हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मेरे दो दिल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– मेरे दो दिल –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — मेरे दो दिल — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

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मेरे भीतर के लेखक को न जाने कैसे सोचने की समझ आ गई मेरे अपने दो दिल हैं। यह तो मुझे बहुत ही शुभ प्रतीत हुआ। मैंने तत्काल गणित बना लिया एक दिल स्वाभाविक रूप से बायीं ओर है। यही दिल मेरे जीवन की मीमांसा निर्धारित करता है। रहा एक वह दिल जो अदृश्य रूप से मेरे सीने की दायीं ओर जड़ित है। यह दायीं ओर का मेरा दिल मेरे लेखन का संगी – साथी है।

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© श्री रामदेव धुरंधर
29 – 12 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 146 ☆ लघुकथा – विडंबना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा विडंबना। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 146 ☆

☆ लघुकथा – विडंबना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“बहू! गैस तेज करो, पूरियाँ तेज आँच पर ही फूलती हैं” यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया| पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खा- खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियों को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी। कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। लेकिन एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवन हो गए।

पति का अनकहा आदेश- “तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब।” बच्चों की फरमाइश – “मम्मी ! अपनी छुट्टी में तो मेरे प्रोजेक्ट में मदद कर सकती हैं ना ?”

बस! बाकी सारे कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें खुल ही न सकीं। कॉलेज में परीक्षाएँ खत्म हुई थीं, जाँचने के लिए कॉपियों का बंडल मेरी मेज पर पड़ा मेरी राह तकता रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। “बहू की छुट्टी है” का भाव सासू जी को मुक्त कर देता। पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।

मन में झुंझलाहट थी, छुट्टी खत्म होने को आई थी। छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई। कल से फिर वही सुबह की भागम-भाग— यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- “बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए रहती हो।” आराम से सोफे पर लेटकर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- “एन्जॉय करो लाइफ को यार!”

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “परिवर्तन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆

✍ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

सड़क पर यातायात बहुत बढ गया। ट्रैफिक जाम हो जाता। ऑफिस जाने आने वाले सुबह शाम परेशान होते, खीजते। व्यवस्था को दोष देते। प्रिंट और मीडिया पत्रकार ट्रैफिक जाम और परेशान नागरिकों के विविध एंगल से प्रभावी फोटो समाचार के साथ प्रकाशित करते। जनता तो खीजते, घिघियाते बड़बड़ाते हुए सहन करने में नंवर वन पहले थी और आज भी है। सोचती है कि हमारा धर्म सहना है। घर हवा पानी सड़क के लिए सरकार कर के रूप में जो माँगे वह अदा करना है। जनता बहुत धार्मिक है, सहनशील है, उदार है और ईश्वर सहित सब पर विश्वास करती है।

जनता के सब्र को फल मिला और मंत्री जी निरीक्षण करने आ गए। स्थिति परिस्थिति का जायजा लिया और सड़क चौराहे के ऊपर उत्तर से दक्षिण की ओर ऊपरी पुल बनाने का निर्णय सुना दिया। निर्णय पर कार्रवाई चलती रही, सड़क का अध्ययन नाप जोख होने लगा। एंक्रोचमेंट हटाए जाने लगे। छोटे मोटे खोमचे वाले, चायपान का ठेला लगाने वाले, सड़क के हिस्से को फुटपाथ समझ उस पर सामान बेचने वाले, धंधा बंद होने से परेशान तो हुए, भुनभुनाते हुए इधर उधर भागने लगे। दो पहिया वाले और पैदल चलने वाले थोड़े खुश हुए कि उन्हें आवागमन के लिए थोड़ी जगह मिल गई। सात आठ महीने ऐसे ही गुजर गए।

इन सबके चलते एक दिन पुल के पिलर के लिए गड्ढे खोदने की प्रक्रिया दिखाई दी। खुदाई प्रक्रिया से सड़क पर अवरोध आने लगा। लोग खुदाई स्थल के दाएं बाएं से अपने दुपहिया चौपहिया वाहन निकाल जैसे तैसे आने जाने लगे। पैदल चलने वालों के लिए तो सड़क पर जगह पहले ही कम थी, अब और अधिक कम हो गई। जाम में खड़े वाहनों के बीच से या इधर उधर से सड़क पार करने वाले वृद्धों, महिलाओं व व्यक्तियों को देखकर वाहन चालकों की निगाहों में प्रश्न उबलते से दिखते कि लोग सड़क पर पैदल क्यों चलते हैं, सड़क पर आते ही क्यों हैं? बच्चों को देखकर उनकी निगाहों में थोड़ा रहम भी दिखाई दे जाता।

