हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 192 – पाणी केरा बुदबुदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए”।)  

? अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं। ।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया, कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं। आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति। ।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए। ।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब। हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर आए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

INNER SEARCH

VISION & REVISION.

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 52 ⇒ गरीब, आदमी और मर्द… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीब, आदमी और मर्द”।)  

? अभी अभी # 52 ⇒ गरीब, आदमी और मर्द? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या गरीब, आदमी भी होता है, क्या वह गरीब है, सिर्फ यही काफी नहीं!

आदमी तो गरीब भी होता है और अमीर भी, अच्छा भी और बुरा भी। हमने अच्छा अजीब आदमी तो देखा है, बुरा अजीब आदमी नहीं। अमीर तो इंसान होते हैं, वैसे बेचारा गरीब आदमी भी इंसान ही होता है।

गरीब आदमी कितनी भी कोशिश कर ले, अपनी गरीबी हटाने की, कोई भी सरकार नहीं चाहती कि गरीब हटे। जब तक गरीब है, तब तक ही तो गरीबी हटती रहेगी। अगर गरीब ही हट गया, तो फिर गरीबी किसकी हटाओगे। क्या दान पुण्य के लिए अमीरों का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। सब गरीबों की ही सुनते हैं, अमीर की कब किसने सुनी है, सुध ली है। ।

एक गरीब, आदमी भी हो सकता है, एक ईमानदार इंसान भी हो सकता है, लेकिन मर्द कभी नहीं हो सकता। क्यों, क्या इसलिए, कि मर्द को दर्द नहीं होता! गरीब को तो इतना दर्द होता है, कि उसके दर्द से सरकारें तक पिघल जाती हैं। कैसी कैसी योजनाएं सरकार लाती है, उनके दर्द को कम करने के लिए, लेकिन उनका दर्द है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता। बताऊं तुम्हें क्या, कहां दर्द है, जहां हाथ रख दो, वहां दर्द है।

जिस तरह सरकार हर देशवासी को एक छत का आश्वासन देती है, हर गरीब को गरीब कहलाने के गरीबी रेखा के नीचे यानी below Poverty Line रहना जरूरी है। थोड़ी भी लाइन ऊपर नीचे हुई और आप अगरीब घोषित! और अगरीब घोषित होने का मतलब, गरीबों के मूलभूत अधिकारों से हाथ धो बैठना। मूलभूत शब्द, यूं ही नहीं बन जाता। मूल सुविधा के पीछे भूत की तरह भागना ही मूलभूत सेवा का उपभोग करना है। ।

बहुत पीट लिया गरीबी का ढिंढोरा, आइए अब मर्दों वाली बात भी हो जाए!

मर्द न तो अमीर होता है और न गरीब, मर्द सिर्फ मर्द होता है। सुना है, गरीबों के घरों में अक्सर मर्द नहीं, एक अदद मरद होता है, जो अपनी बीवी की कमाई पर फौजदारी हक रखता है। एक मरद की बीवी अक्सर वो कामकाजी गरीब महिला होती है जो पहले अपने मरद से  शराब के पैसे के लिए मार खाती है और बाद में, शराब के बाद वाली  पिटाई का दुख भी झेलती है।

ऐसी लुटने वाली और पिटने वाली गरीब, कामकाजी औरतों का एक ही मंतव्य और निष्कर्ष होता है कि सभी मरद एक जैसे होते हैं। अब सभी मर्द मिल जुलकर फैसला कर लें, कि वे वाकई मर्द हैं या फिर सिर्फ एक सर्टिफाइड मरद।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #184 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मूर्खों के पांच लक्षण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 184 ☆

☆ मूर्खों के पांच लक्षण 

‘मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर।’ वाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है; भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई अटपटी बात करता है; अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है; अपनी विद्वत्ता का बखान करता है; बात-बात पर अकारण क्रोधित  होता है तथा दूसरों की पगड़ी उछालने में पल-भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, क्योंकि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान अथवा तवज्जो नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। वैसे नास्तिक व्यक्ति भी परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं रखता और वह स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा अथवा दया का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर… परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं– ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, श्रद्धेय हैं, उपास्य हैं।

