यात्रा-संस्मरण – मेरी यूरोप यात्रा – सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

☆ यात्रा संस्मरण – मेरी यूरोप यात्रा

(आज प्रस्तुत है सुदूर पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी का  यूरोप यात्रा संस्मरण। यह संस्मरण निश्चित ही आपको आपकी यूरोप यात्रा की याद दिला देगा। यदि आपने अब तक यह यात्रा नहीं की है तो आपको यात्रा पर जाने के लिए अवश्य प्रेरित करेगा।  एक बेहतरीन यात्रा संस्मरण।)

यदि इब्न बतूता के कथन, “यात्रा वो होती है। जो आपको कहने के लिये कुछ न छोड़े, सिर्फ आपको एक कहानी सुनाने वाले व्यक्ति के रूप में बदल दे। जिसे सुनाते जाना चाहिए।”  यूरोप एक कहानी की तरह है। जिसे सुनाते हुए कभी नहीं थकेंगे। एक बेहतरीन गंतव्य है। यूरोप की यात्रा एक रोलर कोस्‍टर की सैर जैसी होती है। जो दमदार है। मंत्रमुग्‍ध कर देने वाली है और कभी न भुलायी जाने वाली है।

मेरी यूरोप यात्रा बहुत ही रोमांचक व जिज्ञासा पूर्ण थी। जब मैं 55 वर्ष की और मेरे पति महाशय 60 वर्ष के थे। तब अपने बच्चों के आग्रह पर हमने यूरोप यात्रा करने का निर्णय लिया। इससे पहले अमेरिका व अन्य बहुत से देशों की विदेश यात्राएं हम कर चुके थे। पर इस यात्रा की उत्सुकता कुछ अधिक थी। जिसका पहला कारण हमारी जुड़वा बेटियों में से एक बेटी भी जर्मनी के म्यूनिख शहर में रहकर पढ़ाई कर रही थी। उससे मिलने की चाह थी और दूसरा कारण इतिहास में यूरोपीय देशों के बारे में बहुत पढ़ा था। ऐन फ्रैंक की डायरी पढ़ने के बाद तो हिटलर की जगह देखने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी । रोम के राजाओं की बहुत सी कहानियाँ पढ़ी थी। शेक्सपियर, जूलियट, सीजर पढ़ा था। स्विट्जरलैंड की प्राकृतिक सुंदरता को पुस्तकों में पढ़ा व चित्रों में देखा था। नेपोलियन बोनापार्ट के विषय में इतिहास में पढ़ा था। नीदरलैंड का तो कहना ही क्या?

कुल मिलाकर यूरोप यात्रा की लालसा घनिष्ठ होती जा रही थी।

अत: बच्चों ने हमारे विवाह की 33 वीं सालगिरह पर यूरोप यात्रा पर भेजने का निर्णय लिया।”अंधा क्या चाहे दो आँखें” हम बहुत खुश और उत्साहित थे। मैंने तो अपने लेखक धर्म के नाते सबसे पहले अपनी एक नई डायरी और तीन-चार अच्छी नस्ल के कलम रख लिये थे। हमारी यूरोप यात्रा प्रारंभ से अंत तक 25 दिनों की रखी गई थी।

हम 5 मई 2018 को सुबह 10:30 बजे तिनसुकिया असम से स्पाइजेट के जहाज से दिल्ली के लिए रवाना हुए। 5 मई की रात दिल्ली से कुछ जरूरी खरीददारी की व विश्राम किया। फिर 6 मई 2018 की सुबह 3:40 पर एलिटालिया एयरवेज से रोम (इटली) के लिए रवाना हुए। यह सफर सात घंटे का था। रोम के समयानुसार सुबह 8:30 बजे रोम पहुंच गए। वहां से टर्मिनल-1 में पहुंच कर 3:30 बजे म्यूनिख (जर्मनी)के लिए रवाना हुए। 7 मई 2018 शाम 5:30 बजे हम म्यूनिख पहुंच गए थे। एयरपोर्ट से आठ बजे हम पाँच सितारा होटल “लीमेरिडियन” में पहुंचे। यहां का मौसम बहुत ही मनमोहक था। न अधिक गर्मी, न अधिक सर्दी। वैसे यहां ठंड के समय में बहुत अधिक ठंड पड़ती है। तापमान माइनस 12-15 तक चला जाता है। बरफ गिरती है।

जर्मनी की धरती पर जहां नजर उठाओ। वहां सिर्फ हरे-भरे वृक्ष पेड़-पौधे व रंग बिरंगे फूल ही फूल दिखाई देते थे। साफ सुथरी और चौड़ी सड़कें थीं। यहां ईमानदारी लोगों के खून में रहती है। मैट्रो या ट्रम के टिकट का कहीं कोई चैकिंग सिस्टम नहीं है, लेकिन मजाल है कि कोई बिना टिकट सफर कर ले। यह सब कारण ही देश की उन्नति में सहायक होते हैं। यहाँ हमने मरियम चर्च देखी। वहाँ स्ट्रीट पर रूमानिया नृत्य हो रहा था। गीत संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। यहां के लोगों से परिचय प्राप्त किया।यहाँ के लोग बहुत मेहनती होते हैं। यहाँ सभी लोग अपनी राष्ट्र भाषा यानि जर्मन का प्रयोग ही करते हैं। यहां अंग्रेजी भाषा का प्रयोग न के बराबर ही होता है। अंग्रेजी जानते हैं पर बोलते नहीं हैं। जर्मन भाषा की लिपि रोमन ही है। पर भाषा अलग है। अधिकतर लोग साइकिल का प्रयोग करते हैं या पैदल चलते हैं। यहाँ गर्मियों में रात 8:30 बजे तक धूप रहती है। दुकानें ठीक आठ बजे बंद हो जाती हैं। पर होटल रात 12:00 बजे तक खुले रहते हैं। और मैट्रो ट्रेन रात के 2:00 बजे तक चलती हैं। सिर्फ दो घंटे के लिए बंद होकर फिर सुबह चार बजे से चलने लगती हैं। यहाँ रात में किसी प्रकार का कोई डर नहीं है। चोरी चपाटी, मार पीट, हिंसा आदि सभी बुराइयों से जर्मनी पूरी तरह सुरक्षित है। यहाँ बच्चे, लड़कियाँ पूरी तरह सुरक्षित हैं।

11 मई 2018 को रात आठ बजे हम लोग म्यूनिख से ज्यूरिख यानि स्वीट्जरलैंड के लिए निकल पड़े।

यह सफर बस का था,पर सड़कें खुली और अच्छी होने के कारण बस इस तरह चल रही थी कि हमें लग रहा था कि हम हवाई यात्रा कर रहे हैं। बस में शौचालय आदि की भी सुविधा थी। एक कैंटीन भी थी। जिसमें चाय, कॉफी, सैंडविच आदि खरीदे जा सकते थे । दो सीट पर एक यात्री को बैठाया गया था। सभी लोग आराम से सोते हुए जा रहे थे। बस द्वारा जर्मनी की हरी-भरी धरती का आनंद लेते जा रहे थे। दूर तक ऐसा लगता था कि सुंदर स्वच्छ हरे रंग का कालीन बिछा है। दो घंटे के सफर के बाद बस को “लिम्बाट” नदी के एक बड़े से जहाज पर चढ़ाया गया था। इस पानी के जहाज में रेस्टोरेंट भी था। हम लोगों ने यहां कॉफी पी। जहाज की यात्रा लगभग बीस मिनट की थी। इसके बाद नदी पर ब्रिज बना हुआ था। चारों तरफ बस्ती थी। उस ब्रिज पर करीब बीस मिनट बस चली।

यह सारा दृश्य अद्भुत था। कोंचलेगेन वह सीमा थी। जहां पर हमारा पासपोर्ट चैक किया गया था। कोंचलेगेन जर्मनी की अंतिम सीमा थी। इसके बाद से हम दूसरे देश में प्रवेश कर रहे थे। इस तरह बस द्वारा सिर्फ चार घंटे के सफर के बाद रात 12:10 बजे एक दूसरे देश में पहुंच गए थे,और वह देश था स्विट्जरलैंड।

स्विटजरलैंड एक ऐसा देश है। जिसे पर्यटन की दृष्टि से आदर्श माना जाता है। इसलिए यह पर्यटकों में खासा लोकप्रिय है। आल्प्स पर्वत श्रृंखला के करीब स्थित इस देश के प्राकृतिक नजारे, नदियाँ, झीलें और संस्कृति पर्यटकों को खासा लुभाती हैं। कला और संस्कृति से समृद्घ इस देश में बहुत से म्यूजियम और ऐतिहासिक स्थल हैं।

स्विट्जरलैंड मध्य यूरोप का एक देश है। इसकी 60 % ज़मीन आल्प्स पहाड़ों से ढकी हुई है। सो इस देश में बहुत ही ख़ूबसूरत पर्वत, गाँव, सरोवर झील और चारागाह हैं। स्विस लोगों का जीवन स्तर दुनिया में सबसे ऊँचे जीवन स्तरों में से एक है। यहाँ की स्विस घड़ियाँ, चीज़, चॉकलेट आदि बहुत मशहूर हैं।

इस देश की तीन राजभाषाएँ हैं-जर्मन ,फ़्रांसिसी और इतालवी।  स्विट्स़रलैण्ड एक लोकतन्त्र है। जहाँ आज भी प्रत्यक्ष लोकतन्त्र देखने को मिल सकता है। यहाँ कई बॉलीवुड फ़िल्म के गानों की शूटिंग होती है। लगभग 20 % स्विस लोग विदेशी मूल के हैं। इसके मुख्य शहर और पर्यटक स्थल ज्यूरिख, बर्न,  बासल, इंटरलाकेन, लुगानो,  लूत्सर्न, इत्यादि हैं।

यहाँ बर्फ के सुंदर ग्लेशियर हैं। ये ग्लेशियर साल में आठ महीने बर्फ की सुंदर चादर से ढके रहते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ सुंदर वादियाँ हैं। जो सुंदर फूलों और रंगीन पत्तियों वाले पेड़ों से ढकी रहती हैं। भारतीय निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्मों में इस खूबसूरत देश के कई नयनाभिराम दृश्य देखने को मिलते हैं। स्विट्जरलैंड में भी हमारे लिए पाँच सितारा होटल “पार्क रेडिशन”बुक था। यह सारा कार्य हमारे बच्चों द्वारा ही किया गया था।

यहां हम रिगि की पहाड़ियों पर ट्रेन द्वारा ऊपर गए। इसकी हाइट पाँच हजार चार सौ फीट थी। यहां लोगों ने भेड़, बकरी और गाय पाल रखी थी। मौसम बहुत अच्छा था। रिगि की पहाड़ी के ऊपर का तापमान 10 डिग्री था। ऊपर पहुंचने में 40 मिनट का समय लगा। हम पाँच हजार चार सौ फीट की ऊँचाई पर ख़ड़े थे। नीचे घर आदि सभी कुछ बहुत छोटे नजर आ रहे थे। मेरा मस्तिष्क बहुत तरोताजा होकर बहुत तेजी से चल रहा था। ईश्वर प्रदत्त प्राकृतिक सुंदरता को देख कर हमने मन ही मन उस सर्वशक्तिमान को प्रणाम किया।

पानी के जहाज द्वारा लुसर्ण लेक से लुसर्ण शहर में गए।

इस तरह तीन दिन हमने स्विट्जरलैंड की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लिया और फिर 13 मई को वापस म्यूनिख आ गए। हमने म्यूनिख में रैंट पर एक फ्लेट ले लिया था। जिसमें सभी प्रकार की सुविधाएं थी। हम अपनी पसंद का भोजन बना खा सकते थे। हमारे फ्लेट के नीचे बाजार था। इस बाजार में 90% प्रतिशत दुकानें टर्किश लोगों की थी। यह टर्किश लोग द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद काम के लिए जर्मनी आकर बस गए थे। इस बाजार में सभी प्रकार का सामान उपलब्ध था। भारतीय भोजन की सामग्री भी उपलब्ध थी।

अब एक दिन म्यूनिख में रहकर हम लोग 15 मई शाम को 9:00 बजे हवाई यात्रा द्वारा नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम के लिए निकल पड़े। दो घंटे की हवाई यात्रा के बाद हम लोग रात के 11:00 बजे एम्सटर्डम पहुंच गए थे।

नीदरलैंड यूरोप महाद्वीप का एक प्रमुख देश है। यह उत्तरी-पूर्वी यूरोप में स्थित है। इसकी उत्तरी तथा पश्चिमी सीमा पर उत्तरी समुद्र स्थित है। दक्षिण में बेल्जियम एवं पूर्व में जर्मनी है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम है।

नीदरलैंड को अक्सर हॉलैंड के नाम से भी संबोधित किया जाता है एवं सामान्यतः नीदरलैंड के निवासियों तथा इनकी भाषा दोनों के लिए डच शब्द का उपयोग किया जाता है।

