हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – समुद्रतट और लहरों में खोता बचपन ?

सागर का जल और उफ़नती लहरें मेरे लिए सदा आकर्षण का केंद्र रही हैं। देश -विदेश में कई स्थानों पर समुद्र तट देखने का आनंद मिला है पर जो सुख अपने देश के समुद्रतट पर खड़े रहकर आनंद मिलता है वह अतुलनीय है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। हम भारतवासी भाग्यशाली हैं जो देश की तीन सीमाएँ समुद्र से घिरी हुई हैं ।

इस बार फिर एक बार गोवा आने का अवसर मिला। इस बार मन भरकर सागर के अथाह जल का आनंद लेने के लिए ही हम तीस वर्ष बाद फिर यहाँ लौट आए हैं। जवानी में गोवा आने पर हिप्पियों के दर्शन हुए थे पर अब ढलती उम्र में आनंद की सीमा कुछ और थी। इस बार पूरा परिवार साथ में गोवा आया था। बेटियाँ, दामाद और नाती -नातिन! अहा कैसा सुखद अनुभव ! कहीं और नज़र न गई।

मैं अथाह जल को निहार रही थी । अस्ताचल सूर्य की किरणें जल में प्रतिबिंबित होकर जल को सुनहरा बना रही थीं। फ़ेनिल लहरें तट की ओर तीव्र गति से कदमताल करती हुई बढ़ती आ रही थीं जैसे स्कूल की घंटी बजते ही उत्साह और उमंग से परिपूर्ण होकर छात्र अपने घर की दिशा में दौड़ने लगते हैं। तट को छूकर लहरें मंद गति से समुद्र की ओर इस तरह लौटती हैं मानो गृह पाठ न करने की गलती का छात्र को अहसास है और उसने अपनी गति धीमी कर दी है। इन लौटती लहरों का सामना उफ़नती दौड़ती लहरों से होती है और वे फिर उनके साथ तट की ओर द्रुत गति से बढ़ने लगती हैं मानों गृहपाठ पूर्ण कर देने का मित्रों ने भार ले लिया हो! मन इस दृश्य से प्रसन्न हो रहा था। शिक्षक का मन सदा चहुँ ओर छात्रों को ही देखता है। मैं अपवाद तो नहीं।

मन-मस्तिष्क के भीतर भी तीव्र गति से कुछ हलचल- सा हो रहा था। मन लहरों के साथ दौड़ रहा था।

अचानक किसी ने कहा आओ न पानी में चलें… और मैंने अपने बचपन को पानी की ओर बढ़ते देखा। लहरें तीव्रता से आईं मेरे नंगे पैरों को टखने तक भिगोकर लौट गईं। पैरों के नीचे मुलायम, स्निग्ध, गीली रेत थी। लहरों के लौटते ही वे रेत खिसकने लगीं और ऐसा लगा जैसे मैं भी चल रही हूँ। यह मन का भ्रम था। मैं अब भी तटस्थ वहीं खड़ी थी पर मेरा मन मीलों दूर पहुँच चुका था।

मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने नृत्य कर रहा था। कभी पानी में लहरों के आते ही बैठ जाता तो कभी छलाँग मारने लगता। कभी सूखी लकड़ी के टुकड़ों को पानी में फेंकता तो कभी मरे हुए छोटे स्टार फिश को जीवित करने के उद्देश्य से लहरों की ओर फेंक देता। बचपन की सारी हरकतें आँखों के सामने रीप्ले हो रही थीं और मैं मोहित -सी खड़ी उसे निहार रही थी।

अचानक एक मधुर सी आवाज़ ने मेरा ध्यान भंग किया और पास में रेत से मेरे ही पैर के चारों ओर किला बनने लगा। नन्हे हाथ रेत को हल्के हाथों से थपथपा रहे थे जैसे माँ अपने नन्हे बच्चे को थपथपाकर सुलाती है। फिर उस पर कुछ सूखी रेत डाली गई। आस- पास से छोटे बड़े शंख चुनकर सजाए गए। नारियल के पेड़ की एक सूखी डंठल को किले पर पताका के रूप में सजाया गया। मैं मूर्तिवत काफी समय तक वैसी ही खड़ी रही। फिर बड़ी सावधानी से मैंने अपना पैर निकाल लिया। किला मजबूत खड़ा था। दो नन्हे हाथ तालियाँ बजाने लगीं। एक मीठी सी किलकारी सुनाई दी।

सूर्यास्त हो रहा था, आसमान नारंगी छटा से भर उठा, फिर बादलों के टुकड़ों के बीच से हल्का गुलाबी रंग झाँकने लगा। फिर सब श्यामल हो उठा। अथाह सागर का जल कहीं अदृश्य- सा हो उठा केवल भीषण नाद करती हुई श्वेत लहरें निरंतर चंचल बच्चों की तरह इधर -उधर दौड़ती दिखाई देने लगीं। अचानक सागर की लहरें अंधकार में और अधिक द्रुत गति से तट की ओर बढ़ने लगीं, सफ़ेद, फ़ेनिल जल सुंदर और आकर्षक दिखने लगा थोड़ा भयावह भी! समस्त परिसर को कालिमा ने ग्रस लिया।

अब तक जिस तट पर ढेर सारे बच्चे व्यस्त से नज़र आ रहे थे, गुब्बारेवाले, रंगीन बल्ब, जलने बुझनेवाले लाल, पीले, हरे उछालते खिलौनेवाले, घंटी बजाकर साइकिल पर आइसक्रीम बेचनेवाले वे सब लौटकर चले गए। अब तट पर रह गई थी मैं और ढेर सारे किले। एकांत – सा छा गया। वातावरण ठंडी हवा से भर उठा और तेज़ लहरों की ध्वनि नाद मंथन करती हुई और स्पष्ट हो उठी।

अचानक एक ऊँची लहर ने मेरे घुटने तक आकर मुझे तो भिगा ही दिया साथ ही साथ मेरी तंद्रा भी टूटी और नन्हे हाथ से बने उस किले को लहरें बहाकर ले गईं। अब रात भर ढूँढ़-ढूढ़कर लहरें तट पर बनी बाकी सभी किलों को तोड़ देंगी। कितना कुछ लिखा, बनाया गया था रेत की इस समतल भूमि पर ! कितनी आकृतियों ने अपना सौंदर्य बिखेर दिया था यहाँ ! अब सब मिट जाएगा। दूसरे दिन प्रातः फिर एक स्वच्छ सपाट तट यात्रियों को फिर तैयार मिलेगा।

किसी मधुर, मृदुल स्वर ने मुझे पुकारा, नानी चलो न अंधेरा हो गया ……

मेरे बचपन ने फिर एक बार मेरी उँगलियाँ थाम लीं। सुखद, भावविभोर करनेवाले अनुभव संजोकर मैं होटल के कमरे में लौट आई।

नीरवता से कोलाहल के जगत में। संभवतः जीवित रहने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है। वरना जीवन नीरस बन जाता है।

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/21, 8pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-५ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सुबह का नाश्ता और रात्रिभोज होटल के पैकेज में शामिल है। सभी एक साथ नाश्ता और रात्रिभोज करते हैं। वहीं अगली कार्ययोजना तय हो जाती है। राजेश जी का संदेश रात को ही प्राप्त हो गया था कि सुबह आठ बजे होटल के डाइनिंग एरिया में नाश्ता लेकर साढ़े आठ बजे बस में सवार होना है। नाश्ते में स्पंजी डोसा, इडली, बड़ा, पूड़ी, सब्ज़ी के अलावा ब्रेड बटर ऑमलेट भी थे। मीठे में सूजी का हलवा स्वादिष्ट लगा। नाश्ते के समय यह ध्यान रखना ज़रूरी होता है कि यदि सभी आइटम चखते जाएँ तो अति भोजन होना ही है। मुफ्त से लगने वाले यानी पैकेज में शामिल नाश्ता करते समय पर्यटक एक गलती अक्सर करते हैं। तुरंत पैसे तो देने नहीं हैं या पैसे तो दे ही चुके हैं। इसलिए खींच कर खा लेते हैं। जिसका परिणाम एक तो हाज़मा ख़राब और दूसरा जब बस में बैठकर नज़ारे देखना है तब सीट पर खर्राटे भरते हैं। हम तो खाने और सोने आए हैं। भूगोल-इतिहास किताबी बातें हैं। पर्यटन के दौरान इस प्रवृत्ति से बचेंगे तो घूमने का आनंद उठा पाएंगे। 

समूह में परस्पर स्नेहिल संबंध कायम हो गए हैं। समूह के सभी सदस्य सकारात्मक सोचधारी हैं। क्षुद्र स्वार्थ का द्वेषपूर्ण भाव या शिकायती लहजा किसी में भी नहीं दिखता। इस कारण पूरी यात्रा में अनबन जैसी बातें जो कि समूह प्रबंधन में अक्सर दिखती हैं, अब तक की यात्रा के दौरान नदारत हैं। सब हनुमान भक्ति में डूबे हैं। बस में सुबह की यात्रा अभिष के सस्वर हनुमान चालीसा गायन से शुरू होती है। बाक़ी सभी यात्री उनसे स्वर मिलाकर भक्तिपूर्वक गायन में हिस्सा लेते हैं। उसके बाद बीच-बीच में मज़ाक़ ठिठोलियों की फुहारें छूटती रहती हैं। कोई व्यक्तिगत निजी टिप्पणी नहीं होती है।

