हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-19 – किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-19 – किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

वैसे तो यादों की पिटारी किसी की कभी खत्म नहीं होती, लेकिन क्या क्या, कहाँ छिपा हुआ है, किस कोने में छिपा है, यह खुद पिटारी रखने वाला भी नहीं जानता क्योंकि यादें हमारे अवचेतन में रहती हैं और सही समय पर कैमरे की फ्लैश की तरह कौंध जाती हैं! बिजली की तरह चमकने लगती हैं! बेशक किसी लेखक से कम मुलाकातें रही हों लेकिन उसका योगदान बहुत ज्यादा हो,  फिर तो याद करना बनता है न?

ऐसे ही जालंधर से जुड़े पत्रकार रहे हैं-‌रमेश कपिला और उनकी पत्नी मधुर कपिला! रमेश कपिला का जिक्र मोहन राकेश के साथ होना चाहिए था, ऐसा बहुत मित्रों ने कहा लेकिन मेरी कपिला  जी से चंडीगढ़ रहते हुए भी बड़ी औपचारिक सी मुलाकातें हैं, उनके निकट व पारिवारिक सदस्य अनिल कपिला जरूर दैनिक ट्रिब्यून में मेरे सीनियर रहे, जिनसे काफी निकटता रही। हम दोनों यदि नाइट ड्यूटी साथ आ जाती तो ड्यूटी खत्म होने के बाद टेबल टेनिस खेलते थे और मैं मोहाली रात को और भी देर से घर पहुंचता! अनिल कपिला काफी चुहल करने करते थे न्यूज़ रूम में और आज भी उनकी यह आदत गयी नहीं! रमेश कपिला की पत्नी मधुर कपिला से यादें जुड़ी हैं कि वे संगीत नाटक व चित्रकला कार्यक्र्मों की कवरेज कर पहुंचती थीं और हमारे सम्पर्क की कड़ी साहित्य भी था और वे अच्छी लेखिका थीं! हम साहित्य की चर्चा सेक्टर ग्यारह स्थित मीरा गौतम के यहाँ करते! मीरा गौतम के पति रमेश गौतम ‘नवभारत टाइम्स’ के चंडीगढ़ से विशेष संवाददाता थे। मीरा गौतम ने काफी समय सहारनपुर के किसी काॅलेज में बिताया, फिर वे कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी कुछ समय रहीं, वे अच्छी कवयित्री हैं और उनके काव्य संग्रह भी आये!

यहीं मैं पंजाबी के प्रसिद्ध नाटककार आत्मजीत को भी याद कर रहा हूँ, जो मोहाली रहते हैं और उन्होंने बंटवारे के दुखा़ंत को लेकर लिखी मंटो की कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ का ऐसा शानदार रूपांतरण किया कि इससे म़ंटो के साथ आत्मजीत भी खूब याद रहेंगे! यही पंजाबी रूपांतरण नवांशहर  में डाॅ देवेंद्र द्वारा गठित ‘ कला संपर्क’ की ओर से हमारे शहर में मंचित किया गया, जिसकी नायिका बीरी थी! इसके मुख्य किरदार में रेशम थे और बहुत भावपूर्ण अभिनय किया था।

इन दोनों का एक संवाद आज तक नहीं भूला। जब बेटी के रूप में बीरी मुख्य किरदार से मिलने जेल जाती है तब वह घर की खैर खबर पूछता है तो बेटी बताती है कि हमारी कुतिया ने बच्चे दिये हैं। इस पर पिता पूछता है कि फिर बधाई के रूप में क्या किया? इस पर बेटी जवाब देती है कि मैं यह खबर बांट आई थी! क्या बात है आत्मजीत! यहीं से मेरा परिचय आत्मजीत से बना!

चूंकि देवेंद्र हमारे ही घर में किराये पर रहते थे तो उन्होंने यह बात कहते मुझे भी जोड़ लिया कि इस छोटे शहर में रंगकर्म में मेरा सहयोग कीजिये! इस नाटक की रिहर्सल्ज हमारे ही घर हुईं क्योंकि देवेंद्र हमारे  ही रहते थे! इसकी एक भूमिका गढ़वाली लड़की सुषमा ने निभाई थी तो मुख्य भूमिका रेशम कलेर ने! निर्दशन पुनीत सहगल का और हमने इसे आर्य स्कूल के पीछे वाले मैदान में नववर्ष की पूर्व संध्या पर पहली बार अपने छोटे से शहर में मंचित किया था! सुधा जैन और बूटा सिंह कोहेनूर ने संगीत व गायन पक्ष संभाला था! मेरे बचपन के मित्र और आजकल नवांशहर के प्रसिद्ध डाॅ आदर्श रामपाल ने नाटक मंचन के आर्थिक पक्ष को दूर करते अपनी दराज खोलकर कहा था कि जितने पैसे चाहिएं ले लो देवेंद्र लेकिन मेरा यह दोस्त किसी और से पैसे मांगने नहीं जायेगा! असल में मैंने नवमी से ग्यारहवी़‌ तक मेडिकल ही रखा था और राजपाल मेरे तीन वर्ष तक सहपाठी रहे! फिर‌ मैं बीए करने लगा और वे अमृतसर से डाॅक्टर बन कर आये!

 तो  मित्रो! नाटक के माध्यम से मैं डाॅ आत्मजीत के सम्पर्क में आया और‌ उनके पंजाबी नाटक में दिये योगदान को जान पाया! मैंने उन्हें प्रसिद्ध लेखक मोहन राकेश की पत्नी अनिता राकेश की इंटरव्यू दिखाई, जो दिल्ली जाकर की थी और बरसों बाद मेरी पुस्तक ‘यादों की धरोहर’ का आधार‌ बनी!

खैर! डाॅ आत्मजीत को इससे अपनी पत्रिका मंचन’ के मोहन राकेश विशेषांक का आइडिया आया, जिसमें मेरी वही इंटरव्यू भी अनुवाद कर प्रकाशित की और यही नहीं मैने डाॅ आत्मजीत को सत्रह वर्ष से संभाले ‘सारिका’ का विशेषांक इस आग्रह के साथ दिया कि मुझे लौटा देंगे, विशेषांक तो आया पर ‘सारिका’ का अंक आज तक नहीं लौटा! जैसे मैंने भी एक बार डाॅ चंद्र त्रिखा के निजी पुस्तकालय से ‘अज्ञेय की प्रिय कहानियाँ’ यह कहकर ले ली कि लौटा दूंगा पर मेरी ट्रांसफर हिसार हो गयी और यह मेरे साथ हिसार चली आई! इसीलिए तो कहा जाता है कि गंगा में विसर्जित की गयीं अस्थियाँ और उधार दी गयीं किताबें कभी वापस नहीं आतीं! तभी तो मोहन राकेश कहते थे कि  हम किसी से उनके घर की और कोई चीज़ उधार नहीं मांगते तो किताब ही क्यों उधार मांगते हो? यानी किताबें खरीद कर पढ़िए!

बस, बाॅय आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 11 – संस्मरण # 5 – ऋण और ऋणी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 11 – संस्मरण # 5 – ऋण और ऋणी ?

नारायण अल्प शिक्षित था। गाँव में कोई खास काम ना मिलने के कारण और अपनी खेती बाड़ी भी ना होने के कारण उसने अपनी बेटियों को लेकर शहर आ जाना ही उचित समझा। शहर में भी कोई बहुत बड़ा रोज़गार तो नहीं मिला था, हाँ एक छोटे से दफ़्तर में चपरासी का ही काम करता था जिससे राज़ी रोटी चल जाती थी।

समय के साथ- साथ थोड़ा बहुत धन भी उसने जुटा लिए थे। आखिर बड़े परिवार को पालने और बेटियों को पढ़ाने -लिखाने के लिए एक ऑटो रिक्शा खरीदी।ऑटो रिक्शा के कारण अच्छी ख़ासी जीविका की व्यवस्था हो गई। स्थायी आय पाने के लिए उसने अपनी रिक्शा में दोनों तरफ़ दरवाज़े लगा लिए और स्कूल के बच्चों को लाने – छोड़ने का काम करने लगा। उन दिनों अपने शहर का संभवतः वह पहला व्यक्ति था जिसकी रिक्शा में सुरक्षा हेतु दरवाज़े थे।

