(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 206 ☆
आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…
पिन कोड ४६२०१६ मतलब, शिवाजी नगर भोपाल ! इसलिये विशेष रूप से भोपाल वासियों को तो छत्रपति शिवाजी के बारे में संज्ञान होना ही चाहिये. देश के अनेक नगरों में शिवाजी नगर हैं, कई चौराहों, पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर छत्रपति शिवाजी की मूर्तियां स्थापित हैं. वर्तमान में गुजरात में बनी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा सरदार वल्लभ भाई पटेल की ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ है, जो 182 मीटर ऊंची है. मुम्बई में अरब सागर में शिवाजी स्मारक प्रस्तावित है, जहां इससे भी उंची १९० मीटर की सिवाजी महाराज की प्रतिमा प्रस्तावित है. अनेक योजनायें उनके नाम पर हैं, जबकि शिवाजी महाराज को गुजरे हुये लगभग ३४० वर्ष से अधिक हो चुके हैं. उनका देहान्त ३ अप्रैल १६८० को रायगढ़ में हुआ था. उनका जन्म १९ फरवरी १६३० में हुआ था. उनका शासनकाल ६ जून १६७४ से उनके देहान्त तक की स्वल्प अवधि ही रही, पर इतने छोटे समय में भी उन्होंने जो नीतियां अपनाईं उनने उन्हें छत्रपति बना कर भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय कर दिया. वे एक कुशल शासक, सैन्य रणनीतिकार, वीर योद्धा, मुगलों का सामना करने वाले, सभी धर्मों का सम्मान करने वाले और देश में हिन्दू राज्य के पुनर्संस्थापक थे. यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी का नाम प्रभावी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा शिव सेना शिवाजी को प्रमुखता से आईकान के रूप में प्रस्तुत करती हैं.
जब मुगल शासको का हिन्दू दमन पराकाष्ठा पर था तब हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए ही उन्होंने 1674 ई. हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी. उनकी माता जीजाबाई के दिये संस्कार ने बचपन से ही उनके मन में हिन्दुत्व की प्रबल भावना भर दी थी. ऐसे में उनका उद्देश्य हिन्दुओं में आत्म सुरक्षा का भाव जागृत करना, सभी को भारत के सदाशयी मिलनसार हिन्दू चरित्र से परिचित कराना था. मुगल आक्रमणकारियों के शोषण, अन्याय, माताओं, बहनों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार, प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और हिंदू धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को नष्ट करने के परिणामस्वरूप पूरा देश पीड़ित था. जनमानस मानसिक रूप से बेहद टूटा हुआ था. ऐसे समय में भक्तिकालीन साहित्य ने जहां भारत की सांस्कृतिक तथा धार्मिक चेतना में प्राण फूंका वहीं राजनैतिक प्रभुत्व की इच्छा शक्ति जगाने, बिखरते हुये हिन्दू राजाओ को एक जुट कर उनमें नई ताकत का संचार करने का कार्य श्रीमंत छत्रपति शिवाजी ने किया. उन्होंने ‘हिंदवी स्वराज्य अभियान’ नामक आंदोलन शुरू किया. शिवाजी की चतुराई पूर्ण रणनीतियों के अनेक किस्से लोक प्रिय और प्रेरक हैं, ऐसे हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी को कोटिशः नमन.
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 29 – रेल की सवारी ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे जीवन की सबसे अधिक यात्राएं रेल द्वारा ही संभव हो पाई हैं। ऐसा नहीं है, कि परिवार से रेल सेवा में कोई कार्यरत था, जिसकी वज़ह से पास सुविधा या मुफ्त यात्रा का लालच रहा हो। क्योंकि यात्राएं लंबी दूरी की होती थी और सस्ती भी होती थी, इसलिए रेल यात्रा का आनंद हमेशा प्राथमिकता रही हैं। पिकनिक / पर्यटन आदि के लिए भी हमें रेल से ही जाना पसंद हैं।
यहां विदेश में जब रेल यात्रा की जानकारी प्राप्त हुई, हमारे तो तोते उड़ गए। सार्वजनिक सड़क साधन से भी महंगी रेल यात्रा है। हवाई और जल यात्रा का स्वाद चखने के पश्चात रेल यात्रा की कसक दिल में वैसी ही थी, जैसा भरपूर भोजन तृप्ति के बाद में कुछ मीठे की इच्छा “शक्कर रोगी” को होती हैं।
न्यु हैम्पशायर के पास “माउंट वाशिंगटन” नामक पर्वत है, जिसकी ऊंचाई करीब छै हज़ार तीन सौ फीट हैं। यहां कार द्वारा, हाइकिंग (पर्वतारोहण) और रेल मार्ग से जाने की सुविधा भी है। धरातल से तीन मील की यात्रा “कॉग” रेल द्वारा एक घंटे से कम समय में हो जाती हैं। पर्वत जो कि अमेरिका के उत्तर पूर्वी भाग में मिसिसिपी नदी के पास में है। यहां का परिवर्तनशील मौसम ही इसकी पहचान बन चुका है। रेल यात्रा 1869 से भाप इंजन द्वारा आज भी जारी है। कुछ इंजन बायो डीजल से भी चलते हैं। शिखर पर मौसम अत्यंत ठंडा हो जाता है। इसलिए साथ में ठंडी हवा से सुरक्षित रहने के लिए उचित कपड़े होना आवश्यक है। भाप के इंजन से यात्रा करने से कपड़े गंदे होने की संभावना की चेतावनी यहां के स्टेशन पर अंकित है। जिसको पढ़ कर बचपन में कोयले के कण आंख में जाने पर मां की साड़ी के आंचल में फूँक मार कर आंख की सिकाई करने की याद जहन में आ गई।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 185☆ विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्