ड्राइवर के बराबर सीट पर बैठ ख़ुद डॉ.राजेश श्रीवास्तव समूह को नेतृत्व प्रदान करते हैं। उन्होंने गाइड चंदू को भी साथ बिठा लिया है। जिससे उन्हें पर्यटन स्थलों पर पहुँचने, रुकने और आगे बढ़ने में सुभीता है। उनके पीछे सिंगल सीट पर कंडक्टर की भूमिका में सुरेश पटवा सीटी बजाकर समूह को नियंत्रित करते हैं। उनके समानांतर कवियत्री रूपाली अपनी शिक्षिका मम्मी श्रीमती मंजु श्रीवास्तव के साथ हैं। उनके पीछे डॉ. जवाहर कर्णावत और अनुभूति शर्मा विराजमान हैं। उसके बाद घनश्याम मैथिल और अभिष श्रीवास्तव बैठे हैं। सिंगल सीट पर अरुण गुप्ता और उनके पीछे डॉक्टर दिनेश श्रीवास्तव जमे हैं। पिछली सीट पर श्री विजय शंकर चतुर्वेदी, श्री सनोज तिवारी, डॉ जयशंकर यादव और गोपेश बाजपेयी बैठे हैं।

आज हम्पी भ्रमण है। भूगोल इतिहास किसी भी पर्यटन की जान होते हैं। यदि इनका ज्ञान और भान न हो तो पर्यटन “ये खाया-वो खाया” और ‘ये खरीदा-वो खरीदा’ का मुरब्बा बनकर रह जाता है। हमने दक्षिण भारत का राजनीतिक भूगोल याद किया। दक्षिण भारत में पाँच राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना के साथ तीन केंद्र शासित प्रदेश अंडमान निकोबार, पुडुचेरी और लक्षद्वीप शामिल हैं। जहाँ की आबादी की भाषाएँ द्रविड़ परिवार की हैं। हिंदी सभी जगह समझी जाती है। हालाँकि राजनीति ने बहुत नीबू निचोया पर हिन्दुस्तानी कढ़ाई में हिंदी का खालिस दूध मद्धिम आँच में मलाईदार होता जा रहा है। राज्य की सीमाएँ आम तौर पर भाषाई आधार पर हैं।

श्रीराम ने भ्राता लक्ष्मण और सीता जी के साथ नासिक के पास पंचवटी में आरण्यक समय बिताया था। वहीं से रावण ने सीता जी का अपहरण किया था। जिनकी खोज में वे भटकते हुए श्रीराम-लक्ष्मण किष्किन्धा खंड के पम्पा क्षेत्र पहुँचे थे, जहाँ उनकी भेंट हनुमान जी से हुई थी। हम उसी स्थान पर हैं। श्री राम सेना सहित यहाँ से मदुरा होते हुए रामेश्वरम पहुँचे थे। रामायण काल में यह क्षेत्र बियाबान जंगल था। वानर मति और गति से ही इस क्षेत्र में पार पाया जा सकता था। गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों पूर्व से पश्चिम बहती हैं।

श्रीमती मंजू श्रीवास्तव और उनकी पुत्री रूपाली सबसे आगे की दोहरी सीट पर हैं। उनके बाजू वाली सिंगल सीट पर हम जमे हैं।  मंजू जी हमको पटवा भाई साहब बुलाने लगी हैं तो इस हिसाब से रूपाली ने हमसे मामाजी का रिश्ता बना लिया है। रूपाली ने पूछा – मामा जी, दक्षिण भारत का भूगोल-इतिहास  बताइए न। छेड़ने भर की देर थी। अपना रिकॉर्ड चालू हो गया।

सुनो रूपाली, दक्षिण भारत में छह  पारंपरिक भौगोलिक क्षेत्र हैं।

पीछे से आवाज आई, यह नहीं चलेगा। थोड़ा जोर से बोलिए, हम भी सुनेंगे। हमने तिरछा होकर वॉल्यूम तेज कर बोलना शुरू किया।

महाराष्ट्र से नीचे दक्षिण में उतरते ही कर्नाटक में- दक्कन के पठार का मैदानी क्षेत्र बयालुसीमे, केनरा या करावली तट, समुद्री तट और पठार के बीच सह्याद्रि पहाड़ियाँ मालेनाडु, गोदावरी नदी के उत्तर में स्थित क्षेत्र, मैसूर के आसपास दक्षिण कर्नाटक मुलकानाडु। धारवाड के आसपास उत्तरी कर्नाटक, जिस क्षेत्र में हम्पी स्थित है। कोंकण तटीय क्षेत्र, जिसमें तटीय महाराष्ट्र, गोवा और तटीय कर्नाटक का हिस्सा शामिल है। रायचूर दोआब, जिसमें ज्यादातर उत्तरी कर्नाटक, कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र तुलु नाडु, उडुपी और दक्षिण केनरा के तटीय जिले आते हैं।

जब हमने थोड़ी सांस ली तो अनुभूति बोलीं – आपको इतना याद कैसे रहता है। हमने कहा- हम भूलते नहीं है इसलिए याद रहता है। सब ठहाकर हँस दिए।

हमारे प्रवचन फिर शुरू हुए, आंध्र प्रदेश में- कम्मनडु – कृष्णा नदी के दक्षिण में नेल्लोर तक का क्षेत्र, कोनसीमा – गोदावरी जिले में गोदावरी नदी की सहायक नदियों के बीच का तटीय क्षेत्र, कोस्टा – आंध्र प्रदेश के तटीय जिले, रायलसीमा – जिसमें कुरनूल, कडप्पा, अनंतपुरम और चित्तूर जिले शामिल हैं। उत्तरांध्र – आंध्र प्रदेश का उत्तरी भाग, जिसमें तीन जिले श्रीकाकुलम, विजयनगरम और विशाखापत्तनम  शामिल हैं। वेलानाडु – अर्थात् गुंटूर से श्रीशैलम तक कृष्णा नदी के तट पर स्थित स्थान।

चलिए अब तमिलनाडु चलते हैं वहाँ- चेरा नाडु – पश्चिमी तमिलनाडु और अधिकांश आधुनिक केरल, कोंगु नाडु – कोयंबटूर के आसपास पश्चिमी तमिलनाडु, चेट्टिनाडु – शिवगंगा के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, चोल नाडु – तंजावुर के आसपास मध्य तमिलनाडु,  पलनाडु – उत्तरी तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के दक्षिणी जिले, पंड्या नाडु – मदुरै के आसपास दक्षिणी तमिलनाडु, उत्तरी सरकार – ब्रिटिश भारत में मद्रास राज्य में मुस्लिम प्रशासनिक इकाइयाँ, अर्थात् चिकाकोले, राजमुंदरी, एलोर, कोंडापल्ली और गुंटूर, टोंडाई नाडु – कांचीपुरम के आसपास उत्तरी तमिलनाडु, तिरुविथमकूर या त्रावणकोर- दक्षिणी केरल और तमिलनाडु का कन्याकुमारी जिला, दक्षिण मालाबार – केरल का उत्तर-मध्य क्षेत्र, जो कोरापुझा और भरतप्पुझा नदियों के बीच स्थित है।

इतने कठिन क्षेत्रों का नाम सुनते-सुनते कुछ साथी बाहर झांकने लगे थे। तब तक हमारा वर्णन केरल तटीय नाडू पर पहुँच चुके थे।

केरल- कोचीन – केरल का क्षेत्र जो भरतप्पुझा और पेरियार नदियों के बीच स्थित है, कभी-कभी पम्बा तक फैला हुआ है। उत्तरी मालाबार – जो मैंगलोर और कोझिकोड के बीच स्थित है, यह एझिमाला साम्राज्य, मुशिका राजवंश और कोलाथुनाडु की पूर्व त्रावणकोर रियासत थी।

अब सुनिए उस क्षेत्र को जिसे अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने सबसे पहले दबोचा था। अर्थात कोरोमंडल तट – दक्षिण तटीय आंध्र प्रदेश, उत्तरी तटीय तमिलनाडु और पुडुचेरी केंद्र शासित प्रदेश दक्कन पठार – आंतरिक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक को कवर करने वाला पठारी क्षेत्र। इसमें मराठवाड़ा, विदर्भ, तेलंगाना, रायलसीमा, उत्तरी कर्नाटक और मैसूर क्षेत्र शामिल हैं।

अब चलते हैं द्वीप समूह- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह भारत के पूर्वी तट से बहुत दूर, बर्मा के तेनासेरिम तट के पास स्थित है। भारत की मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी छोर हिंद महासागर पर कन्याकुमारी (केप कोमोरिन) है। लक्षद्वीप के निचले मूंगा द्वीप भारत के दक्षिण-पश्चिमी तट से दूर हैं। श्रीलंका दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित है, जो पाक जलडमरूमध्य और श्रीराम के पुल के नाम से जाने जाने वाले निचले रेतीले मैदानों और द्वीपों की श्रृंखला द्वारा भारत से अलग किया गया है।

आज की योजना कुछ इस तरह है कि पहले तुंगभद्रा नदी किनारे गुफा दर्शन फिर हम्पी भ्रमण। अतः सबसे पहले कमलापुर पहुँचे, जहाँ तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गुफा है। किंवदंती है कि लंका अभियान के बाद इसी गुफा में विजयी सेना की सभा में श्रीराम ने सुग्रीव का किष्किन्धा की गद्दी पर राज्यारोहण किया था। बाली का पुत्र अंगद भी दल बदल करके सुग्रीव की पार्टी से रक्षामंत्री बना था। गुफा में अंदर जाकर देखा कि शायद सुग्रीव वंश का कोई सांसद या विधायक अनुयायियों को जातिगत और वंशगत राजनीतिक समीकरण समझा रहा हो। परंतु वहाँ बोर्ड लगा था। सावधान, भारत की राजनीतिक गुत्थियों से भरी इस गुफा में आगे जाना मना है। कारोबार में लेनदेन बराबर होना चाहिए। धर्म के शोकेस मे धन का घुन लग चुका है।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-४ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-४  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