गर्व, घमण्ड व अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो भौतिक व आध्यात्मिक विकास में बाधक है। वास्तव में अहं गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का, जो मानव की नस-नस में व्याप्त है, परंतु वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे अतिशयोक्ति भी कहा जाता है। इसका दूसरा भयावह पक्ष यह है कि जो आपके पास है, उसके कारण आप अहंनिष्ठ होकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखाते हैं; उनकी भावनाओं को रौंदते हुए, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं– जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसे सही राह दिखाने की चेष्टा करता है; जीवन के सत्य व कटु यथार्थ से परिचित कराना चाहता है; उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है–वह उस पर ज़ुल्म ढाने से गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, तो वह उसके प्राण लेकर सूक़ून पाता है। इसलिए  वह अपने अहंभाव के कारण आजीवन सत्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक़ पर रख व सीमाओं को लांघकर अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अप-शब्द कहता है, गाली -गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है– बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराज़ू में रखकर तोलिए और यदि वह उस कसौटी पर ख़रा उतरता है–तो उचित है; वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए, क्योंकि वे शब्द-बाण कभी भी आपके गले की फांस बन सकते है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से वे जन्म लेते हैं; अस्तित्व में आते हैं। सो! इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल होता है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का सब कुछ जानते हुए भी आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है; एक ही लाठी से हांकता है; सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्दकोश के दायरे से बाहर रहता है।

परशुराम का क्रोध में अपनी माता की हत्या कर देना, तो सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भीषण व भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ अथवा ज़िद का प्रणेता है क्रोध। बाल-हठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने व किसी वस्तु को पाने का हठ कर लेते हैं; जिसे पूरा करना असंभव होता है। परंतु उन्हें बात बदल कर,व अन्य वस्तु देकर बहलाया जा सकता है। सो! इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बाल-मन तो कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह पूरे समाज को  विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं होती, क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है, लाख प्रयास करने पर भी वह टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत तक को अपने हाथों जला अथवा नष्ट कर तमाशा देखता है और उस स्थिति में स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है, क्योंकि उसके सुंदर स्वप्न जल कर राख हो चुके होते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल-भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान

स्वीकारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान् इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं-तुष्टि ही नहीं, अहं-पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय-कृत्यों तक का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट’ अर्थात् बॉस अथवा मालिक सदैव ठीक होता है तथा कोई ग़लत काम कर ही नहीं सकता अर्थात् ग़लत शब्द उसके शब्दकोश की सीमा से बाहर रहता है। वह निष्ठुर प्राणी कभी भी अनहोनी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती ही नहीं।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं, जो स्थायी भावों के साथ-साथ, समय-समय पर प्रकट होते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी जीवन में इन्हें धारण कर लेता है अथवा अपना लेता है… उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है तथा उन सबको अपना विरोधी स्वीकारते हुए, अपना पक्ष रखने का अवसर व अधिकार ही कहां प्रदान करता है? अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे-रटाए चंद वाक्यों का प्रयोग; वह हिटलर की भांति किसी भी अवसर पर धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्न-चित्त रहता है; सदैव अपनी-अपनी हांकता है तथा किसी को बोलने अथवा अपना पक्ष रखने का अवसर ही प्रदान नहीं करता। परंतु चंद लम्हों में लोग उसकी फ़ितरत को समझ जाते हैं तथा उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं। वे उससे निज़ात पा लेना चाहते हैं, ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला उच्चरित कोई वाक्य, कहीं उन सबके लिए बवाल व भविष्य में जी का जंजाल न बन जाए। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक-तुल्य बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है; जिसे सहर्ष स्वीकारना व अनुमोदन करना–उनकी नियति बन जाती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माखी और गुड़”।)  

? अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गुड़ और मक्खी का साथ बहुत पुराना है, बस यह मानिए, जब से हमने हमारे गुरुकुल में पोथी बांचना शुरू किया, तब से ही इस गूंगे के गुड़ और ढाई आखर की मक्खी का प्रेम, हम देखते चले आ रहे हैं। इन्हें आपस में लाने का यह पवित्र कार्य संत कबीरदास जी ने कुछ इस तरह से किया ;

माखी गुड़ में गड़ी रहै

पंख रह्यौ लिपटाय ;

हाथ मलै और सिर धुने

लालच बुरी बलाय।

हमारे कबीर साहब के दोहों में उलटबासी होती थी, और उनकी सीख, साखी कहलाती थी। सुनो भाई साधो, उनका तकिया कलाम था! भाई, सिर्फ सुनो ही नहीं, उसको साधो भी, जीवन में, अमल में भी लाओ। ।

गुड़ मीठा है, इसमें गुड़ का कोई दोष नहीं, मक्खी को भी मीठा पसंद है और हमें भी! मीठा किसे पसंद नहीं। तो क्या इसमें मक्खी के पंख का दोष है। अगर उसके पंख नहीं होते, तो शायद वह भी चींटियों की तरह, गुड़ का पहाड़ अपने मजदूरों की सहायता से अपने घर में ले जाती। ।

