हिंदी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार के पच्चीस वर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार

श्री संजय भारद्वाज 

 ☆ संस्मरण ☆ हिंदी आंदोलन परिवार के पच्चीस वर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज, हिंदी आंदोलन परिवार ☆

(हिंदी आंदोलन परिवार के स्थापना दिवस पर ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं)

आज 30 सितंबर 2020….आज ही के दिन 30 सितंबर 1995 को हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी हुई थी। मुझे याद है मैं और सुधा जी नियत समय से लगभग डेढ़ घंटे पहले महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सभागार में पहुँचे थे।

सरस्वती जी का चित्र, हार-फूल, दीप प्रज्ज्वलन का सारा सामान साथ था। जलपान के लिए इडली-चटनी, नमकीन, गुलाब जामुन, पेपर प्लेट, नेपकिन आदि भी साथ थे। सभागार के प्रवेशद्वार के सामने की जगह हमें गोष्ठी के लिए उपयुक्त लगी किंतु वहाँ धूल बहुत अधिक थी। सुधा जी ने झाड़ू थामी और जुट गईं स्वच्छता अभियान में।

सभागार में दरी नहीं थी। बाजीराव रोड पर ‘घर-संसार’ नामक दुकान थी। वे मंडप का सामान, शादी-ब्याह में लगनेवाली वस्तुएँ किराये पर देते थे। मैं वहाँ पहुँचा। दोपहर के भोजन के लिए दुकान बंद थी। बड़ी व्यग्रता से बीता दुकान खुलने तक का समय। बड़े आकार की एक मोटी दरी किराये पर ली। निर्देश यह कि दुकान फलां बजे बंद हो जायेगी, कल सुबह दरी लौटाई तो किराया दोगुना हो जायेगा। दरी में वज़न भी अच्छा-खासा था पर गोष्ठी के आयोजन का जुनून ऐसा कि दरी को कंधे पर लादकर तेजी से सभागार पहुँच गया।

(श्रीमती सुधा संजय भारद्वाज) 

हमारे विवाह को सवा तीन वर्ष बीत चुके थे। सुधा जी इस जुनून से परिचित होने लगी थीं। मेरे सभागार पहुँचने तक वे निर्धारित स्थान को स्वच्छ कर दीप प्रज्ज्वलन की तैयारी कर रही थीं। हमने दरी के दो छोर थामे और मिलकर दरी बिछाई। चार बजने को था। रचनाकार मित्रों को गोष्ठी के लिए चार बजे का समय दिया था। हमने हाथ से पत्र लिखकर लोगों को आमंत्रित किया था। प्रेस विज्ञप्ति बनाई थी जिसे एकाध समाचार पत्र ने संक्षिप्त सूचना के अंतर्गत प्रकाशित किया था।

राष्ट्रभाषा सभा के लक्ष्मी रोड स्थित पुस्तक बिक्री केंद्र और समिति के कार्यालय में बड़े कागज पर हाथ से पोस्टर बनाकर चिपकाया था। उन दिनों मोबाइल तो थे नहीं, टेलीफोन भी हर घर में नहीं होता था। अतः कितने लोग आएँगे, आएँगे भी या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं थी।

जानकारी भले ही नहीं थी पर “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्‌’ पर विश्वास था। विश्वास फलीभूत भी हुआ। समय पर मित्र आने लगे। आज के मुकाबले तब लोग समय के अधिक पाबंद थे। लगभग पचहत्तर वर्षीय श्रीकृष्ण केसरी नामक एक सज्जन अपनी धर्मपत्नी के साथ उरली कांचन जैसे दूर के इलाके से आए थे। सर्वश्री/ सुश्री मधु हातेकर, डॉ. निशा ढवले, डॉ. कांति लोधी, राजेंद्र श्रीवास्तव, महेंद्र पंवार, कृष्णकुमार गुप्ता जैसे कुछ उपस्थितों के नाम याद हैं। संभवतः थोड़े समय के लिए समिति के तत्कालीन संचालक डॉ. सच्चिदानंद परलीकर जी भी रुके थे। कुल जमा पंद्रह लोग थे। मज़े की बात ये थी कि यह आंदोलन की पहली और अब तक के इतिहास में अंतिम गोष्ठी थी जिसमें रु. 15/- सहभागिता शुल्क लिया गया था।

इस काव्य गोष्ठी के लिए उस समय तक विशुद्ध नाटककार रहे मेरे जैसे निपट गद्य लिखनेवाले ने ‘पांचाली’ नामक अपने जीवन की दूसरी ( उससे पूर्व ग्यारहवीं में ‘गरीबी’ शीर्षक से एक कविता लिख चुका था।) कविता प्रस्तुत की थी। सुधा जी की “गुमशुदा की तलाश’ कविता याद है। हम दोनों की स्मृति में रह गई डॉ. निशा ढवले की कविता “दरवाज़े।’

संचालन को बहुत सराहना मिली। विनम्रता और ईमानदारी की बात है कि संचालन की कोई विशेष पूर्व तैयारी न तब की थी, न आज करता हूँ। आयोजन सफल रहा।

