श्री राजेन्द्र निगम
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री निमिषा मजुमंदार जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “आश्रय”।)
☆ कथा-कहानी – पापा – गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
आकाश से बरसतीं अग्नि-ज्वालाएँ मानो कम हों, इसलिए वाहनों का धुआँ और साथ ही हार्न की कर्कश आवाजें… मनुष्य की सहनशक्ति की भी कोई सीमा तो होगी ! ट्राफिक सिग्नल की लाल रोशनी देखकर नेहा का पैर ब्रेक पर चला गया | ‘ओह, एक सौ अस्सी सेकण्ड… और अहमदाबाद की यह गर्मी…!’
सिर पर बँधे दुपट्टे को उतारो तो दिमाग और मन दोनों को उबाल के लिए मजबूर करनेवाली गर्मी… और गोगल्स का बिल्कुल भी लिहाज रखे बगैर आँख में अँगारें को आँज देनेवाली दुपहर की धूप…! ‘अब बरसात हो जाए तो अच्छा !’ तब बेचैनी पसीना बनकर बह रही थी |
वैसे तो वह कल शाम से ही व्याकुल थी | समीर ने अल्टीमेटम दे दिया था, “नेहा, तुम्हें दो-तीन महीने का वक्त देता हूँ, निर्णय कर लेना | अब और अधिक राह नहीं देख सकते | हम चार वर्ष से साथ घूम रहे हैं | अब या तो विवाह कर लें या फिर अलग हो जाएँ| मेरे मम्मी-पापा अब जल्दी कर रहे हैं | तुम्हें तो किसी से कुछ पूछना नहीं है, मात्र एक निर्णय ही लेना है !”
नेहा उसे किस तरह समझाए कि वह एक निर्णय लेना ही तो बहुत जटिल है न ! पापा को ‘आनंद सीनियर सिटीजन्स केयर सेंटर’ में रखने के लिए उसने उनका नाम तो दर्ज करवा दिया था | दो बार वह अचानक गई थी, यह देखने के लिए कि वे बुजुर्गों की देखरेख किस प्रकार करते हैं | छह वर्ष पहले निदान हुआ था कि पापा को अल्झाइमर हुआ है और तब यह मानने में ही नहीं आ रहा था कि पूरी जिंदगी सक्रिय रहे पापा को यह रोग कैसे हो सकता है ? निवृत्त होने के बाद भूलने की शुरुआत घर के रास्ते को भूलने से हुई थी | और फिर भूलना बढ़ता गया और धीरे-धीरे वे सब कुछ भूलते गए |
जिस पापा को उनकी दोनों बेटियों नेहा-निराना के बचपन की मील के पत्थर जैसे सभी दिनांक ठीक से याद रहते थे, कि किस तारीख को कब वह उल्टी पड़ी, कब घुटने के बल चलने लगी, किस तारीख को पहला कदम रखा, आज उन्हीं पापा को आज का दिनांक मालूम नहीं है ! अपने हाथों नन्हीं नेहा को कौर खिलानेवाली पापा को आज उनके स्वयं के मुँह में डाले गए कौर को चबाने का ध्यान भी नहीं है ! नेहा के स्कूल के स्पोर्ट्स डे, पेरेंट्स-टीचर मीटिंग के बारे में कभी न भूलनेवाले उसके प्रिय पापा नेहा को ही नहीं पहचान रहे हैं !