न चोरहार्यं न च राजहार्यं
न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं
विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥
जिसे चोर चुरा नहीं सकता, राजा छीन नहीं सकता, भाई बांट नहीं सकता, जिसका किसी तरह का कोई अतिरिक्त भार अनुभव नहीं होता, व्यय करने पर जो नित्य बढ़ता है, ऐसा विद्या रूपी धन सभी प्रकार के धनों में श्रेष्ठ है।
विद्या-धन से समृद्ध होना अर्थात केवल काग़ज़ पर छपा पढ़कर रट्टू तोता बनना नहीं होता। विद्या-धन वह, जो जानकारी से होते हुए ज्ञान तक ले जाए। यदि विद्या यह यात्रा नहीं कराती तो साक्षर व्यक्ति भी अज्ञानी ही कहलाता है।
एक लोकप्रिय प्रसंग है। एक साक्षर विद्वान, यात्रा पर थे। उन दिनों पदयात्रा हुआ करती थी। मार्ग में उन्हें तीव्र प्यास लगी। वे समीप के गाँव में पहुँचे। एक महिला कुएँ पर पानी भर रही थी।
विद्वान ने महिला से पीने के लिए जल मांगा। महिला ने कहा, “जल तो मिल जाएगा परंतु मैंने आपको आज से पूर्व कभी गाँव में नहीं देखा। कृपा करके अपना परिचय दीजिए।” ग्रामीण महिला को अपना परिचय देना विद्वान को अपमानास्पद लगा। तथापि सूखते कंठ की विवशता थी। किसी तरह स्वयं को नियंत्रित रखते हुए कहा, “मैं अतिथि हूँ।” महिला हँस पड़ी। बोली, “अतिथि तो दो ही होते हैं, धन और यौवन।” विद्वान महोदय कुछ विस्मित हुए। तब भी साक्षरता का अहंकार झुकने को तैयार नहीं था। तनिक झुंझला कर बोले,”मैं सहनशील हूँ।”। महिला फिर हँसी। बोली, “संसार में सहनशील तो दो ही हैं। एक पृथ्वी माता जो सारे अत्याचार सहकर, सबका बोझ उठाकर भी अन्न देती है। दूसरा वृक्ष जो पत्थर की चोट खाकर भी फल देता है।”
विद्वान की झुंझलाहट और हठ दोनों ही बढ़ चले। इस बार कहा, “सुनो, मैं हठी हूँ।” महिला ने ठहाका लगाया। बोली, “जगत में हठी तो दो ही हैं, हमारे नाखून और बाल। कितना ही काटो, फिर-फिर बढ़ जाते हैं। इनके हठ के आगे अन्य सारे हठ तुच्छ हैं।” अंतत: विद्वान को अपनी लघुता की अनुभूति हुई। इस बार विनम्रता से कहा, “देवी सत्य कहूँ, मुझे लगता है कि साक्षरता के अहंकार में ज्ञान से मैं वंचित रहा। वास्तविक ज्ञानी तो आप हैं। अब मुझे अपना परिचय मिला है। वस्तुत: मैं अज्ञानी हूँ।” विद्वान को आश्चर्य हुआ कि महिला इस बार भी हँसी। कहा, “जगत में अज्ञानी दो ही हैं। ऐसा राजा या राजवंशी जो बिना किसी योग्यता के राज करना चाहता है। दूसरे वे दरबारी जो राजा के अनुचित निर्णय में भी उसे प्रसन्न रखने के लिए उसकी प्रशंसा करते हैं।”
साक्षर अब ज्ञानमार्ग पर प्रशस्त हुआ। इस प्रसंग के पात्रों का उल्लेख अनेकदा महान कवि कालिदास और माँ सरस्वती के बीच संवाद के रूप में भी होता है।
प्रसंग नहीं, प्रसंग से प्राप्त प्रेरणा, प्रेरित होकर ज्ञानार्जन के पथ पर चलना महत्वपूर्ण है। ज्ञान का पथ अविराम है। ज्ञान का पथ ज्ञान की अकूत संपदा तक ले जाता है।
विद्या के सार्थक ग्रहण ओर समुचित क्रियान्वयन से उपजी ज्ञान की संपदा शाश्वत होती है। एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी, एक युग से अगले युग, उसके अगले युग तक, समय के आरंभ से समय के विराम तक बची रहती है ज्ञान की जननी विद्या। इसीलिए कहा गया है, ‘विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
अभी अभी ⇒ जलकुकड़ी/जल मुर्गी… श्री प्रदीप शर्मा
हमारा बचपन गोकुल की कुंज गलियों में नहीं,शहर के गली मोहल्लों में गुजरा !
पनघट ना होते हुए भी गुलैल से निशाना साधकर मटकी की जगह,फलदार वृक्षों से आम, इमली तोड़ना हमारे बाएं हाथ का खेल था। लड़ने झगड़ने और छेड़छाड़ के लिए हमें कभी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
लड़ने की यही विशेषता बड़े होकर चुनाव लड़ने में हमारे बहुत काम आई।
आज पक्की दोस्ती,तो कल बोलचाल बन्द। तू चुगलखोर तो तू जलकुक्कड़। कट्टी तो कट्टी,साबुन की बट्टी। ला मेरे पैसे,जा अपने घर। लेकिन आज अगर वही कोई बचपन का दोस्त मिल जाए,तो ये लगता है, कि जहां,मिल गया।।
हम आज भी आपस में एक दूसरे को देखकर कभी खुश होते हैं,तो कभी जल भुन जाते हैं। महिलाओं की किटी पार्टियों की खबरें उड़ती उड़ती आखिर हम तक भी पहुंच ही जाती है। मत पूछो, मिसेज डॉली के बारे में,वह तो बड़ी जल कुकड़ी है। बहुत दिनों बाद जब यह शब्द सुना,तो शब्दकोश याद आया। अरे,यह तो एक पक्षी है, White breasted Hen, यानी जल मुर्गी।
अगर मछली जल की रानी है,तो हमारी मुर्गी भी तो महारानी है। अगर मुर्गे को (Cock) कॉक कहते हैं तो मुर्गी को Hen कहते हैं। अंग्रेजी के अक्षर ज्ञान में हमने पढ़ा है। The Cock is crowing.