कोप्पल नगर के इतिहास की जानकारी शतवाहन, गंग, होयसल और चालुक्य राजवंशों के साम्राज्यों से मिलती है। “कोप्पल” का उल्लेख राजा नृपथुंगा के शासनकाल के दौरान महान कन्नड़ कविराजमार्ग (814-878 ईस्वी) की काव्य कृति “विद्या महा कोपना नगर” में मिलती है। मौर्य काल में इस क्षेत्र में जैन धर्म का विकास हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र और अशोक के पिता बिंदुसार ने जैन धर्म अपना लिया और दक्षिण भारत में पहुँच इसी क्षेत्र में आकर प्राण त्यागे। इसलिए, इसे “जैनकाशी” भी कहा जाता है। बारहवीं शताब्दी में समाज सुधारक बसवेश्वर का वीरशैववाद लोकप्रिय हुआ। स्थानीय लोगों में कोप्पल के वर्तमान गवी मठ का बड़ा आकर्षण है।

कोप्पल में गंगावती तालुक का अनेगुंडी नामक स्थान महान विजयनगर राजवंश की पहली राजधानी था। पुराना महल और किला अभी भी मौजूद है जहाँ हर साल “अनेगुंडी” वार्षिक उत्सव मनाया जाता है। कोप्पल जिले के अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान हुलिगी, कनकगिरी, इटागी, कुकनूर, मदीनूर, इंद्रकीला पर्वत, पुरा, चिक्काबेनाकल और हिरेबेनाकल हैं।

आज़ादी से पहले कोप्पल हैदराबाद के निज़ाम के अधीन था। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली, चूँकि कोप्पल हैदराबाद क्षेत्र का हिस्सा था, इसलिए क्षेत्र के लोगों को हैदराबाद निज़ाम के चंगुल से आज़ादी पाने के लिए और संघर्ष करना पड़ा। वल्लभभाई पटेल और व्ही.पी. मेनन के भागीरथी प्रयासों के बाद 18 सितम्बर 1948 को हैदराबाद-कर्नाटक को निज़ाम से आज़ादी मिल गयी। तब से 01-04-1998 तक, कोप्पल जिला गुलबर्गा राजस्व प्रभाग के रायचूर जिले में था। अब खुद एक ज़िला मुख्यालय है। सभी साथी थके हैं। बस में एक दूसरे से टिक कर हल्कीफुल्की नींद निकाल रहे हैं। बस सिक्स लेन सड़क पर सरपट भाग रही है। हमारी नज़र ड्राइवर की नज़र पर है। वह पलक नहीं झपक रहा है। उससे इलाक़े की जानकारी लेते चल रहे हैं।

भौगोलिक दृष्टि से कोप्पल ज़िले के एक तरफ चट्टानी भूभाग है और दूसरी तरफ कई एकड़ सूखी भूमि है, जिसमें ज्वार बाजरा मक्का और मूंगफली की फसलें उगाई हैं। किसानी मुख्य रूप से मानसून पर निर्भर है, अभी भी यहाँ जुताई के तरीकों में  बैल-हल का उपयोग करते दिखते हैं। हालाँकि, बैलगाड़ी के पहियों में लोहे की जगह टायर लग गए  हैं। हाल ही में उनमें से कुछ ने उच्च तकनीक सिंचाई प्रणाली में कदम रखा है, खासकर पड़ोसी शहर मुनीराबाद से एक विशाल बांध से थुंगा-भद्रा नदी के पानी को मोड़ने के बाद शहर अपनी जल समस्या का समाधान करने लगा है, फलस्वरूप वर्तमान में अनार, अंगूर और अंजीर यहाँ से निर्यात किया जाता है। थुंगा-भद्रा नदियाँ मिलकर हिन्दी में तुंगभद्रा नदी का निर्माण करती हैं।

रास्ते में शाम गहराने लगी तो बादलों के विभिन्न रंगों से आसमान सजने लगा। दक्षिण भारत में इन दिनों बादलों की छटा बिलकुल अनोखी होती है। हिंदी फ़िल्मों में यहीं के बादलों की रील उपयोग की जाती थी। इसीलिए मद्रास की जैमिनि फ़िल्म कंपनी की फ़िल्मों में बादलों की मनभावन छटा देखने को मिलती थी। हमने बस से नीचे उतर कर और चलती बस में सफ़ेद और काले बादलों पर डूबते सूर्य की गुलाबी रोशनी में अद्भुत दृश्य देखे। गुलाबी बादलों की उड़ान को नज़रों में बसाते हुए हम्पी पहुँचने लगे।

हुबली से हॉस्पेट पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज गए। होटल हम्पी इंटरनेशनल में डेरा डाला। यहाँ मुंबई से छात्रों का एक बड़ा समूह रुका है। खूब चहल-पहल है। उनकी मस्ती और धमाल माहौल को जीवंत बनाए है। हमारे कुछ साथियों को शोर पसंद नहीं है, वे नाक-भों सिकोड़ रहे हैं। हमने बच्चों से बातें कीं तो उन्होंने खुश होकर हिस्सा लिया। वे मुंबई से स्टडी टूर पर यहाँ घूमने आए हैं। सभी टीनेजर्स हैं, इसलिए नाच-गाना, उधम-सुधम होना लाज़िमी है। नहीं तो, मातापिता के नियंत्रण से बाहर होने का क्या मतलब है। भोजन के बाद 15 मिनट की एक बैठक हुई जिसमें रामायण सम्मेलन के आयोजन और भ्रमण के विषय में आवश्यक दिशा निर्देश दिए गए। हम्पी इस हॉस्पेट नामक तालुक़ा बस्ती से 12 किलोमीटर दूर है। कल वहाँ घूमना है। साथियों के निवेदन पर हम्पी के बारे में उनको बताया।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 2)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 35 – उत्तराखंड – भाग – 2 ?

इस बार उत्तराखंड के कुछ हिस्सों की सैर करने का मन बनाया और बिटिया के पास देहरादून आ गए।

हम कानाताल से लैंडोर जा रहे हैं। सड़क पर बहुत भीड़ थी। गाड़ियाँ तो थीं ही साथ में पैदल चलने वाले और मोटरबाइक से यात्रा करनेवाले सभी सड़क पर ही थे।

शनिवार -रविवार को इन जगहों पर बड़ी भीड़ होती है। आज तो सोमवार का दिन है तो फिर इतनी जमकर भीड़ क्यों है भला? ड्राइवर ने बताया कि अब चार पाँच दिन सब जगह दीवाली की छुट्टी है। आस -पास रहनेवाले रोज़मर्रा के जीवन से थोड़ा हटकर आनंद लेने के लिए लैंडोर के लिए निकल पड़ते हैं।

सड़क पर खचाखच भीड़ है। गाड़ियाँ हिल ही नहीं रही हैं। जाम लगने का एक और कारण था, सड़क की दाईं ओर किसी घर में पिछली रात शायद शादी का कार्यक्रम था। आस -पास के घरों को भी दो रंगों के सैटिन के कपड़ों से सजाया गया था। घर के आस पास न केवल घर वालों की भीड़ थी बल्कि गाने-बजाने वालों की स्पीकर लगाई गाड़ी भी खड़ी कर दी गई थी जिसके कारण यातायात में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था पर पहाड़ी जगह के लोग न तो ऊँची आवाज़ में बोलते हैं न गालीगलौज ही करते हैं।

अक्सर सुनने में आता है कि भारतीयों में सहिष्णुता का अभाव है। अगर किसी को सच्चे अर्थ में सहिष्णुता की परिभाषा जानने की इच्छा हो तो वह पहाड़ी लोगों के बीच आ जाएँ।

अब हमारी गाड़ी ठीक विवाह वाले घर से थोड़ी दूर हटकर रुक गई। मेरा ध्यान बाहर की ओर गया। मोटरबाइक वाले चढ़ाई की ओर जा रहे थे और गाड़ी रुकी हुई थी तो वे निरंतर गाड़ी रेज़ कर रहे थे ताकि गाड़ी बंद न पड़ जाए। इस वजह से काफी धुआँ निकल रहा था। हमारी गाड़ी की खिड़कियाँ बंद करवा दी गईं। इस पुरी यात्रा में हमने ए.सी का उपयोग किया ही न था क्योंकि पहाड़ी शुद्ध हवा का आनंद ही कुछ और है। फिर पहाड़ों को प्रदूषित करने से भी बचना था।

मैं मन ही मन मोटर साइकिल से निकलनेवाले काले धुएँ को देख असंतुष्ट हो रही थी कि किस तरह स्वच्छ पर्यावरण को दूषित किया जा रहा है। मैंने जब खिड़की बंद करने से रोका क्योंकि ए.सी चलाना भी तो पर्यावरण को दूषित करने का ही एक दूसरा माध्यम है तो बाप -बेटी ( हम सब साथ सफ़र कर रहे थे)बोल पड़े “तुमको ही तकलीफ़ होगी फिर दमा ज़ोर पकड़ेगा। ” मैं चुप हो गई।

कभी -कभी अपने उसूलों और सिद्धांतों के साथ समझौता करना पड़ता ही पड़ता है और तब अपनी अवसरवादी वृत्ति सामने खड़ी हो जाती है यह स्मरण कराने के लिए कि कुछ हद तक हम सभी स्वार्थी हैं। मैं अपवाद नहीं बन सकती।

