हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कथा-कहानी – पापा – गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

श्री राजेन्द्र निगम

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में  स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14  पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री निमिषा मजुमंदार जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “आश्रय”।)

☆  कथा-कहानी –  पापा – गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

आकाश से बरसतीं अग्नि-ज्वालाएँ मानो कम हों, इसलिए वाहनों का धुआँ और साथ ही हार्न की कर्कश आवाजें… मनुष्य की सहनशक्ति की भी कोई सीमा तो होगी ! ट्राफिक सिग्नल की लाल रोशनी देखकर नेहा का पैर ब्रेक पर चला गया | ‘ओह, एक सौ अस्सी सेकण्ड… और अहमदाबाद की यह गर्मी…!’

सिर पर बँधे दुपट्टे को उतारो तो दिमाग और मन दोनों को उबाल के लिए मजबूर करनेवाली गर्मी… और गोगल्स का बिल्कुल भी लिहाज रखे बगैर आँख में अँगारें को आँज देनेवाली दुपहर की धूप…! ‘अब बरसात हो जाए तो अच्छा !’ तब बेचैनी पसीना बनकर बह रही थी |

वैसे तो वह कल शाम से ही व्याकुल थी | समीर ने अल्टीमेटम दे दिया था, “नेहा, तुम्हें दो-तीन महीने का वक्त देता हूँ, निर्णय कर लेना | अब और अधिक राह नहीं देख सकते | हम चार वर्ष से साथ घूम रहे हैं | अब या तो विवाह कर लें या फिर अलग हो जाएँ| मेरे मम्मी-पापा अब जल्दी कर रहे हैं | तुम्हें तो किसी से कुछ पूछना नहीं है, मात्र एक निर्णय ही लेना है !”

नेहा उसे किस तरह समझाए कि वह एक निर्णय लेना ही तो बहुत जटिल है न ! पापा को ‘आनंद सीनियर सिटीजन्स केयर सेंटर’ में रखने के लिए उसने उनका नाम तो दर्ज करवा दिया था | दो बार वह अचानक गई थी, यह देखने के लिए कि वे बुजुर्गों की देखरेख किस प्रकार करते हैं | छह वर्ष पहले निदान हुआ था कि पापा को अल्झाइमर हुआ है और तब यह मानने में ही नहीं आ रहा था कि पूरी जिंदगी सक्रिय रहे पापा को यह रोग कैसे हो सकता है ? निवृत्त होने के बाद भूलने की शुरुआत घर के रास्ते को भूलने से हुई थी | और फिर भूलना बढ़ता गया और धीरे-धीरे वे सब कुछ भूलते गए |

जिस पापा को उनकी दोनों बेटियों नेहा-निराना के बचपन की मील के पत्थर जैसे सभी दिनांक ठीक से याद रहते थे, कि किस तारीख को कब वह उल्टी पड़ी, कब घुटने के बल चलने लगी, किस तारीख को पहला कदम रखा, आज उन्हीं पापा को आज का दिनांक मालूम नहीं है ! अपने हाथों नन्हीं नेहा को कौर खिलानेवाली पापा को आज उनके स्वयं के मुँह में डाले गए कौर को चबाने का ध्यान भी नहीं है ! नेहा के स्कूल के स्पोर्ट्स डे, पेरेंट्स-टीचर मीटिंग के बारे में कभी न भूलनेवाले उसके प्रिय पापा नेहा को ही नहीं पहचान रहे हैं !

नेहा की माँ जब तक थी, तब तक परेशानी नहीं थी, लेकिन दो वर्ष पहले कोरोना के दौरान वे गुजर गईं और तब से ही नेहा की जवाबदारी बढ़ गई | नेहा ऑफिस जाती, उतने समय के लिए केयर-टेकर रमेशभाई आते थे, लेकिन शेष समय पापा नेहा पर ही पूर्ण रूप से अवलंबित थे | परिस्थिति इतनी खराब हो गई थी कि घर पर यदि ताला न लगाया हो और नेहा बाथरूम जाकर वापिस आए, तब तक पापा बाहर निकलकर किसी भी दिशा में चले जाते| नेहा दौड़ती-दौड़ती सब रास्तों पर तलाश करती, तब कहीं जाकर वे मिलते | उन्हें साथ लेकर कहीं जाना तो पूरी तरह असंभव था |

डॉक्टर ने कहा था कि ऐसे रोगी बहुत अधिक जीवित नहीं रह सकते हैं | समीर के साथ परिचय बढ़ा, तब मम्मी थी, लेकिन अब उनकी गैर-मौजूदगी में पापा तो नेहा की ही जवाबदारी में थे | विवाह के बाद वह ससुराल जाए, तो वहाँ समीर के मम्मी-पापा थे, इसलिए पापा को साथ ले जाना संभव नहीं था | शायद समीर भी इस जिम्मेदारी को उठाने की तैयारी नहीं थे और साथ ही नेहा को भी भावी वैवाहिक जीवन के संबंध में उसके रंगीन सपने थे और उसमें पापा कहीं फिट नहीं बैठते थे | समीर उसे बहुत पसंद था | उसे गँवाने के बारे में तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी | अब तक नेहा विवाह की बात को किसी तरह आगे बढ़ाती रही, लेकिन समीर अब प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था |

दीदी ने इस उलझन को ऐसे सुलझाया कि पापा को ‘आनंद केयर सेंटर’ में छोड़ दिया जाए | बेचारी दीदी ! वह इस सलाह के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकती थी | उसके घर में वृद्ध सास-ससुर और दो बालक, ऐसे में वह पापा की सँभाल कैसे करें ! इस समाधान को उसने मजबूरी में स्वीकार तो कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि यह बोलने में जितना सहज लग रहा है, वैसा यह है नहीं !

“मेडम… ओ मेडम…”, कान में पड़े ये शब्द बिल्कुल नजदीक से बोले गए थे, लेकिन विचारमग्न नेहा का ध्यान खींचने में वे सक्षम नहीं थे |

पुनः आवाज आई | इस बार संबोधन कुछ अलग था, “दीदी, मात्र दो सौ रुपयों की जरूरत है, दे दो न !” इस वाक्य ने नेहा का ध्यान खींचा | उसने देखा कि एक नौ-दस वर्ष का बालक स्कूटर के पास हाथ लंबा कर खड़ा हुआ था | बहुत समय से बिना धुला, अच्छे बड़े माप का सफेद बुशर्ट और खाकी चड्डी, जो उजागर कर रहे थे कि वे शायद उतरे हुए किसी अन्य से मिले होंगे | नाड़े की डोरी से सलाई जैसी कमर पर बाँधी हुई चड्डी के बाहर शर्ट का एक भाग लटक रहा था | पीछे ‘फटा या फटेगा’ जैसे बेकपेक पुस्तकों का अनिच्छापूर्वक भार झूल रहा था | पैर में स्लीपर थे,मानो दो-तीन मालिकों के उपयोग के बाद वे लिए गए हों | इस पूरे निस्तेज चित्र से अलग दो पानीदार आँखों ने नेहा को किसी चुंबक की तरह खींचा |

कुछ मजाक के सुर में और कुछ उसको वहाँ से खदेड़ देने के आशय से नेहा के मुँह से निकला, “अरे, तुम तो ऐसे माँग रहे हो, मानो मैं पिछले जन्म की तुम्हारी देनदार हूँ ! कोई माँगता है तो दो-पाँच रुपए माँगता है | इस तरह कोई दो सौ रुपए माँगता है ? कुछ होश भी है ? चलो भागो |”

लड़के की भागने की तैयारी बिल्कुल भी नहीं थी, “दीदी, मेरी दादी बहुत बीमार है | यह देखो, डॉक्टर की पर्ची | उसकी दवाई लाने के लिए चाहिए | सच कह रहा हूँ |”

उसके हाथ में वास्तव में डॉक्टर की पर्ची थी | ट्राफिक सिग्नल की रोशनी हरी होने ही वाली थी | नेहा को उस पर दया आई |

कुछ अधिक पूछताछ के मकसद से उसने पूछा, “सिविल अस्पताल जाओगे तो मुफ्त में दवाई मिल जाएगी !”

वह लाचार मुँह ऊँचाकर बोला, “दीदी, सिविल अस्पताल की दवाई लागू नहीं होती, वह गर्म पड़ती है | दादी को इस डॉक्टर की दवाई ही माफिक रहती है | प्लीज, जल्दी दो न ! मुझे स्कूल में जाने की देरी हो रही है !”

“तुम्हारे मम्मी-पापा ?”

“वे तो मजदूरी पर गए हैं | वे काम न करें, तो हम खाएँ क्या ?”

नेहा का हाथ अनायास ही पर्स में चला गया | उसने पचास रुपए दिए | उसके हाथ में जैसे ही रुपए आए, वह तो पैरों में पंख आएँ हो, उस तरह उड़ गया | तब ही ट्राफिक की हरी रोशनी हो गई, इसलिए वह किस ओर गया, यह देखने का वक्त ही नहीं रहा |

नेहा उसके स्वयं के जंजाल में ही इतनी उलझी हुई रहती थी कि वह लड़का शायद उसे याद भी नहीं आता, लेकिन सप्ताह के बाद ऑफिस जाते समय वह फिर ट्राफिक सिग्नल पर रुक गई | नेहा का चेहरा दुपट्टे से ढँका हुआ था और वह लड़का शायद उसे भूल गया होगा, इसलिए उसके पास आकर उसी तरह से उसने पुनः दो सौ रुपए माँगे | इस बार भी वही… दादी की बीमारी का बहाना ! उस विभूति को भूल जाएँ, ऐसी वह कहाँ थी ! नेहा उसे तुरंत पहचान गई |

अब मन में शंका का कीड़ा उभरा, ‘इस लड़के को हर वक्त दो सौ रुपए जैसी बड़ी रकम की जरूरत ही क्यों पड़ती है ? यह कोई उल्टा-पुल्टा धंधा तो नहीं करता होगा ? जुआ… या फिर ड्रग्स…? वैसे तो लगता है कि पढ़ने के लिए जाता है, तो फिर…? इसके माँ-बाप को मालूम होगा ? इतनी कम उम्र में ऐसे उल्टे-पुल्टे धंधे करता हो तो, किसी को तो इसे रोकना चाहिए, नहीं तो इसकी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी ! आज तो देखना ही पड़ेगा कि यह इन रुपयों का क्या करता है !’

