(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले”।)
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☆ “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
म.प्र.के बैतूल जिले के एक गांव में 07.11.1936 को चंद्रकांत देवताले का जन्म हुआ था। वे जितने उम्दा कवि-लेखक, समीक्षक थे, उतने ही सरल और फक्कड़ इंसान थे। अस्सी बरस की आयु पूरी कर वे 14 अगस्त 2017 को वे इस दुनिया को अलविदा कह कर चले गए।
मैं आता रहूंगा
उजली रातों में
चन्द्रमा को गिटार सा बजाऊंगा
तुम्हारे लिए
वे आधुनिक जीवन की विविधताओं और विडम्बनाओं के ऐसे कवि हैं जिनकी जड़ें गांव कस्बों के निम्न मध्यवर्गीय जीवन में थीं। उनके काव्य संग्रह के नाम कुछ तरह के हैं ‘हड्डियों में छिपा ज्वर,’ ‘लकड़बघ्घा हंस रहा है,’ ‘भूखंड तप रहा है,’ ‘रौशनी के मैदान की तरफ़,’ ‘आग हर चीज़ में बताई गयी थी,’ ‘पत्थर की बेंच,’ ‘इतनी पत्थर रौशनी,’ ‘उजाड़ में संग्रहालय,’ ‘बदला बेहद मंहगा सौदा’ …. वे ऐसे तो वर्ष 1954 से कविता लिख रहे थे; पर उनकी पहचान साठोत्तरी पीढ़ी के कवियों के साथ जुड़ी थी| विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी देवताले की कविताएं अनूदित हुईं हैं। वे लम्बे समय तक प्रेमचंद सृजनपीठ’ उज्जैन के निदेशक भी रहे। मध्य प्रदेश शासन के ‘शिखर सम्मान,’ ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान के साथ-साथ ‘पहल सम्मान’ और ‘सृजन भारती’ सम्मान से सम्मानित देवताले जी ने दिलीप चित्रे की प्रतिनिधि कविताओं का मराठी से अनुवाद भी किया था। उन्होंने कविताओं में अपनी बात बहुत आत्मीयता के साथ,लेकिन सीधे और मारक तरीके से कही है, उनकी एक कविता ‘अन्तिम प्रेम’ की चार पंक्तियां…
“ऐसे ज़िंदा रहने से नफ़रत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकते रहूँ
मेरे दुश्मन न हों
और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूं”
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद”।)
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☆ “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
“क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे”
ऐसी बात लिखने वाले प्रेमचंद 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गांव में पैदा हुए हिन्दी-उर्दू के इस सबसे बड़े साहित्यकार ने बचपन से ही गरीबी और अभाव को देखा। पिता डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे। यही कारण है कि हालात से पैदा हुआ साहित्य जब कागज पर लिखा गया तो उसमें विकास के भागते पहिये की झूठी चमक नहीं बल्कि आजादी की आधी से ज्यादा सदी गुजर जाने के बावजूद लालटेन-ढ़िबरी के युग में जीने को मजबूर ग़रीब-गुरबों और मेहनत-मशक़्क़त करनेवालों की निगाहों के सामने छाए घुप्प अंधेरे का जिक्र था।
धनपतराय से प्रेमचंद बनने का सफर दिलचस्प है, लेकिन साथ ही बहुत ज्यादा भावुक भी। उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता का देहांत हो गया। आठ साल की उम्र से जो विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय का शुरू हुआ वह अपने जीवन के अन्त तक लगातार उससे जूझते रहे। मां के देहांत के बाद उनके पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम और स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। उनका जीवन गरीबी में ही पला। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली मां का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
पिता ने 15 साल की उम्र में ही विवाह करवा दिया. पत्नी के बारे में प्रेमचंद ने लिखा है,” उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी. जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया। उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया। मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।”
विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिताजी का देहांत हो गया। अचानक उनके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पांच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी।
प्रेमचंद की कालजयी कृतियों पर नजर डालें तो लम्बी कतार इस प्रकार है…सेवासदन १९१८ प्रेमाश्रम१९२२ रंगभूमि १९२५ निर्मला१९२५ कायाकल्प१९२७ गबन १९२८ कर्मभूमि १९३२ गोदान १९३६ मंगलसूत्र (अपूर्ण) उपन्यास व अंधेर, अनाथ लड़की, अपनी करनी, अमृत, अलग्योझा, आख़िरी तोहफ़ा, आख़िरी मंज़िल, आत्म-संगीत, आत्माराम, आधार, आल्हा, इज्ज़त का ख़ून, इस्तीफ़ा, ईदगाह, ईश्वरीय न्याय, उद्धार, एक ऑंच की कसर, एक्ट्रेस, कप्तान साहब, कर्मों का फल, क्रिकेट मैच मचंद, कफ़न, कवच, क़ातिल, कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो, कौशल, ख़ुदी, ग़ैरत की कटार, गुल्ली डंडा, घरजमाई, घमन्ड का पुतला, ज्योति, जेल, जुलूस, ठाकुर का कुआँ, झाँकी, तेंतर, त्रिया चरित्र, तांगेवाले की बड़, तिरसूल, दण्ड, दुर्गा का मन्दिरचंद, देवी-1 चंद, देवी-2, दूसरी शादी, दिल की रानी, दो सखियाँ, धिक्कार-1, धिक्कार-2, नेउर मचंद, नेकी, नब़ी का नीति-निर्वाह चंद, नरक का मार्ग, नैराश्य, नैराश्य लीला, नशा, नसीहतों का दफ्तर, नागपूजा, नादान दोस्त, निर्वासन, पंच परमेश्वर, पत्नी से पति, पुत्र-प्रेम, पैपुजी, प्रतिशोध, प्रेम-सूत्र, पर्वत-यात्रा, प्रायश्चित, परीक्षा, पूस की रात, बड़े घर की बेटी, बड़े बाबू, बड़े भाई साहब, बन्द दरवाज़ा, बाँका ज़मीदार, बेटों वाली विधवा, बैंक का दिवाला, बोहनी, मैकू, मंत्र, मंदिर और मस्जिद, मनावन, मुबारक बीमारी, ममता, माँ, माता का हृदय, मिलाप, मोटेराम जी शास्त्री, र्स्वग की देवी, राजहठ, रामलीला, राष्ट्र का सेवक, लैला, वफ़ा का खंजर, वासना की कड़ियाँ, विजय, विश्वास, शंखनाद, शूद्र, शराब की दुकान, शांति, शादी की वजह, शोक का पुरस्कार, स्त्री और पुरुष, स्वर्ग की देवी, स्वांग, सभ्यता का रहस्य, समर यात्रा, समस्या, सैलानी बंदर, स्वामिनी, सिर्फ़ एक आवाज़, सोहाग का शव, सौत, होली की छुट्टी (कहानियां), ‘संग्राम’ (1923), ‘कर्बला’ (1924) और ‘प्रेम की वेदी’ (1933) …….
वर्तमान मे प्रेमचंद के नाम से आये दिन पुरस्कारों एवं सम्मानों की घोषणा होती रहती है । लेकिन प्रेमचंद को उनके जीवन काल मे किसी भी पुरस्कार एवं सम्मान से नवाजे जाने का जिक्र नहीं मिलता । दरअसल प्रेमचंद ने कभी किसी पुरस्कार या सम्मान के लिए नही लिखा । वे ताउम्र मानव समाज के हर वर्ग के आम आदमी के अधिकारों को उन्हे दिलाने हेतु अपनी रचनाओं के माध्यम से संघर्षरत रहे ।
प्रेमचंद जी ने अपने एक वक्तव्य में कहा है _
“मेरा अभिप्राय यह नही है कि जो कुछ लिख दिया जाय, वह सबका सब साहित्य है। साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चाइयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हों। तिलिस्माती कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं और प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने में हम भले ही प्रभावित हुए हों, पर अब उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसमें सन्देह नहीं कि मानव-प्रकृति का मर्मज्ञ साहित्यकार राजकुमारों की प्रेम-गाथाओं और तिलिस्माती कहानियों में भी जीवन की सच्चाइयां वर्णन कर सकता है, और सौंदर्य की सृष्टि कर सकता है; परन्तु इससे भी इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सच्चाइयों का दर्पण हो। फिर आप उसे जिस चौखट में चाहें, लगा सकते हैं – चिड़े की कहानी और गुलो-बुलबुल की दास्तान भी उसके लिए उपयुक्त हो सकती है।
साहित्य की बहुत-सी परिभाषाएं की गई हैं, पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ है। चाहे वह निबंध के रूप में हों, चाहे कहानियों के या काव्य के, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।”
किसी ने पूछा – एक अच्छा इंसान बनने के लिए क्या करना चाहिए?