नेहा की माँ जब तक थी, तब तक परेशानी नहीं थी, लेकिन दो वर्ष पहले कोरोना के दौरान वे गुजर गईं और तब से ही नेहा की जवाबदारी बढ़ गई | नेहा ऑफिस जाती, उतने समय के लिए केयर-टेकर रमेशभाई आते थे, लेकिन शेष समय पापा नेहा पर ही पूर्ण रूप से अवलंबित थे | परिस्थिति इतनी खराब हो गई थी कि घर पर यदि ताला न लगाया हो और नेहा बाथरूम जाकर वापिस आए, तब तक पापा बाहर निकलकर किसी भी दिशा में चले जाते| नेहा दौड़ती-दौड़ती सब रास्तों पर तलाश करती, तब कहीं जाकर वे मिलते | उन्हें साथ लेकर कहीं जाना तो पूरी तरह असंभव था |
डॉक्टर ने कहा था कि ऐसे रोगी बहुत अधिक जीवित नहीं रह सकते हैं | समीर के साथ परिचय बढ़ा, तब मम्मी थी, लेकिन अब उनकी गैर-मौजूदगी में पापा तो नेहा की ही जवाबदारी में थे | विवाह के बाद वह ससुराल जाए, तो वहाँ समीर के मम्मी-पापा थे, इसलिए पापा को साथ ले जाना संभव नहीं था | शायद समीर भी इस जिम्मेदारी को उठाने की तैयारी नहीं थे और साथ ही नेहा को भी भावी वैवाहिक जीवन के संबंध में उसके रंगीन सपने थे और उसमें पापा कहीं फिट नहीं बैठते थे | समीर उसे बहुत पसंद था | उसे गँवाने के बारे में तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी | अब तक नेहा विवाह की बात को किसी तरह आगे बढ़ाती रही, लेकिन समीर अब प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं था |
दीदी ने इस उलझन को ऐसे सुलझाया कि पापा को ‘आनंद केयर सेंटर’ में छोड़ दिया जाए | बेचारी दीदी ! वह इस सलाह के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकती थी | उसके घर में वृद्ध सास-ससुर और दो बालक, ऐसे में वह पापा की सँभाल कैसे करें ! इस समाधान को उसने मजबूरी में स्वीकार तो कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि यह बोलने में जितना सहज लग रहा है, वैसा यह है नहीं !
“मेडम… ओ मेडम…”, कान में पड़े ये शब्द बिल्कुल नजदीक से बोले गए थे, लेकिन विचारमग्न नेहा का ध्यान खींचने में वे सक्षम नहीं थे |
पुनः आवाज आई | इस बार संबोधन कुछ अलग था, “दीदी, मात्र दो सौ रुपयों की जरूरत है, दे दो न !” इस वाक्य ने नेहा का ध्यान खींचा | उसने देखा कि एक नौ-दस वर्ष का बालक स्कूटर के पास हाथ लंबा कर खड़ा हुआ था | बहुत समय से बिना धुला, अच्छे बड़े माप का सफेद बुशर्ट और खाकी चड्डी, जो उजागर कर रहे थे कि वे शायद उतरे हुए किसी अन्य से मिले होंगे | नाड़े की डोरी से सलाई जैसी कमर पर बाँधी हुई चड्डी के बाहर शर्ट का एक भाग लटक रहा था | पीछे ‘फटा या फटेगा’ जैसे बेकपेक पुस्तकों का अनिच्छापूर्वक भार झूल रहा था | पैर में स्लीपर थे,मानो दो-तीन मालिकों के उपयोग के बाद वे लिए गए हों | इस पूरे निस्तेज चित्र से अलग दो पानीदार आँखों ने नेहा को किसी चुंबक की तरह खींचा |
कुछ मजाक के सुर में और कुछ उसको वहाँ से खदेड़ देने के आशय से नेहा के मुँह से निकला, “अरे, तुम तो ऐसे माँग रहे हो, मानो मैं पिछले जन्म की तुम्हारी देनदार हूँ ! कोई माँगता है तो दो-पाँच रुपए माँगता है | इस तरह कोई दो सौ रुपए माँगता है ? कुछ होश भी है ? चलो भागो |”
लड़के की भागने की तैयारी बिल्कुल भी नहीं थी, “दीदी, मेरी दादी बहुत बीमार है | यह देखो, डॉक्टर की पर्ची | उसकी दवाई लाने के लिए चाहिए | सच कह रहा हूँ |”
उसके हाथ में वास्तव में डॉक्टर की पर्ची थी | ट्राफिक सिग्नल की रोशनी हरी होने ही वाली थी | नेहा को उस पर दया आई |
कुछ अधिक पूछताछ के मकसद से उसने पूछा, “सिविल अस्पताल जाओगे तो मुफ्त में दवाई मिल जाएगी !”