नेहा, “तुम्हें मैं पैसे तो दूँगी, लेकिन तुम मुझे तुम्हारे घर ले जाओ, तुम्हारी दादी के पास !”

लड़का एक पल के लिए रुका और फिर तुरंत बोला, “हाँ,चलिए | आपको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है न ? आप खुद ही देख लिजिए |”

आगे वह लड़का दौड़ रहा था और पीछे था, नेहा का स्कूटर… कुछ दूर एक बहुत  गंदी झोपडपट्टी के आगे वे पहुँचे |

“अब आगे स्कूटर नहीं जाएगा, इसे दीदी, यहीं रख दो |”

दुपहर का वक्त था, इसलिए इक्के-दुक्के व्यक्ति के अलावा वहाँ ख़ास कोई बस्ती दिखाई नहीं दे रही थी | कुछ अधनंगे लड़के खेल रहे थे और वे कुतूहल से नेहा को ताक रहे थे | उस नजर से परेशान होकर उसे वापिस लौटने की इच्छा हुई, लेकिन फिर मन कड़ाकर वह आगे बढ़ी | कुछ कदम चलकर वे लोग एकदम एक जीर्णशीर्ण झोंपड़ी के पास पहुँचे | लड़के के इशारा करने पर नेहा ने अंदर नजर घुमाई, झोंपड़ी जैसी ही जीर्ण खाट पर उम्र के पड़ाव पर पहुँची एक वृद्धा हाथ-पैर समेटकर औंधी पड़ी हुई खाँस रही थी | शरीर में सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी ही थे | यदि वे खाँसती न होती, तो शंका होती कि वे जीवित भी है या नहीं | पास रखी हुई मेज के तीन पाए थे और चौथे के लिए ईंटो के थप्पे का सहारा था | मेज पर दवाई की एक खाली बोतल और एक पीतल का ग्लास रखा हुआ था | नेहा की नजर जल्दी से झोंपड़ी में घूम गई | खूँटी पर दो-चार चीथंडे, एक बगैर घाट की पतरे की पेटी और कोने में ढक्कनवाले बगैर टींचे हुए दो-तीन डिब्बे, बस इतना ही माल असबाब था | ‘इसमें चार व्यक्ति किस तरह रहते होंगे ? अरे ! इससे तो मवेशियों को बाँधकर रखने का स्थान भी अच्छा होता है !’

लड़के पर शंका करने के कारण नेहा को स्वयं पर इतनी शर्म आई कि वह एक भी अक्षर बोले बगैर वहाँ से निकल गई |

पूरे रास्ते मन पर वह लड़का ही छाया रहा | रिसेस में रीना और शिल्पा के साथ लंच लेते समय भी नेहा उसकी ही बात करती रही | “रीना, लोग इतने गरीब होते हैं, वह यदि मैंने आज अपनी नजरों से नहीं देखा होता, तो मुझे मालूम ही नहीं होता ! क्या खाते होंगे और वे कैसे जीते होंगे ? ईश्वर ने हमें भरपूर दिया है ! हमें कुछ करना चाहिए ?”

रीना के पहले शिल्पा कूदी, “यार, तुम कितने लोगों के लिए करोगी ? ऐसे तो इस देश में लाखों लोग हैं ! हम पूरे बिक जाएँ, तब भी उनके पूरे खाने का इंतजाम नहीं कर सकते हैं | उसे भूल जाओ और इस समाजसेवा के भूत को सिर से उतार दो !”

लेकिन नेहा का भूत भला जल्दी उतरनेवाला कहाँ था ! उसके मन पर तो साक्षात् दरिद्रनारायण की मूर्ति हावी हो गई थी | अब तो रीना भी साथ आने के लिए तैयार हो गई थी | करीब तीन दिन के बाद शाम को एक थैला भरकर कपड़े, एक बड़े बैग में किराने का सामान और कुछ फल आदि लेकर वे दोनों झोंपडपट्टी के पास पहुँच गई | इस वक्त सायंकाल था, इसलिए बहुत लोग दिखाई दे रहे थे | वहाँ पहुँचकर उन्होंने आवाज लगाईं, “कोई है ?” यह सुनकर एक दुबली-पतली करीब चालीस वर्ष की एक बाई बाहर आई |

“किसका काम है ?” के जवाब में नेहा ने उस लड़के की बात की | यह भी कहा कि वह यहाँ पहले आई थी | उस बाई के चेहरे पर अबूझ भावों का आन-जाना होता रहा | पूरी बात हो गई तब नेहा ने यह और कहा कि ये सब वस्तुएँ उन्हें और विशेष तो उनके लड़के को देने के लिए आई है |

अब उस महिला के चेहरे पर दया-मिश्रित मुस्कान आ गई, “अरे बहन, वह शनिया आपको बना गया | आपके जैसी पढ़ी-लिखी उसकी बातों में आ जाती हैं और मुआ वह अच्छा रुपए बना लेता है | वह कोई मेरा लड़का नहीं है… वह तो मगपरा के झोंपड़े में रहता है… वह तो मेरी बुढ़िया के बहाने… सब से रुपया लेता रहता है | दिन में तो मैं मजदूरी पर जाती हूँ, इसलिए वह उसका मनपसंद कुछ करता रहता है | यह तो अब कैसे मालूम कि उसने कितनों से कितने रुपए लिए होंगे ?”

नेहा तो आघात से वहीं ढेर जैसी हो गई | ‘इतना-सा लड़का उन्हें बना गया ? ऐसी मूर्ख तो वह कभी बनी नहीं थी ! उसने वे सब वस्तुएँ उस बाई को दे दीं | बाई तो खुशी से पागल ही हो गई | वह नेहा को खुश करने के लिए शनिया को गालियाँ देती रहीं… लेकिन नेहा वह सब सुनने की हालत में नहीं थी, मौन रहते हुए वह रीना का हाथ खींचकर चल दी|

समीर को कहा तो वह हँस दिया, “नेहा, वह इतना-सा बच्चा, तुम्हें उल्लू बना गया !”

वास्तव में उल्लू बना गया ! नेहा को स्वयं पर बेहद गुस्सा आ रहा था | नेहा की तो हालत अब ऐसी थी कि रास्ते पर उस लड़के जैसा कोई नजर आए, तो उसके पैर अपनेआप स्कूटर के ब्रेक पर चले जाएँ ! नेहा को यह विचार सतत बेचैन करता था कि ‘लड़का आखिर उस पैसे का क्या करता होगा ? उसे जब वह याद आता तो साथ ही इतना गुस्सा भी आता कि यदि वह नजर आ जाए, तो उस पर दो झापट लगाकर उसे सीधा कर दे !

नेहा को अधिक राह नहीं देखनी पड़ी ! पंद्रह दिन भी नहीं गुजरे थे कि वह नेहा की नजर के सामने चौराहे पर दिखाई दिया | वह तो पूरी घटना से अनजान था, इसलिए नेहा को देखते ही अन्य सब स्कूटरवालों को छोड़कर नेहा के पास पहुँच गया | वही निर्दोष चेहरा और करुणामय आवाज, “दीदी, अच्छा हुआ, आप मिल गईं | डॉक्टर ने दादी को नई दवाई लिखी है | सिर्फ दो सौ रुपए चाहिए, दो न ?”

नेहा को गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि उसे एक जोरदार थप्पड़ लगा दे, लेकिन उसने शांति बनाए रखी | सिग्नल खुलने में अभी कुछ सेकंड की देर थी और उसने पर्स में से दो सौ रुपए उसे दिए | वह दौड़ा | नेहा ने भी स्कूटर दौड़ाया, लेकिन ट्राफिक के कारण उसे कुछ देर हो गई और वह आँख से ओझल हो गया | नेहा की बेचैनी पराकाष्ठा पर पहुँची, ‘अब उसे कहाँ ढूँढना ?’ अचानक उसे याद आया कि वह मगपरा की झोंपडपट्टी में रहता है और वह स्कूटर उस ओर ले गई | वह दूर से ही दिखाई दिया… हाथ में एक कागज की पुड़िया लेकर वह दौड़ता हुआ जा रहा था | उसने स्कूटर रोका और सुरक्षित अंतर रखते हुए वह उसके पीछे पहुँच गई | एक कच्चे कमरे जैसे मकान के पास की बिल्कुल संकड़ी नाली से लगी जैसी जगह में वह घुस गया | नेहा छिपती हुई, उसके पीछे पहुँच गई |

दीवार के कोने के पीछे से उसने एक नजर डाली तो पीछे खुले बाड़े में, डोरी से बँधा हुआ एक मध्यम वय का पुरुष नारियल की डोर से बनी खाट पर बैठा हुआ दिखाई दिया | मैले-कुचेले कपड़े, बढे हुए बाल और दाढ़ी ! उसके हाथ और चेहरे के हावभाव से ही लगता था कि वह मानसिक रूप से अस्थिर है | वह… हाँ शनिया… यही नाम था न उसका ! उसने, “पापा, ये जलेबी… आप सुबह याद करते थे न ! सब आपकी है, हँ !” ऐसा कहते हुए उसने पुड़िया खोल दी और उस व्यक्ति के सामने रख दी और वह किसी भुखमरे की तरह उस पर टूट पड़ा | एक गले से नीचे उतरती भी नहीं थी और वह मुँह में दूसरी ठूँस देता था | उसके हाथ, मुँह, कपड़ा सब चासनी में लथपथ हो गए थे, लेकिन उस बंदे को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था | “पापा, धीमे-धीमे खाओ | यह देखो चासनी ढुल रही है | चीटियाँ आएँगी | आपको नहलाना पड़ेगा तो माँ नाराज होंगी |” यह कहते हुए वह प्रेम से उनके हाथ- मुँह पोंछ रहा था |

इस विचित्र दृश्य में डूबी नेहा को यह याद ही नहीं रहा कि वह वहाँ क्यों खड़ी थी ! उसके कंधे पर किसी का हाथ अड़ा | पीछे देखा तो एक स्त्री थी | नेहा के चेहरे के भाव मानो वह समझ गई हो, इसलिए वह बोली, “यह मेरे शनिया का बाप है | पागल है | बाँधकर रखना पड़ता है, नहीं तो कहीं चला जाए | इसे खाने के अलावा और किसी बात का मालूम नहीं पड़ता है | खाने का बहुत शौकीन है | रोज कुछ नया खाने के लिए चाहिए | वह जब कमाता था, तब रोज शाम को आते समय पुडिया बँधवाता और दोनों बाप-बेटे खाते; लेकिन अब…? मैं तो रोटी का इंतजाम करूँ या ये सब शौक ? इसलिए शनिया उसके बाप के लिए माँग कर ले आता है | बाप के मुँह से जो निकल जाए, वह हाजिर कर देता है | आपसे भी रुपए माँगे होंगे | इसीलिए आई हैं न !”

