(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिवाइडर“।)
अभी अभी # 79 ⇒ डिवाइडर… श्री प्रदीप शर्मा
पहाड़ों, जंगलों और आसपास बसे गांवों में सड़क नहीं होती, पगडंडियां होती हैं। लगातार एक ही जगह पर चलने से रास्ते पर पांव के निशान बनते चले जाते हैं। जब इन पगडंडियों पर आवाजाही बढ़ती चली जाती है तो वहां कच्ची सड़क का निर्माण हो जाता है। चौपायों और बैलगाड़ी की आमदरफ्त से आवागमन में इज़ाफा होने लगता है। ये ही कच्ची सड़कें शहर जाती पक्की सड़कों से मिल जाती हैं। गांव, जंगल, पहाड़ और शहर इन सड़कों के माध्यम से ही एक दूसरे से जुड़ पाते हैं। बारिश में पानी के बहाव से पगडंडियां और कच्ची सड़क किसी काम की नहीं रहती। आम भाषा में इन्हें फेयर वेदर रोड कहते हैं। ऐसी ही परिस्थिति में यह गीत गाया जाता है ;
नदी नारे ना जाओ श्याम पैंया पड़ूं ….।
आज पूरे देश में सड़कों का जाल बिछा हुआ है। गांव गांव और बस्ती में पक्की सड़कों का निर्माण हो चुका है। बारिश के मौसम में पुलियाओं के बहने से अब रास्ते नहीं रुकते। नदियों के बहाव को बांध के जरिए रोककर बिजली और सिंचाई दोनों काज सिद्ध हो रहे हैं। लेकिन बारिश के मौसम में जब नदियां विकराल रूप धारण कर लेती हैं, तो फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। ।
बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी के कारण लोग गांव से शहर की ओर रुख करने लगते हैं। शहरों में रोजगार है, काम धंधे हैं, अच्छी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा है। शहरों की सड़कों का सीना चौड़ा हो रहा है, शहर की संस्कृति आसपास के गांवों को लील रही है।
शहर के अधिकाश मार्ग पहले एकांगी हुए, फुटपाथों पर अतिक्रमण हुआ, सड़कें सिकुड़ने लगीं। परिणामस्वरूप अतिक्रमण हटाए गए, सड़कें चौड़ी हुई और बीच में डिवाइडर पसर गए। पहले शहर में एक मुख्य मार्ग होता था और एक राजमार्ग ! विकास की एक अपनी ही कहानी है। अगर आवागमन को सुगम करना है, यातायात को नियंत्रित करना है तो सबसे पहले सड़क को दो भागों में बांटो। जो अंग्रेजों का डिवाइड एंड रूल था, वह सड़क का डिवाइडर बन गया। शहर के बाहर पहले रिंग रोड और बाद में उसके भी बाहर बायपास। ।
आज हर बड़ा शहर स्मार्ट सिटी बनने जा रहा है और हर शहरी एक आदर्श नागरिक। जब विकास आदर्श तरीके से होता है तो सबसे पहले अतिक्रमण पर गाज गिरती है। एक आदर्श नागरिक से अनुशासन की भी अपेक्षा की जाती है। बुलडोजर न केवल सड़कों को सिक्स लेन करने के लिए अतिक्रमण को हटाता है, उत्तेजित भीड़ को अनुशासित भी करता है।
डिवाइडर है जहां, बुलडोजर है वहां।
शहर से वापस गांव जाना आजकल पलायन कहलाता है। स्मार्ट सिटी के सड़कों के डिवाइडर क्या शहर और गांव के विभाजक सिद्ध नहीं हो रहे। क्या गरीब और अमीर के बीच की रेखा भी इंसानियत के विभाजन की रेखा नहीं। ।
सड़कों के बीच के डिवाइडर पर आजकल पौधारोपण होता है, शहर के सौंदर्यीकरण के प्रतीक हैं ये डिवाइडर। क्या हुआ जो सड़क के इस पार के लोगों की, उस पार के लोगों के बीच की दूरी बढ़ गई। किसी के लिए वह डिवाइडर है तो किसी के लिए दीवार। एक किलोमीटर चलकर इस पार से उस पार जाने के बजाय एक मजदूर, कामगार अथवा युवा अपनी जान पर खेलकर डिवाइडर फांदकर उस पार निकल जाता है।
क्या यह एक खतरनाक, दुस्साहस भरा, जानलेवा, अनुशासनहीनता का कृत्य नहीं।
खेत में नई फसल के लिए बीज बोने के पहले खरपतवार को साफ करना पड़ता है। विकास की राह भी संघर्ष और बलिदान की राह है। आपस में एक दूसरे को बांटने के बजाय हम अगर एक दूसरे के दुख दर्द बांटें, तो जीवन की डगर आसान हो। डिवाइडर हमारी राह आसान करे, लेकिन हमारे बीच के दिलों की दूरी तो कम ना करे। ।
पगडंडियों से सिक्स लेन के डिवाइडर तक का सफर, और जंगल से स्मार्ट सिटी के कांक्रीट जंगल तक की दूरी में कहीं मानवता और पर्यावरण पीछे ना छूट जाए, अमीर भले ही गरीब ना हो, लेकिन हर गरीब अमीर हो जाए, तो समझिए अच्छे दिन बस आए ही आए ..!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख –विश्वगुरू भारत…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 218 ☆
आलेख –विश्वगुरू भारत…
भारतीय सभ्यता आज विश्व की प्राचीनतम फल फूल रही जीवंत सभ्यताओ में से एक है. अपने श्रेष्ठ अतीत पर गौरव करना स्वाभाविक ही है. हमारी संस्कृति प्रामाणिक रूप से पांच हजार वर्षो से भी प्राचीन है. भारत ने सदैव सह अस्तित्व, वसुधैव कुटुम्बकम, नारी समानता, प्रकृति पूजा, ज्ञान पर सबका अधिकार, गुरु के सम्मान, कमजोर की मदद, शरणागत को अभय जैसे सार्वभौमिक, सर्वकालिक, वैश्विक समन्वय के सिद्धांतो का समर्थन किया है.
हमारे महर्षि आर्यभट्ट ने ही दुनिया को सबसे पहले शून्य के उपयोग के बारे में समझाया था. इसके अलावा वेदों से हमें 10 खरब तक की संख्याओं के बारे में पता चलता है. सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि हमें संख्याओं का ज्ञान बड़े प्राचीन समय से था. भास्कराचार्य की लीलाबती में लिखा हुआ है कि “जब किसी अंक में शून्य से भाग दिया जाता है तब उसका फलक्रम अनंत आता है. इस तरह प्रामाणिक रूप से गणितीय ज्ञान में हम अग्रणी हैं.
पौराणिक प्रमाण मिलते हैं कि शल्य चिकित्सा का जन्म भी भारत में ही हुआ. इस विज्ञान के अंतर्गत शरीर के अंगों की चीड-फाड़ की जाती है और उन्हें ठीक किया जाता है. शरीर को ठीक करने वाली इस विधि की शुरुआत सबसे पहले महर्षि सुश्रुत द्वारा की गई.
योग एक जीवन शैली है जिसकी शुरुआत भारत में ही हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा की गई थी. आज के दौर में विभिन्न मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याओं से मुक्त संतुलित निरोगी जीवन के लिए ध्यान ऐसा रास्ता है जिसे सारा विश्व अपना रहा है. प्रति वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस मनाये जाने को मान्यता मिलना विश्वगुरू भारत की परिकल्पना की यथार्थ में परिणिति की ओर एक कदम है.
ज्योतिष शास्त्र के रूप में दुनिया को भारत ने एक अनोखी भेंट दी है. ज्योतिष की गणनाओं से ही पता चला कि यह पृथ्वी गोल है और इसके घूमने से ही दिन रात होते हैं. आर्यभट तो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होने के कारण भी जानते थे. वेदों में इस अनंत ब्रम्हाण्ड का वर्णन है और उड़न तश्तरी अर्थात UFO के बारे में भी वर्णन मिलता है.