फ्रांस की क्रांति द्वारा उत्पन्न नवीन विचारों से जर्मनी प्रभावित हुआ था। नेपोलियन ने अपनी विजय द्वारा विभिन्न जर्मन-राज्यों को राईन-संघ के अंतर्गत संगठित किया। जिससे जर्मन-राज्यों को एक साथ रहने का एहसास हुआ। इससे जर्मनी में एकता की भावना का प्रसार हुआ। यही कारण था कि जर्मन-राज्यों ने वियना कांग्रेस के समक्ष उन्हें एक सूत्र में संगठित करने की पेशकश की। पर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

इसकी कई स्मारकीय इमारतें प्राचीन शहर के लंबे इतिहास को दर्शाती हैं।

एम्सटर्डम नीदरलैंड का सबसे महत्वपूर्ण शहर माना जाता था।

एम्सटर्डम ने जिस समय  डच स्वर्ण युग इस शीर्षक का पदभार संभाला था तब यह नीदरलैंड का सांस्कृतिक केंद्र बन गया था।

एम्सटर्डम में संग्रहालयों का अपना एक उचित स्तर है।

सेंट्रल म्यूजियम कला और संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है।

“कैसल डी हार” एम्सटर्डम स्थित है और पूरे सप्ताह दर्शकों के लिए खुला रहता है।

शहर में विशाल “डोम टॉवर” है।  नीदरलैंड में सबसे ज्यादा चर्च और टॉवर है। यह 14वीं सदी के बने हुए हैं।

एम्सटर्डम देश की सबसे बड़ी प्रदर्शनी और सम्मेलन का केंद्र  है।

यह बिल्कुल सेंट्रल स्टेशन के बगल में स्थित है और एक साल में लगभग एक लाख से अधिक आगंतुकों का स्वागत करता है।

यहां साल में एक बार एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पर्यटन और अवकाश मेला आयोजित किया जाता है।

17 मई 2018 को रात 9:30  बजे एम्सटर्डम से ट्रेन द्वारा हमारी यात्रा बेल्जियम के लिए प्रारंभ हुई थी। प्रति व्यक्ति 26 यूरो का टिकट था। (भारतीय रूपए अनुसार दो हजार अस्सी रुपए) ट्रेन बहुत ही सुविधा जनक थी। रेलवे स्टेशन  भीड़ रहित व सभी प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण था। रेलवे स्टेशन पर भी एयरपोर्ट जैसा आभास हो रहा था। स्टेशन पर बड़ी बड़ी ब्रांड के शो रूम थे। हमने एम्सटर्डम के स्टेशन से यहां के प्रसिद्ध रंग-बिरंगे नकली टुलिप के कुछ फूल खरीदे। यह लकड़ी के बने बहुत सुंदर फूल थे।टुलिप के फूल के बगीचे यहां की मुख्य विशेषता है। ट्रेन की सीट बहुत बड़ी-बड़ी व खुली खुली थी।पूरी ट्रेन में बहुत कम यात्री थे। सभी सीट खाली पड़ी थी। यात्रा बहुत ही आरामदायक थी।

ट्रेन काफी खाली थी। यह चेयर कार थी। ट्रेन से दूर दूर तक खेत दिखाई दे रहे थे। यूरोप के सभी देशों में खेती मुख्य व्यवसाय है।

चारों तरफ के सुंदर नजारे को देखते देखते केवल तीन घंटे की ट्रेन यात्रा के बाद 12:30 बजे हम लोग बेल्जियम के “मिडी स्टेशन” पर पहुंच गए थे।

यूरोप में बेल्जियम एक छोटा सा देश है जो स्पेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, यू.के जैसे कुछ बड़े देशों की तुलना में काफी छोटा है, लेकिन इसके छोटे आकार के बावजूद, इस जगह में कई चीजें हैं जैसे वफ़ल, चॉकलेट, हीरे, फ्रेंच फ्राइज़ और कई अनगिनत चीजें शामिल हैं जो यहाँ मिलती हैं।बेल्जियम अपने मध्ययुगीन पुराने शहरों, फ्लेमिश पुनर्जागरण वास्तुकला और यूरोपीय संघ और नाटो के अंतरराष्ट्रीय मुख्यालय के लिए जाना जाता है।

बेल्जियम देश के अनोखे रोचक तथ्य यह हैं कि बेल्जियम का आधिकारिक नाम”बेल्जियम का साम्राज्य” है। और बेल्जियम के राजा फिलिप वर्तमान शासक हैं।

बेल्जियम में तीन आधिकारिक भाषा हैं और उनमें से कोई भी बेल्जियन नहीं है लोग देश के विभिन्न हिस्सों में डच, फ्रेंच और जर्मन बोलते हैं।

बेल्जियम अलग-अलग प्रकार की 800 से अधिक बियर बनाता है।बेल्जियम प्रत्येक व्यक्ति प्रति वर्ष 150 लीटर बीयर औसतन पीता है। दुनिया का मुख्य हीरा केंद्र  और दूसरा सबसे बड़ा पेट्रोकेमिकल केंद्र बेल्जियम में है। दुनिया में लगभग 90% कच्चे हीरे बेच दिए जाते हैं।पॉलिश किए जाते हैं। और एंटवर्प,बेल्जियम में वितरित किए जाते हैं।

बेल्जियम में 18 वर्ष की आयु तक अनिवार्य शिक्षा है। यह दुनिया की सर्वोच्चतम शिक्षा में से एक है।

बेल्जियम नीदरलैंड के साथ उत्तर की ओर, पूर्व में जर्मनी, दक्षिण पूर्व में लक्ज़मबर्ग और दक्षिण और पश्चिम में फ्रांस का हिस्सा है। उत्तर-पश्चिम में उत्तरी सागर के किनारे समुद्र तट भी हैं।

“स्पा” शब्द, जो कि कई जगहों के बारे में बात करने और कल्याण उपचार पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बेल्जियम के शहर स्पा से आता है।

बेल्जियम की फुटबॉल टीम – रेड डेविल्स – फीफा रैंकिंग में दुनिया में नंबर एक है।फुटबॉल (सॉकर) ही एकमात्र चीज है जो सभी बेल्जियम के लोगों को एकजुट कर सकती है। और उन्हें सभी मतभेदों और असहमति को भुला सकती है। भले ही थोड़े समय के लिए।

बेल्जियम प्रति वर्ष 220,000 टन चॉकलेट का उत्पादन करता है।यह बेल्जियम में प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग 22 किलो चॉकलेट है।

ब्रुसेल्स केवल बेल्जियम की राजधानी नहीं है, बल्कि यूरोपीय संघ की राजधानी भी है। (ईयू) और नाटो का मुख्यालय है। यही कारण है कि ब्रसेल्स को “यूरोप का दिल” कहा जाता है।

यूरोप का पहला कैसीनो “ला रेडॉउट” साल 1763 में बेल्जियम में खोला गया था।

बेल्जियम में 11,787 वर्ग मील (30,528 वर्ग किलोमीटर) का क्षेत्रफल है।

नेपोलियन, ब्रुसेल्स के दक्षिण में एक शहर “वाटरलू” में हार गया था।

बेल्जियम के लोगों का कहना है कि वे ‘अपने पेट में एक ईंट के साथ पैदा’ हुए हैं इसलिए हर बेल्जियम वासी एक घर खरीदने या बनाने की कोशिश करता है। जिसे वे जल्दी से जल्दी कर लेते हैं।

बेल्जियम में दुनिया भर की सड़कों और रेलमार्ग का उच्चतम घनत्व है। यह नीदरलैंड और जापान के बाद प्रति वर्ग किलोमीटर के तीसरे सबसे ज्यादा वाहनों वाला देश है। सभी प्रकार की रोशनी सहित बेल्जियम की राजमार्ग व्यवस्था ही एकमात्र मानव निर्मित संरचना है। जो रात में अंतरिक्ष सी दिखाई देती है।

ब्रुसेल्स का रॉयल पैलेस, बकिंघम पैलेस से 50% बड़ा है।

मार्च 2003 में इलेक्ट्रॉनिक आईडी कार्ड पेश करने के लिए बेल्जियम, इटली के साथ, दुनिया का पहला देश था। यह पूरी आबादी के लिए ई-आईडी जारी करने वाला पहला यूरोपीय देश होगा। बेल्जियम में मतदान अनिवार्य है और इस कानून को लागू किया गया है। बेल्जियम में  टेलीविजन को 1953 में दो चैनलों के साथ पेश किया गया था। एक डच में और एक फ्रेंच में।

80% बिलियर्ड खिलाड़ियों ने  बेल्जियम-निर्मित गेंदों का उपयोग किया है।

विश्व का सबसे बड़ा चॉकलेट बिक्री बिंदु ब्रसेल्स राष्ट्रीय हवाई अड्डा है। देश के उद्योग में रसायन, संसाधित खाद्य और पेय पदार्थ, इंजीनियरिंग, धातु उत्पाद और मोटर वाहन  असेंबलिंग शामिल हैं।

बेल्जियम की कोस्टल ट्राम दुनिया की सबसे लंबी ट्राम लाइन है। जो 68 किमी लंबी है। पूरी दुनिया में बेल्जियम के घरों में “केवल टी.वी” का सबसे अधिक प्रतिशत है। जो की 97% है।

बेल्जियम के लोगों की औसतन आयु 78-81 वर्ष की है।

यूरोप के लगभग सभी देशों में गर्मी के समय जून जुलाई में रात दस बजे तक दिन रहता है।

यहां पर बाजार ठीक आठ बजे बंद हो जाते हैं। होटल रात के बारह बजे तक खुले रहते हैं।

यहां के सभी रेलवे स्टेशन सुव्यवस्थित,आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण व पूर्णता स्वच्छ हैं।

19 मई 2018 को शाम के 7:45 पर हम लोग बस द्वारा ब्रसेल्स से पेरिस के लिए निकल पड़े। बस सभी प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण थी। बस में एक कैंटीन तथा शौचालय की व्यवस्था भी थी।लगभग तीन घंटे की बस यात्रा के बाद 11:15 पर हम लोग पेरिस पहुंच चुके थे। जैसा की पेरिस के बारे में सुन रखा था। पेरिस उससे भी कहीं अधिक था।

फ्रांस के उत्तर में सीन नदी के तट पर बसा कल्पनाओं का शहर है पेरिस। फ्रांस की राजधानी पेरिस को ‘रोशनी का शहर’ और ‘फैशन की राजधानी’ भी कहा जाता है। 105.4 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले इस शहर की जनसंख्या 22 लाख है। पूरा पेरिस 20 भागों में बंटा है। जिन्हें अरौंडिसमैंट कहते हैं। 6,100 गलियों, 1,124 बार और 1,784 बेकरियों वाले इस शहर के बनने की कहानी बड़ी रोचक है। वर्ष 1852 तक यह आम शहर जैसा ही था। उसी वर्ष नेपोलियन बोनापार्ट का भतीजा लुई नेपोलियन तृतीय राजा बना और उस ने बड़े ही जोरशोर से शहर का नवीनीकरण करना शुरू किया। बैरन हौसमैन नामक इंजीनियर को उस ने यह जिम्मेदारी सौंपी थी।

हौसमैन ने न सिर्फ सौंदर्यीकरण का काम किया, बल्कि शहर को अभिजात्य वर्ग में ला खड़ा करने की भी पुरजोर कोशिश की। शहर में जितनी भी गरीब लोगों की बस्तियां थीं। उन्हें उजाड़ कर जनता को जबरदस्ती शहर के बाहरी हिस्सों में भेज दिया गया था। और फिर चौड़ी खूबसूरत सड़कों, बड़े-बड़े खुले ब्लौक्स और महंगे बाजारों तथा सुंदर घरों का निर्माण किया गया। हरियाली की कमी न हो। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया। 17 साल तक यह सारा काम चलता रहा। और जनता हौसमैन को कोसती, गालियां देती रही।गरीब तो गरीब, अमीरों ने भी उस का विरोध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

1870 तक जो पेरिस बन कर तैयार हुआ।उस ने सब की आंखें चौंधिया दीं थीं और कुछ ही समय में यह शहर पूरे यूरोप के गर्व का कारण बन गया।आज पूरे संसार में पेरिस की जो छवि है।उस का मुख्य श्रेय हौसमैन को ही जाता है।

घूमने के लिहाज से वैसे तो पूरे पेरिस शहर में कहीं भी चले जाइए। हर जगह खूबसूरती बिखरी मिलेगी।फिर भी कुछ जगहें ऐसी हैं। जिन्हें देखे बिना पेरिस यात्रा अधूरी ही कहलाएगी।