नेहा को क्या बोलना है, यही समझने में उसे कुछ वक्त लगा | मूल काम याद आया| “लेकिन इतना सब झूठ…? दादी बीमार है… इतना सब किस लिए… यह तो मुझे किसी बीमार माँजी के पास ले गया था ! यह लोगों को मूर्ख बनाकर पैसे बनाता है !”

वह हँसी, “वह यदि सच बोलकर माँगे, तो बहनजी आप देंगी ? सच कहना, पागल इन्सान को मिठाई खिलाने के लिए कोई रुपए देगा ? शनिया को उसके बाप से बहुत प्यार है | बाप की इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर के रुपिए ले आता है | वह चोरी नहीं करता है, माँग कर लाता है और इसलिए मैं उसे रोकती नहीं हूँ |”

सुन्न हो गए मन के साथ, नेहा के पैर अपने आप वहाँ से चलने लगे | स्कूटर के पास पहुँचकर, उसने पर्स में से मोबाईल निकालने का पहला काम किया | पलकों की पाल पर इकट्ठे आँसुओं को सुनाई दिया, “समीर, मैं तुम्हें मेरी ओर से मुक्त करती हूँ | तुम्हें बहुत चाहती हूँ, लेकिन मुझे माफ़ करना, जब तक पापा हैं, तब तक अपना विवाह संभव नहीं है |”

 ♦ ♦ ♦ ♦

मूल गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार

संपर्क – जूना पावर हाउस सोसायटी, रोटरी भवन के पीछे, जेलरोड, मेहसाणा, 384002 – मो. 9898322931

हिंदी भावानुवाद  – श्री राजेन्द्र निगम,

संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 148 ☆ बाँटने से बढ़ता है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 148 ☆

☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ओंकार प्रतिदिन सूर्योदय के पहले ही उठ जाता और उगते हुए सूरज को प्रणाम करता था।उसके माता – पिता ने समझाया था कि ‘हमें प्रकृति के तत्वों – धरती, सूर्य, चंद्रमा, नदी, समुद्र, पेड़-पौधों सबकी रक्षा करनी चाहिए। हमें इनका आभार मानना चाहिए क्योंकि ये ही प्राणियों के जीवन को स्वस्थ तथा सानंद बनाते हैं। जब सर्दियों में धूप नहीं निकलती तब हमें कैसा लगता है? बारिश नहीं होती तो किसानों के खेत सूखने लगते हैं, तब हम सब कितना परेशान होते हैं।‘ 

ओंकार सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने अपने मित्रों को भी ये बातें बताई, सब खुश हो गए। सबने तय कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचे।

ओंकार रोज सुबह होते ही घर की छत पर पहुँच जाता। सुबह की ताजी हवा उसे बहुत भाती।ऐसा लगता मानों ऑक्सीजन सीधे फेफड़ों में भर रही हो। सूरज निकलने तक वह पूरब दिशा की ओर मुँह करके, हाथ जोड़कर खड़ा रहता। आकाश में सूरज की लालिमा झलकने लगती। सूर्योदय का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। सफेद – नीला आकाश और उसमें सूर्य – किरणों की लालिमा ! रंगों का कैसा सुंदर मेल ,ऐसा लगता मानों किसी कलाकार ने सिंदूरी रंग आकाश में बिखेर दिया हो। पल भर में ही सूरज का प्रकाश पूरे आकाश में पसर जाता। तेज रोशनी से धरती जगमगा उठती है। चिड़िया चहचहाने लगतीं। पशु – पक्षी मनुष्य सभी उत्साहपूर्वक काम में लग जाते। वह अक्सर सोचता – ‘सूर्य भगवान के पास प्रकाश का भंडार है क्या ? संपूर्ण विश्व को प्रकाश देते हैं पर रोज सुबह वैसे ही चमचमाते आकाश में विराजमान | तेज इतना कि सूरज की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन |’

एक दिन ओंकार ने सूरज से पूछ ही लिया – “आपके पास इतना प्रकाश, इतना तेज कहाँ से आता है? चंद्रमा घटता – बढ़ता रहता है लेकिन आप तो रोज एक जैसे ही दिखते हो?”

सूर्यदेव मुस्कुराए – बड़े प्रेम से अपनी सुनहरी किरणों से ओंकार के सिर पर मानों हाथ फेरते हुए बोले –“बेटा! मेरा प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यह संपूर्ण विश्व के प्राणियों को जीवन देता है,उनमें चेतना जगाता है। जब मैं बादलों से ढंका रहता हूँ तब भी तुम सबके पास ही रहता हूँ। प्रकाश, तेज, ज्ञान, विद्या, इन्हें नाम चाहे कुछ भी दो,ये ऐसा धन है जो बाँटने से बढ़ता है। जितना ज़्यादा  दूसरों के काम आता है उतना बढ़ता जाता है।“

ओंकार प्रफुल्लित हो गया। सूर्य के प्रकाश के भंडार का राज उसे समझ में आ गया था। ओंकार ने यह बात गाँठ बाँध ली थी कि ‘हमें जीवन में खूब मेहनत से ज्ञान प्राप्त कर समाज की सेवा करनी चाहिए, जैसे सूरज करता है अनंत काल से पृथ्वी की |”

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – richasharma1168@gmail.com  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बाल कथा – बिट्टी का जूता ☆ सुश्री रजनी सेन ☆

सुश्री रजनी सेन 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री रजनी सेन जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आज प्रस्तुत है आपकी बाल कथा “बिट्टी का जूता)

☆ बाल कथा – बिट्टी का जूता ☆ सुश्री रजनी सेन

बिट्टी जिस दिन से आई है कहीं नहीं गई, फिर उसका जूता कैसे खो सकता है। यह सवाल 6 साल के जादू के दिमाग में ततैये की तरह भिन-भिन कर रहा था। बिट्टी जिस दिन से घर में आई थी, लकड़ी के छोटे से सिंगारदान पर बैठे-बैठे पूरे घर को निहारती रहती थी। बिट्टी को देख जादू सोचता कि इस गुड़िया में मम्मी को ऐसा क्या नज़र आया जो इसे इतना प्यार करती हैं। किसी को उसे हाथ तक नहीं लगाने देतीं और आते-जाते उसे ऐसे निरख कर जाती हैं जैसे जादू फ्रिज में छिपाई हुई चॉकलेट को चुपके -चुपके देखता है। बिट्टी कपड़े की एक गुड़िया थी जिसके बाल जादू को किसी झाड़ू की तरह लगते, आंखें बटन की तरह और सबसे गजब बात थी कि उस बिट्टी की भी तीन गुड़ियां थीं जिन्हें उसने अपनी जेब में रखा था। मम्मी सबको बड़े इतराकर बतातीं –यह है बिट्टी और यह तीनों हैं बिट्टी की गुड़िया सिट्टी, पिट्टी और गुम। सुनने वाले खूब हसंते और जादू कुढ़ कर रह जाता। सच तो यह था कि बिट्टी के आने से उसकी घर में पूछ-परख कुछ नहीं तो पाव भर तो कम हो ही गई थी क्यूंकि सबकी नज़र आते ही बिट्टी पर पड़ती और सब उसी के बारे में पूछने लग जाते। मम्मी को भी समझ तो आने लगा था कि बिट्टी से जादू की बनती नहीं है सो बिट्टी का जूता खोने का पहला शक जादू पर ही जाता था। मम्मी ने पूछा –‘ जादू सच सच बताओ कहां छिपाया है बिट्टी का जूता’ तो जादू ने मासूमियत से कहा

..मैंने नहीं छिपाया, आपकी बिट्टी ही रात को सिंड्रैला की तरह पार्टी में गई होगी और अपना जूता छोड़ आई होगी।

– जादू ने मम्मी से सिंड्रैला की कहानी सुन रखी थी। लेकिन मम्मी को संतोष न हुआ। सर्दियां ज़ोर की पड़ने लगी थीं और बिट्टी का एक जूता खो जाने का दुख उन्हें सोने नहीं देता..जब भी मोज़ा पहनतीं दुखियाने लगतीं….पता नहीं कहां गया मेरी बिट्टी का जूता। दरअसल मम्मी को एक दुख और भी था। म्मी बिट्टी के लिए ऊनी मौज़े बुनना चाहती थीं पर उन्हं बुनना आता ही नहीं था। दुख से कहतीं- काश पढ़ाई –लिखाई के साथ थोड़ा सिलाई-बुनाई भी सीख लिया होता उस पर से बड़े भाई आदू ने आग में घी डालते हुए कहा

मम्मी इसी जादू ने छिपाया है बिट्टी का जूता, इसे पसंद नहीं है न बिट्टी

जादू ने तपाक से कहा- पसंद तो तू भी नहीं है पर तेरा जूता छिपाया क्या ?