ईश्वर ने प्राणियों के पंख उड़ने के लिए बनाए हैं, लेकिन कबीर साहब कब गलत कहते हैं, लालच बुरी बलाय। मक्खी का क्या है, उसे गुड़ और गोबर में कहां भेद करना आता है। वह तो उल्टे, जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। नाली से उड़कर आएगी और हलवाई के थाल पर बैठ जाएगी। बर्फी का सब रस, गुड़ गोबर हुआ कि नहीं।

कबीर साहब की सीख हमें तब समझ में नहीं आई, तो अब क्या आएगी। हमारे भी पंख हैं, अरमानों के, हमारे भी सपने हैं, पैसे का भी लोभ है और जमीन जायदाद औलाद का भी।

मत कहिए लालच, उसे कुछ और नाम दे दीजिए। ।

लालच से मीठा कोई गुड़ नहीं। हमसे तो मीठा ही कंट्रोल नहीं होता, बिना पंख के, केवल हमारी रसना ही हमें यहां वहां उलझाती रहती है, ललचाती रहती है। यह तो इतनी चतुर है कि मीठा बोलकर भी जहर घोलने में माहिर है।

माखी ही हमारे लिए कबीर की साखी है। भगवान दत्तात्रेय ने इसीलिए कीट, पतंगों तक को अपना गुरु माना। कबीर साहब के शब्द ही इसीलिए गुरु ग्रंथ साहब के सबद बन प्रकट हुए हैं। संत का सत्संग ना सही, सबद ही काफी है। अपने जीवन से लालच को मक्खी की तरह निकाल फेंके। शब्दों का लालच तो देखिए, प्रकट होने से बाज नहीं आ रहे। हम नहीं सुधरेंगे। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 50 ⇒ लंगर, भंडारा और कार सेवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लंगर, भंडारा और कार सेवा”।)  

? अभी अभी # 50 ⇒ लंगर, भंडारा और कार सेवा? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं! सेवा नि: स्वार्थ हो तो क्या बात है। अन्नदान नहीं आसान। अगर आप किसी  भूखे को भोजन करवाते हैं, तो बहुत बड़ा काम करते हैं। भंडारा और लंगर वह भोजन होता है जो शुद्धता से बनाया जाता है और इंसान से पहले  अपने आराध्य को वह अर्पित किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में वह सार्वजनिक रूप से परोस दिया जाता है।

तीनों प्रकार की ये सेवाएं आस्था से जुड़ी हैं। समय और परिस्थिति अनुसार इन सेवाओं में    फेरबदल हो सकता है, लेकिन सेवा की भावना ही इन सबमें प्रमुख है। आज अन्नदाता पर राजनीति संभव है लेकिन अन्न सेवा पर नहीं। बड़े बड़े शहरों में  आजकल घर घर राम रोटी जैसी योजनाएं सामाजिक संस्थाएं चला रही हैं, जहां हर घर से अस्पताल के मरीजों और उनके परिजनों के लिए ना केवल भोजन, अपितु दवाइयों और वस्त्रों की भी व्यवस्था की जा रही है। लेकिन वे किसी राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा नहीं, एक स्वयं – स्फूर्त सेवा है। ।

सेवा नि:स्वार्थ की जाती है फिर भी बच्चों की तरह इसमें भी लालच दिया जाता है। करोगे सेवा, तो पाओगे मेवा, और लोगों ने मेवा हासिल करने के लिए समाज सेवा को अपना लिया। राजनीति से बड़ी कोई मानव सेवा नहीं। राजनीति में मेवा ही मेवा है।

सेवा ही धर्म है! आप जो रोज भोजन करते हैं, उसमें न केवल एक रोटी गाय और कुत्ते की निकाली जाती है, संस्कारी परिवारों में पहले भगवान को भोग लगाया जाता है, उसके बाद ही भोजन ग्रहण किया जाता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में भी पहले अपने आराध्य को भोग लगाया जाता है, बाद में वह भक्तों में प्रसाद स्वरूप बांटा जाता है। कभी इसे भोग, राजभोग अथवा छप्पन भोग भी कहते हैं। हमारे शहर में लॉक डाउन के पूर्व एक भंडारे में दस लाख लोगों ने सड़क पर बैठकर हनुमान जी की प्रसादी ली थी। छोटे छोटे व्यापारी और ऑटो रिक्शा चालक तक मिल जुलकर सांई बाबा के भंडारे का आयोजन करते हैं। अन्नपूर्णा के भंडारे में कभी कोई कमी नहीं होती। लोग मुक्त हस्त से दान दे, पुण्य अर्जित करते हैं। ।

