जुड़े हुए हैं। ये वे लोग हैं जो कई पुश्तों से वही कार्य करते हैं जो उनके पूर्वज करते आए थे। बस अंतर यदि कुछ है तो यह कि अब इन लोगों के कार्य और कलाओं को करने की विधि में आधुनिकता की छाप दिखाई देती है।

जयपुर राजस्थान का वह हिस्सा है जिसे गुलाबी शहर कहा जाता है। यहाँ दो हिस्से हैं – एक पुराना जयपुर और दूसरा नया जयपुर। पहाड़ों पर बने अपूर्व किले यात्रियों का आकर्षण केंद्र है। शहर के बीच एक जल महल है जिसे देखने लोग यहाँ आया करते हैं।

अब इसमें एक आलीशान रेस्तराँ भी बनाया गया है।

जयपुर शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर एक विशाल खुले मैदान पर एक छोटा – सा गाँव स्थापित किया गया है। वास्तव में यह कोई बसा -बसाया गाँव नहीं है। इस स्थान को राजस्थानी गाँव का कृत्रिम रूप देकर लोगों का मनोरंजन किया जाता है। इस स्थान को ‘चोखी ढाणी’ कहा जाता है इसका अर्थ है *सुंदर या अच्छा गाँव। *

इस सुंदर गाँव के प्रवेश द्वार पर यात्रियों का स्वागत माथे पर टीका लगाकर और “राम राम साईं” कहकर किया जाता है। स्वागत करने वाले राजस्थानी पोशाक में ही दिखाई देते हैं। इस गाँव के भीतर प्रवेश करने के लिए ₹300 का टिकट है। (आज शायद परिवर्तन आया होगा मगर जिस समय की मैं बात कर रही हूं 2007 तब इसकी कीमत ₹300 ही थी)

शाम को 7 से रात के 12 बजे तक यहाँ विभिन्न प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। गाँव के घर, मिट्टी से बनी दीवारे, दीवारों पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, चित्र, कुआँ, पनघट आदि सभी दृश्य यहाँ देखने को मिलेंगे। साथ ही राजस्थानी भोजन का विभिन्न जगहों पर आयोजन भी दिखाई देता है। छोटे -छोटे भोजनालय की फ़र्श जो गोबर मिट्टी से लिपी हुई होती है उस पर दरियाँ बिछाकर चौकियों पर थाली कटोरे सजाकर गरमागरम भोजन परोसा जाता है। यात्री जयपुर जाने पर इस स्थान का दर्शन अवश्य करते हैं।

मैं जब जयपुर पहुँची तो मुझसे भी कहा गया कि चोखी ढाणी का मैं निश्चित रूप से दर्शन करूँ। उस दिन शाम के समय निश्चित समय पर होटल में हमें चोखी ढाणी ले जाने के लिए गाड़ी आ गई और मैं होटल के अन्य यात्रियों के साथ चोखी ढाणी के लिए रवाना हुई। चोखी ढाणी में पहुँचते ही मुझे ऐसा लगा मानो राजस्थान के किसी फलते -फूलते गाँव में आ गई हूँ। चारों तरफ दीये जल रहे थे। चूल्हे पर भोजन पक रहा था। बाजरे की रोटी, बेसन के पकोड़े से बनी तरी वाली सब्ज़ी और दाल बाटी की खुशबू हवा में भरी थी।

सारा वातावरण आनंद से सराबोर था। कहीं कोई जादू दिखा रहा था तो कोई कठपुतली का नाच, तो कहीं कुछ पुरुष और स्त्री लोक गीत गा रहे थे, कहीं कुछ पुरुष ढोलक बजा रहे थे और मंच पर सजी-धजी युवा लड़कियाँ घड़े पर कई घड़े अपने सिर पर रखकर नृत्य दिखा रही थीं। नाचती हुई वे बड़े से परात के किनारों पर खड़ी होकर ढोल के धुनों पर नाच रही थीं। सारा दृश्य अद्भुत था और मन को न केवल प्रसन्न कर रहा था बल्कि यह सोचने के लिए भी विवश कर रहा था कि हमारे देश में कितनी अद्भुत कलाएँ आज भी जीवित हैं।

मैं अकेली ही इस गाँव के हर घर के आँगन में चल रहे विभिन्न कार्यक्रमों का आनंद ले रही थी। दो लाल पगड़ी वाले ज्योतिषी नज़र आए जिनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे थे और ये ज्योतिषी जी उन्हें उनके हाथ की रेखाएँ देखकर उनका भविष्य बता रहे थे। खुशगुबार माहौल था। कुछ औरतें काँच की डिज़ाइनदार चूड़ियाँ पहनकर खुश हो रही थीं। अपनी अपनी कलाइयाँ घुमाकर अपने साथियों को चूड़ियों की खनक सुना रही थीं। वहीं पर कुछ लोग लाख की चूड़ियाँ बना रहे थे। उस पर विभिन्न प्रकार की मोतियाँ जड़ रहे थे जो देखने में अद्भुत सुंदर थे। कुछ लोग राजस्थानी मोजड़ियाँ पहन-पहन कर अपने पैरों के माप की मुजड़ियाँ तलाश रहे थे। कुछ वृद्धा औरतें पास बैठी अन्य महिलाओं के हाथों में सुंदर मेहंदी के फूल और आकृतियाँ काढ़ रही थीं। इस गाँव में छोटे-बड़े सब व्यस्त थे। यात्री तो खुश थे ही गाँववासी भी प्रसन्न थे। कलाकारों को अपनी कला की प्रशंसा सुन और भी खुशी हो रही थी।

अचानक मेरा ध्यान एक सुरीली आवाज़ की ओर आकर्षित हुआ। यह आवाज़ इस भीड़ से हटकर और सब शोर से उठकर मेरे कानों में पड़ने लगी। मैं भीड़ से हटकर उस आवाज़ की दिशा की ओर चलने लगी। चोखी ढाणी के पूर्वी दिशा में एक कृत्रिम तालाब -सा बना हुआ था। उस पर एक छोटा- सा पुल बनाया गया था। उस पुल को पार कर मैं तालाब की दूसरी ओर पहुँची। एक बुज़ुर्ग फटी हुई दरी पर बैठे हुए थे और उनके साथ एक अट्ठारह- उन्नीस वर्षीय युवक बैठा था। वृद्ध के सामने बाजा रखा हुआ था और वे आकाश की ओर ताकते हुए बाजे पर उँगलियाँ फेरते हुए कबीर के दोहे गा रहे थे। उसके साथ मधुर आवाज़ में उसका बेटा साथ दे रहा था। दोनों की आवाज़ में एक अद्भुत मिठास थी और साथ ही गाने का अंदाज भी निराला था। ये पिता-पुत्र राजस्थान के किसी छोटे से कबीले के निवासी थे और सूफी संतों की वाणी गाया करते थे। चोखी ढाणी में इसी वर्ष पहली बार वे गीत गाने तथा लोगों का मनोरंजन करने आए थे। उनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे गीतों का आनंद ले रहे थे। कई विदेशी यात्री भी थे जो उनकी धुनों पर थिरक रहे थे। मैं रात के 12 बजे तक मंत्रमुग्ध होकर उनके गीत सुनती रही। मुझे भोजन की भी सुध न रही और मैं उस मीठी आवाज के जादू में खोई हुई उनके गाए लोकगीत और संतवाणियों को गुनगुनाती हुई अपने होटल में लौट आई।

उन दोनों की आवाज मेरे हृदय की गहराई को छू गई थी। उनका जब गाना समाप्त हुआ और भीड़ भी छँटने लगी तो मैं अपनी जिज्ञासावश उनके और समीप जा बैठी थी। उस लड़के ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शुद्ध भाषा में पूछा, “आंटी जी आपको हमारा गाना अच्छा तो लगा न!” मैं क्या कहती, मैं तो मंत्रमुग्ध ही हो गई थी। दोनों की आवाज की मैंने प्रशंसा की, दिल खोलकर युवा की खुली और ऊँची आवाज की विशेष प्रशंसा की तथा अपने दिल की गहराई से युवक को आशीर्वाद दिया।

बातचीत का सिलसिला जारी रहा तो युवक ने अपना नाम आफ़ताब बताया। उसके पिता वृद्ध थे तथा दृष्टिहीन भी थे। वह एक सूफ़ी गायक तथा अजमेर के निवासी थे। पिता का नाम अशफाक मियाँ था। अजमेर में रहकर उनकी रोज़ी-रोटी अब नहीं चलती थी इसलिए वे जयपुर आ गए थे और इसी साल चोखी ढाणी में अपने मधुर स्वर का जादू उन्होंने चलाना प्रारंभ कर दिया था।

आफ़ताब दिन में कॉलेज जाता और रात के समय चोखी ढाणी में गीत गाता। गाँव बनानेवाली संस्था की ओर से उन्हें महीने में कुछ बंधी हुई रकम मिल ही जाती और साथ ही गाना सुनने के बाद लोग भी खुश होकर कुछ न कुछ रकम पुरस्कार स्वरूप अवश्य देते। दोनों मिलाकर उनका गुज़ारा हो जाता।