मृदुभाषी और सज्जन व्यक्ति होने के कारण अभिभावक भी उसका सम्मान करते थे और जब कभी आवश्यकता महसूस होती तो यहाँ -वहाँ जाने के लिए उसे ही बुला लेते थे।यह उसके लिए ऊपरी आय भी हो जाती थी।

नारायण की बच्चियाँ स्कूल में पढ़ने लगीं जीवन अपनी गति से चलने लगा। नारायण ईमानदार, कठोर परिश्रमी और सत्यवादी था जिस कारण आस-पड़ोस के लोग उससे स्नेह करते थे और सम्मान भी।

लड़कियाँ पढ़-लिख गईं। समय और उम्र के अनुसार अपनी ससुराल चली गईं।जो जमा पूँजी थी, पत्नी के जेवर थे सबकुछ देकर बच्चियों की शादी की।

कहते हैं न मुसीबत कभी बताकर नहीं आती! बस यही कहावत नारायण के विषय में उचित सिद्ध हुई। इधर हाथ खाली हुए और उधर कोरोना काल आ धमका।

सब कुछ ठप्प पड़ गया।स्कूल बंद हो गए, सड़कें सूनी हो गईं।लोगों ने घर से निकलना बंद कर दिया।रिक्शा अपनी जगह चुपचाप खड़ी रही।

समय बीतता गया, छह माह बीत गए न स्कूल खुले न रोज़गार ही प्रारंभ हुआ ! नारायण और उनकी पत्नी के लिए रोटी के लाले पड़ गए। जैसे -तैसे प्याज़, अचार से रोटी खाकर कुछ समय काट लिए।

एक दिन किसी कारणवश एक अभिभावक ने नारायण से कहा कि उन्हें कहीं जाना है तो वह आ जाए। नारायण समय पर पहुँचा और उनसे निवेदन किया कि रिक्शा में वे पेट्रोल डलवा दें। बातों ही बातों में अभिभावक को उसकी दरिद्रता की छवि दिखाई दी।

घर लौटकर उसे दो मिनिट रुकने के लिए कहा और बिना कुछ कहे वे अपनी बिल्डिंग के ऊपर चले गए। लौटकर आए तो नारायण के हाथ में एक चेक थमा दिया बोले- जब तक सब कुछ सामान्य न हो इससे तुम्हारा गुज़ारा संभवतः चल जाएगा। लाख मना करने पर भी

वे न मानें तो नारायण उनके हाथों को माथे से लगाकर चूमते हुए आँखों से बहते कृतज्ञता व्यक्त करते हुए वहाँ से उसने विदा ली।

साल बीत गया।स्कूल अब भी न खुले थे पर हाँ रिक्शा सड़क पर निकल तो आई थी। दो वक्त की रोटी जुटाने लायक व्यवस्था हो रही थी।

नारायण की पत्नी मितभाषी और धर्म-परायण महिला थीं। जब और जितना बोलती थी वह बातें मार्गदर्शन के लिए योग्य होती थीं।

एक दिन वह अपने पति से बोली –

आहो, साहेब के पैसे लौटा दीजिए।

– कैसे ?

– रिक्शा बेच दीजिए …..

– और हम दोनों खाएँगे क्या?

– मैं लोगों के घर भोजन पकाने का काम कर लूँगी और आप भी कहीं किसी दुकान में काम देख लेना ….

– पागल हो गई हो क्या? इस उम्र में तुम बाहर जाकर काम करोगी ?

– क्या आपको इस ऋण को चुकाने के लिए एक और जन्म लेने की इच्छा है? उऋण होकर मरेंगे हम तो मन को शांति मिलेगी न!

नारायण कुछ न बोला, वह पत्नी की बातों की गहराई को समझ रहा था।

नारायण भले ही अल्प शिक्षित हो पर वह इस पचास साल की उम्र में अनुभवी तो था ही।

उसने रिक्शा बेच दी और रकम लेकर साहेब के घर पहुँचा।

– अरे, नारायण आओ आओ, कैसे हो ? बहुत दिनों के बाद आए।बैठो, बैठो!

– साहेब …..ये..उधार चुकाने आया था साहिब।आपकी बड़ी कृपा रही मुझ गरीब पर, पर अब और ऋण का बोझ नहीं ढो सकता।

– पर मैंने तो तुम्हें कभी पैसों के लिए तगादा नहीं दिया! फिर स्कूल भी शुरू नहीं हुए, कहाँ से आए पैसे?

– नारायण ने सिर झुकाकर, धीमी आवाज़ में बोला -साहेब, मैंने रिक्शा बेच दी।साल बीत गया मैं ब्याज तक न दे सका, मुद्दल की क्या कहूँ!

– ठीक है, आ जाते पैसे पर रिक्शा क्यों बेची? रोज़गार का ज़रिया क्या होगा? खाओगे क्या….

– नहीं साहेब, कहीं भी मज़दूरी कर लूँगा पर मैं ऋणी होकर मरना नहीं चाहता। इस जन्म में गरीबी झेल ली, एक और जन्म ऋण चुकाने के बोझ से जन्म नहीं लेना चाहता।इस जन्म का हिसाब इसी जन्म में चुकता हो जाए तो ईश्वर की बड़ी कृपा होगी।।

रुपयों का लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रखकर, हाथ जोड़कर नारायण दरवाज़े से धीरे -धीरे बाहर चला गया।

नारायण जहाँ खड़ा था वहाँ की रज साहेब ने अपने माथे से लगा ली बोले- नारायण, तुम केवल नाम के ही नारायण नहीं तुम तो कर्म के भी नारायण हो! तुम आदर्श हो! ईश्वर तुम जैसे लोगों से इस संसार को भर दें तो सारी दुनिया ही बदल जाएगी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆

☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

सामान्यतः लोगों का परिचय उनके पिता के नाम और वंश परंपरा से बंधा होता है, किंतु कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने पुरुषार्थ – पराक्रम, कार्यों और परिणामों से स्वतः अपना परिचय बनाते हैं। ऐसे व्यक्तियों का किसी परंपरा, बंधन और विरासत के दायरे में बंधे रहना कठिन ही नहीं असम्भव रहता है। वे स्वयं अपना अस्तित्व अनुभव करते हैं और उसी की प्रामाणिकता के लिए जीवन को संघर्ष की कसौटी पर कस देते हैं। सेठ गोविन्द दास इसी श्रेणी के व्यक्ति थे। 16 अक्तूबर 1896 को जबलपुर के अति संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में उन्होंने जन्म लिया। दीवान बहादुर जीवनदास उनके पिता और राजा गोकुलदास उनके पितामह थे।

सेठ गोविन्द दास ने अपने विश्वास, सिद्धान्त प्रियता और अटूट देश प्रेम के कारण विशिष्ट पारिवारिक स्थितियों में अपनी विशाल पैतृक संपदा को भी त्याग दिया और संसार में स्वत: अपनी पहचान बनाने के संघर्ष भरे मार्ग पर चल पड़े। जीवन संघर्ष के बीच उन्होंने अपने बुद्धि चातुर्य, विवेक और धीरज से न केवल अपने को वरन अपने नाम से पूर्वजों को भी परिचित और प्रकाशित करने का काम किया। आज देशवासी सेठ गोविन्द दास को महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू का साथी, देशभक्त स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, धर्मनिरपेक्ष समाजसेवी, कुशल राजनीतिज्ञ एवम हिंदी के प्रबल पक्षधर, साहित्यकार के रूप में जानते हैं। चूंकि सेठ गोविन्द दास द्वारा रचित साहित्य में वृहत नाटकों एवम एकांकियों की संख्या सौ से भी अधिक है इसी कारण उन्हें सर्वाधिक ख्याति नाट्य शिल्पी के रूप में मिली। सेठ गोविन्द दास जी का जन्म दिवस “नाट्य दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