जबाब – प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए।
प्रेमचंद आपको चुपचाप वो सिखा देते हैं जो बड़े से बड़ा धार्मिक साहित्य, उपदेशक, विमर्शकार नही सिखा पाएगा।
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री अजय कुमार मिश्रा जी द्वारा लिखित – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी ”।)
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☆ “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार – स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
(95वी जन्म जयंती पर विशेष)
बौद्धिक परिपक्वता और साहित्यिक गरिमा का जो समन्वय पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के साहित्य में मिलता है वह और कही देखने को नही मिलता वह साहित्य क्षेत्र के एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र रहे जिन्होंने अपनी लेखनी राष्ट्र जीवन से जुड़े अधिकाश विषयों तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों पर चलाई और विभिन्न अवसरों पर भी उन्होंने अपने भाषणों में इन विषयों का उल्लेख किया है जो उन्हे साहित्यिक पितामह प्रमाणित करने में पर्याप्त हैं । उनका जो अध्ययन था इतना गहन था की संस्कारधानी में उनके समानांतर और कोई नही दिखाई देता।
जितना विविधतापूर्ण उनका अध्ययन और इस अध्ययन के माध्यम से वो जो साहित्य को ऊंचाई देना चाहते थे और वो उसके लिए प्रयत्न शील रहे।और कहने से नही अपितु अपने व्यक्तित्व के माध्यम से भी उन्होंने प्रमाणित किया हैं। तथा अपने कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों के माध्यम से इस बात को सिद्ध भी किया है ।
पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी एक सिद्धहस्त साहित्यकार होने के साथ-साथ पत्रकार एवं शिक्षाविद के रूप में नीरक्षीर विवेकी आलोचक के रूप में स्थापित रहे ।उनकी सभी रचनाओं (ग्रंथो)में साहित्यिक प्रतिभाओं के मूल्यांकन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उनका हृदय “अय निः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरिताना तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।।” के भावबोध से स्पन्दित होता हुआ विभिन्न कृतियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है। सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा द्वारा रचित साहित्य पाठकों को अनुप्रमाणित करता है। श्री त्रिपाठी जी ने लगातार युवा पीढ़ी को साहित्य-रस से अभिसिंचित कर सदैव सृजन के लिए प्रेरित किया और आज भी नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत बने हुए है। कहा जा जाता है कि पुष्प की कोमलता और पाषाण की कठोरता को उन्होंने महापुरुषों की तरह आत्मसात किया है। राष्ट्रभक्ति, साहित्य और समाजसेवा का पाठ यशस्वी पारिवारिक परंपरा में बाल्यकाल से ही सीखा और उसे अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतारने का प्रयास किया है। कर्म के प्रति ईमानदारी और अडिग विश्वास सदैव उनके यशस्वी जीवन का सबल रहे हैं। शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निष्ठापूर्ण सेवाएँ सर्वविदित है। हिन्दी की सेवा उनके लिए राष्ट्रसेवा ही है।जिसे उन्होंने “राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी जनचेतना”नामक लेख में प्रस्तुत किया है की
“स्वाधीनता के पूर्व सारे देश ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी और इस प्रकार की मान्यता देने वाले सभी महापुरुषों में अहिन्दी भाषा-भाषी ही थे। कौन नहीं जानता कि स्वामी दयानंद सरस्वती, आचार्य केशवचंद्र सेन, शारदा नारायण मिश्र, केशव वामन पेठे, लोकमान्य तिलक, माधवराव सप्रे और स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष अहिन्दी भाषा-भाषी थे। वास्तव में आज से सामाजिक एक्य और राष्ट्रीय एकता की नींव को सुदृढ़ करने की हो हमें चेष्टा करनी चाहिए। अपेक्षित है कि मनीषी और हिन्दी के हित चिंतक अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों के संकल्पशील होकर रचनात्मक भावना से हिन्दी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एक्य की चेतना जाग्रत करने की दिशा में सक्रिय होकर जनचेतना का निर्माण करें, क्योंकि राष्ट्र भाषा ही उन्नति का मूलमंत्र होती है।”
सृजन के क्षेत्र में साहित्येतिहास और समीक्षा उनके रुचिगत विषय रहे और उनके सुचितित लेख ग्रंथ ,गंगा प्रसाद अग्निहोत्री रचनावली मैं श्री त्रिपाठी जी ने द्विवेदीयुगीन साहित्य साधना के क्रमागत विकास का अध्ययन बड़े दृढ़ता के साथ करते हुए स्थानीय साहित्यकारों की सक्रियता को प्रस्तुत किया है वह स्वयं कहते है “भारतेन्दुबाबू हरिश्चन्द्र के अवसानोपरान्त और नवजागरण युग के आरंभ काल की सन्धि रेखा पर देश में हिन्दी हित-चितना और साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में जो प्रतिभाएँ उदित हुई, उनमें स्वर्गीय अग्निहोत्री जी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण स्थान के भागी है। इस काल की सभी प्रतिभाओं को साहित्येतिहास में द्विवेदी-मण्डल के साहित्यकारों में परिगणित किया गया है। इनमें हमारे मध्यप्रदेश के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, पंडित कामता गुरु, पं० रघुवर प्रसाद द्विवेदी, पं० माधवराव सप्रे आदि कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके कृतित्व और विचार-सरणियों ने द्विवेदी-युग के ताने-बाने की कसावट को निस्सन्देह एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया है और इसलिए वे उस काल की ऐतिहासिक महत्ता के अधिकारी भी हैं।”वही श्री त्रिपाठी जी ने भी जबलपुर की काव्य धारा,वार्ता– प्रसंग ,चरित चर्चा, एवम् सृजन के सशक्त हस्ताक्षर,नमक अपने ग्रंथों में जबलपुर महाकोशल क्षेत्र के साहित्य तथा साहित्यकारो का एक दस्तावेज बड़ी मधुरता के साथ अलोचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित विकास की प्रक्रिया में जबलपुर का योगदान सराहनीय रहा है। भाषा-विज्ञान के आचार्यों के मतानुसार प्रचलित खड़ीबोली हिन्दी का विशुद्ध रूप जबलपुर की भाषायी विशेषता रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जबलपुर खड़ी बोली हिन्दी का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। भाषा के विकास एवं साहित्य-सृजन में इसका अपना विशिष्ट स्थान रहा ।इसलिए जबलपुर की काव्यधारा का संकलन किया जाना अपेक्षित था। इस लिए श्री त्रिपाठी जी ने “जबलपुर की काव्य धारा” में भारतेन्दुयुग के अवसान बेला से द्विवेदीयुग के प्रवर्तनकाल तक अद्यतन कालावधि के 75 दिवंगत कवियों का समावेश किया है जिससे इन रचनाकारों की कविताएं सहज ही भविष्य में सुलभ हो पाएंगी । उन्होंने अपने लिए ही नहीं साहित्य में कार्य किया क्योंकि साहित्यकारों के साथ एक विडंबना रहती है कि वे अपने लिए काम करना चाहते है वे अपने प्रचार- प्रसार के लिए, अपने यश के लिए काम करना चाहते हैं , लेकिन पंडित हरि कृष्ण त्रिपाठी जी ने उन तमाम साहित्यकारों के लिए कार्य किया ,जो उनकी दृष्टि में साहित्य की सेवा कर रहे थे और संकोच के कारण जो अपने आपको प्रकाश में नहीं ला पाते थे ऐसे लोगों को भी उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया हैं यह उनके व्यक्तित्व की एक गरिमा थी जिसके कारण वह संस्कारधानी के पितामह कहे जाने की योग्य है।
लेखक – श्री अजय कुमार मिश्रा (शोध छात्र के लेख से साभार)
संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में डॉ. गीता पुष्प शॉ जी द्वारा आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” ☆ डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆
मुझे ख़ुशी है कि मेरा जन्म जबलपुर, मध्य-प्रदेश में हुआ जहाँ मुझे बचपन से बड़े-बड़े साहित्यकारों के बीच रहने का, उन्हें देखने-सुनने का मौक़ा मिला. आज मैं अपनी मुंहबोली नानी सुभद्रा कुमारी चौहान को याद कर रही हूं जिन्होंने हिन्दी में सबसे अधिक पढ़ी और गाई जाने वाली कविता ‘झाँसी की रानी’ लिखी है.
मेरी मां स्कूल में पढ़ाती थीं और कहानियाँ भी लिखती थीं. उनकी साहित्य में रुचि थी. सुभद्रा कुमारी चौहान मेरी मां को अपनी बेटी की तरह मानती थीं. मेरी मां पद्मा बैनर्जी (बंगाली) और पिताजी माधवन पटरथ (मलयाली) का विवाह सुभद्रा जी ने ही करवाया था. उनका घर मेरी मां के मायके जैसा था. मैं भी बचपन में मां के साथ उनके घर जाती थी. मुझे गर्व है कि मैंने उन महान कवयित्री को देखा और उनकी गोद में खेली. उनके बाद भी उनकी अगली तीन पीढ़ियों और उस घर से मेरा प्यार भरा रिश्ता बना हुआ है. आज उन्हीं सुभद्रा जी को याद कर रही हूँ जैसा कि मैंने उन्हें जाना.
आरंभिक जीवन में
सुभद्रा जी का जन्म इलाहाबाद (प्रयाग) में 16 अगस्त 1904 में हुआ था. वे वहां क्रॉस्थवेट स्कूल में पढ़ती थीं. महादेवी वर्मा उनसे जूनियर थीं. सुखद संयोग है कि ये दोनों सहेलियां तभी से कविताएं लिखती थीं और आगे चलकर प्रसिद्ध साहित्यकार सिद्ध हुईं. सुभद्रा जी की पहली कविता जो उन्होंने नौ वर्ष की आयु में लिखी थी ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से प्रयाग की पत्रिका ‘मर्यादा’ में छपी थी. यह कविता नीम के पेड़ के बारे में थी. बचपन से सुभद्रा जी निडर, साहसी और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ थीं. इनका विवाह कम आयु में सन 1919 में खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ जो पेशे से तो वकील थे पर उससे महत्वपूर्ण वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे जो इस कारण कई बार जेल गए.
उनकी भी साहित्य में रुचि थी और वे नाटककार थे. पति-पत्नी दोनों प्रगतिशील विचारधारा के संवाहक थे यह अच्छी बात थी. कहते हैं जब पहली बार सुभद्रा जी सास से मिलने खण्डवा गई तो उन्होंने घूंघट काढ़ने ने से इंकार कर दिया था. इसमें उनके पति ने भी साथ दिया. सास बोलीं- “बिना घूंघट की दुल्हन देखकर लोग क्या कहेंगे?” इस पर लक्ष्मण सिंह ने कहा कि मैं भी इन्हें घूंघट निकालने के लिए नहीं कहूंगा क्योंकि मैं इस प्रथा का विरोधी हूँ. वे दोनों लौट आए, पर सुभद्रा जी ने आखिर घूंघट नहीं निकाला.
स्वतन्त्रता संग्राम में
उस समय देश में स्वतंत्रता के लिए गांधी जी के आव्हान पर सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था. सुभद्रा जी स्वयं राष्ट्र प्रेम की भावना से ओत-प्रोत थीं ऐसे में उन्हें अपने पति का पूरा सहयोग मिला जो स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे. दोनों पति-पत्नी खादी पहनते थे. सुभद्रा जी न कोई ज़ेवर पहनतीं न कोई श्रृंगार करतीं. एकदम सीधी-सादी वेशभूषा में उन्हें देख कर गांधी जी उनसे पूछ बैठे थे- “क्या आप शादीशुदा हैं?” तब सुभद्रा जी ने कहा- “जी हाँ. ये साथ में मेरे पति हैं.” इस पर गांधी जी बोले-“अरे तो कम से कम पाड़वाली साड़ी तो पहना करो.”
जबलपुर में सुभद्रा जी जेल जाने वाली अग्रणी महिला थीं जिन्होंने हंसी-खुशी सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लिया. देश भक्ति के जज़्बे में पति-पत्नी कई बार जेल गये. कभी अलग-अलग तो कभी एक साथ. जब दोनों एक साथ जेल में रहते तो उनके परिचित या पड़ोसी उनके बच्चों की देखभाल करते या उनकी बड़ी बेटी सुधा छोटे भाई-बहनों को संभालतीं.