एफिल टावर फ्रांस की क्रांति की एक शताब्दी पूरी होने का जश्न मनाने के लिए 1889 में पेरिस में एक वर्ल्ड फेयर का आयोजन किया जा रहा था। इस के मुख्यद्वार के रूप में एक बड़ा और भव्य टावर बनाने का प्लान बनाया गया।जिसे बाद में तोड़ दिया जाना था। जिस कंपनी ने इस का निर्माण किया था। उस के मुख्य इंजीनियर एलैक्जैंडर गुस्ताव एफिल के नाम पर इस का नाम एफिल टावर रखा गया।लोहे के जालदार काम से बनी इस संरचना की ऊंचाई 1,063 फुट है। जिस में 3 लैवल हैं और 1,665 सीढि़यां हैं। हर लैवल पर जाने के लिए अलग-अलग लिफ्ट की व्यवस्था है। पहली 2 मंजिलों पर रैस्टोरैंट आदि की भी सुविधा है। हर मंजिल से पूरे शहर का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। जैसा कि पहले से तय था। वर्ष 1909 में इसे नष्ट करने के बारे में सोचा गया था।लेकिन तब तक यह जनता और सरकार, सब के दिलों में घर कर चुका था।इसलिए इसे एक बड़े रेडियो एंटीना की तरह प्रयोग करने का निश्चय किया गया।आज यह टावर पेरिस की पहचान और शान है।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब हिटलर पेरिस में घुसा। तो लोगों ने एफिल टावर की लिफ्ट के केवल काट दिए थे। ताकि हिटलर उन के शहर की इस शान पर न चढ़  सके। हिटलर कुछ सीढि़यां चढ़ा, लेकिन फिर हार मान कर लौट गया।आज यहां पूरे संसार से हर साल 60-70 लाख लोग आते हैं। रात के समय जब पूरे टावर पर लगी 20 हजार लाइटें जगमगाने लगती हैं। तब तो इस की शोभा देखते ही बनती है। इस से जुड़ा एक मजेदार तथ्य है कि मैटल से बना होने के कारण इस की लंबाई सूर्य की गरमी से प्रभावित होती है और मौसम के अनुसार 15 सैंटीमीटर तक घटती बढ़ती रहती है।

डिज्नीलैंड पार्क वाल डिज्नी के पात्रों और फिल्मों की थीम पर बना यह विशाल और भव्य पार्क शहर के मध्य भाग से 32 किलोमीटर पूर्व में स्थित है. 4,800 एकड़ में फैला यह पार्क 1992 में शुरू हुआ था। वर्ष 2002 में इसी के साथ डिज्नी स्टूडियोज का निर्माण किया गया। इन दोनों पार्कों में कुल मिला कर 57 झूले, राइड्स आदि हैं।इन के अलावा यहां रंगबिरंगी परेड, लेजर शो और तरहतरह की अन्य गतिविधियां भी होती रहती हैं। पूरे डिज्नी पार्क को 5 भागों–मेन स्ट्रीट यूएसए, फैंटेसीलैंड, एडवैंचरलैंड, फ्रंटियरलैंड और डिस्कवरीलैंड में बांटा गया है।एक भाग से दूसरे तक जाने के लिए पैदल चलने के अलावा ट्रेन से जाने की भी सुविधा है। एलिस इन वंडरलैंड, पाइरेट्स, स्नोवाइट, पीटर पैन, टौय स्टोरी आदि की थीम पर बने झूले आप को एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं।स्लीपिंग ब्यूटी का महल तो इतना सुंदर है कि देखने वाला मानो सचमुच स्वप्नलोक में ही विचरण करने लगता है। 7 रिजौर्ट, 6 होटल, कई रैस्टोरैंट, शौपिंग सैंटर और एक गोल्फ कोर्स वाले इस थीम पार्क में हर साल एक से डेढ़ करोड़ लोग आते हैं।

फ्रांस की क्रांति और अन्य युद्धों में मारे गए शहीदों की याद में “आर्क औफ ट्रायम्फ” नामक गेट बनाया गया है।रोमन वास्तुकला पर आधारित इस गेट को 1806 में जीन कैलग्रिन ने डिजाइन किया था।कुछ युद्धों और शहीदों के नाम इस की दीवारों पर खुदे हुए हैं।नीचे एक चैंबर बना है। जिस में ‘अनजाने सैनिक का मकबरा’ है। जो पहले विश्वयुद्ध में मारे गए थे। उन सैनिकों को समर्पित है।

नौत्रे डेम कैथेड्रल-

यह एक रोमन कैथोलिक चर्च है। जो फ्रैंच गोथिक शैली में बना है। पूरी दुनिया के कुछ अत्यंत मशहूर चर्चों में से यह एक है। यहां जीसस क्राइस्ट के क्रौस का एक छोटा हिस्सा क्राउन औफ थौर्न तथा उन के कुछ अन्य स्मृतिचिह्न भी रखे गए हैं। नेपोलियन बोनापार्ट के राज्याभिषेक के अलावा अन्य कई बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का यह चर्च गवाह रहा है। यहां कुल 10 बड़ेबड़े घंटे हैं। जिन में से सब से बड़ा 13 टन से भी ज्यादा भारी है और उस का नाम इमैन्युअल है।

“लुव्र म्यूजियम” यह संसार के सब से बड़े म्यूजियमों में से एक है।शहर के पश्चिमी भाग में सीन नदी के दाहिने तट पर स्थित यह इमारत लगभग 60,600 वर्ग मीटर में फैली है।12वीं शताब्दी में फिलिप द्वितीय ने इस का निर्माण एक किले के रूप में करवाया था। कई राजाओं ने इसे अपना निवास बनाया। अनेक स्वरूप और नाम बदलते हुए 10 अगस्त, 1793 को पहली बार 537 पेंटिंग्स और 184 कलाकृतियों के साथ इसे म्यूजियम का रूप दिया गया। आज इस का इतना विस्तार हो चुका है कि अगर यहां की हरेक कलाकृति को सिर्फ 4 सैकंड देख कर ही आगे बढ़ जाएं तो हमें को पूरा म्यूजियम देखने के लिए 3 महीने का समय चाहिए होगा।

इस तरह फ्रांस और इटली घूमते हुए हम लोग 22 मई को वापस म्यूनिख आ गया। दो दिन म्यूनिख का आनंद लेकर हम लोग 25 मई को अपने प्रिय देश भारत के लिए चल दिए। इस यूरोप यात्रा का एक एक पल अविस्मरणीय है और रहेगा। किसी ने ठीक ही कहा है –

सैर कर दुनिया के गाफिल

जिंदगानी फिर कहाँ ।

जिंदगानी गर रही

तो नौजवानी फिर कहाँ।

 

© निशा नंदिनी भारतीय

तिनसुकिया, असम

9435533394

[email protected]

Please share your Post !

Shares

सफरनामा- * मेरी यात्रा * – श्री राजेन्द्र कुमार भंडारी “राज” 

श्री राजेन्द्र कुमार भंडारी “राज” 

 * मेरी यात्रा *

(श्री राजेन्द्र कुमार भण्डारी “राज” जी  का e-abhivyakti में स्वागत है। श्री राजेन्द्र कुमार जी बैंक में अधिकारी हैं एवं इनकी लेखन में विशेष रुचि है। आपकी प्रकाशित पुस्तक “दिल की बात (गजल संग्रह) का विशिष्ट स्थान है। यह यात्रा  संस्मरण  “मेरी यात्रा” में  श्री राजेन्द्र कुमार भण्डारी “राज” जी ने  गुजरात, महाराष्ट्र एवं गोवा के विशिष्ट स्थानों की  यात्रा का सजीव चित्रण किया है। ) 

मैंने अपनी यात्रा द्वारका दिल्ली से 15 अक्तूबर 2018 को पौने तीन बजे दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन से प्रारम्भ की जो अहमदाबाद तक थी। मैं अहमदाबाद सुबह नौ  बजकर पचपन मिनट पर पहुँचा। इसके बाद जबलपुर से सोमनाथ जाने वाली ट्रेन पकड़ी, क्योंकि सबसे पहले मुझे सोमनाथ बाबा के दर्शानाथ हेतु सोमनाथ जाना था। जबलपुर-सोमनाथ एक्स्प्रेस रूक-रुक कर चल रही थी, क्योंकि यह ट्रेन अपने समय से पहले ही दो घंटे विलंब से थी और अहमदाबाद से यह ग्यारह बजकर बाईस मिनट पर चली थी। अतः यह हर गाड़ी को स्टेशन से पहले रूक कर उसे पहले जाने देती थी अपनी देरी से आने का परिणाम जो भुगतना था। इस रास्ते में बहुत अच्छे-अच्छे स्टेशन जैसे वीरपुर, सूरेन्दरनगर, राजकोट, भक्तिनगर, नवागड़, जेतलसर, जूनागड़,  केशोद, मालिना, हाटीना, चौरवाड रोड़ और वैरावल आदि-आदि आए। वैरावल में नाव यानि कि नौका ही नौका थे, जैसे कि  वैरावल  वैरावल ना होकर नौकागढ़ हो। मौसम बहुत सुहाना था। मस्त-मस्त हवा चल रही थी। ठंड का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं था। दिन में धूप भी मजेदार थी। कपास, अरण्ड, मिर्ची, जीरा और सूरजमुखी के खेत चमचमा रहे थे। वह दृश्य देखते ही बनता था। जैसै-जैसे सूरज ढ़ल रहा था मौसम की मस्ती बढ़ती जा रही थी। मौसम अपने पूरे यौवन पर था। अब शाम हो चली थी। दिन ढ़ल गया था। रात होने लगी थी। पक्षियों की तरह मैं भी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहा था। जूनागढ़ के बाद गाडी़ ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। मानों दिन की सारी कमी अब पूरी करनी हो। अन्ततः मैं सोमनाथ पहुँच ही गया, रात के आठ बजकर इक्यावन मिनट पर।

चलने को यहाँ के लोग “हालो” बोलते हैं। हालो भई हालो मतलब “चलो भाई चलो” और “बैसो” मतलब “बैठो”,  त्रण मतलब “तीन”। जमी लिधौ मतलब “खाना खा लिया” आदि-आदि। भाषा बडी मधुर हैं लोग शांत व सुशील स्वभाव के हैं अर्थात जैसी भाषा वैसै  ही लोग,  मानस मतलब “लोग”। शुद्ध भाषा का अनुसरण ये लोग बखूबी करते हैं।  पर एक बात यहाँ ख़ास हैं रात को सब लोग अपने-अपने मुख्यः द्वार के बाहर बैठ जाते हैं जैसे कोई पंचायत कर रहे हों। घर की सारी बत्तियां बन्द करके, केवल एक मुख्य कमरे को छोडकर, इससे बिजली की बचत तो होती ही हैं पर साथ में पैसे की भी। अब मैं सोमनाथ पहुँच गया। सोमनाथ रेलवे स्टेशन से मैनें आटो-रिक्शा लिया और आशापुरा होटल नौ  बजे पहुँच गया। यह होटल सोमनाथ मंदिर के बिल्कुल पास में ही था। सुबह 17 अक्तूबर 2018 को 7 बजे सोमनाथ बाबा के दर्शन किए और समुद्र को प्रणाम किया उसके बाद  त्रिवेणी के भालसा मंदिर (यहाँ श्री कृष्ण जी के पैर में तीर लगा था।  जब श्री कृष्ण जी यहाँ विश्राम कर रहे थे तब एक भील ने उनके पग में तीर मारा था) के दर्शन किऐ।

फिर कार से ग्यारह  बजकर पाँच मिनट पर दीव के लिए निकल पड़ा। रास्ते में बड़ी गर्मी थी, परंतु समुद्र होने के कारण इसका  तनिक भी पता न चला। दीव के रास्ते में सुंदरपुरम, गौरखमडी, प्रांचि, मोरडिया, कोडियार केसरिया होते हुऐ दीव शहर सवा बजे पहुँचा। रास्ते में नारियल के पेड़ों  की भरमार थी। जौं, गन्ना और मूंगफली, बाजरा की खेती थी। भेड बकरियाँ रास्ते की शान थी। जहाँ देखो वहाँ जालाराम का होटल या ढाबा मिल जाता था। यहाँ धर्मशालायेँ भी बहुत हैं। लोग मावा व गुटका बहुत खाते हैं तथा साथ ही सोडा भी बहुत पीते हैं। मैं पहले दीव फोर्ट, दीव संग्रहालय, चक्रवर्ती बीच, आई एन एस कुकरी, गंगेशवर मंदिर, फिर नागवा बीच गया। यहाँ पानी कौटा जेल देखा जो समुंदर के बीचो बीच में है। मैं यहाँ बीच से पाँच  बजकर बीस मिनट पर चला। ताड़़ी व नारियल के पेडों की भरमार को देखते हुऐ चैक पोस्ट से छः बजे निकला और सोमनाथ, आठ बजकर अड़तालीस मिन्ट पर पहुँचा गया।  वहाँ से सवा दस बजे सोमनाथ से औखाँ के लिए ट्रैन पकडी जो सोमनाथ से दस बजकर उन्नीस मिनट पर औखाँ के लिए चल पडी।

