(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 28 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 5
(17 फरवरी 2020)
द्वारकाधीश का उत्तम दर्शन करके तथा आस पास की विशेष जगहें देखकर हम दूसरे दिन बड़ौदा के लिए निकले। आज इसे वडोदरा कहा जाता है।
हम द्वारका से वडोदरा तक की यात्रा ट्रेन से करने जा रहे थे। यह दूरी 516 किमी की है।
इस दूरी को पार करने के लिए साढ़े दस घंटे लगते हैं। हमारी ट्रेन सुबह 11.30 के आसपास थी। हम प्रातः उठकर एक बार फिर द्वारकाधीश का दर्शन कर आए। इस बार किसी पंडित को हमने साथ नहीं लिया। पिछली सुबह ही दर्शन कर आए थे तो मार्ग ज्ञात था।
हम जिस होटल में ठहरे थे वहीं साधारण नाश्ता करके स्टेशन के लिए निकले। यहाँ यह बता दें कि गुजरात के ट्रेनों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। चाय तक नहीं मिलती। तो हमने होटल वाले से आलू की सूखी सब्ज़ी और पूड़ियाँ पैक करवा लिए। जाते समय हम अपने घर से भोजन लेकर गए थे तो हमारे पास डिसपोज़ीबल प्लेट और स्टील के डिब्बे थे। ये न होते तो वे डिसपोज़िबल बर्तनों में भोजन लपेट देते।
हम ट्रेन में बैठे तो हम चारों (भाई भावज और बहनों में) अब तक की यात्रा की चर्चा चली। समय गुज़र रहा था। हम राजकोट पहुँचे। मेरे एक अत्यंत पुराने मित्र सपत्नीक हमसे मिलने आए। साथ में रात के लिए भोजन भी लेकर आए। उन्हें पता था कि हम ग्यारह बजे के करीब वडोदरा पहुँचेंगे। मित्र की दूरदृष्टि काम आई। हम रात के ग्यारह बजे होटल पहुँचे। गुजराती मुख्य भोजन के साथ कई प्रकार के शेव, फाफड़ा, भजिया आदि खाते हैं। मित्र भी थेपले के साथ अचार और ढोकला तथा अन्य कई वस्तुएँ पैक करके लाए थे। भूख भी लगी थी तो कमरे में चाय बनाई गई और मित्र दम्पति को आशीर्वाद देते हुए हमने भरपेट भोजन का स्वाद लिया।
दूसरे दिन हम देर से उठे और वडोदरा शहर दर्शन करने निकले।
गुजरात के वडोदरा शहर में कई दर्शनीय स्थल हैं। पर चूँकि हमारे पास केवल एक ही दिन हाथ में था तो हम कुछ विशेष स्थानों पर ही दर्शन करने जा सके।
हमने पूरे दिन के लिए एक टैक्सी किराए पर ले ली और सबसे पहले लक्ष्मी विलास पैलेस देखने गए।
यह महल बड़ौदा राज्य पर शासन करने वाले मराठा राजवंश के गायकवाड़ का निवास था।
इसके एक हिस्से में अब भी शाही परिवार के सदस्य रहते हैं।
यह एक विशाल परिसर पर पत्थर से बनाया विशाल महल है। महल के सामने सुंदर हरी घास बिछी है और कुछ सीढ़ियाँ उतरने पर बड़ा सा छायादार वृक्षों का बगीचा है।
इसके भीतर एक ही मंजिल जनता के लिए है जहाँ खूबसूरत वस्तुओं का संग्रह दिखाई देता है। अलग -अलग कमरे में अलग -अलग वस्तुएँ हैं। कहीं सुंदर पॉलिश किए हुए चमकदार फूलदान और अन्य पीतल तथा ताँबे की सजावट की वस्तुएँ रखी हैं। दूसरे कमरे में कई प्रकार के फर्नीचर रखे गए हैं। इस स्थान को देखने के लिए डेढ़ घंटे लगे और वहाँ से निकलकर हम बड़ौदा संग्रहालय की ओर गए।
यह स्थान भी एक बड़ी सी इमारत है। 1894 में बने इस संग्रहालय में विविध कला, मूर्तिकला, , मुग़ल काल में बनाए गए लघुचित्र, भारतीय हस्तशिल्प, और भारतीय विविध काल के सिक्के रखे गए हैं।
दोपहर का समय हो रहा था तो हम भी एक भोजनालय की तलाश में थे। रास्ते में सुरसागर झील पड़ा जो 18वीं शताब्दी में गायकवाड़ शासकों ने बनवाई थी। यह झील 75 एकड़ में फैली है। उस दिन वहाँ कुछ मरम्मत के काम चल रहे थे तो हम बाहर से ही कुछ हिस्से देख पाए।
भोजन के बाद हम अपने निवास स्थान पर लौट आए थोड़ी देर आराम करके हम शाम पाँच बजे पुनः निकले।
इस शहर में एक भारतीय सेना द्वारा निर्मित शिव मंदिर है। हम इस मंदिर का दर्शन करने निकले।
इस मंदिर को ई.एम.ई मंदिर कहा जाता है। इसके परिसर में बाहर की गाड़ियों को प्रवेश नहीं दिया जाता। गाड़ी बाहर खड़ी करके चलकर ही हम अंदर जा सकते हैं। यह भारतीय सैन्य दल की आरक्षित स्थल है।
इस दक्षिणीमूर्ति ई एम ई मंदिर का निर्माण सन 1966 में ब्रिगेडियर ए.एफ यूजीन के कार्यकालमें उनके ही द्वारा किया गया था। वे उन दिनों ई एम ई स्कूल के कमान्डेंट थे। वे स्वयं ईस्ई धर्म के अनुयायी थे। परंतु सभी धर्मों में आस्था रखते थे।
मंदिर का परिसर बहुत बड़ा है और मुख्य मंदिर के अलावा कई छोटे -छोटे मंदिर भी बने हुए हैं। मुख्य मंदिर में शिव जी हैं।
मंदिर के प्रवेश द्वार से ही मंदिर तक जाने के लिए जो पथ बनाया गया है उसके दोनों ओर कई पुरातन उत्खनन से प्राप्त मूर्तियाँ रखी हुई हैं। मंदिर की सजावट और आकार किसी टेंट के समान है।
दर्शन के बाद संध्या हो गई और हम सूती कपड़े खरीदने के लिए मुख्य मार्केट में घूमते रहे। कुछ खरीदारी कर हम होटल लौट आए और मुँह -हाथ धोकर भोजन के लिए निकले।
हम किसी ऐसे भोजनालत की तलाश में थे जहाँ सूप और अन्य सभी प्रकार के व्यंजन उपलब्ध हो। हम जब से गुजरात आए थे हम हर प्रकार के गुजराती भोजन का ही आनंद ले रहे थे। गुजराती भोजन में मीठापन होता है। कई प्कार की सब्ज़ियाँ बाजरे की छोटी छोटी गरम रोटी उस पर खूब सारा घी और कई प्रकार की सब्ज़ियों का हम आनंद ले चुके थे। आज हम ऐसे रेस्तराँ में पहुँचे जहाँ रोशनी मध्यम थी, हल्की और कर्णप्रिय संगीत बज रहा था। ज्यादावभीड़ न थी और न ही शोर था। हम चारों ने उत्कृष्ट तथा सुस्वादिष्ट भोजन का आनंद लेकर होटल लौटकर आए।
अगले दिन हम स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखने जाने वाले थे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 27 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 4
(17 फरवरी 2020)
हमारी यात्रा का आज चौथा दिन था। हम बाए रोड सोमनाथ से द्वारका पहुँचे थे।
द्वारका कल तक महाभारत और पुराणों का विषय था पर आज द्वारका इतिहास है, एक सच्चाई जो हमारी संस्कृति की विशेषता और अवतार लेकर इस धरा पर आए ईश्वर की सच्ची गाथा है। आज द्वारका नगरी का अवशेष समुद्र के नीचे पाया गया है। कृष्ण के होने की बात काल्पनिक नहीं, सत्य है और यही हमारी जिज्ञासा, उत्साह का कारण भी रहा है।
द्वारका आज छोटा – सा शहर है। कभी यहाँ विशाल नगरी बसती थी जो समृद्ध और वैभवशाली थी। कहते हैं सोने चाँदी और जवाहरातों से जड़े सात सौ महल बने हुए थे। मान्यता है कि श्रीकृष्ण को गांधारी ने संपूर्ण कुल के विनाश का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण के पड़पोतों ने ही आपसी लड़ाई लड़कर इस नगरी को क्षति पहुँचाई और पैंतीस वर्ष के स्वर्णिम सौंदर्य को देखने के बाद इस नगर ने समुद्र में समाधि ले ली। कहते हैं कि यादव वंश समाप्त हो गया। श्रीकृष्ण ने यहाँ पैंतीस वर्ष राज्य किया था।
आज यहाँ का सारा वातावरण द्वारिकाधीश के मंदिर के इर्द-गिर्द की ज़रूरतों से घिरा है। हमारे रहने की व्यवस्था मंदिर के पास ही स्थित एक नए बने होटल में की गई थी जिस कारण मंदिर तक पहुँचने के लिए ज्यादा चलना भी नहीं पड़ा।
सुबह-सुबह हम सब जब मंदिर जाने के लिए निकले तो सड़क पर पानी की छींटे मारकर सड़कें साफ़ की गई थीं। दिन भर की थकी धूल रात भर के शांत वातावरण में हल्की नमी के साथ सड़क पर बिछ गई थीं, जैसे थका हुआ बच्चा माँ की गोद में आकर सो जाता है। सारा वातावरण और परिसर स्वच्छ और शीतल था। सड़क पर धूप की किरणें पड़ रही थीं तब उस रश्मि में धूल के कण दिखाई देने लगे थे वरना वैसे तो सब स्वच्छ ही प्रतीत हो रहा था।
श्रीकृष्ण की इस नगरी में गायों का बड़ा महत्त्व रहा है। गायें और साँड सड़क पर खुले घूमते नज़र आते हैं। इनका आकार भी आम गाय और साँड की तुलना में बहुत बड़े है। उन्हें देखकर हमें तो इतिहास के पन्नों में छपी हड़प्पा सभ्यता के साँड की तस्वीर याद आ गई। उनकी कुछ मूर्तियाँ धोलावेरा ( हड़प्पा साइट) के संग्रहालय में भी देखने को मिली थी। भयंकर तगड़े, ऊँचे, विशालकाय, मोटे मोटे, बड़े सींग, और पीठ पर विशाल कूबड़! यहाँ के बेफिक्र हो घूमनेवाले साँड भी कुछ वैसे ही थे।
सुबह- सुबह कोई उन्हें सुबह की बनी ताज़ी रोटियाँ अपने हाथ से खिलाता दिखा तो कोई चने की फलियाँ खिलाता दिखा। अपनी श्रद्धा के अनुसार पशुओं की सेवा होते देख मन को एक अद्भुत खुशी मिली। भोजन खिलानेवाला रास्ते पर बैठकर अपने हाथ से गाय को रोटी खिला रहा था और दूसरे हाथ से उसके गले के नीचे लटकते हिस्से को सहला भी रहा था। अहा ! पशुओं के प्रति यह स्नेह देख मन गदगद हो उठा। ऐसे दृश्य बड़े नगरों में कहाँ!
सड़क पर आते -जाते लोग गाय को छूते और अपने हाथ को अपने माथे और छाती को छूकर प्रणाम करते। गौमाता के प्रति कितनी श्रद्धा है यह देखकर मन संतुष्ट हुआ कि हमारी संस्कृति तो इन नगरों के, मंदिरों के इर्द-गिर्द आज भी जीवित है। हम यों ही भयभीत होते हैं।
हम मंदिर के बड़े से प्रांगण में पहुँचे। स्वच्छ धोती -कुर्ता उसपर काली बंडी पहने, गले में लाल गमछा और तुलसी की माला लटकाए, माथे पर लाल चंदन से वैष्णवी तिलकधारी कई पंडित झुंड में खड़े थे। ऐसा लग रहा था जैसे वहाँ के पंडितों का वह गणवेश ही हो!