बात में दम था …..आदू -जादू राम लखन नहीं थे ….दोनों में ज़रा नहीं बनती थी लेकिन फिर भी एक दूसरे का जूता कभी नहीं छिपाया। अजीब गुत्थी थी। पूरे घर में ढूंढ़ लिया गया। सोफा खिसका कर, अलमारी सरकाकर, पलंग के नीचे, दीवान के पीछे ….जूता आखिर गया कहां। दो दिन बाद पापा टूर से वापस आए तो उनसे भी पूछा गया उन्होंने झल्लाकर कहा

तुम्हारी बिट्टी का जूता मेरे पैर में तो आने से रहा और जादू क्यूं छिपाएगा, उसे क्या दुश्मनी बिट्टी से। यहीं कहीं खोया होगा ध्यान से देखो। आधी से ज़्यादा चीज़ें तो तुम्हें देख कर भी नहीं दिखतीं। याद है, उस दिन हाथ में ही मोबाइल लेकर, मोबाइल ढूढ़ रही थीं। चित्त लगाकर ढूढ़ों।

समझाइश देकर पापा फुटबॉल देखने लगे। अल क्लासिको मैच था …जादू और आदू की मुंडी भी टी.वी .में गड़ी थी दोनों फुटबॉल के बहुत बड़े दीवाने थे और मैच जब रोनाल्डो और मेसी के बीच हो तो दोनों पगला जाते थे। टी.वी के ठीक नीचे बुक शेल्फ पर बिट्टी बैठी थी एक जूता पहने और जादू को लग रहा था कि जैसे वो उससे कह रही हो कि, मेरा जूता ढूंढ़ दो वर्ना मैं रोने लगूंगी। जादू सोचने लगा कि जूते कितनी ज़रूरी चीज़ हैं अगर मैच से ठीक पहले रोनाल्डो का एक जूता खो जाए तो वो क्या करेगा। एक जूता तो किसी काम का नहीं। उसका दिल भर आया और उसने फैसला ले लिया कि वो बिट्टी का जूता ढूंढ़ कर रहेगा। दो दिन बाद क्रिसमस था। सामने ऑलिव आंटी के घर में क्रिसमस की तैयारियां चल रही थीं। अचानक जादू के मन में विचार कौंधा

मम्मा अगर हम सैंटा से कहें तो वो बिट्टी के लिए जूता ला देंगे न। मम्मी काम छोड़कर जादू को देखने लगीं। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है, मम्मी भी सोच में पड़ गईं लेकिन तभी उन्हें याद आया कि वो मम्मी हैं जादू नहीं और सेंटा सच में नहीं होता जैसे ही उन्हें अपने बड़े ने का ख़याल आया वो चुपचाप अपने काम में लग गईं। उधर जादू का पूरा ध्यान बिट्टी के जूते पर था। उसने पेंसिल और काग़ज़ लिया और सोचने लगा कि घर में कौन-कौन आया था और किस-किस ने बिट्टी को उठाया था फिर उसने यह भी लिखा कि घर में कौन-कौन सी जगह हैं जहां बिट्टी जा सकती है। उसे पूरा विश्वास था कि बिट्टी रात में कहां न कहीं तो जाती है। उसने रसोई से शुरू किया …बिस्कुट के डब्बे में देखा फिर पूजा घर में कान्हा जी के झूले में, आदू के बस्ते में, मम्मी के गहनों के डब्बे में, पापा के दाढ़ी के डब्बे में। जूता कहीं नहीं मिला। जादू दो दिन तक ढूंढ़ता रहा। तीसरे दिन था क्रिसमस। जिंगल बेल, केक और दोस्तों के साथ मौज के शोर में जादू जूते की बात भूल गया। उसने मम्मी से कहा -मम्मी मेरे सारे दोस्तों ने सैंटा वाली टोपी लगाई है मुझे भी दे दो। मम्मी काम में व्यस्त थीं बोली पापा की अलमारी में नीचे वाली दराज़ में रखी होगी देख लो।

जादू ठुमकते- ठुमकते गया और जैसे ही उसने दराज़ खोली उसकी आंखें हैरानी से बड़ी होती गईं। उस दराज़ में थे मटर के छिल्के, गोभी के डंठल, अखबार की कुतरन, जादू की ड्राइंग कॉपी के टुकड़े, पेंसिल की छीलन, मम्मी की टूटी लिपस्टिक और बिट्टी का जूता

जादू ज़ोर से उछला –मम्मी, पापा, आदू मिल गया, बिट्टी का जूता मिल गया। …..मम्मी ने आकर देखा तो हैरान रह गईं चूहे महाराज ने हफ्तों की तपस्या से अपनी गृहस्थी बसा ली थी उस छोटी सी दराज़ में। ज़रूरत का हर सामान। खाने के लिए सब्ज़ियां, मेकअप के लिए लिपिस्टिक, बोर हो जाओ तो पेंसिल और चित्रकला की किताब और घूमना हो तो बिट्टी का जूता। लेकिन इन साज़ो-सामान के बीच बिट्टी का जूता वहां कैसे पहुंचा इस सवाल को जवाब दो ही लोग दे सकते थे या तो ख़ुद चूहा महाराज या ख़ुद बिट्टी और दोनों ही बोलना नहीं जानते थे। लेकिन जादू बहुत खुश था क्यूंकि उसने मम्मी की प्यारी बिट्टी का जूता खोज लिया था। उसने बड़े प्यार से बिट्टी को उसका जूता पहनाया और बोला- अब मत खोना बिट्टी, बड़ी कठिनाई से ढूंढ़ा है। तभी जादू को ऐसा लगा जैसे बिट्टी कह रही हो- मैरी क्रिसमस जादू, तुम्हारा शुक्रिया। उस दिन से बिट्टी और जादू दोस्त बन गए और मम्मी का भरोसा नहीं टूटा कि सैंटा सच में होता है। पड़ोस में ऑलिव भाभी के घर में बज रहा था जिंगल बेल, जिंगल बेल ..जिंगल ऑल द वे

© सुश्री रजनी सेन 

नई दिल्ली 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 61 – अनमोल… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल।)

☆ लघुकथा # 61 – अनमोल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“मां ये घर कितना गंदा है तुम साफ सफाई क्यों नहीं करती? कोई कामवाली  क्यों नहीं रख लेती ?”

आज मायके आई कविता ने  सफाई करते हुए अपनी मां से कहा – “तुम्हारे घर में बैठने की भी जगह नहीं है। तुम कैसे रहती हो?”

मां कमला ने कहा – “बस किसी तरह दिन काट रही हूं? अब तुम लोगों के बिना घर-घर नहीं है?”

“मां यह तो पुरानी लालटेन और डिबरी है जिसमे हम तेल डालकर जलाया करते थे बचपन में।  डिबरी कितनी सुंदर-सुंदर मिलती थी आज भी तुमने इसे संभाल के रखा है।”

देखते ही कविता पुरानी यादों में खो गई।

बत्ती गुल हो जाती थी तब मां कितने प्यार से कहती – “बिट्टी डिबरी/लालटेन साफ कर लो और जला लो।”

“मां लालटेन में कितनी सुंदर डिजाइन बनी है?”

तभी माँ ने कहा- “अरे ! मैं कब से आवाज लगा रही थी नाश्ता कर ले ।”

“ये क्या काम में लगी हो?”

“अपने बच्चों को भी अपने जमाने की चीज दिखाऊंगी? आजकल यह सब घरों में लोग बड़े शौक से रखते और सजाते हैं।”

मां ने कहा – “ठीक है ले जाना।”

कविता ने कहा “मै इसे अपने साथ ले जाऊंगी, मेरे लिए ये लालटेन अनमोल है।”

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा – डी.एन.ए.  ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – डी.एन.ए. ।)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा –  डी.एन.ए.  ?

जय के कमरे की बत्ती जल रही थी। दरवाज़े का अधिकांश हिस्सा भिड़ाया हुआ ही था पर एक सीधी रोशनी की लकीर टेढ़ी होकर मेरे कमरे की फ़र्श पर पड़ रही थी। तो क्या वह भी अनिद्रा का शिकार है?

मैं उसके दर्द को समझ रहा था क्योंकि मैं स्वयं भुग्तभोगी था। अल्पायु में रुक्मिणी का सर्वस्व त्यागकर अचानक मेरे जीवन से रूठकर चली जाना मेरे लिए असह्य था।

रुक्मिणी मेरी केवल पत्नी या जीवन संगिनी ही नहीं थी। वह मेरी शक्ति थी। एक विचारधारा थी। वह सोच थी। किसी शिक्षक की भाँति मार्गदर्शन किया करती थी। विवाह के एक लंबे अंतराल के बाद हमें माता -पिता बनने का आनंद मिला था। शायद जय के रूप में मुझे खुशी देने के लिए ही वह जीती रही। उसके अचानक देहावसान से मैं टूट गया था। मरने का मन करता था पर मेरे सामने एक लक्ष्य था। जय को पालना था।

सबने कहा था, अपनों ने समझाया था, घरवालों ने सलाह दी, ससुरालवालों ने इच्छा व्यक्त की कि पुनर्विवाह कर लो पर मैं रुक्मिणी का स्थान किसी को न दे सका। वह मेरी रूह बन मुझ में ही समा गई थी।

मेरे चेहरे पर एक उदासी छाई रहती थी। नेत्र सदैव तरल रहते। मेरा चीत्कार करने को मन करता था पर जय को देख अपने भावों का दमन करता चला गया। मित्रों की संख्या घटती गई। निरंतर उदास रहनेवाला मित्र भला किसे भाता! जो सच्चे मित्र थे वे सदैव साथ रहते थे। मैंने भी समय के साथ समझौता कर लिया। दुख की चादर सदा के लिए ओढ़ ली। वह दुख की चादर जो रुक्मिणी के विरह से मिली थी। मैं ऐसा करके सदैव यही प्रतीत करता कि वह मेरे आस पास ही है। उसका स्नेहसिक्त व्यक्तित्व ही ऐसा था।

ममता, स्नेह वात्सल्य का वह एक अनोखा मिसाल थी। जय को अपनी गोद में लिटाकर जब वह लोरी सुनाती तो वह ऐसे पलकें बंद कर लेता मानों परियों की दुनिया में सैर कर रहा हो। अभागा बेचारा! वात्सल्य की छाया समय से पहले ही छूट गई। मैं जय को कभी भी लोरी न सुना सका। सुनाता भी कैसे भला, मेरे कंठ ही वेदना से अवरुद्ध हो जाते और अश्रु की धार बहने लगती। जय के कपोल टपकती बूँदों से तर हो जाते। नन्हे सुकोमल हाथ उन्हें पोंछने लगते।

मैंने सब सह लिया, विरह की वेदना में झुलसता रहा और जय को रुक्मिणी की स्मृतियों के सहारे पाल ही लिया। जय बड़ा हुआ विवाह के बाद उसने घर बसाया पर मेरे भीतर धधकती वेदना के स्पंदन से वह कभी अनभिज्ञ न रहा।

फिर यह क्या हुआ? मेरे दुर्भाग्य के तार उसके भाग्य से क्यों जुड़ गए? मेरे व्यथित हृदय के झंकृत वेदना उसकी भी वेदना क्यों बन गई?

