(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संकल्पों का संविधान…“।)
अभी अभी # 583 ⇒ संकल्पों का संविधान श्री प्रदीप शर्मा
नया वर्ष, नया संकल्प, जितने वर्ष, उतने संकल्प। संकल्प के प्रति इतनी निष्ठा, मानो संकल्प नहीं संविधान हो। संकल्प और संविधान में कोई अंतर ही नहीं रह गया। आम आदमी संकल्प और संविधान दोनों से अनजान होता है। शायद अब उसे बाइबल और रामायण की तरह संविधान का भी पाठ करना पड़े। जागो, नागरिक जागो।
मेरी और संविधान की उम्र लगभग बराबर ही है। हिंदी में कहें तो ” मैं भी ७५ भाग रहा हूं। ” (I am also running 75 .)
संकल्प को तोड़ने की संविधान में कोई सजा नहीं है, लेकिन संविधान का पालन अनिवार्य है। संविधान में अगर कर्तव्य है तो अधिकार भी। संकल्प में केवल आपका विवेक काम करता है, शुभ संकल्प से बड़ा कोई नव वर्ष का उपहार नहीं।।
वैसे तो संकल्प विकल्प मन ही करता है, लेकिन संकल्प मन की लगाम को कसने का एक स्थूल प्रयास है। मन के घोड़े बड़े चंचल होते हैं, और वे किसी चाबुक अथवा लगाम के गुलाम नहीं। यह निर्मोही मन खुद ही हमें मोह के जाल में फांस लेता है और संकल्प की काट, कोई ना कोई सुविधाजनक विकल्प ढूंढ ही लेता है।
आत्मा की तरह मन भी शरीर में कहीं दिखाई नहीं देता। नित्य, शुद्ध और अजर अमर होते हुए भी, जिस तरह जीव के संपर्क में आकर यह जीवात्मा हो जाती है, ठीक उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ और मोह के संस्कारों में पड़कर हमारा शुद्ध और पवित्र मन भी मैला हो जाता हैं।।
घर की मैली चादर तो फिर भी आसानी से धोई, सुखाई जा सकती है, लेकिन मन का मैल साफ करने का कोई सर्फ अथवा डिटर्जेंट अभी ईजाद नहीं हुआ। बस दही की तरह मन को मथकर पहले मक्खन और बाद में उसे तपाकर ही शुद्ध चित्त वाला घी प्राप्त हो सकता है। मन को मथना और फिर उसे तपाना ही तो शुभ संकल्प का विधान है।
जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, उसी तरह छोटे छोटे संकल्पों से ही मन रूपी दैत्य पर काबू किया जा सकता है। संकल्प का कोई पल नहीं होता, कोई शुभ मुहूर्त नहीं होता।।
जिस तरह संविधान में अनुच्छेद होते हैं और संविधान की आत्मा को चोट पहुंचाए बिना भी समय और परिस्थिति अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार संकल्पों में भी विकल्पों का प्रावधान भी है। आपने एक जनवरी को ही संकल्प ले लिया कि आज से पूरे वर्ष सुबह ठंडे पानी से स्नान करूंगा, लेकिन अगर दो रोज बाद ही अगर जुकाम और बुखार आ जाए, तो संकल्प में भी संशोधन का विधान है। आपातस्थिति में गर्म पानी से भी स्नान किया जा सकता है।
कहीं कहीं तो संकल्पों में भी मध्यम मार्ग ढूंढ लिया जाता हैं, यह चित्त ही कई अगर और मगर लगा लिया करता है। कुछ लोग प्रवास के दौरान सभी संकल्प त्याग देते हैं, तो कुछ लोग विवाह जैसे मंगल कार्य के लिए अपने आपको संकल्प मुक्त कर देते हैं। इस तरह संकल्प के संविधान के सभी अनुच्छेदों में आपको छेद ही भले ही मिल जाएं, लेकिन फिर भी वे कभी संकल्पों की आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं करते। जिस तरह पंडित जी जल के आचमन के साथ कुछ संकल्प लेने को कहते हैं, वे स्वत: ही जल के साथ, आपात धर्म के दौरान, लिया हुआ संकल्प भी छोड़ देते हैं। आखिर संकल्प भी हमारे मन की खेती ही तो है।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 116 ☆ देश-परदेश – ठंड बहुत है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इन शब्दों के उपयोग से हम अपनी लेट लतीफी पर पर्दा डालने का कार्य करते हैं। मौसम को हथियार बनाना सब से आसान जो होता हैं।
कुछ दिन पूर्व जयपुर से दिल्ली प्रातः काल टैक्सी से यात्रा करनी थी। जयपुर से जाने वाले वर्तमान में परिचितों के लिए मिठाई के स्थान पर विश्व प्रसिद्ध कचौरी चाहे प्याज,कोटा या दाल वाली को ही प्राथमिकता देते हैं। मेजबान भी मीठे के नाम से परहेज करते हैं।
घर के पास के कचौरी निर्माता को फोन पर जानकारी प्राप्त की कितने बजे कचौरी उपलब्ध हो जाएगी। उसने साढ़े सात पर सभी वैरायटी की गारंटी ली। सुबह जब आठ बजे उसके यहां पहुंचे तो बोला अभी तो आधा घंटा और लगेगा। उसने भी ठंड का हवाला दे कर हमारे गुस्से को ठंडा कर दिया। हमने भी तर्क दिया क्या ठंड अचानक आ गई है ? वो हंसते हुए बोला इतनी देरी तो स्वाभाविक हैं। रात को दुकान बंद करने के समय बहुत देरी हो जाती हैं। आजकल लोग निशाचर हो गए हैं। स्विगी वाले “कचोरीखोरों” को रात्रि ग्यारह बजे तक घर पहुंच सेवा देने में तत्पर रहते हैं। आप जैसे बुजुर्ग ही सुबह सुबह हमारी दुकान पर आकर बहस कर दिमाग खाते हैं।
हमारी समझ में आ गया, इसे अवश्य बस कंडक्टर और सेवानिवृत आई ए एस के थप्पड़/ झगड़े वाली कहानी की जानकारी होगी। हम भी आधे घंटे तक इंतजार कर कचौरी ले कर आ गए। अब ठंड बहुत बढ़ गई, मोबाइल पर उंगलियां नहीं चल रहीं हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बैंड बाजा…“।)
अभी अभी # 582 ⇒ बैंड बाजा श्री प्रदीप शर्मा