अपने कर्म और पौरुष पर विश्वास करने वाले सेठ गोविन्द दास की भावना उनके प्रसिद्ध नाटक “कर्ण” में स्पष्ट परिलक्षित होती है, जिसमें कर्ण गुरु द्रोण से कहता है – “वर्ण और वंश” माता पिता का नाम ! वर्ण तथा वंशों का द्वंद्व होना है या अर्जुन का और मेरा, आचार्य ? मेरी दृष्टि से आप अर्जुन के वर्ण – वंश और माता – पिता का विवरण कर उल्टा अर्जुन का अपमान कर रहे हैं। उन्हें गर्व होना चाहिए अपना और अपने पौरुष का। जन्म तो देवाधीन है आचार्य ! हां पौरुष स्वयं के आधीन है। मुझे अपने कुल का परिचय देने की आवश्यकता नहीं, वह मेरे हांथ में नहीं। मेरे हांथ में है मेरा पौरुष तथा मेरा पौरुष ही मेरा सच्चा परिचय है यदि वर्ण और वंश का महत्व है तो वह तो भूतकाल को महत्व देना हुआ। अर्जुन को यदि अपने अतीत काल का गर्व है तो मुझे वर्तमान एवं भविष्य का। मैं अपना वंश बनाऊंगा, अपना वर्ण बनाऊंगा। आचार्य, मैं अपने पूर्वजों के कारण प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित नहीं होना चाहता, मेरे वंशज मेरे कारण यशस्वी होंगे। “

अपने इस मत के प्रतिपादन में सेठ गोविन्द दास ने पारिवारिक सिद्धांत, सुविधाएं व संपत्ति छोड़ कर अपने सार्वजनिक जीवन के साथ साहित्य क्षेत्र और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेकर इस गौरव अभियान में स्वत: को समर्पित कर दिया।

सेठ जी ने अपने प्रत्येक नाटक में एक सशक्त कथानक और आदर्श रखा है, किसी में देश प्रेम है तो किसी में मानव धर्म, पीड़ितों की सेवा, माता – पिता की आज्ञा पालन। वे सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों और अंधविश्वासों पर चोट करने से भी अपने नाटकों में नहीं चूके। “भविष्यवाणी” में उन्होंने पाखंडी भविष्य वक्ता के चक्कर में फंसे हुए कुछ परेशान लोगों का सजीव चित्रण किया है। उनके कुछ अन्य प्रसिद्ध नाटक हैं – कर्तव्य, कुलीनता, हर्ष, विश्व प्रेम, प्रकाश, पाकिस्तान, दलित कुसुम, सिद्धांत – स्वातंत्र्य, स्पर्धा आदि। नाट्य कला पर उन्होंने “नाट्य कला मीमांसा” पुस्तक भी लिखी है।

“कर्तव्य” नाटक के पूर्वार्द्ध में रामचरित मानस तथा उत्तरार्ध में कृष्ण के जीवन के विशिष्ट प्रसंगों का चित्रण है। राम के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान होते हुए भी सेठ जी ने उन्हें अवतार के रूप में नहीं वरन जागरूक आत्मा के महापुरुष के रूप में चित्रित किया है। जब किसी मर्यादा का खण्डन होता है तो उनके मन में द्वंद्व खड़ा हो जाता है। कृष्ण का चित्रण भी एक विद्रोही एवं नई मान्यताओं के प्रतिष्ठाता के रूप में है।

हर्ष नाटक के निवेदन में सेठ जी ने कहा है – “मेरा मत है कि नाटक, उपन्यास या कहानी में लेखकों को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भी पुरानी कथा को तोड़ – मरोड़ कर उसे एक नई कथा ही बना दें। हां कथा का अर्थ वह अवश्य अपने मतानुसार कह सकता है। ” नाटक में बताया है कि हर्ष साम्राज्य की स्थापना के लिए शक्ति का उपयोग न करके हृदय परिवर्तन और स्वेच्छा को साधन बनाना चाहता है, इसलिए आरंभ में शक्ति का सहारा लेता है किंतु अंत में उसे त्याग देता है। यहां सेठ जी ने गांधीवादी अहिंसा और प्रजातांत्रिक विचारों का प्रतिपादन किया है। हर्ष में नारी के सम्मान को भी उभारा गया है। विधवा को भी मंगलमयी और तपस्वनी कहा गया है, इसलिए राज्यश्री विधवा होते हुए भी सम्राज्ञी बनाई जाती है। प्रकाश नाटक उपरोक्त नाटकों से अलग है। यह वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में विरचित नाटक है। सत्य को समाज के सम्मुख रखना इस समाज का काम है। सत्य के मार्ग से ही ग्राम और नगरवासियों के दुखों का परिमार्जन किया जाए, यही इस नाटक का केंद्रीय भाव है। जो भी हो सेठ जी की अपनी मान्यताएं हैं, उनके अपने निश्चय हैं, इन्हें ही व्यक्त करने के लिए उन्होंने मूर्तता को आधार बनाया अथवा इन्हें ही अभिव्यक्ति देने के लिए उन्होंने अपनी योजनाएं बनाईं और पात्र चुने। वे प्रसिद्ध पाश्चात्य नाटककार “इबसन” की भांति स्वाभाविकता के भी हिमायती रहे हैं और उनके नाटकों में इसके दर्शन भी होते हैं।

साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा नाटक की विधा अधिक तकनीकी है। उसका अपना व्याकरण यत् किंचित दुरूह होता है, किंतु सेठ गोविन्द दास ने पूर्वी और पश्चिमी प्रणालियों के अध्ययन द्वारा कौशल और भावों के धरातल को ऊंचाई तक ले जाने का सफल प्रयत्न किया है। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, गुणी, समर्पित देशभक्त, साहित्यकार जो 50 वर्षों तक सांसद रहे और हिंदी को राष्ट्रभाषा  बनाने आजीवन प्रयत्न करते रहे उन्हें सादर नमन।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-18 – डायरी में कितने नाम कट गये! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-18 – डायरी में कितने नाम कट गये! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

ये यादें भी क्या चीज़ हैं कि किधर से किधर ले जाती हैं, उंगली पकड़कर ! आज याद आ रहे हैं वे युवा महोत्सवों के दिन ! जिनके दो लोग बहुत याद आ रहे हैं ! पहले हैं अशोक प्लेटो  जो बहुत ही प्रभावशाली वक्ता ही नहीं, कवि भी थे ! उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां आज तक नहीं भूलीं, वे सामने वाले का नाम लेकर कहते :

कमलेश ! तुम भेड़ तो नहीं हो

फिर भीड़ में शामिल क्यों हो ?

यानी वे सामने वाले को अलग हटकर अपनी हैसियत व जगह बनाने का आह्वान करते ! वे भाषण प्रतियोगिता में मेरे ध्यान में कभी प्रथम पुरस्कार से कम नहीं आते ! वे हिमाचल के कुछ महाविद्यालयों में प्राचार्य नियुक्त हुए लेकिन जालंधर उन्हें खींच कर  फिर ले आता और वे मोहन राकेश की तरह जैसे जेब में ही त्यागपत्र रखते थे ! आखिरकार वे पंजाब केसरी में उपसंपादक हो गये !  वे संस्कृत की विदुषी और डाॅ कैलाश भारद्वाज की पत्नी डाॅ सरला भारद्वाज के भाई थे। डाॅ सरला भारद्वाज को एक साल हिसार के ब्रहम विद्यालय की ओर से सम्मानित भी किया गया और वे सीधे हमारे ही घर आईं और इस तरह दोआबा की खुशबू जैसे मेरे घर आई, वही दोआबा, जिसकी मिट्टी से मैं बना हूँ ! आह! फिर अशोक प्लेटो न रहे। वे आपातकाल में दोस्तों से मज़ाक में कहते कि आपके घर चुपके से मार्क्स की किताब रख दूंगा और पुलिस को खबर कर दूंगा, फिर पकड़े जाओगे ! असल में वे अभिव्यक्ति के खतरों के प्रति अपनी आवाज को इस तरह पेश करते थे।

दूसरी याद हैं रीटा शर्मा, जो बाद में रीटा शौकीन बनीं ! वे भी हमारे काॅलेज के दिनों में काव्य पाठ प्रतियोगिताओं में एक ही कविता पढ़तीं :

मैं, तुम, हम सब कोढ़ी हैं!

और काव्य पाठ में प्रथम पुरस्कार ले उड़तीं, हम दूसरे प्रतिभागी देखते ही रह जाते ! फिर‌ वे चंडीगढ़ आ गयीं और थियेटर में आईं और एक नाटक तैयार किया-गुडमैन दी लालटेन‌, जिसे भव्य स्तर पर पंजाब के अनेक शहरों में मंचित किया, इनमें हमारा नवांशहर भी एक रहा और यही हमारी अब तक की आखिरी मुलाकात रही! यह नाटक सतलुज सिनेमा में म़चित किया गया !