खैर गाड़ी रुकी हुई थी। भीतर एक विचारों का जंग चल रहा था और नयन बाहर के दृश्यों पर नज़रें टिकाए हुए थे।

शादीवाले घर का उत्सव समाप्त हो गया। एक सजा सजाया मिट्टी का घड़ा रखा था। एक दुबला पतला कुत्ता अपने सामने के पैरों को घड़े के किनारे पर टिकाकर कुछ खा रहा था। शायद घड़े में रखे गए भोजन की उसे गंध आ गई थी। मुँह निकालकर जीभ से उसने अपने जबड़े चाटे। पुनः मुंडी उसने घड़े में घुसा दी।

घड़ा शायद विवाह में किसी काम के लिए रखा गया था। अब उसकी ज़रूरत पूरी हो गई तो उसमें बचा हुआ भोजन डाल दिया गया था।

कुत्ता भोजन का भरपूर आनंद ले रहा था। भोजन अब घड़े के आधे हिस्से तक पहुँच गया और कुत्ता गर्दन तक उसमें घुस गया। घड़ा सामने की ओर लुढ़क गया। अब कुत्ते का दम घुटने लगा तो वह घड़े से सिर निकालने के लिए छटपटाने लगा। काफ़ी समय तक वह छटपटाता रहा। मैं सुन्न -सी असहाय उसकी ओर अपलक दृष्टि गड़ाए बैठी उसे देख रही थी। इतने में एक चौदह-पंद्रह वर्ष का बालक एक मोटा डंडा लाया और कपाल क्रिया करने जैसा उस घड़े पर एक वार किया।

घड़ा टूटकर तीन भागों में विभक्त हो गया। भूखा कुत्ता अचानक घड़े पर डंडे की चोट लगने और उसके फूटने पर भयभीत हुआ। अपनी पिछली टाँगों के बीच पूँछ दबाकर थोड़ी दूर वह हट गया। पर वह निरंतर अभी भी जीभ निकाले जबड़ा चाट रहा था।

घड़े के फूटने पर उसमें पड़ा भोजन बाहर झाँकने लगा और दो कुत्ते अब उसका आनंद लेने उस पर टूट पड़े। भयंकर पीड़ा सहन कर जो कुत्ता अब तक अपनी मुंडी उस घड़े में फँसाए बैठा था उसकी तंद्रा टूटी। वह भूख और अधिकार के भाव से उन दोनों कुत्तों पर टूट पड़ा। वे दोनों वहाँ से थोड़ी दूरी पर जाकर खड़े हो गए और ललचाई दृष्टि से भोजन को देखने लगे।

कुत्ता तीव्र गति से भोजन खाता रहा। सम्पूर्ण भोजन पर वह अब अपना अधिकार समझता रहा। दूसरे कुत्ते पूँछ हिलाते हुए पास भी आते तो वह गुर्राता। अब इस मटके पर वह हेकड़ी जमाए बैठा था। पेट तो भर गया था शायद पर कल के लिए भी भोजन संचित करके रखने की वृत्ति अब कुत्ते में भी दिखने लगी। लोभ तो अपरिमित है और तृष्णा दुष्पूर!

गाड़ी अब आगे बढ़ने लगी। मन यह सब देखकर अशांत तो हुआ पर एक बात से प्रसन्नता हुई कि मनुष्य प्राणियों के कष्ट के प्रति आज भी सजग है वरना भोजन के लालच में कुत्ता दम घुटकर परलोक सिधार जाता।

© सुश्री ऋता सिंह

27/10/24, 6.40pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-३ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-३  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

सतपुड़ा पर्वतमाला दक्कन पठार के उत्तरी विस्तार को और हिन्द महासागर दक्षिणी छोर को परिभाषित करती है। पश्चिमी घाट, पश्चिमी तट से मिलकर दक्षिणी पठार की एक सीमा को चिह्नित करते हैं। पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच हरी-भरी भूमि की संकीर्ण पट्टी कोंकण क्षेत्र है; वही दिखने लगा है। पश्चिमी घाट दक्षिण की ओर बढ़ते हुए, कर्नाटक तट के साथ मालनाड (केनरा) क्षेत्र का निर्माण करते हैं, और नीलगिरि पहाड़ों पर समाप्त होते हैं, जो पश्चिमी घाट का पूर्वी विस्तार है। नीलगिरी लगभग उत्तरी केरल और कर्नाटक के साथ तमिलनाडु की सीमाओं पर एक अर्धचंद्राकार रूप में फैली हुई पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, जिसमें पलक्कड़ और वायनाड पहाड़ियाँ और सत्यमंगलम पर्वतमालाएँ शामिल हैं। तमिलनाडु- आंध्र प्रदेश सीमा पर तिरूपति और अनाईमलाई पहाड़ियाँ इस श्रेणी का हिस्सा हैं। इन सभी पर्वत श्रृंखलाओं द्वारा सी-आकार से घिरा विशाल ऊंचा क्षेत्र है। पूर्व में पठार की सीमा पर कोई बड़ी ऊंचाई नहीं है। धरातल पश्चिमी घाट से पूर्वी तट तक धीरे-धीरे ढलान पर है। इसीलिए कृष्णा और कावेरी नदियाँ पश्चिम से पूर्व दिशा में बहकर बंगाल की खाड़ी में समाहित होती हैं।

हवाई जहाज़ ने पश्चिमी तट को अलविदा कह दक्कन के पठार का रुख़ किया है। आसमान साफ़ होने से हरीभरी भूमि पर जलाशय और नदियाँ सूर्य की तीखी किरणों से चमकती दिख जाती हैं। बीच में कुछ छोटी बस्तियाँ और खेतों की रंगोली भी दिखती हैं। दक्कन का पठार महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बड़े हिस्से को परिभाषित  करता है, जबकि केरल, तेलंगाना और आंध्र समुद्र तटीय क्षेत्र हैं। भूगोलवेत्ता बताते हैं कि दक्कन के इस विशाल ज्वालामुखीय बेसाल्ट बेड का निर्माण विशाल डेक्कन ट्रैप विस्फोट से 67 मिलियन वर्ष पहले क्रेटेशियस काल के अंत में हुआ था। कई हज़ार वर्षों तक चली ज्वालामुखीय गतिविधि से परत दर परत बनती गई। जब ज्वालामुखी शांत हो गए, तो उन्होंने ऊंचे इलाकों का एक क्षेत्र छोड़ दिया, जिसके शीर्ष पर आमतौर पर एक मेज की तरह समतल क्षेत्रों का विशाल विस्तार निर्मित हुआ। इसलिए इसे “टेबल टॉप” के नाम से भी जाना जाता है। भूविज्ञानियों ने डेक्कन ट्रैप का निर्माण करने वाला ज्वालामुखीय हॉटस्पॉट हिन्द महासागर में वर्तमान रियूनियन द्वीप के नीचे स्थित होने की परिकल्पना की है।

हमारे एक साथी ने हमसे पूछा कि हम लोग हुगली कब पहुँचेंगे। हमने उन्हें बताता कि हम हुबली जा रहे हैं, हुगली नहीं। उन्होंने फिर पूछा हुबली जा रहे हैं या हुगली, स्थान का सही नाम क्या है। उनको बताया कि भैया हुबली दक्षिण भारत में एक जगह का नाम है जहां हम जा रहे हैं। वहाँ से वातानुकूलित बस में बैठ कर बेल्लारी ज़िले के हॉस्पेट पहुँचेंगे। जबकि हमारी गंगा मैया मुर्शिदाबाद से आगे कलकत्ता पहुँच कर हुगली नाम से जानी जाती हैं। उनके दिमाग़ की बत्ती जली तो बोले- हाँ मुझे पता था, कन्फर्म कर रहा था।

हम साढ़े चार बजे हुबली पहुँच गए । समूह के दो यात्री हैदराबाद उड़ान से पहुँच रहे थे। उनकी उड़ान शाम को पाँच बजे हुबली पहुँची। उनके पहुँचने पर साढ़े पाँच बजे हुबली से हम्पी के लिए रवाना हुए। दक्षिण के टेबल टॉप पर खिली धूप में चमकते नज़ारे देखते बनते हैं। हुबली से चले क़रीब एक घंटा हो चला है। दोपहर के बाद की चाय की याद सताने लगी है। कुछ साथी नींद निकालकर अंगड़ाई लेने लगे हैं। हुबली से चालीस किलोमीटर चलकर शीरगुप्पी नामक स्थान पर भारत फ़ैमिली रेस्टोरेंट पर निस्तार से फ़ारिग हो चाय निपटाई। फोटो और सेल्फी के ज़रूरी काम निपटा बस में सवार हो फिर चल दिए।

रास्ते में बाजरा, ज्वार, कपास और मूँगफली के हरे भरे खेत दिखाई देते हैं। चारों तरफ़ हरियाली का आलम है। यह इलाक़ा मराठों और हैदराबाद रियासत के बीच लंबे समय तक झगड़े की जड़ रहा। बीच-बीच में गढ़ियो के खंडहर दिखते हैं। हमारी हुबली से हम्पी यात्रा के रास्ते में ज़िला मुख्यालय कोप्पल आया, जिसे बाईपास से पार किया। कोप्पल जिला कर्नाटक का सर्वश्रेष्ठ बीज उत्पादन केंद्र है। यहां कई राष्ट्रीय बीज कंपनियों के फूल, फल, सब्जियों और दालों के बीज उत्पादन केंद्र स्थापित किए गए हैं।

क्रमशः… 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – उत्तराखंड – भाग – 1 )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 34 – उत्तराखंड – भाग – 1 ?