रास्ते में वेरावल, कसौद,  जूनागढ़, राजकोट, जामनगर, खमबाडिया, भोगाथ, भाटिया से होते हुऐ  द्वारका से सात  बजकर पचपन मिनट पर पहुँचा। खाने के पैकेट को यहाँ पार्सल बोलते है द्वारका में जुलेलाल गेस्ट में ठहरा। मगर वहाँ से 18 अक्तूबर 2018 दोपहर के दिन बेट द्वारका के लिए निकला। सबसे पहले रुक्मणी माता  मंदिर के दर्शन किए। उसके बाद 16 किलेमीटर दूर  नागेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। इसके बाद 5 किलोमीटर दूरी पर गोपी तलाब था वहाँ  गोपी तलाब के दर्शन किए। अंत में चार बजकर बीस  मिनट पर औखाँ यानि कि बेट द्वारका गया। वहाँ पाँच बजकर बीस मिनट पर द्वारिकाधीश श्री कृष्ण जी के दर्शन करने के बाद बेट द्वारिका से छः बजकर चालीस मिनट  पर द्वारिका के लिए वापस हो लिया और सात  बजकर पचपन मिनट पर द्वारिका पहुचँ गया।

अगले सफ़र के लिए मैंने अपने तरक्क़ी के पहले पडाव़ व मेरी मनचाही जगह पौरबन्दर   को चुना। मैंने जुलेलाल होटल को खाली किया। होटल ठीक नौ बजे छोड़ कर नौ बजकर दो मिनट पर पोरबन्दर की बस पकडी़ और चल पडा़ अपनी  मनपसन्द राह यानि मंजिल की ओर। जय श्रीकृष्णा। जय सुदामाजी की।

पोरबन्दर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और श्री कृष्णजी के सखा श्री सुदामाजी की जन्म स्थली हैं। रास्ते में, भोगात, लामबा, हरसद, वीसावडा, पालकडा, रातडी आवीयो नतलब आया। यहाँ हऱसद माताजी का चर्चित मंदिर हैं। कुछ शब्द जैसे बे वी गयो, आ वी गयो, चालो, सू नाम छै, क्या जाओ छौ, तमारो देश मतलब गावँ के गुजराती भाषा के शब्द बडे़ मधुर लगते थे। पोरबन्दर में कीर्ती मंदिर यानी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के दर्शन किए बाद में सुदामा  मंदिर के दर्शन, राऩावाव में जामुवंत गुफा के जो पोरबन्दर से 12 किलोनीटर की दूरी पर है। (जामवंत की गुफा की मिट्टी में सोना पाया जाता हैं ऐसा यहाँ के लोग कहते हैं, परंतु यह मिट्टी घर तक ले जाते जाते गायब हो जाती हैं केवल कुछ नसीब वालों के घर तक पहुंचती हैं।)

माधोपुर में माँ रानी रुक्मणी के मंदिर के दर्शन किये। माधोपुर पोरबन्दर से 40 किलोमीटर दूर है। यह माँ रुक्मणी का जन्म स्थल हैं जहाँ से भगवान श्री कृष्ण रुक्मणी को भगा कर ले गये थे। इसके बाद चौपाटी गया तथा शाम को राम मंदिर शांतिपनी मंदिर गया वहाँ लक्ष्मी-नारायण  के दर्शन किए। और रात को सूरत के लिये  ट्रेन पकड़ी जो पोरबन्दर से नौ बजकर सात  मिनट पर मुंबई के लिये रवाना हुई। पोरबन्दर की छवि निराली है। पुरानी यादें ताजा हो गईं। कुछ पुराने मित्र मिल गये। बडा़ मजा आया। अब सूरत से मुझे शिरडी जाना था जो नासिक से कुछ आगे है। रास्ते में बड़े-बडे़ स्टेशन जैसे जामनगर, राजकोट, सुरेन्द्रनगर, नडियाड, कणजरी बोरीवली, आनन्द, वसाद, बडोदरा (बरोडा), विश्वामित्री, ईटोला, मियागाम, करजन, भरूच, अंकलेश्वर, पानौली, कौसम्मभा, कीम, सायण, गोठनगाम आदि-आदि  फिर सूरत आया। यहाँ की भाषा वाह क्या कहने- आ बाजू मतलब “इस तरफ”। पग मतलब “पैर”, हम सपिड बधारी मतलब “रफ्तार तेज कर ली”, हम जौईयो का मतलब “चाहना”, जलसा करो मतलब “आनंद हो”, तपास मतलब “ढूँढना”, बांधौ नथी मतलब “कोई ऐतराज नहीं” आदि-आदि।

भरूच में सिंगदाना (मूंगफली) बहुत मिलता है। वैसे समस्त गुजरात में मूंगफली, अरणड, बाजरा, मिर्च, सौप, सूरजमुखी, जौ, नारियल, कैसर आम, आलू, अदरक, लहसुन, सिरडी (ईख मतलब गन्ना), चना, मुँग दाल, अरहर दाल आदि-आदि बहुत होता हैं। यहाँ ज़मीन में आयल (तेल) बहुत निकलता है। सूरत में डायमंड यानी हीरा और साडि्यों का काम ज्यादा होता हैं। राजकोट में मशीनरी का जिस मशीन का पार्ट कहीं नहीं मिलता वह यहाँ जरूर मिल जाएगा। साढ़े बारह बजे सूरत पहुँचा और सूरत बस अड्डे से नासिक के लिए बस पकड़ी जो डेढ़ बजे नासिक के लिए रवाना हुई।  नवसार, धर्मपुरा और पेठा से होती हुए नासिक पौने नौ बजे पहुँची। धर्मपुरा में नाश्ते के लिए एक होटल पर रुकी जो बहुत ही बेकार था केवल भजिया चाय और कोल्ड ड्रिंक के अलावा यहाँ कुछ नहीं था। रास्ता भी काफी खराब था।

नासिक से शिर्डी के लिए बस ली जो नौ बजे शिर्डी के लिए रवाना हुई। नासिक बहुत खूबसूरत शहर है। शिर्डी ग्यारह बजकर बीस मिनट पर पहुँच गया। और होटल ग्यारह बजकर चालीस मिनट पर पहुँच गया। सुबह बाबा साईनाथ के दर्शन किए। रविवार की वजह से मंदिर में बहुत भीड़ थी। यहाँ पहले दर्शन पास लेना पडता हैं फिर दर्शन की लाईन में लगना पडता है। लाईन से ही बाबा के दर्शन होते हैं। हर अच्छी और पक्की व्यवस्था है। बड़े आराम से दर्शन दिए बाबा साईनाथ जी महाराज ने। दिल और मन दोनों गदगद हो गया। थोडा बाजार घूमा और फिर खाना खाकरवापस होटल आ गया। और थोडा सा आराम किया। उसके बाद ट्रैवल एजेंसी से गोवा जाने वाली बस की टिकट कराई जो चार बजे की थी। होटल से सवा तीन बजे निकला और बस पकडी। बस ठीक चार बजे गोवा के लिए चल पड़ी। शिर्डी छोडने का दिल तो नहीं कर रहा था, परन्तु आध्यात्मिकता में ज्यादा न पड़ कर बाकी कार्य भी पूरे करने थे क्योंकि काफी दिनों से मेरी इच्छा गोवा देखने की थी, तो मैने सोचा यह अच्छा अवसर हैं क्योंकि की गोवा यहाँ से नजदीक भी  था अत: इस अवसर का लाभ लिया जाए इसलिए मैने आनन-फानन में चार  बजे गोवा की टिकट कराई और चल दिया गोवा   बच्चों को बोला तो वे भी बड़े खुश हुए और उन्होंने गोवा से दिल्ली वापसी की 24 तारीख की चार बजकर पैंतीस मिनट की एयर एशिया की टिकट की बुकिंग करा दी ।

अब मै सुबह पाँच बजे गोवा पहुँच गया था। रास्ते में गाडी कोपरगाँव, अहमदनगर टोल पर रुकी। पणजी से होते हुए गोवा सवा दस बजे पहुँच गया। वहाँ से कोलुआ बीच के लिए टैक्सी ली और सीधा जिम्मी कॉटेज पहुँचा। ग्यारह बजे कमरा लिया। थोड़ा आराम किया और एक बजे कोलुआ बीच गया। पूरे दिन मौज मस्ती की। खाना खाया। शाम को मार्केटिंग की। अगले दिन उतर (नौर्थ) गोवा घूमने गया। फिर पणजी आया। यहाँ कैसिनो बहुत हैं  यहाँ जुआ खेलना अलाउड है। यहाँ के लोग जुआ बहुत खेलते हैं।  गोवा में नारियल, काजू बहुत होता है। और यहाँ शराब भी बहुत बनती है। ख़ासकर काजू और नारियल की। मंगलवार 23 अक्तूबर 2018 को बस से नौर्थ गोवा घूमा। सिन्कूरियम डॉलफिन ट्रिप पर गया। सनो पार्क घूमा। रास्ते में रिवर जुआरी और रिवर मांडवी, रॉक बीच आए। 24 अक्तूबर 2018 को दाबोली विमानतल से चार  बजकर पैंतीस  मिनट पर एयर एशिया की फ्लाइट पकड़ी ।  सात बजकर अठारह मिनट पर दिल्ली हवाई अड्डा पहुँच गया और 8 बजकर 40 मिनट पर वापस अपने आशियानें मतलब घर पहुँच गया। आखिर में जमानें की खाक़ छान कर “राज़” वापस अपने द्वार।

© श्री राजेन्द्र कुमार भंडारी “राज”

(श्री राजेन्द्र कुमार भंडारी ” राज” बैंक में अधिकारी है। आपकी लेखन में  विशेष अभिरुचि है। आपकी प्रकाशित पुस्तक “दिल की बात (गजल संग्रह) है।) 

फ्लैट नम्बर-317
प्लैटिनम हाइट्स , सेक्टर- 18 बी
द्वारका , नई दिल्ली-110078
मोबाइल नंबर–9818822263

 

