सफरनामा-नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 

 

 

 

 

 

आर्यों के साहित्य में यह चीज़ बार-बार मिलती है कि उन्होंने अनार्यों से वैवाहिक सम्बंध बनाकर अपने में मिला लिया। यही बात नर्मदा के प्रेम प्रसंग में भी दिखती है। लोक कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल (महाकाल) की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। पड़ौसी राज्य के राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।

नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला ने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और धारण करके चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।

जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के कारा क्षेत्र में आज भी प्रचलित है।

यह कथा भी आर्य शोनभद्र-नर्मदा और अनार्य जुहिला के प्रेम त्रिकोण पर रच कर पुराणों में रख दी गई है। जुहिला नदी मंडला के सघन आदिवासी इलाक़ों से निकलती है जबकि नर्मदा और शोनभद्र अमरकण्टक से निकलती हैं जहाँ कि आर्यों के ऋषि मुनियों ने आश्रम बना लिए थे।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है। नर्मदा सा स्वाभिमान और स्वच्छता नर्मदा अंचल के निवासियों के जीवन में भी झलकता है।

इस पौराणिक कहानी का भौगोलिक-एतिहासिक संदर्भ है। हमने नदियों को व्यक्तित्व में गढ़ दिया है। नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर चलती है वहीं सोन भी वहीं से निकलकर उत्तर-पूर्व की तरफ़ चल पड़ती है। जुहिला नदी भी उद्गम से निकलकर थोड़ा दक्षिण-पूर्व की तरफ़ नर्मदा की ओर बढ़ती है लेकिन कबीर चौड़ा पहाड़ रास्ते में आ जाने से वह सोन की तरफ़ उत्तर-पूर्व की तरफ़ मुड़ जाती है। यही कहानी का आधार बन गया।

सोन नदी विंध्याचल और कैमोर पर्वत मालाओं के बीच से सीधी जिले से होकर अम्बिकापुर के पीछे से झारखंड होते हुए बिहार निकल जाती है। वह सासाराम होते हुए पटना के नज़दीक गंगा में मिल जाती है।

 

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व)

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व-3 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व – 3 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

सनातनी हिंदुओं के लिए नर्मदा नदी का धार्मिक महत्व है क्योंकि परम्परा में जल को देवता और नदियों को देवियाँ मानकर पूजा जाता रहा है। प्रकृति और पंचभूत अन्योनाश्रित हैं। प्रकृति है तो पंचभूत हैं और पंचभूत हैं तो प्रकृति है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश हमारे आभासी ब्रह्माण्ड में हैं और मानव देह समस्त ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए प्रथम कृति नियंता की प्र+कृति है। इसी में से आना है और इसी में समा जाना है। हिंदू मान्यता के अनुसार पुरुष का एक अंश आत्मा रूप में प्रकृति में जीव की संरचना करता है तब जीव जगत अस्तित्व में आता है।

प्रकृति के अंगों का अध्ययन प्राकृतिक भूगोल कहलाता है। भूगोल मनुष्य के खान-पान रहन-सहन सोच-विचार से संस्कृति का निर्माण करता है जैसे यूरोप में ईसाई संस्कृति, अरब में मुस्लिम संस्कृति, चीन-जापान में बौद्ध संस्कृति और भारत में हिंदू संस्कृति। संस्कृति के निर्माण के कई दौर चलते है उनमें आध्यात्म और राजनीति के घोर संघर्ष होते हैं। उन संघर्षों को हम इतिहास कहने लगे। इस प्रकार हम आज जो भी कुछ हैं अपने भूगोल और इतिहास की उपज हैं। हमारे पितरों में हमारा भूगोल और इतिहास अविच्छिन्न रूप से समाहित था इसलिए पितरों को पूज कर हम अपनी परम्परा को सम्मान देते हैं।