ईश्वर की अनुकंपा ही समझूँ या इसे मैं अपना सौभाग्य ही कहूँ कि जिस किसी विशिष्ट स्थान के दर्शन के बाद जब मेरा मन तृप्त हो उठता है तो एक लंबे अंतराल के बाद पुनः वहीं लौट जाने का तीव्र मन करता है और मैं वहाँ पहुँच भी जाती हूँ। इसका श्रेय भी मैं बलबीर को ही देती हूँ जो मेरी इन इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। एक ही स्थान पर पुनः जाने का यह अनुभव मुझे कई बार हुआ।

सात वर्ष के अंतराल में दो बार लेह -लदाख जाने का सौभाग्य मिला। काज़ीरांगा, मेघालया तथा चेरापुँजी चार वर्ष के अंतराल में जाने का मौका मिला। हम्पी-बदामी ग्यारह वर्ष के अंतराल में, कावेडिया – स्टैच्यू ऑफ यूनिटी तीन वर्ष के अंतराल में पौंटा साहिब, कुलू मनाली, शिमला, चंडीगढ़, अमृतसर और माता वैष्णोदेवी के दर्शन के अनेक अवसर मिले। इन स्थानों पर लोगों को जीवन में एक बार जाने का भी मुश्किल से मौके मिलते होंगे वहीं ईश्वर ने मुझे एक से अधिक बार इन स्थानों के दर्शन करवाए। मेरे भ्रमण की तीव्र इच्छा को मेरे भगवान अधिक समझते हैं। इसलाए इसे प्रभु की असीम कृपा ही कहती हूँ।

एक और स्थान का ज़िक्र करना चाहूँगी वह है मसूरी का कैम्प्टी फॉल। अस्सी के दशक में हम पहली बार मसूरी गए थे। तब यह उत्तराखंड नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश था। फिर दोबारा 1994 में चंडीगढ़ में रहते हुए मसूरी जाने का सौभागय मिला।

फॉल या झरने के नीचे पानी में खूब भीगकर बच्चियों ने गर्मी के मौसम में झरने के शीतल जल का आनंद लिया था वे तब छोटी थीं। वहीं पास में कपड़े बदलकर गरम चाय और गोभी, आलू, प्याज़ की पकौड़ियों के स्वाद को आज भी वे याद करती हैं। वास्तव में जब कभी पकौड़ी खाते तो केम्प्टी फॉल की पकौड़ियों का ज़िक्र अवश्य होता। बच्चियों की आँखें उस स्वाद के स्मरण से आज भी चमक उठतीं हैं।

इस वर्ष मुझे तीस वर्ष के बाद पुनः केम्प्टी फॉल जाने का अवसर मिला। सड़क भर मैं स्मृतियों की दुनिया में मैं सैर करती रही। संकरी सड़कें, पेड़ -पौधों की रासायानिक विचित्र गंध युक्त हवा, दूर से बहते झरने की सुमधुर ध्वनि और सरसों के तेल में तली गईं पकौड़ियों की गंध! अहाहा !! मन मयूर इन स्मृतियों के झूले में पेंग लेने लगा।

हम काफी भीड़वाली संकरी सड़क से आगे बढ़ने लगे। पूछने पर चालक बोला यही सड़क जाती है फॉल के पास। अभी तो बहुत भीड़ भी होती है और गंदगी भी।

अभी कुछ कि.मी की दूरी बाकी थी। सड़क तो आज भी संकरी ही थी पर हवा में पेड़ -पौधों की गंध न थी बल्कि विविध कॉफी शॉप की दुकानों की, गरम पराठें तले जाने की, लोगों द्वारा लगाए गए परफ्यूम की गंध हवा में तैरने लगी। ये सारी गंध मुझे डिस्टर्ब करने लगी क्योंकि मेरे मस्तिष्क में तो कुछ और ही बसा है!

मेरा मन अत्यंत विचलित हुआ। हमने लौटने का इरादा किया और गाड़ी मोड़ने के लिए कहा। मेरे मानसपटल पर जिस खूबसूरत मसूरी के पहाड़ों का चित्र बसा था वहाँ आज ऊँची इमारतें खड़ी हैं। दूर तक कॉन्क्रीट जंगल!थोड़ी ऊँचाई पर गाड़ी रोक दी गई और वहाँ से वृक्षों के झुरमुटों के बीच से फॉल को देखा। झरना पतली धार लिए उदास बह रहा था। आस पास केवल इमारतें ही इमारतें थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इमारतों के बीच में से किसी ने पाइप लगा रखी है और जल बह रहा है।

1994 का वह प्रसन्नता और ऊर्जा से कुलांचे मारकर नीचे गिरनेवाला तेज प्रवाहवाला जल पतली – सी धार मात्र है। प्रकृति का भयंकर शोषण हुआ है। जल प्रवाह की ध्वनि विलुप्त हो गई। जिस तीव्र प्रवाह से सूरज की किरणों के कारण इंद्रधनुष निर्माण होता था वहाँ आज प्रकृति रुदन करती- सी लगी। उफ़! मेरे हृदय पर मानो किसीने तेज़ छुरा घोंप दिया। मैं जिस केम्प्टी फॉल की स्मृतियों से पूरित उत्साह से उसे देखने चली थी आज वह केवल एक आँखों को धोखा मात्र है। अगर इसे पहले कभी न देखा होता तो इस धार को देख मन विचलित न होता। पर स्मृतियों के जाल को एक झटके से फाड़ दिया गया।

हम बहुत देर तक उस पहाड़ी पर गाड़ी से उतरकर खड़े रहे। हम सभी मौन थे क्योंकि सामने जो दिखाई दे रहा था वह अविश्वसनीय दृश्य था। तीस वर्षों में एक प्राकृतिक झरने की यह दुर्दशा होगी यह बात कल्पना से परे थी। एक विशाल जल स्रोत की तो हत्या ही हो गई थी यहाँ।

मनुष्य कितना स्वार्थी और सुविधाभोगी है यह ऐसी जगहों पर आने पर ज्ञात होता है। बंदरों की बड़ी टोली रहती है यहाँ के जंगलों में। उन्हें वृक्ष चाहिए, जल चाहिए पर कहाँ! यहाँ तो मनुष्यों की भीड़ है। प्रकृति को इस तरह से नोचा -खसोटा गया कि उसका सौंदर्य ही समाप्त हो गया।

हम उदास मन से देहरादून लौट आए।

अब कभी किसी से हम केम्प्टी फॉल का उल्लेख नहीं करेंगे। पर मैं अपने मानस पटल पर चित्रित अभी के इन दृश्यों को कैसे मिटाऊँ और पुरानी सुखद स्मृतियों को पुनर्जीवित किस विधि करूँ यही सोच रही हूँ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-२  ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हम हम्पी जा रहे हैं तो इसकी थोड़ी जानकारी लेना आवश्यक है। हम्पी कर्नाटक के बेल्लारी ज़िले में स्थित है। जो  कर्नाटक राज्य के कई प्रमुख जगहों जैसे बंगलुरू, हुबली, हॉस्पेट, बेलारी, रायचूर आदि से राष्ट्रीय राजमार्ग 63 द्वारा जुड़ा हुआ है। यह जगह बंगलुरू से 380 किलोमीटर और हुबली से 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हम्पी रेल मार्ग द्वारा कई प्रमुख शहरों जैसे बंगलुरू, हुबली, बेलगम, गोवा, तिरुपति, विजयवाड़ा, गंटूर, गंटकल, हैदराबाद और मिराज आदि से जुड़ा हुआ है। तुंगभद्रा नदी के किनारे रामायण कालीन हनुमान जी की जन्मस्थली की पहचान किष्किधा के रूप में की गई है।

हम भोपाल से हवाई उड़ान द्वारा मुंबई होते हुए हुबली पहुँचेंगे। हुबली से बस द्वारा हम्पी यात्रा होगी। हमने 28 सितंबर 2023 को वायुयान ने भोपाल हवाई पट्टी से से उड़ान भरी। यदि आप भोपाल से मुंबई की यात्रा रेल द्वारा कर रहे होते तो आपको सतपुड़ा और विंध्याचल पर्वत श्रेणियों के मध्य से प्रवाहित होती नर्मदा और ताप्ती नदियों को पार करके पुराने खानदेश इलाक़े से गुजरना पड़ता।  वायुयान में भी रास्ता तो वही है परंतु यह इलाक़ा आसमान में उड़कर पार करना था। शुरू में विमान कम ऊँचाई पर होने से नीचे जाने पहचाने स्थान चिन्हित करते रहे कि नर्मदा नदी प्रवाहित है। आगे गोदावरी नदी चौड़े पाठ के साथ प्रवाहित होते दिखी। गोदावरी नदी को “दक्षिण गंगा” के रूप में भी जाना जाता है। यह नदी महाराष्ट्र में नासिक के पास त्र्यंबकेश्वर से निकलती है और बंगाल की खाड़ी में गिरने से पहले लगभग 1465 किमी. की दूरी तय करती है। यह महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा राज्यों से होकर बहती है। गोदावरी नदी के तट पर नासिक, नांदेड़ और भद्राचलम महत्वपूर्ण शहर हैं। ऋषि गौतम से संबंध जुड़े जाने के कारण इसे गौतमी के नाम से भी जाना जाता हैं। वहीं से पश्चिमी घाट की पर्वत श्रेणी भी नज़र आई। जब विमान मुंबई विमानतल पर उतरने लगा तब कल्याण क्रीक का समुद्री विस्तार दिखा। लगा विमान समुद्र पर ही उतर रहा है। अचानक उड़ान पट्टी नज़र आई और हम एक हल्के झटके के साथ आसमान से ज़मीन पर थे। 