साहित्य के क्षेत्र में
सुभद्रा जी के लेखन की बात करें तो साहित्य के क्षेत्र में भी वे अग्रणी रहीं. उन्होंने वीर रस की जो कविताएं लिखी वैसी शायद ही किसी दूसरी कवयित्री ने लिखी हो. जन मानस में रची-बसी और उस समय लोक गाथाओं में चर्चित झांसी की रानी लक्ष्मी बाई पर उनकी प्रसिद्ध कविता-
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी!…
यह कविता लिखकर उन्होंने परतंत्र भारत के लोगों में जागृति फैलाने काम किया कि जब एक अकेली झांसी की रानी अंग्रेजों से लोहा ले सकती है तो हम सब मिलकर क्यों नहीं! सुनते हैं ‘झांसी की रानी’ कविता जला दी गई थी. बाद में याद कर के सुभद्रा जी उसे दुबारा लिखा.
वैसी ही एक और कविता है-
वीरों का कैसा हो वसन्त
आ रही हिमाचल से पुकार
है उदधि गरजता बार-बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहे हैं दिग् दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसन्त
सहज सरल भाषा में लिखी ये कविताएं उस समय उन लोगों में जोश भर देती थीं जो लोग स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे. उन्होंने राष्ट्रप्रेम, भक्ति, प्रेम, वात्सल्य, प्रकृति सभी विषयों के साथ-साथ बच्चों के लिए कई भी कई कविताएं लिखी हैं. जिनमें से कुछ अभी भी स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में शामिल हैं. सुभद्रा जी के दो काव्य संकलन प्रकाशित हुए थे, ‘मुकुल’ और ‘त्रिधारा’. ‘मुकुल’ पर उन्हें ‘सेकसरिया पुरस्कार’ पुरस्कार मिला था. उस समय कविता छपने पर प्राय: पारिश्रमिक नहीं मिलता था इस लिए सुभद्रा जी ने कहानियां लिखनी शुरु कीं. उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए – बिखरे मोती (1930), उन्मादिनी (1934)और सीधे सादे चित्र (1947).
सुभद्रा जी की आधिकतर कहानियां स्वतंत्रता पूर्व भारत के सामाजिक परिवेश का चित्रण करती हैं. मुझे उनकी कहानी ‘हींगवाला’ बहुत पसन्द है जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द दर्शाती है. सुभद्राजी प्रकृति प्रेमी थीं जैसा कि उनकी पहली रचना ‘नीम का पेड़’ थी. उनकी ‘कदम्ब का पेड़’ कविता भी बहुत प्रसिद्ध है. एक कहानी का शीर्षक भी ‘कदम्ब के फूल’ है. इस कहानी में एक सास (जैसा कि हमेशा सास प्रायः ऐसी ही होती हैं ) अपने बेटे से बहू की शिकायत करती है कि यह मिठाई मंगवा कर खाती है. पड़ोस का एक लड़का इसे बेसन के लड्डू दे जाता है. बात बढ़ जाती है. अन्त में रहस्य खुलता है कि वे बेसन के लड्डू नहीं, पूजा के लिए कदम्ब के फूल थे गोल-गोल, पीले लड्डुओं जैसे. सहज सरल भाषा सुभद्रा जी की कहानियों की विशेषता है जो इन्हें हृदयग्राही बनाती है.
घर परिवार में
सुभद्रा जी और उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान दोनों कांग्रेसी और गांधीवादी थे. हमेशा खद्दर पहनते थे. जबलपुर राइट टाऊन में उनका बहुत बड़ा सा घर. सामने घुसते ही बड़ा आँगन और बगीचा फूल पौधों से भरा. एक शहतूत का पेड़ भी था जो मुझे बड़ा प्यारा लगता था. पति-पत्नी दोनों के सहज सरल स्वभाव और राष्ट्रीय विचारधारा के कारण उनके यहां हरदम मिलनेवालों का आना-जाना लगा रहता सभी उन्हें काका जी और काकी जी कहकर सम्बोधित करते यहाँ तक कि उनके बच्चे भी उन्हें काका-काकी कहकर संबोधित करते थे . सुभदा जी मेरी मुंहबोली नानी थीं, यह मैं पहले ही बता चुकी हूँ. उनके बच्चे मेरे मामा-मौसी.
उनकी पांच संतानें थीं. सबसे बड़ी बेटी सुधा का विवाह कथा सम्राट प्रेमचन्द के बेटे अमृत राय से हुआ था. सुधा मौसी को सब जीजी कहते थे. फिर तीन बेटे थे- अजय (बड़े), विजय (छोटे) और अशोक (मुन्ना). उनके बाद सबसे छोटी बेटी ममता जो मुझसे तीन-चार साल बड़ी थीं. उनके घर के नाम इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि सुभद्रा नानी ने कई बाल-कविताएं अपने बच्चों पर लिखी हैं. ये नाम देखकर आप पहचान जाएंगे जैसे यह कविता- ‘सभा का खेल’
सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे जीजी आओ,
मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ.
मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे में चल जाएगा,
छोटे भी खद्दर का कुरता पेटी से ले आएगा.
लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए एक बहुत बढ़िया साड़ी,
वह तुम माँ से ही ले लेना, आज सभा होगी भारी
मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियां चलाने वाले, हम घायल मरने वाले…
यह कविता सत्याग्रह आन्दोलन की स्थिति को दर्शाती है. बड़ों को देख बच्चे भी गुड्डे-गुड़ियों का खेल के छोड़कर देशभक्ति के नाटक, और सभा-सभा का खेल करने को प्रेरित होते थे. इस तरह की शायद ही कोई दूसरी कविता होगी.
बेटे अजय (बड़े) पर उन्होंने ‘ अजय की पाठशाला’ शीर्षक की कविता लिखी.
मां ने कहा दूध पी लो तो बोल उठे मां रुक जाओ
वहीं रहो पढ़ने बैठा हूं मेरे पास नहीं आओ
शाला का काम बहुत सा मां, उसको कर लेने दो
ग म भ झ लिखकर मां, पट्टी को भर लेने दो
अजय मामा वकील होने के साथ-साथ कई ऊंचे पदों पर थे.
विजय (छोटे) पर ‘नटखट विजय’ कविता लिखी-
कितना नटखट मेरा बेटा,
क्या लिखता है लेटा-लेटा,
अभी नहीं अक्षर पहचाना,
ग म भ का भेद न जाना,
फिर पट्टी पर शीश झुकाए,
क्या लिखता है ध्यान लगाए,
मैं लिखता हूँ बिटिया रानी,
मुझे पिला दो ठंडा पानी.
विजय(छोटे)मामा बड़े होकर प्रोफेसर बने. इनकी पत्नी जर्मन थीं. बाद में वे भी जर्मनी चले गये जहाँ उनकी मृत्यु हो गई.
अपनी छोटी बेटी को देखकर सुभद्रा नानी ने बचपन को याद करते हुए प्रसिद्ध कविता लिखी थी- ‘मेरा बचपन’
मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी,
नन्दन वन सी कूक उठी, यह छोटी सी कुटिया मेरी.
मां ओ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी,
कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने लाई थी.
यह लम्बी कविता आज भी स्कूलों में पढ़ाई जाती है.
मैं तब तीन-चार बरस की थी. मैं और मेरी मां सुभद्रा नानी से मिलने के बाद जब अपने घर जाने लगते तो अशोक मामा (उर्फ मुन्ना, उनके तीसरे बेटे) मुझे कंधे पर बिठाकर छोड़ने चलते. रास्ते में दो पैसे की लइया खरीद देते थे, जो मैं उनके कंधे पर बैठी कुटुर-कुटुर खाती रहती. लाई के रामदाने झड़कर उनके सिर के घुंघराले बालों के बीच बिखर जाते तब मामा हंसकर कहते – “अरे गीता मेरे बाल क्यों खराब कर रही है?” यही अशोक मामा यानी मुन्ना मामा के बारे में कहा जाता था कि जब ये स्कूल से लौटते थे तो पहले अपना बस्ता पटक कर घर के बाहर लगे कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे. कुछ देर उछल-कूद कर लेते तब घर में घुसते थे. इन्हीं अशोक मामा पर सुभद्रा नानी ने ‘कदम्ब का पेड़’ कविता लिखी थी.
यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे.
ले देती मां मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीची हो जाती यह कदम्ब की डाली…
‘कदम्ब का पेड़’ कविता स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में संकलित है और कई लोगों की जुबान पर चढ़ी है. अशोक चौहान मामा की शादी प्रेमचन्द की नतिनी मंजुला से हुई थी. उनका भी घर का नाम मुन्नी था. बड़ी प्यारी और खूब सुन्दर थीं हमारी मुन्नी मामी.
यही अशोक मामा बड़े होकर जबलपुर के रॉबर्टसन कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए थे. मेरे बचपन में पिताजी का ट्रांसफर हो जाने के कारण मेरा जबलपुर छूट गया था. मैट्रिक के बाद जब मैं यहां होम साइंस कॉलेज होस्टल में रहकर पढ़ने आई तो अजय चौहान और अशोक चौहान मामा मेरे लोकल गार्जियन बने थे.
अशोक मामा बहुत गोरे, सुन्दर और ऊंचे पूरे दिखते थे. जब छुट्टी में मुझे घर ले जाने आते तो मेरे होस्टल की लड़कियां उन्हें झांक-झांक कर देखतीं. वे थे तो प्रोफेसर पर पैरों में तीन रुपये वाली टायर की चप्पल पहन लेते जैसी उस समय मजदूर पहना करते थे. यह उनका अपना ‘इश्टाइल’ था जो सबके लिए अचम्भे और आकर्षण का केन्द्र बन जाता था. वे गाते बहुत अच्छा थे. जब कबीर गाते तो सुनने वालों की आंखों से आंसू बहने लगते.
सुभद्रा नानी की सबसे छोटी बेटी हैं ममता. मेरी ममता मौसी. सुभद्रा नानी की संतानों में से बस एक यही बची हैं. सुभद्रा नानी की संतानों में से प्यार से मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देने वाले सभी हाथ कालचक्र की भेंट चढ़ गये. मुन्नी मामी (मंजुला चौहान) फोन पर बातें करती थीं, कोरोना काल में वे भी चल बसीं. अब ममता मौसी हैं जो अमेरिका में रहती हैं. मुझे वे बचपन से प्यार करती थीं. जब मैं होस्टल से उनके घर आती थी, उस समय वे एम.ए. में पढ़ ही रही थीं, पर अपने पॉकेटमनी से मुझे फ्रॉक का कपड़ा खरीदकर देती थीं. मैं शाम को होस्टल लौटते समय कपड़ा लेकर जाती और मेरी प॔जाबी दोस्त सिंधु नाग रातोंरात होस्टल की मशीन पर फ्रॉक सी देती थी. मैं दूसरे दिन उसे पहनकर कॉलेज चली जाती और शान से सबको बताती कि मेरी ममता मौसी ने दी है. वे मेरी बचपन से दोस्त थीं.