हमें देख चार पंडित झुंड से निकलकर हमारी ओर आए। हमसे पहले पूछा गया कि हम कहाँ से आए थे। उत्तर मिलने पर दूसरे ने पूछा हमारा गोत्र क्या है? हमें आश्चर्य हुआ, मैंने पूछा कि क्या गोत्र के बिना भीतर मंदिर में प्रवेश नहीं ? तो तीसरे ने कहा, ” ऐसा नहीं माताजी, भीतर का परिसर बहुत बड़ा है आपको सब कुछ आराम से और समझाते हुए दर्शन करवाएँगे तो आपको मंदिर दर्शन का आनंद मिलेगा। “
मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मेरा कुछ स्वभाव भी है कि जब तक बात स्पष्ट न हो मैं सहमत नहीं होती। साथ ही जिज्ञासा ही तो ज्ञान बढ़ाने का सहज मार्ग है। मैंने कहा, “तो चलिए साथ में, अपना रेट बताइए और ले चलिए, गोत्र से क्या मतलब?”
हम शहर वासी कुछ ज्यादा ही व्यवहारवादी होते हैं।
हमारी आवाज़ और प्रश्न सुनकर दो पंडित और जुड़ गए। एक ज़रा अधिक स्मार्ट से थे, बुज़ुर्ग भी। बोले, “माताजी यहाँ कोई रेट नहीं है। आप लोग दूर से आते हैं, हम लोग आपको जितनी देर चाहें मंदिर में घुमाते हैं। सारी जानकारी देते हैं। आपको जो उचित लगे दक्षिणा दे दीजिएगा। रही बात गोत्र की तो सो ऐसा है कि इस नगर में हम जितने ब्राह्मण हैं हम मंदिर के हर क्षेत्र, और हर काम से जुड़े हैं। हमारे लिए और कोई दूसरा आजीविका का साधन नहीं है। मंदिर से हमें तनख्वाह भी नहीं मिलती। इसलिए आपस में विवाद से बचने के लिए हम गोत्र पूछ लेते हैं ताकि जिस पंडित के हिस्से में जो गोत्र है वही गाइड के रूप में दर्शनार्थी के साथ जाए। इससे हम में से हर किसी को जीवित रहने के लिए पर्याप्त धन मिल जाता है। “
वाह! बहुत बढ़िया व्यवस्था है। कोई लड़ाई नहीं। मैं तो मन ही मन प्रसन्न हुई इस व्यवस्था के बारे में जानकर। समस्या है तो उसका हल भी तो है! देयर इज़ नो प्रॉब्लेम विदाउट अ सॉल्यूशनवाली बात यहाँ चरितार्थ होती है।
हमने अपना गोत्र बताया, वैसे हम चारों के गोत्र अलग -अलग हैं पर हमने सोचा अलग तो घूमना नहीं और शादी करने तो आए नहीं तो हम भाई-बहनों का गोत्र कश्यप है तो हमने उन्हें बता दिया। उनमें से कोई भी हमारे साथ नहीं चला बल्कि एक सातवें व्यक्ति को हमारे साथ कर दिया और बोले, ” ये गुरुजी आपके साथ जाएँगे”। गुरुजी ने तुरंत पूछा, ” बंगाली हैं क्या? ” हमारे आश्चर्य की सीमा न रही कि इन ब्राह्मणों को गोत्रों की गहन जानकारी है! गुरुजी ने हमारे माथे पर लाल तिलक छाप दी और हम गुरुजी के साथ चल पड़े।
मंदिर का भीतरी परिसर बृहद है। मंदिर की भव्य इमारत देखते ही हमने दाँतों तले उँगली दबा ली। क्या ही सुंदर भवन है, न केवल विशाल, भव्य बल्कि कलाकारी का उत्तम नमूना भी है। नक्काशीदार दीवारें, झूलते बरामदें और छह मंज़िली इमारत पर विशाल कलश!कलश के ऊपर ध्वजा!आहा मन तृप्त हुआ।
मंदिर के आँगन में बड़ी भीड़ थी। लोग आँगन में बैठे थे, मानो प्रतीक्षा रत थे। पूछने पर गुरुजी ने कहा आप भी प्रतीक्षा कीजिए, कलश पर अभी पताका लगाया जाएगा। करीब 38 मीटर ऊँचे मंदिर के शिखर पर सबसे पहले भगवान के प्रपोत्र के द्वारा ही पहली बार ध्वजारोहण किया गया था।
मंदिर में प्रति दिन पाँच बार ध्वजा बदली जाती है। यह ध्वजा बावन गज़ की होती है। कम से कम पाँच वर्षों की अवधि तक ध्वजा फहराने वालों की बुकिंग हो जाती है। असंख्य भक्त विभिन्न राज्यों, शहरों से यह ध्वज चढ़ाने आते हैं और उसे नियत समय पर आरोहण किया जाता है।
स्थानीय एक परिवार के दो सदस्य हैं जो इतनी ऊँचाई पर चढ़कर ध्वजारोहण करते हैं। यह परंपरागत है। वे मंदिर के भीतर माता का दर्शन कर इस काम के लिए ऊपर चढ़ते हैं। जोखिम का काम है, किसी प्रकार की सुरक्षा की व्यवस्था के बिना दिन में पाँच बार ऊपर चढ़ते हैं और ध्वज बदलकर, ध्वजारोहण करते हैं। अब तक उनकी आस्था ही सुरक्षा कवच बनी रही। परंपरागत एक परिवार इन ध्वजाओं को सिलने का काम करता है। पहले इस परिवार के पिता, दादा मुफ्त में यह काम करते थे पर आज इस परिवार का यही पेशा है।
अचानक आँगन में बैठी भीड़ खड़ी हो गई और दोनों हाथ ऊपर करके, गर्दन पीछे की ओर झुकाकर ऊपर देखती हुई जय श्रीकृष्ण कहकर जयकारा लगाने लगी। हमारे हाथ अपने आप ऊपर उठ गए, जयकारा में हम भी शामिल हो गए। वह दृश्य, वह आस्था, वह भक्ति सब कल्पनातीत है। सभी लोग भावविभोर हो उठे। हमारे लिए यह सब कुछ नया था और अद्भुत भी। कलश पर नया, विशाल, रंगीन, पताका हवा में लहरा उठा। हमने हाथ जोड़कर वंदना की और गुरुजी के साथ आगे बढ़े।
गुरुजी हमें गर्भ गृह में ले गए, सुंदर नक्काशीदार दीवारें, पत्थर तराशकर अद्भुत कलाकृति वर्णनातीत है। यह मंदिर ग्रेनाइट और बालूपत्थर से बना हुआ है। जिसे सैंड स्टोन कहा जाता है। मंदिर नागर वास्तुकला शैली का बेजोड़ उदाहरण है। मंदिर की दीवारों पर देवी – देवताओं और पशु पक्षियों की कलाकृतियाँ बनी हुई हैं। 72 स्तंभों पर खड़े इस मंदिर को त्रिलोक्य जगत मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह चार धामों में से एक है।
मूल रूप से यह मंदिर 3500 वर्ष पुराना है तब यह मंदिर जवाहरातों से मढ़ा था। गुजरात हज़ारों वर्ष से व्यापार और व्यापारियों का गढ़ रहा है अतः मंदिरों की साज – सज्जा के लिए धन खर्च करना यहाँ के लोगों के स्वभाव में है। जैसे कि हम जानते हैं कि कुछ आक्रांता हमेशा भारत को लूटने ही आए हैं और मंदिरों को ध्वस्त कर सब कुछ लूटकर ले गए हैं वैसे ही यह मंदिर कई बार तोड़ा और लूटा भी गया है।
आज जिस मंदिर को हम देख रहे हैं उसे सोलहवीं शताब्दी में बनाया गया था। गुरुजी जानकारी देते हुए बोले कि इस मंदिर की स्थापना सबसे पहले श्रीकृष्ण के पड़पोते ने की थी।
मंदिर में स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति बाल गोपाल या रासलीला करते कान्हा या प्रेममय श्याम नहीं हैं। यह है सक्षम, गंभीर, कर्त्तव्यपरायण, सबके संरक्षक द्वारकाधीश। कहा जाता है कि यह स्थान श्रीकृष्ण का निवास स्थान था। इसलिए इसे हरि गृह भी कहा जाता है।
थोड़ी ही देर में मूर्ति के सामने पर्दा लगा दिया गया। गुरुजी बोले, ” अभी द्वारिकाधीश को भोग लगाया जाएगा, दस मिनट बाद हम आपको मूर्ति के बिल्कुल पास से दर्शन करवाएँगे। “
थोड़ी देर बाद पर्दा हटाया गया और द्वारकाधीश केदर्शन हुए। हमारे पास शब्द नहीं कि हम उस प्रसन्नता के मुहूर्त को शब्दोबद्ध कर सकें।
द्वारकाधीश को दिन में ग्यारह बार भोग लगाया जाता है। चार बार आरती होती है और हर आरती से पूर्व वस्त्र बदलकर आभूषण पहनाकर उन्हें सजाया जाता है। यह शृंगार भी दर्शनीय है। जन्माष्टमी के दिन द्वारकाधीश को छप्पन प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। उस दिन भक्तों को थोड़ी दूर से ही दर्शन लेना पड़ता है। गुरुजी मंदिर के हर स्थान की जानकारी देते हुए चल रहे थे। हमने अपने हिसाब से समय लेकर मंदिर के सौंदर्य का पूरा आनंद लिया। चारों ओर दीवारों की नक्काशी ने हमें मंत्र मुग्ध कर दिया।
गुरुजी ने अब हमें वह जगह दिखाई जहाँ श्रीकृष्ण सुदामा से मिले थे। आज यह एक सभागृह जैसा है पर निश्चित ही अपने समय में यह अद्भुत सुंदर और पवित्रता से परिपूर्ण स्थान रहा होगा।
हम काफी सारी सीढ़ियाँ उतरकर मंदिर के पिछले द्वार से बाहर आए। इस स्थान पर अन्न दान के लिए आप अपनी इच्छानुसार धनराशि दान कर सकते हैं। हम भी यथासंभव और अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ रकम दान में दे आए। इसके लिए हमें रसीद भी दी गई। सीढ़ियों के दोनों तरफ छोटी- छोटी दुकानें बनी हुई हैं। सभी दुकानें सुसज्जित और आकर्षक हैं।
अब हम गुरुजी को प्रणाम कर दक्षिणा देकर मुख्य सड़क के पास आ गए। अब यहाँ काफी भीड़ थी। पूरे परिसर में दर्शन करते हुए चार -पाँच घंटे लग गए। हम लोग होटल से निर्जला निकले थे तो अब भूख भी लगी थी तो जल्दी से होटल लौट आए।
द्वारका के मंदिर के दूसरी छोर पर एक छोटी सी खाड़ी पारकर हम शाम को चार बजे द्वारका बेट देखने निकले। इस पार से उस पार तक जाने के लिए बड़ी -बड़ी नावें हैं। एक बार में साठ सत्तर लोगों को पार उतारने की व्यवस्था है। हम द्वारका बेट पहुँचे।
शायद श्रीकृष्ण के काल में यहाँ से समुद्र निश्चित ही दूर रहा होगा पर आज द्वारकाधीश के मंदिर से यह स्थान काफी दूरी पर है। यहाँ श्रीकृष्ण की पट रानी व अन्य पत्नियों की मूर्ति रखी गई है और उनके नाम का मंदिर है। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण की पत्नियाँ इसी स्थान में बने महल में रहती थीं। यह स्थान न तो भव्य है और ही इसकी ठीक से देखरेख होती है। द्वारकाबेट पर एक मस्जिद भी है। अधिकतर नाविक इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं। इस जगह पर बड़ी संख्या में इस्लाम ही रहते हैं गाड़ी चालक जो हमारे साथ गया था उसने बताया कि अब नाव चलानेवाले नाविक और वहाँ के अधिकांश निवासी बाँगलादेशी और रोहिंग्या हैं। यह हमारे देश के लिए बहुत बड़ा चिंता का विषय है। हम मंदिर का दर्शन कर फिर नाव पकड़कर द्वारका की मुख्य भूमि पर लौट आए।