दस बजे मुंबई हवाई अड्डे पर उतरे। हमारा लगेज हमको सीधा हुबली में मिलेगा। हम लोग हैंडबैग लेकर मस्तानी चाल से सुस्ताने की जगह ढूँढने लगे। हवाई यात्रा में सवारी अधिक थकान महसूस करती हैं, क्योंकि वे गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के विपरीत कम आक्सीजन के साथ जड़ से कटे खुले आसमान में रहते हैं। हुबली उड़ान चेक इन दोपहर अढ़ाई बजे शुरू होगी। समूह ने प्रतीक्षा लाउँज में ठीक सी जगह देखकर अड्डा जमाया। घर से साथ लाया ख़ाना सभी साथियों ने मिलबाँट कर खाया। इसके बाद अच्छी चाय मिल गई। फिर कुछ ने बारी-बारी से आराम कुर्सी पर एक लेट लगाई। कुछ ने झपकी को थपकी देकर दुलार किया। कुछ मोबाइल में घुस मोबाइल रहे। कुछ मोबाइल होकर आसपास के नज़ारों से आँखें सेंकते रहे। इस तरह सभी काम से लगे रहे। ख़ाली कोई नहीं बैठा। ‘कर्मप्रधान विश्व करी राखा’ अनुसार प्रत्येक जीव कर्मरत रहा। 

सूचना पटल ने बताया कि मुंबई से हुबली उड़ान दो बजकर पचास मिनट पर उड़ेगी। जिसकी बोर्डिंग एक बजकर तीस मिनट से होनी है। हम लोग डेढ़ बजे सुरक्षा जाँच करवा कर इंतज़ार लॉबी में पहुँचे। वहाँ गज़ब की बदइन्तज़ामी थी। हमारा बोर्डिंग गेट 11 प्रदर्शित हो रहा था। 11 से 20 गेट की इंतज़ार लॉबी में क़रीबन 150-200 सवारियों के लिए मुश्किल से 60-70 कुर्सियाँ थीं। लोग कुर्सियों की घात लगाए यहाँ-वहाँ घूम रहे थे। कुर्सी ख़ाली होते ही लपक लेते थे। कुछ लोग बाजू की कुर्सियों पर बैग रखकर बैठे थे। उन्हें हटवाने में खड़े लोगों की कुर्सियों पर जमी सवारियों से झंझट हो रही थी। एकमात्र पुरुष बाथरूम मरम्मत हेतु बंद था। महिला प्रसाधन चालू था। वैकल्पिक बाथरूम बहुत दूर गेट नंबर एक के पास बताया जा रहा था। हमने वरिष्ठ नागरिक का तुरुप पत्ता चला तो वहाँ के स्टाफ़ ने एक गुप्त बाथरूम की तरफ़ इशारा करते हुए हमारी समस्या का निदान कर दिया। हमारी समस्या का निदान होने भर की देर थी। फिर तो सभी साथियों ने उसका उपयोग किया। बोर्डिंग शुरू हुई तो सवारियों को गेट से हवाई जहाज तक ढोने वाली बस नहीं आ रही थी। यात्रियों द्वारा शिकायती रुख़ अख़्तियार करने पर बस का आना आरम्भ हुआ। हम लोग हवाई जहाज़ में लदकर रवाना हुए।

मुंबई से हमारी यात्रा वेस्टर्न घाट से होकर दक्षिण प्रायःद्वीप याने पेनिनसुला पर होनी थी। दक्षिण भारत एक विशाल उल्टे त्रिकोण के आकार का प्रायःद्वीप (Peninsula) है, जो पश्चिम में अरब सागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और उत्तर में विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमालाओं से घिरा है जबकि त्रिकोण के कोने पर दक्षिण में अथाह हिन्द महासागर लहराता है, जहां श्रीलंका मुख्य भारतीय प्रायःद्वीप से टपक कर लटका हुआ सा प्रतीत होता है। जहाज ने रनवे पर पहुँच जगह बनाई। पायलट के कुछ बुदबुदाने के साथ गतिमान जहाज झटके से उठा और हवा में तैरने लगा। बाहर के नजारे दिखने लगे। 

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 32 – कच्छ उत्सव – भाग – 3 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 32 – कच्छ उत्सव – भाग – 3 ?

(2017)

आज उत्सव में हमारा चौथा दिन था। सुबह नाश्ते के बाद हम उत्सव के बाहरी हिस्से के बाज़ार में खरीदारी करने गए। इस बाज़ार में वे लोग अपनी दुकान सजाए हुए थे जो उत्सव के भीतर बड़ी राशि देकर दुकान किराए पर न ले सके। वास्तव में इस बाज़ार में बड़ी मात्रा में हमें  चीज़ें मिलीं। खरीदारी करने के बाद हम उत्सव के भीतरी अहाते में आर्ट ऐंड क्राफ्ट की दुकानों में सैर करते रहे।

शाम पाँच बजे  हमें काला डूंगर नामक स्थान पर ले जाया गया। यह कच्छ का सर्वोच्च स्थान है। यहीँ से पाकिस्तान की सीमा स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर से  सीढ़ियाँ तो बनी हैं पर वह भी थोड़ी ऊबड़ -खाबड़ हैं। सैनिकों का चेक पोस्ट भी बना हुआ है। ऊपर से सूर्यास्त देखने का आनंद बहुत ही निराला होता है। आकाश में रंग बदलता रहता है। सूर्यास्त के ठीक पहले आकाश में लालीमा -सी छा जाती है। सूरज अपनी किरणों को समेट लेता है और आसमान में एक विशाल लाल गेंद सा दिखाई देता है। कुछ ही क्षण में तीव्र गति से सूर्य ग़ायब सा हो जाता है।

वहाँ से निकलकर हम गांधी नु ग्राम आर्ट विलेज पहुँचे। यहाँ छोटी-छोटी झोंपड़ीनुमा दुकानें बनी हुई हैं। महिलाएँ काँच लगाकर चादरें काढ़ती हुई दिखाई दीं। हाथ से बनाई गई दरियाँ

थैले, जैकेट, दुपट्टे, बाँदनी के कपड़े, लाख की चूड़ियाँ बनाती वृद्धा महिलाएँ दिखीं। वनस्पतियों के  रंगों से ब्लॉक प्रिंट किए गए सूती थान, चादरें और कई  विविध प्रकार की वस्तुएँ वहाँ बनती हुई दिखीं। हमें न केवल आनंद मिला बल्कि कई जानकारियाँ भी मिलीं।

दिखने में अत्यंत साधारण कच्छी लोग इतने हुनरमंद हैं कि जितना भी गुणगान करें कम ही है।

हमने उत्सव में रहने के लिए चार ही दिन रखे थे और पाँचवे दिन सुबह नाश्ता खाकर हमें निकलना था। हम इसके आगे भुज में आसपास की जगहों का दर्शन करना चाहते थे।

पाठकों से निवेदन है कि वे जब उत्सव के लिए जाएँ तो अवश्य ही छह दिनों का कार्यक्रम बनाकर जाएँ। दिन कम होने के कारण हम आशापुरा मंदिर और कोटेश्वर मंदिर न देख पाए इसका हमें आज भी दुख है।

हम अपनी गाड़ी अर्थात जिस इनोवा से भुज स्टेशन से उत्सव तक गए थे अब उसमें  ही बैठकर भुज आए। हमारे रहने की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। दोपहर का भोजन खाकर हम चार बजे के करीब स्वामी नारायण मंदिर देखने गए। यह मंदिर न केवल विशाल और सुंदर है बल्कि इसपर जो नक्काशियाँ हैं वह देखने लायक है।

शाम को हम पास के ही एक संग्रहालय में गए। यह संग्रहालय शाम के सात बजे तक खुला रहता है। छोटी -छोटी मिट्टी से बनी कुटिया में प्रदर्शन के लिए विविध वस्तुएँ रखी गई  हैं। यहाँ की वस्तुओं को देखकर कच्छी लोगों के जीवन का परिचय मिलता है। वे न केवल कठोर परिश्रमी हैं बल्कि वे अत्यंत साधारण जीवन यापन करते हैं। प्रकृति के प्रति अत्यंत सजग भी हैं।

उस रात हमने रात के भोजन के लिए  कच्छी  थाली मँगवाई। विशाल थाली में दस कटोरियाँ लगाई गई  थीं। छाछ से प्रारंभ कर कई प्रकार की चटनियाँ, बाजरे की रोटियाँ वह भी घी में डूबी हुई, कई प्रकार की सब्ज़ियाँ थाली में परोसी गई और खूब प्रेम से भोजन करवाया गया।

दूसरे दिन हम लखपत के लिए रवाना हुए।

लखपत में एक गुरुद्वारा है। इस गुरद्वारे में गुरुनानक देव साहेब की पादुका है और पालकी है। हमने यहाँ दर्शन किए। यहीं से मक्का की यात्रा नानक जी ने की थी।

अगली सुबह हम धोलावीरा के लिए निकले। यह सिंधु घाटी सभ्यता की निशानी है। यह भुज से दूर है। पर सुबह सुबह अगर पर्यटक निकल जाएँ तो देर शाम तक लौटकर आ सकते हैं। मार्ग में ऊँटों के झुंड दिखे साथ में काले वस्त्र धारी म। इलाएँ दिखीं जो चाँदी के आभूषणों और माथे पर टिकली से सुसज्जित थीं।