बैंड बाजा और बैंड बजने में ज़मीन आसमान का अंतर है! हम आज उस बैंड की बात करने जा रहे हैं, जिसे बच्चे बाजा कहते हैं, और जिसके बिना बारात नहीं निकलती।
किसी भी बैंड बाजे की सबसे बड़ी खूबी होती है, बैंड वालों की यूनिफॉर्म, जो अक्सर लाल, पीली, नीली, और फौजी रंग की होती है। हर इंसान की ऊंच – नीच को, रंग -रूप और जात पात को अगर कोई मिटा सकता है, तो वह है यूनिफॉर्म। यूनिफॉर्म को वर्दी भी कह सकते हैं। वर्दी ही इंसान को अगर एक पुलिस वाला बनाती है, तो वर्दी ही उसे एक फौजी भी बनाती है। वर्दी में अनुशासन है। वर्दी का रंग एक है, अमीर क्या, गरीब क्या।।
बाजा, एक बहुत पुराना वाद्य है ! बैंड का इतिहास अंग्रेज़ो के ज़माने से जुड़ा है। पुराने समय में भी जब विजय घोष होता था, ढोल धमाका होता था, विवाह की शहनाइयां बजती थीं, नगाड़े बजाएं जाते थे। मंगलगान गाए जाते थे। पुष्पहारों से स्वागत किया जाता था।
कोई भी शहर, गांव, कस्बा हो, शुभ कार्य पर, भजन कीर्तन, सुन्दरकाण्ड पर, ढोलक की आवाज़ अवश्य गूंजती थी। लोक गीत, विवाह गीत भी कहीं बिना ढोलक के गाए जाते हैं। शादी पर अगर बैंड बाजा न हो, तो बारात वापस चली जाती है। तीन चार महीने पहले से बैंड बाजे की बुकिंग करनी पड़ती है। ढोलची तो फिर भी कम समय में उपलब्ध हो जाता है।।
मेरे शहर के व्यस्त खजूरी बाज़ार में कभी इनकी दुकानें हुआ करती थी, जहां बैंड वाले प्रैक्टिस के रूप में धुन निकाला करते थे। इनके नाम भी कुछ अजीब ही होते थे। मालवा दरबार बैंड, नौशाद बैंड, गंभीर बैंड, के अलावा भी अन्य कई तरह के बैंड अनंत चतुर्दशी के उत्सव में देखे जा सकते थे।
15 अगस्त और 26 जनवरी की परेड के वक्त मिलिट्री बैंड की धुन हम सन 1947 से सुनते आ रहे हैं। याद कीजिए मन्ना डे का वह देशभक्ति पूर्ण गीत ;
बिगुल बज रहा आजादी का
गगन गूंजता नारों से
कहनी है यह बात मुझे
देश के पहरेदारों से
संभल के रहना
अपने घर के
छुपे हुए गद्दारों से।।
बात वही, लेकिन कितने सालों पहले, कितनी खूबसूरती से कही ! बिगुल से याद आया, हां, तो हम बैंड बाजे की बात कर रहे थे। किसी भी व्यक्तियों के समूह को भी बैंड कहते हैं। चूंकि बैंड बैठकर नहीं बजाया जाता, इसलिए इनके वाद्य देसी नहीं होते। एक बैंड मास्टर होता है, जो पहले क्लारेनेट से धुन निकालता है, फिर वन, टू, थ्री के बाद बाजा शुरू हो जाता है। कम से कम पंद्रह की संख्या एक बैंड का रूप ले लेती है। छोटे मोटे बिगुल और बड़े बड़े ढोल, बिना ड्रम, ट्रम्पेट और ढपली के भी कहीं बैंड बजा है।
एच एम वी के भोंगे की तरह थोथा सूंड जैसा भोंगा, और बड़े बड़े ढोल। सिर्फ फूंक मारने और ठोकने के लिए ही होते हैं, उनसे कोई धुन नहीं निकाली जा सकती। किसी एक ऊंघते हुए इंसान के हाथों में बड़ा सा झुनझुना टाइप वाद्य पकड़ा दिया जाता है, लेकिन बैंड की शान वे ही लोग होते हैं।।
क्या दिन थे वे भी ! बारात के साथ गैस बत्ती वाले पेट्रोमेक्स सर पर उठाकर चलने वाले मजदूर, बारात को रोशन किया करते थे, और नशे में झूमते हुए बाराती नाचते वक्त जब एक एक, दो दो के नोट न्यौछावर करते थे, तो बेचारे बैंड वाले उन्हें या तो हाथ से छीना करते थे, या ज़मीन से उठा लिया करते थे।
कुछ उद्दंड किस्म के लंबे लफंगे, अपना हाथ इतना ऊंचा कर लेते थे, कि बेचारा बाजे वाला, उनके हाथ तक नहीं पहुंच पाता था। एक पैशाचिक संतुष्टि के पश्चात ही वह नोट का टुकड़ा, बाजे वाले के हाथ में सौंपता था।
आज बारात अत्याधुनिक हो गई है, और बैंड बाजे भी। एक बड़ी कार में कुछ गायक कान फाड़ू डी जे के उपकरणों के साथ विराजमान हो जाते हैं, सबसे पीछे एक डीजल का जेनरेटर आवाज़ करता हुआ, और प्रदूषण फैलाता हुआ चलता है, तो ट्यूब लाइट और चमचमाती झालरों के बीच कुछ बैंड वाले आगे आगे चलते हैं, और उनके पीछे पूरी बारात। बारात को पूरी रात छोटी पड़ती है, सड़क पर नाचने, आतिशबाजी छोड़ने और शोर प्रदूषण फैलाने के लिए।।
प्याज कितना भी महंगा हो जाए, शादियों की फिजूलखर्ची एक आवश्यक बुराई है, सामाजिक व्यवस्था है, लाखों के मैरिज गार्डन में अगर छप्पन तरह के व्यंजन न परोसे जाएं, तो काहे की शादी। ढोल, धमाका और नाच गाना ही तो शादी का मकसद होता है। जो बाराती बैंड बाजे की धुन में सड़क पर नहीं नाचा, वह काहे का बाराती। कभी किसी बैंड बाजे वाले इंसान की निजी जिंदगी में न झांके, आपकी खुशियों का बैंड बज जाएगा।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 274 ☆ अपरिग्रह-…
नये वर्ष के आरंभिक दिवस हैं। एक चित्र प्राय: देखने को मिलता है। कोई परिचित डायरी दे जाता है। प्राप्त करनेवाले को याद आता है कि बीते वर्षों की कुछ डायरियाँ ज्यों की त्यों कोरी की कोरी पड़ी हैं। लपेटे हुए कुछ कैलेंडर भी हैं। डायरी, कैलेंडर जो कभी प्रयोग ही नहीं हुए। ऐसा भी नहीं है कि यह चित्र किसी एक घर का ही है। कम या अधिक आकार में हर घर में यह चित्र मौज़ूद है।
मनुष्य से अपेक्षित है अपरिग्रह। मनुष्य ने ‘बाई डिफॉल्ट’ स्वीकार कर लिया अनावश्यक संचय। जो अपने लिये भार बन जाये वह कैसा संचय?