संस्कृत भाषा को विश्व की सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है. दुनिया में बोली जाने वाली कई भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं अथवा उन भाषाओं में संस्कृत के शब्द देखने को मिलते हैं. नासा ने भी संस्कृत को विज्ञान संमत भाषा प्रमाणित किया है. हमारे सारे पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं.
महात्मा गांधी ने, गौतम बुद्ध ने विश्व को अहिंसा से समस्याओ के निराकरण के जो सूत्र दिये हैं वे भारत की पूंजी हैं. भगवत गीता और रामचरित मानस हमारे विश्व ग्रंथ हैं, जिनमें हर परिस्थिति में सफल जीवन दर्शन के सारे पाठ हैं.
नया विश्व तर्क और विज्ञान का है. अप्रत्यक्ष रूप से परमाणु शक्ति आज देशो की वह ताकत बन चुकी है जो दुनिया में किसी राष्ट्र का महत्व प्रतिपादित कर रही है. भारत स्वयं अपने बूते परमाणु शक्ति संपन्न है, और इसका प्रयोग शांति पूर्ण तरीको से विकास के लिये करने को प्रतिबद्ध है, यह तथ्य हमें अन्य देशो से भिन्न व विशिष्ट बनाकर प्रस्तुत करता है.
यदि भारत को वर्तमान परिस्थितियों में पुनः विश्वगुरू के रूप में स्वयं को स्थापित करना है तो हमें विश्व नागरिकता के लिये पैरवी करनी होगी आज युवा पीढ़ी वैश्विक हो चुकी है उसे कागजी वीसा पासपोर्ट के बंधनो में ज्यादा बांधे रहना उचित नही है, अंतरराष्ट्रीय वैवाहिक संबंध हो रहे हैं, अब महर्षि महेश योगी की विश्व सरकार की परिकल्पना मुर्त स्वरूप ले सकती है. पहले चरण में भारत को ई वीसा के लिये समान वैश्विक मापदण्ड बनाने के लिये प्रयास होने जरूरी हैं । विदेश यात्रा हेतु इमरजेंसी हेल्थ बीमा अधिक उम्र के लोगों के लिए उपलब्ध नहीं है, विदेशों में भारत की तुलना में इमरजेंसी हेल्थ सेवा बहुत मंहगी है ।
यू ए ई में तो बिना हेल्थ बीमा के वीजा ही नहीं दिया जाता, तो वरिष्ठ व्यक्ति वहां कैसे जाएं ?
सरकारों को विजीटर्स को स्वास्थ्य सेवा तो देनी ही चाहिए । यह ह्यूमन राइट्स है। यू एन ओ में भारत को यह प्रस्ताव लाना चाहिये, तथा इसके लिये विभिन्न देशो का समर्थन जुटाने के पुरजोर प्रयास द्विपक्षीय स्तर पर किये जाने चाहिये. जब कोई सेना पक्षियो की दुनियां भर में निर्बाध आवाजाही, सूरज, चांद, हवा, पानी को नही रोक सकती, सीमाओ को जब संगीत की स्वर लहरियां यूं ही पार कर सकती हैं तो संकुचित नागरिकता का विचार कितना बौना, अनैसर्गिक और तुच्छ है यह सहज ही समझा जा सकता है.
एक बहुत छोटा सा मुद्दा है इस ग्लोबल दुनिया मे आज कही लेफ्ट हेंड ड्राइव सड़के गाड़ियां हैं तो किन्ही देशों में राइट हेंड ड्रिवन गाड़ियां चल रही है । इसमें एकरूपता जरूरी है, आवश्यकता केवल पहल करने की है ।
इंटरनेट आधारित दुनिया पर किसी का कोई नियंत्रण ही नही है । पोर्न साइट्स व सायबर अपराध बढ़ रहे हैं । भारत पहल कर इसे नियमो में ला सकता है जिसके लिए वैश्विक सहमति बनाने का काम करना होगा।
दुनियां में निरस्त्रीकरण एक बलशाली मुद्दा है. अनेक देशो की ईकानामी ही हथियारो के व्यापार पर टिकी हुई है. यदि मिलट्री पर होने वाला व्यय गरीबो के विकास पर लगाया जावे तो साल भर में दुनियां के हालात बदल सकते हैं, जरूरत है कि भारत इस आवाज को बुलंदियां देने की पहल करे.
किसी भी देश के वैज्ञानिको द्वारा किये जा रहे शोध पर पूंजी लगाने वाले देश का नही समूची मानवता का अधिकार होना चाहिये इस सिद्धांत को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है. क्योकि सचाई यह है कि जो भी अगले शोध हो रहे हैं वे पिछले अनुसंधान तथा अन्वेषणो पर ही आधारित हैं. भारत जैसे देशो से ब्रेन ड्रेन बहुत सरल है, अमेरिका में शोध केवल इसलिये संभव हो पा रहे हैं क्योकि वहां वैसी सुविधायें तथा वातावरण विकसित हुआ है. अतः वैज्ञानिक शोध पटेंट से परे मानव मात्र की धरोहर होनी चाहिये.
अंतरिक्ष, समुद्र और ब्रम्हांड की संपदा, शोध पर सारी मानव जाति के अधिकार को हमें प्रतिपादित करना चाहिये. साल २०१४ में पहले ही प्रयास में मंगलयान का मंगल गृह की कक्षा में पहुँच जाना हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है. भारतीयों का प्रौद्योगिकी ज्ञान पश्चिम से भी आगे पहुंचे और हम उदारमना उसे सबके लिये सुलभ करवायें तभी हम विश्वगुरू की पदवी के सच्चे हकदार बन सकते हैं. कहा गया है रिस्पेक्ट इज कमांडेड नाट डिमांडेड, मतलब हमें हर स्तर पर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना होगा तभी हम नेतृत्व कर सकेंगें.
आतंकवाद से विश्वस्तर पर निपटने में भारत ने बहुत महत्वपूर्ण अगुवाई की है. आवश्यक है कि इस दिशा में स्थाई वैश्विक अभिमत बनाया जावे. धार्मिक कट्टरता नियंत्रित करने में भारत को कड़े कदम उठाने होंगे.