इसी संदर्भ में बचपन की एक अविस्मरणीय घटना याद आती है. माँ जब उनके घर जातीं, सुभद्रा नानी से बातें करती तब मैं ममता मौसी के साथ खेला करती थी. एक बार हम उनके घर गये थे तभी सुभद्रा नानी बनारस से लौटीं. उन्होंने हम दोनों को एक-एक पिटारी खिलौनों की दी उसमें सुन्दर-सुन्दर लकड़ी के रंग-बिरंगे बर्तन, कड़ाही, करछुल, चूल्हा, तवा, चकला-बेलन रखे थे. मैं और ममता मौसी झट से अपने-अपने खिलौने लेकर खेलने बैठ गईं.
ममता मौसी ने चूल्हे पर तवा चढ़ाया और आँगन से शहतूत की पत्तियां तोड़कर चकले पर रखकर फटाफट झूठ-मूठ की रोटियां बेलने लगीं. उनकी देखा-देखी मैंने भी अपने चूल्हे पर तवा रखकर चकला निकाला, पर यह क्या मेरे वाले सेट में तो बेलन था ही नहीं. दुकान वाला शायद बेलन रखना भूल गया था. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, हाथ-पैर पटकने लगी. अश्रुधारा बह निकली. अब भला मैं रोटी कैसे बेलूंगी? तब सुभद्रा नानी ने मुझे प्यार से गोदी में बिठाया और चौके की तरफ आवाज़ देकर बोली- ‘महाराजिन बेलन लाओ’. उनकी महाराजिन खूब मोटी थुलथुल थीं. छोटे बच्चे उन्हें चुपके से ताड़का कहकर भागते थे तो वे भी मारने दौड़तीं पर मोटापे के कारण दौड़ न पातीं. और वहीं खड़ी होकर हंसने लगतीं उन्हें खुद भी इस खेल में मज़ा आता था.
हाँ, तो महराजिन रसोई से बेलन लेकर हाजिर हो गईं. सुभद्रा नानी ने मेरे हाथ में वह बड़ा-सा बेलन देकर कहा- “गीता बेटा लो, देखो यह अन्नपूर्णा का बेलन है. हमारी महाराजिन अन्नपूर्णा है. इसी बेलन से बेलकर हम सबको रोटियां बनाकर खिलाती है. यह संसार का सबसे अच्छा बेलन है. जाओ इससे रोटियां बेलो.” मैंने आंसू पोंछकर बेलन ले लिया और उस छोटे से चकले पर बड़ा सा बेलन रखकर रोटियां बेलने लगी. ममता मौसी कनखियों से मुझे देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं.
आज भी कभी-कभी रोटी बेलते हुए वह अन्नपूर्णा का बेलन याद आ जाता है. सोचती हूं कितनी महान थीं सुभद्रा नानी, उन्होंने एक साधारण सी खाना बनानेवाली स्त्री को ‘अन्नपूर्णा’ की संज्ञा दे डाली थी. स्वयं मालकिन होते हुए भी उसे ‘अन्नदात्री’ कहकर उसका मान बढ़ा दिया था. ऐसी उदारता तो सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियां ही दर्शा सकती हैं.
और अन्त में…
सुभद्रा कुमारी चौहान उदार हृदया, सरलता की मूर्ती और ममतामई थीं. उनके कोमल ह्रदय में साहस और दृढ़ विश्वास भरा हुआ था. उन्होंने घर-बार संभालते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में में भाग लिया. कई बार जेल गयीं. साहित्य रचा. जेल में भी वे कहानियां लिखती थीं. जेल की दीवारों पर कवितायें लिखती थीं. अपने राष्ट्रवादी पति का हर कदम पर साथ दिया. विवाहित स्त्रियाँ पति से अनेक सुविधाओं, ज़ेवर और धन-दौलत की अपेक्षा रखती हैं परन्तु उन्होंने ऐसी कोई कामना नहीं कीं. बिना शिकायत हंसते-हंसते पति के साथ जेल चली गईं. जेल में वे अकेली राजनैतिक महिला कैदी के रूप में थीं. जनता द्वारा जो फूलों के हार पहनाए गए थे, उनका तकिया बना कर जेल में सो गईं. उन्होंने स्वयं के बारे में लिखा भी है-
मैंने हंसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना.
बरसा करता है मेरे जीवन के पल-पल पर सोना.
एक जगह और लिखती हैं-
सुख भरे सुनहले बादल, रहते हैं मुझको घेरे.
विश्वास, प्रेम, साहस हैं, जीवन के साथी मेरे.
सुभद्रा जी को जीवन में कई मान-सम्मान मिले. साहित्य में दो बार ‘मुकुल’ और ‘बिखरे मोती’ किताब पर ‘सेकसरिया पुरस्कार’ मिला. भारत स्वतंत्र होने के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार ने सुभद्रा जी को विधान परिषद् की सदस्या मनोनीत किया. दुर्भाग्यवश, एक मीटिंग से लौटते हुए सिवनी के पास कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई. संयोग की बात है यह दुर्घटना 15 फरवरी 1948 वसंत पंचमी (सरस्वती पूजा) के दिन हुई थी. सुभद्रा जी का जन्म नाग पंचमी (16 अगस्त 1904) में हुआ था. अर्थात् जन्म और निधन दोनों दिन पंचमी तिथि थी. मध्य प्रदेश के सिवनी के पास कलबोड़ी ग्राम में सुभद्रा कुमारी चौहान की समाधि है जहां लोग फूल चढ़ाने जाते हैं.
उनके निधन के अगले वर्ष ही 1949 में जबलपुर नगर निगम परिसर में सुभद्रा जी की आदम-कद प्रतिमा लगाई गई जिसका अनावरण उनकी सहेली प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने किया था. उनकी याद में भारत सरकार के डाक-तार विभाग ने 1976 में पच्चीस पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था. 24 अप्रेल 2006 में उनकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को सम्मान देने के लिए भारत में जल-सेना द्वारा तट-रक्षक जहाज़ का नाम ‘सुभद्रा’ रखा गया.
मात्र 43 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो गया किन्तु इतनी कम अवधि में वे कई महत्वपूर्ण कार्य कर गईं. सुभद्रा कुमारी चौहान बीसवीं सदी की महानायिका, प्रखर लेखिका, कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेविका के रूप में सदा याद रखी जाएंगी. हिन्दी साहित्य के आकाश में सदा जगमग नक्षत्र की तरह चमकता रहेगा सुभद्राकुमारी चौहान का नाम. उनकी स्मृतियों को शत-शत प्रणाम.
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(लेखिका – डॉ. गीता पुष्प शॉ जी से अनुमति लेकर यह संस्मरण ई-अभिव्यक्ति में प्रकाशनार्थ साभार लिया गया।)
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – पंजाब के हिंदी लेखन की स्थिति… (अंतिम कड़ी) ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
आज अपनी जालंधर की यादों को विराम देने का दिन है। हालांकि मैंने जालंधर के बहाने चंडीगढ़ ही नहीं, हरियाणा के कुछ अच्छे और दिल के करीब रहे उच्चाधिकारियों को भी याद किया और पंजाब, हरियाणा के लेखकों को भी। मैं छह माह के आसपास बीमार रहा, जब दोबारा से अपना नियमित स्तम्भ शुरू किया तब पता नहीं कैसे, मैं यादों की पगडंडियों पर निकल गया और खुशी की बात यह कि आप पाठक भी मेरे साथ साथ यह यात्रा करते रहे पर अब मुझे लगा कि एक बार विराम ले लेना चाहिए । हालांकि मैं यह श्रृंखला इतनी लम्बी न लिख पाता लेकिन बड़े भाई डाॅ चंद्र त्रिखा और मित्र डाॅ विनोद शाही को यह श्रृंखला इतनी अच्छी लगी कि वे दोनों बराबर मुझे उकसाते रहे कि अब लिख ही डालो, जो जो ओर जैसे जैसे याद आ रहा है और मैं लिखता चला गया और आप प्यार से पढ़ते चले गये । यह मेरे लिए बड़ी खुशी की बात थी और रहेगी कि मेरी यादों में आपने इतनी दिलचस्पी ली ।
अब इसे संपन्न करने से पहले यह सोच रहा हूँ कि आखिर जालंधर या पंजाब में अब कौन कौन से नये लोग हिंदी में लिख रहे हैं! मैंने अपने मित्रों से भी पूछा, उनके मन को भी टटोला और मुझे कोई नाम नहीं सुझाया गया ! बहुत दुख हुआ इससे । फिर मैंंने अपने अंदर झांका और मुझे चार नाम ऐसे लगे जिनका जिक्र कर सकता हूँ । सबसे पहले निधि शर्मा हैं, जो जनसंचार की यानी मास काॅम की प्राध्यापिका है वे परिचय के इन कुछ सालों में ही डाॅ निधि शर्मा बन गयीं हैं । निधि शर्मा में सीखने और समझने की ललक है, जो उसे पंजाब के नये रचनाकारों में उल्लेखनीय बनाती है। निधि के आलेख अनेक पत्र पत्रिकाओं में आते रहते हैं। कभी कभार कविताएँ भी लिखती हैं । इस तरह यह हमारे पंजाब के नये रचनाकारों में उल्लेखनीय कही जा सकती है। मूल रूप से हिमाचल से आईं निधि शर्मा आजकल होशियारपुर में रहती हैं और प्राध्यापकी जालंधर में करती हैं । हाल फिलहाल निधि को पंजाब कला साहित्य अकादमी से सम्मान भी मिला है ।
दूसरा नाम जो सूझा, वह है डाॅ अनिल पांडेय का , जो फगवाड़ा की लवली प्रोफैशनल यूनिवर्सिटी में हिंदी प्राध्यापक हैं और ‘बिम्ब-प्रतिबिंब’ प्रकाशन के साथ साथ ‘रचनावली’ नाम से पत्रिका भी निकाल रहे हैं । बड़ी बड़ी योजनाओं के सपने देखने की आदत है अनिल पांडेय को चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय से आये और फिलहाल फगवाड़ा को कर्मक्षेत्र बनाये हुए हैं । आलोचना में भी दखल रखते हैं।
डाॅ शिवानी कोहली आनंद भी पंजाब के नये रचनाकारों में अपनी जगह बना रही है, खासतौर पर काव्य लेखन व अनुवाद क्षेत्र में । पंजाब के मुकेरियां की लड़की आजकल नोएडा, दिल्ली रहती है और अपना भविष्य तलाश रही है। कभी अनुवाद तो कभी संपादन तो कभी काव्य लेखन में !