हमारी यह यात्रा सुखद रही। शाम के समय मुख्य मंदिर में खूब रोशनी की जाती है इससे मंदिर की भव्यता और उभरकर आती है।
एक अद्भुत सुंदर कलाकृति और जीता जागता इतिहास देखकर हम आगे की यात्रा के लिए तैयार हुए।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 26 – गुजरात के दर्शनीय स्थल – भाग – 3
(15 फरवरी 2020)
गुजरात के वेरावल शहर में यह हमारा तीसरा दिन था। उस दिन सुबह फिर एक बार सोमनाथ दर्शन कर हम पोरबंदर होते हुए द्वारका के लिए रवाना हुए।
इस समय यहाँ चौड़ी – सी सड़क बनाई जा रही थी और कहीं – कहीं सड़क तैयार भी थी। सोमनाथ से द्वारका 236 किलोमीटर की दूरी है। इसे तय करने में वैसे तो साढ़े तीन घंटे ही लगते हैं पर हम बीच में अन्य कई स्थान होते हुए द्वारका पहुँचे जिस कारण हमें द्वारका पहुँचते हुए दोपहर के तीन बज गए।
सड़क समुद्र से खास दूर न होने की वजह से हवा में एक अलग- सी गंध थी और हवा भी शीतल थी। जब गाड़ी समुद्र से थोड़ी दूरी से गुज़रती तो समुद्र की लहरों के उठने और गिरने की आवाज स्पष्ट सुनाई देती जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया और पानी उतरता गया वैसे -वैसे आवाज कम होती गई।
हमने ए.सी चलाने की बजाए खिड़कियाँ खुली रखना अधिक पसंद किया। सड़क के दोनों किनारे पर खेत नज़र आए। हरियाली मनभावन थी। हवा के कारण खड़ी फसलें इस तरह झूमती मानो आते – जाते लोगों का नतमस्तक होकर वे सबका स्वागत कर रही हों।
हम पोरबंदर पहुँचे। यहाँ का आकर्षण था उस घर को देखना जहाँ गाँधी जी का जन्म हुआ था। यहीं पोरबंदर में श्रीकृष्ण के घनिष्ठ मित्र सुदामा का भी निवास स्थान था। हमारे लिए दोनों ही स्थान उत्साह का कारण थे।
हम टैक्सी स्टैंड पर उतरे और भीड़ को धकेलते हुए एक ऑटोरिक्शा में बैठे। एक सुंदर पीले रंग से रंगी बड़ी – सी इमारत के सामने रिक्शा रुक गई। इस इमारत का नाम है कीर्ति मंदिर जिसके भीतर प्रवेश करने पर बड़ा- सा आँगन पड़ता है। सीढ़ी से ऊपर दूसरी मंज़िल पर कस्तूरबा पुस्तकालय है। इमारत की दाहिनी ओर मंदिर- सा बना हुआ है। सभी धर्म की निशानियाँ यहाँ देखने को मिलती है। कहीं कलश तो कहीं गुंबद सा बना हुआ है पर हाँ कहीं कोई मूर्ति नहीं है। यह एक दोमंजिला भव्य इमारत है जो वास्तव में एक संग्रहालय ही है।
यहाँ गाँधी जी के जीवन से जुड़ी कई अहम घटनाओं की तस्वीरें लगी हुई हैं। यों कह सकते हैं कि यह फोटोगैलरी ही है। बा और बापू दोनों की युवावस्था की बड़ी तस्वीर देखने को मिलती हैं। जिसके तीन तरफ़ काँच लगा हुआ है।
इस विशाल आँगन में प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को भव्य उत्सव और कार्यक्रम का आयोजन होता है। बड़ी संख्या में यहाँ लोग उपस्थित होते हैं।
आँगन की बाईं ओर गाँधी जी का जन्मस्थल है। यह इमारत आज दोमंजिली है जिसमें बाईस कमरे हैं पर ये सभी कमरे बहुत छोटे -छोटे ही हैं। कुछ – कुछ कमरों में मेज़नाइन फ्लोर भी बने हुए हैं।
2 अक्टोबर 1869 को जब गाँधी जी का यहाँ जन्म हुआ था तब यह एक पतली गलीनुमा जगह थी। आज जिस विशाल कीर्ति मंदिर को पर्यटक देखने जाते हैं वह बाद में बनाया गया है।
गाँधी जी के जन्मस्थल वाली इमारत उनके दादाजी के पिता (पड़पिता) ने 1777 में बनवाई थी। उस समय यह एक मंज़िली इमारत थी बाद में परिवार बड़ा होने पर कमरे भी बढ़ते गए। यह अपने समय में तीन मंज़िली इमारत तक बनाई गई थी। बाद में इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। आज यह दोमंज़िली इमारत है।
इस इमारत में पर्यटकों की जानकारी के लिए उस स्थान पर जहाँ गाँधी जी जन्मे थे, वहाँ गाँधीजी की एक बड़ी – सी तस्वीर लगी हुई है। जहाँ वे चरखा चलाते हुए दिखाई देते हैं। इस तस्वीर के नीचे एक स्वास्तिक बना हुआ है यही मूल उनका जन्म स्थल है। सभी लोग इस जगह पर एकत्रित होते रहते हैं।
हमारी संस्कृति में स्वास्तिक का बहुत महत्त्व है। यह हर सनातनी धर्म को माननेवाला अच्छी तरह से जानता है पर आश्चर्य की बात यह देखने को मिली कि पर्यटकों को गाँधी जी की तस्वीर के नीचे खड़े होकर तस्वीर खिंचवाने का इतना तीव्र शौक था कि वे स्वास्तिक की अवहेलना करते हुए उस पर जूते -चप्पल पहनकर खड़े हो गए। हमारा मन भीतर तक न केवल क्रोध से भर उठा बल्कि लोगों की इस मूर्खता और अज्ञानता पर मन उदास भी हो उठा। मुझे काफी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और तब जाकर उस स्वास्तिक वाली जगह खाली मिली तो गाँधीजी की तस्वीर स्वास्तिक के साथ कैमरे में कैद कर पाई।
स्पष्ट दिखाई देता है कि हम अपनी संस्कृति से कितनी दूर चले गए हैं। यह विडंबना ही है और दुर्भाग्य भी कि आज की पीढ़ी इन बातों को अहमियत नहीं देती।
हम हर कमरे को घूम-घूमकर देखने लगे। हर एक कमरा स्वच्छ है और छोटी – छोटी खिड़कियाँ हरे रंग से रंगी हैं। दरवाज़े भी खास ऊँचे नहीं हैं। दरवाजे और दीवारों पर आकृतियाँ बनाई हुई हैं। कुछ दरवाज़े तो महलों की तरह एक सीध में हैं। एक के पास खड़े रहकर सीधे में चार -पाँच दरवाज़े और भी दिखाई देते हैं। सभी खिड़कियाँ और मचान नुमा कमरे ये सभी लकड़ी की बनी हुई हैं। इस घर में गाँधी जी बचपन में कुछ वर्ष तक रहे थे। बाद में उनका अधिकांश समय राजकोट में बीता।
कीर्ति मंदिर वाली जगह बाद में बनाई गई। गाँधी जी के एक प्रिय अनुयायी थे श्री दरबार गोपालदास देसाई के नाम से जाने जाते थे वे। नानजी भाई कालिदास मेहता ने 1947 में इस मंदिर को बनाने के लिए बड़ी रकम दी तब गाँधीजी जीवित थे। पर इस भवन कोञ पूरा करने में 1950 तक का समय लग गया था। इस सुंदर स्थान को बा और बापू अपनी आँखों से न देख पाए।
हम ऑटोरिक्शा में बैठकर टैक्सीस्टैंड पर लौट आए। उसी भीड़ भाड़ के बीच एक मंदिर बना हुआ है जिसे श्रीकृष्ण के मित्र सुदामा का घर माना जाता है। आज यह घर नहीं बल्कि एक मंदिर जैसी संरचना है। आस पास न केवल भीड़ है बल्कि कूड़ा करकट और गाय बैलों के झुंड भी नज़र आते हैं।
कहा जाता है कि यहीं से चलकर सुदामा द्वारका पहुँचे थे।
हमें यह देखकर अत्यंत दुख भी हुआ कि हम एक ऐतिहासिक स्थल को स्वच्छ रखने से भी चूकते हैं। यह जागरुकता का अभाव ही है।
पोरबंदर महाभारत काल से इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाए हुए है। अंग्रेजों के शासन काल में यह एक रियासती गढ़ था। यह व्यापार का क्षेत्र भी रह चुका है। कृष्ण सुदामा मंदिर एक और दर्शनीय स्थल है।
फिर हम अपने गंतव्य की ओर बढ़े। मंज़िल थी द्वारका। पोरबंदर से निकलकर जैसे – जैसे द्वारका के करीब पहुँचने लगे तो हरे भरे खेत न जाने क्यों अचानक विलीन से हो गए और दूर तक बंजर भूमि दिखाई देने लगी जो कंटीली झाड़ियों से पटी थी। इस इलाके में अब केवल बकरियों के झुंड दिखाई देने लगे जो पिछली टाँगों पर खड़ी होकर कंटीले झाड़ियों की ही फलियों का स्वाद ले रही थीं।
हम आपस में चर्चा करने लगे कि अचानक सारी ज़मीन बंजर क्यों हो गई? और यह अंतर आँखों को जैसे चुभ रही थी। चालक ने खुशखबरी देते हुए बताया कि गुजरात सरकार अब संज्ञान लेने लगी है और इन बंजर भूमि के टुकड़ों को लीज़ पर लेकर उस पर औषधीय पौधे लगाने का आयोजन किया जा रहा है।
बातों ही बातों में हम द्वारका नगरी आ पहुँचे। अभी सूर्यास्त को काफी समय था तो हम वहाँ के प्रसिद्ध शिव मंदिर का दर्शन कर आए। एक मंदिर समुद्र तट से जल में भीतरी ओर है जिसे भदकेश्वर मंदिर कहा जाता है। यह खास बड़ा मंदिर नहीं है। जब समुद्र का पानी भाटे के समय उतर जाता है तो दर्शन करना आसान हो जाता है। शाम के समय वहाँ बना मार्ग पानी में डूब सा जाता है केवल मंदिर का हिस्सा बचा रहता है।
दूसरा है नागेश्वर मंदिर। यहाँ मंदिर के परिसर में शिव जी की विशाल मूर्ति बनी हुई है। भक्तों की लंबी कतार भी लगी थी। भक्त मंदिर में कई प्रकार के फल, फूल, अनाज आदि ले जाते हैं चढ़ावे के रूप में। इन्हें खाने के लिए बैलों की बड़ी संख्या मंदिर के परिसर में घूमते दिखाई दिए। साथ ही कबूतरों को ज्वारी खिलाने की भी व्यवस्था है तो कबूतरों का भी झुंड उड़ता फिरता है। भीड़, पशु, पक्षी, जूते चप्पल, फेरीवाले, फोटोग्राफर सब कुछ मिलाकर वहाँ एक अजीब- सी भीड़ महसूस हुई और साथ में गंदगी भी। हम बाहर से ही दर्शन कर उल्टे पाँव लौटे।
हम आज भी न जाने क्यों भक्ति के साथ -साथ स्वच्छता को जोड़ने में असमर्थ हैं। अक्सर मंदिरों में भोजन आदि चढ़ावे के कारण जब साफ़ सफ़ाई दिन में कई बार न किए जाएँ तो चारों ओर फल फूल अनाज फैले हुए दिखाई देते हैं। मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान इस अस्वच्छ वातावरण में रहना कभी पसंद करेंगे? न जाने हम कब इस दिशा और विषय की ओर सतर्क होंगे!