कार सेवा के बारे में हर कार मालिक और चालक जानता है कि नियत समय पर कार की भी सर्विसिंग करवानी पड़ती है। आडवाणी जी ने एक रथयात्रा निकालकर यह संदेश हर राम भक्त तक पहुंचाया कि ईश्वर की सेवा ही सच्ची कार सेवा है। वही आपकी ज़िंदगी की गाड़ी चला रहा है। तब से ही हर राम भक्त एक कार सेवक कहलाने लगा। उसी कार सेवा के फलस्वरूप आज अयोध्या में राम मंदिर बनने जा रहा है। धर्म की रक्षा के लिए सभी आंदोलन जायज हैं।

गुरुद्वारों में रात दिन चौबीसों घंटे कार सेवा चलती रहती है। धर्म से बड़ा कोई शासन नहीं होता। धर्म शासनत:।। लंगर, भंडारे और महाप्रसाद में कोई अंतर नहीं होता। हम अपने इष्ट की सेवा में सर्वस्व अर्पित करने की भावना रखते हैं। उसी भावना से प्रेरित है गुरुद्वारे का लंगर। अमीर गरीब, साधु शैतान और दोस्त दुश्मन जैसा भेद लंगर अथवा भंडारे में कभी नहीं किया जाता। पांच सितारा भोजन भी लंगर के आगे फीका होता है। भक्ति और भाव की जहां गंगा बहती है, वहीं लंगर होता है, भंडारा होता है, ठाकुर जी को भोग लगता है, प्रसादी मिलती है।

पावन उद्देश्य से की गई सभी सेवा, सभी आंदोलन, भोजन, भंडारे, लंगर, एवं कार सेवा समाज के कल्याण के लिए होती हैं, बस इनका उद्देश्य अगर राजनीतिक ना होकर पारमार्थिक हो। देखो ऐ दीवानों तुम ये काम ना करो, कार सेवा, भंडारे और लंगर जैसे पवित्र सत्कार्यों को बदनाम ना करो। बोले सो निहाल। जय श्री महाकाल …!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 214 ☆ आलेख – निद्रा योग… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख  –निद्रा योग

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 214 ☆  

? आलेख निद्रा योग?

अनिद्रा एक ऐसी परेशानी है जो  शरीर के अनेक रोगों का कारण होती है । जब कोई व्यक्ति अनिद्रा से पीड़ित हो तो उसे यह समझना चाहिए कि उसके शरीर में कोई समस्या है, जो बाद में किसी अन्य रूप में विकसित हो जाएगी। अनिद्रा के कारण पाचन तन्त्र प्रभावित हो जाता है ।  जो लोग ठीक से  सो नहीं पाते , उनमें से अधिकतर लोगों का यकृत खराब हो जाता है। समय के साथ अनिद्रा के चलते शरीर की सामान्य क्रियायें अव्यवस्थित हो जाती हैं। जब स्नायु तन्त्र में समस्या उत्पन्न होती है तो हम दैनिक कार्य भी कर पाने में असमर्थ हो जाते हो, जल्दी थक जाते हैं।

 धुनिक चिकित्सा में जब कोई अनिद्रा से पीड़ित होता है तो उसे प्रायः नींद की गोलियाँ दी जाती हैं। नींद की गोलियाँ आराम तो देती हैं, इसमें कोई संदेह नहीं, परन्तु वे रोग के कारण को दूर नहीं कर पाती हैं। कई बार शरीर के हॉर्मोनों का ठीक से कार्य न करना अनिद्रा का कारण होता है। उदाहरण के लिए यदि एड्रीनल ग्रन्थि ठीक से कार्य न करें, तो विषाद रोग हो जाता है। कई बार जब हम जीवन के किसी पहलू को लेकर चिन्तित रहते हैं तब  अनिद्रा के शिकार हो जाते हैं,  अतः यह आवश्यक है कि लोग जानें कि स्वाभाविक रूप से अच्छी तरह कैसे सोया जाए। इस सम्बन्ध में योग की  भूमिका    महत्त्वपूर्ण है। नींद की समस्या के बढ़ते, विदेशों में स्लीप क्लीनिक तक खुल रहे हैं।

 योग के ऐसे अनेक अभ्यास हैं जिनसे अच्छी नींद आती है। मस्तिष्क में विद्युत की आवृत्तियाँ होती हैं जिन्हें मस्तिष्क तरंग कहते हैं। अलग-अलग समय पर ये तरंगें बदलती रहती हैं। ये तरंगें डेल्टा, थीटा, अल्फा और बीटा कहलाती हैं। मस्तिष्क की उच्च आवृत्ति को नीचे लाना आवश्यक है, विशेषकर रात्रि में जब मस्तिष्क में आवृत्तियाँ न्यूनतम हो जाती हैं, तो शरीर में क्रियाशीलता भी न्यूनतम हो जाती है और ऑक्सीजन की खपत भी न्यूनतम हो जाती है जब हम ठीक से सोते हैं तो  अगले दिन  अधिक शक्ति से सक्रिय हो पाते हैं।