बातें करते – करते पता चला कि उसके तीन बड़े भाई भी थे पर आज कोई भी जवित नहीं हैं। उसकी बूढ़ी अम्मा थीं जो पिता की देखभाल किया करती थी अब वह भी नहीं रहीं। अपने घर की बातें करते हुए और अपनी अम्मा का ज़िक्र करते ही उसकी आँखें छलक उठीं। मैं उसके पास ही बैठी थी तो सांत्वना देते हुए मैंने उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। दो मिनिट चुप रहने के बाद उसने स्वयं को संभाल ही लिया।

आफ़ताब का सप्ना था कि एक दिन वह महान गायक बनेगा। उसे गायकी की तालीम अपने पिता से ही मिली थी, वही उसके उस्ताद थे। कॉलेज से लौटकर नियमित रूप  तीन -चार घंटे वह रियाज़ भी किया करता था।

इस वर्ष मैं कुछ स्कूलों के शिक्षकों को ट्रेनिंग देने के लिए जयपुर आई थी। बड़ी उत्कट इच्छा थी कि उस बाप – बेटे की सुरीली आवाज और सूफी संगीत का आनंद एक और दिन लूँ। पर मैं वहाँ रुक न सकी दूसरे ही दिन मुझे अहमदाबाद के लिए रवाना होना था।

 युवक के हृदय की उच्च आकांक्षा को देखकर मेरा हृदय बाग – बाग हो उठा। मैं मन ही मन सोचने लगी कि क्या ईश्वर इसकी इच्छाओं को पूरी करेंगे ? उस इच्छा की पूर्ति के लिए वह हर दिन कड़ी मेहनत किया करता था।

कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। बात 2009 की है। मैं एक दिन अपने कमरे में कुछ लिख रही थी रात के कुछ 9:30 बजे होंगे अचानक मेरे कानों में आफ़ताब की वह परिचित मीठी आवाज सुनाई दी। पहले मैंने ध्यान से सुना तो अंदाज आया कि पड़ोस के घर में टीवी पर किसी कार्यक्रम में दिखाए जाने वाले गीत की वह आवाज़ थी। मैंने तुरंत टीवी लगाया, मुझे टीवी देखने में खास रुचि नहीं है परंतु आज उस आवाज को सुन मेरे मन ने मुझे सारे काम स्थगित करने पर विवश कर दिया। चैनलों की जानकारी नहीं जिस कारण टीवी के सारे चैनल ढूँढ़ने के लिए मजबूर कर दिया।

अब पता चला यह टीवी पर दिखाए जाने वाले एक कार्यक्रम का हिस्सा था। हाँ आफ़ताब ही तो था जो अब टीवी पर गीत गा रहा था! जयपुर के चोखी ढाणी की बात को गुज़रे दो वर्ष बीत चुके थे पर आफ़ताब की मधुर आवाज मेरे हृदय और मस्तिष्क पर छाई हुई थी। आफ़ताब की बात मैंने अपने परिवार वालों से भी की थी। उस दिन जब टीवी पर मैंने उसकी आवाज सुनी और उसे टीवी पर देखा तो मेरी बेटी ने कहा कि वह पिछले कुछ सप्ताहों से टीवी पर एक कार्यक्रम में गीत गाते हुए दिखाई दे रहा था। हिंदी सिनेमा के लिए पार्श्वगायकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी इस प्रतियोगिता में हजार युवक -युवतियों ने हिस्सा लिया था। अब कुछ चुनिंदा गायकों के बीच प्रतियोगिता चल रही थी।

मैं कभी भी टीवी नहीं देखती थी पर जब से आफ़ताब गीत गाते हुए दिखाई देने लगा मैं तबसे बड़े चाव से उस कार्यक्रम को देखने बैठ जाती। हमारे घर में सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे। बेटियाँ कहती मम्मा तो सठिया गई हर रोज 9:30 बजे ही टीवी के सामने बैठ जाती हैं। पर मैं बच्चों को यह समझाने में सफल न हो सकी कि उस बालक की आवाज़ में क्या तो मिठास थी, क्या दर्द था और आलापों की तानों में पागल कर देने की क्षमता! आफ़ताब की आँखों में एक प्रसिद्ध गायक बनने का जुनून मैंने देखा था वह मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती थी।

आखिर वह दिन आ ही गया जब आफ़ताब ही असंख्य लोगों का पसंदीदा प्रिय गायक बना। रिकॉर्डिंग कंपनी द्वारा उसे एक करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट मिला। एक सुंदर गाड़ी दी गई उसे और पचास लाख रुपये भी दिए गए।

कुछ दिनों तक हर पत्र-पत्रिकाओं में आफ़ताब की चर्चा, उसकी सफलता की कहानी, उसके जुनून की बातें, उसके आत्मविश्वास और मेहनत की मिसाल ही पढ़ने को मिलती रही। सुनने में आया कि उसने अपने पिता की आँखों का भी ऑपरेशन करवाया।

समय बीतता चला गया आफ़ताब की आवाज अब अक्सर सुनाई देती। कई नायकों के लिए वह सफल पार्श्वगायक सिद्ध हुआ। नए ज़माने का गायक ही नहीं, कई सफल एल्बम भी बना चुका। उसकी आवाज सदा ही मेरे कानों में गूँजती रही।

कुछ महीनों के बाद मैं अपनी एक सहेली को लेकर राजस्थान दर्शन के लिए गई। जयपुर में हम तीन-चार दिन रुकने वाले थे जिस दिन हम जयपुर पहुँचे उसी रात मेरी सहेली ने चोखी ढाणी जाने की बात की। मैंने उसे रास्ते में आफ़ताब की सफलता की कहानी सुनाई।

हम चोखी ढाणी पहुँचे। ठंड के दिन थे लोग राजस्थान की ठंडी का आनंद ले रहे थे। हम भी घूमने लगे। अचानक एक परिचित आवाज़ सुनकर मैं ठिठक गई। कदम अपने आप उस दिशा की ओर बढ़ चले। मैं अपनी सहेली का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई ले जाने लगी। मेरी गति देख वह हैरान हो गई ! हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पहली बार मैंन आफ़ताब का गीत सुना था।

मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। मेरी आँखों के सामने अशफाक मियाँ बैठे हुए थे। वह आज भी उतनी ही तल्लीनता और मिठास के साथ सूफी संतों की वाणी गा रहे थे। वही बाजा, वही जगह, वही व्यक्ति और वही फटी हुई दरी! पर आज वे अकेले थे। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी ! आफ़ताब जैसे प्रसिद्ध और धनाढ्य गायक के पिता को इस ठंडी में इस तरह गीत गाने की क्या ज़रूरत थी? मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी जब उनका गीत समाप्त हुआ तो मैं उनके पास पहुँची, हाथ जोड़कर मैंने उनसे पूछा, ” उस्ताद जी आज तो आफ़ताब का सपना पूरा हो गया है। वह जो चाहता था उसे मिल गया है। फिर आप इस बुढ़ापे में इस ठंडी में यहाँ क्यों कष्ट सहन कर रहे हैं?

अशफाक मियाँ ने एक बार सजल नेत्रों से मेरी ओर देखा फिर दोनों बाहें फैलाकर आसमान की ओर देखते हुए बोले, ” यहीं से तो मेरे आफ़ताब का सफ़र शुरू हुआ था ना! उसे जहाँ जाना था वहाँ वह पहुँच चुका लेकिन मेरी जगह यही है। मैं अपनी कला को उसकी जड़ों से अलहदा नहीं कर सकता। वरना आप जैसे लोगों की यादों में हमारी आवाज़ कैसे घर बना सकेगी भला ! मैं तो इस जगह पर गीत गाकर अपना अहसान जताता हूँ। वह आफ़ताब का सपना था यह मेरा सपना है। आप जैसे यात्रियों की सेवा कर सकूँ इससे बढ़कर मेरी और कोई ख्वाहिश नहीं। खुदा हाफ़िज़ !

उस वृद्ध संत के प्रति मेरे हृदय में आदर की भावना और भी बढ़ गई और साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि दो कलाकार एक दूसरे के हृदय से कितने भी जुड़े क्यों न हों उनके सपने और मंजिल अलग ही होते हैं। सच भी तो है कि कला को उसकी जड़ से अलग करना अर्थात उसमें परिवर्तन का समावेश होना। भला वृद्ध संत यह कैसै होने देते। हर किसी की अपनी- अपनी मंजिल होती है। शायद यही संसार का कटु सत्य भी है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रेके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

 

 

स्व. अंशलाल पंद्रे

☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ ☆

☆ सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

अत्यंत सहज, सामान्य से दिखने वाले अंशलाल पंद्रे को उनके ज्ञान, कर्तव्य निष्ठा, ईमानदारी, सहृदयता, मिलनसारिता, देशभक्ति और सशक्त लेखनी ने उनके जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। एक समय ऐसा था जब न सिर्फ जबलपुर वरन आसपास के अनेक नगरों की साहित्यिक – सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संस्थाओं के कार्यक्रमों के सूत्रधार और शक्तिपुंज पंद्रे जी ही हुआ करते थे। पंद्रे जी ने धर्म – आध्यात्म, प्रकृति, महापुरुषों और देशभक्ति पर अविस्मरणीय  मधुर, प्रेरणादायी, सहज – सरल भावभरे गीत लिखे।

एकता और समानता पर उनकी पंक्तियां –

राम, कृष्ण, ईसा, मोहम्मद,

नानक का सम्मान यहां।

जाति धर्म का भेद नहीं है,

हम सब एक सामान यहां।।

 