यह युग बाजारवाद का समय है. मल्टी नेशनल कंपनियों में अनेकानेक देशो की पूंजी दुनियां भर में लगी हुई है, दुनियां भर के युवा, इन कंपनियो में अपने देश से बाहर जगह जगह कार्यरत हैं. सोशल मीडिया का युग है, अब ज्ञान का अश्वमेध ही विश्व विजय करवा सकता है. सेनाओ के भरोसे भौतिक युद्ध जीतने की परिकल्पना समय के साथ अव्यवहारिक होती जा रही है. ऐसे समय में भारत को विश्व का समुचित नेतृत्व करते हुये वसुधैव कुटुम्बकम के वेद वाक्य को सुस्थापित कर स्वयं को विश्वगुरू सिद्ध करने की परिकल्पना को मूर्त रूप देने का समय आ चुका है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन की बातें, मन ही जाने“।)
अभी अभी # 78 ⇒ मन की बातें, मन ही जाने… श्री प्रदीप शर्मा
मन रे, तू काहे न धीर धरे! गोपियों ने तो आसानी से कह दिया, उधो! मन नहीं दस बीस। मन की शरीर में एक्ज़ेक्ट लोकेशन किसी को पता नहीं है। कभी लोग दिल को मन मान बैठते हैं, तो कभी दिमाग को।
मन संकल्प विकल्प करता है, और दिमाग सोचता है। अगर कभी, मन नहीं करे, तो दिमाग कुछ सोचता भी नहीं। आप कह सकते हैं कि दिल और दिमाग़ पर मन की दादागिरी है। ।
अध्यात्म में मन पर लगाम कसने की बात की जाती है। मन बड़ा उच्छ्रंखल है! साहिर ने मन पर पीएचडी की है! तोरा मन दर्पण कहलाये। भले बुरे, सारे कर्मों को, देखे और दिखाए। यानी मन, मन ना हुआ, किसी पुराने फिल्मी थिएटर का प्रोजेक्टर हुआ। वह फ़िल्म देखता भी है, और उसे दर्शकों को दिखाता भी है। एक व्यक्ति मन मारकर प्रोजेक्टर चलाता है, हम मन लगाकर फ़िल्म देखते हैं। सही भी तो है! कहीं हमारा मन लग जाता है, और कहीं हमें मन को मारना पड़ता है।
हमारे शरीर में जितना स्थूल है, वह सूक्ष्म यंत्रों से देखा जा सकता है। दिल, दिमाग़, लिवर और किडनी! किडनी दो, बाकी तीनों एक एक। दो दो हाथ, दोनों कान, दो ही आँख, और एक बेचारी नाक! हमारी समझ से बाहर की बात है। दाँतों तले उँगली दबाइए, और उस बनाने वाले का एहसान मानिए। ।
जो हमारे अंदर है, लेकिन नहीं नज़र आते, वे मन, चित्त, बुद्धि, और अहंकार हैं। जब हम मन की बात करते हैं, तो कभी उसके विकारों की बात नहीं करते। दुनिया में इतनी बुराई है, कि हमें अपनी बुराई कहीं नजर ही नहीं आती। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मन के विकार माना गया है। भले ही आप इन्हें विकार मानें, लेकिन इनके बिना भी कहीं संसार चला है।
बुद्धि का काम सोच विचार करना है। चित्त और मन को आप अलग नहीं कर सकते! हमारे लिए तो दिल, चित्त और मन सब एक ही बात है। कौन ज़्यादा मगजमारी करे। हमारी आम भाषा में अगर कहें तो भई दिल को साफ रखो। किसी के प्रति मन में मैल न आने दो और चित्त शुद्धि के प्रति सजग रहो। ।
एक गांठ होती है, जिसे प्रेम की गांठ कहते हैं। यह जितनी मजबूत हो, उतनी अच्छी! दुश्मनी की गांठ अगर ढीली होती जाए, खुलती चली जाए, तो बेहतर। दुश्मनी दोस्ती में बदल जाए, तो और भी बेहतर।
मन में भी गांठ पड़ जाती है! यह बहुत बुरी होती है। चिकित्सा पद्धति में शरीर की किसी भी गांठ का इलाज है, मन की गांठ का नहीं। प्रेम, भक्ति और समर्पण ही वह संजीवनी औषधि है, जो मन की गांठ को खोल सकते हैं। जब मन मुक्त होता है, मस्त होता है, तब ही ये बोल सार्थक होते हैं;
मन मोरा बावरा!
निस दिन गाए, गीत मिलन के ..
चिंता को चिता कहा गया है!
कम सोचो। चिंतन अधिक करो। किसी माँ को कभी मत सिखाना कि चिंता मत करो।
माँ का नाम ही care and concern है। हम भी अगर खुद का खयाल रखें, और थोड़ी बहुत दूसरों की भी चिंता करें, तो कोई बुरा नहीं। मन लगा रहेगा, दिल को तसल्ली मिलेगी और हाँ, थोड़ा बहुत चित्त भी शुद्ध होगा।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मौलाना साहब “।)
अभी अभी # 77 ⇒ मौलाना साहब … श्री प्रदीप शर्मा
शहर के व्यस्ततम, एम जी रोड पर हमारी दुकान के पास ही मौलाना साहब की फूलों की दुकान थी। असली फूलों की नहीं, गुरुदत्त वाले नकली कागज़ के फूलों की। मौलाना साहब ने अपनी दुकान सजाने के लिए किसी के गुलशन को नहीं उजाड़ा, बस कुछ रंग बिरंगे काग़ज़ के टुकड़ों को मिलाकर फूलों का गुलदस्ता तैयार कर लिया। उनके गुलाब में अगर खुशबू नहीं होती थी, तो कांटे भी नहीं होते थे।
मौलाना साहब उनका असली नाम नहीं था ! उन्हें मौलाना क्यों कहते थे, वे कितनी जमात पढ़े थे, हमें इसका इल्म नहीं था। बस पिताजी इन्हें मौलाना साहब कहते थे, इसलिए हम भी कहते थे। एक शांत, सौम्य, दाढ़ी वाला चेहरा, जो सदा मुस्कुराता रहता था। पड़ोसी दुकानदार होने के नाते, पहली चाय मौलाना साहब और हमारे पिताजी साथ साथ ही पीते थे। तब दुकान खुली छोड़कर चाय पीने जाने का रिवाज नहीं था। चाय दुकान पर ही पी जाती थी .क्योंकि दुकान, दुकान नहीं पेढ़ी थी। रोजी रोटी का साधन थी। ।
आज भी अगर कोई दुकानदार अपनी दुकान खोलेगा तो पहले पेढ़ी को प्रणाम करेगा, साफ सफाई करेगा, अपने आराध्य के चित्र पर श्रद्धा से अगरबत्ती लगाएगा, इसके बाद ही कारोबार शुरू करेगा। श्रद्धा का ईमान से कितना लेना देना है, यह एक अलग विषय है। श्रद्धा, श्रृद्धा है, ईमान ईमान।
हमारी दुकान के आसपास लगता था, पूरा भारत बसा हुआ हो। कोई दर्जी, कोई गोली बिस्किट वाला तो कोई पेन, घड़ी और चश्मे वाला। एक संगीत के वाद्यों की दुकान भी थी, जिसका नाम ही वीणा था। एक रैदास था, जो सुबह पिताजी के जूते पॉलिश करने के लिए ले जाता था, और थोड़ी देर बाद वापस रख जाता था। एक शू मेकर भी थे, जिनके पास चार पांच कारीगर थे। ।
हमारी और मौलाना साहब की दुकान एक साथ ही खुलती थी। हमारी दुकान के दूसरी ओर बिना तले समोसे और बिस्किट की प्रसिद्ध एवरफ्रेश की दुकान थी, जहां शहर के खास लोग, शाम को घूमने और टाइम पास करने आते थे। सड़कों पर आवागमन तो रहता था, लेकिन उसे आप चहल पहल ही कह सकते हैं, भीड़भाड़ नहीं। ईद पर हमारा पूरा परिवार मौलाना साहब के घर सिवइयां खाने जाता था।
हमें इस रहस्य का पता बहुत दिनों बाद चला, जब मौलाना साहब और हमारे पिताजी दोनों इस दुनिया में नहीं रहे। राखी के दिन मौलाना साहब की बेगम हमारे पिताजी का इंतजार करती थी। उनकी कलाई पर एक राखी बेगम के हाथों से भी बंधी होती थी। स्नेह के बंधन कभी काग़ज़ी नहीं होते। उनमें भी प्यार की खुशबू होती है। ।
सुबह का समय सभ दुकानदारों का मिलने जुलने का रहता था। जैसे जैसे दिन चढ़ता, ग्राहकी बढ़ने लगती, लोग अपने काम में लग जाते। दोपहर का वक्त भोजन का होता था। अक्सर सभी के डब्बे घर से आ जाया करते थे। तब टिफिन और लंच जैसे शब्द प्रचलन में नहीं थे। गुरुवार को बाज़ार बंद रहता था, और हर गुरुवार को सिनेमाघरों में नई फिल्म रिलीज होती थी। कालांतर में, दूरदर्शन पर रविवार को रामानंद सागर के रामायण सीरियल के कारण यह अवकाश गुरुवार की जगह रविवार कर दिया गया। अब कहां रामायण सीरियल और शहर के सिनेमाघर ! हर दुकानदार के पास अपने हाथ में ही, अपना अपना सिनेमाघर अर्थात् 4जी मोबाइल जो उपलब्ध है। ।