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-6 – श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 6
भड़पुरा से झाँसीघाट
रात्रि विश्राम हमने भडपुरा स्थित कुटी में किया। कुटी की देखभाल एक बूढ़ी माँ माँग-ताँग कर करती है। वह आश्रम किसी बड़े किसान ने इस शर्त पर बनवा दिया था कि परिक्रमा करने वालों को भोजन मिलना चाहिए। वे वैरागी हैं, उसका बेटा नवरात्रि में दुर्गा जी की मूर्ति का पंडा बना था। वहीं झाँकी के पंडाल में रहता था। सुबह नहाने धोने भर को घर आता था। उसे ख़बर लगी तो वह देखने आया। बातचीत करके संतुष्ट हो कर चला गया। उसकी बीबी को छः लोगों के लिए रोटी सब्ज़ी बनाना था तो उसका मूड ख़राब होने से वातावरण ठीक नहीं रहा। हमने खाना बनाने में मदद की पेशकश की, जिसे निष्ठुरता से ठुकरा दिया गया। उसका 12 साल का लड़का बहुत बातूनी था। उसी के मार्फ़त बातचीत चलती रही। अंत में अपनी घरेलू चार रोटियों के बराबर एक टिक्कड नमक मिर्च में  बनी आलू की सब्ज़ी के साथ एक गोल थाली में आए जैसे भीम अपनी गदा के साथ रथ में चला आ रहा हो। किसी ने दो किसी ने तीन और किसी ने चार खाए। सच हैं स्वाद भोजन में नहीं भूख में होता है। नींद न जाने टूटी खाट, भूख न जाने बासी भात। यहाँ तो न खाट थी और न भात परंतु नर्मदा जी का किनारा था। बाहर निकल कर नर्मदा की ओर देखा वह शांत होकर हँसिया खिले चाँद की रोशनी में निंद्रामग्न थी। लहरों की झिलमिल जो दिन में नज़र आती है वह नदारत थी।
वर्षो बाद जमीन पर और कुछ लोगों ने शायद जीवन में पहली बार गद्दे के बिना सोने का प्रयास शुरू हुआ। बिस्तर तीन तरफ़ से खुली दहलान में लगाए गए। सबसे पहले तो मच्छरों का हमला हुआ लड़के ने कचरा जलाकर धुआँ करके उनसे छुटकारा दिलाया। उसके बाद मुंशीलाल जी के पास एक कुतिया आकर सो गई। उसे डंडे से भगाया। सोने की कोशिश की तो बरगद के पेड़ पर तेज़ हलचल होने लगी। जैसे भूतों का डेरा हो। उठकर देखा तो चमगादड़ का एक झुंड बरगद के फलों को खा रहा था। फलों के टुकड़े पट-पट नीचे गिर रहे थे। एकाध घंटा चमगादड़ देखते रहे। फिर सोने की कोशिश की तो सिर के पास कुछ आवाज़ आई। हाथ फेरा तो एक मेंढक पकड़ में आया उसे दूर फेंक दिया। सब डर गए कि मेंढक की खोज में साँप वहाँ आ सकता है। हमने सोचा छोड़ो यार शंकर भगवान गले में डाले रहते हैं। अब आएगा सो आएगा। 90% सांप ज़हरीले नहीं होते हैं और फिर जैसे हम सांप से डरते हैं उसी प्रकार वे भी आदमी से डरते हैं। अरुण दनायक जी अपनी डायरी लिखने बैठ गए। लोग पहले पानी पीते फिर पेशाब जाते रात गुज़रने की राह देखते रहे। देर रात एक झपकी लगी और सवेरा हो गया। कहीं कोई पाखाना नहीं था। खुले में हल्के हुए। कुटी की गाय का एक-एक गिलास कच्चा दूध पिया। उनको तीन सौ रुपए दान स्वरूप दिए और चल पड़े।
हम पाँचों फिर चले और बीहड डांगर, नाले पार करते हम भीकमपुर पहुँचे। ऊँची घास से रास्ता नहीं सूझता था। एक भी गलत कदम कम से कम बीस फुट नींचे गिरा सकता था। और हुआ भी यही एक जगह रास्ते की खोज में  दनायक जी गिरते गिरते बचे वापिस मुड उपर से मुंशीलाल पाटकार ने आवाज लगाई इधर आईये रास्ता यहाँ से है।
भडपुरा के हनुमान आश्रम  का तोता हमारे पहुँचते ही अपने सिर पर आकर बैठ गया। उतरने से साफ़ इंकार करता रहा। चिकनी चाँद उसे भा गई। तोता महाराज वीडियो के शौक़ीन थे।
जिस देश में गंगा बहती है का “है आग हमारे सीने मे हम आग से खेला करते हैं “ गीत पर ख़ूब नाचा ससुरा। विडियो बंद करो तो चोंच मारता था। फिर लगाया “चल उड़ जा रे पंछी ये देश हुआ बेगाना” मस्त हो गए तोता राम।
काफ़ी मान-मनुअ्अल के बाद अरूण दनायक भाई के सिर को भी उपकृत किया। एक और साथी की ज़िद पर महाराज वहाँ पहुँचे लेकिन टैक्स के रूप में काटकर ख़ून निकल दिया। उसे काजू दिए तो उसने कुतर कर छोड़ दिए। तोता खुले में रहता था उड़ता नहीं था। पता चला कि उसे गाँजा पीसकर खिलाया गया है इसलिए जब उसे तलफ की आदत हो है तो वह बाबाओं के पास रहता है।
धरती कछार पड़ा वहाँ के स्कूल में  दनायक जी ने बच्चों से मुलाकात में गांधी चर्चा की जिसने हमें आन्नदित किया कि गांधी जी की पहुँच समय और भौगोलिक स्थितियों की ग़ुलाम नहीं है। आंगनवाडी केन्द्र की ममता चढार की कर्तव्य परायणता से  प्रफुल्लित हुए। धरती कछार से गोपाल बर्मन को कोलिता दादा का बैग रखने को साथ ले लिया। उसने बातों-बातों में बताया कि लोग भाजपा से नाराज़ हैं। ग्रामीण समाज में भी लड़कियाँ खुल कर बिना झिझक सामने आने लगीं हैं और शादियों के लिए लड़कों को  निरस्त भी करने लगीं हैं। वहीं दूसरी ओर उनका यौन व्यवहार भी तेज़ी से बदल रहा है। बाय फ़्रेंड-गर्ल फ़्रेंड का कल्चर खेतों में या मेड पर विडीओ, वट्सएप, फ़ेस्बुक के माध्यम से से रहा है। ये मोबाइल क्रांति का असर है। अब लड़कियाँ को सेनेटरी पैड और विटामिन की गोलियाँ आंगनवाड़ी से प्रदान की जाती हैं।
आश्रम से चले तो आधा घण्टे में एक बड़े नाले से सबका सामना पड़ा। सौ फ़ुट चढ़ाई चढ़ कर फिर नीचे उतर नाला पार किया, फिर चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचे तो पहाड़ी के सामने एक और नाला दिखा। भूगोल का दिमाग़ लगाया तो देखा कि एक ही नाला सांप की कुंडली की तरह चारों तरफ़ घुमा हुआ है। चार-पाँच बार पहाड़ियाँ चढ़-उतर कर नाला पार करना होगा लोगों का दम निकल जाएगा। निर्णय लिया कि दाहिनी तरफ़ नर्मदा में उतर जाएँ वहाँ से किनारे-किनारे झाँसीघाट की तरफ़ बढ़ेंगे। आगे बढ़े तो एक सौ फ़ुट ऊँची खाई का मुँह नाले में खुल रहा था। वह नाला नर्मदा में मिल रहा था। उतरने को कहीं कोई रास्ता नहीं था। सुरेश पटवा और कोलिता दादा आगे थे बाक़ी तीन पीछे भटक गए। कोलिता दादा को पीछे करके सुरेश पटवा बैठ कर सौ फ़ुट खाई में स्कीइंग करके नाले के किनारे से नर्मदा की गोद में पहुँच गए। उन्होंने कोलिता दादा को भी इसी तरह स्कीइंग करके उतारा। तब तक बाक़ी लोग ऊपर आ गए थे वे चिल्ला रहे थे कि रास्ता कहाँ है। उनको तरीक़ा बताया तो आगे बढ़ने को तैयार न थे। लेकिन कोई रास्ता था भी नहीं। आधे घंटे की मशक़्क़त के बाद सब लोग नीचे आ गए। वहाँ से विक्रमपुर का रेल पुल अब स्पस्ट दिख रहा था और झाँसीघाट का सड़क पुल धुंधला सा नज़र आ रहा था।
ग्वारीघाट से लगभग पचास किमी दूर जबलपुर और नरसिंहपुर की सीमा पर स्थित भीकमपुर गाँव है। नर्मदा दाहिनी तट की ओर शान्त सी बहती है उधर बाँए तट से सनेर अथाह जलराशि लिये आगे बढती है। ऐसा लगता है नर्मदा बडी विनम्रता से सनेर की भेंट की हुई जलराशि वैसे ही स्वीकारती है जैसे भिषुणी भिक्षा ग्रहण करती है और फिर अगले घाट की ओर चली जाती है। सनेर सदानीरा है,इसका जल स्वच्छ है और इसे लोग सनीर भी कहते हैं। सनेर नदी का उदगम सतपुडा के पहाड से होता है। इसका उदगम स्थल  लखनादौन जिला सिवनी स्थित नागटोरिया रय्यत है। यह बारहमासी नदी धनककडी, नागन देवरी, दरगडा, सूखाभारत आदि गावों से गुजरते हुये संगम स्थल भीकमपुर पहुँचती है। कोलूघाट तट पर सिवनी जिले के आदिवासियों का मेला भरता है तो संगम तट भीकमपुर में जबलपुर व नरसिंहपुर जिले के लोग शिवरात्रि आदि पर्वो पर एकत्रित होते हैं।
नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया फिर दो घंटे में विक्रमपुर के रेल्वे पुल के नीचे से निकल झाँसीघाट पहुँच गए। नहाया धोया नर्मदा जी को प्रणाम करके झोतेश्वर धर्मशाला पहुँचे।