,,,,और प्रकृति प्रेम –

रिमझिम गाए सावनी घटा।

बहलाए मन फगुनी छटा।।

जो दिखे लगे निखरा – निखरा।

है नमन तुझे हे ! वसुंधरा।।

,,,,श्रम का पूजन –

हाथों में लेकर कुदाल खेतों को हम जाते।

सूरज की पहली किरन से रोज ही नहाते।

श्रम की पूजा करने में विश्वास हमारा है।

सबसे अच्छी फुलवारी – हिन्दुस्तान हमारा है।।

12 सितम्बर 1954 में ग्राम विजयपानी खुर्द में जन्में अंशलाल पंद्रे की प्रारंभिक शिक्षा एवं कर्म भूमि का केंद्र छपारा जिला – सिवनी रहा। आपने अर्थशास्त्र में एम. ए. तथा गायन में संगीत प्रभाकर किया। सफलता के लिए निरंतर प्रयत्न एवं कर्म पर विश्वास रखने वाले अंशलाल पंद्रे जी मध्यप्रदेश के लोकप्रिय क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी रहे। शासकीय सेवा में अति व्यस्तता के बाद भी उन्होंने साहित्य सृजन जारी रखा। उनकी रचनाएं देश की प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रसारित होती रहीं। पंद्रे जी आकाशवाणी से अनुबंधित गीतकार, सुगम संगीत व ड्रामा आर्टिस्ट भी रहे हैं। आप जबलपुर की संस्था “वर्तिका” के अध्यक्ष सहित अनेक संस्थाओं व पत्रिकाओं के संरक्षक भी रहे।  दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय, भोपाल के परिषद सदस्य पंद्रे जी का देश की अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान किया गया। यों तो आपके गीत अनेक संग्रहों में शमिल हैं तथापि आपके द्वारा रचित कृतियों में प्रमुख हैं – सच्चिदानंद साईं हरि, गीत गुंजन, गीत मेरे मीत, प्यारा मध्यप्रदेश, सुर हरसिंगार (संगीत साधकों के लिए), जय मां हे भारती, किलकारी – फुलवारी, अंश भजनामृत एवं जननी भारत माता। देश के प्रसिद्ध शायर साज़ जबलपुरी के अनुसार कविता में अनेक विषयों पर अपनी सशक्त अभिव्यक्ति करने वाले अंशलाल पंद्रे में रसिकता, आध्यात्मिकता, राष्ट्रचिंतन तथा सरसता का अदभुत योग है।

साहित्य साधिका संध्या जैन “श्रुति” कहती हैं –

पंद्रे जी के गीतों का सरस सुवासित काम।

सद्भावी वाणी सरल अंशलाल है नाम।।

डॉ. हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर के तत्कालीन प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग डॉ.आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने लिखा था कि “व्यक्तिगत जीवन में भी पंद्रे जी की सरलता, सहजता और भावप्रवणता को देखकर हर कोई मुग्ध हो उठता है। व्यक्तित्व की यही छाप पंद्रे जी के गीतों में देखी जा सकती है।”

पंद्रे जी की देशभक्ति पूर्ण भावभरी रचनाएं सदा आने वाली पीढ़ी का मार्गदर्शन करती रहेंगी।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 4 – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर (Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़  “1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर।)

☆  दस्तावेज़ – 1971 की कक्षा: सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी, जबलपुर ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

“यह सबसे अच्छे समय का दौर था, यह सबसे बुरे समय का दौर था, यह बुद्धिमानी का युग था, यह मूर्खता का युग था…”

चार्ल्स डिकेंस, ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़

इन शब्दों की गूंज, तब के उन्नींदे शहर जबलपुर के उपनगर रांझी की गलियों में, महसूस होती थी। यह 1971 का समय था—सादगी और गहरे बदलाव का युग। बाहरी दुनिया में उथल-पुथल थी, परंतु सेंट गेब्रियल स्कूल परिसर के अंदर शिक्षा का अभयारण्य फल-फूल रहा था। वर्ष 1971 की कक्षा के छात्र एक ऐसे युग में जी रहे थे, जिसमें मासूमियत का आकर्षण और असीम संभावनाओं का अनंत आकाश था। हर पाठ ज्ञान से भरा था, हर खेल टीम भावना से खेला जाता था और हर पल यादों की छाप छोड़ जाता था।

एक विरासत की शुरुआत

वर्ष 1959 में, मॉन्टफोर्ट ब्रदर्स ऑफ सेंट गेब्रियल द्वारा स्थापित सेंट गेब्रियल स्कूल, रांझी के पूर्वी छोर पर स्थित था। इसके एक ओर आयुध निर्माणी खमरिया का विस्तृत परिक्षेत्र था और दूसरी ओर मानेगांव की प्राकृतिक सुंदरता। इसकी विनम्र शुरुआत एक छोटे से परिसर में हुई। वर्षों बाद अब यह आधुनिक, समग्र शिक्षा का प्रकाशस्तंभ बन गया है।

सेंट गेब्रियल में शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं थी। यह जिज्ञासा जगाने, करुणा प्रज्ज्वलित करने, और समय की कसौटी पर खरे उतरने वाले जीवन मूल्यों को सिखाने का प्रयास था। ज्ञान को एक बोझ की तरह नहीं बल्कि एक उपहार के रूप में प्रदान किया गया। छात्रों को स्वप्न देखना, दृढ़ता, और जीवन को साहस और गरिमा के साथ स्वीकार करना सिखाया गया।

मूल्यों का अनूठा संगम

1971 की कक्षा जब इस शिक्षा के मार्ग पर चली, तो उन्हें विनम्रता और विवेक, साहस और निष्पक्षता के गुणों से पोषित किया गया। उनके ‘अल्मा माटर’ ने उन्हें तर्क और भावना दोनों का मूल्य समझाया। यह एक ऐसी शिक्षा थी जो छात्रों को जीवन में उद्देश्य, दृढ़ता और कृतज्ञता का भाव प्रदान करती थी।

विद्यालय ने कला और सौंदर्य के प्रति गहरी समझ भी विकसित की। ब्रदर फ्रेडरिक ने रसायन विज्ञान को सिद्धांत और अभ्यास की एक सुखद जुगलबंदी में बदल दिया। शर्मा सर और श्रीवास्तव सर ने छात्रों को हिंदी साहित्य की मनोहारी छटा से रूबरू किया, जबकि पंडित सर और लाजरस सर ने संस्कृत के श्लोक सिखाए। मैडम प्रेम खेड़ा और खरे सर ने धैर्य और कुशलता के साथ गणित की चुनौतियों को हल करना सिखाया।

खेल केवल खेल नहीं थे, यहां चरित्र का निर्माण होता था। इस्लाम सर, दिनकर सर और चौधरी सर जैसे प्रशिक्षकों ने छात्रों को प्रेरित किया कि वे पसीना बहाएं और विजय प्राप्त करें। प्रयास में ही जीत निहित होती है।

भविष्य को आकार देने वाले शिक्षक

सेंट गेब्रियल में शिक्षक गण असाधारण थे। ब्रदर जॉन बॉस्को और इंग्लैंड से आए। जॉन पीक ने अंग्रेजी व्याकरण और साहित्य में छात्रों की उत्कृष्टता को परिभाषित किया। फ्रांसिस डेविड सर ने अपनी नाटकीय प्रतिभा और मधुर आवाज से छात्रों की रचनात्मकता को प्रेरित किया।

सामाजिक अध्ययन के गंभीर पाठ शुक्ला सर और ब्रदर जोसेफ ने पढ़ाए, जबकि सामान्य विज्ञान मैडम ओ. डी’सूजा और सेबेस्टियन सर ने पढ़ाया। ये शिक्षक केवल अध्यापक नहीं थे; ये चरित्र के मूर्तिकार थे, जिन्होंने युवा मनों को जिम्मेदार और सहानुभूति से परिपूर्ण नागरिक बनने के लिए प्रेरित किया।

1971 की कक्षा का जज़्बा

1971 की कक्षा प्रतिभा, दृढ़ता और मित्रता का एक अद्भुत सम्मिश्रण थी। प्रत्येक नाम के साथ एक कहानी जुड़ी थी, प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी छाप छोड़ी। शांता ने अपनी मधुर आवाज से, और शोभा ने अपने आकर्षक नृत्यों से सांस्कृतिक आयोजनों को जीवंत किया। जूड ने अपनी वाक्पटुता से श्रोताओं को मोहित किया, जबकि चंदन ने टेबल टेनिस के क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की।

फुटबॉल के मैदान पर, कैश्मीर, प्रबीर, महेंद्र और अल्बर्ट ने टीम भावना और प्रतिभा का प्रदर्शन किया। क्रिकेट के उत्साही जगत, राजन और सौमेन ने खेल को जीवंत बना दिया। शिवाजी, रविशंकर और विजय ने स्वस्थ शैक्षणिक प्रतिद्वंद्विता में भाग लिया और अपने साथियों को ऊंचे लक्ष्यों के लिए प्रेरित किया।

कक्षा के बाहर, दोस्ती और भाईचारे का माहौल था। बिजॉय, महेंद्र, सुबीर और श्याम ने हंसी-मजाक से सभी के चेहरों पर मुस्कान बिखेरी। ऐन्सली, हर्दित, और शैलेंद्र जैसे अन्य लोगों ने शिष्टाचार और विनम्रता का उदाहरण प्रस्तुत किया।