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ कि गत 25 वर्षों में आंदोलन परिवार की 250 से अधिक गोष्ठियाँ और लगभग 50 ई-गोष्ठियाँ हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 100 अन्य आयोजन-संगोष्ठी, समाजसेवी उपक्रम और महाविद्यालयीन विद्यार्थियों के लिए प्रकल्प आदि के रूप में हो चुके हैं।

समय के साथ व्यक्ति परिपक्व होता है, चिंतन और कृति में थोड़ी स्थिरता आती है। अन्य मामलों में तो ये लागू हुई पर जाने क्या है कि आंदोलन के लिए जो जुनून तब था, उससे अधिक आज है। “कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूँके आपणा चले हमारे साथ।’ इतनी बार घर फूँका कि आग भी थक गई पर हर बार ब्रह्मा ही चिंतित हुए और इस निर्धन दंपति के लिए फिर घर खड़ा कर दिया। अब तो आंदोलन के समर्पित साथियों की इतनी भुजाएँ हो चुकी हैं कि हम सबके सामूहिक जुनून और सामुदायिक कृति से इस परिवार की चर्चा अखिल भारतीय स्तर पर होने लगी है।

अखिल भारतीय से एक बात और याद आई। आयु और पुणे का प्रभाव ऐसा कि पहली गोष्ठी के निमंत्रण पर संस्था का नाम ‘अखिल भारतीय हिंदी आंदोलन’ लिखा था। समय ने सिखाया कि हिंदी में राष्ट्रीय परिवेश अंतर्निहित है। अतः हिंदी आंदोलन पर्याप्त है । अब देश के अनेक भागों से “आप हिंदी आंदोलन वाले संजय भारद्वाज बोल रहे हैं..’ पूछनेवाले फोन आते हैं तो लगता है कि संस्था का काम ही उसका कार्यक्षेत्र तय करता है।

मित्रो! आज 30 सितंबर 2020 को हम 26 वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। हमसे अब और अधिक सकारात्मक क्रियाशीलता की आशा की जाएगी। आइए, बनाए और टिकाए रखें हमारे जुनून को। निरंतर स्मरण रखें हमारे घोषवाक्य “हम हैं इसलिए मैं हूँ’ याने “उबूंटू’ को।

उबूंटू!

©  संजय भारद्वाज 

☆ संस्थापक- अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार 

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी का संस्मरण  “डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक”)

☆ संस्मरण – डॉ. महाराज कृष्ण जैन – मेरे गुरु  मेरे पथप्रदर्शक ☆

गुरु शिष्य का नाता बहुत ही गहरा होता है। गुरु को माता-पिता, ईश्वर से भी पहले स्थान दिया गया है। तभी तो कहा गया है–

गुरु गोविन्द  दोउ खड़े,

काके   लागूं  पाय।

बलिहारी गुरु आपने,

जिन गोविन्द दियो मिलाय।।

मेरे जीवन में भी गुरु जी का एक विशेष स्थान रहा है। ये गुरु स्कूल के न होकर पत्राचार पाठ्यक्रम चलाने वाले डॉ. महाराज कृष्ण जैन हैं। 31 मई 1938 को हरियाणा के एक छोटे से शहर अम्बाला छावनी में जन्म लेकर सारे देश और विदेश में लोकप्रिय हुए साहित्यकार, कहानीकार के रूप में। पांच वर्ष की आयु से ही पोलियोग्रस्त डॉ. जैन ने सन् 1964 में लेखन सिखाने के लिए ‘कहानी लेखन महाविद्यालय’ संस्थान की स्थापना की और पत्राचार द्वारा रचनात्मक लेखन सिखाने का कार्य आरम्भ किया। देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में डॉ. महाराज कृष्ण जैन ने कहानी को न केवल लिखा व लिखना सिखाया बल्कि बहुत करीब से जिया भी। डॉ. जैन मासिक पत्रिका ‘शुभ तारिका’ के संस्थापक/संपादक भी थे।

उनकी शारीरिक अक्षमता उनके जीवन में कहीं भी आड़े नहीं आयी। बौद्धिक व मानसिक रूप से वे अत्यन्त स्वस्थ और सजग थे। उनका मनोबल देखते ही बनता था।

‘कहानी लेखन महाविद्यालय, में व्यवस्थापक के पद पर रहते हुए मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। किताबों का ज्ञान तो सभी गुरु अपने शिष्यों को देते हैं, किन्तु जो किताबी ज्ञान के अलावा दुनियादारी का व्यावहारिक ज्ञान भी दे, उस ज्ञान का महत्त्व बढ़ जाता है।

  • मैंने अपने गुरु से व्यावहारिक ज्ञान सीखा। उन्होंने मुझे बताया कि कैसे सदा दूसरों की मदद के लिये तैयार रहना चाहिए, किस प्रकार किसी ऑफिस (बैंक, पोस्टऑफिस या अन्य) में जाकर अपना काम करवाना चाहिए।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कभी भी ऋणात्मक सोच न रखो। वे हमेशा ही सकारात्मक सोच रखते थे और दूसरों को भी ऐसी ही सलाह दिया करते थे।
  • वे अनुशासन प्रिय थे। वे हर काम को साफ-सुथरा और सलीके से करने और करवाने में विश्वास रखते थे।
  • उन्होंने मुझे बताया कि कैसे खास मौकों पर करने वाले कामों की लिस्ट बना ली जाए और कौन-सा काम पहले करना है और कौन सा बाद में करना है। इससे एक तो कोई काम छूटता नहीं और दूसरे काम करने में कोई दिक्कत नहीं आती।