वह लाचार मुँह ऊँचाकर बोला, “दीदी, सिविल अस्पताल की दवाई लागू नहीं होती, वह गर्म पड़ती है | दादी को इस डॉक्टर की दवाई ही माफिक रहती है | प्लीज, जल्दी दो न ! मुझे स्कूल में जाने की देरी हो रही है !”
“तुम्हारे मम्मी-पापा ?”
“वे तो मजदूरी पर गए हैं | वे काम न करें, तो हम खाएँ क्या ?”
नेहा का हाथ अनायास ही पर्स में चला गया | उसने पचास रुपए दिए | उसके हाथ में जैसे ही रुपए आए, वह तो पैरों में पंख आएँ हो, उस तरह उड़ गया | तब ही ट्राफिक की हरी रोशनी हो गई, इसलिए वह किस ओर गया, यह देखने का वक्त ही नहीं रहा |
नेहा उसके स्वयं के जंजाल में ही इतनी उलझी हुई रहती थी कि वह लड़का शायद उसे याद भी नहीं आता, लेकिन सप्ताह के बाद ऑफिस जाते समय वह फिर ट्राफिक सिग्नल पर रुक गई | नेहा का चेहरा दुपट्टे से ढँका हुआ था और वह लड़का शायद उसे भूल गया होगा, इसलिए उसके पास आकर उसी तरह से उसने पुनः दो सौ रुपए माँगे | इस बार भी वही… दादी की बीमारी का बहाना ! उस विभूति को भूल जाएँ, ऐसी वह कहाँ थी ! नेहा उसे तुरंत पहचान गई |
अब मन में शंका का कीड़ा उभरा, ‘इस लड़के को हर वक्त दो सौ रुपए जैसी बड़ी रकम की जरूरत ही क्यों पड़ती है ? यह कोई उल्टा-पुल्टा धंधा तो नहीं करता होगा ? जुआ… या फिर ड्रग्स…? वैसे तो लगता है कि पढ़ने के लिए जाता है, तो फिर…? इसके माँ-बाप को मालूम होगा ? इतनी कम उम्र में ऐसे उल्टे-पुल्टे धंधे करता हो तो, किसी को तो इसे रोकना चाहिए, नहीं तो इसकी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी ! आज तो देखना ही पड़ेगा कि यह इन रुपयों का क्या करता है !’
नेहा, “तुम्हें मैं पैसे तो दूँगी, लेकिन तुम मुझे तुम्हारे घर ले जाओ, तुम्हारी दादी के पास !”