इसी सांस्कृतिक संदर्भ में जब हम नर्मदा घाटी का इतिहास देखते हैं तो विस्मयकारी जानकारी हमारे हाथ लगती है। करोड़ों साल पहले जब पृथ्वी सूर्य से आग के गोले के रुप में छिटक कर ठंडी होने लगी तब ऊपर की परत ठंडी होकर कड़क ज़मीन में बदल गई परंतु अंदर गहराई में गर्म लावा धधकता रहा। वह लावा कई जगहों से ऊपर आया, जिस कारण से पृथ्वी पर पर्वतों का निर्माण हुआ था। ऐसी ही प्रक्रिया में हिमालय, विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत अस्तित्व में आए। हिमालय से सात बड़ी नदियाँ काबुल, सिंध, रावी, चिनाब, झेलम, सतलज और व्यास पश्चिम की तरफ़ दौड़ चलीं और गंगा व यमुना पूर्व की तरफ़ चल पड़ीं थीं। बीच में असंख्य झरने, श्रोते और छोटी नदियाँ ने उनमें मिलकर पंजाब और दोआब का सबसे उपजाऊ इलाक़ा बना दिया। यहीं भारतीय संस्कृति का अभ्युदय और विकास हुआ।

अमरकण्टक के पठार से कैमोर से आता विंध्याचल पश्चिम की तरफ़ मुंड गया जो शहडोल उमरिया कटनी के किनारे से होता हुआ दमोह जिले को छूकर सागर रायसेन सीहोर देवास इंदौर झाबुआ से गुजरात में निकल गया। दूसरी तरफ़ सतपुड़ा पर्वत माला डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद हरदा खंडवा खरगोन होते हुए महाराष्ट्र निकल गई। इन दो पर्वत शृंखलाओं के बीच एक 1400 किलोमीटर लम्बी घाटी बन गई। जिसमें विंध्याचल-सतपुड़ा दोनों से चालीस बड़ी और असंख्य छोटी नदियों और झरनो से नर्मदा घाटी का निर्माण किया।

इस नर्मदा घाटी में सरीसृप के फ़ॉसिल्ज़ और आदिमानव की गुफाएँ मिलीं हैं। जिसका मतलब है कि आदिमानव के साथ ड़ायनासोर जैसे सरीसृप रहा करते थे। जब आर्य आए तो वे अफ़ग़ानिस्तान से घुसकर पंजाब से सीधे गंगा-यमुना के दोआब में बसते चले गए। नर्मदा घाटी सघन वन आच्छिदित थी। दोनों पर्वतों के बीच से चुपचाप बहती रही। जिसमें आदिवासी जंगली जानवरों के साथ रहते रहे। आर्य-द्रविड़ संग्राम के दौरान भी द्रविड़ नर्मदा घाटी के आजु-बाजु से दक्षिण की तरफ़ खिसक लिए। राम भी जब गोदावरी के तट पर आज के नासिक पहुँचे तो वे भी कौशल से आज के छत्तीसगढ़ होते हुए गए थे। कृष्ण भी मथुरा से टीकमगढ़ अशोकनगर उज्जैन से सीधे द्वारका चले गए थे। इस प्रकार नर्मदा घाटी में आदिवासियों का एकक्षत्र राज्य रहा आया। महाभारत काल में कई राक्षस राजाओं ने नर्मदा घाटी से आकर महायुद्ध में दोनों पक्षों की तरफ़ से भाग लिया था। लेकिन नर्मदा घाटी में तब तक कोई बड़ी बसावट नहीं हुई थी।

पुराणों में आर्य-अनार्य संघर्षों के प्रमाण मिलते हैं। जब आर्य भारत के मैदानी क्षेत्रों में आए तब अनार्य उत्तर से दक्षिण की तरफ़ खिसकना शुरू हुए थे। उन्हें अपनी आदिम संस्कृति पसंद थी। जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। आर्य उन्हें परिष्कृत करके अपने जैसा बनाना चाहते थे।

बहुत से अनार्य उन जैसे बन कर उनमें घुलमिल गए लेकिन कुछ लोगों ने तय किया कि वे अपनी संस्कृति की रक्षा करेंगे। आर्यों ने उन्हें राक्षस कह कर सम्बोधित किया। राक्षसों में मानव बलि और नरमांस सेवन आम बात थी। भीम ने जब हिडिंबा से शादी करके घटोत्कच पैदा किया था तब बाक़ी चार पांडव कुंती के साथ पेड़ों पर घर बनाकर रात गुज़ारते थे। भीम ने उनकी राक्षसों से रक्षा हेतु सुरक्षित व्यवस्था कर रखी थी।