उनके जीवन की याद आज मेरे जीवन का मार्गदर्शक बन गई है। उन्हें याद कर मैं किसी भी कार्य को करने में हार नहीं मानता। धन्य हैं ऐसे गुरु। मेरा शत-शत नमन।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ वे कहते थे… – स्व वासुदेव प्रसाद खरे ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

(श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव जी का उनके पिताश्री स्वर्गीय वासुदेव प्रसाद खरे  की स्मृति में विशेष आलेख।)

☆ संस्मरण – वे कहते थे… – स्व वासुदेव प्रसाद खरे ☆

वे कहते थे… लोग तुमसे मदद मांगते हैं क्योकि तुम उस  काबिल हो।

“भगवान ने तुमको  टेबिल के उस पार बैठाया है, तो तुम्हें भगवान का काम करना चाहिये, क्योकि भगवान खुद अपने हाथों से कुछ नहीं करता वह तुम्हें सामने वाले की मदद के लिये माध्यम के रुप में चुनता है.”  मेरे पिता स्व वासुदेव प्रसाद खरे आजाद भारत शासन के समय के डिप्टी कलेक्टर थे. वे कमिश्नर होकर रिटायर हुये. पर जीवन भर वे आम आदमी के मददगार जन सेवक बने रहे.

वे सागर जिले के पंजीकृत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं. उन्हें ताम्र पत्र देकर सम्मानित किया गया था ।

हम सातो भाई बहनो को संस्कारित परवरिश दी और आज मेरे बड़े भाई अनेक राष्ट्रपति पुरस्कारो से सम्मानित सागर के आई जी श्री के पी खरे तथा हम सभी भाई बहन अपने अपने जीवन साथियो के साथ सात स्तंभों के रूप में सभी उच्च प्रथम श्रेणी पदों पर सेवारत हैं और मम्मी पापा की इस सीख के ध्वज संवाहक हैं. शायद स्वर्गीय पापा मम्मी की इसी सीख को उनके आशीष स्वरूप स्वीकारने के कारण ही हमारी अगली पीढ़ी के सभी बच्चे भी एक से बढ़कर एक वैश्विक प्रतिभा के रूप में संवर रहे हैं और उनमें परस्पर आत्मिक प्रेम ही नही सामने वाले की हर संभव मदद करने का जन्मजात जज्बा देखने मिल रहा है. हम बच्चो में इस स्वउद्भूत संस्कार को  अपने बुजुर्गो का आशीर्वाद मानते हैं.  “महाकाव्य देवयानी” व अन्य अनेक किताबें उनकी स्मृतियां अक्षुण्य बनाये हुये हैं.

©  श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण-14- बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………  ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 40 – बापू के संस्मरण – 14 – बिना मजदूरी किये खाना पाप है. ………

 एक समय अवधेश नाम का एक युवक वर्धा में गांधीजी के आश्रम में आया । बोला, “मैं दो-तीन रोज ठहरकर यहां सब कुछ देखना चाहता हूँ । बापूजी से मिलने की भी इच्छा है । मेरे पास खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं है । मैं यहीं भोजन करूँगा।”

गांधीजी ने उसे अपने पास बुलाया ।  पूछा, ” कहाँ के रहने वाले हो और कहाँ से आये हो?” अवधेश ने उत्तर दिया, “मैं बलिया जिले का रहने वाला हूँ । कराची कांग्रेस देखने गया था । मेरे पास पैसा नहीं है। इसलिए कभी मैंने गाड़ी में बिना टिकट सफर किया, कभी पैदल मांगता-खाता चल पड़ा । इसी प्रकार यात्रा करता हुआ आ रहा हूँ।”

यह सुनकर गांधीजी गम्भीरता से बोले,”तुम्हारे जैसे नवयुवक को ऐसा करना शोभा नहीं देता। अगर पैसा पास नहीं था तो कांग्रेस देखने की क्या जरुरत थी? उससे लाभ भी हुआ? बिना मजदूरी किये खाना और बिना टिकट गाड़ी में सफर करना, सब चोरी है और चोरी पाप है । यहाँ  भी तुमको बिना मजदूरी किये खाना नहीं मिल सकेगा।”

अवधेश देखने में उत्साही और तेजस्वी मालूम देता था । कांग्रेस का कार्यकर्ता भी था । उसने कहा “ठीक है । आप मुझे काम दीजिये । मैं करने के लिए तैयार हूँ ।” गांधीजी ने सोचा, इस युवक को काम मिलना ही चाहिए और काम के बदले में खाना भी मिलना चाहिए । समाज और राज्य दोनों का यह दायित्व है । राज्य जो आज है वह पराया है, लेकिन समाज तो अपना है । वह भी इस ओर ध्यान देता, परन्तु मेरे पास आकर जो आदमी काम मांगता है उसे मैं ना नहीं कर सकता । उन्होंने उस युवक से कहा,”अच्छा, अवधेश, तुम  यहाँ पर काम करो. मैं तुमको खाना दूँगा। जब तुम्हारे पास किराये के लायक पैसे हो जायें तब अपने घर जाना ।” अवधेश ने गांधीजी की बात स्वीकार कर ली और वह वहाँ रहकर काम करने लगा ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ पिता का पत्र पुत्री के नाम ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