आजीवन आभार

पीछे मुड़कर देखें तो 1971 की कक्षा सेंट गेब्रियल स्कूल के प्रति अथाह आभार व्यक्त करती है। यह केवल एक संस्थान नहीं था; यह वह प्रयोगशाला थी जहां मूल्यों को तराशा गया और अनुशासन के साथ सपनों को आकार दिया गया। इसने छात्रों को न केवल सफलता की ओर अग्रसर किया, बल्कि सार्थक जीवन जीने की कला भी सिखलाई।

सकारात्मक मनोविज्ञान के अनुसार, सुखद यादों का पोषण करने से आनंद, कृतज्ञता और दृढ़ता विकसित होती है। सेंट गेब्रियल में साझा की गई हंसी, सीखे गए पाठ और बनाई गई दोस्ती उनके दिलों में हमेशा के लिए अंकित हैं।

सम्मान सूची

1971 की कक्षा:

ऐन्सली निबलेट, अल्बर्ट फिलिप्स, अविनाश गायकवाड़, बरकत सिंह, बिजॉय मुखर्जी, कैश्मीर फर्नांडिस, चंद्र बाबू, चंदन नियोगी, हर्दित सिंह, जगत सिंह बिष्ट, जूड पेस, कमल किशोर, के.एस. राजन, कुमुद चक्रपाणि, महेंद्र परमार, मुकुंदन मेनन, रामचंद्र सिंह, रविशंकर कृष्णन, रेबेका मलिक, प्रबीर मित्रा, राल्फ टेट, रीता बसाक, रीता भम्बानी, सैमुअल वॉकर, शैलेंद्र कुमार, शांता मूर्ति, शिवाजी घोष, शोभा पवार, श्याम मंडल, सौमेन दासगुप्ता, सुबीर भट्टाचार्य, तपस रॉय, थॉमस एलेक्ज़ेंडर, विजय नायर और तुषार कांति बनर्जी।

एक स्थायी विरासत

नेल्सन मंडेला के शब्दों में, “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।” सेंट गेब्रियल स्कूल ने अपनी शाश्वत मूल्यों को पोषित करने वाली भावना के साथ 1971 की कक्षा को यादों का एक खजाना और ऐसा आधार प्रदान किया, जिसने उन्हें दुनिया को बदलने में, अपना योगदान देने के लिए सक्षम बनाया।

इसलिए, वर्ष 1971 के छात्र-छात्राओं की गाथा, इसका जीवंत प्रमाण है कि समग्र शिक्षा न केवल मस्तिष्क को विकसित करती है बल्कि हृदय और आत्मा का भी भरपूर पोषण करती है। ये छात्र आजीवन गर्व से स्वयं को “गैब्रिएलाइट बैच 1971” कहेंगे।

Class of 1971: St. Gabriel’s School, Ranjhi, जबलपुर

“It was the best of times, it was the worst of times, it was the age of wisdom, it was the age of foolishness…”

– Charles Dickens, A Tale of Two Cities

In the small, sleepy town of Jabalpur, nestled within the quiet suburb of Ranjhi, these immortal words seemed to echo through the corridors of life. It was 1971, a time of both simplicity and profound change, when the world outside felt tumultuous, yet within the walls of St. Gabriel’s School, a sanctuary of learning flourished. The students of the Class of 1971 lived in an era that bore the charm of innocence and the promise of limitless possibilities—a time when every lesson carried the weight of wisdom, every game played was a masterclass in teamwork, and every moment was tinged with nostalgia even as it unfolded.

The Origins of a Legacy

Established in 1959 by the Montfort Brothers of Saint Gabriel, St. Gabriel’s School stood at the eastern end of Ranjhi, bordered by the expansive Ordnance Factory Khamaria Estate on one side and the rustic beauty of Manegaon on the other. Humble beginnings shaped its character; the modest campus whispered tales of grit and dreams. Yet, over the years, it evolved into a beacon of modern education, carrying forward the mission of holistic learning.

Education at St. Gabriel’s was never confined to textbooks. It sought to awaken curiosity, ignite compassion, and instill values that stood the test of time. Knowledge was imparted not as a burden but as a gift; it was laced with the art of living. Students were taught to dream, to persevere, and to embrace the duality of life with courage and grace.

A Unique Blend of Values

As the Class of 1971 stepped onto this path of learning, they were nurtured with the virtues of humility and prudence, bravery and fairness. Their Alma Mater taught them to value both logic and emotion, to harmonize the scientific with the spiritual. It was an education that breathed life into Positive Psychology’s principles long before the term existed—imbuing students with a sense of purpose, resilience, and gratitude.

The school also fostered a deep appreciation for art and beauty. Brother Frederick made Chemistry a delightful symphony of theory and practice. Sharma Sir and Shrivastava Sir transported students into the enchanting world of Hindi literature, while Pandit Sir and Lazarus Sir unveiled the mysteries of Sanskrit. Ms. Prem Kheda and Khare Sir unknotted the challenges of Mathematics with patience and precision.

Sports, too, were more than just games; they were arenas where character was forged. Coaches like Islam Sir, Dinkar Sir, and Chaudhary Sir inspired their students to sweat, strive, and triumph, teaching them that victory lay as much in the effort as in the outcome.

The Teachers Who Shaped Futures

St. Gabriel’s boasted a pantheon of extraordinary educators. Brother John Bosco and the Englishman, John Peek, epitomized excellence in language, molding students’ command of English grammar and literature. Francis David Sir inspired an entire generation with his theatrical flair and melodious voice, unlocking creative potential in his pupils.

From the earnest teachings of Social Studies by Shukla Sir and Brother Joseph to the life lessons woven into General Science by Ms. O. D’Souza and Sebastian Sir, every lesson carried a deeper meaning. These teachers were not merely instructors; they were sculptors of character, shaping young minds into responsible and empathetic citizens.

The Spirit of the Class of 1971

The Class of 1971 was a constellation of talent, resilience, and camaraderie. Each name carried a story, each individual left a mark. Shanta, with her divine voice, and Shobha, with her dazzling Bollywood dances, brought joy to cultural gatherings. Jude mesmerized audiences with his eloquence, while Chandan dominated the table tennis arena with finesse.

On the football field, players like Kashmir, Prabir, Mahendra, and Albert exhibited teamwork and flair, while cricket enthusiasts such as Jagat, Rajan, and Soumen brought the game alive. Shivaji, Ravi Shankar, and Vijay engaged in healthy academic rivalries, inspiring peers to aim higher.

Outside the classroom, camaraderie thrived. Bijoy, Mahendra, Subir, and Shyam were the jesters who kept spirits high, reminding everyone of the power of shared laughter. Others, like Ainsley, Hardit, and Shailendra, exuded a quiet dignity, embodying politeness and humility.

A Lifetime of Gratitude

Looking back, the Class of 1971 owes an immeasurable debt of gratitude to St. Gabriel’s School. It was not merely an institution; it was a crucible where values were forged, and dreams were tempered with discipline. It gave its students not only the tools to succeed but the wisdom to live meaningful lives.

As Positive Psychology emphasizes, cherishing fond memories cultivates joy, gratitude, and resilience. The laughter shared, the lessons learned, and the friendships formed at St. Gabriel’s remain etched in the hearts of its alumni, illuminating their paths long after the school bell ceased to ring.

Roll Call of Honour

Class of 1971:

Ainsley Niblett, Albert Phillips, Avinash Gaikwad, Barkat Singh, Bijoy Mukherjee, Cashmir Fernandes, Chandra Babu, Chandan Neogi, Hardit Singh, Jagat Singh Bisht, Jude Paise, Kamal Kishore, K.S. Rajan, Kumud Chakrapani, Mahendra Parmar, Mukundan Menon, Ramchandra Singh, Ravi Shankar Krishnan, Rebecca Mullick, Prabir Mitra, Ralph Tate, Rita Basak, Rita Bhambani, Samuel Walker, Shailendra Kumar, Shanta Murthy, Shivaji Ghosh, Shobha Pawar, Shyam Mandal, Soumen Dasgupta, Subir Bhattacharya, Tapas Roy, Thomas Alexander, Tushar Kanti Banerji and Vijay Nair.

An Enduring Legacy

In the words of Nelson Mandela, “Education is the most powerful weapon which you can use to change the world.” St. Gabriel’s School, with its timeless values and nurturing ethos, gifted the Class of 1971 a treasure trove of memories and a foundation that would empower them to change the world in ways big and small.

And so, the story of the Class of 1971 remains an enduring testament to the power of education to shape not just minds but hearts and souls. For they were, and always will be, the proud sons and daughters of St. Gabriel’s School, Ranjhi, Jabalpur.