मैं वार्द्धक्य की सीमा पर हूँ वह जवानी में ही अकेला क्यों हो गया! मेरे सामने जय था, एक सशक्त ज़िम्मेदारी थी, पर जय? क्या वह

राधा का इस तरह अचानक जाना सहन कर पाएगा? क्या वह राधा से विरह सह पाएगा ? डरता हूँ वह उत्तेजित होकर कहीं कुछ कर न ले….

दरवाज़े से छनकर आती रोशनी बंद हो गई। जय ने कमरे की बत्ती बुझा दी। द्वार खुला और एक छाया मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी शांत पड़ी देह पर चादर ओढ़ा गई। मेरे माथे को चूमकर वह लौट गया।

अपने कमरे के दरवाज़े तक पहुँचकर उसने कहा, ” सो जाइए बाबूजी, अभी ज़िंदगी भर कई रातें जागनी होंगी हमें। फ़िक्र न करें मैं भी विरह सह लूँगा। उसकी छाया में ही तो पला हूँ न! मैं आत्महत्या नहीं करूँगा। “

मैं स्तंभित हो गया। पिता की व्यथा से परिपूर्ण विचार क्या पुत्र को डी.एन.ए में मिलते हैं?

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani1556@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 219 – कोख परीक्षा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “कोख परीक्षा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 219 ☆

🌻लघु कथा🌻 🩺कोख परीक्षा🩺

आज के इस भागती दौड़ती तेज रफ्तार की दुनिया जहाँ  माँ – बाप, संवेदना, ममता, दया, सेवा, मानवता, बधाई, दुख – सुख यहाँ तक कि किराए की कौख भी मिलने लगी है।

किसे अपना कहा जाए किसे नकारा जाए समझ नहीं आता। नारी से नारी के लिए कोख परीक्षा मातृत्व पर सवाल खड़ी कर रही है।

परंतु फिर भी जमाना चल रहा है। अब तो आप जिस चेहरे की काया कृति चाहते हैं डॉक्टर वह भी कोख में बनाते चले जा रहे हैं।

जाने भविष्य क्या होगा। परंतु जो भी हो नारी की मातृत्व शक्ति को सृष्टि भी नहीं बदल सकती।

ईशा को कोख परीक्षा के लिए ले जाया जा रहा था। पतिदेव का सख्त आदेश और निर्णय बेटा ही वंश का वारिस होगा।

सफेद पड़ा शरीर, आँखें चेहरे पर धँसी, मानो कई रातों से सोई नहीं।

पता चला कोख में एक नहीं जुड़वा बेटी है। बस फिर क्या था!!!! अस्पताल से गाड़ी सीधे ईशा के मायके की ओर बढ़ चली। कारण सिर्फ इतना कि ईशा ने अपना कोख गिराने से मना कर दिया।

गाड़ी से उतरते समय ईशा ने पतिदेव के पैरों पर शीश रखते कहा– मैं उस दिन का इंतजार करूंगी। जब आपको लेकर कोई गाड़ी किसी वृद्धा आश्रम के सामने रुके। बेटों से वंश – – – – गहरी सांस छोड़ते।

मेरी बेटियाँ, आज नहीं कल कोख का महत्व समझ जाएंगी। परंतु किराए का बेटा क्या कोख परीक्षा समझ पाएगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 278 ☆ कथा – पीढ़ियां ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘पीढ़ियां‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 278 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ पीढ़ियां

शंभुनाथ की सारी योजना मांजी और बाबूजी के हठ की वजह से अधर में लटकी है। लड़की वाले पढ़े-लिखे समझदार हैं। समझाने से मान गये। उतनी दूर तक लाव-लश्कर लेकर जाना सिर्फ पैसे का धुआं करना था। लड़की का फूफा इसी शहर में रहता है। उसी की मार्फत बात हुई थी। शंभुनाथ वरपक्ष को समझाने में सफल हो गये कि लड़की वाले चार छः रिश्तेदारों के साथ यहीं आ जाएं और सादगी से शादी संपन्न हो जाए। ज़्यादा तामझाम की ज़रूरत नहीं। दो-चार दिन में रिसेप्शन हो जाए, जिसमें दोनों पक्ष के लोग शामिल हो जाएं। इस तरह जो पैसा बचे, उसे लड़का-लड़की के खाते में जमा कर दिया जाए।

शंभुनाथ का तर्क था कि आजकल बारातों में तीन दिन बर्बाद करने की किसी को फुर्सत नहीं। आज आदमी घंटे घंटे के हिसाब से जीता है। इतना टाइम बर्बाद करना और कष्टदायक  यात्रा में उन्हें ले जाना रिश्तेदारों की प्रति ज़ुल्म है।

लेकिन मां और बाबूजी सहमत नहीं होते। उनकी नज़र में शादी-ब्याह समाज को जोड़ने का बहाना है। रिश्ते नये होते हैं, उन पर बैठी धूल छंटती है, उन्हें नया जीवन मिलता है। जिन रिश्तेदारों से मिलना दुष्कर होता है, उनसे इसी बहाने भेंट हो जाती है। एक रिश्तेदार आता है तो उसके माध्यम से दस और रिश्तेदारों की कुशलता की खबर मिल जाती है। कई बार गलतफहमियां दूर करने का मौका भी मिल जाता है। पहले लोग लंबे पत्र लिखकर हाल-चाल दे देते थे। अब टेलीफोन की वजह से जानकारी का छोटा सा छोर ही हाथ में आता है। जितनी मिलती है उससे दस गुना ज़्यादा जानने की ललक रह जाती है। ज़्यादा बात करो तो खर्च की बात सामने आ जाती है।

शंभुनाथ का तर्क उल्टा है। उनके हिसाब से अब रिश्तों में कोई दम नहीं रहा। रिश्ते सिर्फ ढोये जाते हैं। अब किसी को किसी के पास दो मिनट बैठने की फुर्सत नहीं है। कोई दुनिया से उठ जाए तो रिश्तेदार रस्म-अदायगी के लिए दो-चार घंटे को आते हैं, फिर घूम कर अपनी दुनिया में गुम हो जाते हैं।

बाबूजी के गले के नीचे यह तर्क नहीं उतरता। उनका कहना है कि दुनिया के लोग अगर एक दूसरे से कटते जा रहे हैं तो ज़रूरी नहीं है कि हम उसी रंग में रंग जाएं। समझदार आदमियों का फर्ज़ है कि जितना  बन सके दुनिया को बिगड़ने से रोकें।

उधर मांजी का तर्क विचित्र है। उनके कानों में चौबीस घंटे ढोलक की थाप और बैंड की धुनें घूमती हैं। शादी-ब्याह के मौके चार लोगों को जोड़ने और दिल का गुबार निकालने के मौके होते हैं। उनके हिसाब से सब रिश्तेदारों को चार-छ: दिन पहले इकट्ठा हो जाना चाहिए और चार-छः दिन बाद तक रुकना चाहिए। फिर जो बहुत नज़दीक के लोग हैं वे एकाध महीने रहकर सुख-दुख की बातें करें। पन्द्रह-बीस दिन तक घर में गीत गूंजें। युवा लड़के लड़कियों के जवान चेहरे देखने का सुख मिले और चिड़ियों की तरह सारे वक्त बच्चों की किलकारियां गूंजती रहें। युवाओं की बढ़ती लंबाई और वृद्धों के चेहरे की बढ़ती झुर्रियों का हिसाब- किताब हो।

मांजी की लिस्ट में कुछ ऐसी महिलाएं हैं जिनका आना हर उत्सव में अनिवार्य है, यद्यपि  शंभुनाथ के हिसाब से वे गैरज़रूरी हैं। इनमें सबसे ऊपर कानपुर वाली बुआ हैं जिनसे रिश्ता निकट का नहीं है लेकिन जो नाचने और गाने में माहिर हैं। उनके आने से सारे वक्त उत्सव का माहौल बना रहता है। दूसरी सुल्तानपुर वाली चाची हैं जो भंडार संभालने में अपना सानी नहीं रखतीं। एक और मिर्जापुर वाली दीदी हैं जो पाक-कला में  निपुण हैं।वे आ गयीं तो समझो खाने पीने की फिक्र ख़त्म। मांजी  की नज़र में इन सबको बुलाये बिना काम नहीं चलेगा। शंभुनाथ का कहना है कि अब शहर में पैसा फेंकने पर मिनटों में हर काम होता है, इसलिए रिश्तेदारी ज़्यादा पसारने का कोई अर्थ नहीं है। रिश्तेदार दो दिन के काम के लिए आएगा तो बीस दिन टिका रहेगा।

बाबूजी की लिस्ट में भी कुछ नाम हैं। एक नाम चांद सिंह का है जो साफा बांधने में एक्सपर्ट है। अब बिलासपुर में नौकरी करता है लेकिन उसे नहीं बुलाएंगे तो बुरा मान जाएगा। अब तक परिवार की हर शादी में उसे ज़रूर बुलाया जाता रहा है। एक  रामजीलाल हैं जो मेहमाननवाज़ी की कला में दक्ष हैं। टेढ़े से टेढ़े मेहमान को संभालना उनके लिए चुटकियों का काम है। शंभुनाथ बाबूजी के सुझावों को सुनकर बाल नोंचने लगते हैं।