 योग में निद्रा को बहुत महत्त्वपूर्ण समझा जाता है क्योंकि योग दर्शन के अनुसार निद्रा एक निष्क्रिय अवस्था नहीं है गहन निद्रा के समय व्यक्ति अचेतन तल पर बहुत सक्रिय हो जाता है और वह अपनी अन्तरात्मा के बहुत निकट आ जाता है। यही कारण है कि निद्रा  इतनी शक्ति इतनी ताजगी और इतना आनन्द देती है।  इसी कारण से योग ने कुछ अनुशासन बनाए हैं।

 योग में अनिद्रा से सम्बन्धित प्रथम अनुशासन यह है कि ज्यादा भरे हुए पेट के साथ नहीं सोना चाहिए।  यदि रात्रि में पेट में बिना पचा हुआ भोजन रहता है तो अति अम्लता से पेट में जलन होती है। 

पेट में एसिडिटी गैस के चलते रात्रि में बेतुके, विचित्र स्वप्न आते हैं जिससे निद्रा में व्यवधान उत्पन्न होता है अतः योग में यह सलाह दी गई है कि रात्रि के भोजन और सोने में कम-से-कम तीन घण्टों का फासला होना चाहिए। यह शाकाहारी लोगों के लिए है। मांसाहारी लोगों के लिए तीन घंटे से ज्यादा समय होना चाहिए ।

 दूसरा अनुशासन यह है की बाएँ करवट सोना चाहिए। कुछ लोग पीठ के बल सोना पसन्द करते हैं, अन्य लोग अपनी दायीं तरफ घूम कर सोना पसन्द करते हैं और अनेक लोग पेट के बल सोते हैं। ये तीनों स्थितियाँ वैज्ञानिक नहीं समझी जातीं। हाँ, जो लोग स्लिप डिस्क या सायटिका से पीड़ित हैं उन्हें पेट के बल सोना चाहिए, लेकिन एक आम व्यक्ति को बायीं तरफ सोना चाहिए, क्योंकि इससे हृदय पर बहुत कम दबाव पड़ता है।

 तीसरा यौगिक नियम है, बिस्तर पर जाने के पूर्व  दस से बीस मिनट के लिए शांत बैठ जाना चाहिए। यह केवल अनिद्रा से पीड़ित लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि हम सभी के लिए है, क्योंकि जब हम बिस्तर पर जाते हैं तो अवचेतन मन सक्रिय हो जाता है।

 निद्रा एक मानसिक अवस्था है और मन की एकाग्रता मन्त्र के रूप में होनी चाहिए। ‘ॐ ॐ ॐ का मानसिक उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि ॐ एक सार्वभौमिक ब्रह्माण्डीय ध्वनि है । सोने के पहले मंत्र जप शान्ति और एकाग्रता उत्पन्न करती है। सत्ताईस दानों की एक छोटी माला रखना भी अच्छा है जिसमें कहीं कोई रुकावट न हो ज्यादातर मालाओं के बीच में एक विराम होता है, जिसे सुमेरु या शीर्ष कहते हैं, परन्तु रात में बिस्तर पर जाने के पहले  जिन मालाओं का उपयोग करते हैं उनमें यह व्यवधान नहीं होना चाहिए।

 चौथा महत्त्वपूर्ण अनुशासन है योगनिद्रा का अभ्यास योगनिद्रा एक बहुत शक्तिशाली विधि है।

  शरीर के अनेक अंग हैं, जैसे हाथों के अंगूठे और अंगुलियाँ, होंठ और नाक, नितम्ब और कमर, पैरों के अंगूठे और अंगुलियाँ। इस प्रकार तुम्हारे बाह्य शरीर में छिहत्तर केन्द्र हैं जिनके प्रतिरूप मस्तिष्क के एक विशेष भाग में स्थित होते हैं। जब हम एक-के-बाद-एक शरीर के इन अंगों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो विशेष प्रकार की सम्वेदना उत्पन्न होती है। यह सम्वेदना एक भावना के रूप में मस्तिष्क के केन्द्रों में संचारित होती है। जैसे ही इस सम्वेदना का संचार मस्तिष्क में होता है, अविलम्ब विश्राम का अनुभव होता है।  यह योगनिद्रा का अभ्यास है।