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-5 – श्री सुरेश पटवा

 सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 5
बिजना घाट से भड़पुरा
सुबह जल्दी ही अगली यात्रा पर निकल लिए। पहले नदी के कछार में से ही चलते रहे। मुरकटिया घाट से नर्मदा का पहले बाई फिर दाई ओर मुडना देखा, उन दीर्घ चट्टानों को देखा जिन्हे नर्मदा मानो अपने साथ बहा कर लाई हो और फिर किनारे लगा दिया।हमें यहाँ नर्मदा का एक स्वरूप और दिखा बीच नदी पर स्थित गुफाओं का निर्माण मानो नर्मदा ने चट्टानो पर अपनी लहरिया छैनी हथौडी चलाकर छेद और गुफायें बना डाली हैं। आगे चले दुर्गम तो नहीं पर कठिन मार्ग कहीं नर्मदा के तीरे तीरे तो कहीं बीहड डांगर पार करते हम बढते रहे।
अचानक रास्ते में एक नाला आ गया। किसानों से पूछा तो उन्होंने ऊपर से नाला पार करने को बताया। हम सीधी चढ़ाई चढ़ने लगे। रास्ता बिलकुल भी नहीं था खेतों में  कँटीली झड़ियाँ थीं। एक कोने से हरी घास में से रास्ता टटोला तो मिल गया। नाला पार करके डाँगर के उतार-चढ़ाव से लोग भारी थकने लगे। नाले की ठंडाई में थोड़े आराम किया। आगे जाकर एक महाराज मिल गए।
उनसे चार पुरुषार्थ की चर्चा चल पड़ी। हिंदू धर्म में चार पुरुषार्थ की बड़ी महिमा गाई जाती है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। कोई भी मनुष्य जब कोई काम करता है तो इनमे से किसी एक या एकाधिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से कर्म करता है। एक साधु से जब हमने इस बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि वे तो सब छोड़ चुके हैं। हरि ओम्।
हमने पूछा कि आदमी प्रकृतिजन्य चीज़ों जैसे भोजन करना, साँस लेना और निस्तार करना छोड़ सकता है क्या?
वे बोले प्रकृतिजन्य चीज़ें कभी छूटती हैं क्या? ये तो ज़िंदगी के साथ ही छूटेंगीं, बच्चा।
हमने कहा कि चार पुरुषार्थ में अर्थ, धर्म और मोक्ष मानव निर्मित अवधारणा या सिद्धांत हैं जबकि काम प्रकृतिजन्य है, उसकी माया जीव जंतु पेड़ पौधों सब में दिखती है। उसे अनंग याने  बिना अंग का भी कहा गया है। वह पकड़ में ही नहीं आता तो कैसे छूट सकता है? वे बग़लें झाँकने लगे, कुछ सोचते रहे। फिर बोले सब भगवान की माया है। माया ही तो नहीं छूटती। बड़ी हठीली होती है।
हम अर्थ पर आ गए। पूछा अर्थ छूटता है क्या? वे सचेत हो चुके थे, वे मौन सोचते रहे। फिर पूछा हमारा अर्थ से क्या आशय है।
हमने कहा धन जिससे हम ख़रीदारी करते हैं। धन कमाया जाय या दान में मिले उसकी प्रकृति खरदीने की होती है। जहाँ ख़रीद-बेंच आई तो  व्यापार शुरू और व्यापार आया तो लालच तो आना ही है। लालच आया तो चैन गया। धन सारा सुख और आराम दिला सकता है। जैसे आपके आश्रम को चलायमान रखने के लिए धन की ज़रूरत होती है।
वे बोले बिना अर्थ के तो कुछ सम्भव ही नहीं है। काम और अर्थ का निपटारा करके हम धर्म और मोक्ष पर आए कि धर्म और मोक्ष कहीं परिभाषित नहीं हैं। धर्म वह है जिसे जीव धारण करता है अतः सबके धर्म अलग-अलग हुए फिर वे अलग धर्म सामूहिक रूप से सब लोगों पर एक से कैसे लागू हो सकते हैं। वे चुप रहे।
मोक्ष गूँगे का गुड बताया जाता है जिसे जीते जी मिला वह बता नहीं सकता कि मोक्ष की क्या प्रकृति है। जैसे महावीर या बुद्ध ने अपने मोक्ष को कभी नहीं बताया। मोक्ष कैसे मिलेगा यह बताया है। उनके शिष्यों ने बताया कि उन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया। जिसे मरने पर मोक्ष मिला वह मोक्ष की प्रकृति बताने हेतु मरने के बाद वापस आ नहीं सकता।
हम अपरिभाषित मूल्यों के दिखावे में जीने वाले समाज हैं। कहते कुछ हैं, मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। इसी को आडंबर या पाखण्ड कहते हैं। पश्चिमी सभ्यता के लोग काम और अर्थ को खुलकर जीते हैं। धर्म और मोक्ष से उन्हें कुछ मतलब नहीं है। इसलिए उन्हें कुछ छुपाना नहीं पड़ता है। हमारा समाज भी अब काम और अर्थ को जी भरकर जी रहा है। उपभोग से अर्थ व्यवस्था का विकास होता है। रोज़गार पैदा होते हैं।
साधु जी मुस्कराए और गले लगाकर पीछा छुड़ाया। चिलम को ब्रह्मान्ध्र तक खींच काम की प्राकृतिक महिमा और मानव जनित धर्म अर्थ और मोक्ष की अंतरधारा में विलीन हो गए। हम आगे की यात्रा पर निकल गए।
फिर नशा धर्म का या नशे का धर्म निभाते साधु मिले। आँखों के लाल डोरे उनके अफ़ीमची और गाँजे की चिलम खींचने की कहानी कह रहे थे। उन्होंने तुलसी जी की चौपाई सुनाई।
जड़-चेतन गुण-दोष मय विश्व कीन्ह करतार
संत हंस गुण पय लहहिं छोड़ वारि विकार।
साधुओं से रुद्र शिव शंकर चर्चा और तत्व ज्ञान की मीमांसा पश्चात औघड़ बाबा के साथ गाँजा चिलम सुट्टा खींचा और आशीर्वाद का आदान प्रदान हुआ।
शाम को पाँच बजे भड़पुरा पहुँच गए।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-4 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 4
भेड़ाघाट से बिजना घाट
भेड़ाघाट से बिजना घाट की यात्रा सबसे लम्बी थकाऊ और उबाऊ थी। पहले हमने तय किया था कि रामघाट में रुककर रात गुज़ारेंगे। मंगल सिंह परिहार जी वहाँ से चार किलोमीटर आगे रास्ता देख रहे थे। सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। खजूर मूँगफली दाने और चने व पानी के दम पर खींचे जा रहे थे। चार घण्टे चल चुके थे। दोपहर में तेज़ धूप में चलने से शरीर का ग्लूकोस जल जाता है और हवा में ऑक्सिजन भी कम हो जाती है। मांसपेशियाँ जल्दी थकने लगतीं हैं और साँस फूलने लगती है। दो बजे के बाद सूर्य की रोशनी सामने से परेशान करने लगती है। ऐसे माहौल में नदी किनारे रास्ता भी  नहीं था। बर्मन लोगों ने नदी के कछार को हल चलाकर मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले में बदल दिया था। खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं था। साथियों को बाटी-भर्ता का लालच देकर खींचे जा रहे थे, जबकि भोजन का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। उधर दनायक जी को परिहार जी मोबाइल से जल्दी आने की कह रहे थे। सब थक कर चूर थे। ऐसे में दल को खींच कर आगे ले जाना ज़रूरी था।
15 अक्टूबर को मंगल सिंह परिहार के आश्रम नुमा फ़ार्म हाऊस में विश्राम का अवसर मिला। वे एक बहुत पुराने परिचित सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने दिन के ग्यारह बजे से, जब हम भेड़ाघाट से चले ही थे,  तब से बिजना गाँव से नर्मदा पार करके मुरकटिया  घाट आकर मोबाईल से सम्पर्क साध कर हमारी स्थिति लेना शुरू कर दिया। वे हर आधा घंटे में दनायक जी को मोबाईल से सम्पर्क साध कर स्थिति पूछते जा रहे थे। कभी मोबाईल लगता था और कभी नहीं लगता था।
हम लोग रामघाट से सड़क छोड़ नर्मदा किनारे आ गए वहाँ से अत्यंत दुरुह यात्रा शुरू हुई। छोटी नदी, नाले, झरने, सघन हरियाली और ताज़े गोंडे गए खेतों की मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों के बीच से घुटनों और ऐडियों की परीक्षा का समय था क्योंकि कहीं भी समतल ज़मीन नहीं थी। आगे छोटी पहाड़ियों का जमघट एक के बाद एक घाटियाँ का सिलसिला जिनको स्थानीय बोली में ड़ांगर कहते हैं। चम्बल में जैसे बीहड़ होते हैं जिनमे कँटीले पेड़-पौधे होते हैं वैसे नर्मदा के आजु-बाजु ड़ांगर का साम्राज्य है उनके बीच से पानी झिर कर जंगली नालों को आकार देते हैं।  उनको पार करने के लिए ऊपर चढ़ाई चढ़ना फिर उतरना फिर चढ़ना। यात्रियों का दम निकलने लगता है। पसीने से तरबतर शरीर में पूरी साँस धौंकनी के साथ भरकर पहाड़ियों को पार करने के बीच में नर्मदा दर्शन से हिम्मत बनती टूटती रहती है।
चार बजे कुछ हाल-बेहाल और कुछ निढ़ाल-पस्त हालत में बिजना घाट के सामने वाले मरकूटिया घाट पर मंगल सिंघ परमार बिस्कुट और केले फल के साथ स्वागत आतुर मिले। वहाँ उनकी सिकमी ज़मीन थी। उसी पर खड़े थे। बैठने को कोई छायादार जगह नहीं थी। यात्री बिस्कुट और केलों को क्षणभर में चट कर गए। नाव से नर्मदा पार करके दूसरी पार उतरे वहाँ एक बर्मन दादा पूड़ी और खीर का भंडारा करा रहे थे। यात्रियों ने भंडारा खाया। ख़ूब पानी पिया तो कुम्लाए चेहरों की रंगत और ढीले शरीरों में जान लौटने लगी।
मंगल सिंह  परिहार ने प्राकृतिक छटाओं में बसा अपना आश्रम दिखाया। जिसमें पारिजात और रुद्राक्ष के वृक्ष लगे हैं। सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुंदर नज़र आता है। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज नागौद रियासत के राजा रहे हैं। परमार, परिहार, बुंदेले और बघेल ये सब गहडवाल राजपूत हैं। परमारों ने महोबा, परिहारों ने नागौद, बुन्देलों ने छतरपुर और बघेलों ने रीवा रियासत स्थापित की थी। ये सब पहले अजमेर के पृथ्वीराज़ चौहान या कन्नौज के जयचंद राज्यों के सरदार थे। 1091-92 में मुहम्मद गोरी के हाथों अजमेर, दिल्ली और कन्नौज हारने के बाद इन्होंने इन राज्यों को स्थापित किया था। नागौद कभी स्वतंत्र राज्य और कभी रीवा के बघेलों का करद राज्य हुआ करता था। उसके उत्तर-पश्चिम में केन नदी का अत्यंत ऊपजाऊ कछारी भाग था लेकिन दक्षिण-पूर्व में पथरीली ज़मीन थी। अतः राजपूतों ने नर्मदा के कछारी मे बसने का निर्णय लिया था।
अंग्रेज़ों ने 1861 में जबलपुर को राजधानी बनाकर सेंट्रल प्रोविंस राज्य बनाया तो रीवा, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल रियासत छोड़कर मध्य प्रांत के नागौद  सहित बाक़ी सब इलाक़े उसमें रख दिए। तब ही नर्मदा घाटी का सर्वे करके जबलपुर की सीमा नर्मदा के उत्तर-दक्षिण में चरगवाँ-बरगी तक निर्धारित कर दी। परिहारों को ज़मींदारी में मगरमुहां का इलाक़ा दिया गया। कई परिहार सौ-सौ एकड़ के ज़मींदार बनकर आज के पाटन और शाहपुरा इलाक़े में आ बसे। उनमें मंगल सिंह परिहार के पूर्वज भी थे। मंगल सिंह के पिताजी मुल्लुसिंह परमार निरक्षर थे परंतु उन्होंने अपने आठ बेटों को पोस्ट-ग्रेजुएट कराया।
मंगल सिंह जी से देर रात तक बातें होतीं रहीं। वे हमें एक वेदान्ती साधु के दरबार में ले गए। हमसे कहा कि साधु जी वेदों के प्रकांड विद्वान हैं। आप उनसे गूढ़ प्रश्न कीजिए तब उनकी ज्ञान गंगा बहने लगेगी। हम लोग उनके दरबार मे पहुँचे पाँव-ज़ुहार होने के बाद बातचीत चली तो मौक़ा देखकर हमने एक सवाल का तीर चलाया कि हमारी जानने कि इच्छा है कि महाराज रुद्र और शिव का अंतर बताएँ तो बड़ी कृपा होगी। स्वामी जी ने थोड़ा इधर-उधर घुमाया। फिर विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि प्रश्न गूढ़ है और उनका ज्ञान वेदों तक ही सीमित है उन्होंने पुराण नहीं पढ़े हैं। वे नेपाल से नर्मदा की गोद में आकर बस गए हैं। नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। वापस आकर परिहार जी ने शिमला मिर्च की साग-रोटी और दाल-चावल का बढ़िया भोजन कराया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। परिहार जी की बातें सुनते रहे। उनकी बातों के क्रम को बीच में बोलकर तोड़ना उनके रुतबे को कम करने जैसा होता है यह बात हम जानते थे परंतु अन्य लोगों को नहीं पता था। एक सहयात्री ने टोकने की कोशिश की तो  हमने उसे चुपके से समझा दिया कि भैया:-
बंभना जाय खाय पीय से
   क्षत्री जाय बतियाय
       लाला जाय लेय-देय से
           शूद्र जाय लतियाय।
इस बुंदेलखंड की कहावत को गाँठ बाँध लो और चुपचाप सुनो। सुबह दो-दो रोटियाँ तोड़कर आश्रम से फिर नर्मदा की गोद मे पहुँच गए। इस प्रकार 13,14 और 15 अक्टूबर की यात्रा पूरी हुई। यहाँ से हमारे एक और साथी प्रयास जोशी ने हमसे विदा ली।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-3 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 3
तिलवारा घाट से भेड़ाघाट 
15 तारीख़ को हम तिलवारा घाट से चलने को तैयार हुए तो पता चला कि पुल के किनारे से एक नाला गारद और कंपे से भरा होने के कारण दलदली हो गया है लिहाज़ा एक किलोमीटर ऊपर से नए घूँसोर, लमहेंटा,चरगवा, धरती कछार से एक रोड शाहपुरा निकल गई है। लम्हेंटा घाट पर शनि मंदिर से लगा ब्रह्म कुंड देखा। ऐसी मान्यता है कि जब कोई कोढ़ी मर जाता है तो उसके शव को ब्रह्मकुंड में सिरा देते हैं। वह सीधा पाताल लोक पहुँच जाता है।
शाम को चार बजे धुआँधार पहुँच गए। डूंडवारा से पसर कर बहने वाली नर्मदा अचानक लजा कर सिमट गई। उसका पानी सिमट कर गहरे खड्ड में तेज़ी से गिरने लगा तो वह छोटे कणों में बदलकर धुएँ की शक्ल में दिखने लग गया। यही जबलपुर की शान धुआँधार जलप्रपात है। अचानक यादों के फ़्लैश बैक में 1987 का चित्र घूम गया, जब सुरेश पटवा स्टेट बैंक भेड़ाघाट में शाखा प्रबंधक हुआ करते थे। दो साहूकार सुनील जैन और ब्रजकिशोर मूर्तियों के कुशल कारीगरों और नाविकों को दो-तीन रुपया प्रतिमाह सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे याने 24-36 प्रतिशत वार्षिक का ब्याज वसूलते थे। जिसके लिए उन्होंने बैंक से लिमिट ले रखी थी। कारीगर और नाविक न तो बैंक से क़र्ज़ लेते थे न बैंक में रक़म जमा करते थे। बैंक का बट्टा बैठ रहा था।
वे दोनों अपनी लिमिट बढ़वाने बैंक आए तो उनसे पुरानी लिमिट का खाता बंद करके बढ़ी हुई लिमिट का नया खाता फ़र्म के नाम से खुलवाने को कहा गया। उन्होंने कारीगरों और नाविकों से रक़म वसूल कर खाते बंद कर दिए। उनके बढ़ी लिमिट के प्रस्ताव जबलपुर क्षेत्रीय कार्यालय भेज दिए गए। इस बीच 200 नाविकों और कारीगरों को दस-दस हज़ार के क़र्ज़ बाँटकर उनके बचत खाते भी खोल दिए गए। वे शोषण मुक्त हुए और बैंक लाभ कमाने लगा। दोनों साहूकारों को नई लिमिट दी और उनको मूर्तियों का स्टॉक रखने को ज़रूरी बताया। उन्होंने कारीगरों से मूर्तियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बैंक स्थानीय वित्तीय कारोबार का मध्यस्थ बन गया।
भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियों और कलाकारी के लिए मशहूर है। संगमरमर या सिर्फ मरमर (फारसी) संग-पत्थर, ए-का, मर्मर-मुलायम = मुलायम पत्थर।
यह एक कायांतरित शैल है, जो कि चूना पत्थर के कायांतरण का परिणाम है। यह अधिकतर कैलसाइट का बना होता है, जो कि कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) का स्फटिकीय रूप है। यह शिल्पकला के लिये निर्माण अवयव हेतु प्रयुक्त होता है। इसका नाम फारसी से निकला है, जिसका अर्थ है मुलायम चिकना पत्थर।
संगमरमर एक कायांतरित चट्टान है जिसका निर्माण अवसादी कार्बोनेट चट्टानों के क्षरण और कभी-कभी संपर्क कायांतरण के फलस्वरूप होता है। यह अवसादी कार्बोनेट चट्टानें चूना पत्थर या डोलोस्टोन, या फिर पुराना संगमरमर हो सकती है। कायांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूल चट्टान का पुनर्क्रिस्टलीकरण होता है। अवसादी निक्षेपों से संगमरमर बनने की इस प्रक्रिया में उच्च तापमान और दबाव के चलते मूल चट्टान मे उपस्थित किसी भी प्रकार के जीवाश्मिक अवशेष और चट्टान की मूल बनावट नष्ट हो जाती है। ये चट्टानें डूंडवारा से बगरई तक नर्मदा के आग़ोश में फैली हुई हैं। नर्मदा पहले धुआँधार के खड्ड में न गिरकर उसके दाहिनी तरफ़ से सीधे सरस्वती घाट पहुँचती थी। हज़ारों सालों से नर्मदा चट्टानों को काटती रही तब कहीं जाकर संगमरमर का स्वप्नलोक उजागर हुआ। जिसकी बन्दरकूदनी में राजकपूर ने नाव पर “चंदा एक बार जो उधर मुँह फेरे मैं तुझसे प्यार कर लूँगी, आँखें दो चार कर लूँगी” गीत को सेल्यूलाईड पर नर्गिस के साथ रचकर बॉलीवुड का इतिहास रच दिया। अब लाखों लोग उस सौंदर्य लोक को निहारने वहाँ जाते हैं।
बगरई कारीगरों का गाँव है। वहाँ कारीगरों के 250-300 गाँव हैं। चारों तरफ़ संगमरमर पत्थर की खदानें हैं। दस हज़ार रुपयों में एक ट्रॉली ख़रीद कर कटर, छेनी, वसूली और दांतेदार रगड़ से पत्थर को मूर्तियों की शक्ल में ढाल देते हैं। अधिकांश कारीगरों ने बैंकों से क़र्ज़ लिए थे वे सब ख़राब हो गए, उनका रिकार्ड बिगड़ने से उनको क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। अब निजी माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी उन्हें 24% वार्षिक दर से क़र्ज़ उनके घर पर देते हैं और घर से ही वसूली करते हैं। बगरई गाँव में एक बसोड के घर रुक कर पानी पिया। अरुण दनायक जी ने उनसे लम्बी बातचीत की, उनके फ़ोटो उतारे। आगे रामघाट की तरफ़ चल दिए। तब पता नहीं था कि हमें बिजना घाट तक का सफ़र तय करना होगा।
पंचवटी तट स्थित नेपाली कोठी, जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था मेरे अरुण जी के सुधीर भाई ने की थी, वहीं रात्रि विश्राम किया। यहाँ से हमारे एक अन्य साथी अविनाश दवे भी बिछुड गये।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-2 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। ) 