हम आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  के हृदय  से आभारी हैं जिन्होंने  अभिभावकों एवं विद्यार्थियों के मार्गदर्शक के रूप में एक ऐतिहासिक पत्र हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है। लगभग 87 वर्ष पूर्व लिखा यह पत्र  मात्र पत्र  ही नहीं अपितु एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जो आज भी प्रासंगिक है, जिसे राजनीतिक नहीं अपितु सामाजिक उत्थान के दृष्टिकोण से पढ़ा जाना चाहिए। इन पत्रों एवं पुस्तकों से सम्बंधित स्व पंडित जवाहरलाल नेहरू जी एवं स्व श्रीमती इंदिरा गाँधी जी के कई चित्र इंटरनेट पर उपलब्ध हैं किन्तु उन्हें कॉपीराइट कारणों से नहीं दे रहे हैं। 

श्री अरुण डनायक जी  के ही शब्दों में 

यह पत्र आज से कोई 87 वर्ष पहले एक पिता ने अपनी चौदह वर्षीय पुत्री को जेल से पत्र लिखा। उन्होंने और भी बहुत सारे पत्र लिखे पर यह पत्र महत्वपूर्ण है, इसलिए कि बच्चे इस उम्र मे अपरिपक्व होते हैं और उन्हें अपने भविष्य की योजनाएँ बनाने हेतु मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। यह पत्र आज भी प्रासंगिक है क्योंकि आज भी इस उम्र के बच्चों को क्या पढ़ा जाय और कैसा व्यवसाय चुना जाय, भविष्य की क्या योजना हो, बताने वाला शायद  कोई नहीं है। मैंने जब इस पत्र को पढ़ा , जोकि मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया था, तो सोचा कि इसे सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित करूँ और साथ ही उन चौबीस स्कूलों के शिक्षकों को भी प्रेषित करूँ, जहाँ मेरे स्टेट बैंक के सेवानिवृत साथियों व अन्य मित्रों  के सहयोग से स्मार्ट क्लास शुरू की गई हैं, ताकि उन हज़ारों बच्चों को कुछ मार्गदर्शन मिल सके जिनके माता पिता उनसे बड़ी उम्मीदें पाल बैठे हैं।

☆ पिता का पत्र पुत्री के नाम ☆

देहरादून जेल

23 जनवरी 1933

प्यारी इंदु

साढ़े सात महीने के बाद होनेवाली हमारी मुलाक़ात आई और गई, तुम फिर बहुत दूर पूना में हो। तुम्हे तंदुरुस्त और खुश देखकर  मुझे अच्छा लगा। लेकिन ऐसी मुख्तसिर मुलाक़ात से क्या  फ़ायदा  जब हर बातचीत के लिए जल्दी करनी पड़े और बारबार घड़ी पर निगाह रखनी पड़े ? जो बहुत सी बातें मैं तुमसे कहना और दरियाफ्त करना चाहता था, उनमे से बहुत थोड़ी ही उस वक्त मुझे याद आ सकी। अब फिर मैं कई महीनों तक तुम्हे नहीं देख सकूंगा।

मैंने ख़त लिखकर मिस्टर वकील को यह सुझाव दिया है कि मैट्रिकुलेशन के बजाय तुम सीनिअर कैम्ब्रिज के लिए तैयारी करो। आगे अगर तुम्हे यूरोप में पढ़ना है तो सीनियर गालिबन ज्यादा मुनासिब रहेगा। आगे तुम कहाँ पढ़ोगी, यह मैं नहीं जानता। कभी मिलने पर इस पर गौर करना होगा। कोई जल्दी नहीं है। बहुत कुछ इस पर मुनहसिर होगा कि तुम क्या बनना चाहती हो। तुमने कभी इस बारे में सोचा है ? पिछले साल तुमने एक बार मुझे लिखा था कि तुम शिक्षक बनना चाहती हो। दूसरों को पढ़ाना बहुत बढ़िया काम है, लेकिन बेशक पढ़ाया तभी जा सकता है जब खुद बहुत सा सीख लिया गया हो। दुनिया में और बहुत से दिलकश काम हैं लेकिन अच्छी तरह से कुछ भी करने के लिए बहुत काफी ट्रेनिंग की जरूरत होती है। हिन्दुस्तान में लड़कों या लड़कियों के सामने रोज़गार या काम के बहुत से रास्ते नहीं खुले रहते। लड़कों की बड़ी तादाद वकील बनना या नौकरी करना चाहती है। लडकियाँ भी उसी ढर्रे पर चलने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन यह तो पैसा कमाने का एक रास्ता हैI पैसा कमाना ही काफी अच्छी बात नहीं है, हालांकि मौजूदा दुनिया में कुछ पैसा कमाना ही पड़ता है। ज्यादा महत्व इस बात का है कि कुछ उपयोगी काम किया जाय, जिससे उस बड़े समाज का हित हो जिसमें हम रहते हैंI अपने पुराने पेशे वकालात को मैं निहायत नापसंद करता हूँ। मैं इसे असमाजिक पेशा कहता हूँ, क्योंकि इससे समाज को कोई फायदा नहीं होता। यह लोगों को लालची बना देता है और सिर्फ होशियार बनाता है कि दूसरों का खून चूसा जा सके। इस वास्ते मैं वकालात को अच्छा नहीं कह सकता। वह न कोई चीज पैदा करता है और न दुनिया की अच्छी चीजों में बढ़ोतरी करता है। वह तो महज दूसरों की चीजों का हिस्सा ले लेता है।