विपरीत ध्रुव की दो घटनाएँ स्मरण हो आईं। हाउसिंग सोसायटी के सामने की सड़क पर रात दो बजे के लगभग दूध की थैलियाँ ले जा रहा ट्रक पेड़ से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। भय से ड्राइवर भाग खड़ा हुआ। आवाज़ इतनी प्रचंड हुई कि आसपास के 500 मीटर के दायरे में रहनेवाले लोग जाग गये। आवाज़ से उपजे भय के वश कुत्ते भौंकने लगे। देखते-देखते इतनी रात गये भी भीड़ लग गयी। सड़क दूध की फटी थैलियों से पट गयी थी। दूध बह रहा था। कुछ समय पूर्व भौंकने वाले चौपाये अब दूध का आस्वाद लेने में व्यस्त थे और दोपाये साबुत बची दूध की थैलियाँ हासिल करने की होड़ में लगे थे। जिन घरों में रोज़ाना आधा लीटर दूध ख़रीदा जाता है, वे भी चार, छह, आठ जितना लीटर हाथ लग जाये, बटोर लेना चाहते थे। जानते थे कि दूध नाशवान है, टिकेगा नहीं पर भीतर टिक कर बैठा लोभ, अनावश्यक संचय से मुक्त होने दे, तब तो हाथ रुके!
खिन्न मन दूसरे ध्रुव पर चला जाता है। सर्दी के दिन हैं। देर रात फुटपाथ पर घूम-घूमकर ज़रूरतमंदों को यथाशक्ति कंबल बाँटने का काम अपनी संस्था के माध्यम से हम करते रहे हैं। उस वर्ष भी मित्र की गाड़ी में कंबल भरकर निकले थे। लगभग आधी रात का समय था। एक अस्पताल की सामने की गली में दाहिने ओर के फुटपाथ पर एक माई बैठी दिखी। एक स्वयंसेवक से उन्हें एक कंबल देकर आने के लिए कहा। आश्चर्य! माई ने कंबल लेने से इंकार कर दिया। आश्चर्य के निराकरण की इच्छा ने मुझे सड़क का डिवाइडर पार करके उनके सामने खड़ा कर दिया था। ध्यान से देखा। लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था। संभवत: किसी मध्यम परिवार से संबंधित जिन्होंने जाने किस विवशता में फुटपाथ की शरण ले रखी है।… ‘माई! आपने कंबल नहीं लिया?’ वे स्मित हँसी। अपने सामान की ओर इशारा करते हुए साफ भाषा में स्नेह से बोलीं, ‘बेटा! मेरे पास दो कंबल हैं। मेरा जीवन इनसे कट जायेगा। ज़्यादा किसलिये रखूँ? इसी सामान का बोझ मुझसे नहीं उठता, एक कंबल का बोझ और क्यों बढ़ाऊँ? किसी ज़रूरतमंद को दे देना। उसके काम आयेगा!’
ग्रंथों के माध्यम से जिसे समझने-बूझने की चेष्टा करता रहा, वही अपरिग्रह साक्षात सामने खड़ा था। नतमस्तक हो गया मै!
कबीर ने लिखा है, “कबीर औंधि खोपड़ी, कबहुँ धापै नाहि/ तीन लोक की सम्पदा, का आबै घर माहि।”
पेट भरा होने पर भी धापा हुआ अथवा तृप्त अनुभव न करो तो यकीन मानना कि अभी सच्ची यात्रा का पहला कदम भी नहीं बढ़ाया है। यात्रा में कंबल ठुकराना है या दूध की थैलियाँ बटोरते रहना है, पड़ाव स्वयं तय करो।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पुरानी फिल्मों का संगीत…“।)
अभी अभी # 581 ⇒ पुरानी फिल्मों का संगीत श्री प्रदीप शर्मा
रेडियो सीलोन के पुराने श्रोता जानते हैं, सुबह ७.३० का समय पुरानी फिल्मों के गीतों का होता था, जिसका समापन हर रोज के.एल.सहगल के गीत से ही होता था। ८ बजे का समय लोमा टाइम होता था, जिसके पश्चात् आप ही के गीत शुरू हो जाते थे।
तब रेडियो पर पिताजी का ही एकाधिकार होता था। आठ बजते ही सभी रेडियो सेट्स पर एक ही आवाज़ आती थी, ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।।
बात पुरानी फिल्मों के गीतों की हो रही थी। कुंदनलाल सहगल केवल ४३ वर्ष की उम्र में सन् १९४७ में कई यादगार गीत छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गए। सहगल के अलावा तलत महमूद, सी. एच.आत्मा, के. सी. डे., रफी, मुकेश और किशोर भी लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। कौन भूल सकता है सुरैया श्याम की अनमोल घड़ी, आवाज दे कहां है, और नूरजहां और सुरेंद्र का कलजयी गीत, तू मेरा चांद तू मेरी चांदनी और उमा देवी की दर्द भरी आवाज, अफसाना लिख रही हूं।
आज इन गायकों में से कोई भी हमारे बीच मौजूद नहीं है, और ना ही है रेडियो सीलोन का ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन, लेकिन श्रोता हैं कि आज भी रेडियो सीलोन को यू ट्यूब पर भी सुने जा रहे हैं। हम एक अच्छे श्रोता जरूर हैं लेकिन ऐसे अंध भक्त भी नहीं। समय के साथ सब कुछ बदलता रहता है, इसलिए हमने भी समझौता एक्सप्रेस में सवार हो, कई वर्ष पहले ही आकाशवाणी के पचरंगी प्रोग्राम विविध भारती से समझौता कर लिया है और मजबूरी में ही सही, रोज सुबह सात बजे प्रसारित पुरानी फिल्मों के प्रोग्राम, भूले बिसरे गीत, सुनना शुरू कर दिया है।।
आज के रेडियो और टीवी पर पहला अधिकार विज्ञापन का है और अगर वह आकाशवाणी है तो उस पर दूसरा अधिकार समाचार का है। मनोरंजन का स्थान तो इनके बाद ही आता है। आइए विविध भारती सुनें।