सड़क चौक के इधर उधर बने पिलर कांक्रीट की मोटी और भारी बड़ी चादरों से ढंके जाने लगे। असल में ये चादरें नहीं पुल के हिस्से थे जो मशीनों द्वारा बनाए जाते मशीनों द्वारा ऊपर चढाए जाते और मशीनों द्वारा ही एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच बिछा दिए जाते । नीचे केवल गड्ढे खोदे गए। पिलर भी ऐसे खडे किए जाते हैं कि नीचे सीमेंट बालू कुछ दिखाई नहीं देता। लोहे की सरियों का बड़ा सा गोल जाल खड़ा किया जाता है और मशीन से तैयार कांक्रीट उस जाल में उड़ेल दिया जाता है। और कुछ दिन में पिलर खडे हो जाते हैं। केवल पिलर के आसपास की जमीन पर बैरियर लगा कर सड़क को छोटा अवश्य करना पड़ता है और आवागमन के लिए रास्ते मोड़ दिए जाते हैं।

अब चौराहे के ऊपर पुल बिछाना शुरू हुआ तो चौराहे पर पुल के नीचे आना जाना बंद कर दिया गया और वाहनों का रूट बदल दिया गया । आम गरीब नागरिकों के लिए सबसे अधिक सुविधाजनक साधन सरकारी बस के अड्डे को इधर उधर बिखरा दिया। चौराहे के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में बस चौराहे तक आतीं और वहीं से लौट जाती हैं। नियमित बस यात्री को अपने निश्चित स्थान पर बस न पाकर, जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ जिस किसी प्रकार पहुंच कर बस पकड़नी होती है और वापसी में उसी जगह उतरना होता है। घर से बस पकड़ने के लिए पहुंचने और वापसी में घर तक पहुंचने के लिए पुल बनाने के लिए किए गए परिवर्तन को सहन करना ही होगा। जब पुल बन जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही तो विकास होगा। उपलब्ध सड़क पर बढती वाहनों की संख्या से उत्पन्न समस्या से निपटने के लिए परिवर्तन तो होगा ही।

 

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 53 – अलार्म…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 53 – अलार्म श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मोबाइल का अलार्म लगातार बज रहा था और सुनीता  बार-बार बंद कर  दे रही थी। मां ने आवाज लगाई  तो उसने रजाई को और ऊपर तक तान कर सो गई। मां ने इस बार जोर से चिल्लाया आखिरी बार बोल रही हूं, उठ कर नीचे जाकर नाश्ता कर लो।  जल्दी उठो वरना अकेली ही घर में रह जाओगी। मैं ताला लगा कर ऑफिस चली जाऊंगी।

सुनीता अलसाई सी चिल्लाकर बोली  मैं कल जरूर आपके साथ कॉलेज जाउंगी आज सारा दिन घर में सोने दो।

माँ ने कहा – कल तो कभी आयेगा ही नहीं? चलो! अब जल्दी से उठकर तैयार जाओ। आज बहुत कोहरा है बाहर कुछ दिख भी नहीं रहा है ठंडी हवा से शरीर कंपकंपा रहा है।

कुछ देर बाद दोनों सड़क पर थे। सुनीता की माँ का ध्यान बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी और फुटपाथ में बैठे हुए कुछ लोगों की ओर गया।

इतनी ठंड में सुबह सुबह ये बच्चे कैसे खेल रहे हैं और सभी लोग काम पर जा रहे हैं। ठंड तो सबको लगती है, मुझे भी लग रही है। लेकिन देखो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे। मैं पढ़ी लिखी थी इसलिए नौकरी कर तुम्हें पढ़ा रही हूं। अपना और तुम्हारा ध्यान रख रही हूं। तुम बड़ी ऑफिसर बनो। सामाजिक ताकत तो एक बड़े पद पर रहकर ही मिलती है। अन्यथा ये समाज के भेड़िये तुम्हें खा जाएंगे। ठंड में इंसान मजबूर होकर काम पर जाता है। तुम अच्छे से पढ़ाई करो और एक बड़ी ऑफिसर बनो।

अपने लक्ष्य को सामने रखो अपने आप ठंड भाग जाएगी। अपने मन में दृढ़ निश्चय करो। अलार्म बजते ही तुम समय के साथ नहीं चलोगी तो पीछे रह जाओगी। समय किसी के लिए रुकता नहीं है। देखो बातों बातों में तुम्हारा कॉलेज आ गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 39 – लघुकथा – संस्कार ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – संस्कार)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 39 – लघुकथा – संस्कार ?