वार त्योहारों पर मौलाना साहब के यहां लोग अपने दुपहिया वाहनों का श्रृंगार काग़ज़ के हार फूल और रंग बिरंगी पत्तियों से करते थे। दशहरे पर नई खरीदी साइकिल को दुल्हन की तरह सजाया जाता था। शादियों में जिस तरह दूल्हा दुल्हन को ले जाने वाली कार की आजकल जिस तरह सजावट, बनाव श्रृंगार होता है, वैसा ही साइकिल का होता था। विशेष रूप से दूध वाले अपनी नई साइकिलों का श्रृंगार मनोयोग से करते थे, क्योंकि वही उनका दूध वाहन भी था।
आज मौलाना साहब इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी काग़ज़ के फूलों की दुकान फल फूल रही है। कल की एक दुकान का विस्तार हो चला है, वह छोटी से बहुत बड़ी हो चुकी है। परिवार की तीसरी पीढ़ी उसी परंपरा का निर्वाह कर रही है। आज के कृत्रिम संसार में कभी न मुरझाने वाले हार फूलों का ही महत्व है। आज की रंग बिरंगी दुनिया वैसे भी किसी काग़ज़ के फूल से कम नहीं।।
☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆
ऋषि मुनियों और संतों की पावन भूमि कहा जाने वाला हमारा देश आज योग गुरु देश बन गया है। भारतीय योग गुरुओं ने विदेशी जमीन पर योग की उपयोगिता और महत्व के बारे में जागरूक किया है।
वर्ष 2015 से विश्व भर में 21जून को विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है। योग दिवस मनाने की तारीख 21 जून ही निश्चित की गई है। इसका कारण भारतीय परंपरा के अनुसार, ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन होना है। सूर्य दक्षिणायन का समय ही आध्यात्मिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए असरदार माना गया है। इसलिए प्रतिवर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाते हैं।
कोरोना काल के बाद से योग का महत्व अधिक बढ़ गया है। संक्रमण से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से लोग योग अभ्यास करने लगे हैं। योग दिवस 2023 की थीम ‘वसुधैव कुटुंबकम के लिए योग’ है। धरती ही परिवार है। धरती जब ही स्वस्थ और शुद्ध रहेगी, जब मानव स्वस्थ रहेंगे। योग भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक रहा है। यह एक प्राचीन अभ्यास है, जिसकी सृष्टि भारत में हुई है। योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विषयों को शामिल करता है। यह शरीर और मन के बीच सद्भाव को बढ़ावा देता है और व्यक्तियों को अच्छी तरह से एक संम्पूर्ण आधुनिक जीवन प्राप्त करने में मदद करता है।
जब भी दुनिया ने मानवता कल्याण के लिए समग्र स्वास्थ्य और जीवन के लिए आवाज उठाया है तो भारत के प्राचीन ज्ञान की हमेशा चर्चा की और सराहना की है. दुनिया भर में इस अभ्यास की एक बढ़ती स्वीकृति, इसकी व्यापक लोकप्रियता इसका एक साक्ष्य है, जिससे दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में भारत का कद बढ़ रहा है. अब, दैनिक जीवन शैली के एक हिस्से के रूप में योग का तेज पश्चिमी दुनिया में भी देखा जा रहा है. इसकी लोकप्रियता कोविड महामारी के दौरान काफी बढ़ गई , जब शारीरिक और मानसिक फिटनेस को लेकर विश्व स्तर पर ज्यादा जोर दिया गया था, लाखों लोगों को इसी उद्देश्य के लिए योग में घुसना पड़ा।
योग दुःखों को कम करने में मानवता प्रदान करता है और लोगों को एक साथ आनन्द की भावना को बढ़ावा देने और एक साथ दुनिया के बीच लचीलापन बनाने के अलावा लोगों को एक साथ लाता है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ने विश्व स्तर पर विशाल लोकप्रियता प्राप्त की है, और लाखों लोग इस दिन योग-संबंधित घटनाओं में भाग लेते हैं. यह समग्र स्वास्थ्य और कल्याण की खोज में विभिन्न पृष्ठभूमि, संस्कृतियों और धर्मों से लोगों को एकजुट करने का अवसर बन गया है. योग दिवस के निरंतर समारोह को इस अभ्यास के बारे में लोगों के बीच जागरूकता फैलाने और यह सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की आंतरिक चेतना और बाहरी दुनिया के बीच निरंतर संबंध की भावना को गहरा करता है।
☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-2 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
मित्रों, पहले बतायेनुसार यक्ष को आषाढ़ के प्रथम दिन पर्वतशिखरों को लिप्त कर आलिंगन देनेवाला मेघ, क्रीडा करनेवाले दर्शनीय हाथी के सामान दिखा। जिसमें १२१ श्लोक (पूर्वार्ध यानि, पूर्वमेघ ६६ श्लोक तथा उत्तरार्ध यानि, उत्तरमेघ ५५ श्लोक) संलग्न है, वह सकल खंडकाव्य सिर्फ और सिर्फ एक ही वृत्त (छंद), मंदाक्रांता वृत्त में (इस वृत्त के प्रणेता हैं, स्वयं कालिदासजी!) गेय काव्य में छंदबद्ध करने की प्रतिभा (और प्रतिमा नहीं परन्तु प्रत्यक्ष में) केवल और केवल कालिदासजी की!
यक्ष आकाश में विचरते मेघ को ही अपना सखा समझ दूत बनाता है, उसे रामगिरी से अलकापुरी का मार्ग बताता है, अपनी प्रियतमा का विरहसे क्षतिग्रस्त शरीर इत्यादि का वर्णन करने के बाद, मेघ को अपना संदेश प्रियतमा तक पहुँचाने की अत्यंत आवेग से बिनती करता है! पाठकों, यक्ष है भूमि पर, परन्तु पूर्वमेघ में वह मेघ को प्रियतमा की अलकानगरी तक जाने का मार्ग बताता है, इसमें ९ प्रदेश, ६६ नगर, ८ पर्वत तथा १० नदियों का भौगोलिक होते हुए भी विहंगम और रमणीय वर्णन किया गया है| विदर्भ के रामगिरी से इस मेघदूत का हिमालय की गोद में बसी हुई अलकानगरी तक का प्रदीर्घ प्रवास इसमें वर्णित किया गया है| अन्त में कैलास के तल पर बसी अलकानगरी में मेघ पहुँचता है| इस वर्णन में मेघ की प्रियतमा विद्युल्लता से हमारी भेंट होती है| उत्तर मेघ में यक्ष ने ने अपनी प्रेयसीको दिया हुआ संदेश है| प्रियतमा विरहव्याधि के कारण प्राणत्याग न कर दे और धीरज रखे, ऐसा संदेश वह यक्ष मेघ द्वारा भेजता है| उसे वह मेघ द्वारा यह संदेश दे रहा है “अब शाप समाप्त होने में केवल चार मास ही शेष हैं, मैं कार्तिक मास में आ ही रहा हूँ”| काव्य के अंतिम श्लोक में यह यक्ष मेघ से कहता है “तुम्हारा किसी भी स्थिति में तुम्हारी प्रिय विद्युलता से कभी भी वियोग न हो!” ऐसा है यह यक्ष का विरहगीत।
मित्रों! स्टोरी कुछ विशेष नहीं, हमारे जैसे अरसिक व्यक्ति पत्र लिखते समय, पोस्टल ऍड्रेस लिखते हैं, अंदर अच्छे बुरे हालचाल की ४ पंक्तियाँ! परन्तु ऍड्रेस एकदम करेक्ट, विस्तृत और अंदर का मैटर रोमँटिक होने के कारण, पोस्ट ऑफिस वालों को भायेगा न, और फिर पोस्टल डिपार्टमेंट पोस्ट का टिकट छपवाकर उस लेखक को सन्मानित करेगा या नहीं! नीचे के फोटो में देखिये पोस्ट का सुन्दर टिकट, यह कालिदासजी के ऍड्रेस लिखने के कौशल्य को किया साष्टांग प्रणिपात ही समझ लीजिये! इस वक्त अगर कालिदासजी होते तो वे ही निर्विवाद रूप से इस डिपार्टमेंट के Brand Ambassador रहे होते! कालिदासजी ने अपने अद्वितीय दूतकाव्य में दूत के रूप में अत्यंत विचारपूर्वक आषाढ़ के निर्जीव परन्तु बाष्पयुक्त धूम्रवर्ण के मेघ का चयन किया, क्योंकि यह जलयुक्त मेघसखा रामगिरी से अलकापुरी तक की दीर्घ यात्रा कर सकेगा इसका उसे पूरा विश्वास है! शरद ऋतु में मेघ रिक्त होता है, इसके अलावा, आषाढ़ मास में सन्देश भेजने पर वह उसकी प्रियतमा तक शीघ्र पहुंचेगा ऐसा यक्ष ने सोचा होगा!