सुबह की सभा प्रातः ६ बजे, मंगल ध्वनि से शुरू होती है, और समाचारों के पश्चात् चिंतन और भजनों का प्रोग्राम वंदनवार, जिसमें एक भजन भारत रत्न लता जी का तय है। अक्सर सभी भजन सुने हुए होते हैं और गैर फिल्मी होते हैं। ६.२० बजे देशभक्ति के गीत के साथ भजनों का कार्यक्रम समाप्त हो जाता है। पंद्रह मिनट के लिए रामचरित मानस का पाठ होता है और उसके बाद नियमित प्रोग्राम संगीत सरिता, जिसमें अधिकांश प्रोग्राम पुराने ही रिपीट किए जा रहे हैं।।
लिजिए सुबह के सात बज गए और अब भूले बिसरे गीत शुरू होने जा रहे हैं।
एक विज्ञापन के बाद मुश्किल से दो गीत आप सुन पाएंगे और प्रादेशिक समाचार शुरू हो जाएंगे।
समाचार की शुरुआत भी विज्ञापन से ही होती है और उसका समापन भी विज्ञापन से ही होता है। बड़ी मुश्किल से खींच तानकर दो अथवा साढ़े दो/ढाई भी नहीं, और भूले बिसरे गीतों का समय समाप्त हो जाता है।
विविध भारती के पास पुराने मनोरंजक प्रोग्रामों का कुबेर का खजाना है, जिसे वह आजकल विज्ञापनों के जरिए प्रचारित करता रहता है।
नौशाद, मीनाकुमारी और जीवन से इस बहाने दिन में हमारी बीस पच्चीस बार मुलाकात हो जाती है।
आखिर विविध भारती को भी अपने मन की बात कहने का पूरा पूरा अधिकार जो है।।
बात भूले बिसरे गीतों और पुरानी फिल्मी गीतों की हो रही थी। क्या पुरानी फिल्मों के सभी गीत भूले बिसरे होते हैं। जो गीत ज्यादा पॉपुलर होता है, वह अधिक बजता है और बेचारे कुछ गीत समय के साथ भुला दिए जाते हैं।
जब कि कुछ गीत सदाबहार होते हैं और वक्त का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रफी साहब को गुजरे अब ४५ वर्ष हो गए। इस हिसाब से तो इनके सभी गीत पुराने ही हो जाना चाहिए लेकिन क्या दिल तेरा दीवाना,दिल देके देखो अथवा प्रोफेसर, पारसमणि, आरजू, सूरज और गाइड के गीत सुनकर आपको लगता है कि हम कुछ पुराना अथवा भूला बिसरा सुन रहे हैं।।
ओल्ड इज गोल्ड। कुछ गीत वाकई सदाबहार होते हैं और समय की धूल उन पर कभी जमा नहीं होती।
फिर चाहे वे गीत लता जी ने गाए हों अथवा आशा जी ने। हमारे कुछ संगीतकार भी इसी श्रेणी में आते हैं, जिनमें प्रमुख हैं, ओ पो नय्यर, उषा खन्ना और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, जिनकी पहली फिल्म का गीत भी ऐसा लगता है, मानो आज पहली बार सुन रहे हैं।
संगीत के बारे में हर श्रोता के अपने अपने आग्रह और पूर्वाग्रह होते हैं। अच्छे सदाबहार गीत बताना तो बहुत आसान है, लेकिन सबसे मुश्किल होता है, सबसे खराब गीत के बारे में एक आम राय रखना। हां अगर गायक और संगीतकार से पूछा जाए, तो वह जरूर ईमानदारी से बताएगा।
जैसे लता जी ने फिल्म संगम के गीत, हाय का करूं राम, के बारे में अपनी राय जाहिर करी थी। यह गीत उन्होंने बेमन से गाया था, क्योंकि यह उनकी रुचि से मेल नहीं खाता था।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहिर और महेन्द्र कपूर…“।)
अभी अभी # 580 ⇒ साहिर और महेन्द्र कपूर श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो साहिर अपनी मर्जी के शायर थे और किसी खूंटे से बंधे नहीं थे, लेकिन फिल्म नया दौर से, वक्त तक, बी आर चोपड़ा से उनकी जोड़ी खूब जमी। नया दौर में अभिनेता दिलीपकुमार थे, और इस फिल्म के सभी हिट गीतों को जहां मोहम्मद रफी ने अपना स्वर दिया था, वहीं ओ पी नैय्यर ने इन्हें अपने मधुर संगीत में ढाला था।
लेकिन बी आर चोपड़ा, ओ पी नैय्यर और साहिर लुधीयानवी की तिकड़ी और रफी साहब की आवाज का यह करिश्मा आगे चल नहीं पाया। बी आर चोपड़ा चाहते थे कि मोहम्मद रफी केवल उनकी फिल्मों के लिए ही गीत गाएं, जो कि रफी साहब को मंजूर नहीं था। उनका मानना था कि उनकी आवाज सभी संगीतकारों के लिए बनी है, वे कोई दरबारी गायक नहीं हैं।।
बस यही बात चोपड़ा साहब को चुभ गई और उन्होंने प्रण कर लिया कि वे एक और मोहम्मद रफी खड़ा करेंगे और इसके लिए उन्होंने रफी साहब के ही शागिर्द महेन्द्र कपूर को चुना। वैसे भी मुकेश, किशोर कुमार और रफी साहब के चलते महेन्द्र कपूर साहब को फिल्में कम ही मिलती थी, फिर भी उपकार फेम मनोज कुमार भी उन पर पूरी तरह से मेहरबान थे, जिस कारण कल्याण जी आनंद जी के भी वे प्रिय हो चले थे। याद कीजिए, दिलीप कुमार की फिल्म गोपी के रफी साहब के एक भजन को छोड़कर, सभी गीत महेन्द्र कपूर ने ही गाये थे।