इसी प्रकार उपेंद्र यादव भी पंजाब के भविष्य के रचनकार हैं, जिनका एक काव्य संग्रह ‘तेरे होने से’ मुझे भेजा। वे अमृतसर रहते हैं और रेलवे में काम करते हैं। इस तरह मैंने कुछ नये लेखक खोजने की कोशिश की है ।
हरियाणा में ऐसे ही उत्साही लेखकों ब्रह्म दत्त शर्मा, पंकज शर्मा, अजय सिंह राणा , विजय और राधेश्याम भारती ने मुझे हवा देकर हरियाणा लेखक मंच का अध्यक्ष बना दिया । ये सभी खूब लिखते हैं और वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़ते ही नहीं, सीखने को भी तत्पर रहते हैं । इनके साथ ही अरूण कहरबा भी बहुत सक्रिय हैं। वैसे तो हरियाणा में अनेक युवा लेखक सक्रिय हैं और यह खुशी की बात है । उपन्यास ‘तेरा नाम इश्क’ के बाद अजय सिंह राणा का कथा संग्रह ‘मक्कड़जाल’ खूब चर्चित हो रहा है । पंकज शर्मा और विजय लघुकथा में सक्रिय हैं। ब्रह्म दत्त शर्मा का कथा संग्रह ‘पीठासीन अधिकारी’ भी चर्चित रहा और अब इनका नया उपन्यास भी चर्चा में है। प्रो अलका शर्मा और अश्विनी शांडिल्य ने हाल ही में एक संकलन स़पादित कर ध्यान आकर्षित किया है। प्रो अलका शर्मा भी इन्हीं दिनों डाॅ अलका शर्मा बनी हैं और इनका एकल काव्य संकलन भी है ।
तो मित्रो! आज यह यादों में जालंधर को विराम! यह कहते हुए :
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी स्व. राजेन्द्र “रतन”” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
क्षमा मांगने और क्षमा करने पर विश्वास करने वाले, साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी अग्रज भाई राजेंद्र “रतन” अब हमारे बीच नहीं हैं। अपने 82 वर्ष के जीवन काल में वे हमेशा मन से पूरी तरह युवा रहे। वे अंतिम समय तक तमाम तरह की लिप्साओं से दूर आत्म संतोष के साथ साहित्य साधना में रत रहे। वरिष्ठ साहित्यकार, चिंतक डॉ.हरिशंकर दुबे जी उनके लिए कहते हैं-
गौ धन, गज धन, बाजि धन
और रतन धन खान।
जब आवै संतोष धन,
सब धन धूरि समान।।
संतोष धन सबसे बड़ा धन है जिसकी सुवास श्री राजेंद्र जैन के जीवन में सदा रची-बसी रही।
श्री राजेंद्र जैन “रतन” जी वाद विवाद से दूर अत्यंत मिलनसार व्यक्ति थे। वे “अनेकांत” संस्था के अध्यक्ष के रूप में साहित्य संवर्धन एवं प्रतिभाओं के प्रोत्साहन में लगे रहे। रा दु वि वि से पत्रकारिता में पत्रोपाधि प्राप्त करने वाले भाई राजेंद्र रतन जी कार्यों से अवकाश मिलते ही काव्य सृजन में डूब जाते थे। उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। वे आकाशवाणी जबलपुर द्वारा प्रसारित “काव्य रस” एवं “काव्य कुंज” में सहभागिता देते रहे। रतन जी ने “अनेकांत” में अध्यक्ष के साथ-साथ अनुश्री सोसायटी के अध्यक्ष, शहर जिला कांग्रेस कमेटी जबलपुर के उपाध्यक्ष, जागरण संस्था के संगठन सचिव, शारदा संगीत महाविद्यालय के प्रतिनिधि सदस्य एवं कोषाध्यक्ष तथा संभ्रान्त समाज जबलपुर के संगठन सचिव के रूप में भी उत्कृष्ट सेवाएं दी हैं।
बहुत कम लोग जानते हैं कि व्यवसाय और राजनीति से जुड़े भाई राजेंद्र “रतन” बहुत अच्छे कथक नर्तक भी थे। वे अंतर्राष्ट्रीय विश्व युवक शिविर यूगोस्लाविया में सन 1962 में भारतीय नृत्य कला प्रदर्शन के लिए प्रेसीडेंट मार्शल टीटो द्वारा “उदारनिक” रजत पदक से सम्मानित किए गए थे। “सजग प्रहरी” के रूप में उन्हें म.प्र. शासन द्वारा रजत पदक प्रदान किया गया था। इसके अतिरिक्ति साहित्य सृजन पर उन्हें सजग सारथी, पाथेय श्री सेवा सम्मान, संस्कारधानी गौरव, साहित्य सुधाकर, सरस्वती साहित्य श्री, ऋतंभरा साहित्य श्री, ह्रदय ‘रतन’ सम्मानों सहित गुंजन कला सदन, गूँज व अनेक संस्थाओं द्वारा विविध सम्मानों से अलंकृत किया गया। उनकी काव्य कृतियाँ “समय की पुकार” एवं “मन रतन है” प्रकाशित-प्रशंसित हो चुकी हैं। एक दर्जन से अधिक विभिन्न काव्य संग्रहों में उनकी रचनाओं का समावेश है। ख्यातिलब्ध विद्वान डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी कहते हैं- “रतन जी की प्रत्येक रचना आत्म-संस्कार और मानव के उदात्तीकरण से ओतप्रोत है। ” रा दु वि वि के पूर्व कुलपति डॉ. कपिलदेव मिश्र के अनुसार ‘रतन’ जी का काव्य यथार्थ बोध कराने में सक्षम है। वरिष्ठ साहित्यकार स्व. डॉ. राजकुमार “सुमित्र” का कथन था कि भाई रतन जी की कृतियों को शास्त्रीय कसौटी पर नहीं अपितु भाव की कसौटी पर कसना चाहिए।
रतन जी ने लिखा है-
सब धर्मों का देश हमारा,
मानवता है जिसकी आन।
गंगा की पावन धारा से,
देश की माटी बनी महान।।
सच्चे देश भक्त, सहज-सरल गाँधीवादी, साहित्यकार भाई राजेंद्र “रतन” जी अपनी बहुमुखी प्रतिभा और मिलनसारिता के कारण साहित्य जगत में सदा याद किए जायेंगे।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -27 – भगत सिंह और पाश से जुड़ने के दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
चंडीगढ़ के मित्रों के नाम या उनका काम, स्वभाव बताते संकोच नहीं हुआ। इतने दिन में दो बार बड़े भाई जैसे मित्र फूल चंद मानव का कहीं कहीं थोड़ा सा जिक्र जरूर आया। आज चलता हूँ उनकी ओर ! फूल चंद मानव नाभा से संबंध रखते हैं और नाभा एक ही बार देखा जब इनकी शादी में एक बाराती बन कर वहाँ से दिल्ली गया था। कब और कैसे परिचय हुआ, यह तो अब ठीक ठीक सा याद नही आ रहा पर ये उन दिनों पंजाब के सूचना व सम्पर्क विभाग में कार्यरत थे। सेक्टर सताइस में आवास मिला हुआ था। इनका छोटा भाई रमेश और मां भी इनके साथ रहते थे। लेखन का जोश, ज़ज्बा और सरकारी नौकरी। फिर वे उन दिनों मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह के पीआरओ भी बने, जिसका नशा आज भी इनकी बातों में झलक जाता है। समझिये कि पत्रकारिता का अनुभव भी यहीं हो गया ! फिर इन्हें पंजाब की हिंदी पत्रिका ‘ जागृति’ के संपादन का सुनहरी अवसर भी मिला, जिस पर मानव अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। उन दिनों मुझे मानव ने प्रसिद्ध व्यंग्यकार व पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान, बलवंत रावत, बलराज जोशी और एक बार दिल्ली से आईं लेखिका देवकी अग्रवाल आदि कितने ही रचनाकारों से परिचय का अवसर दिया। बलवंत रावत डाॅ योजना रावत के पिता हैं जबकि बलराज जोशी कार्टूनिस्ट संदीप जोशी के पिता थे। इस तरह ये फूल चंद मानव का ही कमाल था कि एक ही परिवार की दो दो पीढ़ियों के सदस्यों से मिलने का अवसर बना दिया।
मुख्य तौर पर आज फूल चंद मानव को एक शानदार अनुवादक व कवि के रूप में जाना जाता है जबकि सबसे पहले इनका कहानी के प्रति जुनून था और इनकी कहानी ‘ अंजीर’ उन दिनों ‘ “धर्मयुग’में प्रकाशित हुई थी और इसी शीर्षक से इनका कथा संग्रह भी आया था। इसी कथा संग्रह की समीक्षा लिखने का अवसर देकर मानव ने मुझ अनाड़ी खिलाड़ी को समीक्षा क्षेत्र में उतार दिया यानी यह रूप मिला ‘अंजीर’ से, जिसका क, ख, ग भी मैं नहीं जानता था। जाहिर है कि यह समीक्षा जागृति में आई।
जब मैं बीए प्रधम वर्ष का छात्र था नवांशहर के आर के आर्य काॅलेज में, तब हमारे हिंदी प्राध्यापक डाॅ महेंद्र नाथ शास्त्री के स़पादन में मैंने सन् 1970 में लघु पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया तो फूल चंद मानव और मैं संपादन सहयोगी बन गये। यह वही पत्रिका है, जिसके पहले अंक में मेरी पहली लघुकथा आई और दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक रहा, जो हिंदी के पहले पहले लघुकथा विशेषांकों में एक है और वह भी पंजाब जैसे अहिंदी भाषी क्षेत्र से, इसलिए इसकी चर्चा उन दिनों ‘सारिका’ के नयी पत्रिकाओं काॅलम में भी हुई !