(“आषाढस्य प्रथम दिवसे”- प्रहर वोरा, आलाप देसाई “सूर वर्षा”)
मित्रों, आषाढ़ मास का प्रथम दिन और कृष्णवर्णी, श्यामलतनु, जलनिधि से परिपूर्ण ऐसा मेघ होता है संदेशदूत! पता बताना और सन्देश पहुँचाना, बस, इतनी ही शॉर्ट अँड स्वीट स्टोरी, परन्तु कालिदासजी के पारस स्पर्श से लाभान्वित यह आषाढ़मेघ अमर दूत हो गया! रामगिरी से अलकानगरी, बीच में हॉल्ट उज्जयिनी (मार्ग तनिक वक्र करते हुए, क्योंकि उज्जयिनी है कालिदासजी की अतिप्रिय रम्य नगरी!) इस तरह मेघ को कैसा प्रवास करना होगा, राह में कौनसे माईल स्टोन्स आएंगे, उसकी विरह से व्याकुल पत्नी (और मेघ की भौजाई हाँ, no confusion!) दुःख में विव्हल होकर किस तरह अश्रुपात कर रही होगी यह सब यक्ष मेघ को उत्कट और भावमधुर काव्य में बता रहा है! इसके बाद संस्कृत साहित्य में दूतकाव्योंकी मानों फॅशन ही आ गई (इसमें महत्वपूर्ण है नल-दमयंती का आख्यान), परन्तु मेघदूत शीर्ष स्थान पर ही रहा, उसकी बराबरी कोई काव्य नहीं कर पाया! प्रेमभावनाओं के इंद्रधनुषी आविष्कार का रूप, पाठकों को यक्ष की विरहव्यथा में व्याकुल करने वाला ही नहीं, बल्कि अपनी काव्यप्रतिभा से मंत्रमुग्ध करने वाला यह काव्य “मेघदूत!’ इसीलिये आषाढ मास के प्रथम दिन इस काव्य का तथा उसके रचयिता का स्मरण करना अपरिहार्य ही है!
प्रिय पाठकगण, अब कालिदासजी की महान सप्त रचनाओं का अत्यल्प परिचय देना चाहूंगी! इस साहित्य में ऋतुसंहार, कुमारसंभवम्, रघुवंशम् और मेघदूत ये चार काव्यरचनाएँ हैं, वैसे ही मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय तथा अभिज्ञान शाकुंतलम् ये तीन संस्कृत नाटक-महाकाव्य हैं!
आचार्य विश्वनाथ कहते हैं “वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” अर्थात रसयुक्त वाक्य यानि काव्य!
कालिदासजी की काव्यरचनाऐं हैं केवल चार! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)
रघुवंशम् (महाकाव्य)
यह महाकाव्य कालिदासजी की सर्वोत्कृष्ट काव्यरचना मानी जाती है! इसमें १९ सर्ग हैं, सूर्यवंशी राजाओं की दैदिप्यमान वंशावली का इसमें तेजस्वी वर्णन है| इस वंश के अनेक राजाओं के, मुख्यतः दिलीप, रघु, अज और दशरथ के चरित्र इस महाकाव्य में चित्रित किये गए हैं| सूर्यवंशी राजा दिलीप से तो श्रीराम और उनके वंशज ऐसे इस काव्य के अनेक नायक हैं|
कुमारसंभवम् (महाकाव्य)
यह है कालिदासजी का प्रसिद्ध महाकाव्य! इसमें शिवपार्वती विवाह, कुमार कार्तिकेय का जन्म और उसके द्वारा तारकासुर का वध ये प्रमुख कथाएं हैं|
मेघदूत (खंडकाव्य)
इस दूतकाव्य के विषय में मैं पहले ही लिख चुकी हूँ|
ऋतुसंहार (खंडकाव्य)
यह कालिदासजी की सर्वप्रथम रचना है| इस गेयकाव्य में ६ सर्ग हैं, जिनमें षडऋतुओंका (ग्रीष्म, वर्षा, शरत, हेमंत, शिशिर और वसंत) वर्णन है|
कालिदासजी की नाट्यरचनाएं हैं केवल तीन! (संख्या गिनने हेतु एक हाथ की उँगलियाँ काफी हैं!)
अभिज्ञानशाकुन्तलम् (नाटक)
इस नाटक के बारे में क्या कहा गया है देखिये, “काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला” (कविताके विविध रूपों में अगर कोई नाटक होगा, तो नाटकों में सबसे अनुपमेय रम्य नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्) महाकवी कालिदासजी का यह नाटक सर्वपरिचित और सुप्रसिद्ध है| यह नाटक महाभारतके आदिपर्व में वर्णित शकुन्तला के जीवनपर आधारित है| संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक यानि अभिज्ञानशाकुन्तलम्!