मंदिर के बाहर बड़ी संख्या में गरीब बच्चे नज़र आए। कोई बीस -बाईस होंगे जो चार साल से बारह -तेरह वर्ष के होंगे। उन सबने हमें घेर लिया। क्या चाहिए पूछने पर कुछ बच्चों ने दुकान में शीशे की अलमारी में रखी अमूल दूध की ओर इशारा किया। उन सभी बच्चों के हाथों में एक -एक अमूल दूध की बोतल थमाकर हम अपने होटल की ओर बढ़े।
हम भी दिन भर की यात्रा के बाद थक चुके थे तो अब आराम भी आवश्यक था और मन में एक संतोष की भावना भी।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात के दर्शनीय स्थल।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 25 – गुजरात के दर्शनीय स्थल– भाग – 2
(14 फरवरी 2020)
वेरावल शहर छोटा सा बंदरगाह है। समुद्र तट की सुंदरता के अलावा खास दर्शनीय कुछ और नहीं है। हमारे हाथ में एक दिन बचा था तो सोमनाथ देखने के बाद दूसरे दिन हम दिव (Diu ) के लिए रवाना हुए।
सोमनाथ से दिव 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह समुद्री तट पर बसा शहर है। हम से टैक्सी चालक ने कहा कि हम एक दिन में ही दिव देखकर लौट सकते हैं। हमें दिव पहुँचने में 2.50 मिनिट लगे। रास्ता बहुत ही मखमली होने के कारण यह एक आरामदायक सफ़र रहा। हम हभी साधारणतया दमन और दिव कहते हैं पर ये दोनों अलग -अलग शहर हैं।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि गुजरात में सड़कों पर हमारे देश के अन्य शहरों की तरह ढाबे या रेस्तराँ की भरमार नहीं है। यहाँ के निवासी घर से ही थेपला, फाफड़ा, ढोकला, फरसाण आदि भोजन पदार्थ अपने साथ लेकर चलते हैं जिस कारण ढाबे या रेस्तराँ का खास प्रचलन नहीं है। हम लोग प्रातः सात बजे निकले थे तो अपने साथ कुछ भोजन सामग्री लेकर ही चले थे।
कुछ 30 कि.मी. जाने के बाद चाय पीने की इच्छा हुई और सड़क से हटकर ज़रा दूर एक ढाबा सा दिखा। हमने वहाँ अपनी गाड़ी मोड़ ली। ढाबे के बाहर रेतीली भूमि थी जिस पर कुछ चारपाइयाँ रखी हुई थीं। साथ में एक प्लास्टिक की मेज़ थी जिसके पायों को रेत में धँसा दिया गया था। अभी सुबह का ही समय था तो हमें गरमागरम चाय और पकौड़े मिले। हम अपने साथ ब्रेड और मक्खन लेकर गए थे तो सब कुछ मिलाकर बढ़िया नाश्ता हो गया।
कुछ दो घंटे बाद हम दिव पहुँचे।
दिव सुंदर स्वच्छ शहर है। पर आज भी वहाँ पुर्तगाली संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। लोगों में लेट बैक एटिट्यूड दिखाई देता है। पुर्तगाली तो चले गए पर अपना असर छोड़ गए। देर सबेरे तक शहर भर में कहीं कोई नज़र नहीं आता। यहाँ लोगों के दिन की शुरुआत भी देर से ही होती है। तब तक सभी दुकानें बंद ही होती हैं।
यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। शहर में ख़ास हलचल नहीं है, न ही भीड़भाड़ है। इस तरह का वातावरण और समानता हमने गोवा और पोर्त्युगल में भी अनुभव किया है। यहाँ की आबादी खास नहीं है।
रास्ते से जब टैक्सी गुज़रने लगी तो अधिकतर घर बंद नज़र आए जिन पर ताले जड़े दिखे। पूछने पर चालक ने बताया कि पुर्तगाल से उन स्थानों के निवासियों को स्थायी नागरिकता के लिए वीज़ा दिया जा रहा है जहाँ पुर्तगाली राज्य किया करते थे। हमने सिर पीट लिया। 450 वर्ष की गुलामी के बाद 1961 के करीब देश को उनसे मुक्ति मिली थी और अब यह क्या हो रहा है?
जिन लोगों के दादा – परदादा ने पुर्तगालियों की गुलामी की थी, अत्याचार सहे थे, जबरन ईसाई बनने के लिए मजबूर किए गए थे या प्राण बचाने के डर से अन्यत्र भाग गए थे या मार दिए गए थे उसी दामन और दिव की आज की यह पीढ़ी पचास साल बाद पुर्तगाल जाकर बस रही है!
पुर्तगाली स्वभाव से आलसी हैं, उन्हें सब प्रकार के काम करने के लिए लोग चाहिए इसलिए तो वीज़ा दे रहे हैं। न जाने कितने ही लोग विदेश में रहने के लालच में यहाँ से वहाँ चले गए। हमारे देशवासियों को सफेद चमड़े के प्रति इतना आकर्षण है कि फिर एक बार गुलाम बनने को तैयार हो गए। सुना है अवैध रूप से कई कागज़ात बनाकर लोग जाने की ताक में बैठे हैं। पता नहीं हम अपनी भूमि से प्रेम करना कब सीखेंगे!
भारी मन से हम आगे बढ़े। यहाँ कुछ पुराने चर्च हैं, जहाँ रविवार के दिन प्रार्थना सभा होती है। कुछ चर्च तीन सौ वर्ष पुराने भी हैं। इन सभी जगहों पर पर्यटक घूमते दिखाई देते हैं। हम एक विशाल चर्च में घुसे। हम सनातनी धर्म के अनुयायी मंदिर हो या चर्च अपने जूते उतारकर ही भीतर प्रवेश करते हैं। हमारे लिए देवालय चाहे किसी का भी हो पूजनीय स्थान होता है।
वहाँ बैठा प्रहरी बोला जूते पहनकर जाओ माताजी, यहाँ जूते नहीं निकालते। हम आश्चर्य चकित हुए पर फिर भी जूते उतारकर ही भीतर गए। हमारी संस्कृति किसी दूसरे धर्म के ईश्वर का अपमान करने का अधिकार नहीं देती। चर्च के भीतर कुछ पुरानी मूर्तियाँ देखने को मिलीं बाकी कुछ खास नहीं। सूली पर चढ़ी उदास ईशु की मूर्ति चुपचाप सी नज़र आई। कुछ धूलयुक्त प्लास्टिक की माला गले में पड़ी थी। वैसे फूल-माला चढ़ाने की कोई प्रथा ईसाई समुदाय में नहीं है। संभवतः यह भारत भूमि पर खड़ा गिरजाघर है तो कभी किसी न चढ़ाया होगा। किसी धर्म के पैगंबर को इस तरह देखकर मन भीतर तक उदास हो उठा पर हमारे लिए झुककर प्रणाम करने के अलावा करणीय कुछ भी न था।
आज शहर में निवासी ही नहीं तो चर्च की सटीक देखभाल भी नहीं। पर अपने समय में यह एक जीता जागता प्रार्थनागृह रहा होगा क्योंकि इसकी इमारत बहुत विशाल और भव्य है।
हम घूमते हुए समुद्र तट के पास आ पहुँचे।
इस शहर में समुद्र के किनारे एक बहुत पुराना मंदिर है। कहा जाता है यह मंदिर पांडवों के समय का बना हुआ है। उस समय यहाँ तक समुद्र का जल नहीं आता था। मंदिर गुफानुमा बना हुआ है। गुफा की दीवार पर बड़ा – सा पंचमुखी नाग बनाया हुआ है और नीचे पाँच शिवलिंग हैं। कहा जाता है कि कभी वनवास के दौरान पांडव वहाँ आए थे और पूजा किया करते थे। इसे गंगेश्वर मंदिर कहते हैं। आज समुद्र का जल न जाने कितनी ही बार उन पाँच शिवलिंगों को नहला जाता है। दोपहर को पानी जब भाटे के कारण दूर सरक जाता है तब आराम से दर्शन करना संभव होता है। हम दोपहर को पानी उतरने के बाद ही मंदिर में दर्शन करने पहुँचे। मंदिर स्वच्छ था। कई सीढ़ियाँ उतरकर हम मंदिर के पास पहुँचे जहाँ शिवलिंग बने हुए हैं। एक स्थान पर बड़े से छोटे पाँच शिवलिंगों का दर्शन आश्चर्य की ही बात थी। मूलतः हर शिव मंदिर में एक ही शिवलिंग का दर्शन होता है। यह महाभारत की कथा के अनुसार एक गवाह के रूप में दिखाई देने वाला स्थान है। हमसे पूर्व लोगों ने शिवलिंगों की पूजा की थी। वहाँ खूब सारे नारियल चढ़ावे में रखे हुए थे।
हम और आगे अब समुद्र तट की ओर निकले। पास ही एक पुराना किला बना था जो समुद्र से होनेवाले आक्रमणों से बचने के लिए बनाया गया था। यह किला भी कुछ तीन सौ वर्ष पुराना ही था। भाटा पूरे ज़ोर पर था जिस कारण पानी उतर चुका था और बड़े -बड़े पत्थर तथा चट्टानें अब समुद्र के जल से ऊपर बाहर की ओर निकल आई थीं। ऐसा लग रहा था मानो विशाल मत्स्य जल से निकलकर हवा को सूँघ रहा हो।
दोपहर का समय था पर समुद्री तट पर शीतल हवा थी। हमें ज़रा भी गर्मी का अहसास नहीं हुआ। तट से दूर समुद्र की लहरें कदमताल करती आतीं और दूर से ही लौट जातीं। उन लहरों पर जब सूरज की किरणें पड़तीं तो असंख्य लहरों के ऊपरी हिस्से यों चमकते मानो कई बड़े से नाग अपने फन पर मणि लेकर द्रुतगति से आगे बढ़ रहे हों। आँखों को एक अद्भुत सुकून का अहसास हो रहा था। हम सभी निःशब्द इस सौंदर्य को सम्मोहित – सा होकर निहार रहे थे।
समुद्र पर सफ़ेद महीन, मुलायम कपास के समान सुकोमल रेत फैली थी। पैर मानो उसमें धँसे जा रहे थे और उस मुलायम रेत के भीतर ठंडी रेत जब पैरों को छू रही थी तो पैरों को एक अद्भुत गुदगुदी के साथ आराम का भी अहसास हो रहा था। दोपहर का सूरज सिर पर था। रेत में बहुत ही छोटी -छोटी सींपियाँ और शंख थे जिन्हें बड़ी संख्या में हम चुनने में व्यस्त हो गए।
एक लड़के ने पास आकर कहा, “ताल ले लो माई” हमारी तंद्रा टूटी। काले से ताल के भीतर मुलायम मीठे नारियल की गरी के समान ताल की मलाई उसने निकालकर हमें दी। मीठा, रसीला स्वादिष्ट! हमने पूछा, “कहाँ से लाया ?”