“भाभी आपके कॉलेज की सहेलियाँ आपसे मिलने आईं हैं।” शुभ्रा ने अपनी भाभी तृषा से कहा।

तृषा अपनी सास के साथ बैठी थी।आजकल दिन भर कोई न कोई मिलने आया करता था।अभी कुछ दिन ही तो हुए थे उसके ससुर जी का देहांत हुआ था। वह आजकल सप्ताह भर छुट्टी पर थी।वह तुरंत  ड्राइंग रूम की तरफ़ चलने को उद्यत हुई।

सास ने कहा ” बेटा पानी तो पूछ लेना।अब समय बदल गया है।” “जी माँ।”  कहकर तृषा सहेलियों के बीच आ गई।

पहले सभी एक एक कर उसके गले लगीं और शोक व्यक्त किया। नेहा तृषा की करीबी सखी थी।उसने अचानक यह सब कैसे हो गया पूछा तो तृषा रोने लगी और आँसू पोंछती हुई ससुर जी के अचानक गुज़र जाने का वृतांत सुनाने लगी।

नेहा ने उसके कंधे पर हाथ रखकर ढाढ़स बँधाया और कहा,” अब कुछ समय वर्क फ्रॉम होम कर ले।सासू माँ को सहारा हो जाएगा।”

“हाँ , ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं। हम तीनों मिलकर ही वर्क फ्रॉम होम करेंगे तो माँ के पास हमेशा ही कोई न कोई होगा।”

“दो-तीन महीने में संभल जाएँगी वे। खाना बना रही हो तुम लोग?” सुमन ने पूछा।

“नहीं रे, मम्मी के घर से तीनों टाइम का भोजन आता है। मम्मी पापा शाम का खाना लेकर स्वयं माँ से मिलने आते हैं। कभी बुआ जी आती हैं तो वे भोजन लेकर आती हैं।कभी छोटे चाचू और चाची आते हैं। दिन भर लोगों का आना जाना लगा रहता है।” तृषा बोली।

“तेरा सारा परिवार इसी शहर में है तो सब मिलकर संभाल लेते हैं। यही तो फायदा होता है साथ रहने से ।” एक सहेली बोली

तृषा ने चाय के लिए पूछा तो सबने मना किया। अब वे आपस में बातें करने लगीं। इतने में नेहा ने कहा- तृषा इस महीने में तेरी किट्टी है। अब तो गेट टूगेदर न हो पाएगा घर पर। क्या करना है बता।”

एक सखी बोली- अपने पापा के घर जा रही है कहकर कुछ घंटों के लिए निकल जाना, फिर किसी होटल में पार्टी कर लेंगे।”

तृषा अवाक सी उसकी ओर देखकर बोली- मैं ऐसा नहीं कर सकती। मेरे ससुर जी मेरे भी पिता थे। उनके निधन पर मुझे भी उतना ही दुख है जितना शेखर और शुभ्रा को है। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी। इस बार की किट्टी कोई और उठा ले यह ग्रुप में बता दो।

नेहा ने कहा -“ठीक है यही सही है। अपना ध्यान रख। याद रख तेरे भीतर भी एक प्राण पल रहा है।ह र समय उदास रहना उसके लिए भी ठीक नहीं।”

सखियाँ चली गईं। शुभ्रा कमरे के भीतर से सभी सहेलियों की बात सुन रही थी। उसने माँ से जाकर सहेलियों की आपसी चर्चा का ज़िक्र किया।

माँ बोली, ” सुसंस्कृत घर की बेटियाँ दोनों घरों को जोड़े रखतीहैं। केवल पढ़ लिख लेना पर्याप्त नहीं होता। यही तो संस्कार है।

© सुश्री ऋता सिंह

23/11/24

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 322 ☆ लघुकथा – “काउंटर गर्ल…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 322 ☆

?  लघुकथा – काउंटर गर्ल…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

उसने बचपन से ही पढ़ा था रंग, रूप, धर्म, भाषा, क्षेत्र के भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के सभी अधिकार समान होते हैं । सिद्धांत के अनुसार नौकरी में चयन का आधार योग्यता मात्र होती है।

किन्तु आज जब इस बड़े से चमकदार शो रूम में उसका चयन काउंटर गर्ल के रूप में हुआ तो ज्वाइनिंग के लिए जाते हुए उसे अहसास था कि उसकी योग्यता में उसका रंग रूप, सुंदरता, यौवन ही पहला क्राइटेरिया था । यह ठीक है कि उसका मृदु भाषी होना, और प्रभावी व्यक्तित्व भी उसकी बड़ी योग्यता थी, पर वह समझ रही थी कि अलिखित योग्यता उसकी सुंदरता ही है। वह सोच रही थी, एयर होस्टेस, एस्कार्ट, निजी सहायक कितने ही पद ऐसे होते हैं जिनमें यह अलिखित योग्यता ही चयन की सर्वाधिक प्रभावी, मानक क्षमता है।

काले टाइडी लिबास में धवल काउंटर पर बैठी वह सोच रही थी नारी को प्रकृति प्रदत्त कोमलता तथा पुरुष को प्रदत्त ही मैन कैरेक्टर को स्वीकार करने में आखिर गलत क्या है ?