जीवन के लम्बे सफर में बहुत लोग छूट जाते हैं, जैसे गाड़ी के मुसाफिर अलग अलग स्टेशन पर उतर जाते हैं, वैसे ही कितने परिचित चेहरे हमारी नज़रों से ओझल हो जाते हैं। इस स्थिति को मैंने अपनी एक कविता- डायरी के पन्ने में व्यक्त करने की कोशिश की है। यह कविता ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ के संपादक और प्रसिद्ध कवि हरभजन हल्वारवी के निधन की खबर पढ़ते ही लिखी गयी थी ! वे मुझे बहुत मानते थे और कई बार संपादक विजय सहगल के सामने कहते, सहगल जी, जी करता है कि कमलेश को मैं आपसे उधार मांगकर, ट्रांसफर करवा कर पंजाबी ट्रिब्यून में ले लूं‌! उन्होंने मुझसे पंजाबी में भी लिखवाया भी ! जब उनका निधन हुआ तब मैं हिसार में था और उन्हें याद कर एक कविता लिखी,  जो भास्कर की मधुरिमा में प्रकाशित हुई, जब मैंने दैनिक ट्रिब्यून छोड़ दिया था! कुछ अंशों के साथ आज समाप्त करता हूँ अपनी बात :

:कभी ऐसा भी होता है /कि पता चलता है कि /लिखे नाम और पते वाला आदमी /इस दुनिया से विदा हो गया। /तब डायरी पर देर तक /देखता रह जाता हूं,,,/सब याद आने लगता है /कब, कहां मिले थे /कितने हंसे और कितने रोये थे। /आंखें नम होने लगती हैं,,,/बेशक नहीं जा पाता /उसकी अंतिम विदा बेला में /पर लगता है /जीवन का कुछ छूट गया /भीतर ही

भीतर कुछ टूट गया। /कोई अपना चला गया। /डायरी से नाम काटते वक्त

बहुत अजीब लगता है।

आज बस इतना ही! कल फिर कोशिश‌ रहेगी, कुछ नये  अलग लोगों को याद करने की!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 10 – संस्मरण # 4 – एक और गौरा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – एक और गौरा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 10 – संस्मरण # 4 – एक और गौरा ?

श्रावणी मासी मोहल्ले भर में प्रसिद्ध थीं। सबके साथ उठना – बैठना, सुख-दुख  में पास आकर सहारा देना उनका स्वभाव था। स्नान के बाद सिर पर एक गमछा बाँधकर वह दिन में एक दो परिवारों का हालचाल ज़रूर  पूछ आतीं  पर एक बात उनकी ख़ास थीं कि वे स्वयं कभी किसी से किसी प्रकार की चर्चा न करतीं,यहाँ का वहाँ न करतीं जिस कारण सभी अपनी पारिवारिक समस्याएँ उनके सामने रखते।

वे किसी से सहायता की अपेक्षा कभी नहीं रखतीं थीं। वे स्वयं सक्षम, समर्थ और साहसी महिला थीं। निरक्षर थीं वे पर अनुभवों का भंडार  थीं। समझदार बुद्धिमती तथा सकारात्मक दृष्टिकोण रखनेवाली स्त्री।

किसी ज़माने में जब हमारा शहर इतना फैला न था तो नारायण मौसाजी ने सस्ते में ज़मीन खरीद ली थी और एक पक्का मकान खड़ा कर लिया था। घर के आगे – पीछे खूब ख़ाली ज़मीन थी। श्रावणी मासी आज भी खूब रोज़मर्रा लगनेवाली सब्ज़ियांँ अपने बंगले के पिछवाड़े वाली उपजाऊ भूमि पर उगाती हैं। उन सब्ज़ियों का स्वाद हम मोहल्लेवाले भी लेते हैं। अपने तीनों बेटों के हर जन्मदिन पर वे पेड़ लगवाती, पर्यावरण से बच्चों को अवगत करातीं। आज उनके जवान बच्चों के साथ वृक्ष भी फलदार हो गए। आम,जामुन,अनार,अमरूद,सीताफल, पपीता , कटहल, कदली , चीकू , सहजन के पेड़ लगे हैं उनके बगीचे में। खूब फल लगते और मोहल्ले में बँटते हैं। आर्गेनिक फल और सब्जियाँ! पीपल, अमलतास , गुलमोहर वट, नीम के भी वृक्ष लगे हैं। हम सबके बच्चों ने पेड़ पर चढ़ना भी यहीं पर तो सीखा है।

अब शहर बड़ा हो गया, चारों ओर ऊँची इमारतें तन गईं, और उनके बीच श्रावणी मासीजी का बंगला पेड़ – पौधों से भरा हुआ खूब अच्छा दिखता है। कई बिल्डरों ने कई प्रलोभन दिए पर मासीजी का मन न ललचाया।

अब तीनों बेटे ब्याहे गए । घर में खूब हलचल है। बेटे भी सब पर्यावरण के क्षेत्र में काम करते हैं। पूरा परिवार प्रसन्न है।

अचानक सुनने में आया कि मासी जी के घर बछड़ा समेत एक सफ़ेद गाय लाई गई। गोठ बनाई गई , उसकी सेवा के लिए एक ग्वाला नियुक्त किया गया। अब हम सबको दही, घी, मट्ठ़े का भी प्रसाद मिलने लगा।

बार – बार सबके पूछने पर कि मासीजी को गाय खरीदने की जरूरत क्यों पड़ी भला! आज के आधुनिक युग में भी भला कोई गाय पालता है! कितनी गंदगी होगी, बुढ़ापे में काम बढ़ेगा कैसे संभालेंगी वे ये सब!

एक दिन श्रावणी मासी जी ने यह कहकर सबका मुँह बंद करवा दिया कि, अब तक आप सब आर्गेनिक सब्ज़ियों और फलों का आनंद लेते रहे । अब अपनी आनेवाली अगली पीढ़ी को भी शुद्ध दूध-दही,छाछ- मट्ठ़ा और घी- मक्खन खाकर पालेंगी।

आल आर्गेनिक थिंग्स। दूध भी आर्गेनिक,। हम सब मासीजी की बात पर हँस पड़े।

वे बोलीं, मेरी दो बहुएँ गर्भ से हैं। ये व्यवस्था उनके लिए है।आनेवाली पीढ़ी शुद्ध वस्तुओं के सेवन से स्वस्थ, ताकतवर बनेगी। इसकी शुरुआत मैं अब आनेवाले मेरे पोते-पोतियों से करती हूँ। श्रावणी मासी जी की दूरदृष्टि को सलाम।

मुझे महादेवी वर्मा जी की ‘ गौरा ‘ याद आ गई। जो किसी की ईर्ष्या का शिकार हो गई थी और तड़पकर मृत्यु मुखी हुई। और यहाँ आज एक गाय अपने बछड़े समेत खूब देख- भाल और सेवा पा  रही है। बछड़े का भी भविष्य उज्जवल है और आनेवाली पीढ़ी का भी। दोनों तंदरुस्त होंगे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆

☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

डॉ. रामदयाल कोष्टा साधना से बने “श्रीकांत”

डॉ.रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” के नामोल्लेख के साथ ही एक श्याम रंग का सुदर्शन व हंसमुख व्यक्तित्व आंखों के सामने आ जाता है। जब मेरा उनसे परिचय हुआ तब मैं कक्षा चौथी का छात्र था और वे हितकारिणी सिटी कालेज से एम. ए. कर रहे थे। वे मेरे पिता स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के प्रिय छात्र थे। अब डॉ. श्रीकांत हमारे बीच नहीं हैं और जब उन पर कुछ कहने अथवा लिखने का विचार आया तो दुविधा खड़ी हो गई। उस बहुआयामी व्यक्तित्व के किस रूप पर, किस गुण पर, किस कार्य पर लिखूं ? स्कूल – कालेज के विद्वान विनोदी व लोकप्रिय शिक्षक कोष्टा जी पर, अपने गुरुओं के प्रिय शिष्य कोष्टा जी पर, अनोखी स्मरण शक्ति के धनी, ज्ञान पिपासु, हिंदी साहित्य के एम. ए. “गोल्ड मेडलिस्ट”, मानस मर्मज्ञ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” पर, वर्तमान धरातल पर मानस के सहज व्याख्याकार प्रखर वक्ता डॉ. श्रीकांत पर, सुयोग्य पत्रकार – संपादक डॉ. श्रीकांत पर, कोष्टा समाज को विकास की धारा से जोड़ने व सदा उनके मार्गदर्शन को उत्सुक रहने वाले डॉ. कोष्टा पर, पंडित रामकिंकर के प्रिय शिष्य, बनारस की व्यास गद्दी प्राप्त प्रथम गैर ब्राह्मण डॉ. कोष्टा पर जिसने अवसर आने पर भी अपने हितों के लिए अपने सिद्धांत, निष्ठाएं और मित्रों को नहीं छोड़ा उस डॉ. कोष्टा पर, माता – पिता के अच्छे पुत्र, एक अच्छे भाई, अच्छे पति, अच्छे पिता कोष्टा पर या विद्यार्थी एवं युवाकाल में दंगल जीतकर ढोल और प्रशंसकों के साथ माला पहने हुए घर लौटने वाले रामदयाल कोष्टा पर। कोष्टा जी का जीवन विविध रंगों – प्रसंगों से भरा रहा, वे हरफन मौला थे। उन्होंने जीवन के हर रंग व प्रसंग के साथ पूरा न्याय किया, उसे पूरी तरह से जिया। कभी – कभी उनकी जीवनी शक्ति व कार्य करने की अद्भुत क्षमता पर आश्चर्य होता है की वे कैसे एक ही जीवन काल में इतना सब कर सके ! उन्हें मैं भाई साहब कहता था, जब उनकी याद आती है तो ऐसा लगता है कि वे बहुत जल्दी चले गए। उनका बहुत कुछ करना शेष रह गया।