तो उसने उँगली ऊपर करके तट की ओर इशारा किया। समुद्र के तट पर दूर तक जहाँ नज़र दौड़ाते ताल के ही वृक्ष सजे हुए दिखाई दिए। इतनी देर तक हम सब लहरों को देखकर मुग्ध हो रहे थे उस बालक के कहने पर हमने सुदूर तट की ओर रुख किया। हवा की वेग से उसके झालरदार पत्ते झूम रहे थे मानो कोई मतवाला हाथी सिर हिलाता हुआ झूम रहा हो।
देर दोपहर तक हम तट पर ही बैठे रहे। शांत वातावरण में लहरों की ध्वनि किसी गीत के धुन के समान कर्ण प्रिय लग रही थी। हम सबने वहीं बैठकर न जाने पृथ्वी के कितने ही विभिन्न समुद्र तट और अपने अनुभवों की चर्चा करते रहे। एक महिला अंगीठी पर भुट्टे भूनकर दे रही थी। हम लोगों ने दोपहर का भोजन तो किया ही न था। जो कुछ साथ लाए थे वही चबाते रहे। भुट्टे के भुनने की तीव्र गंध ने नथुनों को फुला दिया और हमारे पेट में भूख जाग उठी। बड़े -बड़े भुट्टे कोयले की आग पर सेंके गए और उस पर नींबू और मसाला लगाकर दिया गया। हमने मानो बचपन को फिर एक बार जी लिया।
शाम होने लगी। पानी अब तट की ओर बढ़ने लगा। हमने भी प्रस्थान करना उचित समझा।
रास्ते में एक ढाबे पर गरम थेपले और इलायची अदरकवाली चाय का हमने आनंद लिया। प्रशंसनीय तो यह बात थी कि उस ढाबे को चलानेवाली और काम करनेवाली सभी महिलाएँ ही थीं। साथ में यह संदेश भी मिला कि वहाँ महिलाओं के लिए कोई डरवाली बात नहीं होती है। वे स्वाधीनता से अपना जीवन जीती हैं। वे सब बहुत सुरक्षित महसूस करती हैं। वाह! रे मेरे गुजरात !
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – गुजरात की सुखद यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 24 – गुजरात की सुखद यात्रा – भाग – 1
(13 फरवरी 2020)
भ्रमण मेरा शौक़ है। इस बार हमने सोचा कि अपने देश के उन क्षेत्रों का दौरा किया जाए जो हमारे इतिहास और पुराणों में वर्णित हैं।
इस वर्ष हमने चुना गुजरात।
हम पुणे से सोमनाथ के लिए रवाना हुए। पुणे से सोमनाथ जाने के लिए सोमनाथ नामक कोई स्टेशन नहीं है। इसके लिए आपको वेरावल नामक स्टेशन पर उतरना होगा। पुणे से वेरावल तक रेलगाड़ी की सुविधाजनक व्यवस्था उपलब्ध है। विरावल से सोमनाथ का मंदिर सात किलोमीटर की दूरी पर है। हम पुणे से शाम को रवाना हुए और दूसरे दिन देर दोपहर को हम वेरावल पहुँचे।
गुजरात जानेवाली रेलगाड़ियों में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती है। यह मेरा अनुभव रहा इसलिए हम पर्याप्त भोजन सामग्री साथ लेकर ही चले थे।
होटल पहुँचकर नहा धोकर हम मंदिर का दर्शन करना चाहते थे।
हमने शाम को ही सोमनाथ मंदिर का दर्शन किया। इसे प्रथम ज्योर्तिलिंग मंदिर माना जाता है। सुंदर, साफ़ – सुथरा विशाल परिसर जो समुद्र के तट पर ही स्थापित है। हमें संध्या के समय आरती में शामिल होने का अवसर मिला। मंदिर में स्त्री पुरुषों की कतारें अलग कर दी जाती है। मंदिर के गर्भ गृह का सौंदर्य देखते ही बनता है। आज अधिकांश हिस्सा चाँदी का बनाया हुआ है, पहले यही सब सोने से मढ़ा रहता था। आरती में उपस्थित रहकर मन प्रसन्न हुआ।
यह फरवरी का महीना था। डूबते सूरज की किरणों से मंदिर का कलश स्वर्णिम सा चमक रहा था। धीरे धीरे अस्ताचल भानु के साथ कलश का रंग मानो बदलने लगा। कुछ समय बाद केवल कलश पर ही सूर्य की किरणें पड़ने लगीं। उस दृश्य को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई भक्त प्रभु की वंदना करके बिना पीछे मुड़े धीरे -धीरे प्रभु की ओर ताकते हुए मंदिर से विदा ले रहा हो। समुद्र जल में सूर्य विलीन हो गया। आसमान अचानक लाल-सुनहरी छटाओं से पट गया मानो शिवजी के सुंदर विस्तृत तन पर पारदर्शी सुनहरी ओढ़नी डाल दी गई हो। आकाश को देख मन मुग्ध हो उठा।
समुद्र की लहरें दौड़ -दौड़ कर मंदिर की दीवारों को ऐसे छूने आतीं मानो छोटा बच्चा माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहा हो और जब माँ उसे पकड़ना चाह रही हो तो नटखट फिर भाग रहा हो। साथ ही ठंडी हवा तन -मन को शीतल कर रही थी। समस्त परिसर में सुगंध प्रसरित थी।
शाम को सूर्यास्त के बाद लाइट एंड साउंड कार्यक्रम का हमने आनंद लिया। उसके विशाल इतिहास की जानकारी फिर एक बार ताज़ी हो गई। इस विशाल और आकर्षक मंदिर की रचना सबसे पहले किसने की थी इसके बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु ऋग्वेद में इसके तब भी होने का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है आज से कुछ 3500 वर्ष पूर्व चंद्रदेव सोमराज ने इस मंदिर की संरचना की थी।
जिस मंदिर की संपदा को एक ही विदेशी ताक़त ने सत्रह बार लूटा, वहाँ कितनी संपदा रही होगी जिसे वे लूटने बार -बार आए होंगे?
मेरे मन में सवाल उठता है कि इतना वैभवशाली राज्य ने एक-दो आक्रमण के बाद भी सुरक्षा बल तैनात रखने की आवश्यकता महसूस न की ? हमने क्या तब भी अपनी सुरक्षा की बात न सोची? क्या हम भारतीयों में सच में एकता का अभाव था जो विदेशी आ – आकर हमें लूटते रहे? हम देश के नागरिक इतने बेपरवाह से बर्ताव क्यों करते रहे !!
मंदिर कई बार ध्वस्त किया गया, हिंदुओं की मूर्त्ति पूजा का विरोध यहाँ राज करनेवाले हर मुगल ने किया। आखरी बार औरंगजेब ने इसे बुरी तरह से ध्वस्त किया। हिंदू राजाओं ने बार – बार मंदिर का निर्माण भी किया। आज मंदिर पहले की तरह स्वर्ण से भले ही मढ़ा न हो पर उसकी भव्यता और सौंदर्य को बनाए रखने का भरसक प्रयास किया गया है।
आज हम जिस मंदिर का दर्शन करते हैं उसे सन 1950 में भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दोबारा बनवाया था। पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया।
आज यहाँ भारी सुरक्षा की व्यवस्था है जो गुजरात सरकार के मातहत है। फोटो खींचने तक की सख्त मनाही है। मोबाइल, कैमरा आदि जमा कर देने पड़ते हैं। काफी दूर तक चलने के बाद मंदिर का परिसर प्रारंभ होता है। मंदिर के बाहर मेन रोड है आज, शायद कभी वहाँ बाज़ार हुआ करता था।
यह वेरावल शहर समुद्रतट पर बसा होने के कारण शहर में घुसते ही हवा में मछली की तीव्र बू आती है। यहाँ भारी मात्रा में मछली पकड़ने का व्यापार किया जाता है। पचास प्रतिशत लोग मुसलमान हैं जो मछली पकड़ने का ही व्यापार करते हैं। यहाँ नाव बनाने और उनकी मरम्मत करने के कई कारखाने हैं। मूल रूप से लोग समुद्र से जुड़े हुए हैं।
यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं। सभी गुजराती और हिंदी बोलते हैं। सभी एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। दो धर्मों के बीच मतभेद कहीं न दिखाई दिया जो आमतौर पर टीवी पर टीआरपी बढ़ाने के लिए दिखाए जाते हैं। लोग मिलनसार हैं और सहायता के लिए तत्पर भी। आनंद आया सोमनाथ का दर्शन कर और वेरावल के निवासियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार पाकर।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 23 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 6
(30 मार्च 2024)
सुबह भर पेट नाश्ता कर हम फुन्टोशोलिंग के लिए रवाना हुए। मौसम बहुत अच्छा था। रास्ते में पेमा हमारे प्रश्नों का उत्तर देता रहा और भूटान की अन्य जानकारी भी। शिक्षकों की आदत होती है सवाल पूछने की और हमारे सवालों का उत्तर देने के लिए तत्पर था पेमा।
भूटान भारत के बीच का संबंध बहुत पुराना और अच्छा रहा है। हम जब थिम्फू होते हुए गुज़र रहे थे तो हमें एक विशाल अस्पताल दिखाया गया। हाल ही में जब मोदी जी भूटान आए थे तो बच्चों के लिए इस उत्तम अस्पताल का उद्घाटन अपने हाथों से करके गए थे।
इस अस्पताल का एक हिस्सा 2019 में बनाया गया और दूसरा हिस्सा 2023 में पूरा हुआ। यह सारी व्यवस्था भारत के एक्सटर्नल मिनिस्ट्री द्वारा की गई। यह भारत की ओर से सहायता थी।
पेमा ने बताया कि इससे पहले भी भारत ने बड़ी मात्रा में भूटान को औषधीय सहायता प्रदान की है और यह मोदी जी के कार्यकाल से ही अधिक बढ़ा है। मन प्रसन्न हुआ कि मेरा देश पड़ोसी देशों के लिए भी फिक्रमंद है।
भारत से कई वस्तुओं का भूटान में व्यापार होता है। खासकर रोज़ाना लगनेवाली वस्तुएँ जैसे नमक, हल्दी, चायपत्ती, शक्कर गुड़ तथा अन्य भोजन सामग्री। मछली भी बड़ी मात्रा में भेजी जाती है। दवाइयाँ सब यहीं से जाती हैं।
पेमा ने हमें अपना राष्ट्रगान सुनाया और कुछ फिल्मी गीत भी सुनाए। उसका स्वर भी बहुत मधुर है। सात दिन हम साथ घूमते- फिरते परिवार जैसे हो गए।
थिम्फू से उतरते समय पहाड़ी पर हमने मिट्टी से बनी छोटी -छोटी हाँडीनुमा आकृतियाँ देखीं जो ऊपर के हिस्से में पिरामिड जैसी बनी हुई थीं। बड़ी संख्या में पहाड़ों के निचले हिस्से में ये हँडियाँ रखी हुई दिखीं। पूछने पर पेमा ने बताया कि प्रत्येक हाँडी में मंत्र लिखे हुए हैं। किसी के घर में कोई बीमार हो या शैयाग्रस्त हो या मरणासन्न हो या मृत हो ऐसे समय पर घर से दूर वीरान स्थान पर ये हँडियाँ रखी जाती हैं। मृत आत्मा की शांति की प्रार्थना उसमें डाली जाती है। बीमार लोगों को रोगमुक्त करने की प्रार्थना लिखी रहती है। इन हाँडियों को थथा कहा जाता है।