लड़का एक पल के लिए रुका और फिर तुरंत बोला, “हाँ,चलिए | आपको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है न ? आप खुद ही देख लिजिए |”
आगे वह लड़का दौड़ रहा था और पीछे था, नेहा का स्कूटर… कुछ दूर एक बहुत गंदी झोपडपट्टी के आगे वे पहुँचे |
“अब आगे स्कूटर नहीं जाएगा, इसे दीदी, यहीं रख दो |”
दुपहर का वक्त था, इसलिए इक्के-दुक्के व्यक्ति के अलावा वहाँ ख़ास कोई बस्ती दिखाई नहीं दे रही थी | कुछ अधनंगे लड़के खेल रहे थे और वे कुतूहल से नेहा को ताक रहे थे | उस नजर से परेशान होकर उसे वापिस लौटने की इच्छा हुई, लेकिन फिर मन कड़ाकर वह आगे बढ़ी | कुछ कदम चलकर वे लोग एकदम एक जीर्णशीर्ण झोंपड़ी के पास पहुँचे | लड़के के इशारा करने पर नेहा ने अंदर नजर घुमाई, झोंपड़ी जैसी ही जीर्ण खाट पर उम्र के पड़ाव पर पहुँची एक वृद्धा हाथ-पैर समेटकर औंधी पड़ी हुई खाँस रही थी | शरीर में सिर्फ हड्डियाँ और चमड़ी ही थे | यदि वे खाँसती न होती, तो शंका होती कि वे जीवित भी है या नहीं | पास रखी हुई मेज के तीन पाए थे और चौथे के लिए ईंटो के थप्पे का सहारा था | मेज पर दवाई की एक खाली बोतल और एक पीतल का ग्लास रखा हुआ था | नेहा की नजर जल्दी से झोंपड़ी में घूम गई | खूँटी पर दो-चार चीथंडे, एक बगैर घाट की पतरे की पेटी और कोने में ढक्कनवाले बगैर टींचे हुए दो-तीन डिब्बे, बस इतना ही माल असबाब था | ‘इसमें चार व्यक्ति किस तरह रहते होंगे ? अरे ! इससे तो मवेशियों को बाँधकर रखने का स्थान भी अच्छा होता है !’
लड़के पर शंका करने के कारण नेहा को स्वयं पर इतनी शर्म आई कि वह एक भी अक्षर बोले बगैर वहाँ से निकल गई |
पूरे रास्ते मन पर वह लड़का ही छाया रहा | रिसेस में रीना और शिल्पा के साथ लंच लेते समय भी नेहा उसकी ही बात करती रही | “रीना, लोग इतने गरीब होते हैं, वह यदि मैंने आज अपनी नजरों से नहीं देखा होता, तो मुझे मालूम ही नहीं होता ! क्या खाते होंगे और वे कैसे जीते होंगे ? ईश्वर ने हमें भरपूर दिया है ! हमें कुछ करना चाहिए ?”
रीना के पहले शिल्पा कूदी, “यार, तुम कितने लोगों के लिए करोगी ? ऐसे तो इस देश में लाखों लोग हैं ! हम पूरे बिक जाएँ, तब भी उनके पूरे खाने का इंतजाम नहीं कर सकते हैं | उसे भूल जाओ और इस समाजसेवा के भूत को सिर से उतार दो !”
लेकिन नेहा का भूत भला जल्दी उतरनेवाला कहाँ था ! उसके मन पर तो साक्षात् दरिद्रनारायण की मूर्ति हावी हो गई थी | अब तो रीना भी साथ आने के लिए तैयार हो गई थी | करीब तीन दिन के बाद शाम को एक थैला भरकर कपड़े, एक बड़े बैग में किराने का सामान और कुछ फल आदि लेकर वे दोनों झोंपडपट्टी के पास पहुँच गई | इस वक्त सायंकाल था, इसलिए बहुत लोग दिखाई दे रहे थे | वहाँ पहुँचकर उन्होंने आवाज लगाईं, “कोई है ?” यह सुनकर एक दुबली-पतली करीब चालीस वर्ष की एक बाई बाहर आई |
“किसका काम है ?” के जवाब में नेहा ने उस लड़के की बात की | यह भी कहा कि वह यहाँ पहले आई थी | उस बाई के चेहरे पर अबूझ भावों का आन-जाना होता रहा | पूरी बात हो गई तब नेहा ने यह और कहा कि ये सब वस्तुएँ उन्हें और विशेष तो उनके लड़के को देने के लिए आई है |
अब उस महिला के चेहरे पर दया-मिश्रित मुस्कान आ गई, “अरे बहन, वह शनिया आपको बना गया | आपके जैसी पढ़ी-लिखी उसकी बातों में आ जाती हैं और मुआ वह अच्छा रुपए बना लेता है | वह कोई मेरा लड़का नहीं है… वह तो मगपरा के झोंपड़े में रहता है… वह तो मेरी बुढ़िया के बहाने… सब से रुपया लेता रहता है | दिन में तो मैं मजदूरी पर जाती हूँ, इसलिए वह उसका मनपसंद कुछ करता रहता है | यह तो अब कैसे मालूम कि उसने कितनों से कितने रुपए लिए होंगे ?”