 योगनिद्रा प्रारम्भ करने से पूर्व एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभ्यास है,रात को बिस्तर पर जाने से पूर्व एक प्रकाश पुंज  इस प्रकार रखें कि उसकी वह आँखों के स्तर से बहुत ऊँचा न हो और स्थिर रहे।  जितनी देर सम्भव हो उतनी देर उसे अपलक निहारते रहे, फिर  आँखें बन्द करने के बाद अपने मन को  माथे के मध्य पर एकाग्र करो और वहाँ प्रकाश के प्रतिरूप को देखने का प्रयास करो कुछ देर इसे करो और उसके बाद ओम मन्त्र का जप करो। फिर पीठ के बल लेट जाओ और थोड़ा योगनिद्रा का अभ्यास करो, तय है की गहरी नींद आ आएगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #139 – बाल साहित्य – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है बाल साहित्य  – आत्मकथा – हवाई जहाज का जन्म)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 139 ☆

 ☆ बाल साहित्य – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।

मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।

17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।

मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।

मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।

लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।

मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-05-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 49 ⇒ हंसते जख्म… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसते जख्म”।)  

? अभी अभी # 49 ⇒ हंसते जख्म? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बात कॉमेडी की चल रही थी, बीच में यह कोई सी फिल्म टांग दी, हंसते जख्म ! हंसते हंसते पेट में बल पड़ सकते हैं, हंसते हंसते आंखों में आंसू भी आ सकते हैं, लेकिन हंसते ही जख्म, कुछ हजम नहीं हुआ।

हंसना संजीवनी है, अगर हमारी जीवन संगिनी हंसती खेलती नसीब हो जाए तो क्या यह जीवन, कॉमेडी सर्कस नहीं हो जाए। आखर कौन दुखी, जख्मी, आहत, और नाशाद रहना चाहता है इस जिंदगी में। तुम आज मेरे संग हंस हो, तुम आज मेरे संग गा लो, और हंसते गाते, इस जीवन की उजली राह संवारो। ढिंग चिक चिक चिक ढिंग ..ढोलक मंजीरा। ।

लेकिन आज हंसने की स्थिति अत्यंत दयनीय और हास्यास्पद हो गई है। दुनिया हंस तो रही है, लेकिन इस हंसी में खुशी की आत्मा नहीं है, कहीं कोई खोखली हंसी हंस रहा है, तो कहीं कोई किसी और की गलती पर हंस रहा है। जो हास्य कभी सहज था, अब फूहड़ और अश्लील होता चला जा रहा है। जब हंसी के शब्दकोश में अपशब्द का समावेश हो जाता है तो वह हंसी भी अश्लील होती चली जाती है।

हंसी जो स्वास्थ्यवर्धक है, उसे हमने मनोरंजन का साधन बना लिया है। किसी मजबूर गरीब बुजुर्ग मुसीबत के मारे इंसान को अपने मनोरंजन के अड्डे पर पकड़ लाए। दादा पाय लागू ! दारू पीयोगे, मस्ती आ जाएगी। नहीं भैया, हम नहीं पीते, हमें जाने दो। नहीं दादा, ऐसा नहीं चलेगा, पहले दो घूंट चखना, फिर तो बस चखना, भूल गए आज होली है। बुजुर्ग छटपटा रहे हैं, इन्हें वीभत्स रस की प्राप्ति हो रही है, क्या यह हंसते जख्म नहीं है। ।

हमारे लिए मनोरंजन ही हंसी है, हंसी थट्टा है, जिसका किसी की संवेदना से कोई लेना देना नहीं। बस हमें खुश रहना है। यही हास्य का मकसद है, हास्य की परिभाषा है।

हास्य बेचारा वैसे ही दोहरी मार खा रहा है। व्यंग्य में उसकी एंट्री एक एक्स्ट्रा की तरह है, कभी बुलाया जाता है, कभी बाहर निकाल दिया जाता है। तुम तो हास्य कवि सम्मेलन के लिए ही बने हो। डा सरोजिनी प्रीतम और काका हाथरसी ही जानते हैं, हास्य रस की फुलझड़ी क्या होती है। मुंह फुलाकर अपनी पत्नी की हंसी उड़ाकर, आप भले ही सुरेंद्र शर्मा बन बैठें, अब तो आप भी हास्य के पात्र ही नजर आते हो। सोने की मुर्गी जो हाथ लग गई थी। ।

खुद पर हंसना ही वास्तविक हास्य है, दूसरों की हंसी उड़ाना, उन पर कीचड़ फेंकना, ना तो सहज हास्य है और ना ही स्वस्थ मनोरंजन। राजनीति ने भोले भाले सहज हास्य की हत्या की है, उसे बुरी तरह जख्मी किया है। जख्म लेकर फिर भी वह हंस रही है, और हमारी जनता उसके हंसते जख्म को अनदेखा कर तालियां बजा रही है, अपने नेताओं का गुणगान कर रही है।