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – ज्ञान बनाम जीवन – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद लघुकथा “– ज्ञान बनाम जीवन –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — ज्ञान बनाम जीवन — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मेरे बाबा ने कभी मुझसे कहा था किसी के कंधे का सहारा मत लेना। वह अचानक हट जाए तो तुम गिर जाओगे। मेरे बाबा की ओर से यह मेरे लिए गहन ज्ञान हुआ। मेरा वही बाबा अपने जीवन के सांध्य में मेरे कंधे का सहारा ले रहा था। इस अवस्था में उसे कहाँ याद रहता उसने कंधे के बारे में मुझे कैसा ज्ञान दिया था। ज्ञान को मैं भूल जाऊँ तो यह मेरे बाबा का अपना जीवन था।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
21 – 12 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – ख़ज़ाना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा ख़ज़ाना)

☆ लघुकथा – ख़ज़ाना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

संगीत समारोह में बीस वर्षीय आर्यन ने इतना शानदार गाया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए। बहुत देर तक उसके लिए तालियाँ बजती रहीं। आर्यन के संगीत-गुरु राज वर्मा मंच पर अपने शिष्य के बारे में कुछ कहने के लिए आमंत्रित किए गए। उन्होंने कहा, “आज इसने जो मुकाम पाया है, अपनी मेहनत और लगन के कारण ही पाया है।

यह जून के महीने में जिस दिन पहली बार मेरे पास आया, उस दिन बेहद गर्मी थी। सड़कें आग की तरह जल रहा थीं। वह मेरे सामने नंगे पाँव खड़ा था। मैंने सोचा शायद जूते बाहर निकाल कर आया है। मैंने इसे सामने बैठाया, पानी पिलाया और कुछ सुनाने के लिए कहा। इसने गाया तो मुझे लगा बच्चे में प्रतिभा है। मैंने इसे सिखाने के लिए सहमति दे दी। यह दरवाज़े से बाहर निकला तो आदतन मैं दरवाज़े तक छोड़ने आया। इसने प्रणाम किया और सड़क पर चल दिया।

मैंने टोका – तुमने पाँव में कुछ पहना नहीं, कितनी गर्मी है?

इसने कहा – मुझे गर्मी नहीं लगती गुरु जी… राज वर्मा आगे कुछ बोल नहीं पाए। शब्द टूट गये थे, गला भर आया था, वे पर्वत की तरह अचल खड़े थे और उस अचल पहाड़ से झरने बह रहे थे।

इससे पहले कि वे रूमाल से आँसू पोंछते, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ने अपने रूमाल में उनके आँसू समेटे और कहा, “गुरु शिष्य के अद्भुत और स्नेहिल रिश्ते के साक्षी इन पवित्र मोतियों के अनमोल ख़ज़ाने को मैं हमेशा सँभालकर रखूँगा। इस ख़ज़ाने का स्वामी बनाने के लिए शुक्रिया।”

अब राज वर्मा और मुख्य अतिथि गले लगकर खड़े थे और तमाम श्रोताओं की आँखों में आँसू उम्मीद की तरह झिलमिला रहे थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #197 – अँधा – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – अँधा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 197 ☆

☆ लघुकथा- अँधा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

 “अरे बाबा ! आप किधर जा रहे है ?,” जोर से चींखते हुए बच्चे ने बाबा को खींच लिया.

बाबा खुद को सम्हाल नहीं पाए. जमीन पर गिर गए. बोले ,” बेटा ! आखिर इस अंधे को गिरा दिया.”

“नहीं बाबा, ऐसा मत बोलिए ,”बच्चे ने बाबा को हाथ पकड़ कर उठाया ,” मगर , आप उधर क्या लेने जा रहे थे ?”

“मुझे मेरे बेटे ने बताया था, उधर खुदा का घर है. आप उधर इबादत करने चले जाइए .”

“बाबा ! आप को दिखाई नहीं देता है. उधर खुदा का घर नहीं, गहरी खाई है .”

 © श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

११/०७/२०१५

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सोंध  ? ?

‘इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

..दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं।  माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।

?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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