जैसे-जैसे आर्य मैदानी हिस्सों में अपने राज्य स्थापित करते चले गए वैसे-वैसे आदिवासी विंध्याचल-सतपुड़ा पर्वतों में आवासित होते गए। शिवपुराण में एक बांणासुर राक्षस का ज़िक्र आता है वह शोणितपुर को राजधानी बनाकर इन पहाड़ों में रहता था। जिसकी पुत्री का प्रेम प्रसंग कृष्ण के पुत्र से हो गया था तब कृष्ण ने उसका वध करके अपने पुत्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार आर्य धीरे-धीरे इन पहाड़ों में प्रवेश करते रहे थे।

दसवीं से बारहवीं सदी के बीच महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद उत्तर भारत और पश्चिमी भारत से हिंदुओं का पलायन हुआ तब उन्होंने इन पहाड़ों के बीच में नर्मदा घाटी में शरण लेना शुरू किया। यह दौर कई सौ सालों तक चला।

उत्तर से लोधी, रघुवंशी, पश्चिम से गूज़र, कन्नौज से ब्राह्मण, उत्तर से ही बनिया और उनके साथ तेली, लोहार, चमार, बसोड और अन्य जातियाँ नर्मदा के किनारे आकर बसने लगी थीं। तभी से नर्मदा घाटी आबाद होने लगी थी।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा की असफल प्रेम कथा। )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा नदी का प्राकृतिक विवरण-2 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

उद्गम – मेकल पर्वत श्रेणी, अमरकंटक
समुद्र तल से ऊंचाई – 1051 मीटर
म.प्र में प्रवाह – 1079 किमी
कुल प्रवाह (लम्बाई) – 1312 किमी
नर्मदा बेसिन का कुल क्षेत्रफल – 98496 वर्ग किमी
राज्य – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, गुजरात
विलय – भरूच के आगे खंभात की खाड़ी

सनातन मान्यता।
नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री है
गंगा जी ज्ञान की,
यमुना जी भक्ति की,
ब्रह्मपुत्रा तेज की,
गोदावरी ऐश्वर्य की,
कृष्णा कामना की और
सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान की।

सनातन परम्परा में सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है। श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अश्वत्थामा अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है।

परिक्रमा वासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा प्रारंभ् श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ् होती है।

नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली ऐसी नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी ।

व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है ।

पैदल परिक्रमा का आनंद सबसे अलग है। पैदल परिक्रमा अखंड और खंड दो प्रकार से ली जाती है। जो लोग 3 साल, 3 महीना और 13 दिन का समय एक साथ नहीं निकल सकते वे कई टुकड़ों में परिक्रमा कर सकते हैं।

मोह सुविधा की सगी बहन है। सुविधा मिली नहीं कि मोह का बंधन इस आशा से बँधने लगता है कि यह सुविधा छोड़कर न जाए। मोह के साथ एक असुरक्षा बोध भी आता है कि सुविधा छूट न जाए।

वैराग्य असुविधा और अनिश्चित्ता का अनुगामी है। सुविधा-असुविधा के विचार से परे होकर अपने आप को नर्मदा को सौंप देना धीरे-धीरे मोह को ढीला करना है।

जे विधि राखे ते विधि रहिए।

 

 

 

 

नर्मदा परिक्रमा:लम्हेंटा घाट।

नर्मदा का उद्गम मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले (पुराने शहडोल जिले का दक्षिण-पश्चिमी भाग) में स्थित अमरकण्टक के पठार पर लगभग 22*40 अंश उत्तरी अक्षांश तथा 81*46 अंश पूर्वी देशान्तर पर एक कुण्ड में है । यह स्थान सतपुडा तथा विंध्य पर्वतमालाओं को मिलने वाली उत्तर से दक्षिण की ओर फैली मैकल पर्वत श्रेणी में समुद्र तल से 1051 मी0 ऊंचाई पर स्थित है । अपने उद्गम स्थल से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 8 कि0मी0 की दूरी पर नर्मदा 25 मी0 ऊंचाई से अचानक नीचे कूद पडती है जिससे ऐश्वर्यशाली कपिलधारा प्रपात का निर्माण होता है।