अधिक विषयांतर ना करते हुए हम साहिर और महेन्द्र कपूर के साथ के बारे में चर्चा करते हैं। फिल्म गुमराह के गीतों को ही ले लीजिए। चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। यहां संगीतकार ओ पी नैय्यर नहीं हैं, रवि हैं। श्रोता को समझ भी नहीं आता, वह शब्दों में खो गया है, अथवा आवाज की मिठास में। इसी फिल्म के एक और गीत, इन हवाओं में, इन फिज़ाओं में, में आशा भोंसले का कंठ अधिक मधुर है अथवा महेन्द्र कपूर का, आप ही बताइए।।
गुमराह(1963) के बाद वक्त(1965) और हमराज(1967) गीत संगीत के हिसाब से सफल रही, जहां साहिर और महेन्द्र कपूर अपने जलवे बिखेरते नजर आए। इसके बाद की तीन फिल्में क्रमशः धुंध, (1973)इंसाफ का तराजू(1980) और निकाह(1982) बॉक्स ऑफिस पर चली जरूर लेकिन तब तक चोपड़ा साहब का एक और रफी तैयार करने का सपना चूर चूर हो चला था। फिल्म वक्त में थक हारकर उन्हें वापस रफी साहब की ही आवाज लेनी पड़ी। आदमी को चाहिए, वक्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़।।
फिल्म हमराज़ के तीनों गीत, नीले गगन के तले, तुम अगर साथ देने का वादा करो अथवा किसी पत्थर की मूरत से, जब मैं सुनता हूं, तो मुझे महेन्द्र कपूर की सूरत में साहिर की सीरत नजर आती है।
इतनी सॉफ्ट मखमली आवाज से वे शुरू करते हैं, लेकिन अपनी रेंज में रहते हुए खूबसूरत आलाप भी बखूबी ले लेते हैं। वे कहीं भी बेसुरे नजर नहीं आते। साहिर और महेन्द्र कपूर के सर्वश्रेष्ठ गीतों का एल्बम अगर बनेगा तो उसमें ये गीत अवश्य शामिल होंगे।
साहिर और महेंद्र कपूर की सबसे यारी रही। गुरुदत्त की प्यासा हो या कागज़ के फूल, साहिर ने अगर संगीतकार रवि के लिए गीत लिखे तो चित्रगुप्त और लक्ष्मी प्यारे के लिए भी। बस शायद नौशाद और शंकर जयकिशन को कभी साहिर की याद नहीं आई। एक के पास अगर शकील थे तो दूसरे के हाथ में दो दो लड्डू, शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी।।
साहिर और महेन्द्र कपूर का ही एक गीत है, संसार की हर शै का, इतना ही फसाना है, एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है। एक और शायर कैफ़ी आज़मी गुरुदत्त के लिए भी कह गए, जो हम सब पर लागू होता है,
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नसीहत बनाम तारीफ़। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 263 ☆
☆ नसीहत बनाम तारीफ़… ☆
‘नसीहत वह सच्चाई है, जिसे हम कभी ग़ौर से नहीं सुनते और तारीफ़ वह धोखा है, जिसे हम पूरे ध्यान से सुनते हैं’–जी हाँ! यही है हमारे जीवन का कटु सत्य। हम वही सुनना चाहते हैं, जिसमें हमें श्रेष्ठ समझा गया हो; जिसमें हमारे गुणों का बखान और हमारा गुणगान हो। परंतु वह एक धोखा है, जो हमारे विकास में बाधक होता है। इसके विपरीत जो नसीहत हमें दी जाती है, उसे हम ग़ौर व ध्यान से कभी नहीं सुनते और न ही जीवन में धारण करते हैं। नसीहत हमारे भीतर के सत्य को उजागर करती है और हमें सही राह पर चलने को प्रेरित करती है; पथ-विचलित होने से हमारी रक्षा करती है। परंतु जीवन में चमक-दमक वाली वस्तुएं अधिक आकृष्ट करती हैं, क्योंकि उनमें बाह्य सौंदर्य होता है। यही आज के जीवन की त्रासदी है कि लोग आवरण को देखते हैं, आचरण को नहीं।
‘आवरण नहीं, आचरण बदलिए/ चेहरे से अपने मुखौटा उतारिए/ हसरतें रह जाएंगी मुंह बिचकाती/ तनिक अपने अंतर्मन में तो झांकिए।’ ये स्वरचित पंक्तियां जीवन के सत्य को उजागर करती हैं कि हमें चेहरे से मुखौटा उतार कर सत्य से साक्षात्कार करना चाहिए। हमारे हृदय की वे हसरतें, आशाएं, आकांक्षाएं व तमन्नाएं पीछे रह जाएंगी; उनका हमारे जीवन में कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा, क्योंकि झूठ हमेशा पर्दे में छिप कर रहना चाहता है और सत्य अनेक परतों को उघाड़ कर प्रकट हो जाता है। भले ही सत्य देरी से सामने आता है और वह केवल उपयोगी व लाभकारी ही नहीं होता; हमारे जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है तथा उसकी सार्थकता को नकारने का सामर्थ्य किसी में नहीं होता। सत्य सदैव कटु होता है और उसे स्वीकारने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। इसलिए सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा साहित्य में वर्णित है, जो सबके लिए मंगलकारी है। सत्य सदैव शिव व सुंदर होता है, जो शुभ तथा सर्वजन- हिताय होता है।