मुर्गा ही बांग देता है,मुर्गी तो बस, पक पक,किया करती है। बड़ी विचित्र है यह अंग्रेजी भाषा। अगर cock के आगे pea लग जाए तो वह peacock,यानी मोर हो जाता है। Crow से याद आया,कौए को भी crow ही कहते हैं,लेकिन वह बांग नहीं देता,सिर्फ कांव कांव किया करता है।।
कुछ लोग गाय पालते हैं तो कुछ कुत्ता ही पाल लेते हैं। गोशाला और अश्व शाला तो ठीक,कुत्ते के लिए तो उसके मालिक का घर ही उसकी पाठशाला है। पालन पोषण पुण्य का काम है। लेकिन पापी पेट के लिए इंसान को मत्स्य पालन और कुक्कुट पालन भी करना पड़ता है। गाय को चारा और मछलियों को चारे में जमीन आसमान का ना सही,जल और थल का अंतर तो है ही। इस पर हम ज्यादा नहीं लिखेंगे क्योंकि जीव: जीवस्य भोजनं और वैदिक हिंसा,हिंसा न भवति।
बड़ा अजीब है,यह जल शब्द भी। इसी जल से ही तो जीवन है। गर्मी में जहां यह शीतल जल अमृत है,वहीं जब सीने में जलन होती है तो आंखों में तूफान सा आ जाता है। जलते हैं जिसके लिए, तेरी आंखों के दिये।।
यही जल कहीं आग है,तो कहीं पानी है। जो आग दिल में जली हुई है,वही तो मंजिल की रोशनी है। लेकिन जब यही आग,यही जलन ईर्ष्या,द्वेष और नफरत की होती है तो जिंदगी में तूफान आ जाता है। किसी की खुशी से,उन्नति से,सफलता से जलना,अच्छी बात नहीं है। जल कुकड़ी बनें तो जल मुर्गी की तरह। और अगर आप जलकुक्कड़ हैं,तो भले ही आप पर घड़ों ठंडा पानी डाल दिया जाए,आप एक जल मुर्गी नहीं बन सकते।
अगर जलाएं तो अपना दिल नहीं,दिल का दीया जलाएं,जिससे आपका घर भी रोशन हो,और रोशन हो ये जहान,जिसमें हम रहते हैं यहां।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वसुधैव कुटुंबकम् एक कदम”।)
अभी अभी ⇒ वसुधैव कुटुंबकम् एक कदम… श्री प्रदीप शर्मा
साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु ना भूखा जाय ।।
कबीर भी शायद हम दो, हमारे दो ,वाले ही होंगे, इसलिए आप कह सकते हैं, कमाल की सोच !
संतोषी सदा सुखी । अपने परिवार का पेट पल गया,और अतिथि देवो भव भी हो गया ।
लेकिन कबीर इतने सीधे सादे और भोले भाले भी नहीं थे । उन्होंने अपना कुटुंब बढ़ाना शुरू कर दिया । साधु संतों को ही अपना कुटुंब मान लिया । बेचारे घर वाले तो ताने बाने में उलझे रहते, और साधु भरपेट भोजन करते ।
एक जुलाहा बिना इंटरनेट और वाई फाई के ग्लोबल होता चला गया । कबीर की साखी और बीजक ने उसे विश्वगुरु बना दिया ।।
कल तक जो कबीर कुटुंब की बात करता था, वह अचानक कहने लगा ;
कबीरा चला बाजार में लिए लकुटी हाथ । जो फूंके घर आपना, चले हमारे साथ ।।
ताजी ताजी, उलटबासी लेकर आते थे कबीर !
लेकिन हम लोग इसे सीधा करना भी जानते हैं । हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले के डूबेंगे इसलिए ऐ कबीरा, तू चल अकेला, चल अकेला । भूख लगे, तो खा लेना एक दो केला ।
हम कोई संत नहीं, कबीर नहीं, बाल बच्चे वाले सद्गृहस्थ ! हमेशा कुटुंब की ही बात की, वसुधैव कुटुंबकम् की नहीं । अगर नौकरी धंधा अथवा कोई कामकाज नहीं होता, तो कोई दो कौड़ी के लिए भी नहीं पूछता । हैप्पिली रिटायर हो गए, अपन भले अपनी पेंशन भली ।
अचानक सैम अंकल संचार क्रांति कर गए और ओल्ड एज होम की जगह हमारे हाथ में मुखपोथी पकड़ा गए । व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में हमने भी दाखला ले लिया । और अचानक, लो जी, हम भी ग्लोबल हो गए । हमने भी धर्मवीर भारती का दामन छोड़ विश्व भारती का हाथ थाम लिया । कल जन्मदिन के अवसर पर हमने भी व्हाट्सएप पर विदेशों में बैठे लोगों से बात की ।।
हुआ न यह एक कदम towards वसुधैव कुटुंबकम् ! बचपन से हमें स्वदेशी में विदेशी का तड़का पसंद था । पहले सादी खिचड़ी बनाओ और बाद में उसमें मस्त घी वाले नमकीन मसाले का तड़का लगाओ । पहले मोटी रोटी में माल भरते थे, अब चीज़ वाला, चार मंजिला बर्गर और पिज्जा खाते हैं।
Be Indian, buy Indian Chinese Food. Know Your Customer KFC.
खेल खेल में हम कहां से कहां पहुंच गए ! आज दुनिया के हर कोने में भारतीय ही छाए हुए हैं।
हर क्षेत्र में भारतीय ही तो अपना परचम लहरा रहे हैं ! 1983 के वर्ल्ड कप से आरंभ, T-20 से G-20 तक का यह सुहाना सफर हम सबने मिल जुलकर ही तो तय किया है ।
जोक्स अपार्ट, हमारा फेसबुक परिवार भी बुद्धू बक्से के किसी स्टार परिवार से कम नहीं । हम यहां लोगों से मिलते हैं, जुड़ते हैं, लेकिन बिछड़ने के लिए नहीं । हमारा यह अपना स्वदेशी तरीका है वसुधैव कुटुंबकम् का । इस कदम में आप भी हमारे साथ कदम से कदम मिलाकर चल ही रहे हैं ।
कभी हमारे कदम बहक जाएं, तो ब्लॉक अथवा अनफ्रेंड मत कर देना । संभाल लेना । आपको विश्व भारती की सौगंध ;
(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे।
हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)
☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 19 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆
तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अन्त काल रघुबर पुर जा, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
अर्थ :– आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
अपने अंतिम समय में आपकी शरण में जो जाता है वह मृत्यु के बाद भगवान श्री राम के धाम यानि बैकुंठ को जाता है और हरि भक्त कहलाता है। इसलिए सभी सुखों के द्वार केवल आपके नाम जपने से ही खुल जाते है।