लोगों का विश्वास है कि प्रकृति ही सबकी देखभाल करती है। प्रकृति की ही गोद में जब प्रार्थनाओं से पूरित हँडियाँ सील करके रखी जाती हैं तो प्रकृति सबका ध्यान रखती है। प्रणाम है ऐसी आस्था को जो प्रकृति के प्रति इतनी समर्पित है। महान हैं वे लोग जो सच में प्रकृति को जीवित मानते हैं। उसकी शक्ति को पहचानते हैं और उसमें विश्वास रखते हैं। प्रकृति भूटानियों के प्रतिदिन के जीवन में अत्यंत घनिष्ठता से जुड़ी हुई है और शायद इसीलिए यहाँ असंख्य वृक्ष स्वच्छंद से श्वास लेते हैं।
थिप्फू दस हज़ार फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह पहाड़ी इलाका है। यहाँ लाल रंग के खिले हुए खूब सारे वृक्ष दिखाई दिए। छोटे -बड़े वृक्ष लाल फूलों से लदे हुए हैं। इन्हें रोडोड्रॉनड्रॉन कहा जाता है। ये फूल दस हज़ार फीट की ऊँचाई पर ही खिलते हैं। अब हम धीरे -धीरे नीचे उतरने लगे। फिर लौटकर गा मे गा नामक होटल में लौटकर आए। एक रात यहाँ रुककर हम अगले दिन 31 तारीख को सुबह बागडोगरा के लिए रवाना हुए। 30 तारीख शाम को ही हमें भूटान के इमीग्रेशन ऑफिस जाकर अपने पेपर जमा करने पड़े। पेमा और साँगे का साथ यहीं तक था।
हम सुखद स्मृतियों के साथ, पड़ोसी देश की अद्भुत जानकारियों के साथ अपने घर लौट आए।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 5
(29 मार्च 2024)
पारो शहर की यात्रा आनंददायी रही। मौसम भी साथ दे रहा था। आसमान में हल्के बादल तो थे पर वर्षा के होने की कोई संभावना न थी। आज हम विश्व विख्यात ताकत्संग या टाइगर नेस्ट देखने के लिए निकले। यह इस देश की सबसे पुरानी मोनैस्ट्री है। तथा पारो शहर का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र भी।
यह मोनेस्ट्री पारो घाटी से 3, 000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीचे से ही यह अत्यंत आकर्षक और मोहक दिखाई देती है। यह विशाल इमारत लाल और सफ़ेद रंग से पुती हुई है। एक खड़ी चट्टान पर इतनी बड़ी मोनैस्ट्री कैसे बनाई गई यह एक आश्चर्य करनेवाली बात है।
यात्रियों ने तथा गाइड ने हमें बताया कि ऊपर जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है बल्कि पत्थर काटकर रास्ता बनाया गया है। आने -जाने में छह से सात घंटे लगते हैं। यात्री घोड़े पर सवार होकर भी वहाँ जा सकते हैं। हम कुछ दूर तक चलकर गए परंतु ऊपर तक जाने की हमने हिम्मत नहीं की। बताते चलें कि यहाँ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति प्रवेश शुल्क ₹1500 /- है। मौसम सही हो और मार्च अप्रैल का महीना हो तो तकरीबन सौ से दोसौ लोग प्रतिदिन दर्शन करने जाते हैं। सबसे आनंद की बात है कि यह बौद्ध धर्मस्थल है और आनेवाले सभी पर्यटक बौद्धधर्म का सम्मान करते हैं।
हम वहीं एक चट्टान पर बैठ गए और पेमा ने हमें तकत्संग की स्थापना और महत्त्व की जानकारी दी।
यह एक मठ है जिसे मोनैस्ट्री ही मूल रूप से कहा जाता है। यहाँ आज भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुक रहते हैं। पूजा की विधि का पालन नियमित होता है। शाम को पाँच बजे के बाद यात्रियों को ऊपर रुकने नहीं दिया जाता है।
इसे टाइगर नेस्ट या मठ भी कहा जाता है। इस बड़ी इमारत का निर्माण 17वीं शताब्दी के अंत में चट्टान में बनी एक गुफा के स्थान पर किया गया था। यद्यपि इसे अंग्रेज़ी में टाइगर नेस्ट कहते हैं, लेकिन तकत्संग का सटीक अनुवाद “बाघिन की माँद” है और इसका नाम इसके पीछे जो किंवदंती है उसके साथ मिलता जुलता भी है।
कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी में किसी रानी ने बाघिन का रूप धरा था और तिब्बत से पद्मसंभव को पीठ पर बिठाकर यहाँ की गुफा में लेकर आई थी। पुरातन काल में काला जादू का प्रभाव इन सभी स्थानों में था। यही कारण है कि इसे बाघिन की माँद नाम दिया गया है। सत्यता का तो पता नहीं पर पुरानी गुफा तो है जहाँ आज भी मठाधीश ध्यान करते हैं। मुझे यह कथा सुनकर माता वैष्णों देवी के मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पहाड़ी के ऊपर स्थित है और चौदह कि.मी ऊपर चढ़ने पर मंदिर में तीन छोटे -छोटे पिंड के रूप में माता विराजमान हैं। यहाँ भी एक किंवदंती है।
तकत्संग मठ की इमारतों में चार मुख्य मंदिर हैं। यहाँ आवासीय आश्रम भी है। पहले जो गुफा थी उसी के इर्द -गिर्द की चट्टानों पर अनुकूल इमारत बनाई गई है। आठ गुफाओं में से चार तक पहुँचना तुलनात्मक रूप से आसान है। वह गुफा जहाँ पद्मसंभव ने बाघ की सवारी करते हुए पहली बार प्रवेश किया था, उसे थोलू फुक के नाम से जाना जाता है और मूल गुफा जहाँ उन्होंने निवास किया था और ध्यान किया था उसे पेल फुक के नाम से जाना जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भिक्षुओं को यहाँ मठ बनाने का निर्देश दिया।
मुख्य गुफा में एक संकीर्ण मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अँधेरी गुफा में बोधिसत्वों की एक दर्जन छवियाँ हैं और इन मूर्तियों के सामने मक्खन के दीपक जलाए जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा मठ में वज्रयान बौद्ध धर्म का पालन करने वाले भिक्षु तीन साल तक यहीं रहते हैं और कभी पारो घाटी में उतरकर नहीं जाते।
यहाँ की सभी इमारतें चट्टानों में बनी सीढ़ियों के ज़रिए आपस में जुड़ी हुई हैं। रास्तों और सीढ़ियों के साथ-साथ कुछ जर्जर लकड़ी के पुल भी हैं, जिन्हें पार किया जा सकता है। सबसे ऊँचे स्तर पर स्थित मंदिर में बुद्ध की एक प्रतिमा है। प्रत्येक इमारत में एक झूलती हुई बालकनी है, जहाँ से नीचे की ओर सुंदर पारो घाटी का दृश्य दिखाई देता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए और लौटने के लिए 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवश्यकता होती है।
पेमा से सारी विस्तृत जानकारी हासिल कर हम लोग लौटने की तैयारी करने लगे तो रास्ते में ढेर सारे घोड़े बँधे हुए दिखे। यहाँ के घोड़ों की पीठ पर थोड़े लंबे लंबे बाल होते हैं और ऊँचाई में भी वे कम होते हैं।
कुछ दूरी पर अनेक कुत्ते दिखे। आश्चर्य की बात यह थी कि सभी कुत्ते काले रंग के ही थे। भूटान में जहाँ – तहाँ ये काले कुत्ते दिखाई देते हैं जो ठंडी के कारण सुस्ताते रहते हैं। हमने पास की दुकान से ढेर सारे पार्लेजी बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को खिलाया और उन्हें प्यार किया। ये सरल जीव पूँछ हिलाते हुए हमें अलविदा कहने गाड़ी तक आए। हृदय भीतर तक पसीज गया। थोड़े से बिस्कुटों और स्पर्श ने उनके भीतर की सरल आत्मा के स्वामीभक्ति वाला भाव अभिव्यक्त कर दिया।
आगे हम पारो किचू मंदिर के दर्शन के लिए गए। यह भूटान का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को 7वीं सदी में तिब्बत के राजा साँग्तेसन गैम्पो ने बनवाया था। वह तिब्बत का 33वाँ राजा था जिसने लंबे समय तक राज्य भी किया था। इस राजा ने भू सीमा की रक्षा हेतु 108 मंदिर बनवाए थे। यह उनमें से एक है। कहा जाता है कि राक्षसों के निरंतर उत्पातों से बचने के लिए ये 108 मंदिरों की स्थापना की गई थी। मंदिर का परिसर स्वच्छ है तथा भक्त गण दर्शन करने आते रहते हैं। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा संग्रहालय तथा पुस्तकालय भी है। बाहर सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए हैं।
यहाँ से निकलकर हम भूटान नैशनल म्यूज़ियम देखने गए। यह बाहर से तो दो मंजिली इमारत है परंतु भीतर प्रवेश करने पर भीतर यह पाँच मंज़िली इमारत है। एक – एक मंज़िल की दीवारों पर पुराने समय से उपयोग में लाए जानेवाले अस्त्र -शस्त्र सजे हुए हैं। भूटानी भाषा में वहाँ का इतिहास लिखा हुआ है। जो हम पढ़ न सके पर यह जानकारी मिली कि तिब्बत और भूटान के बीच नियमित युद्ध हुआ करते थे। भूटान के वर्तमान राजा पाँचवी पीढ़ी है जिनके पूर्वजों ने संपूर्ण भूटान को एक छ्त्र छाया में इकत्रित करने का काम किया था। भूटान स्वतंत्र राज्य था और अब भी है। आज वाँगचुक परिवार राज्य करता है।
इस संग्रहालय में आम पहने जाने वाले भूटानी वस्त्र, योद्धाओं के वस्त्र, मुद्राएँ, अलंकार, बर्तन आदि रखे गए हैं। यह एक संरक्षण के लिए बनाया गया किला था जो अब संग्रहालय में परिवर्तित है। हम मूल रूप से पाँचवीं मंजिल से उतरने लगे, प्रत्येक मंजिल में दर्शन करते हुए निचली मंजिल पर उतरे और उसी सड़क से गाड़ी की ओर बढ़े। पहाड़ी इलाकों में रास्ते के साथवाली ज़मीन पर बननेवाली मंज़िल सबसे ऊपर की मंज़िल होती है। उसके बाद पहाड़ काटकर नीचे की ओर इमारत बनाई जाती है।
आज शाम पाँच बजे ही हम होटल में लौट आए क्योंकि अगली सुबह हमें लंबी यात्रा करनी थी।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 21 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 4
(28 मार्च 2024)
आज हम पारो पहुँचे थे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई देता था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।
पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।
दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था दी गई और उन्हें लाल भात और मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला!
रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह पौष्टिक बन जाता है।
कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें हैं। वहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए। इस बाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलती। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए खुला फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है।
अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।
पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए। हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 20 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 3
27 मार्च 2024
हम लोग सुबह ही 9 बजे दोचूला पास देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर 108 स्तूप बने हुए हैं। यहाँ काफी सर्द हवा चल रही थी। यह एक खूबसूरत स्थान है। यहाँ 2003 में जो मिलीटरी ऑपरेशन हुए थे उन भूटानी शहीद सैनिकों की स्मृति में ये स्तूप बनाए गए हैं। इसे द्रुक वाँग्याल चोर्टेन्स कहा जाता है। ऊपर से दृश्य अद्भुत सुंदर है। मेघ ऐसे उतर आते हैं मानो वे स्तूपों के साथ उनका अनुभव साझा करना चाहते हैं। हमने यहाँ खूब सारी तस्वीरें खींची। स्वच्छ और नीले आकाश से बादलों के टुकड़े बीच- बीच से झाँकते रहे। चारों ओर पहाड़ों पर हरियाली थी। मेघ के टुकड़े रूप बदलते हुए सरक रहे थे। देखकर ऐसा लग रहा था कि हम उन्हें अपने हाथों में भर लें। हवा सर्द थी। घंटे भर बाद हम वहाँ से नीचे उतर आए और हमारे दूसरे दर्शनीय स्थान की ओर बढ़े।
यह था फर्टीलिटी टेम्पल। यह गोलाकार ऊँची बड़े भूखंड पर बना एक मंदिर है। इसे चिमी लाख्यांग टेम्पल कहते हैं। मंदिर में शिश्न की बड़ी आकृति रखी रहती है जिसे फुलाका कहा जाता है। भूटान के लोगों का विश्वास है कि इस मंदिर में पूजा करने पर संतान की प्राप्ति होती है। संतान की स्त्री अपने हाथ में फुलाका पकड़कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। संतान प्राप्ति के पश्चात नवजात के नामकरण के लिए सपरिवार इस मंदिर में दर्शन करने आता है। यह चौदहवीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर है। वास्तव में देखा जाए तो भारत के कई राज्य में भी संतान प्राप्ति हेतु माता के मंदिर हैं। अंतर इतना ही है कि भूटान में फुलाका का महत्त्व है। हमारे यहाँ माता शक्तिरूपा है इसलिए माता की पूजा होती है। थाइलैंड में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है जिसकी पूजा वहाँ के निवासी संतान के जन्म की अभिलाषा से करते हैं। स्मरण करा दें कि थाईलैअंड भी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।
मंदिर में दर्शन लेकर हम अब पुनाखा द्ज़ॉंग देखने के लिए निकले। यह एक महल है। पत्थर और नक्काशीदार लकड़ियों से बनी इमारत है। सन 1637-38 में ज़ाब्दरंग नाग्वांग नामग्याल इसी राजा ने भूटान की स्थापना की थी। इससे पूर्व यह सारा देश छोटे -छोटे कबीलो में बँटा हुआ था।
भूटान में दो नदियाँ बहती हैं जिनका नाम है फो चू और मो चू ये दोनों नदियाँ पिता और माता के रूप में मानी जाती हैं। यह इमारत इन्हीं दो नदियों के संगम स्थान पर बनी हुई है।
राजा का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री दोनों के सहयोग से परिवार, समाज और राज्य बनता है साथ ही दोनों मिलकर ही ऊर्जा देते हैं ठीक इन नदियों की तरह। ये दोनों नदियाँ लंबी यात्रा करती हैं और यथेष्ट पानी से नदियाँ भरी रहती हैं।
द्ज़ॉंग इमारत धार्मिक तथा शासकीय व्यवस्थाएँ चलाने के उद्देश्य से सन 1950 तक काफ़ी कार्यशील रही। यहाँ कई प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम होते रहे। साथ ही भूटान के राजा उज्ञेन वाँगचुक का राजतिलक भी यहीं पर हुआ था। यहीं से वाँगचुक परिवार राजा बनते आ रहे हैं और आज यहाँ पाँचवे वर्तमान राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक हैं। उनकी पत्नी जेत्सुन पेमा वांगचुक रानी हैं। संसार के सबसे जवान और कम उम्र में बने राजा हैं जिग्मे।
इस विशाल इमारत में आज भी कई धार्मिक उत्सव मनाए जाते हैं। इसका विशाल परिसर, स्वच्छ और सुंदर आँगन, बड़ी सी इमारत न केवल स्थानीय लोगों को आकर्षित करती है बल्कि पर्यटकों को यह सब कुछ बहुत ही सुंदर और शांति प्रदान करने वाली जगह प्रतीत होती है।
इस इमारत से थोड़ी दूरी पर श्मशान भूमि है क्योंकि यहाँ नीचे नदी बहती है। फिर एक कच्ची और उबड़-खाबड़ रास्ते से हम ससपेन्शन ब्रिज देखने पहुँचे।
यह ब्रिज थाँगटॉन्ग ग्याल्पो ने बनया था। इस ससपेन्शन ब्रिज की कई बार मरम्मत भी की गई है। इसे पुनाखा डोज़ॉन्ग से उस पार के अन्य गाँवों से जोड़ने के लिए बनाया गया था। यह ब्रिज 180 मीटर लंबा है। यह फो चू नदी पर बनाया हुआ है। इस पर चलते समय थोड़ा डर अवश्य प्रतीत होता है क्योंकि यह लोहे से बना पुल केवल इस पार से उस पार तक झूल रहा है। बीच में कोई आधार नहीं है। हवा चलने पर पुल हमारे भार से लहराने लगता है। पुल के दोनों ओर असंख्य प्रार्थना पताकाएँ बाँधी हुई हैं। यह स्थानीय लोगों की आस्था का प्रतीक भी है। देर शाम तक घूमने के बाद हम अपने होटल में लौट आए। हमारा दिन आनंदमय और जानकारियों से परिपूर्ण रहा।
28/3/24
आज हम पारो पहुँचे। पहाड़ी के ऊपर स्थित एक भव्य तथा सुंदर होटल में हमारे रहने की व्यवस्था थी। होटल के कमरे से बहुत सुंदर मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था। नीचे नदी बहती दिखाई दे रही थी।
पारो पहुँचने से पूर्व हमने पारो एयर पोर्ट का दर्शन किया। ऊपर सड़क के किनारे खड़े होकर नीचे स्थित हवाई अड्डा स्पष्ट दिखाई देता है। यह बहुत छोटा हवाई अड्डा है। भूटान के पास दो हवाई जहाज़ हैं। यहाँ आनेवाले विदेशी पर्यटक दिल्ली होकर आते हैं क्योंकि भूटान एयर लाइन दिल्ली और मुम्बई से उड़ान भरती है। कई बार भारतीय विमान के साथ भी व्यवस्था रहती है। इस हवाई अड्डे पर दिन में एक या दो ही विमान आते हैं क्योंकि छोटी जगह होने के कारण रन वे भी अधिक नहीं हैं। साफ़ -सुथरा हवाई अड्डा। दूर से और ऊपर से देखने पर खिलौनों का घर जैसा दिखता है।
दोपहर का भोजन हमने एक भारतीय रेस्तराँ में लिया जहाँ केवल निरामिष भोजन ही परोसा जाता है। पेमा और साँगे के लिए अलग व्यवस्था की गई थी और उन्हें अलग टेबल पर बिठाया गया था। वहीं पर उन दोनों को अपने परिचित कुछ चालक और गाइड भी मिले। भोजन के पश्चात पेमा ने बताया कि उन्हें लाल भात, मशरूम करी और दाल परोसी गई। पेमा ने बताया कि अपने साथ घूमने वाले पर्यटकों को जब वे ऐसे बड़े रेस्तराँ में लेकर आते हैं तो उन्हें कॉम्प्लीमेन्ट्री के रूप में (निःशुल्क ) भोजन परोसा जाता है। पर यह भोजन फिक्स्ड होता है। अपनी पसंदीदा मेन्यू वे नहीं ले सकते। पर यह भी एक सेवा ही है। वरना आज के ज़माने में मुफ़्त में खाना कौन खिलाता है भला! वहाँ आनेवाले हर ड्राइवर और गाइड को भरपेट भोजन दिया जाता है। यहाँ बता दें कि भूटानी तेज़ मिर्चीदार भोजन पसंद करते हैं।
रेस्तराँ से निकलते -निकलते दो बज गए। हमारी सहेलियाँ वहाँ के लाल चावल और कुछ मसाले खरीदना चाहती थीं तो हम उनके लोकल मार्केट में गए। वहाँ कई प्रकार की स्थानीय सब्ज़ियाँ देखने को मिलीं जो हमारे यहाँ उत्पन्न नहीं होतीं। कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ दिखीं जिसे वे सूप पकाते समय डालते हैं जिससे वह और अधिक पौष्टिक बन जाता है।
कुछ मसाले और चावल खरीदकर अब हम एक ऐसी जगह गए जहाँ सड़क के किनारे कई दुकानें लगी हुई थीं। इन में पर्यटकों की भीड़ थी क्योंकि वे सोवेनियर की दुकानें थीं।
यहाँ महिलाएँ ही दुकानें चलाती हैं। हर दुकान के भीतर सिलाई मशीन रखी हुई दिखी। महिलाएँ फुरसत मिलते ही बुनाई, कढ़ाई, सिलाई का काम जारी रखती हैं। कई प्रकार के छोटे पर्स, थैले, पेंसिल बॉक्स, शॉल आदि बनाती रहती हैं। कुछ महिलाओं के साथ स्कूल से लौटे छोटे बच्चे भी थे। शाम को सात बजे सभी दुकानें बंद कर दी जाती हैं। खास बात यह है कि सभी महिलाएँ व्यवहार कुशल हैं और हिंदी बोलती हैं। हमें उनके साथ बात करने में आनंद आया। कुछ उपहार की वस्तुएँ खरीदकर गाड़ी में बैठने आए तो गाड़ी काफी दूर लगी हुई थी।
इसबाज़ार की एक और विशेषता देखने को मिली कि दुकानी वाले अहाते में यहाँ गाड़ियाँ नहीं चलतीं। सभी खरीददार बिना किसी तनाव या दुर्घटना के भय से दूर रहकर आराम से हर दुकान के सामने खड़े होकर वस्तुएँ देख, परख, पसंद कर सकते हैं। दुकानों और मुख्य सड़क के बीच कमर तक दीवार बनाई गई है। ग्राहकों के चलने के लिए फुटपाथ है। ऐसी व्यवस्था हमें गैंगटॉक और लेह में भी देखने को मिली थी। इससे पर्यटकों को भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता है। अब तक पाँच बज चुके थे। पेमा ने हमें पूरे शहर का एक चक्कर लगाया और हम होटल लौट आए।
पारो शहर स्वच्छ सुंदर है। खुली चौड़ी सड़कें, विद्यालय से लौटते बड़े बच्चे जगह -जगह पर खड़े होकर हँसते -बोलते दिखे। पहाड़ी इलका और प्रकृति के सान्निध्य में रहनेवाले ये खुशमिजाज़ बच्चे हमारे मन को भी आनंदित कर गए।
स्थान -स्थान पर चेरी के और आलूबुखारा के फूलों से लदे वृक्ष दिखे। ये गुलाबी रंग के सुंदर फूल होते हैं। दृश्य अत्यंत मनोरम रहा। कहीं कहीं छोटे बगीचे भी बने हुए दिखाई दिए।
हम होटल लौट आए। चाय पीकर हम तीनों फिर ताश खेलने बैठीं।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 2
(26 मार्च 2024)
सुबह 9 बजे आज से थिंप्फू की हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। हम जल्दी ही नाश्ता करके निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही हम लोगों ने गणपति जी की प्रार्थना की, माता का सबने स्मरण किया। तत्पश्चात साँगे ने अपनी प्रार्थना भूटानी भाषा में गाई।ये प्रार्थना नाभी से कंठ तक चढ़ती अत्यंत गंभीर स्वरवाले शब्द प्रतीत हुए।फिर उसने बौद्ध प्रार्थना गाड़ी में लगाई जो अत्यंत मधुर थी।
सर्व प्रथम हम बुद्ध की एक विशाल मूर्ति का दर्शन करने गए। इसे डोरडेन्मा बुद्ध मूर्ति कहा जाता है। यहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं होता है। इस विशाल बुद्ध की मूर्ति की ऊँचाई 169 फीट है।
यह संसार की सबसे ऊँची और विशाल बुद्ध मूर्ति है। शांत सुंदर मुख, आकर्षक मुखमुद्रा अर्ध मूदित नेत्र मन को भीतर तक शांत कर देनेवाली मूर्ति।