नेहा तो आघात से वहीं ढेर जैसी हो गई | ‘इतना-सा लड़का उन्हें बना गया ? ऐसी मूर्ख तो वह कभी बनी नहीं थी ! उसने वे सब वस्तुएँ उस बाई को दे दीं | बाई तो खुशी से पागल ही हो गई | वह नेहा को खुश करने के लिए शनिया को गालियाँ देती रहीं… लेकिन नेहा वह सब सुनने की हालत में नहीं थी, मौन रहते हुए वह रीना का हाथ खींचकर चल दी|
समीर को कहा तो वह हँस दिया, “नेहा, वह इतना-सा बच्चा, तुम्हें उल्लू बना गया !”
वास्तव में उल्लू बना गया ! नेहा को स्वयं पर बेहद गुस्सा आ रहा था | नेहा की तो हालत अब ऐसी थी कि रास्ते पर उस लड़के जैसा कोई नजर आए, तो उसके पैर अपनेआप स्कूटर के ब्रेक पर चले जाएँ ! नेहा को यह विचार सतत बेचैन करता था कि ‘लड़का आखिर उस पैसे का क्या करता होगा ? उसे जब वह याद आता तो साथ ही इतना गुस्सा भी आता कि यदि वह नजर आ जाए, तो उस पर दो झापट लगाकर उसे सीधा कर दे !
नेहा को अधिक राह नहीं देखनी पड़ी ! पंद्रह दिन भी नहीं गुजरे थे कि वह नेहा की नजर के सामने चौराहे पर दिखाई दिया | वह तो पूरी घटना से अनजान था, इसलिए नेहा को देखते ही अन्य सब स्कूटरवालों को छोड़कर नेहा के पास पहुँच गया | वही निर्दोष चेहरा और करुणामय आवाज, “दीदी, अच्छा हुआ, आप मिल गईं | डॉक्टर ने दादी को नई दवाई लिखी है | सिर्फ दो सौ रुपए चाहिए, दो न ?”
नेहा को गुस्सा तो ऐसा आ रहा था कि उसे एक जोरदार थप्पड़ लगा दे, लेकिन उसने शांति बनाए रखी | सिग्नल खुलने में अभी कुछ सेकंड की देर थी और उसने पर्स में से दो सौ रुपए उसे दिए | वह दौड़ा | नेहा ने भी स्कूटर दौड़ाया, लेकिन ट्राफिक के कारण उसे कुछ देर हो गई और वह आँख से ओझल हो गया | नेहा की बेचैनी पराकाष्ठा पर पहुँची, ‘अब उसे कहाँ ढूँढना ?’ अचानक उसे याद आया कि वह मगपरा की झोंपडपट्टी में रहता है और वह स्कूटर उस ओर ले गई | वह दूर से ही दिखाई दिया… हाथ में एक कागज की पुड़िया लेकर वह दौड़ता हुआ जा रहा था | उसने स्कूटर रोका और सुरक्षित अंतर रखते हुए वह उसके पीछे पहुँच गई | एक कच्चे कमरे जैसे मकान के पास की बिल्कुल संकड़ी नाली से लगी जैसी जगह में वह घुस गया | नेहा छिपती हुई, उसके पीछे पहुँच गई |
दीवार के कोने के पीछे से उसने एक नजर डाली तो पीछे खुले बाड़े में, डोरी से बँधा हुआ एक मध्यम वय का पुरुष नारियल की डोर से बनी खाट पर बैठा हुआ दिखाई दिया | मैले-कुचेले कपड़े, बढे हुए बाल और दाढ़ी ! उसके हाथ और चेहरे के हावभाव से ही लगता था कि वह मानसिक रूप से अस्थिर है | वह… हाँ शनिया… यही नाम था न उसका ! उसने, “पापा, ये जलेबी… आप सुबह याद करते थे न ! सब आपकी है, हँ !” ऐसा कहते हुए उसने पुड़िया खोल दी और उस व्यक्ति के सामने रख दी और वह किसी भुखमरे की तरह उस पर टूट पड़ा | एक गले से नीचे उतरती भी नहीं थी और वह मुँह में दूसरी ठूँस देता था | उसके हाथ, मुँह, कपड़ा सब चासनी में लथपथ हो गए थे, लेकिन उस बंदे को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था | “पापा, धीमे-धीमे खाओ | यह देखो चासनी ढुल रही है | चीटियाँ आएँगी | आपको नहलाना पड़ेगा तो माँ नाराज होंगी |” यह कहते हुए वह प्रेम से उनके हाथ- मुँह पोंछ रहा था |
इस विचित्र दृश्य में डूबी नेहा को यह याद ही नहीं रहा कि वह वहाँ क्यों खड़ी थी ! उसके कंधे पर किसी का हाथ अड़ा | पीछे देखा तो एक स्त्री थी | नेहा के चेहरे के भाव मानो वह समझ गई हो, इसलिए वह बोली, “यह मेरे शनिया का बाप है | पागल है | बाँधकर रखना पड़ता है, नहीं तो कहीं चला जाए | इसे खाने के अलावा और किसी बात का मालूम नहीं पड़ता है | खाने का बहुत शौकीन है | रोज कुछ नया खाने के लिए चाहिए | वह जब कमाता था, तब रोज शाम को आते समय पुडिया बँधवाता और दोनों बाप-बेटे खाते; लेकिन अब…? मैं तो रोटी का इंतजाम करूँ या ये सब शौक ? इसलिए शनिया उसके बाप के लिए माँग कर ले आता है | बाप के मुँह से जो निकल जाए, वह हाजिर कर देता है | आपसे भी रुपए माँगे होंगे | इसीलिए आई हैं न !”
नेहा को क्या बोलना है, यही समझने में उसे कुछ वक्त लगा | मूल काम याद आया| “लेकिन इतना सब झूठ…? दादी बीमार है… इतना सब किस लिए… यह तो मुझे किसी बीमार माँजी के पास ले गया था ! यह लोगों को मूर्ख बनाकर पैसे बनाता है !”
वह हँसी, “वह यदि सच बोलकर माँगे, तो बहनजी आप देंगी ? सच कहना, पागल इन्सान को मिठाई खिलाने के लिए कोई रुपए देगा ? शनिया को उसके बाप से बहुत प्यार है | बाप की इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर के रुपिए ले आता है | वह चोरी नहीं करता है, माँग कर लाता है और इसलिए मैं उसे रोकती नहीं हूँ |”
सुन्न हो गए मन के साथ, नेहा के पैर अपने आप वहाँ से चलने लगे | स्कूटर के पास पहुँचकर, उसने पर्स में से मोबाईल निकालने का पहला काम किया | पलकों की पाल पर इकट्ठे आँसुओं को सुनाई दिया, “समीर, मैं तुम्हें मेरी ओर से मुक्त करती हूँ | तुम्हें बहुत चाहती हूँ, लेकिन मुझे माफ़ करना, जब तक पापा हैं, तब तक अपना विवाह संभव नहीं है |”
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मूल गुजराती लेखिका – सुश्री निमिषा मजुमंदार
संपर्क – जूना पावर हाउस सोसायटी, रोटरी भवन के पीछे, जेलरोड, मेहसाणा, 384002 – मो. 9898322931
हिंदी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम,
संपर्क – 10-11 श्री नारायण पैलेस, शेल पेट्रोल पंप के पास, झायडस हास्पिटल रोड, थलतेज, अहमदाबाद -380059 मो. 9374978556
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