विक्रमोर्यवशियम् (नाटक)
महान कवी कालिदासजी का यह एक रोमांचक, रहस्यमय और रोमांचकारी कथानक वाला ५ अंकों का नाटक है! इसमें कालिदासजी ने राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमसम्बन्ध का काव्यात्मक वर्णन किया है।
मालविकाग्निमित्र (नाटक)
कवी कालिदासजी का यह नाटक शुंगवंश के राजा अग्निमित्र और एक सेवक की कन्या मालविका की प्रेमकथापर आधारित है| कालिदासजी की यह प्रथम नाट्यकृति है।
तो, मित्रों, ‘कालिदास दिवस’ के उपलक्ष्य पर इस महान कविराज को मेरा पुनश्च साष्टांग प्रणिपात!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उठापटक”।)
अभी अभी # 76 ⇒ उठापटक… श्री प्रदीप शर्मा
किसी को उठाना और फिर पटकना, यह अखाड़े में पहलवानों का काम है। पहले प्रतिद्वंद्वी से भिड़ना, दांव पेंच लगाना, उसे उठाकर पटक देना और जब विजयी घोषित हो जाएं, तो उसी का हाथ पकड़कर सबका अभिवादन करना।
कभी कभी जब सामने वाला पहलवान कमजोर और दुबला होता है तो वह सीधा ज़ोरदार पहलवान के क़दमों से जोंक की तरह चिपक जाता है। मानो पांव पड़कर माफी मांग रहा हो। कई बार रेफ्री उसे अलग करता है, लेकिन वह उस भारी भरकम पहलवान के अंगद के पांव को हिलाता नहीं, उस पर मलखम करने लग जाता है। लेकिन जब सामने वाले पहलवान का धोबी पछाड़ दांव लगता है, ये पहलवान चारों खाने चित, और इन्हें दिन में तारे नजर आ जाते हैं। ।
धोबी पछाड़ का तो कॉपीराइट ही धोबी के पास है। धोबी पछाड़ का सीधा प्रसारण देखना हो तो कभी धोबी घाट चले जाएं। धोबी जी के घाट पर, भई कपड़न की भीड़। हर कपड़े को उठा, पटक मारे पत्थर पर रजक वीर।
एक आम आदमी के जीवन में भी कितनी उठापटक है, केवल वह ही जानता है। हर जगह प्रतिस्पर्धा, टांग खिंचाई। जो आपकी टांग खींच रहा है, उसे कभी आशीर्वाद नहीं दिया जाता। उस उठाकर पटक ही दिया जाता है। नौकरी में उतार चढ़ाव आते हैं, धंधे में मंडी आती है। कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं इंसान को, और आप कहते हैं, उठापटक मत करो।
राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है, जहां हमेशा उठापटक चला ही करती है। वणिक शब्दकोश में इसे हेराफेरी का नाम दिया गया है। वैसे उठापटक के बिना भी कभी उलटफेर हुआ है। कुछ विधायक इधर से उठाए, उधर रख दिए। अब आप चाहे इसे उठापटक कहें, हेराफेरी कहें, अथवा उलटफेर, सब चलता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम ने तो जिसे उठाया, उसे गले से ही लगाया। जिसे भी उठाओ, प्रेम से गले लगाओ। जिस तरह हम एक बच्चे को प्यार से उठाते हैं, गले लगाते हैं। गलती से भी किसी पत्थर को भी ठोकर लगे, तो वह अहिल्या बन जाए। जो पत्थर इन हाथों से फेंका जाए, वह किसी को नुकसान न पहुंचाए, केवल राम जी के नाम से पानी में भी तैर जाए। जब जाम उठाया है तो उसे मुंह तक जाने दीजिए, ज़मीन पर मत पटकिए। शीशा हो या दिल, टूट जाता है। बेवजह उठापटक से किसी का दिल कभी ना तोड़िए। ।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 39 ☆ देश-परदेश – मुगालता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विश्व के किसी भाग में जब भी कोई घटना या परिवर्तन होता है, विशेष रूप से राजनैतिक, हमारे देशवासी तुरंत कोई निष्कर्ष निकाल कर अपने हित साधने लगते हैं।
यूनाइटेड किंगडम से कुछ घंटे पूर्व ज्ञात हुआ कि भारतीय मूल के श्री ऋषि सुनक वहां के आगामी प्रधान मंत्री बनेंगे। हमारा सोशल मीडिया इस समाचार की बाढ़ में साल भर के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली को भूल उनसे अपने रिश्ते ढूंढने लगा।
विदेशों में व्यापार करने वाले नए नए सपने संजोने लग गए हैं। उनके परिवार को विदेश में बसे लंबा समय हो जाने के बावजूद लोग उनके पैतृक गांव में ज़मीन महंगी होने के शिगूफे छोड़ रहे हैं।
उनका सुसराल का परिवार भी भारतीय है। हमारे व्हाट्स ऐप माध्यम ने उनकी सात पुश्ते खोज ली हैं। “अपना ऋषि” बोलकर लोग नज़दीकी रिश्तेदार होने का प्रणाम दे रहे हैं। कुछ तो कह रहे हैं अंग्रेजों ने जो महाराजा रंजीत सिंह जी का हीरा ” कोहिनूर” लूटा था, वो कार्तिक की पूर्णिमा (पंद्रह दिन बाद) याने गुरुनानक जयंती तक ऋषि सुनक देश को वापस दिलवा देंगे।
कुछ वर्ष पूर्व श्रीमती कमला हैरिस, अमेरिका की उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुई तो हमारे देशवासी उनको “कमला बुआ” कहने लगे और सोचने लगे जैसे उनके घर की ही बेटी निर्वाचित हुई हो। अमेरिका से ऐसी उम्मीद करने लगे, जैसे मोहल्ले का कोई लड़का जब बैंक में भर्ती हो जाता है, तो वो एक के नोट की गड्डियां प्रतिदिन घर पहुंचा देगा।
गलतफहमी/मुगालता तो बहुत जल्दी से हो जाता हैं। कुछ दिन बाद ही ऐसे लोग हकीकत देखकर परेशान हो जाते हैं। बहुत जल्द खुश होकर मुगालते पालने से तो धीरज रखकर आने वाले समय को पहचानना चाहिए।
☆ “महाकवि कालिदास दिन – (आषाढस्य प्रथम दिवसे!)” – भाग-1 ☆ लेखक और प्रस्तुतकर्ता – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
नमस्कार प्रिय पाठक गण!
आज १९ जून २०२३, आज की तिथी आषाढ शुद्ध प्रतिपदा, अर्थात आषाढ मास का पहला दिन. आज का दिन साहित्य प्रेमियों के लिए सुवर्ण दिन, क्योंकि इस दिन हम मनाते हैं ‘कालिदास दिवस’| मित्रों, यह उनका जन्मदिन अथवा स्मृति दिन नहीं है, क्योंकि, वे दिन हमें ज्ञात ही नहीं हैं| परन्तु उनकी काव्यप्रतिभा इतनी एवढी उच्च कोटि की है कि, हमने यह दिवस उनके ही एक चिरकालजीवी खंड काव्य से ढूंढा है| कालिदासजी, संस्कृत भाषा के महान सर्वश्रेष्ठ कवी तथा नाटककार! दूसरी-पांचवी सदी में गुप्त साम्राज्यकालीन अनुपमेय साहित्यकार के रूप में उन्हें गौरवान्वित किया गया है| उनकी काव्यप्रतिभा के अनुरूप उन्हें दी गई “कविकुलगुरु” यह उपाधी स्वयं ही अलंकृत तथा धन्य हो गयी है! संस्कृत साहित्य की रत्नमाला में उनका साहित्य उस माला के मध्यभाग में दमकते कौस्तुभ मणी जैसा प्रतीत होता है| पाश्चात्य और भारतीय, प्राचीन तथा अर्वाचीन विद्वानों के मतानुसार कालिदासजी जगन्मान्य, सर्वश्रेष्ठ और एकमेवाद्वितीय ऐसे कवि हैं! इस साक्षात सरस्वतीपुत्र की बहुमुखी व बहुआयामी प्रज्ञा, प्रतिभेचे तथा मेधावी व्यक्तित्व का कितना बखान करें? कालिदास दिवस का औचित्य साधते हुए इस अद्वितीय महाकवि के चरणों में मेरी शब्दकुसुमांजली!
ज्ञानी पाठकगणों, आप इसमें कवि कालिदासजी के प्रति मेरी केवल और केवल श्रद्धा ही ध्यान में रक्खें। मात्र मेरा मर्यादित शब्दभांडार, भावविश्व तथा संस्कृत भाषा का अज्ञान, इन सारे व्यवधानों को पार करते हुए मैंने यह लेख लिखने का फैसला कर लिया| मित्रों, मुझे संस्कृत भाषा का ज्ञान नहीं है, इसलिए मैंने कालिदासजी के साहित्य का मराठी में किया अनुवाद (अनुसृष्टी) पढ़ा! उसी से मैं इतनी अभिभूत हो उठी| यह लेख मैंने पाठक की भूमिका में रसपान का आनंद लेने के हेतु से ही लिखा है, न कि, कालिदासजी के महान साहित्य के मूल्यांकन के लिए!
इन कविराज के अत्युच्य श्रेणी के साहित्य का मूल्यमापन संख्यात्मक न करते हुए गुणात्मक तरीके से ही करना होगा। राष्ट्रीय चेतना का स्वर जगाने का महान कार्य करने वाले इस कवि का राष्ट्रीय नहीं बल्कि विश्वात्मक कवि के रूप में ही गौरव करना चाहिए! अत्यंत विद्वान के रूप में गिने जाने वाले उनके समकालीन साहित्यकारोंने (उदा. बाणभट्ट) ही नहीं, बल्कि आज दुनियाभर के लेखकों ने भी वह किया है! उनकी जीवनी के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है| उनके नाम से जुडी अंदाजन ३० साहित्य निर्मितियों में ७ साहित्यकृतियां निश्चित रूप से उन्हींकी हैं, यह मान्यता है| ऐसी क्या विशेषता है कालिदासजी के सप्तचिरंजीवी साहित्य अपत्यों में, कि पाश्चात्य साहित्यिकों ने कालिदास का नामकरण “भारत का शेक्सपियर” ऐसा किया है! मैं तो दृढ़तापूर्वक ऐसा मानती हूँ कि, इसमें गौरव कालिदासजी का है ही नहीं, क्यों कि वे सर्वकालीन, सर्वव्यापी तथा सर्वगुणातीत ऐसे अत्युच्य गौरवशिखर पर पहलेसे ही आसीन हैं, इसमें यथार्थ गौरव है शेक्सपिअर का, सोचिये उसकी तुलना किसके साथ की जा रही है, तो कालिदासजी से!