मांजी के लिए नृत्य-गीत, शोर-शराबे, हंसी-ठहाकोंऔर और गहमा-गहमी के बिना शादी में रस नहीं आता। मेला न जुड़े तो शादी का मज़ा क्या? उनकी नज़र में शादी सिर्फ वर-वधू का निजी मामला नहीं है, वह एक सामाजिक कार्यक्रम है। वर-वधू के बहाने बहुत से लोगों को जुड़ने का अवसर मिलता है।

बाबूजी और मांजी बैठकर उन दिनों की याद करते हैं जब बारातें तीन-तीन दिन तक रूकती थीं और बारातों के आने से पूरे कस्बे में उत्सव का वातावरण बन जाता था। तब टेंट हाउस नहीं होते थे। दूसरे घरों से खाटें और बर्तन मांग लिये जाते थे और कस्बे के लोगों के सहयोग से सब काम निपट जाता था। अब दूसरे घरों से सामान मंगाने में हेठी मानी जाती है। अब लोग इस बात पर गर्व करने लगे हैं कि उन्हें किसी चीज़ के लिए दूसरों के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। बाबूजी कहते हैं कि समाज पर निर्भरता को पर-निर्भरता मान लेना सामाजिक विकृति का प्रमाण है।

मांजी और बाबूजी को समझाने में अपने को असफल पाकर शंभुनाथ ने अपने दोनों भाइयों को बुला लिया है।

पहले उन दोनों को समझा बुझाकर  तैयार किया, फिर तीनों भाई तैयारी के साथ पिता- माता के सामने पेश हुए। नयी तालीम और नयी तहज़ीब के लोगों के सशक्त, चतुर तर्क हैं जिनके सामने मांजी, बाबूजी कमज़ोर पड़ते जाते हैं। वैसे भी मां-बाप सन्तान से पराजित होते ही हैं। अन्त में मांजी और बाबूजी चुप्पी साध गये। मौनं सम्मति लक्षणं।

यह तय हो गया कि शादी बिना ज़्यादा टीम-टाम के होगी। सूचना सबको दी जाएगी। जो आ सके, आ जाए। सारा कार्यक्रम एक-दो दिन का होगा। उससे ज़्यादा ठहरने की किसी को ज़रूरत नहीं होगी। शंभुनाथ का छोटा बेटा तरुण इस चर्चा से उत्साहित होकर सुझाव दे डालता है— ‘जिसको न बुलाना हो उसको देर से कार्ड भेजो। आजकल यह खूब चलता है।’ उसके पापा और दोनों चाचा उसकी इस दुनियादारी पर खुश और गर्वित हो जाते हैं।

बाबूजी और मांजी अब चुप हैं। निर्णय की डोर उनके हाथों से खिसक कर बेटों के हाथ में चली गयी है। इस नयी व्यवस्था में कानपुर वाली बुआ, सुल्तानपुर वाली चाची, मिर्जापुर वाली दीदी, चांद सिंह और रामजीलाल के लिए जगह नहीं है। इन सब की जगह यंत्र-मानवों ने  ले ली है जो आते हैं, काम करते हैं और भुगतान लेकर ग़ायब हो जाते हैं।

बाबूजी चुप बैठे खिड़की से बाहर देखते हैं। उन्हें लगता है दुनिया तेज़ी से छोटी हो रही है। लगता है बहुत से चेहरे अब कभी देखने को नहीं मिलेंगे। उन्हें अचानक बेहद अकेलापन महसूस होने लगता है। माथे पर आये पसीने को पोंछते वे घबरा कर खड़े हो जाते हैं।

छोटा बेटा उन्हें अस्थिर देखकर पूछता है, ‘क्या हुआ बाबूजी? तबीयत खराब है क्या?’ बाबूजी संक्षिप्त उत्तर देते हैं, ‘हमारी तबीयत ठीक है बेटा, तुम अपनी फिक्र करो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – लघुकथा – अनजान प्रदेश – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक कहानी के पीछे की अप्रतिम विचारणीय लघुकथा “– अनजान प्रदेश –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — अनजान प्रदेश — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक जहाज समुद्र में कहीं खो गया था। उसमें दो सौ यात्री थे। व्यापक रूप से खोज की जा रही थी, लेकिन जहाज का कहीं पता चलता नहीं था। इतनी बड़ी घटना का कोई गवाह न होना दुख को और बढ़ाता था। गवाह का प्रसंग होने से लोगों का ध्यान एक पक्षी पर जाता था। लोग जब भी खोज के लिए समुद्र में जाते थे उन्हें वह पक्षी दिखाई देता था। पक्षी खोज में लगे हुए लोगों की बड़ी सी नाव के ऊपर उड़ने का इतना अभ्यस्त हो गया था कि नाव के मस्तूल पर आ बैठता था। दंत कथा के हिसाब से अर्थ बनाएँ तो वह अर्थ इस तरह से होता वह पक्षी लोगों के साथ खोज कार्य में सहयोगी था।

पक्षी के साथ संपर्क गाढ़ा होते जाने की प्रक्रिया में उन लोगों को लगता था वह कुछ बोलना चाहता है। पर उसकी भाषा तो उसकी अपनी थी जिसे समझ पाना किसी के वश में होता नहीं था। यदि पक्षी लुप्त जहाज से संबंधित किसी घटना का जिक्र करना चाहता हो तो लोगों को बड़ा कुतूहल होता था। वे आपस में तय करते थे उन्हें पक्षी की भाषा के मर्म तक पहुँचना होगा। दो – चार बार नाव से यहाँ आने पर कुछ लोगों ने कहा उन्होंने पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख ली। अब वह दिन दूर नहीं जब पक्षी की पूरी भाषा अपनी समझ में आने लगेगी।

वे लोग दो – चार दिन से अधिक खोज के लिए जाने वाले नहीं थे। उस पक्षी का आकर्षण हुआ कि दो – तीन दिन की उनकी सीमा टूट गयी और वे समुद्र में इस तरह से बार – बार जाने लगे कि खोया हुआ जहाज मिलने पर ही उनके खोज – कार्य में विराम लगेगा। पर यह जोश हुआ तो उस पक्षी के बल पर। वे समूह में इतने लोग थे और पक्षी अकेला था। उन्हें किसी कोण से थोड़ा आतंक भी महसूस हुआ। समुद्र में दो सौ लोग एक जहाज में लापता हुए थे और एक पक्षी मानो उतने लोगों का प्रतिनिधित्व करता था।

आतंक से ही यह छन कर आया कि अपनी भाषा के रहते पक्षी की भाषा में समर्पित होना तो बहुत ही दूरंदेशी सोच का परिणाम है। उन्होंने आपस में तय किया खोज – कार्य में अब अंकुश लगाते हैं। उन्होंने तालियाँ बजा कर अंकुश का समर्थन किया। पक्षी की भाषा कुछ – कुछ सीख लेने का जो लोग दावा करते थे अब उस दावे को छोड़ा। वे तट पर लौटे। उन लोगों की भाषा कमोबेश एक ही तरह से हुई — वहाँ मानो पक्षी का ‘समुद्र’ था और यहाँ इन लोगों की अपनी ‘जमीन’ थी।

— समाप्त  —

© श्री रामदेव धुरंधर

28 — 02 — 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – अनकहा सा कुछ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-सुनो!

-कहो !

-मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ ।

-कहो न फिर !

-समझ नहीं आता कैसे कहूं, किन शब्दों में कहूं?

-अरे! तुम्हें भी सोचना पड़ेगा?

-हां ! कभी कभी हो जाता है ऐसा !

-कैसा ?

-दिल की बात कहना चाहता हूँ पर शब्द साथ नहीं देते !

-समझ गयी मैं !

-क्या.. क्या… समझ गयी तुम ?

-अरे रहने भी दो ! कब कहा जाता है सब कुछ !

-बताओ तो क्या समझी ?

-कुछ अनकहा ही रहने दो ।

-क्यों ?

-ऐसी बातें बिना कहे, दिल तक पहुंच जाती हैं !

-फिर तो क्या कहूं‌ ?

-अनकहा ही रहने दो !

-क्यों?

-तुमने कह दिया और दिल ने सुन लिया! अब जाओ !

-क्यों ?

-शर्म आ रही है बाबा! अब जाओ !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कथा-कहानी –  आश्रय – गुजराती लेखिका – सुश्री रेणुका दवे ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

श्री राजेन्द्र निगम

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में  स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14  पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री रेणुका दवे जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “आश्रय”।)

☆  कथा-कहानी –  आश्रय – गुजराती लेखिका – सुश्री रेणुका दवे ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆

“लो, यह चाय तुम्हारे पिताजी को दे दो !”

रमीला ने चाय का कप पास बैठे राजू की ओर बढ़ाते हुए कहा। राजू ने बहुत मुश्किल से स्वयं को नियंत्रित रखकर, हँसते-हँसते कहा, “क्यों आज सुबह- सुबह तुम्हारा मुँह उतरा हुआ है?”

 “हाँ, मेरे नसीब में कहाँ खुशी है, जब से आई हूँ, तब से हताशा में ही रहती हूँ न!”

“लेकिन हुआ क्या है, यह तो बताओ ?”

“तुम्हारी बहन जो आ रही है, उपदेश देने के लिए!”

रमीला चेहरा घुमा कर अनिच्छा व्यक्त करते हुए कुछ कड़वाहट से बोली।

“कौन सवि आएगी ? किसने कहा ?” राजू ने अपने इस उत्साह को किसी तरह दबाया।

“तुम्हारे पिताजी ने। हमें तो कौन पूछता है?” रसोईघर में जाते हुए रमीला बोली। राजू चाय का कप ले कर पिता के कमरे की ओर गया।

सवि- सविता राजू से करीब दस वर्ष बड़ी। उसका घर अहमदाबाद में, लेकिन उसके बड़े बेटे के ऑफिस की एक शाखा पास के ही गाँव में थी, इसलिए वह जब ऑफिस जाता, तब सविता भी पिता से मिलने के लिए कार में बैठ जाती। माँ तो नौ वर्ष पहले गुजर गई । फिर सविता लगभग हर पन्द्रह दिन में आकर मिल जाती। घर की बड़ी लड़की और स्वभाव से शांत, इसलिए माता पिता से उसका विशेष लगाव रहा। जब आती, तब पिता की पसंद का, स्वयं का बनाया हुआ कोई न कोई व्यंजन ले आती। सुबह से शाम तक रुक जाती और पिताजी को माँ की बहुत सी बातें याद दिलातीं। पुरानी घटनाओं और लोगों को, सबको याद करती और पिताजी की डूबती नसों में पुनः उत्साह भरने का प्रयास करती रहती।

लेकिन भाभी के स्वागत का उत्साह धीरे -धीरे ठंडा पड़ता गया। फिर कटाक्ष आते गए, हँसते-हँसते -‘नहीं रखते हैं, पिताजी को भूखा !!’