उन दिनों पंजाब में नक्सलवादी आंदोलन चल रहा था, जिसके मुख्य केन्द्र खटकड़ कलां व निकटवर्ती गांव मंगूवाल ही थे और मेरी अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ भी सीआईडी के निशाने पर आ गयी ! यह बात मुझे खुद सीआईडी के उस इ़ंस्पेक्टर ने बताई, जिसकी ड्यूटी मेरी डाक से आई चिट्ठियों को गुप्त रूप से पढ़ने की एक माह तक लगाई गयी थी। मैं खुद डाकखाने में अपनी डाक लेने जाता था तो एक दिन हमारे इलाके के डाकिए रामकिशन ने कहा कि एक इंस्पेक्टर तुमसे मिलना चाहता है। वह मुझे इंस्पेक्टर के पास ले गया और इंस्पेक्टर मुझे देखता ही रह गया ! फिर बोला कि आप मुझे जानते नहीं बेटे लेकिन मुझे बताना नहीं चाहिए था फिर भी तुम्हारी उम्र देखकर बताना पड़रहा है कि मैं सीआईडी इंस्पेक्टर हूं और एक महीने तक तुम्हारी डाक सेंसर करने का आदेश था। मैं पहले आप की डाक देखता था और बाद में वैसी की वैसी पैक कर आपको मिलती थी।
– ऐसा क्यों?
– आप नही जानते कि अनियतकालीन पत्रिकाओं का प्रकाशन मुख्य तौर पर आजकल नक्सलवादी विचारधारा के लोग करते हैं लेकिन एक माह तक सेंसर किये जाने के बावजूद आपके खिलाफ कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जो रिपोर्ट मैं देने जा रहा हूँ लेकिन आपकी छोटी उम्र देखकर सलाह देता हूं कि यदि पत्रिका निकालनी ही है तो इसे रजिस्टर्ड करवा लो।
– कैसे करवाते हैं?
– जालंधर जाओ और डी सी ऑफिस में रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर के ऑफिस में फाॅर्म भर आओ ! इस तरह मैंने फाॅर्म भरा जालंधर जाकर और अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ से ‘प्रस्तुत’ बन गयी! ऐसे सरकार की नज़र में चढ़ने से पहले पहले उस इंस्पेक्टर ने मुझे अपने बेटे की तरह सही राह बता दी। जिन दिनों मैं एम ए, बीएड कर खटकड़ कलां यानी शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव में गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक और बाद में कार्यकारी प्रिंसिपल बना, उन दिनों खटकड़ कलां व मंगूवाल के दर्शन खटकड़ व इनके छोटे भाई जसवंत खटकड़ , छात्र नेता परमजीत पम्मी व पुनीत सहगल आदि से स्कूल में इनसे परिचय हुआ और इनके नाटक लोहा कुट्ट ( बलवंत गार्गी) को देखने का अवसर अनेक बार मिला और यही खटकड़ कलां में मुझे शहीद भगत सिंह के सारे परिवारजनों से मिलने का अवसर मिला जिसके आधार पर मैंने तेइस पेज लम्बा आलेख लिखा – भगत सिंह के पुरखों का गांव ! इसे तब सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक ‘ धर्मयुग’ ने प्रमुख तौर पर प्रकाशित किया, जिसके चलते ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के उस समय समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर ने मेरी पीठ थपथपाई थी और सहायक संपादक विजय सहगल ने कहा था कि तुमने तो भगत सिंह पर रिसर्च ही कर डाली ! यह भी बता दूँ कि मेरे आलेख वाली प्रतियां राज्यसभा में लहराई गयी थीं, जिसके बाद ही खटकड़ कलां में शहीद भगत सिंह स्मारक बनाने का ख्याल सरकार को आया और भगत सिंह को सही श्रद्धांजलि!! यह मेरा कलम का कमाल ही रहा।
खैर, वापस फूल चंद मानव की ओर आता हूँ। मानव बठिंडा में हिंदी लैक्चरर बन कर चले गये और कुछ वर्ष तक हमारा सम्पर्क टूटा रहा !
इधर मैं खटकड़ कलां से जुड़ता गया वामपंथी नाटककार भाजी गुरशरण सिंह से, क्रांतिकारी कवि पाश, दर्शन खटकड़, हरभजन हल्वारवी से ही नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह से, जो उन दिनों ‘भगत सिंह व उनके साथियों के दस्तावेज’ पुस्तक डाॅ चमन लाल के सहयोग से तैयार कर रहे थे, कुछ कुछ मेरा भी सहयोग रहा इसमें ! पाश की कविताओं ने सबको अचंभित कर दिया और
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
जो आज बहुचर्चित और बहुपठित कविता है ! पाश से तीन चार मिलना भी हुआ, इन्हीं दिनों ! मैंने ‘धर्मयुग’ वाले आलेख में लिखा था कि यदि कुरूक्षेत्र की धरती आज भी लाल पाई जाती है तो भगत सिंह के गांव की माटी भी आज तक लाल ही है ! यह विचार की धरती है, क्रांति की धरती है और मै इस रंग में रंगता चला गया ! प्रिंसिपल के साथ एक ऐसा रिपोर्टर जिससे ‘धर्मयुग’ ने लगातार तीन वर्ष भगत सिंह के शहीदी दिवस मेले की कवरेज करवाई ! फिर पाश विदेश चला गया लेकिन एक वर्ष वह भारत लौटा और शहीदी दिवस पर खटकड़ कलां भगत सिंह को नमन् करने आया और निकटवर्ती गांव काहमा गांव में वह उग्रवादियों की गोलियों का शिकार बना। एक ही दिन भगत सिंह और पाश का बन गया ! तब तक मैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक मंडल का हिस्सा बन चुका था और वही बात अपने प्रिय कवि पाश के बारे में लिखने का जिम्मा मुझे ही सौ़प दिया विजय सहगल ने , मेरे अतीत को जानते हुए। पाश के तीनों काव्य संग्रह खरीद कर लाया और उसकी मुलाकातों में खोये लिखा ! एक कविता जिसे मैं आज भी अपनी बेटी रश्मि को सुनाया करता हूँ, इसका अंश है :
इह चिड़ियां दा चम्बा
इहने किते नहीं जाना !
इहने ब्याह तों बाद
इक खेत तों उठके
बस दूजे पिंड दे खेत विच
उही घाह कटना!
इह चिड़ियां दा चम्बा
किते नईं जाना!
आज शहीद भगत सिंह और पाश की यादों में खो गया, फूल चंद मानव की बाकी कहानी फिर सही !
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 18 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 1
(24 मार्च – 31 मार्च 2024)
हमारा पड़ोसी देश भूटान है और भारत के साथ इस देश का अच्छा स्नेह संबंध भी है।
भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी हाल ही में भूटान जाकर आए थे। थिंप्फू नामक शहर से पारो नामक शहर को पहले से ही रंगीन पताकों से सजाया गया था। थिंप्फू शहर के रास्ते पर भारतीय झंडा और भूटान का झंडा सड़क के बीच लगातार लगाए गए थे तथा इस मैत्री संबंध को बनाए रखते हुए यहाँ के पाँचवे राजा की और मोदी जी की तस्वीरें सब तरफ़ लगाई हुई दिखाई दे रही थी। मन गदगद हो उठा। हमारा सौभाग्य ही है कि हम मोदी जी के यहाँ आने के दो दिन बाद ही भूटान की सैर करने पहुँचे।
हम तीन सहेलियों ने मार्च के महीने में भूटान जाने का निश्चय किया। हम 23 मार्च मध्य रात्रि पुणे से मुंबई के लिए रवाना हुए। 24 की प्रातः फ्लाइट से बागडोगरा पहुँचे। बागडोगरा से भूटान की सीमा तक पहुँचने के लिए टैक्सी बुक की गई थी। इस ट्रिप के दौरान हमने बागडोगरा से जयगाँव नामक शहर तक यात्रा की जो चार घंटे की यात्रा रही।
जयगाँव में पहुँचने पर हमें भूटान लेकर जानेवाला गाइड मिला। हम भारत की सीमांत पर बने भूटान के दफ़्तर से होते हुए अपना वोटर आई डी दिखाकर भूटान की ज़मीन पर पहुँचे। भूटान में प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट या वोटर आई डी की आवश्यकता होती है। पाठकों को बता दें यहाँ आधार कार्ड नहीं चलता।
जयगाँव बंगाल का आखरी गाँव है। उसके बाद भूटान की सीमा प्रारंभ होती है। यहाँ कोई बॉर्डर नहीं है केवल भूटान कलाकृति के निशान स्वरूप एक बड़ा – सा प्रवेश द्वार बना हुआ है। इस प्रवेश द्वार का उपयोग केवल गाड़ियाँ ही कर सकती हैं। यात्रियों को जयगाँव में उतरकर भूटान जाने के लिए एक अलग द्वार से पैदल ही जाना पड़ता है। लौटने के लिए भी यही व्यवस्था है। यह बड़ा अद्भुत अनुभव रहा।
भूटान जाने के लिए जो दफ़्तर बना हुआ है वह भीतर से साफ- सुथरा और हिंदी बोलनेवाले भूटानी तुरंत सेवा प्रदान करते हुए दिखाई दिए। जयगाँव की ओर से जानेवाला मार्ग अत्यंत संकरा और गंदगी से न केवल भरपूर है बल्कि लोकल लोगों की भीड़ भी बहुत रहती है। भूटान का यह एन्ट्री पॉइंट उस तुलना में साफ़ सुथरा लगा।
यह भारत के नज़दीक का पहला शहर है नाम है फुन्टोशोलिंग। स्वच्छ और छोटा – सा शहर है यह। फुन्टोशोलिंग शहर जयगाँव से आने -जानेवाले पर्यटकों की सुविधा की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी शहर है।
हम फुन्टोशोलिंग के एक होटल में एक रात ही रहे। होटलका नाम था गा मे गा यह व्यवस्था हमारी थकान उतारने के लिए ही कई गई थी।
हम तीनों बहुत थकी हुई थीं क्योंकि हम 23 की मध्य रात्रि घर से रवाना हुई थीं और 24की शाम हम फुन्टोशोलिंग पहुँचे। हमने जल्दी डिनर कर सोने का निर्णय लिया। दूसरे दिन से हमारी भूटान की यात्रा प्रारंभ होने जा रही थी।
मेरी डायरी के पन्ने से…..