भावार्थ:- भजन का अर्थ होता है ईश्वर की स्तुति करना। भजन सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। हनुमान जी और उन के माध्यम से श्री रामचंद्र जी को प्राप्त करने के लिए निष्काम भक्ति आवश्यक है। भजन कामनाओं से परे होना चाहिए। अगर आप कामनाओं से रहित निस्वार्थ रह कर हनुमान जी या श्री रामचंद्र जी का भजन करेंगे तो वे आपको निश्चित रूप से प्राप्त होंगे।
अगर आप उपरोक्त अनुसार भजन करेंगे मृत्यु के उपरांत रघुवर पुर अर्थात बैकुंठ या अयोध्या पहुंचेंगे और वहां पर आपको हरि भक्त कहा जाएगा। यहां पर गोस्वामी जी ने रघुवरपुर कहां है यह नहीं बताया है। रघुवरपुर बैकुंठ भी हो सकता है और अयोध्या भी। दोनों स्थलों में से किसी जगह पर मृत्यु के बाद पहुंचना एक वरदान है।
संदेश:- जीवन में अच्छे कर्म करो, अच्छी चीजों को स्मरण करों। इससे व्यक्ति का अंतिम समय आने पर उसे किसी भी बात का पछतावा नहीं रहता है और उसे रघुनाथ जी के धाम में शरण मिलती है।
इन चौपाइयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ :-
1-तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥
2-अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से हनुमत कृपा प्राप्त होती है। यह सभी दुखों का नाश करती है और आपका बुढ़ापा और परलोक दोनो सुधारती है।
विवेचना:-
पहली चौपाई है “तुम्हारे भजन राम को पावै,जनम जनम के दुख विसरावें”।।
इस चौपाई का अर्थ है आपका भजन करने से श्रीरामजी प्राप्त होते हैं और जन्म जन्म के दुख समाप्त हो जाते हैं। पहली बात तो यह है की भजन क्या होता है और दूसरी बात यह है कि हनुमान जी का भजन कैसे किया जाए जिससे हमें श्री राम चंद्र जी प्राप्त हो जाए।
भजन संगीत की एक विशेष विधा है। इस समय दो तरह के संगीत भारत में प्रचलित है। पहला पश्चिमी संगीत और दूसरा भारतीय संगीत। सनातन धर्म के भजन भारतीय संगीत के अंतर्गत आते हैं। भारतीय संगीत के तीन मुख्य भेद हैं शास्त्रीय संगीत,सुगम संगीत और लोक संगीत।भजन का आधार इन तीनों में से कोई एक हो सकता है। देवी और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने वाले गीतों को भजन कहते हैं।
अगर संगीत बहुत अच्छा है तो सामान्यतः उसको अच्छा भजन कहेंगे। परंतु भगवान के लिए इस संगीत का महत्व नहीं है। उनके लिए संगीत से ज्यादा आपके भाव महत्वपूर्ण हैं। संगीत, वादन, स्वर इनका जो माधुर्य होगा उससे श्रोता व गायक खुश होंगे, भगवान खुश नहीं होंगे।
श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठे अध्याय के पहले श्लोक में प्रहलाद जी द्वारा असुर बालकों को उपदेश दिया गया है:-
प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार समस्त योनियों में से केवल मानव योनि ही ऐसी है जोकि परमात्मा के पास पहुंच सकती है। यह योनि अत्यंत दुर्लभ है।
परमात्मा तक पहुंचने के लिए नियम संयम और भजन का उपयोग करना पड़ता है। आपका जीवन पवित्र होना चाहिए। पवित्र का अर्थ स्वच्छता नहीं है। मानव जीवन का मूल आत्मा है। आत्मा ने इस शरीर को धारण किया हुआ है। यह शरीर कितना साफ सुथरा है इससे आत्मा की पवित्रता पर कोई असर नहीं पड़ता है। अगर कोई भी व्यभिचारी दुराचारी साफ-सुथरे कपड़े पहन ले तो उसको हम स्वच्छ नहीं कहेंगे। हमारी मां के कपड़े अगर घर के काम करते समय गंदे भी हैं तो भी वे कपड़े हमारे लिए सबसे ज्यादा साफ कपड़े हैं। किसी भी दुराचारी के कपड़ों से ज्यादा साफ है। मां के कपड़ों में हमारी श्रद्धा है। हम उस कपड़ों को सहेज कर रखेंगे। मां के बच्चे के लिए यह कपड़ा पवित्र है। भगवान की दृष्टि में यह जीव पवित्र कब बनेगा? जीव जब धर्म के मार्ग पर चलेगा और निष्काम भक्ति रखेगा तब वह भगवान की दृष्टि से मैं पवित्र होगा।
संगीत के सात सुर हैं। सा रे ग म प ध नि सा इन्हीं सात सुरों पर पूरा संगीत टिका हुआ है। सा और रे यानी स्रोत। ग से अर्थ है हमारा गांव। अर्थात सा रे गा संगीत के तीन स्वर गांव की निश्चल धरती पर ही पाए जाएंगे। शहर की भीड़ भाड़ में जहां पर पैसे की दुकान चल रही है वहां पर संगीत के निश्चल स्वर हमें प्राप्त नहीं होंगे।
इन तीन सुरों के बाद अगला सुर “म” है। “म” का अर्थ है मानव। अब हम मनुष्य हो गए। गांव की निश्चल धरती पर संगीत के स्वर प्राप्त करने लायक हो गए। परंतु अब हमें “प” यानी पवित्र और पराक्रमी बनना है। पवित्र होने के बाद हम अब अपने देवता हनुमान जी को जानने के लायक हो गए। अगर आप “ध” धन के चक्कर में फंसे तो आप फंस गए। आप गांव के निश्चल मानव नहीं रहे। आपको तो कोई भी खरीद सकता है। थोड़ा सा वेतन, थोड़ी ज्यादा लालच देकर कोई भी आपके हृदय में परिवर्तन कर सकता है। अगर आपको ऋषियों के दिखाए हुए मार्ग से चलकर पवित्र बनना है तो आपको धन से बचना है और दूसरे “ध” यानी धर्म को अपनाना है। आपको अपना धर्म और जीवात्मा का धर्म दोनों धर्म को निभाना है। आपका अपना धर्म जैसे कि अगर आप पुत्र हैं तो पिता की आज्ञा को मानना,अगर आप सैनिक हैं तो अपने कमांडर की बात को मानना आपका धर्म है। आपके जीवात्मा का धर्म है पवित्र रास्ते पर चलकर परमात्मा से एकाकार होना।