इसके बाद लगभग 75 कि0मी0 तक नर्मदा पश्चिम और उत्तर-पश्चिम दिशा में ही बहती है । अपनी इस यात्रा में आसपास के अनेक छोटे नदी-नालों से पानी बटोरते-सहेजते नर्मदा सशक्त होती चलती है ।

डिंडोरी तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा से तुरर, सिवनी, मचरार तथा चकरार आदि नदियाँ मिल जाती हैं । डिंडोरी के बाद पश्चिमी दिशा में बहने का रूझान बनाए हुए भी नर्मदा सर्पाकार बहती है । अपने उद्गम स्थल से 140 कि0मी0 तक बह चुकने के बाद मानों नर्मदा का मूड बदलता है और वह पश्चिम दिशा का प्रवाह छोडकर दक्षिण की ओर मुड जाती है ।

इसी दौरान एक प्रमुख सहायक नदी बुढनेर का नर्मदा से संगम हो जाता है । दक्षिण दिशा में चलते-चलते नर्मदा को मानों फिर याद आ जाता है कि वह तो पश्चिम दिशा में जाने के लिए घर से निकली थी अतः वह वापस उत्तर दिशा में मुडकर मण्डला नगर को घेरते हुए एक कुण्डली बनाती है ।

मण्डला में दक्षिण की ओर से आने वाली बंजर नदी इससे मिल जाती है जिससे चिमटे जैसी आकृति का निर्माण होता है । यहाँ ऐसा लगता है कि नर्मदा बंजर से मिलने के लिए खुद उसकी ओर बढ गई हो और मिलाप के तुरंत बाद वापस अपने पुराने रास्ते पर चल पडी हो । इसके बाद नर्मदा मोटे तौर पर उत्तर की ओर बहती है । जबलपुर के पहले नर्मदा पर बरगी बांध बन जाने के बाद यहां विशाल जलाशय का निर्माण हो गया है ।

यह लम्हेंटा घाट है जहाँ भू विज्ञानियों को प्रस्तर युग के जीवों डायनोसार के फ़ॉसिल्ज़ मिले हैं आदि मानव यहाँ रहते आए थे।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा नदी के ऐतिहासिक महत्व से जुड़ी जानकारियाँ । )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट-1 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा परिक्रमा:ग्वारीघाट से सर्रा घाट – 1

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर डिंडोरी-मंडला से आगे बढ़कर पहाड़ों को छोड़कर दो पर्वत श्रंखलाओं, दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में कैमोर से आते हुए विंध्य के पहाड़ों से समानांतर दस से पंद्रह किलोमीटर की दूरी बनाकर अरब सागर की तरफ़ कहीं उछलती-कूदती, कहीं गांभीर्यता लिए हुए, कहीं पसर के और कहीं-कहीं सिकुड़ कर बहती है। उसके अलौकिक सौंदर्य और उसके किनारे स्निग्ध जीवन के स्पंदन की अनुभूति के लिए पैदल यात्रा पर निकल रहे हैं।

कुछ लोगों ने इस यात्रा पर चलने की इच्छा जताई थी। यह यात्रा वानप्रस्थ के द्वारा सभ्रांत मोह से मुक्ति का अभ्यास भी है। जिस नश्वर संसार को एक दिन अचानक छोड़ना है क्यों न उस मोह को धीरे-धीरे प्रकृति के बीच छोड़ना सीख लें और नर्मदा के तटों पर बिखरे अद्भुत जीवन सौंदर्य का अवलोकन भी करें।