धोलावीरा में चार हज़ार वर्ष पूर्व बसे र के खंडहर देखने को मिले। भरपूर पानी की व्यवस्था  हुआ करथी थी जहाँ वर्षा का जल जमा किया जाता था। शहर के चारों ओर नालियों की व्यवस्था थी। यह हड़प्पा शहर के नाम से जाना जाता है।

मैं पहली बार 2005 में इस स्थान का दर्शन करने गई  थी। तब केवल एक विशाल प्रवेश द्वार सा बना था। अब 2017  में यहाँ एक संग्रहालय भी देखने को मिला। इस संग्रहालय में उत्खनन के दौरान मिली वस्तुएँ रखी गई  हैं। कई  प्रकार के बर्तन दिखे जो मिट्टी से बने हैं। उस समय जो ज़ेवर पहने जाते थे वे भी दिखे। बच्चों के लिए खिलौने आदि दिखाई दिए।

मार्ग में नमक बनते तालाब दिखाई दिए। छोटे छोटे गड्ढों में पानी जमा दिखा और उसके चारों ओर नमक बनता दिखा। पानी की सतह चमकदार काँच के समान दिख रही थी। यातायात के लिए बनी सड़कें अत्यंत मुलायम और साफ़ हैं।

अगले दिन भुज रेलवे स्टेशन से हम सब  मुंबई लौट आए। मुम्बई  से पुणे लौटने के लिए इनोवा की व्यवस्था रखी गई थी। हम सब यायावर दल के सदस्य आराम से सुंदर व सुखद स्मृतियों के साथ अपने घर लौट आए।

हमारे देश में इतनी विविधताएँ हैं और दर्शनीय स्थान हैं कि हम आजीवन भी भ्रमण करते रहे तो पर्याप्त न होगा।

हर भारतीय को चाहिए कि वह अपने देश के हर राज्य का भ्रमण करे तभी अपनी संस्कृति से हम परिचित होंगे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्यक शनिवार प्रस्तुत है  यात्रा संस्मरण हम्पी-किष्किंधा यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – हम्पी-किष्किंधा यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

रामायण केंद्र भोपाल के अध्यक्ष डॉ राजेश श्रीवास्तव जी  ने जून 2023 में हम्पी-किष्किन्धा भ्रमण की योजना का विचार जब हमसे साझा किया तो समझ लीजिए मन की अभिलाषा पूरा होने की आशा जाग गई। हम्पी विश्व विरासत है। वह जगह है, जहाँ मुस्लिम आक्रांताओं ने सोलहवीं सदी में सनातन सभ्यता पर सबसे घृणित अत्याचार किए थे। जिसके जीवंत प्रमाण हम्पी के विध्वंस अवशेषों में बिखरे पड़े हैं। जबसे नीलकंठ शास्त्री की ‘दक्षिण भारत का इतिहास’ शौक़िया तौर पर पढ़ा था। तभी से हम्पी देखने की इच्छा बलवती थी। दूसरा आकर्षण किष्किन्धा क्षेत्र में आंजनेय पहाड़ी पर हनुमान जी की जन्म स्थली के दर्शन करना था। ये दोनों ही इच्छाएँ एक साथ पूरी होने का अवसर सामने था। हमने उनके प्रस्ताव पर तुरंत हामी भर दी।

रामायण केंद्र भोपाल के सानिध्य में 28 सितंबर 2023 से 02 अक्टूबर 2023 की कालावधि में सोलह सदस्यीय दल के साथ हमने भोपाल से हम्पी-किष्किन्धा-बादामी यात्रा संपन्न की थी। यात्रा के तीन उद्देश्य थे। पहला हॉस्पेट में रामायण सम्मेलन में भागीदारी, दूसरा हनुमान जन्म स्थली आंजनेय पर्वत की तीर्थ यात्रा और तीसरा विश्व विरासत हम्पी और बादामी पर्यटन। यह क्रम इसी तरह पूरा नहीं हुआ। हम्पी पर्यटन और रामायण सम्मेलन पहले दिन, आंजनेय पर्वत यात्रा दूसरे दिन और बादामी भ्रमण तीसरे दिन सम्पन्न हुआ। यह यात्रा वृतांत उसी क्रम में वर्णित है।

28.09.2023 को सुबह नौ बजे भोपाल से मुंबई की उड़ान है। यह उड़ान दोपहर ग्यारह बजे मुंबई पहुँचेगी। मुंबई से हुबली उड़ान तीन बजे के लगभग है। मुंबई उड़ान के लिए सात बजे भोपाल स्थित राजा भोज हवाई अड्डा पहुँचना है। इसका मतलब घर से सुबह साढ़े छै बजे निकलना। सुबह साढ़े चार का अलार्म भरा था, लेकिन दिमाग़ का अलार्म चार बजे ही बजने लगा। पहलवानी दिनों में यह सोच बचपन से घुट्टी में पिलाई गई है कि नींद खुलने के बाद बिस्तर पर पड़े रहने वाला कुंभकरण होता है। वह हनुमान भक्त नहीं हो सकता। लिहाज़ा बिस्तर छोड़ दिया। सबसे पहले यात्रा के साथी घनश्याम जी और जवाहर जी से मोबाइल पर बात हुई। तय कार्यक्रम अनुसार साढ़े छै बजे डॉक्टर जवाहर कर्णावत और घनश्याम मैथिल के साथ ओला टैक्सी से हवाई अड्डा निकलना था, लेकिन घनश्याम जी के पुत्र विकल्प घनश्याम ने विकल्प सुझाया कि वे हम तीनों को ख़ुद के वाहन से हवाई अड्डा छोड़ देंगे। जवाहर जी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि आज अयोध्या बाईपास पर बागेश्वर धाम के स्वयंभू संत के प्रवचन होने के कारण इस रास्ते पर कई अवरोध और विचलन मार्ग होंगे, इसलिए वीआईपी रोड़ से ही हवाई अड्डा चला जाए। ठीक सवा छै बजे जवाहर जी लगेज सहित हमारे घर पहुँचे। वे लगेज रखकर खड़े ही हुए थे। तभी विकल्प ने गाड़ी घर के सामने लगा दी। हम सात बजे के कुछ पहले हवाई अड्डा पहुँच गए। जवाहर जी की टिकट अलग से बनी थी। वे अंदर चले गए। हमारी टिकट राजेश जी के समूह के साथ थी। हमको राजेश जी का इंतज़ार करना पड़ा। वे पूरी टीम सहित सवा सात बजे हवाई अड्डा गेट पर पहुँचे तब हमने अंदर प्रवेश किया।

हवाई अड्डे पर औपचारिकता पूरी करके कुर्सियों पर बैठ बोर्डिंग का इंतज़ार करने लगे। अवसर का लाभ उठाते हुए, डॉ राजेश श्रीवास्तव ने सभी को अवगत कराया कि यात्रा का मुख्य उद्देश्य हम्पी में स्थित आंजनेय पर्वत, किष्किंधा में हनुमान जी की जन्मस्थली तथा आसपास के धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर साहित्यिक शोध पत्र प्रस्तुत करना है।  हनुमान महोत्सव का मुख्य आयोजन 29 सितंबर को कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो बी. डी. परमशिवमूर्ति के मुख्य आतिथ्य में संपन्न होना है। इस अवसर पर रामायण केन्द्र की पत्रिका उर्वशी के हनुमान विशेषांक सहित अन्य पुस्तकों का लोकार्पण भी किया जाएगा। हम्पी विश्वविद्यालय के अनेक प्रोफेसर इस आयोजन में हनुमान प्रसंग पर अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए।

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – कच्छ उत्सव )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 31 – कच्छ उत्सव – भाग – 2 ?

(दिसंबर  2017)

अभी हम कच्छ के टेंटों में ही रह रहे थे। तीसरे दिन प्रातः 5.30 बजे हमें अपने टेंट के बाहर

तैयार होकर उपस्थित रहने के लिए कहा गया।

सही समय पर बैटरी गाड़ी आई और हमें थोड़ी दूरी पर जहाँ कई ऊँट की गाड़ियाँ खड़ी थीं वहाँ ले जाया गया।हम सखियाँ ऊँट गाड़ी में बैठ गईं। यह  बैल गाड़ी जैसी ही होती है और इसमें मोटा गद्दा बिछाया हुआ होता है।यह गाड़ी बैल गाड़ी से थोड़ी ऊँची होती है कारण ऊँट की ऊँचाई के अनुसार गाड़ी रखी जाती है।गाड़ी में लकड़ी का एक चौपाया मेज़ भी हीती है ताकि ऊँट गाड़ी में चढ़ने में सुविधा हो।

अभी हवा सर्द थी।साथ ही आकाश स्वच्छ काला -सा दिख रहा था।असंख्य तारे जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ आसमान और चमकते सितारे देखकर हम मुग्ध हो उठा।बड़े शहरों में प्रदूषण इतना होता है कि न तो आकाश नीला दिखता है न सितारे ही दिखाई देते हैं। अभी अंधकार था।ऊँट भी बहुत धीरे -धीरे चल रहे थे मानो वे अभी भी सुस्ताए हुए से थे।हम उबड़- खाबड़ मार्ग पर से हिचकोले खाते रहे। पंद्रह बीस मिनिट बाद हम फिर नमक से भरी सतहवाली जगह पर पहुँच गए। खुले मैदान पर हवा और भी सूखी और सर्द थी।हमें जहाँ ठहराया गया था वह एक टीले के समान जगह थी।