जब डॉ. कोष्टा के रूप में प्रथम बार किसी गैर ब्राह्मण मानस विद्वान को बनारस की व्यास गद्दी प्राप्त हुई और उन्होंने इस उपलब्धि पर अपने गुरु याने मेरे पिता डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के चरण स्पर्श किए तो मेरे पिता ने जो आशीर्वचन कहे, मुझे अभी तक याद हैं। “कोष्टा, गुरु का मूल्यांकन उसके शिष्यों से होता है, मुझे तुम्हारे जैसे बुद्धिमान और योग्य शिष्य पर गर्व है। ये छोटी – छोटी उपलब्धियां और सम्मान तुम्हारी मंजिल नहीं पड़ाव हैं। ” वास्तव में कोष्टा जी के ज्ञानार्जन एवं व्यक्तित्व विकास में कभी भी ठहराव नहीं आया। उन्होंने डी. एन. जैन महाविद्यालय के प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्ति प्राप्त कर स्वतः के संपादकत्व में धार्मिक – आध्यात्मिक पत्रिका “रामायणम्” का प्रकाशन प्रारंभ किया। उनके संपादन में प्रकाशित “रामायणम्” के अंक राम कथा – आध्यात्म की अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने जबलपुर नगर से प्रकाशित “हितवाद” एवं  “ज्ञानयुग प्रभात” समाचार पत्रों में भी समाचार संपादन का कार्य कर यश प्राप्त किया।

डॉ. रामदयाल कोष्टा ने रामचरित मानस का अर्थ सही मायने में समझा और अन्य व्याख्याकारों के मुकाबले अधिक सरसता, सहजता के साथ ग्राह्य बना कर प्रस्तुत कर सके। उन्होंने पंडित रामकिंकर जी के प्रवचनों की अनेक पुस्तकें एवं आडियो कैसेट्स भी अपने नेतृत्व व संपादन में तैयार करवाए और उन्हें जन – जन को सुलभ कराया। उनकी अध्यापन शैली विनोदपूर्ण और ऐसी चमत्कारिक थी कि छात्र मंत्र मुग्ध होकर उनके व्याख्यान सुनते थे। डॉ. कोष्टा अपने अंतरंगों के बीच विशिष्ट अवसरों पर बहुत मधुर स्वर में लोकगीतों का गायन भी करते थे। उनमें सुनी अथवा पढ़ी बातों को याद रखने की अद्भुत क्षमता थी। किसी संस्मरण को वे इस तरह प्रस्तुत करना जानते थे कि श्रोताओं के सामने उस प्रसंग का जीवंत दृश्य व वातावरण ही उपस्थित हो जाता था।

बैठकों – सभाओं अथवा परिचितों के बीच जहां भी डॉ. कोष्टा होते वहां का वातावरण उनकी उपस्थिति से जीवंत हो उठता, वहां बीच बीच में प्रसंग वश उनके ठहाके अवश्य गूंजते। मैंने उन्हें बड़ी से बड़ी परेशानियों और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य खोते नहीं देखा। उनकी जिज्ञासा, ज्ञान पिपासा, अध्ययन, लोगों के प्रति विश्वसनीयता, कर्तव्य के प्रति समर्पण, गुरु भक्ति, ईश्वर पर आस्था, निश्छल और मधुर व्यवहार, कर्मठता तथा विश्वास भरी वाणी ने उनके व्यक्तित्व में सम्मोहन पैदा कर दिया था। संभवतः इन्हीं गुणों के प्रतिफल ने उन्हें आम आदमी से अलग “श्रीकांत” बना दिया। अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। 10 अप्रैल 1933 को जबलपुर में जन्में डॉ. कोष्टा 16 दिसंबर 1998 को चिर निद्रा में लीन हो गए। उनके कार्य नई पीढ़ी का पथ प्रदर्शन करते रहेंगे।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-17 – क्या मोहन राकेश ही कालिदास तो नहीं थे? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-17 – क्या मोहन राकेश ही कालिदास तो नहीं थे? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

पता नहीं, किधर से किधर , यादों की गलियों में निकल जाता हूँ और बहुत बार यादों में खोया-खोया, किसी एक में पूरी तरह खो जाता हूँ। आज जालंधर के बहाने पंजाब के ही नहीं, देश के प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश की ओर वापस आ रहा हूँ। उनके ठहाके आज भी जालंधर के पुराने लेखकों को याद हैं, उन ठहाकों के पीछे का दर्द कम ही लोग जानते हैं! जगजीत सिंह की गायी ग़ज़ल जैसी हालत है :

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है, जिसको छुपा रहे हो!.

मोहन राकेश के हाथों में शादी की सही लकीर नहीं थी! तीन तीन शादियों के बावजूद वे ठहाकों के पीछे अपना दर्द छिपाते रहे! पर उनके नाटकों की ओर आता हूँ।

मोहन राकेश ने जीवन में तीन नाटक लिखे-आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और‌ आधे अधूरे। चौथा नाटक  पूरा नहीं कर पाये, जिसे बाद में उनके कथाकार  त्रयी में से एक मित्र कमलेश्वर ने ‘पैर तले की ज़मीन’ के रूप में पूरा किया। ‘आषाढ़ का एक दिन’ से ‘आधे अधूरे’ तक तीनों नाटक खूब पढ़े ही नहीं देश भर में खूब मंचित किये जा रहे हैं ! आषाढ़ का एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय के थियेटर विभाग में दैनिक ट्रिब्यून के शुरुआती दिनों में देखा था ओर संयोग देखिये कि मल्लिका के रूप में भावपूर्ण अभिनय करने वाली छात्रा को आज भी जानता हूँ ओर वे हैं वंदना राजीव भाटिया! हिसार के ही ऱगकर्मी राजीव भाटिया की पत्नी। इस नाटक में कालिदास की प्रेमिका की भूमिका बहुत ही भावनाओ में बहकर निभाने वाली वंदना को कैसे भूल सकता हूँ! वह भी राजीव भाटिया के साथ मुम्बई रहती हैं और कुछेक विज्ञापनों में अचानक देखा है वंदना को! मुम्बई सबकी कला का सही इस्तेमाल कहाँ करती है! यह बात प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल ने मेरे साथ फोन पर हुई इंटरव्यू में कही थी कि मैं बाकायदा कत्थक नृत्य प्रशिक्षित थी लेकिन किसी भी निर्देशक ने किसी भी फिल्म में मेरी इस कला का कोई उपयोग नहीं किया! मुझे यह खुशी है कि दीप्ति नवल के पिता हमारे नवांशहर के ही थे और‌ दीप्ति नवल कभी भी नवांशहर आ सकती हैं, अपने पिता के शोरियां मोहल्ले में! खैर, हम बात कर रहे थे, मोहन राकेश के नाटकों की ! आषाढ़ का एक दिन का आखिरी संवाद है कि क्योंकि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता ! कालिदास राजा के आमंत्रण पर राज दरबार में जाना नहीं चाहता लेकिन मल्लिका जैसे कैसै मना कर कालिदास को भेजती है लेकिन उसकी माँ कहती है कि वह तुम्हें साथ क्यों नहीं लेकर गया तब मल्लिका कहती है कि भावनाओं को आप नही समझोगी, मां! मैने भावना में भावना का वरन किया है और मल्लिका कालिदास से खामोश प्यार करती रहती है जबकि उसकी शादी विलोम से हो जाती है। जब सब कुछ गंवा कर कालिदास वापस मल्लिका के पास आता है तब मल्लिका उसे भोजपत्रों का पुलिंदा यह कहकर सौ़पती है कि सोचा था, यह आपको दूंगी ताकि इस पर कोई ग्रंथ लिख सको! कालिदास उन भोजपत्रों को यह कह कर लौटा देता है कि इन पर तो पहले ही एक ग्र्ंथ की रचना हो चुकी है यानी उन पन्नों पर मल्लिका के कालिदास के वियोग के बहाये आंसू दिखते हैं ! यह नाटक एन एस डी से लेकर न जाने देश के किस किस कोने में मंचित नहीं किया गया! यही हाल लहरों के राज हंस का रहा और आधे अधूरे का भी! लहरों के राजहंस में संवाद देखिये जो ऩंद की पत्नी कहती है कि नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है तो नारी का अपकर्षण उसे महात्मा बुद्ध बना देता है ! आखिर मे़ ऩंद लहरों के राज़हंस की तरह पत्नी सु़दरी को कहता है कि मैं जाकर बुद्ध से पूछूँगा कि उसने मेरे बालों का क्या किया? यह है इंसान‌ जो लहरों के राजहंसो़ की तरह अपने ही फैसले बदलता रहता है !