नर्मदा परिक्रमा 2
ग्वारीघाट से तिलवारा घाट
ग्वारीघाट से चले दो घंटे हो चुके थे। तिलवारा घाट शाम तक पहुँचने का लक्ष्य था। तिलवारा घाट का पुल तीन किलोमीटर पहले से दिखने लगा था। उसे देखते ही लगा कि लो पहुँच गए तिलवारा घाट परंतु चलते-चलते पुल नज़दीक ही नहीं आ रहा था।
पुल के  दृश्य का पेनोरमा नज़ारा जैसा का तैसा बना था।
तभी सामने एक बड़ा चौड़ा पहाड़ी नाला रास्ता रोककर खड़ा हो गया। खेतों में काम कर रहे मल्लाहों से पूछा तो उन्होंने बताया कि दो किलोमीटर ऊपर चढ़कर नाला पार करके नागपुर रोड पर पहुँच कर तिलवारा घाट पहुँचा जा सकता है इसका मतलब हुआ चार किलोमीटर का चक्कर। सबके पसीने छूट गए।
टी पी चौधरी साहब सपत्नीक गेंदों की मालाओं, नारियल,फल और ढेर सारा प्यार व परकम्मावासियों के प्रति हृदय में सम्मान आस्था लेकर तिलवारा घाट पर खड़े थे। हमारी स्थिति लेते रहे थे।  मोबाइल से उनको निवेदन किया कि एक नाव घाट से भिजवा दें। इसके पहले कि वे घाट पर आएँ, एक नाविक को हम दिख गए और हमने भी तेज़ आवाज़ के साथ हाथ हिलाए। एक नाव में बैठकर तिलवारा घाट पर उतरे। चौधरी साहब ने बड़ी आत्मीयता और सम्मान से मालाओं को पहनाकर स्वागत किया और नारियल चीरोंजी अर्पित किया मानो हम देव हो गए हों। हमेशा की तरह हम उनके चरणस्पर्श करने को झुके तो उन्होंने हमें रोक दिया क्योंकि हम परिक्रमा वासी थे। भाभी जी अभिभूत थीं। उनका मातृवत प्रेम पूरी यात्रा हमारे साथ चला। सब लोग चौधरी दम्पत्ति के बारे में बतियाते रहे।
वैराग्य पर बातें करने लगे। घर, कपड़े, बिस्तर, पानी, खाना, पंखा, फ़र्निचर, गद्दे, गाड़ी, रुपया-पैसे, रिश्ते-नाते इन सब से परे भगवान भरोसे सिर्फ़ भगवान भरोसे। न रास्ते का पता, न खाने का पता, न ठिकाने का पता।
बस एक अवलंबन नर्मदा, जिसके भरोसे ईश्वर के रिश्ते की डोर आदमियत से बंधी है। बस वही बचाएगी, वही खिलाएगी, वही सुलाएगी।
सब कुछ तोड़कर और सब कुछ छोड़कर उसकी धारा में जाओगे तो वह पार लगाएगी। कर्मकांड से परे एक दीपक आस्था का। जूझो धूप से, पहाड़ से, पानी से, इंसानी नादानी से।
धौंकनी सा चलता दिल, पिघल कर पसीना होती देह और आत्मा में तारनहार के प्रति असीम आस्था की परीक्षा है नर्मदा यात्रा।
जिस घर के सामने पहुँचकर कंठ से  “नर्मदे हर” का अलख जगाया। उत्तर में हर-हर नर्मदे का स्वर घर के सभी सदस्यों की आवाज़ में एकसाथ गूंजा और सबसे बुज़ुर्ग सदस्य की आवाज़ सुनाई देती है बैठो साहब पानी पी लो, चाय पी लो, भोजन बना दें।
सिर्फ़ आदमियत का रिश्ता कि पूरी पृथ्वी के जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। सब अन्योनाश्रित हैं। वसुधेव कुटुम्बकम। भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा मूल्य, जो मानवता वादियों का सबसे बड़ा संबल है। धर्म का सच्चा रूप। दुनिया की आतंकवाद के विरुद्ध एकमात्र आशा।
अत्यावश्यक से परे न्यूनतम पर जीवन पर विचार हुआ। भूख, भोजन, यौनइच्छा और आराम ये चार चीज़ें मानुष और पशु को प्रकृति की अनिवार्य देन हैं क्योंकि जीवन का चक्र इन्हीं से गतिमान होता है। भूख है तो भोजन की तलाश है, शरीर की थकान से भरपेट भोजन मिला तो यौन इच्छा जागती है, जिसकी पूर्ति होते ही नींद की प्रगाढ़तावश आराम अनिवार्य हो जाता है।
छः दिन भूख, भोजन, यौनइच्छा से परे सुबह से शाम तक चलते-चलते चूर होने से भूख मिट गई, भोजन नहीं मिला तो यौनइच्छा लुप्त सी रही क्योंकि काम की जननी ऊर्जा का अंश देह में बचा ही नहीं।
यहाँ से प्रथम सह यात्री विनोद प्रजापति दमोह को वापिस चले गये, श्रीवर्धन नेमा व रवि भाटिया जबलपुर।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-1 – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे।

श्री पटवा जी  ने नर्मदा परिक्रमा खंड-1 की यात्रा अपने परिक्रमा-दल के साथ पूर्ण  कर ली है। अब  हम साझा करेंगे उनकी  यात्रा का अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में ।) 

नर्मदा परिक्रमा-1
परिक्रमा दल 
नाम              उम्र  परिचय
बी सी कोलिता      91      सेवानिवृत्त फ़ौजी
जगमोहन अग्रवाल  71      सेवानिवृत बैंकर
प्रयास जोशी        66      सेवानिवृत बैंकर
अरुण दनायक      59      स.म.प्र. भारतीय स्टेट बैंक
श्रीवर्धन नेमा      59      सेवारत बैंकर
रवि भाटिया        63      सेवानिवृत्त बैंकर
विनोद प्रजापति    59      सेवारत बैंकर
अविनाश दवे      60      सेवारत बैंकर
मुंशीलाल पाटकर    59      वक़ील
सुरेश पटवा        67      सेवानिवृत्त बैंकर
नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण।
उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह –  1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल –  98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी
सनातन मान्यता
नर्मदा जी – वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी – ज्ञान की,
यमुना जी – भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा – तेज की,
गोदावरी – ऐश्वर्य की,
कृष्णा – कामना की और
सरस्वती जी – विवेक के प्रतिष्ठान की।
सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है। यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।
व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।
पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।
नर्मदा परिक्रमा के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करने के लिए स्वामी मायानन्द चैतन्य कृत नर्मदा पंचांग (1915) श्री दयाशंकर दुबे कृत नर्मदा रहस्य (1934), श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत नर्मदा दर्शन (1988) तथा स्वामी ओंकारानन्द गिरि कृत श्रीनर्मदा प्रदक्षिणा पठनीय पुस्तकें हैं जिनमें इस परिक्रमा के तौर-तरीकों और परिक्रमा मार्ग का विवरण विस्तार से मिलता है।
इसके अतिरिक्त श्री अमृतलाल वेगड द्वारा पूरी नर्मदा की परिक्रमा के बारे में लिखी गई अद्वितीय पुस्तकें ’’सौंदर्य की नदी‘‘ नर्मदा तथा ’’अमृतस्य नर्मदा‘‘ नर्मदा परिक्रमा पथ के सौंदर्य और संस्कृति दोनों पर अनूठे ढंग से प्रकाश डालती है । श्री वेगड की ये दोनों पुस्तकें हिन्दी साहित्य के प्रेमियों और नर्मदा अनुरागियों के लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर जैसी हैं । यद्वपि ये सभी पुस्तकें नर्मदा पर निर्मित बांध से बने जलाशयों के कारण परिक्रमा पथ के कुछ हिस्सों के बारे में आज केवल एतिहासिक महत्व की ही रह गई है, परन्तु फिर भी नर्मदा परिक्रमा के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए अवश्य पठनीय है । नर्मदा की पहली वायु परिक्रमा संपन्न करके श्री अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक ’अमरकण्टक से अमरकण्टक तक‘ (2006) भी आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है ।
पतित पावनी नर्मदा की विलक्षणता यह भी है कि वह दक्षिण भारत के पठार की अन्य समस्त प्रमुख नदियों के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है । इसके अतिरिक्त केवल ताप्ती ही पश्चिम की ओर बहती है परन्तु एक वैज्ञानिक धारणा यह भी है कि करोडों वर्ष पहले ताप्ती भी नर्मदा की सहायक नदी ही थी और बाद में भूगर्भीय उथल-पुथल से दोनों के मुहाने पर समुद्र केकिनारों में भू-आकृति में बदलाव के फलस्वरूप ये अलग-अलग होकर समुद्र में मिलने लगीं । कुछ भी रहा हो परन्तु इस विषय पर भू-वैज्ञानिक आमतौर पर सहमत हैं कि नर्मदा और ताप्ती विश्व की प्राचीनतम नदियाँ हैं । नर्मदा घाटी में मौजूद चट्टानों की बनावट और शंख तथा सीपों के जीवाश्मों की बडी संख्या में मिलना इस बात को स्पष्ट करता है कि यहां समुद्री खारे पानी की उपस्थिति थी । यहां मिले वनस्पतियों के जीवाश्मों में खरे पानी के आस-पास उगने वाले पेड-पौधों के सम्मिलित होने से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि यह क्षेत्र करोडों वर्ष पूर्व भू-भाग के भीतर अरब सागर के घुसने से बनी खारे पानी की दलदली झील जैसा था । नर्मदा पुराण से भी ज्ञात होता है कि नर्मदा नदी का उद्गम स्थल प्रारंभ में एक अत्यन्त विशाल झील के समान था । यह झील संभवतः समुद्र के खारे पानी से निर्मित झील रही होगी । कुछ विद्वानों का मत है कि धार जिले में बाघ की गुफाओं तक समुद्र लगा हुआ था और संभवतः यहां नर्मदा की खाडी का बंदरगाह रहा होगा।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-रेवा : नर्मदा -6 – श्री सुरेश पटवा

रेवा : नर्मदा – 6 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

लोग अक्सर नर्मदा को सतपुड़ा की बेटी कह देते हैं जो पूरी तरह सही नहीं है। भारत के भूगोल को जानने वाले समझते हैं कि विंध्याचल और सतपुड़ा दो पर्वत श्रेणियाँ मध्यभारत में पूर्व से पश्चिम की तरफ़ पसरी हुईं हैं। आज के रीवा संभाग में सीधी से एक पर्वत श्रंखला रीवा सतना पन्ना छतरपुर दमोह सागर रायसेन सिहोर देवास इंदौर झाबुआ होते हुए गुजरात निकल जाती है। वही विंध्याचल पर्वत शृंखला है। जिससे हिरन, टिंदोली, बारना, चंद्रकेशर, कानर, मान, उटी और हथनी, ये आठ नदियाँ आकर माँ नर्मदा में मिलतीं हैं।

 

 

रेवा कुंड अमरकण्टक

 

 

मैकल पर्वत से निकलकर नर्मदा के साथ सतपुड़ा की पर्वतश्रेणियाँ डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा से होकर गुज़रती है। इस तरफ़ से बरनार, बंजर, शेर, शक्कर, दूधी, तवा, कुंदी, देव और गोई, ये नौ नदियाँ नर्मदा में मिलतीं हैं।