(Photo courtesy – Social media)

🙏💐 सेंट गेब्रियल स्कूल – आजीवन आभार 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्लके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल

☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆

☆ जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

विविध विषयों का ज्ञान, धीर – गंभीर व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी, ज्ञान पिपासुओं को निःस्वार्थ मार्गदर्शन और अपने अनुभव देते रहना, पं. दीनानाथ शुक्ल के इन गुणों ने उन्हें जीवन काल में ही विशिष्ट बना दिया था। शुक्ल जी का जन्म 1 जुलाई 1932 को छतरपुर जिले में हुआ। कम आयु में ही वे शासकीय शिक्षक नियुक्त हो गए। दीनानाथ जी ज्ञान पिपासु थे। शिक्षक बनने के बाद उनकी ज्ञान पिपासा और बढ़ गई। उन्होंने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर से राजनीति शास्त्र में एम. ए. किया। एम.एड. की परीक्षा में शुक्ल जी को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। एक श्रेष्ठ शिक्षक के साथ ही अच्छे कवि, साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति सुदूर क्षेत्रों तक व्याप्त थी।

हिंदी और अंग्रेजी के विद्वान पं. दीनानाथ शुक्ल ने यद्यपि हिंदी में भी लिखा है तथापि साहित्य सृजन के लिए उन्होंने अपने जन्म स्थान छतरपुर की बोली – बानी “बुंदेली” को चुना। उनकी पांडित्य पूर्ण, हास – परिहास से युक्त, जागरण की प्रेरणा देती बुंदेली रचनाओं का साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान है।

“ईपै अधिक न सोचौ” पं. दीनानाथ शुक्ल का बुंदेली में रचा व्यंग्य कविताओं का संग्रह है। लोक रस – युक्त इन कविताओं में जीवन के विविध रंग हैं, किंतु मूल भाव जीवन को सुमार्ग पर अग्रसर करने – कराने का है।

“नओ उजेरो” कविता में वे कहते हैं –

कका दाउ जू संझले मंझले दद्दा, बब्बा नन्ना,

हलके बड़े मौसिया नन्ने जीजा फूफा मम्मा।

नाते भये अलोप सबई अब, लै लै नाम पुकारत,

अंकल डैडी ब्रदर कान के, पर्दा चीरें डारत।

सब हो गओ का सपनो,

गांव बदल गओ अपनों।

भाव अभिव्यक्ति के लिए शुक्ल जी के पास बुंदेली के इतने सटीक शब्द थे कि वे श्रोता – पाठक के समक्ष तत्काल उनका अर्थ प्रगट करते थे। उनकी बुंदेली भाषा – शैली अत्यंत सहज सरल थी।

 पं. दीनानाथ शुक्ल की भाषा की सहज ग्राह्यता देखिए –

यंत्री के मंत्री झल्लाने – इत्तो माल न खाओ,

सड़क बनी ती इतै कहां गइ, नक्शा मोय दिखाओ।

नक्शा मोय दिखाओ, पूरी कीके पेट समानी,

भ्रष्टाचार तकैया पूंछत, कैसें भइ नुकसानी।

हांत जोर कें यंत्री बोलो – डामल तौ मैं खा गओ,

गिट्टी मुरम बोल्डर प्रभु के, साले पेट समा गओ।

और इसे पढ़ें –

दंगा मैं पथरा सन्नाबै, दूरइ, सें जो लरका –

“गोला तवा फेंक” में भेजौ, पता लगा कें घर का।

चिरइ-चिरोंटा गिरदौना जो, तक गुलेल सें मारत –

चुन लो उन्हें “निशान लगाबे”, बाजी बे नइं हारत।

पं. दीनानाथ शुक्ल ने हमेशा कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी अपने आसपास रहने वाले लोगों के माध्यम से अपनी बात कही है –

तानें हमें न मारौ, अपनो अपनो रूप निहारौ।

दई बनाओ तुमें ऊजरौ, हमें बना दऔ कारौ

ईमें का है दोष हमारौ, ताने हमें न‌‌‌ मारौ। ।

शुक्ल जी अपनी जो भी रचनाएं लोगों को स्वतः सुनते थे, उनके प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के कारण वे रचनाएं श्रोताओं के मन में अमित छाप छोड़ती थीं। पं. दीनानाथ जी ने सदा रचनाकारों को बुंदेली में लिखने प्रेरित किया और उन्हें मार्गदर्शन दिया। अनेक लोकभाषाई कवि सम्मेलनों में बुंदेली का प्रतिनिधित्व करके प्रशंसा अर्जित करने वाले पं. दीनानाथ शुक्ल जी को समय समय पर अनेक संस्थाओं – संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया। अपने सहज – सरल उद्देश्यपूर्ण बुंदेली गीतों के कारण वे साहित्य जगत में सदा याद किए जाएंगे।

“दीनानाथ” अकल ताकत के, “ठेंगन” की बलिहारी –

जीने सीखो मंत्र, ओई सें, झुक रइ दुनिया सारी।

“दीनानाथ”कहते हैं, अक्ल की ताकत के ठेंगे की बलिहारी ! जिसने यह मंत्र सीखा उसके सामने सारी दुनिया झुक रही है।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆ दस्तावेज़ # 3 – कनाडा से ~ कोंपल के कंधों पर चमकती धूप — ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास व आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।

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(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है कनाडा से डॉ. हंसा दीप जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।) 

☆ दस्तावेज़ # 3 – कनाडा से ~ कोंपल के कंधों पर चमकती धूप — ☆ डॉ. हंसा दीप  ☆ 

अलसुबह की ताज़ी बयार श्वास-दर-श्वास गुणित होती रही। ढलती शाम में उन सुवासित पलों को शब्दों में कैद करना मुझे रोमांचित कर गया। एक हल्की-सी दस्तक भर से स्मृतियों के पिटारे खुलकर कई अविश्वसनीय पलों को भी सामने ले आए। एक के बाद एक। यही तकरीबन 57-58 साल पहले का मेरा अपना गाँव। खालिस गाँव। टूटी-फूटी सड़कें, नीम के घने पेड़ और भीलों की बस्तियाँ। झोंपड़ियाँ भी, हवेलियाँ भी। कंगाल भी मालामाल भी। नंग-धड़ंग आदिवासी बच्चे और सेठों-साहूकारों के साफ-सुथरे बच्चों से लिपटती धूल-धूसरित हवाएँ।

मैं और छोटू, पूरे गाँव में भटक आते। पव्वा, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी-लंगड़ी, खेलना और गाँव भर में छुपा-छुपी खेल के लिए दौड़ लगाना। न बीते कल की चिंता, न आने वाले कल की। बस आज खाया वही मीठा।

लौकिक और अलौकिक दुनिया के बीच झूलता बचपन। नन्हीं बच्ची की आँखों से देखे ऐसे कई लम्हे जिनमें विस्मय, कौतूहल, भय और विश्वास एक साथ हाथ थामे रहते। लौकिक दुनिया में जीते-जागते इंसान थे। भूख, गरीबी और शोषण से त्रस्त, अपने अस्तित्व से लड़ते आदिवासी। भीलों और साहूकारों की ऐसी दुनिया जहाँ बिल्ली और चूहे का खेल अपनी भूमिका बदलता रहता। दिन भर जिनसे मजदूरी करवाकर साहूकार अपनी तिजोरी भरते, रात में वे ही उनका माल-ताल लूट कर ले जाते।

इस हाथ ले, उस हाथ दे। दिन में सेठों की सेवा में भुट्टे हों या हरे चने के गट्ठर, हर सीजन की पैदावार भर-भर कर दे जाते। सेठों के परिवार खा-पीकर लंबी डकार जरूर लेते लेकिन रात में चैन की नींद न सो पाते। अगर मानसून ने साथ दिया और फसल ठीक-ठाक हुई तो चोरी-चकारी कम होती लेकिन जिस वर्ष फसलें चौपट होतीं, भीलों को खाने के लाले पड़ जाते। तब पेट भरने का एकमात्र सहारा सेठों को लूटना होता। लूटपाट, खौफ और दहशत से भरा गाँव। जीजी (माँ) के शब्द होते- “ई भीलड़ा रा डर से मरेला बी आँख्या खोली दे।” (इन भीलों के भय से मुर्दे भी जाग जाएँ।) 

न पुलिस का भय, न कानून का। पुलिस थी कहाँ! बाबा आदम के जमाने के दो कमरों में पुलिस थाना था। एक ओर छोटे-छोटे सेल थे कैदियों के लिए। और शेष दो में एक मेज, कुछ फाइलें और सोने का एक बिस्तर। मरियल से एक-दो पुलिसवाले ड्यूटी बजाते। भीलों के सामने कहीं नहीं लगते। बगैर हील-हुज्जत के माल मिल जाता तो आदिवासी होने के बावजूद भील मार-काट कम करते। न मिलने पर किसी को भी मार-काट कर लूट लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। एकजुट होकर साहूकारों के ब्याज से मुक्त होने का यही आसान तरीका था उनके लिए।  

गाँव में हमारा घर हवेली-सा था। सबसे बड़ा। यानि सबसे ज्यादा पैसा। यानि सबसे ज्यादा लूटपाट का डर। नीचे हमारी अनाज की बहुत बड़ी दुकान थी और अनाज के बोरे खाली करने-भरने के लिए कई आदिवासी हम्माल आते थे। हष्ट-पुष्ट, ऊँची कद-काठी के भील, पीठ पर बोरियाँ लादे मुझ जैसी बित्ती भर की बच्ची को भी छोटी सेठानी कहते। अपना लोटा लाकर मुझसे पानी जरूर माँगते। मैं दौड़-दौड़ कर जाती और मटके का ठंडा पानी लाकर उनका लोटा भर देती। पानी पीकर गले में लिपटे गंदे गमछे से पसीना पोंछकर फिर से काम पर लग जाते। जीजी रोटियाँ बनाकर उन्हें खाने देतीं जिन्हें वे बड़े चाव से प्याज के टुकड़े के साथ खा लेते। सबके लिए दोपहर की चाय भी बनती। कम दूध और ज्यादा पानी वाली चाय। शक्कर डबल। जीजी कहतीं- “बापड़ा खून-पसीनो एक करे। मीठी चा पीवेगा तो घणो काम करेगा।” (बेचारे इतना खून-पसीना बहाते हैं। मीठी चाय पीकर खूब काम करेंगे।)