परंतु यह कैसे होगा। आपको पवित्र रास्ते पर चलने के “नि” अर्थात नियमों को मानना पड़ेगा। पवित्र रास्ते के अंत में हमारा हनुमान बैठा हुआ है। अब हम अपने हनुमान से “सा” साक्षात्कार कर सकते हैं।
हे पवन पुत्र अब मैं आपका हूं। मैं आपके साथ जुडा हुआ हूँ। आपका हूँ अतः माँगना हो तो आप से ही माँगूँगा। अगर परिवार का कोई भी व्यक्ति पडोसी के पास माँगने जाता है तो पातकी कहलाता है और घर की बेआबरु होती है। आप तो सीताराम के दास हैं। अब श्रीराम से कुछ भी मांगना आपका काम है। मुझे कुछ भी दिलाना आपका काम है। इस प्रकार अपने को और हनुमान जी को पहचानकर जीव सब बंधनों से मुक्त होता है। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है :-
‘तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दु:ख बिसरावै।’
पवित्र संगीत की एक बहुत अच्छी कहानी है। अकबर के दरबार में तानसेन जो एक महान संगीतज्ञ थे,रहा करते थे। एक बार उन्होंने अकबर को एक बहुत सुंदर तान सुनाई। इस तान को सुनकर अकबर अत्यंत प्रसन्न हो गया। उसने कहा तानसेन जी आप विश्व के सबसे बड़े संगीतज्ञ हो। तानसेन ने उत्तर दिया कि जी नहीं, मेरे गुरु जी मुझसे अत्यंत उच्च कोटि के संगीतकार हैं। अकबर इस बात को मानने को तैयार नहीं था।अकबर ने कहा अपने गुरु जी को मेरे पास बुलाओ। तानसेन ने जवाब दिया यह संभव नहीं है। मेरे गुरु जी अपने कुटिया को छोड़कर और कहीं नहीं जाते हैं। अगर आपको उनका संगीत सुनना है तो उनके पास जाना पड़ेगा और इस बात का इंतजार करना होगा कि कब उनकी इच्छा संगीत सुनाने को होती है। अकबर तैयार हो गया।
अकबर और तानसेन दोनो वेष बदलकर गए। वहां पर जाकर इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि गुरुदेव कब अपना संगीत सुनाते हैं। एक दिन प्रात:काल के समय सूर्य भगवान का उदय हो रहा था। सूर्य भगवान अपनी लालीमा बिखेर रहे थे। पक्षियों की किलबिलाहट चल रही थी और गुरुजी भगवान गोपालकृष्ण के मंदिर में, भगवान को रिझाने के लिए तान छेड दिए थे। शुद्ध आध्यात्मिक संगीत बज रहा था। तानसेन और अकबर दोनो छुपकर गुरुजी के संगीत का आनंद लिया। बादशहा अकबर गुरुजी का संगीत सुनकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसने तानसेन से कहा कि आप बिल्कुल सही कह रहे थे। गुरुदेव का संगीत सुनने के उपरांत आपका संगीत थोड़ा कच्चा लग रहा है। अकबर ने तानसेन से पूछा इतना अच्छा गुरु मिलने के बाद भी आपके संगीत में कमी क्यों है।
तानसेन ने जो जवाब दिया वह सुनने लायक है। उसने कहा बादशाह, “मेरा जो संगीत है वह दिल्ली के बादशहा को खुश करने के लिए है, और गुरुदेव का जो संगीत है वह इस जगत के बादशाह (भगवान ) को प्रसन्न करने के लिए है। इसीलिए यह फर्क है।” अतः भजन सामने बैठी जनता की प्रसन्नता के लिए नहीं गाना चाहिए।अगर आपको हनुमान जी से लो लगाना है तो आप को पवित्र होकर हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए भजन गाना चाहिए।
इसके बाद इस चौपाई के आखरी कुछ शब्द हैं “जनम जनम के दुख विसरावें” जन्म जन्म को पुनर्जन्म भी कहते हैं।
पुनर्जन्म एक भारतीय सिद्धांत है जिसमें जीवात्मा के वर्तमान शरीर के समाप्त होने के बाद उसके पुनः जन्म लेने की बात की जाती है। इसमें मृत्यु के बाद पुनर्जन्म की मान्यता को स्थापित किया गया है। विश्व के सब से प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर वेद, दर्शनशास्त्र, पुराण, गीता, योग आदि ग्रंथों में पूर्वजन्म की मान्यता का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार शरीर का मृत्यु ही जीवन का अंत नहीं है परंतु जन्म जन्मांतर की श्रृंखला है। 84 लाख या 84 लाख प्रकार की योनियों में जीवात्मा जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगता है। आत्मज्ञान होने के बाद जन्म की श्रृंखला रुकती है; फिर भी आत्मा स्वयं के निर्णय, लोकसेवा, संसारी जीवों को मुक्त कराने की उदात्त भावना से भी जन्म धारण करता है। इन ग्रंथों में ईश्वर के अवतारों का भी वर्णन किया गया है। पुराण से लेकर आधुनिक समय में भी पुनर्जन्म के विविध प्रसंगों का उल्लेख मिलता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के कर्म योग में भगवान श्री कृष्ण भगवान ने पूर्व जन्म के संबंध में विस्तृत विवेचना की है। कर्म योग का ज्ञान देते समय भगवान श्री कृष्ण ने,अर्जुन से कहा, “तुमसे पहले यह ज्ञान मैंने सृष्टि के प्रारंभ में केवल सूर्य को दिया है और आज तुम्हें दे रहा हूं।” अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने कहा कि आपका जन्म अभी कुछ वर्ष पहले हुआ है। सूर्य देव तो सृष्टि के प्रारंभ से हैं। आप उस समय जब पैदा ही नहीं हुए थे तो सूर्य देव को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं। कृष्ण ने कहा कि, ‘तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से यह कहा :-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ५ ॥
अर्थात:- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।
गीता का यह श्लोक तो निश्चित रूप से आप सभी को मालूम ही होगा :-
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
-श्रीभगवद्गीता 2.22
जैसे मनुष्य जगत में पुराने जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नवीन शरीरों को प्राप्त करती है।