यह एक खुले परिसर में बना हुआ है।परिसर भी बहुत विशाल है। समस्त परिसर पहाड़ों से ढका हुआ है।फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया जाता है। भीतर बुद्ध की कई मूर्तियाँ हैं और एक विशाल मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में है।
पीतल के कई बर्तनों में प्रतिदिन ताज़ा पानी बुद्ध की मूर्ति के सामने रखते हैं।फल आदि रखने की भी प्रथा है। भीतर प्रार्थना करने की व्यवस्था है। हर धर्म के अनुयायी यहाँ दर्शन करने आते हैं।परिसर के चारों ओर कई सुंदर सुनहरे रंग की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ स्त्रियों की हैं।संपूर्ण परिसर शांति का मानो प्रतीक है। हर दर्शक मंदिर की परिक्रमा अवश्य करता है।सीढ़ियों के बाईं ओर विशाल हाथी की मूर्ति बनी हुई है जिसका संबंध गौतम बुद्ध के जन्म से भी है। मंदिर के भीतर तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं है।
यह मूर्ति शाक्यमुनि बुद्धा कहलाती है।
यह भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वाँगचुक के साठवें जन्म दिवस के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर बनाई गई विशाल मूर्ति है। यह संसार का सबसे विशाल बुद्ध मूर्ति है।इसके अलावा यहाँ एक लाख छोटे आकार की बुद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। कुछ आठ इंच की हैं और कुछ बारह इंच की प्रतिमाएँ हैं।ये काँसे से बनाई मूर्तियाँ हैं, जिस पर सोने की पतली परत चढ़ाई गई है। इस मंदिर का निर्माण 2006 में प्रारंभ हुआ था और सितंबर 2015 में जाकर कार्य पूर्ण हुआ।
इसके बाद हम भूटान की सांस्कृतिक जन जीवन की झलक पाने के लिए एक ऐसे स्थान पर गए जिसे सिंप्ली भूटान कहा जाता है। यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति पर्यटक एक हज़ार रुपये है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भूटान का राष्ट्रीय रोज़गार का स्रोत पर्यटन है जिस कारण हर एक व्यक्ति पर्यटक को देवता के समान समझता है।पर्यटक का सम्मान करते हैं, खूब आवभगत भी करते हैं।
भूटान में हर स्थान पर प्रवेश शुल्क कम से कम पाँच सौ रुपये हैं या हज़ार रुपये हैं कहीं -कहीं पर पंद्रह सौ भी है।इस दृष्टि से यह राज्य बहुत महँगा है।
कोई पर्यटक जब भूटान जाने की तैयारी करता है तो उससे यह बात कोई नहीं बताता कि एन्ट्री फी कितनी होती है।इस आठ दिन की ट्रिप में हमने प्रति व्यक्ति साढ़े पाँच हज़ार रुपये केवल प्रवेश शुल्क के रूप में दिया है।सहुलियत यह है कि यह मुद्राएँ भारतीय रुपये के रूप में स्वीकृत हैं। मेरी दृष्टि में यह बहुत महँगा है। पर जिस राज्य के पास खास कुछ उत्पादन का ज़रिया न हो तो यही एक मार्ग रह जाता है।
खैर जो घूमने जाता है वह खर्च भी करता है इसमें दो मत नहीं। यहाँ यह भी बता दूँ कि भारतीय रुपये तो बड़ी आसानी से स्वीकार करते हैं और बदले में छुट्टे पैसे अगर लौटाने हों तो वह भूटानी मुद्रा ही देते हैं।भूटानी मुद्रा को नोंग्त्रुम (न्गुलट्रम) कहा जाता है। भारतीय एक रुपया भूटानी एक नोंग्त्रुम के बराबर है।
यहाँ गूगल पे नहीं चलता।
जिस तरह हमारे देश में कच्छ उत्सव मनाया जाता है ठीक वैसे ही यहाँ कृत्रिम रूप में एक विशाल स्थान को भूटानी गाँव में परिवर्तित किया गया। इस स्थान का नाम है सिंप्ली भूटान।
यहाँ हमारा स्वागत थोड़ी- सी वाइन देकर किया गया। वाइन पीने से पूर्व हमसे कहा गया कि हम अपनी अनामिका और अंगूठे को वाइन में डुबोएँ तथा हवा में उसकी बूँदों का छिड़काव करें। जिस प्रकार हम भोजन पकाते समय अग्निदेव को अन्न समर्पित करते हैं या भोजन से पूर्व इष्टदेव को अन्न समर्पित करते हैं ठीक उसी प्रकार उनके देश में इस तरह देवता को अन्न -जल का समर्पण किया जाता है।
उसके बाद हमें वहाँ की लोकल बेंत की टोपी (हैट) पहनाई गई और खुले हिस्से में ले जाकर मिट्टी से घर बनाने की प्रथा दिखाई गई।इस प्रक्रिया में जब धरती को एक विशिष्ट प्रकार के भारी औज़ार से पीटते हैं ताकि घर की फर्श समतल हो जाए तो वे निरंतर धरती माता से क्षमा याचना करते हैं कि “हमारी आवश्यकता के लिए हम धरती को औज़ार से पीट रहे हैं। जो जीवाणु घायल हो रहे हैं या मर रहे हैं हम उन सबसे क्षमा माँगते हैं। ” यह एक सुमधुर गीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कितनी सुंदर कल्पना है और ऐसे समर्पण के भाव मनुष्य को ज़मीन से जोड़े रखते हैं।
इसके पश्चात हमें भूटानी रसोई व्यवस्था से परिचय करवाया गया। आटा पीसने का पत्थर, नूडल बनाने की लकड़ी के बर्तन, चार मिट्टी के बनाए लिपे -पुते चूल्हे, भोजन पकाने के बर्तन, लोकल फलों से तथा भुट्टे से वाइन बनाने की प्रक्रिया आदि स्थान दिखाए गए।यद्यपि आज सभी के घर गैस के चूल्हे हैं पर यह उनके ग्रामीण जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं।
इस देश में कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य करने का एक त्योहार होता है। हमने विविध प्रकार के मुखौटे देखे। उनमें अधिकतर राक्षस के मुखौटे ही थे। उनका यह विश्वास है कि ऐसे मुखौटे पहनकर जब वे नृत्य करते हैं तो नकारात्मक उर्जाएँ समाप्त हो जाती हैं। उनके कुछ तारवाले वाद्य रखे हुए थे। हमें उन्हें बजाने और मधुर ध्वनियों को सुनने का मौक़ा मिला। ये हमारे देश के संतूर जैसे वाद्य थे।
तत्पश्चात हमें एक खुले आंगन में ले जाया गया जहाँ उनकी कलाकृति से वस्तुएँ निर्माण की जाती हैं। पर्यटक उन वस्तुओं को खरीद सकते हैं।पाठकों को बता दें कि भूटानी पेंटिंग, मूर्तियाँ, लकड़ी छील कर बनाई वस्तुएँ सभी कुछ काफी महँगी होती है। अधिकतर पैंटिंग सिल्क के कपड़े पर विशिष्ट प्रकार के रंग से की जाती है। इन्हें बनने में बहुत समय लगता है और ये अत्यंत सूक्ष्म काम होते हैं। कुछ पैंटिंग तो लाख रुपये के भी दिखाई दिए। हम चक्षु सुख लेकर आगे बढ़ गए।
इसी स्थान पर एक विकलांग नवयुवक अपने पैरों से लकड़ी छीलकर गोलाकार में कुछ आकृतियाँ बना रहा था। उसी स्थान पर उसके द्वारा बनाई गई कई आकृतियाँ छोटी – छोटी कीलों पर लटकी हुई थीं। हम सहेलियों ने भी कई आकृतियाँ खरीदीं। हमारे मन में उस विकलाँग नवयुवक की प्रशंसा करने का यही उपाय था। वह न बोल सकता था न अपने हाथों का उपयोग ही कर सकता था।उसने कलम भी अपने पैरों की उँगलियों में फँसाई और खरीदी गई हर आकृति पर हस्ताक्षर भी किए। कहते हैं राजमाता ने उसे पाला था और यह कला उसे सिखाई थी।
हम आगे बढ़े। एक खुले आँगन में पुरुष के गुप्त अंग की कई विशाल आकृतियाँ बनी हुई थीं।भूटान में प्रजनन की भारी समस्या है। इसलिए वे मुक्त रूप से पुरुष के गुप्त अंग अर्थात शिश्न की पूजा करते हैं। कई घरों के बाहर, दुकानों में, तथा एक विशिष्ट मंदिर में यह देखने को मिला। हमें जापान में भी इस तरह का अनुभव मिला था।नॉटी मंक नामक एक मंक का मंदिर भी बना हुआ है जो पारो में है।
अब हमें भूटानी नृत्य और संगीत का दर्शन कराने ले जाया गया। वहाँ के स्थानीय स्त्री -पुरुष, स्थानीय पोशाक में एक साथ नृत्य प्रदर्शन करते हैं और पर्यटकों को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।यहाँ हमें भुट्टे के ऊपर जो रेशे होते हैं उसे उबालकर काली चाय दी गई और साथ में मीठा पुलाव ( दोनों की मात्रा बहुत थोड़ी होती है। यह केवल उनकी संस्कृति की झलक मात्र के लिए है) यह सब कुछ एक घंटे के लिए ही होता है।
सिंपली भूटान में भूटानी संस्कृति की झलक का आनंद लेकर हम जब बाहर निकले तो डेढ़ बज चुके थे।
हमने दोपहर के समय भूटानी व्यंजन लेने का निर्णय लिया। भूटान में मांसाहारी और शाकाहारी मोमो बड़े चाव से खाए जाते हैं। नूडल्स भी यहाँ का प्रिय भोजन है। इसके अलावा लोग लाल चावल खाना पसंद करते हैं। यह चावल न केवल भूटान की विशेषता है बल्कि अत्यंत पौष्टिक भी माना जाता है। स्थानीय लोग इस चावल के साथ अधिकतर चिकन या पोर्क करी खाते हैं। पाठकों को इस बात को जानकर आश्चर्य भी होगा कि कई स्थानीय लोग निरामिष भोजी भी हैं।
होटलों में भारतीय व्यंजन भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमने लाल चावल, रोटी और शाकाहारी कुकुरमुत्ते की तरीवाली सब्ज़ी मँगवाई। साथ में स्थानीय सब्ज़ी की सूखी और तरीवाली सब्ज़ियाँ भी मँगवाई।हमने साँगे और पेमा से भी कहा कि वे भी हमारे साथ भोजन करें।
भोजन के दौरान हमें साँगे ने बताया कि भूटान में पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। वर्तमान राजा के पिता जो अब राज्य के कार्यभार से मुक्त हो चुके थे, उन्होंने चार शादियाँ की थीं।आज वे राजकार्य से मुक्त होकर एक घने जंगल जैसे इलाके में संन्यास जीवन यापन कर रहे हैं।
सभी रानियाँ अलग -अलग महलों में रहती हैं। राजमाता उनकी दूसरी पत्नी हैं। वे काफी समाज सेवा के कार्य हाथ में लेती हैं।भूटान के लोग नौकरी के लिए खास देश के बाहर नहीं जाते। उनकी जनसंख्या कम होने के कारण वे अपने देश में रहकर देश की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। हर किसी को रोज़गार मिल ही जाता है। मूलरूप से वे राष्ट्रप्रेमी हैं।
सुस्वादिष्ट भोजन के बाद हम टेक्सटाइल संग्रहालय पहुँचे। इस स्थान पर भूटान के बुनकरों की जानकारी दी गई है तथा विभिन्न वस्त्र के कपड़े की बुनाई तथा सिलाई कैसे होती है इसकी विस्तृत जानकारी स्लाइड द्वारा भी दी गई है। संग्रहालय दो मंज़िली इमारत है और काफी वस्त्रों का प्रदर्शन भी है। इस संग्रहालय को राजमाता ने ही बनवाया था। आज यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति ₹500 है।
संग्रहालय स्वच्छ सुंदर और आकर्षक है।
अब तक चार बज चुके थे। हमें चित्रकारी देखने के लिए आर्ट ऍन्ड कल्चर सेंटर जाना था। इस स्थान पर छात्र रेशम के कपड़ों पर तुलिका से रंग भरकर अपने चित्र को सुंदर बनाते हैं।अधिकतर चित्र बुद्ध के जीवन से संबंधित होते हैं।यहाँ कई छात्र तल्लीन होकर चित्रकारी भी कर रहे थे। यहाँ ऊपर एक कमरे में कई नक्काशीदार बर्तन आदि प्रदर्शन के लिए रखे गए थे।छोटी -सी जगह पर हर छात्र अपने आवश्यक वस्तुओं को लेकर तन्मय होकर अपने चित्र को सजा रहा था। उन्हें हमारी उपस्थिति से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यह भूटान का आर्ट कॉलेज है।
अब दिन के छह बज गए।हम भी थक गए थे।अब होटल लौटकर आए।कमरे में आकर हम सखियों ने चाय पी।पेमा और साँगे को भी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया।चाय के साथ हमने उन्हें भारतीय नमकीन भी खिलाए जिसे खाकर वे अत्यंत प्रसन्न भी हुए।उनके जाने पर आठ बजे तक हम सखियाँ ताश खेलती रहीं।