खेल ताश का हो या सर्कस का, हम हमेशा जोकर को बीच में ले आते हैं। राजकपूर एक शो मैन थे, आम आदमी का दर्द समझते थे। जोकर भी क्या था, बच्चों के लिए मनोरंजन का किरदार।

सनातन, संपन्न नाट्य विधा में भी विदूषक तो होता ही था।।

समय ने हास्य को उठाया भी और गिराया भी। हास्य भी बुलंदियों की ऊंचाइयों तक पहुंचा भी और फिर गर्त में गिरा भी। उमा देवी जैसी गायिका को जब समय ने टुनटुन बना दिया, तो क्या कला ने आत्म हत्या कर ली। नहीं उमा देवी को ही अपनी आत्मा को मारना पड़ा।

जब फिल्मों पर हास्य के गिरते स्तर के युग में कुंदन शाह जाने भी दो यारों जैसी मनोरंजक फिल्म लेकर आए तो लगा अब हास्य जी उठेगा। नुक्कड़ और देख भाई देख, देखकर मन खुश हो गया था। लेकिन हास्य हमेशा अपनी मर्यादा भूल जाता है। उस पर जब एक पतिव्रता स्त्री की शर्तें थौंपी जाती है, तो वह बगावत कर बैठता है। जब art for arts’ sake हैं, व्यंग्य अपनी शालीन मर्यादा लांघ पोर्न होता चला जा रहा है, आधा गांव और काशी के अस्सी पर आपत्ति नहीं, लेकिन कपिल का कॉमेडी शो तो हम नहीं देखते, बड़ा फूहड़, दो दो अर्थी वाला है। ।

हमारे देश में भक्त भी हैं और आलोचक भी। बाबा रामदेव भी कपिल के शो पर आकर घटिया जॉक सुनाते हैं और इसी मंच पर सतीश कौशिक और अनुपम खेर अपनी यारी दोस्ती के कारनामे ठहाकों में सुनाते हैं। अभी अभी यहां सुधा मूर्ति जी ने भी कदम रखा। कला कला है, यहां कभी वाह उस्ताद जाकिर हुसैन तो कभी अल्ला रखा।

वाकई आज हास्य जख्मी है और उसका जख्म हमारी खुदगर्जी है, हमें उससे तो बहुत अपेक्षाएं हैं लेकिन उसे हमने आज भी अपने सहज जीवन से कोसों दूर रखा है। फूलों की हंसी, बच्चों की फुलवारी और पक्षियों के कलरव में आज भी दिव्य हास्य मौजूद है, कभी अपने पर हंस लें और कभी आज की राजनीति पर दो आंसू बहा लें, गंगा नहा आएंगे आप। हास्य गुदगुदी है, कोई जख्म नहीं, लाफ्टर कोई मेडिसिन नहीं, शरीर और आत्मा का कायाकल्प है। सुख सागर है, परमानंद सहोदर है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट… भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 67 – किस्साये तालघाट – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा तालघाट के लेखापाल महोदय अनूठे व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका परिवार जिला मुख्यालय जो उनका गृहनगर भी था, में निवास कर रहा था और ऐसा माना जाता था कि सप्ताहांत में वे भी पारिवारिक सुख का आनंद लेते थे. पर सोमवार से शनिवार तक उनका तालघाट में एफ. बी. (फेसबुक नहीं) याने फोर्स्ड बैचलर का रूप होता था. ऐसी स्थिति में कामचलाऊ पाककला उन्हें आती थी तो सोमवार के डिनर से लेकर शनिवार के लंच तक की व्यवस्था के मामले में वे आत्मनिर्भर थे. तालघाट शाखा के शाखाप्रबंधक की भार्या अन्नपूर्णा स्वरूपा थीं और उनके सुझाव और सहमति पर ही लेखापाल जी का हर सोमवार का लंच शाखाप्रबंधक निवास में हुआ करता था.