इस महान रचयिता के जीवन के बारे में जानना है तो उनके साहित्य का बारम्बार पठन करना होगा, क्योंकि उनके जीवन के बहुतसे प्रसंग उनकी साहित्यकृतियों में उतरे हैं, ऐसी मान्यता है| उदाहरण के तौर पर खंडकाव्य मेघदूत, विरह के शाश्वत, सुंदर तथा जीवन्त रूप में इस काव्य को देखा जाता है, बहुतसे विशेषज्ञों का मानना है कि कल्पना के उच्चतम मानकों का ध्यान रखते हुए भी, बिना अनुभव के इस कल्पनाशील दूतकाव्य कविता की रचना करना बिलकुल असंभव है। साथ ही कालिदासजी ने जिन विभिन्न स्थानों और उनके शहरों का सटीक तथा विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, वह भी तब तक संभव नहीं है जब तक कि उन स्थानों पर उनका वास्तव्य नहीं रहा होगा! कालिदासजी की सप्त कृतियों ने समूचे विश्व को समग्र भारतदर्शन करवाया! उज्जयिनी नगरी का वर्णन तो एकदम हूबहू, जैसे कोई चलचित्र के समान! इसलिए कई विद्वान मानते हैं कि कालिदासजी का वास्तव्य संभवतः अधिकांश समय के लिए इस ऐश्वर्यसंपन्न नगरी में ही रहा होगा! उनकी रचनाएं भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शनशास्त्र पर आधारित हैं! इनमें तत्कालीन भारतीय जीवन का प्रतिबिंब दृष्टिगोचर होता है, रघुवंशम् में इतिहास एवं भूगोल के बारे में उनका गहन ज्ञान, निःसंदेह उनकी अपार बुद्धिमत्ता और काव्यप्रतिभा का प्रतीक है, इसमें कोई भी शक नहीं| इस भौगोलिक वर्णन के साथ ही भारत की पौराणिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि और ज्ञान, साथ ही सामान्य तथा विशिष्ट व्यक्तियों की जीवनशैली, इन सबका पर्याप्त दर्शन इस महान कवि की रचनाओंमें पाया जाता है|
उनकी काव्य एवं नाटकों की भाषा और काव्यसौंदर्य का वर्णन कैसे करें? भाषासुंदरी तो मानों उनकी आज्ञाकारी दासी! प्रकृतिके विभिन्न रूप साकार करने वाला ऋतुसंहार यह काव्य तो प्रकृतिकाव्य का उच्चतम शिखर ही समझिये! उनके अन्य साहित्य में उस उस प्रसंग के अनुसार प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहर वर्णन यानि अद्भुत तथा अद्वितीय इंद्रधनुषी रंगों की छलकती बौछार, हमें तो बस इन रंगों में रंग जाना है, क्योंकि ये सारी काव्यरचनाएँ छंदों के चौखटों में सहज, सुन्दर और अनायास विराजमान हैं, जबरदस्ती से जानबूझकर बैठाई नहीं गईं!
यह अनोखा साहित्य है अलंकारयुक्त तथा नादमयी भाषा का सुरम्य आविष्कार! एक सुन्दर स्त्री जब अलंकारमंडित होती है, तब कभी कभी ऐसा प्रश्न मन में उठता है कि, अलंकारों का सौन्दर्य उस सौन्दर्यवती के कारण वर्धित हुआ है, या उसका सौन्दर्य अलंकारोंसमेत सजनेसे और अधिक निखरा है! मित्रों, कालिदासजी के साहित्य का अध्ययन करते हुए यहीं भ्रम निर्माण होता है! इस महान कविराज की सौन्दर्य दृष्टि की जितनी ही प्रशंसा की जाए, कम ही होगी! उसमें लबालब भरे अमृतकलशोंसम नवरस तो हैं ही, परन्तु, उनमें विशेषकर है शृंगाररस! स्त्री सौंदर्य का लक्षणीय लावण्यमय आविष्कार तो उनके काव्य तथा नाटकों में जगह जगह पाया जाता है! उनकी नायिकाएं ही ऐसी हैं कि, उनका सौन्दर्य शायद वर्णनातीत होगा भी कदाचित, परन्तु कालिदासजी जैसा शब्दप्रभू हो तो उनके लिए क्या कुछ असंभव है? परन्तु इस सौन्दर्य वर्णन में तत्कालीन आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्योंका कहीं भी पतन नहीं हुआ है! अलंकारोंके जमघट में सबसे प्रमुख आभूषण है उपमालंकार, वे उपमाएं कैसी तो अन्य व्यक्तियों के लिए अनुपमेय! लेकिन जबतक इन महान संस्कृत भाषा की रचनाएं प्राकृत प्रांतीय भाषाओं में जनसामान्य तक पहुँचती नहीं, तबतक इस विश्वात्मक कवि का स्थान अखिल विश्व में शीर्ष होकर भी अपने ही देश में अपरिचित ही रहेगा! अर्थात इस साहित्य का कई भारतीय भाषाओँ में अनुवाद (अनुसृष्टी) हुआ है, यह उपलब्धि भी कम नहीं है!
मेघदूत (खण्डकाव्य)
खण्डकाव्यों की रत्नपेटिका में विराजित कौस्तुभ मणि जैसे मेघदूत, कालिदासजी की इस रचनाका काव्यानंद यानि स्वर्ग का सुमधुर यक्षगानही समझिये! ऐसा माना जाता है कि महाकवी कालिदासजी ने अपने प्रसिद्ध खंडकाव्य मेघदूत को आषाढ़ मास के प्रथम दिन रामगिरी पर्वतपर (वर्तमान स्थान-रामटेक) लिखना प्रारंभ किया! उनके इस काव्य के दूसरे ही श्लोक में तीन शब्द आये हैं, वे हैं “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! आषाढ़ के प्रथम दिन कालिदासजी ने जब आसमान में संचार करनेवाले कृष्णमेघ देखे, तभी उन्होंने अपने अद्भुत कल्पनाविलास का एक काव्य में रूपांतर किया, यहीं है उनकी अनन्य कृति “मेघदूत”! यौवन की सहजसुंदर तारुण्यसुलभ तरल भावना तथा प्रियतमा का विरह, इन प्रकाश और तम के संधिकाल का शब्दबद्ध रूप दृष्टिगोचर होनेपर हमारा मन भावनाविवश हो उठता है|
अलका नगरी में यक्षों का प्रमुख, एक यक्ष कुबेर को महादेवजी की पूजा हेतु सुबह ताजे प्रफुल्लित कमलपुष्प देनेका काम रोज करता है| नवपरिणीत पत्नी के साथ समय बिताने हेतु वह यक्ष कमलपुष्पोंको रात्रि में ही तोड़कर रखता है| दूसरे दिन सुबह जब कुबेरजी के पूजा करते समय खिलनेवाले पुष्प में रात्रि को बंदी बना एक भ्रमर कुबेरजी को डंख मारता है| क्रोधायमान हुए कुबेरजी यक्ष को शाप देते हैं| इस कारण उस यक्ष की और उसकी प्रेमिका को अलग होना पड़ता है| इसी शापवाणी से मेघदूत इस अमर खंडकाव्य की निर्मिती हुई| यक्ष को भूमि पर रामगिरी पर १ वर्ष के लिए, अलकानगरीमें रहनेवाली अपनी पत्नीसे दूर रहने की सजा मिलती है| शाप के कारण उसकी सिद्धी का नाश हो जाता है, जिसके कारण वह किसी भी प्रकारसे पत्नी को मिल नहीं पाता| इसी विरहव्यथा का यह “विप्रलंभ शृंगार का काव्य” है| कालिदासजी की कल्पना की उड़ान यानि यह कालातीत, अतिसुंदर ऐसा प्रथम “दूत काव्य” के रूप में रचा गया! फिर रामगिरी से, जहाँ सीताजी के स्नानकुंड हैं, ऐसे पवित्र स्थान से अश्रु भरे नेत्रोंसे यक्ष मेघ को सन्देश देता है! मित्रों, अब देखते हैं वह सुंदर श्लोक!