इच्छुक मित्र ग्वारीघाट पहुँचें। दो से तीन बजे पैदल यात्रा गुरुद्वारा की ओर से आरम्भ होगी। प्रतिदिन अनुमानित 10 किलोमीटर पैदल चलना होगा। एक जींस या पैंट के साथ फ़ुल बाहों की शर्ट पहन कर चलें। एक पेंट और तीन-चार शर्ट, एक जोड़ी पजामा कुर्ता, एक शाल, एक चादर, तौलिया, अन्तर्वस्त्र और साबुन तेल के अलावा कोई अन्य सामान न रखें। बैग पीछे टाँगने वाला हल्का हो।

वैसे तो आश्रम और धर्मशालाओं में भोजन की व्यवस्था हो जाती है फिर भी रास्ते में ज़रूरत के लिए समुचित मात्रा में खजूर, भुनी मूँगफली, भुना चना और ड्राई फ़्रूट रखें। पानी की बोतल और एक स्टील लोटा के साथ एक छोटा चाक़ू भी रखें। कहीं कुछ न मिले तो परिक्रमा वासियों का मूलमंत्र  “करतल भिक्षु-तरुतल वास” भी आज़माना जीवन का एक विलक्षण अनुभव होगा।

जो लोग पूरी यात्रा नहीं चल सकते वे अगले दिन भेड़ाघाट से वापस लौट सकते हैं। तिथिवार भ्रमण निम्न अनुसार है। रात्रि विश्राम की जगह ऐसी चुनी गई हैं जहाँ धर्मशाला और भंडारा भोजन उपलब्ध होगा।

13 अक्टूबर ग्वारीघाट -रामनगर 11 किलोमीटर
14 अक्टूबर रामनगर-भेड़ाघाट 10 किलोमीटर
15 अक्टूबर भेड़ाघाट-रामघाट 09 किलोमीटर
16 अक्टूबर रामघाट-जलहरी 08 किलोमीटर
17 अक्टूबर जलहरी-झाँसीघाट 09 किलोमीटर
18 अक्टूबर झाँसीघाट-सर्राघाट 13 किलोमीटर

कुल 60 किलोमीटर की छः दिन में यात्रा याने प्रतिदिन 10 किलोमीटर चलना होगा। यह कोई कठिन काम नहीं है। हर छः माह में आगे की यात्रा सम्पन्न करने का ध्येय है।

पृथ्वी अग्नि जल वायु आकाश का पूरा खुलापन, पेट भर भोजन और तन पर कपड़े के अलावा कोई अन्य कामना नहीं। मानव क़दम दर क़दम नंगे पाँव सदियों से नर्मदा को दाहिनी ओर से लेकर 1312 किलोमीटर उत्तरी तट से और उतना ही दक्षिणी तट से चले जा रहे हैं। चले जा रहे हैं। अनवरत काल से अनवरत खोज में अनवरत यात्रा के अनगिनत पड़ाव।

पगडंडी, गड़वाट, खेत-रेत, घास-झाड़ी, पहाड़-पानी, जीव-जंतु, पशु-मवेशी और इन सबसे बनी बाँसुरी के सप्त सुरों से निकलती कर्णप्रिय लहरियाँ। कहाँ ऐसे निश्छल लोग और कहाँ ऐसी बहुरियाँ। हिरणियों की कुलाँचे, बंदरों की अंडाडावरी, कोयल की कूक और कौए की कांव।  ढोलक की थाप और टिमकी की टिकटिकी के साथ नृत्य की पदचाप और रंगबिरंगी साड़ियों में लहराते साये।

शहरों के आलीशान घरों की बैठक में पहलू और चैनल बदलते थुलथुल देह, मन और धन के बीमार लोग जो न जी पा रहे हैं और न डॉक्टर उन्हें मरने दे रहे हैं। सब एक दूसरे के धन पर घात लगाए चीते की तरह झुके हुए बैठे हैं।

चलो निकल चलो इनसे दूर जहाँ न कारों की रेलमपेल है न रिश्तेदारों की खोजती निगाहें। कुछ दिन तो जी लो जी भरकर निसर्ग के साये में। जिस प्रकृति से तुम आए हो जिसमें तुम्हें अंततः जाना है क्या उसे तुम्हें नहीं पहचानना है।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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