अब हम इस जन्म में जो कुछ भोग रहे हैं वह केवल आपकी इसी जन्म के कर्मों का फल नहीं है। आत्मा ने जो पिछले जन्म में कर्म किए हैं उनकी फल भी इस जन्म में भी आत्मा को प्राप्त होते हैं। हम यह देखते हैं कि कुछ लोग अत्यंत निंदनीय कार्य करते हैं परंतु उनको फल बहुत अच्छे अच्छे मिलते हैं। इसका क्या कारण है। ज्योतिष में इसको राजयोग बोला जाता है। यह भी देखा गया है किसी व्यक्ति को कुछ भी ज्ञान नहीं है। वह कई कॉलेजों के गवर्निंग बॉडी में चेयरमैन। जिस को विज्ञान के बारे में कुछ भी नहीं है वह विज्ञान के संस्थानों का नियंत्रक होता है। यह क्या है ? इसी को पूर्व जन्म का का फल कहते हैं। अब अगर आप यह चाहते हैं कि पूर्व जन्मों मैं आप द्वारा किए गए कुकर्मों का फल आपको इस जन्म में ना मिले तो आपको शुद्ध चित्त से महावीर दयालु हनुमान जी का भजन करना होगा। इस भजन के लिए आपके कंठ का बहुत अच्छा होना आवश्यक नहीं है। भाषा का अद्भुत ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है तो तो सिर्फ यह कि आप पूरे एकाग्र होकर मन वचन ध्यान से हनुमान जी का भजन गाएं। हनुमान जी और राम जी की कृपा आप पर हो और पूर्व जन्म के पाप से आप बच सके।
अगली लाइन में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है “अन्त काल रघुबर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ||”
यह लाइन पूरी तरह से इसके पहले की लाइन तुम्हारे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख विसरावें” से जुड़ी हुई है।
अगर कोई व्यक्ति एकाग्र होकर मन क्रम वचन से हनुमान जी की आराधना करेगा तो उस व्यक्ति के जनम जनम के दुख समाप्त हो जाएंगे। इसके ही आगे हैं की अंत में वह रघुवर पुर में पहुंचेगा वहां उसको हरि का भक्त कहा जाएगा। इस प्रकार मानव का मुख्य कार्य हनुमान जी का एकाग्र होकर भजन करना है। तभी उसके दुख समाप्त होंगे।जन्मों का बंधन समाप्त होगा। अंत काल में रघुवरपुर पहुंचेंगा और वहां पर उनको हरि भक्त का दर्जा मिलेगा। यहां पर समझने लायक बात यह है रघुवरपुर और हरिभक्त का पद क्या है।
अक्सर लोग इस बात को कहते हैं कि मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मुझे ऊपर जाकर जवाब देना होगा। ऊपर जाकर जवाब देने वाली बात क्या है ? हिंदू धर्म के अनुसार तो आप जो भी गलत या सही करते हैं उसका पूरा हिसाब होता है। आपकी आत्मा जब यमलोक पहुंचती है तो वहां पर आपके कर्मों का हिसाब किताब होता है। मृत्यु के 13 दिन के उपरांत आप पुनः कोई दूसरा शरीर पाते हैं या हरिपद मिलता है। आप के जितने अच्छे काम या खराब काम होते हैं उसके हिसाब से आपको पृथ्वी पर नए शरीर में प्रवेश मिलता है। अगर आपके कार्य अत्यधिक अच्छे हैं,जैसा कि पुराने ऋषि मुनियों का है,तो आपको गोलोक या रघुवरपुर में हरिपद मिलेगा। हमारे यहां ऊपर जाकर आपको जवाब नहीं देना है। रघुवर पुर को तुलसीदास जी ने स्पष्ट नहीं किया है। रघुवर पुर बैकुंठ लोक को भी कहा जा सकता और अयोध्या को भी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने बैकुंठ और अयोध्या जी दोनों को प्रतिष्ठित माना है।
रामचरितमानस में अयोध्या जी का वर्णन करते हुए कहा गया है:-
बंदउ अवधपुरी अति पावनि, सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।
यद्यपि सब बैकुंठ बखाना, वेद-पुराण विदित जग जाना।।
इस प्रकार अयोध्या जी को वैकुंठ से श्रेष्ठ कहा गया है। अगले स्थान पर अयोध्या जी में रहने वालों को भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ, यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।
अति प्रिय मोहि इहां के बासी, मम धामदा पुरी सुख रासी।।
भगवान श्रीराम भी कहते हैं कि अवधपुरी के समान मुझे अन्य कोई भी नगरी प्रिय नहीं है। यहां के वासी मुझे अति प्रिय हैं।
इस प्रकार रामचंद्र जी ने अयोध्या जी को बैकुंठ से भी श्रेष्ठ बताया है। अतः राम भक्तों के लिए मृत्यु के बाद अयोध्या में वापस जन्म लेना और हरि भक्त कहलाना सबसे बड़ा वरदान है।
अब्राहम धर्म जिसमें ईसाई धर्म और मुस्लिम धर्म आदि आते हैं इनमें मृत्यु के बाद शव को जमीन के अंदर कब्र में दफन किया जाता है। ईसाई धर्म के धर्मगुरु कहते हैं कि Last Judgment Day के दिन God हर किसी से उसके द्वारा किए गए गलत कामों का उत्तर मांगेगा। इसी प्रकार मुस्लिम धर्मगुरु कहते हैं कि कयामत के दिन यह सभी मुर्दे कब्र के बाहर आएंगे और उनसे अल्लाह मियां उनके द्वारा किए गए कामों का कारण पूछेगा।
बाइबल के अनुसार Last Judgment Day या आखिरी दिन सभी मरे हुए ज़िंदा किए जाएँगे। उनकी आत्माएं फिर से उन्हीं शरीरों से मिल जाएंगी जो मरने से पहले उनके पास थीं। बुरा काम करने वालों को खराब शरीर दिया जाएगा और अच्छे काम करने वालों को अच्छे शरीर दिए जाएंगे। अच्छे काम करने वालों की उस दिन तारीफ होगी और बुरे काम करने वालों को दंड मिलेगा।
लेकिन हिंदू धर्म में स्थिति भिन्न है। मृत्यु के 13 दिन बाद आत्मा दूसरे शरीर को धारण करती है। यह शरीर उसको उसके पहले के जन्म में किए गए कार्यों के आधार पर मिलता है। जैसे कि उसने अच्छा काम किया है उसको सुंदर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको बदसूरत शरीर जिसने अच्छा काम किया है उसको अमीर शरीर जिसने खराब काम किया है उसको गरीब शरीर आदि आदि।