परदेश में जब भी परिवार के बिना रहने की नौबत आती है तो सभी घर का खाना मिस करते हैं. दाल चांवल सब्जी और तवा रोटी की महत्ता ऐसे समय ही महसूस होती है. ये कांबिनेशन सरल, सुपच और स्वादिष्ट होता है जो कभी बोर नहीं करता. यह सादगी पर अपनेपन से भरी डिश, सप्ताहांत के बाद अगले छै दिनों के लिए रिचार्ज कर देता है. तो इस सोमवारीय गर्मागर्म और सामान्य पर स्वादिष्ट लंच मिल जाने का श्रेय लेखापाल जी भगवती कृपा, स्वयं का भाग्यवान होना और शाखाप्रबंधक जी का उनके प्रति संवेदनशील होने को देते थे. इस कारण ही वे उनका सपत्नीक सम्मान भी किया करते थे पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वे उन्हें कार्यभार और उत्तरदायित्व में अतिरिक्त सहयोग करें. कम ही बोलते थे, अपनी कलम का हमेशा कंजूसी से ही प्रयोग करते थे, शाखा की राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं होता था. चाय पीने की आदत नहीं थी पर कॉफी के पाऊच उनकी ड्रायर में पर्याप्त होते थे. शाखा परिसर में चायवाले से मीठा दूध दिन में दो बार बुलाकर  उससे स्वयं ही कॉफी बनाकर तरोताजा होने की सफल कोशिश वे नियमित रूप से किया करते थे. शाम को तालघाट के अपने अस्थायी आवास में पहूँच कर उनकी भोजन पकाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती थी और साथ ही ऑन हो जाता था उनका छोटा पर जबरदस्त पोर्टेबल टीवी जो केबल के दम पर मनोरंजन सेवा का सतत प्रसारण करता रहता था. रात्रिभोजन के समय भी और बाद में भी टीवी चलता रहता और उनके निद्रामग्न होने पर भी चलता रहता क्योंकि सोने के पहले टीवी या लाइट्स बंद करने की उनकी आदत नहीं थी. उनके सुबह नींद से उठने पर भी बेचारे टेलीविजन को आराम नहीं मिल पाता था और वो तब ही बंद होता जब ये घर में ताला लगाकर बैंक जाने के लिए निकलते. एक बार तो ऐसा भी हुआ कि शनिवार से चलता हुआ टीवी सोमवार रात को ही विश्राम पा सका. फिर भी उसने याने उनके टीवी ने शिकायत नहीं की, अपनी सेवा निर्बाध देता रहा. यह निश्चित करना मुश्किल था वो ज्यादा काम करते थे या उनका टीवी. पर यह पक्का था कि टीवी अपने मालिक की आदतों से वाकिफ था और बहुत मजबूती से उनके मनोरंजन का ख्याल रखता था.

आसक्तिहीनता लेखापाल जी की पहचान बन गई थी और निर्विकार होना उनका स्वभाव. उनके दुश्मन नहीं थे पर उनके दोस्त भी नहीं थे. दोस्ती हो या दुश्मनी, दोनों के लिये भावनाओं का ज्वार भाटा आवश्यक होता है. ये उनके पास नहीं था तो लोग भी तटस्थ ही रहते. ऐसे व्यक्तित्व के साथ आप कितना भी रहें पर ऐसे लोग न तो आपको याद करते हैं न ही खुद याद आते हैं. बैंक की वार्षिक लेखाबंदी हो या ऑडिट इंस्पेक्शन, इन सभी मौके पर भी वे उत्साहहीनता और निर्विकार होने का ही एहसास कराया करते. स्टाफ सोच में पड़ जाता पर वे इन सब मायावी चीजों से संत वैराग्य का भाव रखते थे.

बैंकिंग में डेबिट और क्रेडिट की एंट्रियों का समायोजित होना बैंकिंग प्रणाली है पर हम बैंकर्स सपाट सतह के नहीं होते, हम में इंसानियत के गुण और दोष दोनों पाये जाते हैं. हममें से अधिकतम में हमेशा कुछ डेबिट और कुछ क्रेडिट प्रविष्टियां आउटस्टैंडिंग रह ही जाती हैं. यही हमारी पहचान होती है. प्रायः कहीं हमारा या किसी और का नुकीलापन हमें चुभ जाता है तो कहीं दो क्रेडिट प्रविष्टियों वाले छोर मिल जाते हैं और दोस्ती की शुरुआत हो जाती है.  दिल से दिल का मिलना डेबिट प्रविष्टियों का भी होता है जिसे हमप्याला, हमकश और हमचौंसर कहा जाता है.

नोट :लेखापाल जी का इतना चरित्र चित्रण पर्याप्त है. हम सभी को पढ़ने पर लगता है कि ये कहानी तो हमने कहीं सुनी है और यही लेखन की सफलता है क्योंकि ये भी हमारी बैंकसेवा की यात्रा ही है जिसमें रास्ते और पड़ाव जाने पहचाने लगते हैं. कोशिश यही है कि ये किस्साये तालघाट जारी रहे पर इस कथानक का कोई क्लाइमेक्स संभव नहीं है. रिटायरमेंट के बाद भी तो ये वायरस पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाता. आज भी हमेशा की तरह “your account has been credited with Rs. so and so “हमारा सबसे प्यारा और दुलारा मैसेज है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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