अंतिम नाटक आधे अधूरे आज के समाज को आइना दिखाने के लिए काफी है कि हम सब आधी अधूरी ख्वाहिशों के साथ जीते हैं! इस नाटक का आइडिया मोहन राकेश को उनकी पत्नी अनिता राकेश ने ही दिया था और इसकी भावभूमि उनकी ससुराल ही थी!

आज काफी हो गया! कल फिर मिलते हैं! कभी कभी बता दिया कीजिये कुछ तो!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3 – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3 ?

हमारी पीढ़ी ने अवश्य ही सख्त डाँट, मार खाई है और समय पड़ने पर जमकर कुटाई भी हमारी हुई है। संभव है इसमें लड़कियों की संख्या कम ही रही हो पर इस क्षेत्र के इतिहास में हमारा नाम स्वर्णाक्षरों में निश्चित ही लिखा गया है।

मैं अपने माता -पिता की चौथी संतान हूँ। मुझसे पहले दो बेटियों और एक बेटे को माँ जन्म दे चुकी थीं। मैं जब गर्भ में थी तो माँ ने संभवतः फिर बेटे की आस रखी होगी। माँ अक्सर कहती थीं कि मैं अगर लड़का होती तो वे मुझे आर्मी में भेज देतीं। तो निश्चित है गर्भावस्था में सपने भी बेटे को लेकर ही बुनी होंगी। पर दुर्भाग्य ही था कि मेरे रूप में पुत्री ने जन्म लिया। पर पुत्री स्वभाव और बर्ताव से पुत्र समान थी।

ख़ैर कुछ घटनाएँ जीवन में ऐसी घटी कि कूट-पीटकर मुझे सत्तू बना दिया गया पर हर पिटाई ने मेरे चरित्र और व्यक्तित्व को भी सँवार दिया।

घटना है 1960 की। मेरी उम्र थी चार वर्ष। हम कालिंगपॉग या कालिपुंग में रहते थे। यह पश्चिम बंगाल का पहाड़ी क्षेत्र है। बाबा रिसर्च साइंटिस्ट थे। बाबा अक्सर दार्जीलिंग और नाथुला पास अपने काम के सिलसिले में जाया करते थे।

उस दिन भी बाबा दार्जीलिंग गए हुए थे। कालिपुंग पहाड़ी शहर होने के कारण ठंड के दिनों में चार बजे के करीब वहाँ अँधेरा होने लगता है। बाबा घर लौट आए, देखा सब उदास बैठे हैं और माँ रो रही है। तीन बजे से मैं गायब थी। पड़ोसी मुझे ढूँढ़ने निकले थे। बाबा तुरंत कुछ और लोगों के साथ लाठी और बड़ा, लंबा टॉर्च लेकर बेचैनी से मुझे ढूँढ़ने निकले। हमारे घर से थोड़ी दूरी पर तिस्ता नदी बहती थी। दिन भर उसकी आवाज़ घर तक सुनाई देती थी। मैं उस दिन उसी आवाज़ के पीछे निकल गई थी।

बीच में एक घना जंगल था खास बड़ा नहीं था पर वहाँ अजगर और लकड़बग्घे काफी मात्रा में रहते थे। सबको इसी बात की चिंता और भय था कि अँधेरा हो जाने पर कहीं लकड़बग्घे मुझे उठा न ले जाए। तक़रीबन पौने पाँच के करीब हमारे पड़ोसी छिरपेंदा के पिता बहादुर काका मुझे गोद में उठाए घर ले आए।

मुझे माँ ने झट गोद में भर लिया होगा। खूब चूमा होगा, वात्सल्य ने आँसू बहाए होंगे। मैं तो अभी चार ही साल की थी तो घटना स्मरण नहीं। पर बाबा जब लौटे तो चार वर्ष की उस अबोध बालिका पर ऐसे बरसे मानो तिस्ता पर बना पुल टूटा हो और पानी सारा शहर में घुस आया हो! खूब मार पड़ी, बाबा कहते रहे, ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?”

(अर्थात फिर जाओगी कभी तिस्ता नदी किनारे) मैं तो भारी मार खाकर रो- रो कर सिसकती हुई सो हो गई। रात को अचानक मैं नींद में ही बाबा की छाती पर बैठ गई और उन्हें खूब मारा और कहती रही ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?” मैं तो नींद में थी पर बाबा समझ गए कि मेरे कोमल हृदय पर उनकी मार का गहरा सदमा था। माँ कहती थीं कि बाबा रात भर मुझे अपनी छाती पर चिपकाकर सिसकते रहे। मुझे तो घटना स्मरण नहीं पर हाँ यह घटना कईबार हमारे घर में चर्चा का विषय रहा और मैं टारगेट।

उस घटना की बारंबार चर्चा ने मेरे मन पर एक अमिट बात की छाप छोड़ी है और वह है मैं आज भी बिना बताए कहीं नहीं जाती हूँ। घर में सबको पता होता है कि माँ इस वक्त कहाँ है। हमारी बेटियों को भी यही आदत है और नाती और नतिन भी सीख गए।

दूसरी बार मेरा भुर्ता बनाया गया था जब मैं नौ-दस दस वर्ष की थी। उन दिनों गुलैल मारना सीख ही रही थी कि दादा के मित्रों के कहने पर गुलैल मारकर पड़ोसी आजोबा के घर आँवले तोड़ने निकली थी और उनके घर के झरोखे का काँच तोड़ दिया था। आजोबा ने बाबा से शिकायत की तो जो मार पड़ी उसे याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद रुई भी उस तरह से नहीं धुनें जाते!