इस प्रकार यह सब कुछ आप पर निर्भर है। आप इस जन्म में कितनी एकाग्रता के साथ मन क्रम वचन से हनुमान जी की विनती करते हैं, उनका भजन करते हैं,उनका पूजन करते हैं। उसी हिसाब से आपका अगला जन्म निर्धारित होगा।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 177 ☆
☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द☆
‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।
‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।
‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।
‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं… आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।
‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।
आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण… कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।
‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।
मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ईमानदारी का तावीज”।)
अभी अभी ⇒ ईमानदारी का तावीज… श्री प्रदीप शर्मा
ईमानदारी का कोई कॉपीराइट नहीं होता। सबको ईमानदार बनने का हक है। किताबों के शीर्षक और फिल्मों के शीर्षकों का भी कॉपीराइट होता है, फिर भी एक अवधि के पश्चात देवदास और दीवाना दुबारा बन ही जाती है। ईमानदारी के तावीज पर किसी और का कॉपीराइट सही,मेरी ईमानदारी मौलिक है।
गंडा-तावीज एक टोटका भी हो सकता है, मन्नत भी हो सकती है। हर तरह की बला से सुरक्षा भी हो सकती है। तावीज भूत-प्रेतों से भी रक्षा करता है। यह गले में एक इन-बिल्ट हनुमान चालीसा है, अपने आप में संकट-मोचक है।।
मनमोहन देसाई की फिल्मों में हीरो के गले में बंधा एक तावीज उसकी आजीवन रक्षा करता है, छाती पर बरसती गोली तक को वह आसानी से झेल लेता है लेकिन जब वह तावीज अपनी जगह छोड़ देता है,कयामत आ ही जाती है।
आप अपना काम कीजिए, तावीज अपना काम करेगा। उस्तादों और पहलवानों से गंडा बंधवाया जाता है। आप सिर्फ रियाज कीजिये,गंडा अपना काम करेगा। संगीत की तरह ही अब राजनीति,और साहित्य में भी गंडा-प्रथा ने अपने पाँव जमा लिए हैं।।
जब से मैंने ईमानदारी का तावीज पहना है,मेरे सभी काम आसानी से होने लग गए हैं। लोग मेरा चेहरा और आधार कार्ड तक नहीं देखते,जब ईमानदारी का इतना बड़ा चरित्र प्रमाण-पत्र गले में किसी विश्वविद्यालय की डिग्री की तरह सुशोभित है,तो फिर कैसी औपचारिकता।
जिस तरह एक ड्राइविंग लाइसेंस आपको गाड़ी चलाने की छूट प्रदान करता है,ईमानदारी का तावीज हमेशा बेईमानी और भ्रष्टाचार के लांछन से मेरा बचाव करता है। मेरी नीयत पर कोई शक नहीं करता। दुनिया मुझे दूध से धुला हुआ समझती है।।
पर हाय रे इंसान का नसीब !
मेरी पत्नी को ही मेरी ईमानदारी पर शक है। घर में हमेशा एक ही राग, और एक ही गाना गाया करती है। जा जा रे जा, बालमा ! उसे मेरे ईमानदारी के तावीज पर रत्ती भर विश्वास नहीं। वह इन ढकोसलों को नहीं मानती। उसका मानना है कि ईमानदारी व्यवहार में होनी चाहिए, दिखावे में नहीं।
आस्था और संस्कार में द्वंद्व पैदा हो गया है। वह रूढ़ि और अंध-विश्वास के खिलाफ है। गंडे तावीज लटकाने से कोई ईमानदार नहीं हो जाता ! ईमानदारी आचरण में उतारने की चीज है,गले में तमगे की तरह लटकाने की नहीं। पत्नी की बात में दम है। मैंने आव देखा न ताव ! बजरंग बली का नाम,और पत्नी की प्रेरणा से ईमानदारी का तावीज तोड़ ही डाला।ईमानदारी की देवी, जहाँ भी कहीं हो, मुझे क्षमा करे।।
मेरी पत्नी चतुर सुजान है ! मैंने कभी उसके इरादों पर शक नहीं किया। लेकिन जब रात को ही ईमानदारी का तावीज उतरवाया और सुबह एक दूसरा तावीज पहनने का आग्रह किया,तो मैं कुछ समझा नहीं !
वह बोली, कोई प्रश्न मत करो ! चुपचाप यह तावीज पहन लो।यह देशभक्ति का तावीज है। चुनाव में बहुत काम आएगा ! और उसने अपने कोमल हाथों से मुझे देशभक्ति का तावीज पहना दिया। पत्नी-भक्त तो में था ही, आज से देशभक्त भी हो गया।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ढाई आखर हम्म का “।)
अभी अभी ⇒ ढाई आखर हम्म का … श्री प्रदीप शर्मा
हमारे अक्षर ज्ञान में हमने कई ढाई आखर प्रेम से और जबरदस्ती भी सीखे हैं,विद्या,ज्ञान और शिक्षा की दीक्षा हमें ढाई आखर वाले, वर्मा, शर्मा, व्यास और मिश्रा जैसे गुरुओं से ही प्राप्त हुई है,लेकिन ढाई आखर का हम्म हमें आज तक किसी बाल भारती अथवा शब्दकोश में नजर नहीं आया।
दो अक्षर की कथा, तीन अक्षर की कहानी, और ढाई आखर की अंग्रेजी की स्टोरी भी हमने ख़ूब पढ़ी, लेकिन मजाल है कि रानी केतकी की कहानी से लेकर उसकी रोटी तक कहीं भी हमें, हम्म शब्द नजर आया हो । हमारी पूरी जिंदगी भी हम, हमारे और हमारी जैसे शब्दों से ही गुजर गई, लेकिन किसी अंग्रेजी स्टोरी में भी Hmm शब्द नजर नहीं आया ।।
आखिर आज की कथा, कहानियों और ब्लॉग में यह हम्म वाला वायरस कहां से चला आया। चावल में कंकर और रास्ते में स्पीड ब्रेकर की तरह जब किसी वाक्य में हमें हम्म पड़ा नज़र आता है,तो हम उसे उलांघकर नहीं निकल सकते । हम भी मन में एक मंत्र की तरह हम्म, गुनगुना ही लेते हैं, मानो हम्म्म, कोई टोटका हो ।