वकील के पेशे की तरह कुछ दूसरे असमाजिक धंधे भी हैं। दरअसल आज भी हिन्दुस्तान में सबसे ज्यादा इज्जत उन्ही लोगों को हासिल है जो खुद कुछ नहीं करते और उनके पुरखे उनके लिए जो कुछ छोड़ गए हैं, उसी के सहारे ऐशो इशरत की जिन्दगी बसर करते हैं। हमें इन सारे असमाजिक लोगों का ख्याल नहीं करना चाहिए।

काम के सामाजिक और उपयोगी स्वरुप क्या हैं? वे इतने सारे हैं कि मैं एक सूची तक नहीं बना सकताI हमारी आज की दुनिया ऐसी पेचीदा है कि इसे चालू रखने के लिए हज़ारों किस्म के कामों के जरूरत है। ज्यों ज्यों तुम बड़ी होती जाओगी और पढ़ोगी और तुम्हारी जानकारी का दायरा बढेगा , तुम्हे तरह तरह के इन कामों की कुछ झाँकी मिलेगी–दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में करोड़ों लोग सामान तैयार कर रहे हैं-खाना, कपड़ा और बेशुमार दीगर चीजें। करोड़ों आदमी इन चीजों को दूसरों तक पहुंचा रहे हैं और बाँट रहे हैं। किसी दूकान पर तुम कोई चीज खरीदती हो। दूकान के पीछे सब तरह की फैक्टरियां और मशीने और मजदूर और इंजीनियर हैं। और फैक्टरियों के पीछे खेत हैं और खानें हैं, जिनसे कच्चा माल मिलता है। यह सब बहुत पेचीदा और दिलकश है। और करने लायक काम यह है कि हममें से हर किसी को इस उपयोगी काम में हाथ बँटाना चाहिए।

हम वैज्ञानिक बन सकते हैं, क्योंकि आज हर चीज के पीछे विज्ञान है ; या फिर हम इंजीनियर हो सकते हैं या वे जो विज्ञान का उपयोग आदमी की रोजाना जरूरतों के लिए करते हैं; या डाक्टर हो सकते हैं , जो इंसान की तकलीफ कम करने के लिए विज्ञान का उपयोग करते हैं और सफाई वगैरह के तरीकों और दीगर रोक-थाम के उपायों से बीमारियों को जड़ से उखाड़ते हैं; शिक्षक और शिक्षाविद हो सकते हैं, जो सब उम्र के बच्चों से लेकर बालिग़ मर्द-औरतों तक को पढ़ाते हैं ; या नए जमाने की जानकारी वाले किसान बनकर नए वैज्ञानिक उपायों से पैदावार बढ़ा सकते और इस तरह देश की दौलत बढ़ा सकते हैंI इसी तरह के बहुतेरे काम हो सकते हैं।

मैं तुमसे जो कहना चाहता हूँ वह यह है कि हम उस बहुत बड़ी जीती जागती चीज के हिस्से हैं, जिसे समाज कहते हैं, जिसमे सब तरह के मर्द-औरतें और बच्चें हैं। हम इस बात को नज़रअंदाज नहीं कर सकते और अपनी मर्जी के मुताबिक़ जो चाहें वही नहीं करते रह सकते। यह तो वैसा ही होगा जैसे हमारी एक टांग बाकी जिस्म की परवाह किये बिना चलने का फैसला कर ले। इसलिए हमें अपने काम का डौल इस तरह बैठाना पड़ता है कि समाज को अपना काम निबटाने में मदद मिले, हिन्दुस्तानी होने की वजह से हमें हिन्दुस्तान में काम करना होगा। हमारे मुल्क में तरह तरह के तब्दीलियाँ होने जा रही हैं और कोई नहीं कह सकता की कुछ बरसों में इसकी शक्ल क्या होगी। लेकिन जिसे कुछ उपयोगी काम करने के ट्रेनिंग मिल चुकी है वह समाज का एक बेशकीमती सदस्य होता है।

मैंने यह सब सिर्फ इसलिए लिखा है कि तुम इसके बारे में सोच सको। बेशक मैं चाहता हूँ कि जब तुम बड़ी हो जाओ तो मजबूत बनो, अपने पैरों पर खडी हो सको और उपयोगी काम करने के लिए अच्छी तरह तालीम पा चुकी होओI तुम दूसरों पर मुनहसिर नहीं रहना चाहती। फैसला करने की अभी कोई जल्दी नहीं है।

अगर अपनी पढ़ाई के लिए तुम यूरोप जाना चाहो तो तुम्हे फ्रांसीसी भाषा अच्छी तरह से जाननी चाहिएI मैं यह भी चाहूँगा कि तुम जर्मन भी जान जाओ क्योंकि बहुत सी बातों के लिए यह काफी फायदेमंद है। लेकिन उसकी जल्दी नहीं है। उम्र जितनी कम होती है , भाषाएं सीखना उतना ही आसान होता है।

क्या तुम जानती हो कि अब तुम लगभग ठीक उसी उम्र की हो जो मेरी थी, जब मैं पहली बार दादू के साथ इंग्लैंड गया था और हैरो स्कूल में भर्ती कराया गया था। यह बहुत पुरानी बात है, 28 साल पहले की !