सौंदर्य के दो रूप हैं–बाह्य व आंतरिक सौंदर्य। बाह्य सौंदर्य रूपाकार से संबंध रखता है और उसमें छल की संभावना बनी रहती है। इस संदर्भ में यह कथन सार्थक है– ‘Beautiful faces are always deceptive.’ क्योंकि जो चमकता है, सदैव खरा व सोना नहीं होता। उस पर भरोसा करना आत्म-प्रवंचना है। यदि सोने को कीचड़ में फेंक दिया जाए, तो भी उसकी चमक-दमक कम नहीं होती और हीरे के जितने भी टुकड़े कर दिए जाएं; उसकी कौंध भी यथावत् बनी रहती है। इसलिए आंतरिक सौंदर्य अनमोल होता है और मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों का संचय करना चाहिए। प्रसाद जी भी जीवन में दया, माया, ममता, स्नेह, करूणा, सहानुभूति, सहनशीलता, त्याग आदि की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे जीवन को केवल सुंदर ही नहीं बनाते; आलोकित व ऊर्जस्वित भी करते हैं। वास्तव में वे अनुकरणीय जीवन-मूल्य हैं।
जीवन में दु:ख व करुणा का विशेष स्थान है। महादेवी जी दु:ख को जीवन का अभिन्न अंग स्वीकारती हैं। क्रोंच वध को देखकर बाल्मीकि जी के मुख से जो शब्द नि:सृत हुए, वे ही प्रथम श्लोक के रूप में स्वीकारे गये। ‘आह से उपजा होगा गान’ भी यही दर्शाता है कि दु:ख, दर्द व करुणा ही काव्य का मूल है और संवेदनाएं स्पंदन हैं, प्राण हैं। वे जीवन को संचालित करती हैं और संवेदनहीन प्राणी घर-परिवार व समाज के लिए हानिकारक होता है। वह अपने साथ-साथ दूसरों को भी हानि पहुंचाता है। जैसे सिगरेट का धुआं केवल सिगरेट पीने वाले को ही नहीं; आसपास के वातावरण को प्रदूषित करता है। उसी प्रकार सत्साहित्य व धर्म-ग्रंथों को उत्कृष्ट स्वीकारा गया है, क्योंकि वे आत्म-परिष्कार करते हैं और जीवन को उन्नति के शिखर पर ले जाते हैं। इसलिए निकृष्ट साहित्य व ग़लत लोगों की संगति न करने की सलाह दी गई है और बुरी संगति की अपेक्षा अकेले रहने को श्रेष्ठ स्वीकारा गया है। श्रेष्ठ साहित्य मानव को शीर्ष ऊंचाइयों पर पहुंचाते हैं तथा जीवन में समन्वय व सामंजस्य की सीख देते हैं, क्योंकि समन्वय के अभाव में जीवन में संतुलन नहीं होगा और दु:ख अनवरत आते रहेंगे। सो! मानव को सुख में कभी फूलना नहीं चाहिए और दु:ख में विचलित होने से परहेज़ रखना चाहिए। यहां मेरा संबंध अपनी तारीफ़ सुनकर फूलने से है। वास्तव में वे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमारी तारीफ़ों के पुल बांधते हैं तथा उन शक्तियों व गुणों को दर्शाते हैं;जो हमारे भीतर होती ही नहीं। यह प्रशंसा का भाव हमें केवल पथ-विचलित ही नहीं करता, बल्कि इससे हमारी साधना व विकास के पहिये भी थम जाते हैं। हमारे अंतर्मन में अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव जाग्रत हो जाता है, जिसके परिणाम-स्वरूप हृदय में संचित स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति आदि दैवीय भाव इस प्रकार नदारद हो जाते हैं, जैसे वह उनका आशियाँ ही न हो।
वास्तव में निंदक व प्रशंसा के पुल बांधने वाले हमारे शत्रु की भूमिका अदा करते हैं। वे नीचे से हमारी सीढ़ी खींच लेते हैं और हम धड़ाम से फर्श पर आन पड़ते हैं। इसलिए कबीरदास जी ने निंदक को सदैव अपने अंग-संग रखने की सीख दी है, क्योंकि ऐसे लोग अपना अमूल्य समय लगाकर हमें अपने दोषों से परिचित कराते हैं; जिनका अवलोकन कर हम श्रेष्ठ मार्ग पर चल सकते हैं और समाज में अपना रुतबा क़ायम कर सकते हैं। सो! प्रशंसक निंदक से अधिक घातक व पथ का अवरोधक होते हैं, जो हमें अर्श से सीधा फर्श पर धकेल देते हैं।
हम अपने स्वाभावानुसार नसीहत को ध्यान से नहीं सुनते, क्योंकि वह हमें हमारी ग़लतियों से अवगत कराती है। वैसे ग़लत लोग सभी के जीवन में आते हैं, परंतु अक्सर वे अच्छी सीख देकर जाते हैं। शायद इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ग़लती बेशक भूल जाओ, लेकिन सबक अथवा नसीहत हमेशा याद रखो, क्योंकि दूसरों के अनुभव से सीखना सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम कला है।’ इसलिए जीवन में जो आपको सम्मान दे; उसी को सम्मान दीजिए, क्योंकि हैसियत देखकर सिर झुकाना कायरता का लक्षण है। आत्मसम्मान की रक्षा करना मानव का दायित्व है और जो मनुष्य अपने आत्म- सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह किसी अन्य के क्या काम आएगा? सो! विनम्र बनिए, परंतु सत्ता व दूसरों की हैसियत देखकर स्वयं को हेय समझ, दूसरों के सम्मुख नतमस्तक होना निंदनीय है, कायरता का लक्षण है।
इच्छाओं की सड़क बहुत दूर तक जाती है। बेहतर यही है कि ज़रूरतों की गली में मुड़ जाएं। जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगा लेते हैं तो तनाव व अवसाद की स्थिति नहीं प्रकट होती। सो! जब हमारे मन में आत्म-संतोष का भाव व्याप्त होता है; हम किसी को अपने से कम नहीं आंकते। सो! झुकने का प्रश्न ही कहां उत्पन्न होता है?
अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि संवाद में विश्वास रखें, विवाद में नहीं, क्योंकि विवाद से मनमुटाव व अंतर्कलह उत्पन्न होता है। हम बात की गहराई व सच्चाई से अवगत नहीं हो पाते और हमारा अमूल्य समय नष्ट होता रहता है। संवाद की राह पर चलने से रिश्तों में मज़बूती आती है तथा समर्पण भाव पोषित होता है। इसलिए हमें दूसरों की नसीहत पर ग़ौर करना चाहिए और उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मानव को जीवन में जो अच्छा लगे; अपना लेना चाहिए तथा जो मनोनुकूल न हो; मौन रहकर त्याग देना चाहिए। सो! प्रोत्साहन व प्रशंसा के भेद को समझना आवश्यक है। प्रोत्साहन हमें ऊर्जस्वित कर बहुत ऊंचाइयों पर ले जाता है, वहीं प्रशंसा का भाव हमें फ़र्श पर ला पटकता है। यदि प्रशंसा गुणों की जाती है तो सार्थक है और हमें अच्छा करने को प्रेरित करती है। दूसरी ओर यदि प्रशंसा दुनियादारी के कारण की जा रही है, उसके परिणाम विध्वंसक होते हैं। जब हमारे भीतर अहम् रूपी शत्रु प्रवेश पा जाता है तो हम अपनी ही जड़ें काटने में मशग़ूल हो जाते हैं। हम अपने सम्मुख दूसरों के अस्तित्व को नकारने लगते हैं तथा अपने सब निर्णय दूसरों पर थोप डालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने आदेशों के अनुपालना न होने पर हम प्रतिपक्षी के प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करते। हर चीज की अधिकता बुरी होती है, चाहे अधिक मीठा हो या अधिक नमक। अधिक नमक रक्तचाप का कारण बनता है, तो अधिक चीनी मधुमेह का कारण बनती है। सो! जीवन में संतुलन रखना आवश्यक है। जो भी निर्णय लें–उचित- अनुचित व लाभ-हानि को देख कर लें अन्यथा वे बहुत हानि पहुंचाते हैं। ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही न ज़िंदगी को रुसवा कीजिए/ हसरतें न रह जाएंगी दिल में अधूरी/ कभी ख़ुदा से भी राब्ता किया कीजिए। ‘जी हां! आत्मावलोकन कीजिए। विवाद व प्रशंसा रूपी रोग से बचिए तथा दूसरों की नसीहत को स्वीकारिए, क्योंकि जो व्यक्ति दूसरों के अनुभव से सीखते हैं; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का अनुसरण करते हैं और जीवन में खुशी व सुक़ून से जीवन जीते हैं। कोई सराहना करे या निंदा–लाभ हमारा ही है, क्योंकि प्रशंसा हमें प्रेरणा देती है तो निंदा सावधान होने का अवसर प्रदान करती है। इसलिए मानव को अच्छी नसीहतों को विनम्र भाव से जीवन में धारण करना चाहिए।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े बूढ़े और महान…“।)
अभी अभी # 579 ⇒ बड़े बूढ़े और महान श्री प्रदीप शर्मा
जन्म से कोई बड़ा नहीं होता। बिना बड़ा हुए कोई बूढ़ा भी नहीं होता। कुछ लोग बड़े तो हो जाते हैं, लेकिन कभी बूढ़े नहीं होते। ऐसे लोग बोलचाल की भाषा में बिग बी कहलाते हैं। बिन्दास रोमांस और कम उम्र की लड़कियों के साथ फ्लर्ट करते हैं, और अगर इन्हें बूढ़ा कहो, तो पलटकर जवाब देते हैं, बूढ़ा होगा तेरा बाप।
होते हैं, होते हैं कुछ लोग ऐसे भी, जो ठीक से बड़े भी नहीं हो पाते, और बूढ़े हो जाते हैं। नीरज ने शायद इशारों इशारों में ही सही, यही बात कही है ;
नींद भी खुली ही न थी
कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठे
कि जिंदगी फिसल गई
बड़ा होने, और बूढ़ा होने में बहुत फर्क है। जहां बड़प्पन और बुढ़ापा एक साथ नजर आता है, वहीं आसपास हमें एक बड़ा बूढ़ा नजर आता है। ए.के.हंगल को आपमें हर दृष्टि से एक बड़ा बूढ़ा नजर आएगा।।
बहुत पहले डाबर च्यवनप्राश का एक विज्ञापन आता था, जिसमें एक अधेड़ व्यक्ति को सीढियां चढ़ते दिखाया जाता था, इस शीर्षक के साथ, साठ साल के बूढ़े अथवा साठ साल के जवान ? आजकल ऐसे विज्ञापन आउट ऑफ फैशन हो गए हैं, क्योंकि योगा और जिम, मेन्स पार्लर और विमेंस ब्यूटी पार्लर, हेयर डाई, डेंटल केयर और आई एंड फेशियल सर्जरी इंसान को बूढ़ा होने ही नहीं देती। कल के एक पैंतालीस वर्ष के अधेड़ इंसान के आगे आज का एक पचहत्तर वर्ष का आधुनिक इंसान, पुराने लेकिन हमेशा जवां गीत की तरह आकर्षक और मनमोहक प्रतीत होता है।
बढ़े और बूढ़े के बीच की एक अवस्था और होती है जहां आदमी बड़ा होने के बाद और भी बड़ा होता चला जाता है। इसे आप बोलचाल की भाषा में कामयाबी कह सकते हैं। कामयाबी कभी इंसान को बूढ़ा नहीं होने देती। आदमी पढ़ लिखकर बड़ा आदमी तो बन सकता है, लेकिन उपलब्धियां ही उसे एक कामयाब इंसान भी बनाती है।।
उपलब्धियां कोई लॉलीपॉप नहीं और ना ही कोई फूले हुए रंग बिरंगे गुब्बारे। कामयाबी से प्रसिद्धि, प्रसिद्धि से उपलब्धि और अल्टीमेट उपलब्धि तो खैर महानता ही है, जो इंसान को न तो बूढ़ा होने देती है और न ही मरने देती है। महान लोग अमर हो जाते हैं।
कहने वाले तो यहां तक कह गए हैं, कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बनकर दिखाते हैं, और कुछ पर महानता थौंप दी जाती है। जन्म से महानता की बात तो हमारी समझ से परे है, और बाकी के बारे में, नो कमेंट्स।।