सविता को उसकी भावनाओं पर लगाम कसनी पड़ी। अब वह पूरा दिन रुकने के स्थान पर मात्र दो-तीन घंटे रुकने की योजना बनाकर आती। भोजन लेना भी वह टालती। साथ में डिब्बा लाना तो उसने बंद ही कर दिया। लेकिन फिर भी, उसका आना खटकने लगा।

आज तो वह छह महीने बाद यहाँ पर आई है।

                                            ***

“मैं क्या कहती हूँ भाई, मैं पिताजी को कुछ महीने के लिए, अपने घर ले जाऊँ। भाभी को भी कुछ आराम मिलेगा और पिताजी का हवा-पानी भी बदल जाएगा। सविता ने धीरे से अपनी बात रखी।

रमीला के दिनों-दिन बिगड़ रहे स्वभाव के कारण पिताजी के आसपास उदासीनता का माहौल लगातार छाया रहता होगा– ऐसा सविता ने पिताजी के साथ फोन पर हुई बातचीत से जान लिया था। उसने तुरंत तय कर लिया कि वह पिताजी को लेकर यहाँ आ जाएगी।  उसने बात-बात में पूछ लिया—

 राजू भाई कभी इंकार करे तो ?

“उस बेचारे को तो वह कुछ समझती ही नहीं है, बेटा ! कौन जाने मन में क्या भरा है कि पूरे दिन काटने को दौडती रहती है। परसों बच्चों की ऐसी पिटाई कर रही थी कि मुझे बीच में पड़ना पड़ा ! क्या करें बेटा, छोटा शादी कर के अहमदाबाद में सेट हुआ और उसकी मद्रासी बहू के साथ मेरा मन कैसे मिलेगा ? अतः उसे ऐसा लगने लगा है कि सब उसे ही करना है ?

“पिताजी, आपके खाने-पीने का तो सब ठीक ही न ?”

पिताजी की आवाज काँपने लगी –

“बेटा, वह सब ऐसा ही है ! मैं तुम्हें मेरी कथा कहाँ तक कहूँ ? तुम्हारी माँ ने मुझे ऐसे  शाही ठाठ से रखा— गर्मागर्म रोटियाँ आग्रह के साथ मुझे खिलाती !”

पिताजी के रुदन में उनके शब्द दब गए।

सविता की आँखें भर आईं। कुछ देर खामोशी छाई रही।

“बेटा जैसा भी होगा, सब दिन कोई एक जैसे नहीं होते हैं। लो अब हैंड फोन रखता हूँ !” ऐसा कहकर उन्होंने फोन रख दिया।

 

सविता की बात सुनकर रमीला का गुस्सा फ़ौरन फूटा—

“मुझे कोई आराम नहीं चाहिए। पिताजी को बेटी के घर क्यों रहना पड़ेगा ? दो-दो बेटे हैं, तब भी ?”

“अरे बेटा या बेटी ,भाभी, पिताजी तो मेरे हैं और तुम्हें तो मालूम है कि हेमंत के घर रहना पिताजी को पसंद नहीं है।”

“पसंद क्यों नहीं ? क्यों मद्रासियों के माता-पिता क्या बुजुर्ग नहीं होते हैं ? जब नीयत ही नहीं है, सेवा करने की, तब क्या ? और देखो वारिस का हक़ लेने के लिए सब कैसे दौड़ते हुए आएँगे ! और सेवा कर-कर मेरे खून का जो पानी हुआ, वह कौन कोई देखने वाला है ?!!

“भाभी, मैं क्या कहती हूँ। उस नागजी बापा की मणि को काम पर रख लो न ! आपको भी कुछ राहत होगी। लड़की होशियार है। रसोई का सब काम कर दे, ऐसी है। और वैसे भी पिताजी पेंशन के पैसे तो घर में देते ही हैं।”

रमीला तिरछी आँखों से देखती रही। उसे यह सुनना अच्छा नहीं लगा।

सविता ने बहुत कहा, लेकिन रमीला पिताजी को ले जाने के लिए इंकार ही करती रही। पिताजी से मिलने के लिए सविता गई, तब बोली–  “पिताजी आप तो चलो, जिसे जो कहना होगा, वह कहता रहेगा ! लाओ आपके कपड़े की बैग भर दूँ।”

“बेटा रहने दे और क्लेश बढ़ जाएगा। मैं जाऊँगा तो बेचारे राजू की फजीहत होगी और बच्चों की पिटाई होगी। रहने दो, बेटा, तुम चिंता मत करो !” तुम तुम्हारे चली जाओ, तुम्हारा वक्त हो गया है।”

                                  ***

“क्यों इंकार किया ? सविता बहन के साथ पिताजी को जाने देती, तुम्हें सुकून और उनका भी कुछ हवा-पानी बदल जाता !” राजू ने रात में रमीला से कहा।

“नहीं जी, गाँव में बात होगी कि ससुर को बेटी के घर भेज दिया।”

“तुम भी क्या, गाँव की बात सुनना या पिताजी का मन देखना ? तुम भी तो दिनभर दौडधूप करती रहती हो, इस बहाने तुम्हें भी कुछ दिन आराम मिल जाएगा ! उनका थैला तैयार करना, कल सवेरे मैं उनको अहमदाबाद छोड़कर आ जाऊँगा।

लेकिन रमीला इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं हुई। सविता ने उसी दिन रात में हेमंत से विस्तार से फोन पर बात की। लक्ष्मी भाभी के साथ भी बात की। दोनों को समझाया कि पिताजी को ले आओ। बेचारे परेशान रहते हैं।

माँ के जाने के बाद रमीला ने हेमंत और लक्ष्मी के साथ कोई संबंध नहीं रखा। शुरुआत में नए वर्ष पर सबके पैर छूने के लिए दोनों आ जाते। हैं लेकिन एक-दो वर्ष पहले किसी बात पर झगड़ा हुआ और वह भी बंद कर दिया। राजू कभी-कभी उनसे मिलने के लिए जाता और इस प्रकार संबंध बनाए, लेकिन इस तरह कि रमीला को मालूम न हो।

दोनों को उनके घर जाने की इच्छा तो नहीं थी, लेकिन तय किया कि सुबह जाकर और पिताजी को लेकर, शाम के पहले वापस लौट आने के लिए वहाँ से निकल जाएँगे।

दूसरे दिन छुट्टी होने से दोनों पिताजी के घर आए। पिताजी और राजू तो बहुत खुश हो गए। दोनों को देखकर, लड़के भी हेमंत काका और काकी के पास दौड़ते हुए आए, लेकिन रमीला के फूले चेहरे को देखकर, सब समझ गए कि किसी भी वक्त धड़ाका हो सकता है और वही हुआ| 

 जैसे ही हेमंत ने कहा कि वे पिताजी को लेने के लिए आए हैं, तो रमीला बिफर गई। उसके मन में जमा हुआ सारा रोष छलक-छलककर बाहर आने लगा। मुझे तो मालूम ही था कि सविता बहन आई, तो वे कुछ आग लगाने का काम तो करेंगी ही, लेकिन कह देती हूँ– पिताजी यहीं रहेंगे। कहीं नहीं जाएँगे !!”

राजू को आज बहुत गुस्सा आ गया।

“अब मैं कहता हूँ कि तुम यह तुम्हारी किटकिट बंद करो, नहीं तो अच्छा नहीं होगा ! हेमू, तुम पिताजी को ले जाओ !”

हेमंत और लक्ष्मी पिताजी के कमरे में जा रहे थे और तब ही रमीला गर्जी।

“हाँ, मुझे सब मालूम है पिताजी की वसीयत लिखवाने के लिए आए हो, नहीं तो कोई प्रेम नहीं उमड़ रहा है ? मैं सब जानती हूँ, लेकिन मैं यह नहीं होने दूँगी, मैं गाँव इकट्ठा कर लूँगी यदि पिताजी को ले गए तो, हाँ !”

 अंदर के कमरे में सुन रहे पिताजी लकड़ी के सहारे धीरे-धीरे बाहर आए। हेमंत और लक्ष्मी स्तब्ध बनकर देखते रहे। रमीला एकदम खड़ी हुई और घर के दरवाजे को खोलकर बाहर जा रही थी कि पिताजी ने जोर से आवाज लगाई।

“बेटा रमीला, अंदर आ जाओ। इस उम्र में मेरी इज्जत की नीलामी क्यों कर रहे हो ? मैं किसी के घर जाने वाला नहीं हूँ, बस ! बेटा, अब शांत हो जाओ ! क्या यह सब बच्चों के सामने अच्छा लगता है ? चलो, राजू बेटे, लो ये पैसे, सब के लिए कोई अच्छा खाने का बंदोबस्त करो। लो चलो रमीला, झगड़े को समाप्त करो !”

इतना बोलकर पिताजी पास की कुर्सी पर बैठ गए। वे थक गए थे, हाँफ रहे थे। उनके चेहरे पर मानो पूरी जिंदगी की थकान छलक रही थी। अकेले-अकेले चलने की थकान !

दस वर्ष की नीली ने अपनी ओर से स्थिति को बदलने की कोशिश करते हुए कहा– मम्मी भूख लगी है, जल्दी कुछ दे दो न !

 राजू रसोई में गया और पीछे-पीछे लक्ष्मी भी कुछ मदद करने के लिए अंदर गई। यह देखकर रमीला तुरंत रसोई की ओर घूमी और बात थोड़े समय के लिए शांत हो गई।

                                 ***

नीली ने मेज पर थाली रखी, थाली में चूरमा के दो लड्डू देखकर पिताजी को आश्चर्य हुआ।

“लड्डू क्यों बनाए, नीली बेटा ?”