आज यहाँ बर्फ गिरी है और सारे पहाड़ बर्फ से फिर ढक गए हैं। इस खुशनुमा नज़ारे को देखने की खुशकिस्मती तुम्हे हासिल नहीं हो सकी।

मेरा ढेर सारा प्यार,

तुम्हारा प्यारा

पापू

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 37 – बापू के संस्मरण-12- वह मजदूर कहां है ? …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –वह मजदूर कहां है ? ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 38 – बापू के संस्मरण – 12 – वह मजदूर कहां है ? …… 

चम्पारन में निलहे गोरों के विरुद्ध जांच का काम चल रहा था। गांधीजी के आसपास काफी लोग इकट्ठे हो गये थे ।

उनमें कुष्ठ-रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था । वह पैरों में चिथड़े लपेटकर चलता था । उसके घाव खुल गये थे और पैर  सूज गये थे। उसे असह्य वेदना होती थी, लेकिन न जाने किस आत्म- शक्ति के बल पर वह अपना काम कर रहा था ।

एक दिन चलते-चलते उसके पैरों के चिथड़े खुलकर रास्ते में गिर गये, घावों से खून बहने लगा, चलना दूभर हो गया। दूसरे साथी आगे बढ़ गये। गांधीजी तो सबसे तेज चलते थे। वह सबसे आगे थे । उस रोगी की और किसी ने ध्यान नहीं दिया । अपने आवास पर पहुंचकर जब सब लोग प्रार्थना के लिए बैठे तो गांधीजी ने उसको नहीं देखा । पूछा,` हमारे साथ जो मजदूर था, वह कहां है?

एक व्यक्ति ने कहा, वह जल्दी चल नहीं पा रहा था । थक जाने से एक पेड़ के नीचे बैठ गया था । गांधीजी चुप हो गये और हाथ में बत्ती लेकर उसे खोजने निकल पड़े । वह मजदूर एक पेड़ के नीचे बैठा रामनाम ले रहा था। गांधीजी को देखकर उसके चेहरे पर प्रकाश चमक आया ।

गांधीजी ने कहा, तुमसे चला नहीं जा रहा था तो मुझे कहना चाहिए था, भाई ।

उन्होंने उसके खून से सने हुए पैरों की ओर देखा. चादर फाड़कर उन्हें लपेटा । फिर सहारा देकर उसे अपने आवास पर ले आये। उस दिन उसके पैर धोकर ही उन्होंने अपनी प्रार्थना शुरू की ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?

हरिशंकर परसाई – 

हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।

लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।

किसी  भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 56

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – समर्पित ☆ 

 

जय प्रकाश पाण्डेय –

आपने अपनी कोई भी पुस्तक प्रकाशित रुप में कभी किसी को समर्पित नहीं की, जबकि विश्व की सभी भाषाओं में इसकी अत्यंत समृद्ध परंपरा मिलती है।आपके व्यक्तित्व व लेखन दोनों की अपार लोकप्रियता को देखते हुए यह बात कुछ अधिक ही चकित करती है ?

हरिशंकर परसाई – 

यह समर्पण की परंपरा बहुत पुरानी है। अपने से बड़े को, गुरु को, कोई यूनिवर्सिटी में है तो वाइस चांसलर को समर्पित कर देते हैं।कभी किसी आदरणीय व्यक्ति को,कभी कुछ लोग पत्नियों को भी समर्पित कर देते हैं। कुछ में साहस होता है तो प्रेमिका को भी समर्पित कर देते हैं। ये पता नहीं क्यों हुआ है ऐसा।कभी भी मेरे मन में यह बात नहीं उठी कि मैं अपनी पुस्तक किसी को समर्पित कर दूं।जब मेरी पहली पुस्तक छपी, जो मैंने ही छपवाई थी, तो मेरे सबसे अधिक निकट पंडित भवानी प्रसाद तिवारी थे, अग्रज थे, नेता थे, कवि थे,, साहित्यिक बड़ा व्यक्तित्व था, उनसे मैंने टिप्पणी तो लिखवाई किन्तु मैंने समर्पण में लिखा-‘उनके लिए,जो डेढ़ रुपया खर्च करके खरीद सकते हैं।ये समर्पण है मेरी एक किताब में। लेकिन वास्तव में यह है वो- उनके लिए जिनके पास डेढ़ रुपए है और जो यह पुस्तक खरीद सकते हैं, उस समय इस पुस्तक की कीमत सिर्फ डेढ़ रुपए थी।सस्ता जमाना था, पुस्तक भी करीब सवा सौ पेज की थी। इसके बाद मेरे मन में कभी आया ही नहीं कि मैं किसी के नाम समर्पित कर दूं अपनी पुस्तक। जैसा आपने कहा कि मैंने तो पाठकों के लिए लिखा है, तो यह समझ लिया जाये कि मेरी पुस्तकें मैंने किसी व्यक्ति को समर्पित न करके तमाम भारतीय जनता को समर्पित कर दी है।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 58 ☆ संस्मरण – हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर संस्मरण “हमारे मित्र  डॉ लालित्य ललित जी।  श्री विवेक जी ने  डॉ लालित्य ललित जी  के बारे में थोड़ा  लिखा  ज्यादा पढ़ें की शैली में बेहद संजीदगी से यह संस्मरण साझा किया है।। इस संस्मरण  को हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 58 ☆

 

☆ संस्मरण –  हमारे मित्र डॉ लालित्य ललित जी ☆

खाने के शौकीन, घुमक्कड़, मन से कवि,  कलम से व्यंग्यकार हमारे मित्र  लालित्य ललित जी!