भूटान की अद्भुत यात्रा (25 मार्च 2024)
हमने प्रातः नाश्ता किया। हमारे साथ आठ दिनों तक मार्गदर्शन करनेवाला गाइड अपने साथ आठ दिन रहने वाली गाड़ी और ड्राइवर लेकर समय पर उपस्थित हो गया।
गाइड का नाम था पेमा और चालक का नाम था साँगे। दोनों भूटान के नागरिक थे। हिंदी बोलना जानते थे। पेमा कामचलाऊ अंग्रेज़ी बोल लेता था। वे दोनों ही अपने देश की वेश-भूषा में थे। दोनों ही अत्यंत तरुण, मृदुभाषी तथा व्यवहार कुशल भी थे। हम सीनियर पर्यटकों को साथ लेकर चलते समय सावधानी बरतने वाले अत्यंत सुशील नवयुवक थे। उन दोनों का स्वभाव हमें अच्छा लगा और एक परिवार की तरह हम आठ दिन एक साथ घूमते रहे। पाठकों को बता दें कि जहाँ तक समय का सवाल है भूटान भारत से 30 मिनिट आगे है अतः अपनी कलाई की घड़ी और मोबाइल की घड़ी को इसके अनुसार एडजेस्ट कर लेना आवश्यक है।
हमने सबसे पहले भूटान इमीग्रेशन का फॉर्म भरा जहाँ से हमें पेमा और सांगे के साथ उनकी प्राइवेट कार में 31मार्च तक घूमने की लिखित इजाज़त मिली। यह एक प्रकार का विज़ा है।
हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। पहला स्थान जो हम देखने गए उसका नाम था सांगे मिगायुर लिंग ल्हाकांग यह एक ऊँची टावर जैसी इमारत है। इसे लैंड ऑफ़ थंडर ड्रैगन कहा जाता है। और टावर को मिलारेपा कहते हैं। यह फुन्टोशोलिंग में ही स्थित है।
यह विश्वास है कि एक संत तिब्बत से भूटान आए थे। दुश्मनों से बदला लेने के लिए वे काला जादू सीख लिए थे और उसका उपयोग भी करते थे। उनके गुरु मार्पा थे। उन्हें जब काला जादू वाली बात ज्ञात हुई तो उन्होंने अपने शिष्य को अकेले हाथ मिट्टी से नौ मंजिली इमारत बनाने का हुक्म दिया। (चित्र संलग्न है ) गुरु को ज्ञात था कि शिष्य के भीतर बदले की भावना और बुराइयाँ भरी हुई है। इसी कारण इमारत को तोड़कर अन्यत्र बनाने का फ़रमान जारी किया। ऐसा कई बार हुआ अंततः शिष्य साधना के लिए चला गया और अपने भीतर की सारी हीन भावनाओं को समाप्त करने में सफल हुआ। इस इमारत में मेलारेपा की बड़ी मूर्ति स्थित है। आज भूटानी अपने मन से इस मंदिर का दर्शन करते हैं जो गुरु के मार्गदर्शन का प्रतीक भी है। इसकी नौ मंजिली इमारत के सामने बुद्ध मंदिर भी स्थित है। आस-पास कुछ भिक्षुक भी रहते हैं। परिसर अत्यंत स्वच्छ और सुंदर बना हुआ है। वातावरण शांतिमय है।
अब हम आगे की ओर प्रस्थान करते रहे। हमारा पहला पड़ाव था थिंम्फू। यह संपूर्ण पहाड़ी इलाका है। 10, 000फीट की ऊँचाई पर स्थित सुंदर, स्वच्छ शहर है। यह भूटान का सबसे बड़ा शहर है तथा भूटान राज्य की राजधानी भी है।
हमें भूटान इमीग्रेशन से रवाना होते -होते बारह बज गए थे। थिंप्फू पहुँचने में पाँच बज गए। वैसे यह यात्रा चार घंटे की ही होती है पर रास्ते में जैसै -जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ने लगे हमें तेज़ वर्षा का सामना करना पड़ा। गाड़ी की रफ़्तार कम होती गई। साथ ही सड़क पर भयंकर कोहरा छाया रहा। भीषण शीत और कोहरे के कारण गाड़ी में हीटर चलाने की आवश्यकता हुई। पर यात्रा में कोई कष्ट न हुआ।
चालक अत्यंत अनुभवी और सतर्क रहा।
सड़क चौड़ी थी और दो लेन की थी। एक तरफ़ खड़ा ऊँचा पहाड़ और दूसरी ओर तराई थी। चालक सुपारी अवश्य खाते हैं पर कहीं भी न गंदगी फैलाते हैं न सुपारी का पैकेट फेंकते हैं। जिस कारण शहर स्वच्छ ही दिखाई देता है। जो हमारे लिए एक आनंद का विषय था।
हम पाँच बजे के करीब थिंप्फू के होटल में पहुँचे। हमारे रहने की व्यवस्था बहुत ही उत्तम थी। विशाल कमरे में तीनों सहेलियों के रहने की अत्यंत सुविधाजनक व आराम दायक व्यवस्था रही। अब तापमान 2° सेल्सियस था। कमरे में हीटर लगा होने की वजह से कोई तकलीफ़ महसूस न हुई। हम सबने गरम -गरम पानी से हाथ मुँह धोया ताकि थकावट दूर हो। और चाय पीकर गपशप में लग गए। उस रात तीव्र गति से वर्षा की झड़ी लगी रही।
हम जब थिंम्फ़ू की ओर जा रहे थे तो रास्ते में मोदी जी के आगमन के लिए की गई सजावट का दर्शन भी मिला। पहाड़ों पर और तराईवाले हिस्सों पर चौकोर, रंगीन चौड़े -चौड़े तथा बड़े- बड़े पताके लगाए गए थे। ये पताके लाल, हरे, पीले, नीले और सफ़ेद रंग के थे। किसी महान व्यक्ति के आगमन से पूर्व इस तरह के पताके लगाए जाने की भूटान में प्रथा है। यह सिल्क जैसा कपड़ा होता है और बीच -बीच में थोड़ा कटा सा होता है ताकि हवा लगने पर वे खूब लहराते रहे। लंबी रस्सी में ऐसे कई पताके लगाए जाते हैं। हवा चलते ही ये फड़फड़ाने लगते हैं। हवा कए साथ उसकी फड़फब़ाने की ध्वनि सुमधुर लगती है। दृश्य सुंदर और आँखों को सुकून दे रहे थे।
त्रिकोण सफेद तथा रंगीन पताकों पर मंत्र लिखे हुए पताके लगे हुए भी दिखे। भूटान निवासी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। इस धर्म के अनुसार अपने पहाड़, पर्वत, नदी, जंगल आदि को सुरक्षित रखने तथा देश के नागरिकों को सुरक्षित रखने हेतु ये रंगीन त्रिकोणी पताके लगाए जाते हैं। इन पर सर्व कल्याण के मंत्र प्रिंट किए हुए होते हैं। जन साधारण का प्रकृति के प्रति प्रेम तथा सम्मान देखकर मन प्रफुल्लित हुआ।
इसके अलावा सफ़ेद रंग के बड़े – बड़े कई झंडे भी एक ऊँचे स्थान पर एक साथ लगाए हुए दिखाई दिए। उन पर भी मंत्र लिखे हुए होते हैं। ये सफ़ेद झंडे शांति के प्रतीक होते हैं। घर के मृत रिश्तेदार को मोक्ष मिले इसके लिए प्रार्थना के साथ ऊँचे बाँस में ये झंडे लगाए जाते हैं। जितनी ऊँचाई पर ये पताके लगाए जाएँगे उतना ही वे फड़फड़ाएँगे और यही ऊँचाई पर लगाए रखने का मूल कारण है। समस्त प्रकृति में झंडे पर लिखित मंत्र हवा के साथ फड़फड़ाते हुए प्रसरित होते रहेंगे यह उनका विश्वास है। कुछ हद तक शायद यह सच भी है। लोग धर्म को मानकर चलते हैं। एक दूसरे के प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार करते हैं। शोर मचाना या जोर से बोलना उनकी प्रकृति नहीं है। मूल रूप से वे अत्यंत शांति प्रिय लोग हैं। कहीं झगड़े -फ़साद या ऊँची आवाज़ में बात करते हुए हमें लोग न दिखे। पेमा ने हमें बताया कि उनके देश में पश्चात्य देशों से विशेषकर युरोप से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। कानूनन छोटे वस्त्र पहनना, अंग प्रदर्शन करना, स्त्री- पुरुष का गलबाँही कर चलना या पब्लिक प्लेस पर चुंबन लेना दंडनीय अपरापध माना जाता है।
वे निरंतर प्रार्थना बोलते रहते हैं। कुछ लोग माला फेरते हुए भी दिखाई देते हैं।
शहर के सभी लोग, विद्यार्थी, शिक्षक, मज़दूर सभी राष्ट्रीय वेशभूषा में दिखाई देते हैं। शर्ट -पैंट में पुरुष नहीं दिखे। उनके वस्त्र चौकोर डिज़ाइन के कपड़े से बने होते हैं। पुरुषों के वस्त्र घुटने तक पहने जाते हैं और घुटने तक मोजे पहनते हैं। स्त्रियों के वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरा शरीर ढाककर पहने जाते हैं। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनके वस्त्र का कपड़ा हमारे देश के अमृतसर में बुना जाता है परंतु भारत में उसकी बिक्री नहीं की जाने का दोनों देशों के बीच कॉन्ट्रेक्ट है। दो देशों के बीच यह स्नेहसंबंध देख मन गदगद हो उठा। बाँगलादेश में आज भी हमारे देश में बनी सूती की साड़ियाँ बड़ी मात्रा में बिकती है। इस प्रकार के व्यापार से पड़ोसी देशों से संबंध पुख़्ता होते हैं।
हम लंबी यात्रा से थक गए थे और तापमान में भी बहुत अंतर पड़ गया था तो उस रात हमने आराम किया।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा, आत्म विश्वास भारी स्नेह सिक्त प्रभावशाली वाणी, जो उनसे मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सकारात्मक दिशा दर्शन करती थीं । सदा आशीष और मंगलकामनाओं के लिए उठते हाँथ । जी हां, मुझे तो हमेशा ऐसे ही नजर आए डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी जी । संस्कारधानी जबलपुर को उनकी जन्म स्थली कहलाने का गौरव प्राप्त है । उन्होंने जबलपुर, वृन्दावन एवं वाराणसी से शिक्षा प्राप्त की थी । वे संस्कृत एवं पालि-प्राकृत में एम.ए., साहित्याचार्य, पी.एच-डी. थे । उन्होंने वेद-पुराणों सहित संस्कृत के समृद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया था । आपको डी-लिट्.की मानद उपाधि भी प्राप्त हुई, किन्तु ज्ञान पिपासा ऐसी कि कभी शांत नहीं हुई ।
डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी रादुविवि जबलपुर के आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत, पालि-प्राकृत, स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोध विभाग तथा निदेशक राजशेखर अकादमी, निदेशक कालिदास अकादमी उज्जैन, कुलगुरु राजशेखर पीठ संस्कृति विभाग म.प्र. शासन रहे हैं । आप केंद्रीय संस्कृत बोर्ड भारत सरकार के लगातार 6 वर्षों तक सदस्य रहे । आपने योजना समिति वि वि अनुदान आयोग दिल्ली एवं अखिल भारतीय कालिदास समारोह समिति में सदस्य के रूप में महत्वपूर्ण कार्य किये साथ ही संस्कृति परिषद, म.प्र.संस्कृति विभाग, आल इंडिया ओरिएण्टल पूना, एमेरिट्स वि वि अनुदान आयोग दिल्ली व प्रदेश एवं देश के लगभग 50 विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों में महत्वपूर्ण पद पर अथवा सदस्य रहते हुए अपने अनुभवों का लाभ दिया ।
विविध विषयों पर आपके व्याख्यान, भाषण-संभाषण अत्यंत जानकारीपूर्ण व प्रभावशाली होते थे । आपकी वाक कला श्रोता-दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर देती थी । आपके मुखारबिंद से प्रस्तुत भागवत कथा सहित अन्य कथाएं श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में वर्णित घटनाओं-परिस्थितियों का दृश्यांकन करते हुए उन्हें उस काल में पहुँचा कर रस विभोर कर देती थीं ।
अकातो ब्रह्म जिज्ञासा, द्वैत-वेदांत तत्व समीक्षा, आगत का स्वागत, विवेक मकरंदम, पिबत भागवतम, जयतीर्थ स्तुति काव्य, ब्रज-गंधा (ब्रज भाषा में), आपके द्वारा रचित-प्रकाशित महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं । इसके साथ ही आपने डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, श्री रामचन्द्र दास शास्त्री के स्मृति ग्रंथ एवं स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि अभिनंदन ग्रंथ का संपादन भी किया । विशिष्ट विषयों पर दो दर्जन शोध निबंधों का प्रकाशन भी हुआ । आपके मार्गदर्शन में 40 छात्रों ने पी-एच-डी. एवं तीन छात्रों ने डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की है ।
शिक्षा जगत एवं समाज को महत्वपूर्ण योगदान के लिए आपको राष्ट्रपति सम्मान पत्र से, डी.लिट्. की मानद उपाधि से तथा जगतगुरु शंकराचार्य पीठ प्रयाग द्वारा सम्मानित किया गया । अखिल भारतीय स्वामी अखंडानंद सरस्वती सम्मान, अखिल भारतीय रामानंद सम्मान, अखिल भारतीय पद्मभूषण पंडित रामकिंकर सम्मान से भी आप अलंकृत हुए । इतनी उपलब्धियों के बाद भी आपके चिंतन-मनन, ज्ञानार्जन और साधना की आजीवन जारी अविराम यात्रा को व समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने आपकी व्याकुलता को हम सदा स्मरण करते हुए नमन करते रहेंगे । सादर नमन ।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -26 – रमेश बतरा- कभी अलविदा न कहना !… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
क्या चंडीगढ़ की यादों को समेट लूं ? क्या अभी कुछ बच रहा है ? हां, बहुत कुछ बच रहा है। रमेश बतरा के बारे में टिक कर नही लिखा। जितना उसका योगदान मेरे लेखन में है, उतना कम ही लोगों का है। वह करनाल में जाॅब कर रहा था जब मेरा सम्पर्क उससे हुआ। संभवतः मैं पंजाब से पहला लेखक रहा होऊंगा जिससे उसका पत्र व्यवहार शुरू हुआ। यह बाद की बात है कि पता चला कि उसका जन्म ही जालंधर का है। करनाल में जाॅब करते समय रमेश ने अपनी पत्रिका ‘ बढ़ते कदम’ का प्रकाशन शुरू किया, तब प्यार का पहला खत आया कि अपनी रचना भेजो और इस तरह प्रवेशांक में ही मेरी रचना आ गयी। कुछ समय बाद रमेश की ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गयी, फिर जो साथ बना, वह जीवन भर का साथ हो गया। मेरी सबसे ज्यादा यादें रमेश के साथ हैं और चंडीगढ़ में अगर कहीं किसी घर में मेरा ठिकाना हुआ तो रमेश के घर सबसे ज्यादा ! सेक्टर बाइस के पीछे था वह घर। बस से उतरते ही रमेश के ऑफिस पहुंचता, फिर शाम को इकट्ठे घर जाते ! रमेश ही था जिसने पंजाब बुक सेंटर, जो पहले बस स्टैंड के बिल्कुल सामने था, जहाँ खड़े होकर मार्क्स की पुस्तिका थमाई थी। आपातकाल का पहला दिन था यानी 25 जून, 1975, इस तरह उसने मुझे वामपंथ से अनजाने ही जोड़ दिया था। वहीं बुक सेंटर के इंचार्ज थे जालंधर के प्रताप, जो खुद घनघोर पाठक थे और जो भी पुस्तक उन्हे पसंद आती , वे उसे खरीदने और पढ़ने का आग्रह करते। इन पुस्तकों में चेखव , टालस्टाय और मैक्सिम गोर्की ही नहीं रसूल हमजातोव भी शामिल रहे। प्रताप की बात नहीं भूलती कि मध्यवर्गीय लोगों के जीवन में पुस्तक खरीदना बजट की अंतिम पायदान पर होता है बल्कि बजट होता ही नहीं ! चंडीगढ़ में उन दिनों सेक्टर बाइस में भी अच्छी किताबों की दुकान थी, जहाँ से मैंने निर्मल वर्मा की किताबें समय समय पर खरीदीं ! एक किताब की भूमिका की यह पंक्ति कभी नहीं भूली कि हमारे मध्यवर्गीय समाज के लोगों के मकान धूप में तपे रहते हैं, इनका तापमान कभी कभार ही ठंडा होता है। इनका बुखार कभी नहीं उतरता !
खैर, मैं भी कहां से कहां पहुँच जाता हूँ। फिर रमेश ने मित्र शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड की पत्रिका ‘ साहित्य निर्झर’ का एक प्रकार से संपादक का भार अपने कंधों पर ले लिया। उसके संपादन को निकट से देखने का अवसर मिला कि कैसे वह रचना ही नहीं, एक एक फोटो और मेकअप का ध्यान रखता था। एक बार ‘निर्झर’ का लघुकथा विशेषांक आना था। मेरी कोई रचना न थी। हम प्रेस में ही खड़े थे कि रमेश ने कहा – यार केशी ! एक लघुकथा अभी लिख दो ! तेरी लघुकथा के बिना अंक जाये, यह अच्छा नही लग रहा ! मैंने वहीं प्रेस की एक टीन की ट्रे उठाई और रफ पेपर उठाया ! लघुकथा लिखी – कायर ! जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा खुशी से ! अरे केशी ! यह ऐसी लघुकथा है, जो प्रेम कथाओं में पढ़कर आज आनंद आ गया ! मैं जहा जहाँ भी संपादन करूँगा, वहीं वहीं इसे बार बार प्रकाशित करता जाऊंगा और उसने मुझे हर जगह जहाँ जहाँ संपादन मिला, वहीं वहीं कथाएं मंगवा मंगवा कर प्रकाशित कीं। फिर चाहे वह ‘सारिका’ में रहा या फिर ‘ संडे मेल’ में या फिर कुछ समय ‘ नवभारत टाइम्स’ में, उसके सहयोग से मेरा साहित्यिक सफर चलता रहा ! पहले मुम्बई गया और फिर दिल्ली आया। जहाँ मेरा आना जाना बढ़ गया। हर दस पंद्रह दिन बाद, दस दरियागंज टाइम्स के ऑफिस पहुँच जाता। वहाँ देखा कि लोकल बस में सफर करते भी वह ऑफिस से थैले में लाई रचनाओं को पढ़ता रहता ! इतना जुनून ! इतना लगाव ! नये से नये रचनाकार को खत लिखना और अंत में जय जय ! उसका पहला संग्रह दिल्ली से ही आया। फिर तो वह प्रकाशकों का चहेता लेखक बन गया, यहाँ भी उसने अपने से ज्यादा दूसरों के संग्रह निकलवाने का प्रयोग किया। एक ऐसा शख्स, जो हर समय दूसरों के बारे में सोचता रहा ! जया रावत और रमेश के बीच बढ़ते प्यार के दिन भी याद हैं और सहारनपुर में वह शादी का ढोल ढमक्का भी याद है। बेटे नोशी का आना भी यादों में है और बेटी का भी। फिर कहाँ किससे चूक हुई और किस तरह चूक हुई कि रमेश घर छोड़कर ही चलता बना, नशे में खुद को डुबो दिया ! बुरी हालत में देखा छोटे भाई खुश के घर ! जैसे आषाढ़ का एक दिन का कालिदास लौटा था, लुटा पिटा ! मेरा नायक और इस हाल में ! फिर इलाज भी करवा दिया खुश ने लेकिन छूटी नहीं मुंह को लगी हुई, जिसने आखिरकार उसकी जान लेकर ही छोड़ी ! यहाँ भी रमेश जाते जाते सबक दे गया कि पीने पिलाने से बचे रहना चाहिए ! जया भाभी को उत्तराखंड की होने के चलते वह उसका घर ‘लंगूर पट्टी छे’ बताता कर हंसाता रहता। उसी जया भाभी से दो साल पहले गाजियाबाद में मुलाकात हुई।
जब रमेश ने यह जहान छोड़ा तब मैं हिसार ट्रांसफर होकर आ चुका था जब संपादक विजय सहगल का फोन आया कि तेरा दोस्त रमेश नहीं रहा। अब इस रविवार तुम ही लिखोगे उस पर ! मैं सन्न रह गया और सोचता रहा कि कैसे लिख पाऊंगा? हर डाॅक्टर भी अपने प्रियजनों के आप्रेशन भी खुद नहीं करते, दूसरों से करवाते हैं और यह क्या जिम्मेदारी दे दी मुझे ? आखिरकार मैंने लिखा और लिखने के बीच और लिखने के बाद जी भर कर रोता ही चला गया ! कमरे में सिर्फ मेरी सिसकियाँ थीं या वे फड़फड़ाते पन्ने !
रमेश के बाद वैसा टूटकर चाहने वाला दोस्त न मिला। खुश के पास एक बार गया था मोहाली तब रमेश की अनेक पुरानी फोटोज देखीं और सेक्टर बाइस के बरामदे और दिल्ली का टाइम्स ऑफिस! अब रमेश कहीं नहीं मिलता ! कहीं नहीं रहता ! वह सिर्फ और सिर्फ अब यादों में रहता है और यही प्यारा सा गाना गाते कहता है :
कभी अलविदा न कहना
चलते चलते मेरे
ये गीत याद रखना
कभी अलविदा न कहना !
दोस्तो अब आगे तो लिखा नहीं जायेगा। कल मिलूंगा आपसे। आज की जय जय!