कोई साधारण व्यक्ति कब एक बड़ा आदमी बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। बूढ़ा होना भी कहीं कोई उपलब्धि है।
पहले सिटिजन थे, फिर सीनियर सिटिजन बन गए। वे तनकर चले, जब तक वेतन था, लाइफ सर्टिफिकेट पर तो झुककर ही हस्ताक्षर किया जाता है।
अगर आप बूढ़ा नहीं होना चाहते, हमेशा बड़ा बने रहना चाहते हैं तो उपलब्धियों की बैसाखी को थामे रहिए। कुछ पद्म पुरस्कार, कुछ सम्मान, एक ऐसी संजीवनी है, जो आपको अपनी निगाहों में ऊंचा उठा देगी। हो सकता है, महानता आपकी राह देख रही हो, अथवा बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए और आप पर महानता थौंप दी जाए। महानता तेरा बोलबाला, बुढ़ापा, तेरा मुंह काला।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मेलजोल का प्रतीक : मकर संक्रांति पर्व……”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 228 ☆ मेलजोल का प्रतीक : मकर संक्रांति पर्व… ☆
सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण संक्रांति कहलाता है । 14 जनवरी को सूर्य उत्तरायण होकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं इसलिए ये और भी खास होता है । सनातनी सभी लोग तीर्थ स्थानों में जाकर वहाँ नदियों में श्रद्धा पूर्वक डुबकी लगाते हैं । दान पुण्य करके प्रसन्नता का भाव रखते हुए तिल -गुड़ व खिचड़ी का सेवन करते हैं।
प्रयागराज महाकुंभ का मेला आस्था, भक्ति, श्रद्धा , विश्वास , साधना, शक्ति व सम्पूर्ण समर्पण का प्रतीक है । आइए प्रेम से कहें…
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तिल गुड़ के लड्डू खायेंगे, पर्व संक्रांति का मनायेंगे ।
झूमेंगे संग गुनगुनायेंगे, कुंभ मेले में हम तो जायेंगे ।।
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तिल – तिल कर न जले कोई, राह ऐसी नयी बनायेंगे ।
गीत खुशियों भरे जहाँ होवें, गम के बादल को मिल ढहायेंगे ।।
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सजा है आसमाँ पतंगों से, नेह के रंग सब उड़ायेंगे ।
पेंच पड़ते हुए गजब देखो, डोर मिल प्रीत की बढ़ायेंगे ।।
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दृश्य क्या खूब हुआ मौसम का, संगम में डुबकियाँ लगायेंगे ।
श्रद्धा से भोग चढ़ा आयेंगे, पर्व संक्रांति का मनायेंगे ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सूत उवाच…“।)
अभी अभी # 578 ⇒ सूत उवाच श्री प्रदीप शर्मा
यारों, शीर्षक हमारे पर मत जाओ ! कल एक भूले बिसरे मित्र का फोन आया, प्रदीप भाई कैसे हो !
ठंड में कोई खैरियत पूछे तो वैसे ही बदन में थोड़ी गर्मी आ जाती है। क्या आपने कभी पतंग उड़ाई है, उनका अगला प्रश्न था। उन्होंने मेरे जवाब का इंतजार नहीं किया और दूसरा प्रश्न दाग दिया, क्या कभी मंजा सूता है ? जो प्रश्न उन्हें सूत जी से पूछना था, वह उन्होंने मुझसे पूछ लिया। इसके पहले कि सूत उवाच, मैं अवाक् !और मैं पुरानी यादों में खो गया।
आज जिसे हमारे स्वच्छ शहर की कान्हा नदी कहा जाता है, तब यह खान नदी कहलाती थी, और हमें इसकी गंदगी से कोई शिकायत नहीं थी। रामबाग और कृष्णपुरा ब्रिज के बीच, एक पुलिया थी, जिसे हम बीच वाली पुलिया कहते थे। यह हमारे घर और मिडिल स्कूल को आपस में जोड़ती थी। खान नदी के आसपास तब बहुत सा, हरा भरा मैदान था, जो हमारे लिए खुला खेल प्रशाल था। यह पुलिया सूत पुत्रों के लिए मंजा सूतने के काम आती थी। कांच को बारीक पीसने से लगाकर पतंग उड़ाने, काटने और लूटने का काम यहां बड़े मनोयोग से किया जाता था।।
ऐसा नहीं कि हमने कभी पतंग नहीं उड़ाई। जब भी उड़ाई, पतंग ने आसमान नहीं देखा, हमने हमेशा मुंह की खाई। जिसके खुद के पेंच ढीले होते हैं, वे दूसरों की पतंग नहीं काटा करते। लूटमार से हम शुरू से ही दूर रहे हैं, किसी की कटी पतंग भला हम क्यों लूटें।
हमारे इसी शांत स्वभाव के कारण हमने देवानंद की फिल्म लूटमार और ज्वेल थीफ़ भी नहीं देखी।
जब मंजा सूतने में मैने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई तो मित्र ने अगला प्रश्न किया, अच्छा आपने सराफे की चाट तो खाई ही होगी और कभी दाल बाफले भी तो सूते ही होंगे और जब स्कूल में माड़ साब बेंत से सूतते थे, तब कैसा लगता था। पहले चाट और दाल बाफले और बाद में सुताई, यह क्या है भाई, हम फोन रखते हैं भाई। और हमने फोन रख दिया।।
हमारा यह मिडिल स्कूल वैसे भी सुभाष मार्ग और महात्मा गांधी मार्ग के बीच सैंडविच बना हुआ था। हमारे गांधीवादी हेडमास्टर ने हमसे चरखा भले ही नहीं चलवाया हो, तकली पर सूत जरूर कतवाया है।
हम यह भी जानते हैं कि सूत को सूत्र भी कहते हैं और पुरुष मंगलसूत्र नहीं, यज्ञोपवीत धारण करते हैं, जो सूत के धागों से ही बनती है। सूत पुत्र दासी के पुत्र को भी कहते हैं और पवन के पुत्र को भी पवनसुत कहते हैं।।
आज तिल गुड़ का दिन है, जिन्हें मंजा सूतना है, मंजा सूतें, पतंग उड़ाएं, पेंच लड़ाएं, किसी की पतंग तो किसी के विधायक लूटें, हम तो बस मीठा खाएंगे मीठा बोलेंगे, मंजा नहीं, मज़ा लूटेंगे और भरपूर प्यार लुटाएंगे।