गूगल के सर्च इंजिन में किसी खोज के जो स्थापित मापदण्ड हैं उनमें वीडियो, समाचार, चित्र, पुस्तकें प्रमुख हैं.

जब मैंने गूगल सर्च बार पर हिन्दी में लालित्य ललित लिखा और एंटर का बटन दबाया तो आधे मिनट में ही लगभग ३१ लाख परिणाम मेरे सामने मिले. यह खोज मेरे लिये विस्मयकारी है. यह इस तथ्य की ओर भी इंगित करती है कि लालित्य जी कितने कम्प्यूटर फ्रेंडली हैं, और उन पर कितना कुछ लिखा गया है.

सोशल मीडिया पर अनायास ही किसी स्वादिष्ट भोज पदार्थ की प्लेट थामें परिवार या मित्रो के साथ  उनके  चित्र मिल जाते हैं. और खाने के ऐसे शीौकीन हमारे लालित्य जी उतने ही घूमक्कड़ प्रवृत्ति के भी हैं. देश विदेश घूमना उनकी रुचि भी है, और संभवतः उनकी नौकरी का हिस्सा भी. पुस्तक मेले के सिलसिले में वे जगह जगह घूमते लोगों से मिलते रहते हैं.

मेरा उनसे पहला परिचय ही तब हुआ जब वे एक व्यंग्य आयोजन के सिलसिले में श्री प्रेम जनमेजय जी व सहगल जी के साथ व्यंग्य की राजधानी, परसाई जी की हमारी नगरी जबलपुर आये थे. शाम को रानी दुर्गावती संग्रहालय के सभागार में व्यंग्य पर भव्य आयोजन संपन्न हुआ, दूसरे दिन भेड़ागाट पर्यटन पर जाने से पहले उन्होने पोहा जलेबी की प्लेटस के साथ तस्वीर खिंचवाई और शाम की ट्रेन से वापसी की.

मुझे स्मरण है कि ट्रेन की बर्थ पर बैठे हम मित्र रमेश सैनी जी ट्रेन छूटने तक लम्बी साहित्यिक चर्चायें करते रहे थे.

इसके बाद उन्हें लगातार बहुत पढ़ा, वे बहुप्रकाशित, खूब लिख्खाड़ लेखक हैं. व्यग्यम की गोष्ठियो में हम व्यकार मित्रो ने उनकी किताबों पर समीक्षायें भी की हैं. मैं अपने समीक्षा के साप्ताहिक स्तंभ में उनकी पुस्तक पर लिख भी चुका हूं. वे अच्छे कवि, सफल व्यंग्यकार तो हैं ही सबसे पहले एक खुशमिजाज सहृदय इंसान हैं, जो यत्र तत्र हर किसी की हर संभव सहायता हेतु तत्पर मिलता है. अपनी व्यस्त नौकरी के बीच इस सब साहित्यिक गतिविधियो  के लिये समय निकाल लेना उनकी विशेषता है.

वे बड़े पारिवारिक व्यक्ति भी हैं, भाभी जी और बच्चो में रमे रहते हुये भी निरंतर लिख लेने की खासियत उन्ही में है. इतना ही नही व्यंग्ययात्रा व्हाट्सअप व अब फेसबुक पर भी समूह के द्वारा देश विदेश के ख्याति लब्ध व्यंग्यकारो को जोड़कर सकारात्मक, रचनात्मक, अन्वेषी गतिविधियों को वे सहजता से संचालित करते दिखते हैं.

मैं उनके यश्स्वी सुदीर्घ सुखी जीवन की कामना करता हूं, व अपेक्षा करता हूं कि उनका स्नेह व आत्मीय भाव दिन पर दिन मुझे द्विगुणित होकर सदा मिलता रहेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य ☆ होली पर्व विशेष – अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2☆ प्रस्तुति – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  उनके । द्वारा संकलित  बाल साहित्यकारों की यादगार  होली के संस्मरण ।  ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं।  यह इस कड़ी का अंतिम भाग है।  हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )

श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –

“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी  निकालने का तरीका रह गई है.

क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”

प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2 ☆

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल”

गौरव वाजपेयी “स्वप्निल” एक नवोदित बालसाहित्यकार है. ये बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे है. उन का कहना है कि मेरे बचपन की यादगार होली रही है. यह बात वर्ष 1991 की है. तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था. होली पर मेरे गृहनगर शाहजहाँपुर में लाट साहब का जुलूस निकलता है.वैसे तो सड़क पर जा कर हर बार बड़ों के साथ मैं यह जुलूस देखता था, किन्तु उस वर्ष पहली बार मैं कुछ जान-पहचान के हमउम्र लड़कों के साथ जुलूस के साथ आगे चलता चला गया. ढोल व गाजे-बाजे के मधुर संगीत और चारों ओर बरसते रंगों का हम भरपूर आनन्द ले रहे थे.