आजकल बलबीर के साथ जब टीवी पर WWE का खेल देखती हूँ तो मन-ही-मन प्रसन्न भी होती हूँ कि उस छोटी- सी उम्र में मेरे भीतर मार खाने की प्रचंड क्षमता भी थी। मार सहन करना भी बड़ी ताकत की बात है!यह सबके लिए संभव नहीं। इसके लिए अदम्य साहस, शक्ति, मनोबल की आवश्यकता होती है।

उस घटना के बाद मैं किसी के कहने में नहीं आती। जब तक मैं बात को परख न लूँ, जाँच न लूँ, मैं कन्विंस न हो जाऊँ तब तक मैं किसी बात को स्वीकार नहीं करती। इसके कारण एनालाइज करने की क्षमता बढ़ गई। कहते हैं न मुँह का जला छाछ भी फूँक-फूंँककर पीता है। साथ ही मैं मित्रता और उससे घनिष्ठता भी खूब परखकर ही करती हूँ।

एक और घटना स्मरण हो आया 1974 की। मैं फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.ए पढ़ रही थी। गणेशखिंड रोड पर माता आनंदमयी का आश्रम है, मैं वहीं से बस पकड़ती थी। पिताजी के एक कलीग सुबह 6.30 बजे सैर करने निकलते थे। उन्हें मैं नहीं पहचानती थी। वे रोज़ मुझसे बातें करते, इधर – उधर की बातें! मैं अभी सत्रह वर्ष की ही थी। माँ का आदेश था किसी अनजान व्यक्ति से बातचीत नहीं करना। पर ये सज्जन तो कुछ ज्यादा ही स्नेह बरसाने लगे। दूसरे दिन मैं एन.सी.सी.के गणवेश में थी। रविवार था, मैं परेड के लिए जा रही थी। सज्जन फिर आए और बात करने की कोशिश करने लगे। जब मैं न बोली तो पूछे नाराज़ हो! मुझे आया गुस्सा, मैंने तपाक से कहा कि, मैं अपरिचित व्यक्ति से बात नहीं करती। तो वे रोज की मुलाकात की बात कहने लगे। मैंने भी कड़क आवाज़ में कहा कि, ” आप शायद रोज़ मेरी जुड़वाँ बहन से मिलते हैं। मैं आपको नहीं जानती। ” उस दिन तो छुटकारा मिल गया।

दो दिन बाद बाबा रौद्र रूप धरकर दफ्तर से घर आए और मुझसे सवाल करने लगे कि मैंने जुड़वाँ बहन की बात उनके कलीग श्री हेगड़े से क्यों कही। झूठ बोलने के कारण दो चार थप्पड़ पड़े, खूब डाँट पड़ी। फिर माँ ने बाबा को मेरे झूठ बोलने की बाध्यता का कारण समझाया कि मैं उस व्यक्ति का रोज़ बस स्टॉप पर मिलने आने से तंग आकर छुटकारा पाना चाहती थी। तो बाबा ने मुझे बुलाकर प्यार किया और सॉरी भी कहा। (जीवन में आगे चलकर मेरी धुनाई करनेवाले मेरे बाबा मेरे सबसे अच्छे दोस्त साबित हुए। जरावस्था में वे हेरी ही सलाह लिया करते थे। )

इस उम्र में सेल्फडिफेंस की अक्ल आ गई थी। साथ मार खाकर कभी झूठ न बोलने का प्रण भी किया। बाबा के सॉरी कहने पर, दूसरों से क्षमा माँगना भी सीख लिया।

1977 में जब बलबीर मेरा हाथ माँगने घर आए ( वे मेरे बाल सखा हैं) तो बाबा ने उनसे कहा था, ” तलवार की धार है यह, संभाल सकोगे?” बलबीर ने कहा था, ” ढाल बना लूँगा मैं इसे, आप देख लेना। “

फिर विवाह के बाद ढाल बनकर परिवार की देखरेख में मैं पूरी तरह तैनात हो गई। ससुराल में खूब सम्मान और स्नेह मिला। ढाल बनते – बनते मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया। शरारतें जिंदगी की न जाने किस झरोखे से काफ़ुर हो गईं। सहन शक्ति, मुसीबतों का सामना करने की क्षमता, न लड़ने – झगड़ने की वृत्ति, असत्य से घृणा आदि सब कुछ न जाने व्यक्तित्व में कहाँ से समा गए।

आज लिखने बैठी तो ध्यान आ रहा है कि वह मार, वह कुटाई, वह डाँट सब भलाई के लिए ही तो थे। जीवन अनुशासित और मूल्यों से भर गया।

यह भी सच है कि अपने अतीत के उन पलों को याद कर सच्चाई बयान करने के लिए भी साहस चाहिए जो बाबा ने कूट-कूट कर मुझ में भर दिया था।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार  – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १० ☆ “स्व. खलीफा गनेश प्रसाद जायसवाल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # ११ ☆

“स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जब हम छोटे थे और राइट टाउन में नरसिंह बिल्डिग में रहते थे तब पैदल-पैदल महाराष्ट्र स्कूल वाले रोड से माडल स्कूल पढ़ने जाते थे रास्ते में सत्कार होटल के बाजू में बने हवेलीनुमा मकान में अक्सर नजर जाती थी,बाद में पता चला था कि ये बिलहरी वाले ऊंट जी की हवेली है। उसी समय की बात है लोरमी बिलासपुर से हमारे चचेरे भाई नारायण पाण्डेय फोटोग्राफी सीखने जबलपुर आए थे और मालवीय चौक पर उपाध्याय जी के फोटो स्टूडियो में वे फोटोग्राफी सीख रहे थे और उनको ये कला सिखा रहे थे ऊंट जी के दामाद उपाध्याय जी। (उपाध्याय जी श्रीमती साधना उपाध्याय जी के पति)। अपन स्कूल से लौटते हुए उपाध्याय जी के स्टूडियो में रुकते थे, वहां साहित्यकार, फोटोग्राफर, आर्टिस्ट का पुख्ता ठीहा था। शायद वहीं से’जज्बाते ऊंट’ व्यंग्य पुस्तक अपन चुरा लाए थे। 

थोड़े से बड़े हुए तो परसाई जी की संगत पकड़ी तो ऊंट जी की दोनों बेटियां  श्रीमती साधना उपाध्याय और श्रीमती अनामिका तिवारी जी से विभिन्न आयोजनों में भेंट होने लगी, अनामिका जी तो एक दो बार हम लोगों की व्यंग्यम गोष्ठी में भी व्यंग्य पाठ करने आयीं। फिर बाद में मुझे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था कादम्बरी ने  व्यंग्य विधा का “रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ सम्मान” से सम्मानित किया था, तब से उन्हें और करीब से जानने की लगातार इच्छा बनी रहती थी, जब मैं कटनी में स्टेट बैंक में डिस्ट्रिक्ट लीड बैंक मेनेजर था तो कई बार बिलहरी गांव भी जाना हुआ, कटनी से 15 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम बिलहरी के मूल निवासी रामानुज लाल श्रीवास्तव (ऊँट बिल्हरीवी) हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं । उन्होंने हास्य व्यंग्य में अपना ऊँचा स्थान बनाया था । आपके चार काव्य संकलन , चार गद्य संकलन प्रकाशित हुए। इसके अलावा महाकवि ग़ालिब, अनीस एवम जफर  के दीवान पर आपकी टीकाएँ भी प्रकाशित हुई हैं । वरिष्ठ साहित्यकार हरिशंकर परसाई के संपादन में आपकी ‘प्रतिनिधि रचनाएं ‘  शीर्षक से एक संचयन मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा 1972 में प्रकाशित किया गया था। उल्लेखनीय है कि ऊंट जी ने जबलपुर से ‘प्रेमा’ पत्रिका का प्रकाशन 1929 में ही आरंभ कर दिया था। 

अपने गांव बिलहरी से  उनका इतना लगाव  था कि आरंभिक दिनों आप  ‘ऊँट बिल्हरीवी ‘ के नाम से ही जबलपुर में स्तंभ लिखते रहे । तथा अपनी व्यंग्य कृति ‘ जज्बाते ऊँट ‘ ऊँट बिल्हरीवी के नाम से ही प्रकाशित कराई थी, साथ ही वे उर्दू में ऊंट नाम से व्यंग्य लिखा करते थे। उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से जबलपुर में साहित्यिक वातावरण के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। ‘प्रेमा’ की अपने समय में साहित्यिक पत्रिकाओं में बडी प्रतिष्ठा रही है। ‘प्रेमा’ के माध्यम से अनेक प्रतिभाएं उभरीं।  सौम्य किन्तु अत्यंत गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर व्यंग कवि लेखक व संपादक ऊंट जी से हमें मिलने का अवसर तो नहीं मिला,पर पता चला था कि प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन जी की कविता को भी अपनी साहित्यिक पत्रिका “प्रेमा” में छपने के प्रथम अवसर इन्होंने ही दिया था। ऊंट जी मस्तमौला तबियत के मालिक थे। उनका नाम तो था रामानुज लाल श्रीवास्तव पर खुद का नामाकरण कर लिया था, ‘ऊँट बिलहरीवी’ , क्योंकि वे अपने गांव बिलहरी की मिट्टी से हमेशा जुड़े रहना चाहते थे। 

एक जगह वे लिखते हैं….