इस प्रकार कुल 17 बड़ी नदियाँ नर्मदा को सही मायने में नर्मदा बनातीं हैं। हम पलकमती जैसी छोटी तो कई नदियाँ हैं जो सीधी माता के चरणों में विश्राम पाती हैं। सारी छोटी नदियों का जल ओंकारेश्वर में पहुँचकर ॐ के आकार में मिलकर एकसार होता है। थोड़े आगे एक जगह है बड़वाह के नज़दीक जहाँ भारत का एक अत्यंत प्रतिभाशाली सैन्य निपुण प्रशासक बाज़ीराव पेशवा पूना के चितपावन ब्राह्मणों के षड्यंत्रों के चलते अकाल मृत्यु का ग्रास बना था। वह अपने जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारा था परंतु घरेलू प्रपंचों से मस्तानी से दूर होकर ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश खो चुका था। वह ज़िंदा रहता तो शायद हिंदुस्तान अंग्रेज़ों का ग़ुलाम न हुआ होता। उसने दिल्ली को जीतकर मुग़ल बादशाह को सुरक्षा प्रदान की थी। शिवाजी के बाद वह ही प्रतिभाशाली व्यक्ति मराठा साम्राज्य में था जिसका नज़रिया अखिल भारतीय था जो कूटनीति, सैनिक और प्रशासनिक बारिकियाँ समझता था। बाक़ी सब मराठा सरदार स्वार्थपरता और क्षेत्रीयता की चाशनी में पगे हुए थे।

ओंकारेश्वर के संकुल में माँ नर्मदा ने हम बहनों को पहले रेवा फिर नर्मदा नाम से पुकारे जाने की कहानी सुनाई थी।

शब्द और नाम भी काल और परिस्थितियों के हिसाब से अर्थ ग्रहण करते और छोड़ते हैं। मुझे समझने के लिए आप लोग भाव और तत्व दोनो तरीक़े अपना सकते हैं। वैसे भाव भी तत्व में ही समा जाता हैं। जैसे आत्मा 1 है, तत्व 5 हैं, गुण 108 हैं। यहाँ जैसे ही 1, 5, 108 कहा तो भाव विलुप्त हो गया गणना आ गई। भाव गणनीय नहीं है, और तत्व खड़ा हो गया, विज्ञान आ गया, गौतम बुद्ध ने इसे ही विज्ञान कहा है। भाव को सहारा देने तर्क आ खड़ा हुआ। इसी विज्ञान पर महावीर और बुद्ध ने निरीश्वरवादी दर्शन खड़ा किया जो कि विश्व दर्शन की श्रेणी में आता है। सनातन विचारों की कोख से ही जैन और बौद्ध दर्शन आए हैं। सनातन की पराकाष्ठा महावीर और बुद्ध में परिलक्षित हुई है।

पहले भाव अभिव्यक्ति से रेवा और नर्मदा को समझें। भारत में किसी भी चीज़ का अस्तित्व अंततः भगवान विष्णु और शिव से जुड़ जाता है। गुप्त काल में रचित स्कन्द पुराण के रेवा खंड में वर्णित है कि विष्णु के कुल इक्कीस अवतार में से बीस अवतार के दौरान मानव हत्या के पाप से मुक्ति के लिए शिव के पसीने से राजा मैकल के घर में एक बारह वर्षीय कन्या उत्पन्न हुई। उसने वरदान माँगा कि उसका हरेक पत्थर शिवलिंग की मान्यता प्राप्त किया हो। उसे बिना किसी अनुष्ठान के शिव के रूप में पूजनीय माना गया। वह उछल कूद करते हुए सारी नदियों से उलटी दिशा में बह चली। 1312 किलोमीटर चलकर खम्बात की खाड़ी में जलधि में विलीन हो गई। उछल-कूद को रेवा भी कहा जाता है। वह डिंडोरी और मंडला जिले के पहाड़ी क्षेत्रों से उछल-कूद मचाते हुए गुज़रती है इसलिए उसे रेवा पुकारा गया। आज का रीवा उसी रेवा शब्द से बना है। अंग्रेज़ी में उसे आज भी Rewa लिखा जाता है। बघेलखंड के विंध्याचल पर्वत की एक श्रेणी मैकल भू-भाग से जो नदी निकलती थी वह पहले शहडोल जिले में था परंतु अब अनूपपुर जिले में आता है। वह सम्पूर्ण भू-भाग रेवा राज्य के नाम से जाना गया है। जिसमें रीवा सतना शहडोल उमरिया सीधी कटनी तक के इलाक़े आते थे। उसके परे दक्षिण में गोंडवाना लगता था। उत्तर में काशी और कारा राज्यों की सीमा थी।

इसमें एक बड़ा महत्वपूर्ण भाव छुपा हुआ है कि मानव धर्म सबसे बड़ा धर्म है। भले ही राक्षस ने मानवता के विरुद्ध काम किया हो और उसका वध करने के लिए विष्णु को अवतार लेकर मारना पड़ा हो लेकिन मानव हत्या का पाप भगवान विष्णु को भी लगा और उसकी मुक्ति की व्यवस्था सनातन दर्शन में रखी गई है। यह भाव ही मानवता के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है।

(कल आपसे साझा करेंगे श्री सुरेश पटवा जी एवं उनकी टीम की नर्मदा परिक्रमा (प्रथम खण्ड) की वास्तविक शुरुआत का प्रथम चरण )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares

सफरनामा-नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

ऐतिहासिक तत्व दर्शन से भी नर्मदा को समझना उतना ही ज़रूरी है जितना भाव दृष्टि से है।

हिंदू दर्शन का काल निर्धारण इस तरह हुआ है कि सबसे पहले ईसा से दो हज़ार साल याने आज से चार हज़ार साल पहले चार वेदों की रचना पंजाब की पाँच नदियों व्यास सतलज झेलम रावी चिनाब और अफगानिस्तान की काबुल नदी लद्दाख़ से आती हुई सिन्ध में समाहित हो जाती हैं, उस क्षेत्र में हुई थी।

आज से तीन हज़ार पाँच सौ साल पहले वेदों के 108 उपनिषद गंगा और यमुना के मैदानी भू-भाग में रचे गए। वैदिक काल में कृषि और ऋषि, ये दो महान संस्थाएँ थीं। लोग कृषि से अवकाश पाकर ऋषि की कुटिया के पास बने चबूतरों के चारों तरफ़ पाल्थी मारकर हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। उप+निष्ठत:=उपनिषद, जब प्रधान ऋषि गण बीच में मंच पर बैठ पर वेदों की गहनता और गूढ़ अर्थ पर चर्चा करते थे तब उनके शिष्य नीचे बैठ कर टिप्पणी या नोट लिख लिया करते थे वे ही बाद में संकलित होकर उपनिषद कहलाए। जहाँ वेदों का अंत वही हुआ वेदांत या उत्तर मीमांसा। जिसे विवेकानन्द ने शिकागो में दुनिया को बताया उसके पूर्व कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया।

तब तक आर्य अफ़ग़ानिस्तान से बंगाल तक फैल चुके थे और द्रविड़ विंध्याचल पर्वत पार करके दक्षिण की तरफ़ हिंदमहासागर तक फैल गए। पुराणों में एक कहानी कई जगह आती है कि अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पर्वत को हिमालय से नीचा रखने के लिए यह कहकर दक्षिण गए थे कि उनके आने तक वह वैसा ही बना रहे। यह प्रतीकात्मक कहानी एक बड़े रहस्य का उद्घाटन करती है कि आर्यों ने अपने दर्शन को दक्षिण में पहुँचाने के लिए अगस्त्य ऋषि का सहारा लिया था। इस प्रकार एक समावेशी अखिल भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ था।

जब अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पार कर रहे थे तब कपिल, जमदग्नि, मार्कण्डेय और भृगु ऋषि विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियाँ के सम्पर्क में आए। अमरकण्टक में कपिलधारा नर्मदा परिक्रमा का एक प्रमुख बिंदु है जहाँ से नर्मदा पहाड़ी बियाँबान में प्रवेश करती है। तब तक गंगा और यमुना का मैदान वनस्पति और जंगलों से साफ़ किया जा चुका था। वहाँ हिमालय पर हाड़फोड़ ठंड और मैदानी भाग में भयानक गर्मी का आलम शुरू हो गया था। उन्होंने डिंडोरी और मंडला जिलों से नीचे आकर अपने आश्रम बनाए। जिसे हम ऋषि भृगु के नाम से पहले भृगुघाट और कालांतर में भेड़ाघाट के नाम से जानते हैं। भृगु ऋषि स्वयं नर्मदा की परिक्रमा करते रहते थे। आगे बरमान और होशंगाबाद के बीच भारकच्छ और भरूच में भृगु मंदिर है।

उस काल में पूर्व के पहाड़ों से नदी तक का भू-भाग बारहों महीने पानी से भरा रहता था। घने जंगलों से जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा जिले की जलवायु वर्ष के बारह महीने नर्म रहती थी। इस कारण यहाँ की मृदा यानी मिट्टी भी नर्म होती थी। भृगु ऋषि अपने आश्रम के शिष्यों को “रमता जोगी बहता पानी” की सीख के तहत एक जगह स्थिर नहीं रखते थे। साधु को उसका नाम और स्थान का मोह त्यागना होता था। लिहाज़ा उन्हें चौमासा छोड़कर बाक़ी आठ माह वन विचरण ज़रूरी हो जाता था। विचरण के लिए पानी, फल-फूल भिक्षा और सुरक्षा की ज़रूरत भी नदी किनारे आसानी से पूरी हो जाती थी।

इस पूरे क्षेत्र में नम जलवायु के साथ नम मृदा याने नरम मिट्टी रहती थी जिस पर पैदल चला जा सकता था। इस प्रकार नर्म+मृदा = नर्मदा इस नदी का नाम उन ऋषियों मुनियों के वाचन में आ गया।

जब इस नदी के समुद्र मिलन तक की थाह मिल गई तो इसके उद्गम की तरफ़ साधुओं का कौतुहल जागा और वे चल पड़े उत्तर-पूर्व की तरफ़ और पहुँच गए अमरकण्टक। इस प्रकार नर्मदा की परिक्रमा और परिक्रमा पथ का निर्धारण एक-दो नहीं सौ-दो सौ सालों में हुआ था। जो कि अब तक जारी है। यह शुरुआत सनातन पुनर्जागरण याने गुप्त काल में हुई मानी जाती है। इसी नर्म मृदा के कारण सोहागपुर में उत्तम कोटि का पान होते हैं और सुराहियाँ बनाई जातीं हैं। पिपरिया से गाड़रवाडा तक की उत्तम स्वादिष्ट दालें और करेली का गुड प्रसिद्ध है।

नर्मदा 1312 किलोमीटर लम्बी है जाना और वापस आना 2624 किलोमीटर पैदल परिक्रमा पथ हैं। पहले तीन साल तीन महीने और तेरह दिन में यह दूरी तय की जाती थी। याने एक दिन में क़रीबन दो किलोमीटर। उस समय बियाबन जंगल होने से यात्रा कठिन थी। अब यह यात्रा चार से छः महीनों में पूरी की जा सकती है।

इस प्रकार इस नदी का नाम रेवा और नर्मदा पड़ा और परिक्रमा एवं परिक्रमा पथ की परम्परा विकसित हो गई। जो विश्व में अनूठी है।

सतपुड़ा से एक और नदी निकलती है जिसके बारे में बैतूल जिले से महादेव, चौरागढ़ और नाथद्वारा की जत्तरा करने आने वाले लोग बताया करते हैं। वह है ताप्ती नदी, जो कि मुल्ताई से उद्गमित होती है। इन जिलों में देवनागरी की मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में बहन को ताई पुकारा जाता है। नदी माँ-बहन के समान है। उसका मूल+ताई = मुल्ताई हो गया है। असीरगढ़ के पास महाराष्ट्र के अकोला ज़िला की सीमा पर देवी का एक सर्व कामना मंदिर है। साथ में शिव मंदिर भी है। लोग मुल्ताई से जल लेकर उस मंदिर की भी पैदल यात्रा करते हैं।

नर्मदा और ताप्ती क्रमशः बुरहानपुर और हरदा के हंडिया से समानांतर अरब सागर तक जातीं हैं जैसे दो सहेलियाँ जल भर कर बतियातीं चली जा रहीं हो मस्त चाल से। इन दो नदियों के बीच दस किलोमीटर से चालीस किलोमीटर की चौड़ी ज़मीन तीन सौ किलोमीटर याने खम्बात की खाड़ी तक चली गई है। यहाँ बाँस के घने जंगल हैं। इसी कारण पास में नेपानगर में काग़ज़ का कारख़ाना लगा है। पानी की बहुलता के कारण इस क्षेत्र में केले की भरपूर फ़सल होती है जिसे पूरा उत्तर भारत खाता है।

(कल आपसे साझा करेंगे रेवा : नर्मदा से संबन्धित विशेष जानकारी )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

Please share your Post !

Shares
image_print