पाँच भाई-बहनों के परिवार में हम दोनों छोटे भाई-बहन बहुत लाड़ले थे। मेरे बाद कोई बेटी नहीं और छोटू के बाद कोई बेटा नहीं। पूर्णविराम का महत्व हम दोनों बच्चों के व्यक्तित्व में झलकता था। हम ज्यादातर जीजी-दासाब (मम्मी-पापा) के आसपास ही मँडराते रहते। मानो उन दोनों पर सिर्फ हमारा अधिकार हो। अपनी हवेली के एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते-भागते हम, हर पल जी भरकर जीते। आम के मौसम में घर में पाल डलती (कच्चे आमों के ढेर को सूखे चारे में रखकर पकाना)। रोज बाल्टी भर पानी लेकर बैठना और चुन-चुन कर पके आम बाल्टी में डालते जाना। ललचायी आँखें पलक झपकते ही रस भरे आम को गुठली में बदलते देखतीं। घर के अहाते में मूँगफली के बड़े ढेर से चुन-चुनकर मूँगफली खाना और छिलकों को बाकायदा ढेर से बाहर फेंकना।    

मालवी-मारवाड़ी-भीली जैसी बोलियों के साथ धाराप्रवाह गुजराती और हिन्दी भाषा हम सभी भाई-बहनों ने जैसे घुट्टी में पी ली थी। कभी भी, किसी से भी अलग-अलग बोलियाँ बोलने-समझने में सकुचाते नहीं। भीलों से भीली में खूब बतियाते। भील-भीलनी मालवी लहजे में भीलड़ा-भीलड़ी हो जाते। मालवी की मिठास में किसी के भी नाम के आगे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाकर बोलना अपनेपन का अहसास होना। गधे या बुद्धू लड़के को गदेड़ो, और लड़की बेवकूफ हो तो गदेड़ी। यहाँ तक कि बरतन कपड़े करती भीलनी दीतू को भी दीतूड़ी कहते। कभी नाराजगी जाहिर करनी होती तो दीतूड़ी को दीतूट्टी कहते। आज भी हम सब भाई-बहन आपस में मालवी में बात करते हुए घर में जितने छोटे हैं सबके नाम के पीछे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाते हैं। टोनूड़ा, मीनूड़ी, रौनूड़ो…।

उस साल पानी नहीं गिरा था। धरती अनगिनत टुकड़ों में फट-सी गई थी। फसलें चौपट थीं। धान उगा नहीं। सेठों का धंधा ठप्प। धंधा नहीं तो भीलों के लिए मजदूरी भी नहीं। बस यही था खुली लूटपाट का समय। अब डाके पड़ने लगे। चोरी-चकारी तो आम बात थी ही लेकिन जब किसी अमीर के यहाँ चोरों की भीड़ आकर घर खाली कर जाए, मालमत्ते के साथ घर का सारा सामान यहाँ तक कि बर्तन-भांडे भी ले जाए, वह डाका होता। भीलों के समूह एकजुट होकर पूरी फोर्स के साथ ढोल-ढमाके बजाते आते। सारा कैश, जेवर और घर से जो उठा-उठा कर ले जा सकते, ले जाते। तब तक बैंक व्यवस्था पर लोगों का विश्वास जमा नहीं था। साहूकार अपना सारा कैश, कीमती चीजें घर में ही रखता था।

दो दिन पहले पास के गाँव कल्याणपुरा में अरबपति मामाजी के घर डाका पड़ा था। मामाजी के खास आसामी (ग्राहक) उन्हें लूट गए थे। करोड़ों का माल नगदी-जेवरात सब चला गया था। वहाँ से आई खबरों से हम सब डरे हुए थे। घर में दासाब के होते राहत मिलती। खबरों का खौफ कभी जीजी के पल्लू को पकड़कर कम होता तो कभी दासाब का कुरता पकड़कर। डरे-सहमे हम दोनों उनके आसपास ही सोते। नींद लगते न लगते, ढोल बजने शुरू हो जाते।

दासाब खिड़की की ओट से बाहर से आती ढोल की आवाजों का जायजा लेकर कहते- “बच्चों, डरो मत। चोर अपने घर की तरफ नहीं आ रहे। वो तो दूसरी ओर जा रहे हैं।”

लेकिन ये हमें समझाने के लिए होता क्योंकि वो स्वयं खड़े होकर आवाज दूर जाने तक सोते नहीं। घुप्प अंधेरे में कुछ दिखाई न देता होगा क्योंकि उस समय हमारे गाँव में बिजली आई ही थी। जो आती कम, जाती ज्यादा थी। चोरी-डाके की तमाम आशंकाओं के बावजूद कभी हमारे घर डाका नहीं पड़ा। हाँ, हर दो-तीन माह में हमारी भैंस चोरी हो जाती थी। दासाब की जिद थी कि घर में भैंस हो और सभी बच्चे घर का दूध पीएँ। सो हमारी हवेली के बंद पिछवाड़े में एक भैंस बँधी रहती। उन्हें ये भी पता होता था कि अपनी भैंस दो-तीन महीने ही रहेगी, बाद में चोर ले जाएँगे। और ऐसा ही होता। हर दो-तीन माह के भीतर भैंस चोरी हो जाती।

दासाब कहा करते थे- “चोट्टे घर के अंदर नहीं आ सकते। पिछवाड़े से भले ही भैंस ले जाएँ।  

प्रश्नों की लंबी कतार मेरे सामने होती। मैं यह न समझ पाती कि चोर कैसे घर में नहीं घुस सकते! पुलिस तो खड़ी नहीं है बाहर। और फिर पुलिस तो कभी भैंस को भी वापस नहीं ला पाई, फिर चोरों का क्या बिगाड़ लेगी! रात में ड्यूटी पर खर्राटे भरते पुलिस वालों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि ढोल-नगाड़े बजाकर भील चोरी करने आ रहे हैं।  

मैं सोचती, शायद चोर दासाब से डरते होंगे। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि एक जोर की आवाज या उनकी खाँसी से सब सतर्क हो जाते। बड़े भाई-बहन भी डर जाते थे। मैं नहीं डरती थी क्योंकि मुझे कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। मसलन, उनकी कई छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखना। वे नीचे दुकान में खाना खाते थे जबकि किचन ऊपर था। किचन क्या था, बहुत बड़ा हाल था। उस हवेली में कोई छोटा कमरा था ही नहीं, कई बड़े-बड़े हाल थे। मैं हर बार दौड़कर ऊपर जाती और गरम रोटी लेकर आती। धोबी के घर से उनके झकाझक सफेद कुरते-पाजामे बगैर सिलवटों के उन तक पहुँचाने का काम भी मेरा ही था।

जब वे बाजार कुछ लेने जाते, मुझे अपनी उँगली पकड़कर साथ ले जाते। धुली हुई घेरदार फ्राक पहने मेरी ठसक ऐसी होती जैसे दासाब की नहीं, आसमान में चमकते सूरज की उँगली पकड़कर चल रही होऊँ। कंधों पर आकर धूप ठहर जाती। बिखरती धूप के साए खिलखिलाने लगते। वो अलमस्त अनुभूति कभी मद्धम नहीं हुई। सिलसिला आज भी जारी है जब मैं अपने नाती-नातिन की उँगली पकड़कर चलती हूँ। टोरंटो की बर्फ के कणों से धूप परावर्तित होकर समूची ताकत से मुस्कुराती है। रोल बदलने के बावजूद चाल की ठसक कायम है।

भैंस के चोरी हो जाने के बाद हम दोनों छोटे बच्चों को पंडित के पास भेजा जाता। यह तफ़्तीश निकालने के लिए कि भैंस किस दिशा में गई। पंडित, गिरधावर जी अपना पोथा खोलते, हमारी जेब से निकले पैसे पोथे के पन्नों पर विराजमान होते ही उनकी गणना शुरू हो जाती। ग्रहों की गणना करते पंडित जी बताते कि भैंस, पूरब दिशा में गई है। फिर कहते, पहले पश्चिम में गई थी पर अब वापस पूरब दिशा की ओर मुड़ गई है। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हमारे सीसीटीवी कैमरे हमें दिशा-निर्देश देते हैं। 

दासाब पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने जरूर जाते और कह आते कि पूरब दिशा में ढूँढने जाओ। पुलिस वाले आश्वासन के साथ रिपोर्ट लिख लेते। मैं कई दिनों तक टकटकी लगाए देखती रहती कि हमारी भैंस लौट आएगी। भैंस लौटकर कभी वापस नहीं आती, मगर दासाब फिर से नई भैंस खरीद लेते। अच्छी सेहत वाली। खूब दूध देती। ज्यादातर दही जमाकर मक्खन निकाल लेते। घी बन जाता। बड़े मटकों में रस्सी से बँधी लंबी मथनी पर हम सब हाथ चलाते। घूम-घूमकर, मटक-मटक कर दही मथना एक तरह से खेल था। मथनी खूब खिंचने के बाद भी मक्खन की झलक तक नहीं दिखती क्योंकि ताकत तो हममें थी नहीं। फिर दीतूड़ी हाथ आजमाती, उसके ताकतवर चार हाथ पड़ते न पड़ते मक्खन के थक्के ऊपर तैरने लग जाते। बड़ी-सी कढ़ाही में मक्खन का हर एक दूधिया कण इकट्ठा होता जाता। कढ़ाही आँच पर चढ़ते ही पूरी हवेली शुद्ध घी की महक से सराबोर हो जाती।