हमें बार बार बस यही खयाल आता है कि हम्म, इसकी जरूरत क्या है । हमने आज तक अपनी भाषा में इसका प्रयोग क्यों नहीं किया। क्या अवचेतन में, बोलचाल में, गलती से भी, हमारे मुंह से भी, यह ढाई आखर प्रकट हुआ है । तो जवाब यही आता है, हुंह! हम क्या जानें ।।
हमारा गूगल ज्ञान तो यह कहता है कि, हम्म Hmm का मतलब हां, हूं, yes कुछ भी हो सकता है । Hmmm एक ऐसा शब्द है जिसे हम अपने expressions को व्यक्त करने के लिए प्रयोग करते हैं। पहला कवि वियोगी कहलाता है, उसी तर्ज पर कोई तो पहला लेखक होगा, जिसने सबसे पहले पहल इस ढाई अक्षर के हम्म जैसे हथौड़े का प्रयोग किया होगा ।
जहां चाह है वहां राह है, लेकिन हम राह में इतना भी नहीं भटकना चाहते कि अर्थ का अनर्थ ही हो जाए । एक ज्ञान तो यह भी कहता है कि जब इसका प्रयोग HMM की तरह होता है तो आप इसे hug me more भी समझ सकते हैं। हम HMM के इस तरह के दुरुपयोग से पूरी तरह असहमत हैं ।।
हम अपने लेखन और व्यंग्य में ढाई आखर के इस हम्म की प्रयोग की संभावनाओं पर शोध कर रहे हैं । डा.कामिल बुल्के, भोलानाथ तिवारी अथवा डा.हरदेव बाहरी के शब्दकोश तो खैर हमारे मार्गदर्शक हैं ही, वरिष्ठ मनीषी, विद्वान एवं साहित्यविद् भी हमें आशीर्वाद और सहयोग प्रदान करेंगे, ऐसी आशा है । हम्म पे बड़ी जिम्मेदारी, देख रही दुनिया सारी ।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)
अभी अभी – कुआं और बावड़ी ००० Well & Step Well… श्री प्रदीप शर्मा
जिन्होंने दिल्ली देखी है,उन्होंने धौला कुआं और खारी बावली का नाम भी सुना होगा । मेरे शहर में भी एक ढक्कन वाला कुआं है,जहां आज न तो कोई ढक्कन है और न ही कोई कुआं,बस एक प्राइवेट बस अड्डा है,जहां से बसें आती जाती रहती हैं ।
कभी कुएं बावड़ी बनवाना और तालाब खुदवाना परमार्थ का कार्य माना जाता था। सेठ साहूकार अपने नाम से राहगीरों के लिए धर्मशालाएं,औषधालय और प्याऊ का निर्माण करते थे । आदमी पहले कुआं खुदवाता था और उसके बाद ही घर बनवाता था । गांव के किसान के खेत में भी कुआं उसकी पहली जरूरत थी । जहां नदी तालाब नहीं होते थे,वहां बावड़ियां बनवाई जाती थी ।।
हमारी देवी अहिल्या की नगरी तो पुण्य और परमार्थ की नगरी है । एक समय यहां कितने धर्मार्थ औषधालय,धर्मशालाएं, चिकित्सालय, स्कूल कॉलेज,शीतल जल की प्याऊ और सार्वजनिक वाचनालय थे ।
आज जिसे सराफा चौराहा कहते हैं,वहां कोने पर कभी वैद्य ख्यालीराम जी द्विवेदी का पारमार्थिक औषधालय तो था ही,उसी से लगी हुई एक शीतल जल की प्याऊ भी थी ।
हर चार कदम पर जहां प्यासे को पानी मिल जाए उस नगर में कभी पिपल्या पाला,सिरपुर,बिलावली और यशवंत सागर जैसे तालाब थे । आज तो बस नर्मदे हर ।।
कुएं और बावड़ी में अंतर है । कुएं में से पानी रस्सी बाल्टी से निकाला जाता था ,जब कि बावड़ी में नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां होती थीं । शायद इसीलिए कुएं को अंग्रेजी में well और बावड़ी को step well कहते थे । जब इंसान ने सीढ़ियां चढ़ना उतरना ही बंद कर दिया तो बेचारी बावड़ी भी क्या करे ।
आम आदमी के लिए अगर कुआं था,तो महलों में बावड़ियां होती थीं । एक मंजिल नहीं,कई मंजिल गहरी ,सीढ़ियों वाली बावड़ियां । इंसान का बस चलता तो वह पाताल तक सीढियां बनाकर पानी ले आता ।।
जब उसका बस नहीं चला तो उसने कुएं और बावड़ियों में मोटर लगवा ली । बढ़ती जनसंख्या और घटते जल स्तर के कारण जब कुएं सूखने लगे,तब इंसान आसमान में सूराख करने से तो रहा,उसने धरती में ही सूराख करना शुरू कर दिया । पहली स्टेप,well और step well की जगह पहले हैंड पंप और बाद में ,
घर घर धड़ल्ले से ट्यूबवेल खुदने लगे ।
जो इंसान पहले सीढ़ियों से
चढ़ता उतरता था,उसने अपने चढ़ने के लिए तो लिफ्ट लगा ली और जमीन के अंदर से पानी ऊपर लाने के लिए सबमर्सिबल पंप । हमारी धरती माता के प्रति सब mercy एक तरफ,पहले bore well तत्पश्चात् सबमर्सिबल ।।
होगा कभी किसी कुएं का पानी मीठा,आज का ट्यूबवेल का पानी तो बर्तन भी खराब करता है और पीने लायक नहीं रहता ।
कहीं pure it तो कहीं प्यूरीफायर,कहीं एक्वागार्ड तो कहीं हेमा मालिनी का
KENT. शुद्ध पानी,सेंट परसेंट ।
आज शहरों के अधिकांश पुराने कुएं और बावड़ियां जमींदोज़ हो चुकी हैं । हमारे रामबाग के एक घर के कुएं को मिट्टी में मिलाने का पाप हमारे भी सर है ।
कितनी बावड़ियों पर हमने बाद में मकान और भवन बनते देखे हैं । गोराकुंड पहले क्या था,सब जानते हैं ।।
हमारे शहर में, ऐन रामनवमी के पर्व पर जो हृदय विदारक हादसा हुआ है,वहां भी दुर्भाग्य से एक जीती जागती,पानी से भरी बावड़ी ही थी ।
इंसान अपने सोर्स ऑफ़ इनकम को बढ़ाने के लिए लालच के अंधे कुएं में भी जाने को तैयार है । वह परमार्थ की सीढ़ियां तो नहीं चढ़ना चाहता लेकिन पाप की सीढ़ियां अगर पाताल तक जा रही हों,तो वहां तक भी उतरने को आमादा है ।।
कुएं,बावड़ी,तालाब हमारी प्राकृतिक धरोहर हैं,नगर महानगर बनते की होड़ में आसपास के गांवों में भी अतिक्रमण करने लगे हैं ।
हमारे भू माफिया गांव के नियम कायदों का गलत फायदा उठाकर प्रशासन की आंखों में धूल झोंककर वहां भी आधुनिक आलीशान महल तैयार करते चले जा रहे हैं । लोकतंत्र में राजसी जीवन तो संभव है,लेकिन कहीं परमार्थ का अता पता नहीं । इसे ही शायद हमारी मालवी भाषा में कुएं में भांग और हरियाणवी में बावली बूच कहते हों ।।