“दादा, वनराज दादा के घर से लड्डू आए हैं। हीराबा की तिथि हैं न इसलिए।” कहती  हुई वह दौडती-दौडती चली गई। हीरा भाभी की तिथि ? 25 अगस्त ! तो मेरा अज जन्मदिन है ? कितने पूरे हुए ? 80 या 81 ? क्या मालूम, जितने भी हुए हों, अब तो यह जिंदगी पूरी हो जाए बस ! कौन जाने अभी और क्या-क्या देखने को लिखा होगा !

पिताजी का मन के साथ संवाद चलता रहा। इसमें लड्डू कब खाने में आ गए, उसका ध्यान ही नहीं रहा। वास्तव में अपने मनपसंद भोजन के स्वाद का आज वे बिल्कुल भी मजा नहीं ले सके। एक सप्ताह पहले घटित घटना दिमाग से विलुप्त क्यों नहीं हो रही है ? उन्होंने स्वयं को इतना असहाय कभी भी महसूस नहीं किया था। राजू की माँ सही कहती थी— “मुझे तुम्हारी चिंता बहुत होती है कि यदि मैं नहीं रहूँ, तो आपका क्या होगा !” तब हँसी में टाल दी गई उस बात की गहराई को वह अनुभव करते रहे। उनका मन खिन्न हो गया। अपने ही घर में…  अपनी ही मौजूदगी में किस-किस तरह के खेल रचे जा रहे हैं, यह सोचते हुए वे स्वयं को नि:सहाय अनुभव करते रहे।

अचानक उन्हें याद आया कि उनके जन्मदिन के एक सप्ताह के बाद उनकी पत्नी की मृत्यु तिथि आती है !

पिताजी ने तकिए के नीचे रखा मोबाइल लिया और गाँव में रहनेवाले उनके मित्र वनराज से फोन मिलाया और बात की। फिर सविता को फोन लगाया है और आधा घंटे तक बात की। फिर वनराज ने जो एक नंबर दिया था, वह लगाया और उनसे लंबी बात की। उनका मन हल्कापन अनुभव कर रहा था।

दूसरे दिन राजू को बुलाकर बात की कि तुम्हारी माँ की तिथि आ रही है तो अहमदाबाद के वृद्धाश्रम में लड्डू वितरित करने की मेरी इच्छा है।

“तो, मैं चला जाऊँगा, पिताजी।” राजू ने कहा।

“तुम अकेले नहीं, बेटा मैं भी आऊँगा !” पिताजी बोले।

“पिताजी आप वहाँ कहाँ आएँगे ? थक जाएँगे। चार-पाँच घंटे तो आसानी से आने-जाने में हो जाएँगे” राजू ने बताया।

“कुछ परेशानी नहीं, मुझे अच्छा लगेगा। लेकिन मुझे स्वयं ही वहाँ जाना है।” पिताजी की यह दृढ़ आवाज सुनकर राजू को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन सोचा कि माँ की बात है, इसलिए कुछ भावुक हो गए हैं। अतः अधिक दलील नहीं की। उस दिन का आयोजन सोच कर वह बोला—“सुबह साढ़े सात- आठ बजे निकलना पड़ेगा। आपको दिक्कत तो नहीं है न ?”

“हाँ, हाँ, मैं रोज चार बजे तो जग ही जाता हूँ।”

“ठीक है, तो दोनों चलेंगे। वनाकाका के पास से वृद्धाश्रम का पूरा पता ले लेना और हाँ, जहाँ से लड्डू लेना है, उस मिठाई की दुकान का पता भी ले लेना। कहते हुए राजू दुकान जाने के लिए निकल गया।

                             ***

माँ की तिथि के दिन पिताजी जल्दी तैयार होकर कुर्सी पर कुछ सोचते हुए बैठे थे। कुछ देर बाद वह धीमे-धीमे खड़े हुए और घर के मंदिर के पास जाकर भगवान की छवि के सामने दीप प्रज्वलित किया। दो मिनट तक गहन विचार करते हुए वे छवि के सामने देखते रहे। फिर माला लेकर मन को स्थिर करने की कोशिश करते रहे। राजू अभी जगा नहीं था। शांत सुबह के उजाले में घर में घूमती-फिरती पत्नी के कुछ पल उनकी बंद आँखों के नीचे जीवंत होते हुए वे अनुभव करते रहे।

लाइट होने की आवाज सुनकर उन्होंने आँखें खोलीं। राजू जग गया था। कुछ देर में वह चाय बनाकर लाया। साथ ही एक तश्तरी में वह नर्म तीखी पूरियाँ भी लाया और कहा—“लो यह कुछ नाश्ता कर लो, जिससे दवाई ले सको।”

पिताजी कुछ बोले नहीं। चुपचाप नाश्ता कर लिया। राजू चलने के लिए तैयार था, इसलिए पिताजी खड़े हुए और फिर कोने में तैयार रखे थैले को लेने के लिए जाने लगे, जिसे राजू ने ले लिया।

“इसमें क्या है, पिताजी ?”

“इसमें मेरे कुछ बचे हुए, पुराने कपड़े हैं। वहाँ किसी जरूरतमंदवाले को काम में आ जाएँगे।”

राजू ने थैला डिकी में रख दिया। पिताजी ने घर में नजर घुमाई। इस समय सब सो रहे थे। बच्चों से मिलने की इच्छा हुई, लेकिन फिर तुरंत बाहर निकल कर कार में बैठ गए।

वृद्धाश्रम जाने के पहले लड्डू खरीदे। तीन बॉक्स अलग रखकर राजू को देते हुए कहा-  “लो ये तुम तीनों भाई-बहन रख लेना।”

 वृद्धाश्रम पहुँचे तो सविता दरवाजे पर खड़ी मिली।

“लो, सविता बहन आई है ?” राजू को आश्चर्य हुआ और कुछ राहत भी अनुभव हुई।

“तुम और बहन लड्डू लेकर रसोई में जाओ, मैं ऑफिस में बात कर के आता हूँ।” ऐसा कहकर पिताजी ऑफिस की ओर गए।

ग्यारह बजे भोजन करने के लिए घंटी बजी और एक के बाद एक वृद्ध अपने-अपने कमरे से डाइनिंग टेबल पर आकर बैठने लगे। पिताजी और मैनेजर ऑफिस के बाहर आए। भोजन करना शुरू हो, उसके पहले राजू और सविता ने सबको लड्डू परोसे। पिताजी एक ओर कुर्सी पर इस प्रकार बैठे थे, मानो कहीं खोए हुए हों।

भोजन पूरा हुआ और सब पार्किंग में आए।

“यहाँ व्यवस्था अच्छी है, क्यों सविता बहन ?” राजू बोला। पिताजी ने सविता की ओर देखा और फिर मुँह घुमाकर चुपचाप खड़े रहे। फिर गला खँखारकर कहा –

“राजू, डिकी में वह जो थैला है, उसे ले आओ।”

“हाँ हाँ, वह तो भूल ही गया था !” कहकर उसने थैला निकाला और बोला, “आप यहीं रहो, मैं ऑफिस में देकर आता हूँ।”

“नहीं भाई, यह मुझे दे दे। ये मेरे कपड़े हैं।”

राजू कुछ समझा नहीं। वह असमंजस की स्थिति में पिताजी के सामने प्रश्नार्थ भरी नजरों से देखता रहा।

“तुम घर जाओ, भाई, अब मैं यहीं रहूँगा ! अब यह मेरा आश्रय-स्थल है।” पिताजी ने शब्दों को अलग-अलग करते हुए कहा।

“हैं…?? क्या…?? यह आप क्या बोल रहे हैं, पिताजी ? ऐसा होता है…??” राजू घबरा गया।

“हो सकता है… भाई… समय के हिसाब से सब करना पड़ता है। तुम क्यों मन में दुखी हो रहे हो ? मुझे तो यहाँ कोई तकलीफ नहीं पड़नेवाली। वहाँ अकेले-अकेले कमरे में पड़ा रहता था। यहाँ मुझे कोई दोस्त मिल जाएगा, तो अच्छा लगेगा।”

राजू की आँखों में आँसू भर आए। वह गलगल शब्दों में बोला,

 “पिताजी, आप रमीला की बात को मन पर मत लेना, उसका तो स्वभाव ही वैसा है। मैं उसे समझाऊँगा। आप चलो और गाड़ी में बैठ जाओ !!”

राजू आगे नहीं बोल सका। शायद उसे अपनी नजर के सामने ही उसे झूठा हो जाने का अनुभव हो रहा था। इस समय चुप खड़ी सविता उसके पास आई और उसके हाथ को हाथ में लेकर समझाने के स्वर में बोली—

 “राजू, मुझे लगता है कि पिताजी जो कर रहे हैं, वह ठीक है। मैंने सब जाँच की है। यहाँ बहुत अच्छी व्यवस्था है। और मैं तो यहीं हूँ। प्रत्येक सप्ताह आकर इनसे मिलती रहूँगी। हेमंत भी यहीं है और तुम भी यहाँ आ सकते हो।”

“अर्थात…? तुम्हें मालूम था…? राजू आश्चर्य से बोला।

“हाँ, राजू…!” सविता ने जितनी संभव हो उतनी नम्रता से कहा।

 तब ही चपरासी आया और बोला—“लाओ दादा का सामान ले जाना है ?”

पिताजी ने थैला उसके हाथ में दिया और उसके साथ धीमे-धीमे कदमों से ही इस नए निवास की तरफ कदम बढ़ाए…  और स्वयं नई जिंदगी की ओर प्रस्थान किया।

♦ ♦ ♦ ♦

मूल गुजराती कहानीकार – सुश्री रेणुका दवे

संपर्क –  जे-201,  कनककला-2, सीमा हाल के सामने,  माँ आनंदमयी मार्ग, सैटेलाइट, अहमदाबाद-15 मो. 9879245954

हिंदी भावानुवाद  – श्री राजेन्द्र निगम,

संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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