मथनी बाहर भी न आ पाती और तत्काल गाँव में खबर फैल जाती- “आज सेठ के घर छाछ बनी है।” मुफ्त में छाछ लेने वालों की भीड़ लग जाती हमारे घर। छाछ वितरण का काम मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाती। छोटे से बर्तन से निकाल-निकाल कर लोगों के पतीले छाछ से लबालब भर देती। मेरे लिए यह एक जिम्मेदारी से भरे काम के साथ रोचक समय होता था। बाँटने की खुशी मेरे चेहरे से टपकती।

बीच-बीच में जीजी आकर सावधान करतीं कि बाकी लोगों को खाली न जाना पड़े। मैं छाछ देने में कंजूसी करने लगती तो बर्तन पकड़े सामने वाले की आवाज आती- “ए, थोड़ी और डाल दे न बेटा। आज खाटो (खट्टी कढ़ी) बनेगो।” लोगों के बर्तनों को ताजी, सफेद-झक छाछ से भर देना और उनकी आँखों से बरसते प्यार को स्वीकारना, मुझे बहुत भाता।

चोरी-डाके-लूटपाट के साथ हमारी हवेली में हॉरर दृश्यों की भरमार थी। अलौकिक दुनिया के कई रूप देखे मैंने। हमारा घर गाँव वालों के लिए भुतहा हवेली के रूप में भी जाना जाता था। उन घटनाओं का बयान करना, अंधविश्वास को बढ़ाना है। शिक्षित होकर भी उन घटनाओं को खंगालना विचलित करता है जिनका तार्किक उत्तर आज तक न मिला और शायद मिलेगा भी नहीं।

अपनी आँखों से गुजरे वे पल विज्ञान के विरुद्ध जाकर कभी भयभीत करते, कभी अलौकिक शक्तियों से परिचय कराते तो कभी आत्मविश्वास को बढ़ाते। आज तकनीकी युग में उन क्षणों की सच्चाई पर विश्वास करना सहज और स्वाभाविक बिल्कुल नहीं लगता, लेकिन वे पल अभी भी पीछा करते हैं। कई बार स्वयं को पिछड़ा हुआ कहकर इनके आगोश से मुक्त होने की कोशिश भी की लेकिन जो अपनी आँखों से देखा, जाना और समझा, उसे आज तक नकार नहीं पाई। बगैर किसी लाग-लपेट के वे क्षण मेरे सामने से ऐसे गुजरने लगते जैसे आज की ही बात हो। आँखों से देखा सच और उसमें जीने का अनुभव था, किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी।

कई राज और उनमें छुपी जानी-अनजानी शक्तियों की चर्चा गाँव वाले करते। हवेली में रात में लोग बरतनों के गिरने की आवाज सुनते। रस्ते चलता आदमी भूले-से रात के अँधेरे में हवेली की किसी दीवार के पास पेशाब के लिए खड़ा हो जाता तो कोई उनके पीछे दौड़ता था। नाग-सर्प देवता के लिए तो हमारी हवेली जैसे स्वर्ग थी। रात के अँधेरे में हवेली के आसपास से गुजरने वालों को जगह-जगह नाग दिखते थे। मोटे-काले-लंबे नाग। छनन-छनन आवाजें सुनाई देती थीं। भड़-भड़ कुछ गिरने की आवाजें रोज की बातें थीं। हम गहरी नींद सो रहे होते और बाहर से गुजरने वाले ये सब देखते-सुनते हवेली से दूर भागने की कोशिश करते।

हमारे कानों में पड़ती ये बातें आम थीं। हम बच्चे आश्वस्त थे कि हमारे घर में ऐसा कुछ नहीं होता। होता भी हो तो ‘वो’ बाहर वालों को ही डराते हैं। हमें कभी कुछ नहीं करते। जीजी-दासाब ने हम दोनों छोटे बच्चों को खूब अच्छी तरह समझा कर रखा था कि कुछ भी डरने जैसा दिखे, तो हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना। डरना मत। बस इतना कहना कि हम आपके घर वाले हैं।  

हवेली के कई हिस्सों से मुझे केंचुलियाँ मिलती थीं क्योंकि दिन भर हवेली में सबसे ज्यादा ऊपर-नीचे दौड़ने वाली मैं ही थी। नजर भी बहुत तेज थी। मैं सँभालकर ले जाती जीजी के पास। जीजी कहतीं- “चोला बदले नाग देवता। पूजा रा पाट पे रक्खी दो।”

एक बार दूध के तपेले के पीछे मुझे नाग जैसी बड़ी-सी परछाई दिखी। तुरंत दौड़कर जीजी को बताया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर वहाँ एक दीपक लगवाया, प्रार्थना की। कहा- “छोरा-छोरी डरी रिया, आप किरपा करो। वापस पधार जाओ।”   

वो दिन और आज का दिन, फिर मुझे कभी कुछ नहीं दिखा। जीजी की हिम्मत हौसला देती। हाँ, अकेले कभी रात-बिरात घर के पिछवाड़े जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। पूरी हवेली में एक ही शौचालय था जो पिछवाड़े था। भैंस के खूँटे के पास। वहाँ तक पहुँचने में पूरी हवेली का लंबा सफर तय करना पड़ता था। रात में कोई वहाँ अकेला नहीं जाता। बड़े भाई-बहन भी जीजी के साथ या दासाब के साथ ही जाते।

हमारे यहाँ कोई भी शुभ कार्य या कोई त्योहार होता, हमें सख्त ताकीद थी कि पहले घर के देवताओं के लिए भोजन परोसो। वह थाली दिन भर पूजा के पाट पर रहती। शाम तक गाय और कुत्ते को खिला देते। कभी किसी ने गलती से भी उस नियम को नहीं तोड़ा। एक बार इस बड़ी हवेली का एक हिस्सा किराए से दिया था। वह परिवार वहाँ कुछ ही महीने टिका और डर के मारे छोड़ कर चला गया। छोड़ने के बाद हमें जो भी बताया, वह अविश्वसनीय नहीं था हमारे लिए।

दासाब कहते थे वे हमारे पुरखे हैं, जो अपने घर को छोड़ नहीं पाए। आज, जीजी-दासाब-बड़े-छोटे भाई नहीं हैं पर हम घर के जितने लोग बचे हैं, सबके पास ऐसी कई स्मृतियाँ कैद हैं। जब भी मिलते हैं रात के दो-तीन बजे तक बैठकर नयी पीढ़ी को ये सब सुनाते हैं। आज वह हवेली बिक गई है। दिन में वहाँ स्कूल चलता है। रात में आज भी वहाँ कोई नहीं रहता।

मेरी सारी सोच-समझ की शक्ति धराशायी हो जाती जब वह दृश्य मेरे सामने आता। उस शाम हवेली के बीच वाले हिस्से में चाचाजी के घर धड़ाधड़ पत्थर आने लगे थे। एकाध मिनट के अंतराल से एक पत्थर आता, आवाज होती और नीचे पड़ा दिखाई देता। पत्थर कहाँ से आ रहे थे, कौन फेंक रहा था, आज तक यह रहस्य नहीं खुला।

परिवार के साथ वहाँ इकट्ठा हो रहे गाँव के लोग इस घटना के साक्षी थे। फुसफुसा रहे थे कि सेठ का घर किसी बड़े संकट में है। भीड़ भयभीत थी, घरवाले भी। क्रोध शांत करने के लिए उसी समय धूप-दीप किया गया। सवेरे उठकर बड़ी पूजा करने का निवेदन किया गया। घर के हर सदस्य ने जोर से किसी भी गलती के लिए क्षमा माँगी। थोड़ी देर में पत्थर आने बंद हुए। किसी ने एक शंका जाहिर की कि ये पत्थर चोर फेंक रहे होंगे। लेकिन एक ही आकार के सारे पत्थरों का, एक ही जगह पर आकर गिरना संभव नहीं था। वह दृश्य मेरी आँखों में आज तक ऐसा सुरक्षित है कि कभी मैं उसे डिलीट न कर पाई।

समय के सारथी उन पलों की मुट्ठी में कैद था खुले आसमान का टुकड़ा। उसी को पकड़े रखा। जिन चमकीले-धूपीले पलों को बड़ों के साथ जीया, अब अपने नाती-नातिन के साथ जीती हूँ। उन्हें अपने बचपन की बातें सुनाती हूँ तो कहते हैं- “वाह नानी, तब भी था सुपर पावर!”

और फिर सुपर पावर की कई-कई किताबें पढ़ चुके वे मुझे आज के सुपर पावर के किस्से सुना-सुनाकर चौंकाते हैं।

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© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे  ?