हम इस स्थान पर सूर्योदय देखने के लिए उपस्थित हुए थे।आँखों के सामने श्वेत बरफ़ जैसी सतह थी तो अभी अँधकार के कारण  राख रंग सी दिख रही थी।पौ फटते ही वह सतह चाँदी की दरी जैसी दिखने लगी।समय तीव्र गति से चल रहा था और आँखों के सामने कलायडोस्कोप में जैसे चंद काँच की चूड़ियों के टुकड़े  अपना आकार बदल लेती है ठीक उसी  तरह इस खारे सतह पर रंगों की छटाएँ बदल रही थीं। आसमान में लाल सा विशाल गेंद उभर आया और नमक पर लाल छटाएँ चमक उठीं।अभी नयन भरकर उस सौंदर्य का आनंद ले ही रहे थे कि आकाश के सारे तारे गायब हो गए। आसमान नीला -सा दिखाई देने लगा ।आकाश सूरज की किरणों से सुनहरा सा हो गया और नमक वाली सतह सुनहरी हो गई। क्या ही जादुई दृश्य था! हम सब निःशब्द , अपलक इस अपूर्व सौंदर्य को बस निहारते ही जा रहे थे।आकाश चमकने लगा। हवा में जो सर्दपन था वह खत्म हुआ ।सुबह के सात बज चुके थे और हम सब सखियाँ सूर्यदेव को प्रणाम कर अपनी ऊँटगाड़ी में जाकर बैठ गईं।

हम लोग जब सूर्यदेव के आगमन की प्रतीक्षा में थे तब बड़े फ्लास्क में चाय लेकर कच्छी महिलाएँ घूम रही थीं। यहाँ की चाय थोड़ी नमकीन -सी होती है क्योंकि ऊँट के दूध का उपयोग भी यहाँ होता है। ये कच्छी महिलाएँ सुँदर काँच लगाए घाघरा पहनी हुई थीं।पैरों में मोजड़ियाँ थी।शरीर भर में अनेक प्रकार के चाँदी के मोटे -मोटे आभूषण भी थे।लंबा सा दुपट्टा इस तरह शरीर को लपेटे हुए था कि शरीर का कोई भी हिस्सा खुला नज़र न आया। इस तरह वे स्वयं को ठंड से बचाती हैं।उनके कपड़े थोड़े मोटे से होते हैं।अधिकतर महिलाएँ चॉकलेटी घाघरा और काले दुपट्टे में थीं।यहाँ महिलाएँ बेखौफ़ घूमती हैं।वे चाय और कुछ नाश्ता बेच रही थीं।

प्रकृति का सुंदर दृश्यों का आनंद लेकर हम सब लौट आए।ऊँट गाड़ी से उतरे  तो वहीं पर बैटरी गाड़ियाँ खड़ी थीं।डायनिंग रूम के पास बैटरीकार से हम पहुँचाए गए। कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन नाश्ते में खाकर हम अपने टेंट पर लौट आए।

अब सभी ने थोड़ा आराम किया और उसके बाद स्नान करके तैयार होकर दस बजे हम लोग पुनः भ्रमण के लिए निकले।

यहाँ बता दें कि हम जब कच्छ उत्सव के लिए पैसे भरते हैं तो जिन जगहों के भ्रमण की बातें इस संस्मरण में लिख रहे हैं उसकी व्यवस्था बस द्वारा की जाती है। यह पाँच या छह दिनों के लिए ही होता है।इसके लिए अलग से धनराशि देने की आवश्यकता नहीं होती।

हम लोग मांडवी के लिए निकले।सभी से कह दिया गया था कि अगर बस के पास दस बजे उपस्थित न हुए तो बस प्रतीक्षा नहीं करेगी।

हम मांडवी पहुँचे। यहाँ का सफर तय करने के लिए हमें डेढ़ घंटे लगे।सड़क संकरी थी पर बहुत ही साफ़ और अच्छी।

सबसे पहले विजय विलास पैलेस देखने के लिए निकले।

युवराज विजय राजी के लिए यह महल बनावाया गथा था।यह उनके ग्रीष्मकालीन अवधि में आराम से रहने के लिए बनवाया गया महल था। इसका निर्माण 1920 में प्रारंभ हुआ और 1929 में पूर्ण हुआ।

यह महल लाल रंग के पत्थर से बनाया गया था जिसे बलुआ पत्थर कहते हैं। इसकी वास्तुकला विशिष्ट राजपूत वास्तुकला से मिलती -जुलती कला है। यहाँ इमारत के सबसे ऊपर खंभों पर एक  ऊँचा छतरीनुमा  गुंबद बनाया हुआ है।, किनारों पर कुछ ऐसे झरोखे हैं जो झूलते से लगते हैं। रंगीन काँच की खिड़कियाँ बनी हुई है, नक्काशीदार पत्थर की जालियाँ भी बनी हुई है।

हर कोने में गुंबददार बुर्ज फैला सा दिखता है। हभ सभी सहेलियाँ महल के ऊपर तक पहुँचीं तो वहाँ से चारों ओर का दृश्य बहुत आकर्षक दिख रहा था।

यहाँ इस  महल को ठंडा रखने के लिए बगीचों में  संगमरमर के फव्वारे बने हुए हैं। विविध पानी के चैनलों द्वारा पानी बहता है और महल को ठंडा रखता है।ऐसी व्यवस्था जयपुर के महलों में भी देखने को मिला है।कितनी अद्भुत टेक्नोलॉजी है कि कई सौ वर्ष पूर्व भी हमारे देश में ऐसी व्यवस्थाएँ हुआ करती थीं। जालियों, झरखों , छत्रियों , छज्जों पर तथा दीवारों पर पत्थर की नक्काशी है जो आकर्षक हैं।यहाँ कई  हिंदी फिल्मों की शूटिंग की जाती है।

यहाँ से निकल कर हम लोगों को श्यामजी कृष्ण वर्मा समाधि स्थल इंडिया हाउस ले जाया गया।यह भी मांडवी में ही स्थित  है।

श्मयामजी कृष्ण वकील थे। उनकी पढ़ाई भी लंदन में ही हुई थी।वे आज़ादी से पूर्व लंदन में रहते थे। जिस घर में वे रहते थे उसे उन्होंने इंडिया हाउस नाम दिया था। भारत से लंदन जानेवाले सभी विद्यार्थी ख़ासकर जो स्वाधीनता संग्रामी थे इसी घर में रहा करते थे।उन सबकी मीटिंग भी यहीं हुआ करती थी। सन 1905 में

यह घर लिया गया था।यह एक दृष्टि से भारतीय छात्रों का छात्रावास था।यहाँ से भारतीय छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति भी दी जाती थी। यहीं पर वीर सावरकर,भीखाजी कामा तथा लाला हरदयाल और मदनलाल ढींगरा भी रह चुके थे।

ब्रिटेन पुलिस को जब इस बात की खबर हुई तो घर पर छापा मारा गया और वहाँ रहनेवाले छात्र अन्य देशों में चले गए। 1910 में यह संस्था बंद हो गई।

श्यामजी कृष्ण वर्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ स्विटज़रलैंड चले गए। उन्होंने वहाँ की सरकार से निवेदन किया था कि अगर उन दोनों की मृत्यु हो जाए तो उनके अंतिम संस्कार के बाद उनकी अस्थियाँ कलश में रखी जाएँ और जब भारत से कोई लेने आए तो दे दिया जाए।इन सबके लिए बड़ी धन राशि भी सरकार के पास जमा रखी गई  थी।

सन 2010 में नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री रहे तो अत्यंत सम्मान के साथ दोनों कलश भारत ले आए। यहीं मांडवी में इंडिया हाऊस की प्रतिकृति बनाई गई। वही लाल,  दो मंज़िली इमारत। बड़े से बगीचे में श्यामजीकृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी की बड़ी -सी मूर्ति भी बनाई गई। एक संग्रहालय है।दोनों की समाधि है तथा काँच की अलमारी में पीतल के कलश में फूल रखे गए  हैं।अत्यंत सुंदर आकर्षक इमारत है।सीढ़ियों से ऊपर जाते समय उस काल के विविध सावाधीनता संग्रामियों की तस्वीरें लगी हैं।तथा अन्य चित्रों के साथ इतिहास भी लिखा गया है।यह मेरा सौभागय रहा कि लंदन के उत्तरी भाग में क्रॉमवेल एवेन्यू हाईगेट में स्थित इस इमारत को बाहर से देखने का मौका मिला था।आज कोई और वहाँ अवश्य ही रहता है पर दीवार पर गोलाकार में एक संदेश है – विनायक दामोदर सावरकर – 1883-1966

भारतीय देशभक्त तथा फिलोसॉफर यहाँ रहते थे। लंदन में सजल नेत्र से बाहर से ही राष्ट्र के महान सपूत को नमन कर आए थे। पर मांडवी में फिर एक बार इंडिया हाउस के दर्शन से मैं पुनः भालविभोर हो उठी। लंदन, अंदामान और मांडवी सब जगह के इतिहास ने कुछ ऐसे तथ्यों को सामने लाकर खड़ा कर दिया था कि अपने भावों पर नियंत्रण रखना कठिन था।

मांडवी के इस इंडिया हाउस का दर्शन कर हम सब पुनः कच्छ उत्सव के टेंटों में लौट आए। सभी थके हुए थे। शीघ्र रात्रिभोजन कर टेंट में लौट आए।उस रात  हमलोग मनोरंजन के कार्यक्रम देखने नहीं गए बल्कि यायावर दल रात को देर तक देश की स्वाधीनता की लड़ाई की चर्चा करता रहा।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

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ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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