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी,
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठ: ।
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं,
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ।
अर्थात, अपने प्रिय पत्नी के वियोग से दग्धपीडित और अत्यंत व्यथित रहने के कारण यक्ष के मणिबंध का (कलाई) सुवर्णकंकण, उसके देह के क्षीण होने के कारण शिथिल (ढीला) होकर भूमि पर गिर जाने से, उसका मणिबंध सूना सूना दिख रहा था! आषाढ़ के प्रथम दिन उसे नज़र आया एक कृष्णवर्णी मेघ! वह रामगिरी पर्वत के शिखर को आलिंगनबद्ध कर क्रीडा कर रहा था, मानों एकाध हाथी मिट्टीके टीले की मिटटी उखाड़ने का खेल कर रहा हो|
कालिदास स्मारक, रामटेक
प्रिय मित्रों, यहीं है उस श्लोक के मानों काव्यप्रतिभा का तीन अक्षरोंवाला बीजमंत्र “आषाढस्य प्रथम दिवसे”! इस मंत्र के प्रणेता कालिदासजी के स्मृति को अभिवादन करने हेतु प्रत्येक वर्ष हम आषाढ महीने के प्रथम दिन (आषाढ शुक्ल प्रतिपदा) कालिदास दिन मानते हैं| जिस रामगिरी (वर्तमान में रामटेक) पर्वत पर कालिदासजी को यह काव्य रचने की स्फूर्ति मिली, उसी कालिदासजी के स्मारक को लोग भेंट देते हैं, अखिल भारत में इसी दिन कालिदास महोत्सव मनाया जाता है! प्रिय पाठकों, हमारे लिए गर्व की बात है कि, महाराष्ट्र का प्रथम कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय रामटेक में स्थापित हुआ| इस साल कालिदास दिन है १९ जून को|
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिल ने फिर याद किया“।)
अभी अभी # 75 ⇒ दिल ने फिर याद किया… श्री प्रदीप शर्मा
वैसे तो हम सबके पास अपना दिल है, क्योंकि दिल है तो हमारी जान है, और दिल है तो ये जहान है, फिर भी इस दिल की दुकान बड़ी इल्मी और फिल्मी है, शायरी भी इसी दिल पर होती है, और छुरियां भी इसी दिल पर चलती है, दिल धड़के तो समस्या, नहीं धड़के तो आफत। दिल के बीमार भी और दिल के आशिक भी।
दिल शीर्षक से जितनी फिल्में बनी हैं, और जितने गीत बने हैं, अगर उनकी बात छिड़ जाए, तो दिल ही जाने यह सिलसिला कब तक चला करे। इसलिए हमने अपना दायरा बहुत संकुचित कर लिया है और हम सिर्फ एक ही फिल्म, दिल ने फिर याद किया, का आज जिक्र करेंगे। ।
सन् १९६६ में प्रदर्शित निर्देशक सी. एल.रावल और धर्मेंद्र नूतन अभिनीत इस फिल्म में दस गीत थे, और जिसका संगीत एकदम एक नई अनसुनी संगीतकार जोड़ी सोनिक और ओमी ने तैयार किया था। मोहम्मद रफी के तीन खूबसूरत गीत, कलियों ने घूंघट खोले, हर फूल पे भंवरा डोले, लो चेहरा सुर्ख गुलाब हुआ और यूं चाल चलो ना मतवाली, मुकेश का दर्द भरा नगमा, ये दिल है मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का धड़कना क्या कहिए और लता का दर्द भरा गीत, आजा रे, प्यार पुकारे, नैना तो रो रो हारे !
भारतीय श्रोता को अच्छे बुरे संगीत और गीत की बहुत बारीक पकड़ है। कोई भी अच्छा गाना, अच्छी धुन, उससे बच ही नहीं सकती। फिर धर्मेंद्र, नूतन, रहमान और जीवन जैसे मंजे हुए कलाकार। यह वह जमाना था, जब औसत फिल्में भी अच्छे गीत और संगीत के बल पर चल निकलती थी। कौन थे कलाकार फिल्म पारसमणि और दोस्ती के। ।
एक तरफ रफी साहब की आवाज पर कलियों ने घूंघट खोले तो दूसरी ओर मुकेश का ये दिल मोहब्बत का प्यासा, इस दिल का तड़फना क्या कहिए। एक फड़कता गीत तो दूसरा मुकेश के चाहने वालों का दर्द भरा गीत। आ जाओ हमारी बांहों में, हाय ये है कैसी मजबूरी। लगा किसी नए संगीतकार की नहीं, रोशन साहब की धुन है।
फिल्म में मन्ना डे और कोरस की एक कव्वाली थी, हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे, रुख से पर्दा हटाया तो, पछताओगे। फिल्म दिल ही तो है की कव्वाली की याद दिला गई। इतना ही काफी नहीं, फिल्म टाइटल सॉंग जिसे एक नहीं तीन तीन गायकों ने अपना स्वर देकर अमर कर दिया। दिल ने फिर याद किया, बर्क सी लहराई है। फिर कोई चोट, मुहब्बत की उभर आई है। आपको जानकर आश्चर्य होगा, इस गीत के तीन वर्शन जिन्हें बारी बारी से मोहम्मद रफी, सुमन कल्याणपुर और मुकेश जी ने अपना स्वर दिया है। इन गीतों को सिर्फ सुना जा सकता है, इनकी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। ।
एक महान कलाकार भी आम आदमी ही होता है। हमें कहां इतनी सुर, ताल, संगीत और गीतों के बोल की समझ, हमने बर्क शब्द पहले कभी सुना नहीं, हम तो इक बर्फ सी लहराई है, ही गाते रहे कुछ वक्त तक।
अगर रफी साहब वाला इस गीत का वर्शन ध्यान से सुनें, तो बर्फ ही सुनाई देता है। लेकिन अपनी आवाज से बर्फ तो क्या, इंसानों के दिलों को पिघलाने वाले रफी साहब ने यह बर्फ भी इतनी खूबसूरती से गाया, कि संगीत निर्देशकों की हिम्मत ही नहीं हुई, कि उसका री- टेक करवा लें, और बर्फ को बर्क करवा लें। शब्दों को जमाना और पिघलाना कोई रफी साहब से सीखे। ।
हर कलाकार अपने जीवन का श्रेष्ठ या तो जीवन काल के प्रारंभ में ही दे जाता है, अथवा फिर उसे कई वक्त तक इंतजार करना पड़ता है। उषा खन्ना (पहली फिल्म दिल दे के देखो) और सोनिक ओमी, उन भाग्यशाली संगीतकारों में से हैं, जिनकी पहली ही फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए।
आगे का सफर इनका कैसा रहा, संगीत प्रेमी अच्छी तरह से जानते हैं। यूं ही आज दिल ने फिर याद कर लिया, इस महान संगीतकार को, शायद कुछ बर्क सी लहराई हो, वैसे बिना किसी कलेजे की चोट के कहां ऐसे कालजयी गीत और संगीत की रचना हो पाती है।
कोई मौका नहीं, कोई दस्तूर नहीं, बस यूं ही, दिल ने फिर याद किया।।