एक अत्यंत अनुभवी तथा वयस्क महिला से मिलने का सुअवसर मिला। उनसे मेरा परिचय संप्रति एक यात्रा के दौरान हुआ था। संभवतः उन्हें मेरा स्वभाव अच्छा लगा जिस कारण वे कभी -कभी फोन भी कर लिया करती थीं। उन दिनों लैंड लाइन का प्रचलन था।

महिला जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव रखती थीं। साथ ही लेखन कला में भी उनकी रुचि थी।

आखिर एक दिन अपने घर पर चाय पीने के लिए लेखिका महोदया ने मुझे आमंत्रित किया। मैं अपनी स्कूली ज़िंदगी और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को लेकर खूब व्यस्त रहती हूँ। उनके कई बार निमंत्रण आने पर भी मैं समय निकालकर उनसे मिलने न जा सकी। पर आज तो उन्होंने क़सम दे दी कि शाम को चाय पर मुझे जाना ही होगा उनके घर।

एक पॉश कॉलोनी में वे रहती हैं।

मैं उनके घर शाम के समय पहुँची। हँसमुख मधुरभाषी लेखिका ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया। किसी लेखिका से मिलने का यह मेरा पहला ही अनुभव था। अभी मेरी उम्र भी कम है तो निश्चित ही अनुभव भी सीमित ही है। मन में एक अलग उत्साह था कि मैं किसी रचनाकार से मिल रही हूँ।

सुंदर सुसज्जित उनका घर उनकी ललित कला की ओर झुकाव का दर्शन भी करा रहा था। हर कोना पौधों से सजाया हुआ था।

वार्तालाप प्रारंभ हुआ । बातों ही बातों में कई ऐतिहासाक तथ्यों पर हमारी चर्चा भी हुई।

उनकी रचनाएँ प्रकृति की सुंदरता, स्त्री की स्वाधीनता, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदना आदि मूल विषय रहे।

थोड़ी देर में उनके घर की सेविका चाय नाश्ता लेकर आई। वह टिश्यू पेपर साथ लाना भूल गई तो उन्होंने उसे मेरे सामने ही डाँटा। (वह चाहती तो अपनी मधुर वाणी में भी निर्देश दे सकती थीं) हमने चाय नाश्ता का आनंद लिया। हम खूब हँसे और विविध विषयों पर चर्चा भी करते रहे।

उनकी कुछ रचनाएँ उन्होंने पढ़कर सुनाई। उन्होंने मेरी भी कुछ रचनाएँ सुनी और उसकी स्तुति भी की। कुल मिलाकर उनका घर जाना और समय बिताना उस समय मुझे सार्थक ही लगा था।

मैं जब वहाँ से निकलने लगी तो किसी ने कहा नमस्ते, फिर आना मैं आवाज़ सुनकर चौंकी क्योंकि उस कमरे में हम दोनों के अलावा और कोई न था।

लेखिका मुस्कराई बोलीं- यह मेरा पालतू तोता पीहू है। बोल लेता है।

मैंने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की तो वे मुझे अपनी बेलकॉनी में ले गईं। वहाँ एक कुत्ता चेन से बँधा था। मुझ अपरिचित व्यक्ति को देखकर वह भौंकने लगा। चेन खींचकर आगे की ओर बढ़ने लगा। लेखिका ने काठी दिखाई तो अपने कान पीछे करके वह चुप हो गया। वहीं पर एक पिंजरे में वह बोलनेवाला तोता बंद पड़ा था। उन्होंने कहा “पीहू नमस्ते करो” और तोते ने नमस्ते कहा।

दृश्य अद्भुत था! पशु चेन से बँधा और पक्षी पिंजरे में कैद! रचनाओं में पशु -पक्षी की आज़ादी की बातें! स्त्री की स्वाधीनता की बातें करनेवाली ने किस तरह सेविका को फटकारा कि मेरा ही मन काँप उठा। मेरा मन विचलित हो उठा। मैं घर लौट आई।

काफ़ी समय तक मुखौटे में छिपा वह चेहरा मुझे स्मरण रहा पर कथनी और करनी में जो अंतर दिखाई दिया उसके बाद मैं उनके साथ संपर्क क़ायम न रख सकी।

लेखक अगर पारदर्शी न हो तो सब कुछ दिखावा और दोगलापन ही लगता है। जो कुछ हम अपनी रचना में लिखते हैं वह हमारे जीवन का अगर अंश न हो तो हम भी मुखौटे ही पहने हुए से हैं।

 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ?)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ?

क्लास प्रारंभ होने में अभी कुछ समय बाकी था। फिर भी मैंने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया और स्टडी रूम में तैयारी के लिए बैठ गई।

आज आनेवाला छात्र जर्मन है। पिता -पुत्र साथ ही हिंदी सीख रहे हैं। तीन माह पूर्व वे इटली से भारत शिफ्ट हुए हैं। दीवाली की छुट्टी के बाद उनका आज पहला क्लास था। उन्हें पता होता है कि दरवाज़ा खुला होता है पर चूँकि छुट्टी के बाद क्लास था तो अभिवादन के लिए मैं ही द्वार खोलकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी।

सामने लिफ्ट के पास दीवार से टिककर एक नवयुवक खड़ा दिखा। उसकी पीठ के पीछे सात फुट बाय छह फुट का एक बड़ा मोटा, भारी प्लायवुड टिका था। हम तीसरी मंज़िल पर रहते हैं। उसे शायद और ऊपर जाना था। वह शायद आराम करने के लिए रुका था। लिफ्ट से इतनी बड़ी वस्तु तो ले जाना मना है।

पिता -पुत्र आए। नब्बे मिनिटों का क्लास पूरा हुआ और वे जाने लगे। बच्चों को विदा करने के लिए मैं हमेशा दरवाज़े तक जाती ही हूँ तो मैं पुनः दरवाज़े पर लौटी तो वही नव युवक उसी तरह पीठ पर प्लायवुड लादे खड़ा था।

पूछने पर वह बोला- यह तो छयालीसवाँ है। अभी चार और हैं। ट्रकवाला पचास प्लायवुड उतारकर चला गया है। दो घंटे में सब ऊपर ले जाना है।

– तो कोई साथी नहीं है तुम्हारे साथ जो मदद कर दे?

– नहीं, दुकानदार ने ट्रक के साथ मुझे ही भेजा है।

– कौन से फ्लोर पर जाना है?

– छठवें पर।

मैं अवाक होकर उसे देखने लगी कि इतना बड़ा और भारी वह भी पचास प्लायवुड इस अकेले मजदूर के लिए कितना कठिन होता होगा एक सौ से अधिक सीढ़ियों पर चढ़कर ले जाना फिर उतरना और फिर चढ़ना!

– पानी पियोगे बेटा?

– नहीं आंटी। कहकर वह अपने अंगोछे से पसीना पोंछने लगा।

कुछ देर विस्मित -सी उसे मैं देखती रही। उसका शरीर पसीने से लथपथ था। शरीर पर एक बिनियान था जो पसीने के कारण पूरा गीला था। कभी वह बनियान सफ़ेद तो निश्चित रहा होगा पर आज उसका रंग धूल मिट्टी और स्वेद के कारण पूरी तरह काला पड़ गया था।

मेरा भन भीषण व्याकुल हो उठा। कई चित्र आँखों के सम्मुख उभरने लगे।

बचपन से ईसा मसीह के बारे में सुनते तथा पढ़ते आ रहे हैं। दो चार फ़िल्में भी देखी हैं जहाँ ईसा को सज़ाए मौत दी जाती है और पूरे शहर से पीठ पर उसी सूली को उठाकर चलने की बाध्यता भी रखी गई थी बाद में जिस पर उन्हें कीलें ठोंककर चुनवा दिया गया था।

मनुष्य कितना कठोर, हिंसक, नृशंस और अत्याचारी हो सकता है इसकी सारी हदें रोमन्स पार कर चुके थे। यशु कमज़ोर तन और भीषण तीव्र मनोबलवाले पुरुष थे। वे तो द सन ऑफ़ गॉड माने जाते थे। शायद उन्हें विदित भी था कि उनका अंत मनुष्यों के हाथों इसी तरह से होगा।

पर आज! आज महज़ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए एक मजदूर के साथ ऐसा अन्याय ? इतनी कठोरता? जिसके घर फर्नीचर बनने के लिए ये पचास प्लायवुड आए हैं उन्हें तो संभवतः यह ज्ञात भी न होगा कि ये किस विधि ऊपर पहुँचाए गए होंगे। आज सब प्रकार की मशीनें,  मैन्यूअल लिफ्ट उपलब्ध हैं। फिर किसी ग़रीब के साथ उसकी विवशता का लाभ उठाते हुए इस तरह का व्यवहार क्यों किया जा रहा है भला?

मैंने जब युवक से पूछा कि पचास प्लायवुड ऊपर ले जेने के कितने पैसे मिलेंगे? तो वह चट बोला 2800 रुपये आंटी जी।

ईश्वर भला करे नौजवान का। संभवतः हर सीढ़ी चढ़ते समय उसने 2800रुपयों के करारेपन को अहसासों में महसूस किया होगा।

संभवतः उसकी किसी विशेष प्रयोजन में ये 2800 रुपये सहायक होंगे।

संभवतः वह भयंकर विवश रहा होगा।

पर जब रात को वह सोने गया होगा और फर्श पर अपनी पीठ टिकाई होगी तो क्या उसकी रीढ़ सीधी हो पाई होगी? भयंकर पीड़ा का अहसास न हुआ होगा? वह दर्द से कराह लेता रहा होगा। पर 2800 रपये के स्पर्श और गंध ने मरहम का काम भी किया होगा।

हाय रे प्रभु तेरी इस दुनिया में दरिद्र कितना असहाय है रे!

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/24 8.10pm

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ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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