परिवार के बड़े लोगों ने हमें ज़्यादा दूर जाने से मना किया था, पर होली के रंग-बिरंगे उल्लास में डूबे हम चलते-चलते ऐसे अनजान मोहल्ले में पहुँच गए जहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के शराब के नशे में धुत्त थे. वापस लौटते समय उन्हों ने हमें घेर लिया. अपशब्द कहते हुए हमारे कपड़े फाड़ दिए.

हमने बहुत हाथ-पैर जोड़े. पर, नशे में धुत्त उन लड़कों ने हमारी एक न सुनी. हम बहुत दुःखी हुए. बेहद शर्मिंदगी के साथ घर वापस लौटे.घर पर बड़ों से बहुत डाँट भी खानी पड़ी थी. तब पहली बार एहसास हुआ कि बड़ों की बात न मानना कितना भारी पड़ सकता है.

राजेंद्र श्रीवास्तव

राजेंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे कवि और लेखक है. आप बताते हैं कि अपने गाँव की एक होली हमें आज भी याद है.वे लिखते हैं कि हमारे गाँव में होलिका दहन के अगले दिन होली की राख और धूल लेकर बच्चे बूढ़े घर-घर जाते थे. उसे किसी भी आँगन या बंद दरवाजे पर फेंक कर आते थे.

दूसरे दिन का हम बच्चों को बेसब्री से रहता था. सुबह  लगभग नौ-दस बजे गाँव के बड़े-बूढ़े  घरों में बनाए गोबर के गोवर्धन का थोड़ा सा गोबर, होलिका स्थल पर लेकर जाते. तब तक हम बच्चे अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव की एक मात्र गली में मुखिया जी के घर के सामने की ढलान की ऊँचाई पर गोबर इकठ्ठा कर लेते.

जब गाँव के बड़े-बूढ़े लौटकर आते तो उन्हे रोकने के लिए गोबर के हथगोले बना कर उन पर फेंकते. उस तरफ से वह गुट भी टोकरी आदि की ओट लेकर हमारी ओर आने का जतन करते. ढपला, झाँझ व छोटे नगाड़ों के शोर में यह गोबर युद्ध तब तक चलता, जब तक हम लोगों का गोबर का भंडार खत्म न हो जाता. या कि गोबर खत्म होने से पहले ही गाँव के मुखिया किसी तरह बचते-बचाते हमारी सीमा में न आ जाते.

उसके बाद एक-दूसरे पर गोबर पोतते हुए दोपहर हो जाती. तब सभी अपने कपड़े लेकर नदी की ओर दौड़ जाते. जीभर नहाते. घर आकर अगले दिन होने वाली रंग की होली की योजना बनाने लगते.

इस तरह तीन दिन क्रमशः धूल, गोबर और रंग की होली की हुड़दंग में पूरा गाँव एक नजर आता. आजकल ऐसी होली नजर नहीं आती है.

इंद्रजीत कौशिक 

इंद्रजीत कौशिक एक प्रसिद्ध कहानीकार है. आप बच्चों को लिए बहुत लिखते हैं. आप को होली का एक संस्मरण याद आता है. आप लिखते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई के उपरांत मैं स्थानीय समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने लग गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा शहर— बीकानेर भांग प्रेमियों के लिए विख्यात है.

उसी वक्त की बात है कि होली का त्यौहार पास आता जा रहा था. समाचार पत्र के कार्यालय में नवोदित एवं वरिष्ठ साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था. उन के सानिध्य में मैंने लिखना शुरू भी कर दिया था. ऐसे ही एक दिन साहित्यकारों के बीच मिठाई और नमकीन के रूप में विश्वविख्यात बीकानेरी भुजिया का दौर शुरू हुआ. साहित्यकारों की टोली ने मुझे भी आमंत्रित किया तो मैं भी जा पहुंचा उन के बीच ।

” लो तुम यह लो स्पेशल वाली भुजिया ” मैं ने भुजिया देखी तो खुद को रोक न सका.भुजिया चीज ही कुछ ऐसी है जितना भी खाओ पेट भरता ही नहीं . अभी एक दो मुट्ठी भुजिया ही खाए थे कि  स्पेशल भुजिया ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल वे भाँग के भुजिया थे. यानी कि उन में भांग मिलाई हुई थी.

फिर क्या था,चक्कर आने शुरू हुए तो रुके ही नहीं. मुझे उस का नशा होता देख किसी ने सलाह दी,” अरे भाई, जल्दी से छाछ गिलास भर के पिला दो. नशा उतर जाएगा.”तब झटपट पड़ोस से छाछ मंगवाई गई.दोतीन गिलास मुझे पिला दी गई.नुस्खा कामयाब रहा. थोड़ी देर बात स्थिति सामान्य हुई. तब मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी बिना सोचे विचारे कोई चीज मुंह में डालने की नहीं सोचूँगा.

अच्छा तो यही होगा कि होली जैसे मस्त त्यौहार पर नशे पते से दूर ही रहा जाए. यही सबक मिला था उस पहली यादगार होली से.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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