न समझो के फ्कत ठूँठ हूँ मैं, मये-मंसूर के दो घूंट हूँ मैं।

जिस पर ‘लैला’ हुई सौ बार सवार,हलिफया कहता हूँ वो ‘ऊँट’ हूँ मैं।

यहां यह बताना जरूरी लगता है कि हरिवंशराय बच्चन जी की पहली कविता प्रेमा पत्रिका में ही प्रकाशित हुई थी और उमर खैयाम की रूबाइत का अनुवाद कर अमर हो जाने वाले जबलपुर के कवि केशव पाठक की इस अनुदित रचना को प्रेमा ने ही प्रकाशित किया था। लोग बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के समय  जब सुभद्रा कुमारी चौहान जेल जाने लगीं थीं तो ऊंट जी ने उनके बच्चों का पालन-पोषण किया था।

ऐसे विराट हृदय  वाले सहज सरल व्यक्तित्व के धनी रामानुज लाल जी 1976 में  धरती छोड़कर पता नहीं कहां चले गए। जाते जाते कह गए…

जब यश ढूँढा तब रस न मिला,

जब रस ढूँढा तब यश न मिला।

पर यह भी विकट खिलाड़ी था,

पथ पर से तिल भर भी न हिला।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-16 – दिल को छू लेती है आज भी मासूम हंसी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-16 – दिल को छू लेती है आज भी मासूम हंसी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

यादों का यह सिलसिला जालंधर से शुरू होकर, न जाने किस तरफ अपने आप ही मोड़ ले लेता है और मित्रो मैं कोई नोट्स लेकर किसी तयशुदा मंजिल की ओर नहीं चल रहा । आज सोचता हूँ कि राजीव भाटिया और वंदना भाटिया के बहाने चंडीगढ़ के कुछ और रंगकर्मियों को याद करूँ पर उससे पहले पंजाब के अभी तक छूट रहे रंगकर्मी ललित बहल को याद कर लूँ! ललित बहल का मैं फैन हो गया था उनकी दूरदर्शन के लिए बनाई फिल्म, शायद उसका नाम ‘चिड़ियां दा चम्बा’ ही था, जिसमें एक ही दामाद ससुराल की बाकी लडकियों के साथ भी संबंध ही नहीं बनाता बल्कि सबको नर्क जैसा जीवन देता है। ‌ललित की पत्नी नवनिंद्र कौर बहल ने भी इसमें भूमिका निभाई थी! इसके साथ ही ललित बहल का लिखा ‘कुमारस्वामी’ नाटक न जाने कितनी बार यूथ फेस्टिवल में देख चुका हूँ। ‌अब बता दूँ  कि ललित बहल भी कपूरथला से संबंध रखते थे। मेरी इनसे एक ही मुलाकात हुई और वह भी यमुनानगर के यूथ फेस्टिवल में, जिसमें हम दोनों नाटक विधा के निर्णायक थे! उस रात हमें एक गन्ना मिल के बढ़िया गेस्ट हाउस में अतिथि बनाया गया। ‌जैसे ही खाना खाया तब हम दोनों सैर के लिए निकले! मैंने पूछा कि ललित! आखिर ‘कुमारस्वामी’ लिखने का आइडिया कहां से और कैसे आया?

पहले यह बता दूं कि ललित बहल ने इसकी पहली प्रस्तुति चंडीगढ़ के टैगोर थियेटर में दी थी , जिसमें राजीव भाटिया ने भी एक भूमिका निभाई थी और सभी चरित्र निभाने वालों को अपने सिर बिल्कुल सफाचट करवाने पड़े थे और‌ इन सबका एक फोटो एकसाथ ‘ट्रिब्यून’ में आया था, जो आज तक याद है! यह साम्प्रदायिक दंगों को केंद्र में रखकर लिखा गया है, जिसमें दो सम्प्रदाय आपस में अपने सम्प्रदाय को बड़ा मानते हुए लड़ मरते हैं और जबरदस्ती एक संत को अनशन पर बिठा दिया जाता है जबकि उसके ही बड़े महंत उसकी रात के समय हत्या करवा कर दूसरे सम्प्रदाय पर सारा दोष मढ़ देते हैं और‌ ये हत्या होती है ‘कुमारस्वामी’ की जो धर्म का मर्म सीखने आया है!

ललित बहल ने बताया कि आपको संत सेवा दास की याद है? मैंने कहा कि हां, अच्छी तरह! कहने लगे कि हमारे कपूरथला के दो चार युवा नेता चाहते थे कि हाईकमान के आगे उनका नाम हो जाये, तो उन्होंने संत सेवा दास को आमरण अनशन के लिए तैयार कर लिया ! अब आमरण अनशन पर उन‌ दिनों मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने सीआईडी तैनात कर दी कि संत सिवाय पानी के कोई चीज़ चोरी चुपके  से भी न खा सके! तीसरे दिन तक सेवा दास की टैं बोल गयी और उन्होंने युवा नेताओं को कहा कि मैं तो यह आमरण अनशन नहीं कर पाऊंगा लेकिन वे नहीं माने और‌ आखिरकार‌ सेवा दास रात के समय चुपके से अनशन तोड़ कर भाग निकला ! दूसरे संत फेरुमान रहे, जिन्होंने आमरण अनशन नहीं छोड़ा और प्राण त्याग दिये ! इन दोनो को मिला कर ‘कुमारस्वामी’ लिखा गया! अब मैं यूथ फेस्टिवल में लगातार चौदह वर्ष तक थियेटर की विधाओं में निर्णायक बनाये जाने वाले रंगकर्मी व कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के सांस्कृतिक विभाग के निदेशक अनूप लाठर को याद कर रहा हूँ । उन्होंने हरियाणवी की आज तक सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म ‘ चंद्रावल’ में चंदरिया का रोल निभाया था और उन्होंने मुम्बई न जाकर दूसरे तरीके से हरियाणवी का विस्तार किया ! विश्वविद्यालय के निदेशक होने के चलते ‘रत्नावली’ जैसा उत्सव दिया जिसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी है कि हर साल नवम्बर में कलाकार इसकी प्रतीक्षा करते हैं! बूढ़े बुजुर्ग भी देर रात तक सांग प्रतियोगिता देखने कम्बल ओढ़ कर बैठे रहते हैं और अनूप हर वर्ष एक न एक नयी विधा इसमें जोड़ते चले गये! ‘हरियाणवी आर्केस्ट्रा’ अनूप लाठर की ही देन है। इसके पीछे उनकी सोच यह रही कि हरियाणवी साजिंदों को काम मिले! खुद अनूप लाठर ने नाटक और संगीत पर पुस्तकें लिखीं हैं। ‌मेरी कहानी ‘ जादूगरनी’ इतनी पसंद आई कि उस पर नाटक बनाने की सोची! इसी तरह पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के मोहन महर्षि ने भी डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरता के घर आयोजित ‘ अभिव्यक्ति’ की गोष्ठी में मेरी इस कहानी को सुनकर नाटक बनाने की सोची थी कि मेरी ट्रांसफर हिसार हो जाने पर यह मामला बीच मंझधार में ही रह गया! इसी तरह अनूप लाठर की रिहर्सल के दौरान जादूगरनी का रोल‌ निभाने वाली महिमा व जौड़े के मामा के बेटे का रोल‌ निभाने वाले कैंडी का सचमुच आपस में प्यार हो गया और कैंडी रोज़ी रोटी के लिए नोएडा चला गया। ‌दोनों को मेरी कहानी ने मिला दिया और‌ मैं आज भी महिमा को जादू ही कहता हूँ और‌ कैंडी मेरे मित्र व हरियाणा के चर्चित लेखक दिनेश दधीचि का बेटा है और अच्छा संगीतकार है। ‌अनूप लाठर ने साहित्यिक कार्यशाला भी शुरू कीं जो आज तक चल रही हैं और इसके माधयम से भी रोहित सरदाना जैसा तेज़ तर्रार एंकर निकला और अफसोस कि कोरोना ने उसे लील गया! आजकल अनूप लाठर दिल्ली विश्वविद्यालय में पी आर का काम देखते हैं और पिछले वर्ष पुस्तक मेले पर इनकी संगीत पर लिखी किताब के विमोचन पर प्यारी सी मुलाकात हुई और‌ वे वैसी ही निर्मल हंसी के साथ मिले कि दिल को छू गये! फिर भी एक मलाल है उन्हें कि हरियाणा की किसी सरकार ने सम्मानित नहीं किया!

आज बस इतना ही! क्या क्या आगे लिखूंगा आज की तरह कल भी नहीं जानता!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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